Saturday, 28 October 2017
गायत्री द्वारा सन्ध्या- वन्दन
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गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि
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कुछ ऐसे कार्य हैं जिनका नित्य करना मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है, ऐसे कर्मों को नित्य- कर्म कहते हैं। नित्य- कर्मों के उद्देश्य हैं, १- आवश्यक तत्वों का संचय २- अनावश्यक तत्वों का त्याग। शरीर को प्रायः नित्य ही कुछ न कुछ नई आवश्यकता होती है। प्रत्येक गतिशील वस्तु अपनी गति को कायम रखने के लिए कहीं- न से नयी शक्ति प्राप्त करती है, यदि वह न मिले तो उसका अन्त हो जाता है। रेल के लिए कोयला- पानी, मोटर के लिए पेट्रोल, तार के लिए बैटरी, इञ्जन के लिए तेल, सिनेमा के लिए बिजली की जरूरत पड़ती है। पौधों का जीवन खाद- पानी पर निर्भर रहता है। पशु- पक्षी, कीट- पतङ्ग, मनुष्य आदि सभी प्राणियों को भूख प्यास लगती है। अपनी- अपनी प्रकृति के अनुसार अन्न, जल, वायु लेकर वे जीवन धारण करते हैं यदि आहार न मिले तो शरीर यात्रा असम्भव है। कोई भी गतिशीलता को कायम रखने के लिए आहार अवश्य चाहिए ।।
इसी प्रकार प्रत्येक गतिशील पदार्थ में प्रतिक्षण कुछ न कुछ मल बनता रहता है, जिसे जल्दी- जल्दी साफ करने की आवश्यकता पड़ती है। रेल में कोयले की राख, मशीनों में तेल की चीकट जमती है। शरीर में प्रतिक्षण मल बनता है और वह गुद, शिश्न, नाक, मुख, कान, आँख, त्वचा आदि के छिद्रों द्वारा निकलता रहता है। यदि मल की सफाई न हो तो देह में इतना विष एकत्रित हो जायगा कि दो- चार दिन में ही जीवन- संकट उपस्थित हुए बिना न रहेगा। मकान में बुहारी न लगाई जाय, कपड़ों को न धोया जाय, बर्तन को न मला जाय, शरीर को स्नान न कराया जाय तो एक- दो दिन में ही मैल चढ़ जायगा और गन्दगी, कुरूपता, बदबू, मलीनता तथा विकृति उत्पन्न हो जायगी।
आत्मा सबसे अधिक गतिशील और चैतन्य है, उसे भी आहार की और मल- विसर्जन की आवश्यकता पड़ती है। स्वाध्याय सत्संग, आत्म- चिंतन, उपासना, साधना आदि साधनों द्वारा आत्मा को आहार प्राप्त होता है और बलवान्, चैतन्य तथा क्रियाशील रहती है। जो लोग इन आहारों से अपने अन्तःकरण को वञ्चित रखते हैं और सांसारिक झंझटों में ही हर घड़ी लगे रहते हैं उनका शरीर चाहे कितना मोटा हो, धन- दौलत कितनी ही जमा हो जाय पर आत्मा भूखी ही रहती है। इस भूख के कारण वह निस्तेज, निर्बल, निष्क्रिय और अर्धमूर्छित अवस्था में पड़ा है। इसलिये शास्त्रकारों ने आत्म- साधना को नित्यकर्म में शामिल करके मनुष्य के लिए उसे एक आवश्यक कर्तव्य बना दिया है ।।
आत्मिक साधना में आधार- प्राप्ति और मल- विसर्जन के दोनों महत्त्वपूर्ण कार्य समान रूप से होते हैं। आत्मिक भावना विचारधारा और अवस्थिति को बलवान, चैतन्य एवं क्रियाशील बनाने वाली पद्धति को साधना कहते हैं। यह साधना उन विकारों, मलों एवं विषों की भी सफाई करती है, जो सांसारिक विषयों और उलझनों के कारण चित्त पर बुरे रूप से सदा ही जमते रहते हैं। शरीर को दो बार स्नान कराना, दो बार शौच जाना, आवश्यक समझा जाता है। आत्मा के लिए भी यह क्रियायें दो बार होनी आवश्यक हैं, इसी को संध्या कहते हैं। शरीर से आत्मा का महत्त्व अधिक होने के कारण त्रिकाल संध्या की साधना का शास्त्रों में वर्णन है। तीन बार न बन पड़े तो प्रातः- सायं दो बार से भी काम चलाया जा सकता है ।। जिनकी रूचि इधर बहुत ही कम है, वे भी एक बार तो कम से कम यह समझकर करे कि सन्ध्या हमारा आवश्यक नित्यकर्म है, धार्मिक कर्तव्य है। उसे न करने से पाप- विकारों का जमाव होता रहता है और भूखी आत्मा निर्बल होती चलती है, यह दोनों ही बातें पाप कर्मों में शुमार हैं। अतएव पातकभार से बचने के लिये भी संध्या को हमारे आवश्यक नित्यकर्मों में स्थान मिलना उचित है।
सन्ध्यावन्दन की अनेक विधियाँ हिन्दू धर्म में प्रचलित है। उन सबमें सरल, सुगम, सीधी एवं अत्यधिक प्रभावशाली उपासना गायत्री मन्त्र द्वारा होने वाली ‘ब्रह्मसन्ध्या’ है। इसमें केवल एक ही गायत्री मन्त्र याद करना होता है। अन्य सन्ध्या विधियों की भाँति अनेक मन्त्र याद करने और अनेकों प्रकार के विधि- विधान याद रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।।
सूर्योदय या सूर्यास्त समय को सन्ध्याकाल कहते हैं यही समय सन्ध्यावन्दन का है।
सुविधानुसार इससे थोड़ा आगे- पीछे भी कर सकते हैं। त्रिकाल सन्ध्या करने वालों के लिए तीसरा समय मध्याह्नकाल का है। नित्यकर्म से निवृत्त होकर शरीर को स्वच्छ करके सन्ध्या पर बैठना चाहिए, उस समय देह पर कम से कम वस्त्र होने चाहिए। खुली हवा का एकांत स्थान मिल सके तो सबसे अच्छा अन्यथा घर का ऐसा भाग तो चुनना ही चाहिए, जहाँ कम खटपट और शुद्धता रहती हो। कुश का आसन, चटाई, टाट या चौकी आदि बिछाकर पालथी मारकर मेरूदण्ड सीधा रखते हुए सन्ध्या के लिए बैठना चाहिए। प्रातःकाल पूर्व की ओर, सायंकाल को पश्चिम की ओर मुँह करके बैठना चाहिए। पास में जल का भरा पात्र रख लेना चाहिए ।। सन्ध्या के पाँच कर्म हैं, उनका वर्णन नीचे किया जाता है।
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