Wednesday, 25 October 2017
शंकर के हृदय से ’सौन्दर्य लहरी
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जब शंकर के हृदय से ’सौन्दर्य लहरी’ फूट पड़ी थी
0 Himanshu Kumar Pandey June 13, 2012
शंकराचार्य की दिग्विजय यात्रा का एक प्रसंग जब सौन्दर्य लहरी की रचना हुई
सौन्दर्य लहरी-8
सौन्दर्य लहरी-7
सौन्दर्य लहरी-6
यह कथा प्रसंग भारतीय विद्या भवन की पत्रिका ’भारती’ के वर्ष ९, अंक १२ (७ फरवरी १९६५) के अंक से साभार प्रस्तुत है। पिताजी की संग्रहित पुरानी पत्रिकाओं के अध्ययन क्रम में इसे पाया मैंने और सौन्दर्य लहरी का हेतु-प्रसंग होने से (क्योंकि सौन्दर्य लहरी का हिन्दी काव्यानुवाद इस चिट्ठे पर क्रमशः प्रकाशित हो रहा है) इसे यहाँ प्रस्तुत करना ठीक जान पड़ा। इस प्रसंग के लेखक हैं श्री नरेश चन्द्र मिश्र। लेखक और पत्रिका दोनों से अनुमति नहीं ले सका हूँ, सो क्षमाप्रार्थी।
आचार्य शंकर की दिग्विजय का एक मर्मस्पर्शी प्रसंग
"प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण चाहते हो संन्यासी?" तांत्रिक अभिनव शास्त्री का क्रुद्ध स्वर शास्त्रार्थ सभा में गूँजा, तो उपस्थित पंडित वर्ग में छूट रही हल्की वार्ता की फुहारें भी शांत हो गयीं।
"प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं आचार्य, शास्त्रार्थ में प्रत्यक्ष है तर्क और प्रमाण है प्रतितर्क", युवा संन्यासी शंकर आत्मविश्वास भरी हँसी हँस पड़े, "तर्क नहीं तो सारी कल्पना व्यर्थ है, ऐसी स्थिति में पराजय पत्र पर हस्ताक्षर ही उचित होगा।"
"मैं हस्ताक्षर करूँ, पराजय पत्र पर? मदांध युवक।" उत्तरीय झटक कर अभिनव शास्त्री क्रोधपूर्वक त्रिपुंड के स्वेद विन्दु पोंछने लगे। "ये बाहुएँ पराजय पत्र लिखेंगी जिनके द्वारा हवन कुण्ड में एक आहुति पड़े, तो आर्यावर्त में खंड प्रलय का हाहाकार मच सकता है। यह मस्तक पराजय वेदना से झुकेगा, जो अपनी तंत्र साधना के अहम् से त्रिलोक को झुकाने की सामर्थ्य रखता है?"
"स्पष्ट ही यह सारा प्रलाप आहत मान का प्रण भरने के लिए है, आचार्य! किन्तु शंकर को इससे भय नहीं। उसे तो शास्त्रार्थ में पराजित विद्वान से पराजय पत्र प्राप्त करने में ही..."
"दे सकता हूँ, तू चाहे तो वह भी दे सकता हूँ," अभिनव शास्त्री झंझा में पड़े बेंत की तरह काँप रहे थे, "किंतु समस्त पंडित जन ध्यानपूर्वक सुनें, मेरा यह पराजय-पत्र इस जिह्वापटु, तर्क दुष्ट, पल्लव ग्राहि मुंडित के समक्ष तब तक तंत्रशास्त्र की पराजय के रूप में न लिया जाय......."
"कब तक आचार्य श्रेष्ठ?" शंकर के मुख पर अभी भी व्यंग्य की सहस्रधार फूट रही थी। "
"जब तक मेरा तंत्र रक्त से इस पराजय पत्र का कलंक लेख न धो डाले।"
"स्वीकार है, किंतु अभी तो उस ’कलंक लेख’ पर हस्ताक्षर कर ही दें तंत्राचार्य?"
युवक शंकर ने उपस्थित पंडित वर्ग के चेहरे पर अपने लिए त्रास और भय की भावना पढ़कर भी अपना हठ न छोड़ा।
आश्रम का सारा वातावरण पीड़ा और निराशा भरी मृत्यु का साकार रूप बन गया। कुशासन पर पट लेटे योगी शंकराचार्य के मुँह से निकली आह नश्वर सांसारिक वेदना की क्षतिक विजय का घोष कर रही थी। वैद्यों, शल्य शास्त्रियों ने उन्हें देखकर निराश भाव से सर हिला दिया। शास्त्रार्थ में अभिनव शास्त्री का मन मर्दन करने के दूसरे ही दिन भगन्दर का जो पूर्वरूप प्रकट हुआ, वह अब योगी शंकर को असाध्य सांघातिक उपासर्गों के यमदूतों द्वारा धमका रहा था।
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