Sunday, 29 October 2017
कर्मकांड संबंधी शंकानिरसन
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कर्मकांड संबंधी शंकानिरसन
January 14, 2017
अध्यात्म की सैद्धांतिक भाग का कितना भी अभ्यास करें, तब भी मन की शंकाओं का निरसन न होने पर साधना ठीक से नहीं होती है । इस दृष्टि से गांव-गांव के जिज्ञासु और साधकों के मन में सामान्यत: निर्माण होनेवाले अध्यात्मशास्त्र की सैद्धांतिक और प्रायोगिक भाग की शंकाओं का सनातन संस्था के प्रेरणास्थान प.पू. डॉ. जयंत आठवले ने निरसन किया है । ‘शंकानिरसन’ इस स्तंभ से प्रश्नोत्तर के रूप में यह सर्व ही पाठकों के लिए उपलब्ध कर रही है । इसका अभ्यास कर अधिकाधिक जिज्ञासु उचित साधना आरंभ करें और अपने जीवन का खरे अर्थ में सार्थक कर लें, यही श्रीकृष्ण के चरणों में प्रार्थना है !
कर्मकांड साधना का प्राथमिक परंतु अविभाज्य भाग है । कर्मकांड में पालन करने योग्य विविध नियम, आचरण कैसे होना चाहिए, इस विषय में अनेक लोगों को जानकारी होती है; परंतु उसके पीछे का कारण और शास्त्र के विषय में हम अनभिज्ञ होते हैं । प्रत्येक कृति के पीछे का शास्त्र ध्यान में रखने से भगवान पर श्रद्धा बढने में सहायता होती है । इस दृष्टि से पूछे गए विविध प्रश्नों के उत्तर इसमें दिए हैं ।
प्रश्न : स्त्रियां गुरुचरित्र का वाचन न करें, गायत्रीमंत्र न बोलें, इसके पीछे क्या कारण है ?
उत्तर : वर्तमान काल में स्त्रियां पुरुषों समान आचरण करने का प्रयत्न करती हैं । हमें भी पुरुषों समान अधिकार चाहिए, ऐसा कहते हुए वे लडती हैं । दोनों की देह तो भिन्न है । पुरुषों की जननेंद्रीय बाहर की ओर हैं, जबकि स्त्रियों की अंदर की ओर हैं, उदा. गर्भाशय । कोई भी साधना तपश्चर्या है, तप है, उससे उष्णता निर्माण होती है । उसका पुरुषों की जननेंद्रियों पर कोई परिणाम नहीं होता; इसलिए कि वे बाहर की ओर होती हैं । हवा लगती रहती है । इससे उनका तापमान अल्प होता है; परंतु स्त्रियों की जननेंद्रीय अंदर की ओर होने से अधिक तापमान में अधिक समय कार्य नहीं कर सकती हैं । इसलिए गायत्री की अथवा ओंकार की साधना, सूर्याेपासना ऐसी तीव्र साधना करने से लगभग २ प्रतिशत स्त्रियों को गर्भाशय के विकार आरंभ हो जाते हैं । स्त्रीबीज निर्माण करनेवाली जो ग्रंथियां हैं, उनके विकार आरंभ हो जाते हैं । माहवारी के समय कोई न कोई कष्ट अवश्य होता है । गुरु ने यदि किसी को इस प्रकार की साधना बताई, तो प्रश्न ही नहीं उठता; इसलिए कि गुरु को सब पता ही होता है, किसे क्या करना आवश्यक है । किसी कारणवश शरीर को कोई विकार हो जाए, तो प्रतिजैविक लेकर वह ठीक कर सकते हैं; परंतु इन शक्तियों के कारण कुछ कष्ट निर्माण होने पर वहां वैद्य कोई सहायता नहीं कर सकते हैं । इसलिए वैसा करने की अपेक्षा अपनी परंपरा के अनुसार ही करना चाहिए । अर्थात भगवान के नाम के आगे ॐ लगाना टालें ‘ॐ नमः शिवाय ’ के स्थान पर केवल ‘नमः शिवाय’ बोलें । गायत्री की उपासना करना टालें ।
प्रश्न : हम रूढिप्रिय होेते हैं और रूढि के अनुसार दादा, परदादा अथवा अपने से पूर्व की पीढियों ने जो बताया है, उसप्रकार हम कुछ करते हैं । साधक की दृष्टि क्या यह योग्य है ?
उत्तर : रूढि को कोई अर्थ नहीं होता । शास्त्र में जो है, उसी प्रकार करना चाहिए । शास्त्र का अर्थ है ‘साइन्स’ । जो बात प्रमाणसहित सिद्ध की गई होती है, वह पुनःपुन: सिद्ध की जा सकती है; परंतु अनेक कुटुंबों में रूढि शास्त्र से भी अधिक बलवान होती है । ऐसे में यदि हम शास्त्र बताने गए, तो कोई सुनेगा नहीं । उसके स्थान पर जो वे करते हैं, उन्हें वैसे करने देना है । एक बार उनका साधना पर विश्वास हो जाए, तो वे हमारे शब्दों पर विश्वास रखेंगे । शब्दप्रमाण निर्माण होने पर, हम बता सकते हैं कि वह रूढि है । तब तक बताना टालें ।
प्रश्न : क्या गुरुपुष्यामृत के दिन सत्यनारायण की पूजा करें ?
उत्तर : सत्यनारायण की पूजा, यह एक रुढि का भाग है । गत सौ वर्षों से वह हमारे पास आ गई है । धर्मशास्त्र में उसका उल्लेख नहीं है । बंगाल से वह हमारे पास आई है । धर्मशास्त्र में नियम बताए गए हैं । पंडितजी हमें बताते हैं कि इस विधि के लिए यह योग अच्छा है, अथवा दिन अच्छा है, नक्षत्र अच्छा है, उस प्रकार वह विधि करनी चाहिए । भक्तिभाव से करने पर कोई बंधन नहीं होता, कोई भी विधि कभी भी करें ।
प्रश्न : कहते हैं कि गांव में गणपति बिठाए हैं, तो अन्यत्र बिठाने की आवश्यकता नहीं है । इसके पीछे क्या शास्त्र है ?
उत्तर : यह प्रथा अत्यंत अयोग्य है । जहां-जहां अलग रसोई बनती है, वहां पर अलग-अलग देवघर होना चाहिए । केवल बडा भाई ही भगवान का सर्व करता है, तो भगवान भी सब कुछ केवल बडे भाई के लिए ही करेंगे औरों के लिए कुछ नहीं करेंगे ।
प्रश्न : पंचायतन देवताओं के विषय में देवघर में रचना कैसे करनी चाहिए ? कुलदेवता की मूर्ति की रचना करते समय क्या श्री गणेश की मूर्र्र्र्ति मध्य में रखना आवश्यक है ?
उत्तर : अपने यहां लोग पागलपन करते हैं । कोई जब किसी गांव अथवा तीर्थक्षेत्र जाता है, तो वहां से लौटते समय सभी सगे-संबंधियों के लिए आस-पडोस में रहनेवालों के लिए चित्र व मूर्तियां ले आता है और सभी में बांटता है । हम उस मूर्ति को देवघर में रख देते हैं ।
एक जिले में सत्संग के लिए आनेवाली एक महिला के सात घंटे केवल पूजा करने में जाते थे । उसे रात में दो बजे उठकर सब करना पडता था, तब कहीं ९ बजे तक सर्व पूर्ण होती थी । इसमें धार्मिकता, श्रद्धा, भाव कुछ भी नहीं था । हमारी दृष्टि से दो-चार भगवान ही महत्त्वपूर्ण हैं । उनकी ही प्रतिमा अथवा मूर्ति देवघर में रखनी चाहिए । कुलदेव और कुलदेवी, विवाह के समय मायके से लाई हुई अन्नपूर्णा माता की मूर्ति; कुछ कुल में हनुमानजी का विशेष महत्त्व है इसलिए एक उनकी मूर्ति । ऐसे दो-चार देवता पर्याप्त हैं । पहले की पीढी को अन्नपूर्णा माता की मूर्ति को देवघर में रखने की आवश्यकता नहीं थी; इसलिए कि अन्नपूर्णा तत्त्व है । ‘अनेक से एक में जाना’, यह साधना का पहला नियम है ।
‘मुंबई के एक डॉक्टर मित्र ने मुझे (प.पू. डॉ. जयंत आठवले को) एक बार अपने घर पर बुलाया । उनके घर पहुंचने पर मैंने कहा, ‘‘यह आपका कक्ष है न, उसके उस सिरे से कुछ बुरा-सा लग रहा है । इस पर वे बोले, ‘‘अरे डॉक्टर, ऐसे क्या कहते हैं, वहां तो हमारा देवघर है ।’’ मैंने अंदर जाकर देखा, तो उस स्थान पर २५ – ३० देवताओं की मूर्तियां और प्रतिमा रखीं थीं । जहां देवता की मूर्तियां अथवा प्रतिमा है, वहां उस देवता का ‘शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और शक्ति’ एकत्र होती है । हम सभी को केवल शब्द और रूप ज्ञात होता है । भगवान की हम उपासना करते गए, कि उनके दर्शन होते हैं । जिसने पदार्थ विज्ञान का अभ्यास किया है, उन्हें प्रत्येक वस्तु में विद्यमान शक्ति के बारे में पता होता है । दो शक्तियों के एकत्र आने पर उनका परिणाम होता है, और कोई नई शक्ति निर्माण होती है । उस देवघर में अनेक देवता किसी भी प्रकार रखने से उसके परिणामस्वरूप कष्टदायी शक्ति निर्माण हुई थी ।
देवघर में उपरोक्त बताए अनुसार आवश्यक देवता ही रख कर, शेष या तो समीप ही स्थित किसी मंदिर में दान दें अथवा उन्हें विसर्जन कर दें । इससे कुछ भी नहीं बिगडेगा । जिसे गुरुप्राप्ति हो चुकी हो, वे केवल गुरु का ही छायाचित्र देवघर में रखें । हम कुटुंब में रहते हैं और एक ही पूजा घर है, तो घर के अन्य सदस्यों का भी विचार करें । उनके लिए कुल मिलाकर चार-पांच देवता पूजाघर में रखें । परंतु यदि हम पर समय आया तो तुरंत सभी की पूजा करनी है । शंकराचार्य जिस काल में पंचायतन लाए, उसी काल में गणेशजी को भी लाए । पूर्व में शैव और वैष्णव संंप्रदायों में बहुत झगडे होते थे । तब उनमें समन्वय साधने हेतु शंकराचार्यजी ने शंकर और विष्णु को नहीं; अपितु पहला मान श्री गणेश को देना निश्चित किया ।
गणेशजीकी विशेषता है । हम जो बोलते हैं, वह नाद भाषा है । देवताओं की प्रकाश भाषा होती है और श्री गणेशजी को दोनों भाषाएं आती हैं; इसलिए श्री गणेश ‘दुभाषिए’ का काम करते हैं । व्यासजी को पुराण लिखना था । उस समय उन्हें विचारों के स्तर पर सूझनेवाला था, इसलिए विचारों की गति ग्रहण कर, उसी गति से लिखे जाने की आवश्यकता थी । इसके लिए उन्होंने श्री गणेशजी को चुना । मानसिक दृष्टि से पंथों का एकत्रीकरण और आध्यात्मिक दृष्टि से प्रकाश और नाद भाषा का रूपांतर करना, इन दोनों बातों के कारण श्री गणेशजी को पूजाघर के मध्यभाग में स्थान दिया था । श्री गणेशजी की एक ओर पुरुषवाचक देवता, उदा. कुलदेव, हनुमान और बाएं ओर स्त्रीवाचक देवता, उदा. कुलदेवी, अन्नपूर्णा ।
पूजा के समय पुरोहित पत्नी को पति की बार्इं ओर, तो कभी दार्इं ओर बैठने के लिए कहते हैं । उपासना के लिए शक्ति चाहिए तो पत्नी को दार्इं ओर बिठाते हैं और शक्ति विरहित पूजा करनी हो, तब पत्नी को बाएं बिठाते हैं । शक्ति संप्रदाय में पूर्णत: इसके विपरीत देवताओं की रचना होती है । हम सभी भक्तिमार्गानुसार साधना करनेवाले हैं । उसमें हमें शक्ति नहीं, अपितु हमें शक्ति को नष्ट कर शिव की अनुभूति लेनी है; इसलिए हम पुरुषवाचक देवताओं को अपने दार्इं ओर रखते हैं ।
संदर्भ : सनातन-निर्मित दृश्यश्रव्य चक्रिका ‘अध्यात्मसंबंधी शंकानिरसन’
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