Saturday 28 October 2017

सोऽहं साधना

All World Gayatri Pariwar Books गायत्री की उच्चस्तरीय... सोऽहं साधना का... 🔍 INDEX गायत्री की उच्चस्तरीय पाँच साधनाएँ सोऽहं साधना का तत्वज्ञान और विधि-विधान   |     | 1  |     |   READ SCAN जीवात्मा जिन पांच आवरणों में आबद्ध है गायत्री उपासना में उनका दिग्दर्शन पांच कोशों के रूप में कराया जाता है। गायत्री को कहीं-कहीं पंचमुखी चित्रित किया जाता है उसका अभिप्राय यही है कि आत्मा पांच आवरणों से ढका हुआ है। जो उन्हें समझ लेता है, उनका अनावरण कर लेता है वह आत्म-सत्ता भगवती गायत्री का साक्षात्कार करता है। इसी श्रृंखला की पुस्तक ‘‘गायत्री पंचमुखी और एकमुखी में’’ इस पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। साधना विधान का जिक्र आने पर यह कहा गया है कि यह उच्चस्तरीय साधनाएं यद्यपि साधक को सामान्य उपासक की अपेक्षा बहुत अधिक और शीघ्र लाभान्वित करती हैं तथापि यह पूर्णतया निरापद नहीं, कुछ विधान तो ऐसे होते हैं जो परमाणु-विखंडन की तरह क्षणभर में अभूत शक्ति-भंडार उपलब्ध करा देने वाले हैं पर विज्ञान के विद्यार्थी जानते होंगे कि मैडम म्यूरी की मृत्यु ऐसे ही एक कठिन प्रयोग करते समय हो गई थी। उच्चस्तरीय साधनाओं की इसी कठिनाई को पार करने के लिए प्राचीनकाल से आरण्यक परम्परा रही है। उच्च-स्तरीय साधना के इच्छुक इन आरण्यकों में रहकर योग्य मार्ग-दर्शकों के सान्निध्य-संरक्षण में यह साधनाएं सम्पन्न किया करते थे यह परम्परा आज यद्यपि रही नहीं तथापि वह स्थान अपने स्थान पर ज्यों के त्यों है। आज न तो उस तरह के आरण्यक रहे न मार्ग-दर्शक सद्गुरु। इस तरह के सुयोग कहीं उपलब्ध भी हो तो इस व्यस्त और अभावग्रस्त युग में हर किसी को इतना समय और सुविधा भी नहीं रहती कि वे दीर्घकाल तक बाहर रह कर साधनाएं कर सकें। इस कठिनाई का एक हल उन निरापद साधनाओं के प्रशिक्षण द्वारा किया जा रहा है जिन्हें कोई भी व्यक्ति सामान्य गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को निबाहते हुये भी घर पर ही रहकर कर सके। तीन प्राणायामों का उल्लेख ‘‘गायत्री की प्रचंड प्राण ऊर्जा’’ पुस्तक में किया गया है। गायत्री कुण्डलिनी अथवा पंचकोशों का अनावरण नाम कोई भी लें वस्तुतः यह सभी प्राण साधनाओं के ही पर्याय हैं। पंचाग्नि विद्या भी उसे ही कहते हैं, सावित्री साधना भी प्राण साधना का ही दूसरा नाम है। स्पष्टतः प्राणायाम-साधना की भूमिका इन साधनाओं में प्रमुख रहती है अन्य साधनाओं के पांच विधान भी ऐसे हैं जिनका अभ्यास कोई भी व्यक्ति घर पर रहकर भी कर सकता है—यह हैं (1) गायत्री का अजपा-जप या सोऽहं साधना (2) खेचरी मुद्रा (3) शक्ति चालिनी मुद्रा (4) त्राटक साधना तथा (5) नादयोग। इन पांच साधनाओं में सोऽहं साधना या हंसयोग की महत्ता सर्वाधिक है। प्राणायाम के दो आधार है एक श्वास, प्रश्वास क्रिया का विशिष्ट विधि-विधान कृत्य उपकर्म द्वारा मंथन। दूसरा प्रचंड संकल्प शक्ति द्वारा उत्पन्न चुम्बकत्व के सहारे प्राण-चेतना को खींचने और धारण करने का आकर्षण। मंथन और आकर्षण का द्विविधि समन्वय ही प्राणयोग का उद्देश्य पूरा करता है। इनमें से किसी एक को ही लेकर चला जाय तो ध्यानयोग का अभीष्ट उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। गहरी सांस लेना-डीप ब्रीदिंग—फेफड़ों का व्यायाम भी है। इसकी कई विधियां शरीर शास्त्रियों ने ढूंढ़ निकाली हैं और उनका उपयोग स्वास्थ्य लाभ के लिये किया है। अमुक विधि से दौड़ने से—दण्ड-बैठक, सूर्य नमस्कार आदि क्रियाएं करने से भी यह प्रयोजन एक सीमा तक पूरा हो जाता है और इससे फेफड़े मजबूत होने के साथ-साथ स्वास्थ्य सुधारने में सहायता मिलती है। इस श्वास-क्रिया की विविधता का साधना विज्ञान में चौंसठ प्रकार के विधानों में वर्णन है। भारत से बाहर इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार की विधियों का प्रचलन है। यह प्राणायाम का एक भाग भी है और इससे उसका स्वास्थ्य सम्वर्धन वाला प्रयोजन पूरा होता है। दूसरा पक्ष संकल्प है। जिसके निमित्त अमुक मंत्रों का उच्चारण, अमुक आकृतियों का-अमुक ध्वनियों का ध्यान जोड़ा जाता है। इस ध्यान में दिव्य चेतना शक्ति के रूप में प्राणतत्व के शरीर में प्रवेश करने की आस्था विकसित की जाती है आस्था का चुम्बकत्व संकल्प का आकर्षण मात्र कल्पना की उड़ान नहीं है। विचार विज्ञान के ज्ञाता समझते हैं कि संकल्प कितना सशक्त तत्व है। उसी आधार पर समूचा मनःसंस्थान, मन-बुद्धि चित्त अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय काम करता है और उसी से शरीर की विविध-विधि क्रियाओं की हलचलें गतिशील होती हैं। शरीर और मन के संयोग से ही कर्म बनते हैं और उन्हीं के भले-बुरे परिणाम सुख-दुःख के—हानि-लाभ के रूप में सामने आते रहते हैं। संक्षेप में यहां जो कुछ भी बन बिगड़ रहा है वह संकल्प का ही फल है। प्राणी अपने संकल्प के अनुरूप ही अपना स्तर बनाते, बढ़ाते और बदलते हैं। समष्टि के संकल्प से सर्वजनीन वातावरण बनता है। ब्रह्म के संकल्प से ही इस विश्व के सृजन, अभिवर्धन एवं परिवर्तन का क्रम चल रहा है। असंतुलन को संतुलन में बदलने की आवश्यकता जब ब्रह्म चेतना को होती है तब उसका संकल्प ही अवतार रूप में प्रकट होता है और अभीष्ट प्रयोजन पूरा करके चला जाता है। योगाभ्यास में जिस श्रद्धा-विश्वास को आत्मिक प्रगति का आधार स्तम्भ माना गया है वह तथ्यतः भावभरा सुनिश्चित संकल्प भर ही है। साधनात्मक कर्मकाण्डों की शक्ति अधिक से अधिक एक चौथाई मानी जा सकती है। तीन चौथाई सफलता तो संकल्प की प्रखरता पर अवलम्बित रहती है। संकल्प शिथिल हों तो कई तरह के क्रिया-कृत्य करते रहने पर भी योग साधना के क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि अर्जित न की जा सकेगी। प्राणायाम का प्राण यह संकल्प ही है। योग-कृत्य तो उसका कलेवर भर है। सफल प्राणयोग के लिए जहां निर्धारित विधि-विधान को तत्परता-पूर्वक क्रियान्वित करना पड़ता है वहां संकल्प को भी प्रखर रखते हुए उस साधना को सर्वांगपूर्ण बनाना पड़ता है। प्राणायामों के विधान एवं स्वरूप अनेक हैं। इनमें से हमें दो ही पर्याप्त जंचे हैं। एक वह जो आत्म-शुद्धि के षटकर्मों में सामान्य रूप से किया जाता है जो सर्व सुलभ और बाल कक्षा के छात्रों तक के लिए सुविधाजनक हैं। उसमें श्वास पर नियंत्रण किया जाता है। धीरे-धीरे भरपूर सांस खींचना- जब तक रोका जा सके रोकना—धीरे-धीरे वायु को बाहर निकालना और फिर कुछ समय सांस को बाहर रोके रहना—बिना सांस लिये ही काम चलाना। वह प्राणायाम इतना भर है। उससे मनोनिग्रह की तरह श्वास निग्रह का एक बड़ा प्रयोजन पूरा होता है। मन के निग्रह का प्राण-निग्रह के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राण-निग्रह करने वाले के लिए—प्राणायाम साधक के लिए मनो-निग्रह सरल पड़ता है। उस प्राणायाम में प्राण तत्व का शरीर में प्रवेश, स्थापन, विकास, स्थिरकरण हो रहा है, ऐसी भावना की जाती है और ध्यान किया जाता है कि जो भी विकृतियां तीनों शरीरों में थी वे सभी सांस के साथ निकल कर बाहर जा रही है। फेफड़े अपना कार्य संचालन करके सारे शरीर की गतिविधियों को आगे धकेलते रहने के लिए सांस द्वारा हवा खींचते हैं, यह प्रथम चरण हुआ। दूसरे चरण से रक्त कोष्ठ प्रविष्ट वायु में से केवल ऑक्सीजन तत्व खींचते हैं और अपनी खुराक पाते हैं। यह दो क्रियाएं शारीरिक हैं और साधारण रीति से होती रहती हैं। तीसरा चरण विशिष्ट है। संकल्प शक्ति वायु के अन्तराल में घुले हुए प्राण को खींचती है। प्राण चेतन है, वह संकल्प चेतना द्वारा ही खींचा जा सकता है। प्राणायाम कर्त्ता का संकल्प, प्राण सत्ता के अस्तित्व, उसके खींचे जाने तथा धारण किये जाने तथा तीनों शरीरों पर उसकी सुखद प्रतिक्रिया होने के सम्बन्ध में जितना सघन होगा उतना ही उसका चमत्कार उत्पन्न होगा। संकल्प रहित अथवा दुर्बल धुंधली भाव संवेदना का प्राणायाम श्वास व्यायाम भर बन कर रह जाता है और उसका लाभ श्वास संस्थान तक में मिलने तक सीमित रह जाता है। यदि प्राण-तत्व का चेतनात्मक लाभ उठाना हो तो उसके लिए श्वास क्रिया से भी अधिक महत्वपूर्ण प्राणायाम के लिए नितान्त आवश्यक संकल्प बल को जगाया जाना चाहिए। यह निष्ठा परिपक्व की जानी चाहिए कि प्राण का आगमन, प्रवेश, कण-कण में उसका संस्थापन एवं शक्ति अनुदान सुनिश्चित तथ्य है इसमें संदेह के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। संध्यावन्दन के समय प्रयुक्त होने वाला प्राणायाम उपासना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रत्येक छात्र के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसके बिना मनोनिग्रह में गड़बड़ी बना रहेगा और प्रत्याहार धारणा, एवं ध्यान के अगले चरण ठीक तरह से उठ सकना कठिन पड़ेगा। उच्चस्तरीय प्राणायामों में ‘सोऽहम्’ साधना को सर्वोपरि माना गया है क्योंकि उसके साथ जो संकल्प जुड़ा हुआ है वह चेतना में उच्चतम स्तर तक उछाल देने में जीव और ब्रह्म का समन्वय करा देने में विशेष रूप से समर्थ है। इतनी—इस स्तर की—भाव संवेदना और किसी प्राणायाम में नहीं है। अस्तु उसे सामान्य प्राणायामों की पंक्ति में न रखकर स्वतन्त्र नाम दिया गया है। इसे ‘हंस योग’ कहा गया है। हंस योग का माहात्म्य, प्रयाग और परिणाम इतने विस्तार पूर्वक साधना शास्त्र ने लिखा है कि उसे एक स्वतन्त्र योग शाखा मानने जैसी स्थिति बन जाती है। ‘सोऽहम् साधना’ को ‘अजपा जाप’ अथवा प्राण गायत्री भी कहा गया है। मान्यता है कि श्वांस के शरीर में प्रवेश करते समय ‘स’ जैसी, सांस रुकने के तनिक से विराम समय में ‘‘ो’’ जैसी—और बाहर निकलते समय ‘‘हं’’ जैसी अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि होती रहती है। इसे श्वास क्रिया पर चिरकाल तक ध्यान केन्द्रित करने की साधना द्वारा सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा सुना जा सकता है। चूंकि ध्वनि सूक्ष्म है स्थूल नहीं—इसलिए उसे अपने छेद वाले कानों से नहीं—सूक्ष्म शरीर में रहने वाली सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा—शब्द तन्मात्रा के रूप में ही सुना जा सकता है। कोई खुले कानों से इन शब्दों को सुनने का प्रयत्न करेगा तो उसे कभी भी सफलता न मिलेगी। नादयोग में मात्र सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा शंख, घड़ियाल बादल, झरना, वीणा जैसे कितने ही दिव्य शब्द सुने जाते हैं। किन्तु हंस-योग में नासिका एवं कर्णेन्द्रिय की समन्वित सूक्ष्म शक्ति का दुहरा लाभ मिलता है। ‘सोऽहम्’ को अनाहत शब्द कहा गया है। आहत वे हैं, जो कई कोई चोट लगने से उत्पन्न होते हैं। अनाहत वे जो बिना किसी आघात के उत्पन्न होते हैं। नादयोग में जो दिव्य ध्वनियां सुनी जाती हैं उनके बारे में दो मान्यताएं हैं। एक यह है कि प्रकृति के अन्तराल सागर में पांच तत्वों और सत, रज, तम यह तीन गुणों की जो उथल-पुथल मचती रहती है यह उनकी प्रतिक्रिया है दूसरे यह माना जाता है कि शरीर के भीतर जो रक्त-संचार, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास प्रश्वास जैसी क्रियाएं अनवरत रूप से होती रहती हैं, यह शब्द उन हलचलों से उत्पन्न होते हैं। अस्तु यह आहत हैं। नादयोग को भी कई जगह अनाहत कहा गया है, पर आम मान्यता यही है कि वे आहत हैं। मुख से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे भी होठ, जीभ, कठ, तालु आदि अवयवों की—मांस पेशियों की उठक-पटक से उत्पन्न होते हैं; अस्तु जप भी आहत है। आहत से अनाहत का महत्व अधिक माना गया है। अनाहत ब्रह्म चेतना द्वारा निश्चित और आहात प्रकृतिगत हलचलों से उत्पन्न होते हैं अस्तु उनका महत्व भी ब्रह्म और ब्रह्म और प्रकृति की तुलना जैसा ही न्यूनाधिक है। तत्वदर्शियों का मत है कि जीवात्मा के गहन अन्तराल में उसी आत्मबोध प्रज्ञा स्वयमेव जगी रहती है और उसी की स्फुरणा से ‘सोहऽम्’ का आत्म-बोध अजपा जाप बनकर स्वसंचालित बना रहता है। संस्कृत भाषा के स+अहम् शब्दों से मिलकर ‘सोहम्’ का आविर्भाव माना जाता है। यहां व्याकरण शास्त्र की सन्धि प्रक्रिया के झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं है। जो सनातन ध्वनियां चल रही हैं वे व्याकरण शास्त्र के अनुकूल हैं या नहीं यह सोचना व्यर्थ है। देखना इतना भर है कि इन सनातन शब्द संचार का क्या अर्थ बैठता है? ‘सो’ अर्थात् ‘वह’। ‘अहम्’ अर्थात् ‘मैं’। दोनों का मिला-जुला निष्कर्ष निकला—वह मैं हूं। ‘वह’ अर्थात् परमात्मा—अहम् अर्थात् जीवात्मा। दोनों का समन्वय एकी भाव—‘सोहम्’। आत्मा और परमात्मा एक है, यह अद्वैत सिद्धान्त का समर्थन है। तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म-शिवोहम् सच्चिदानन्दोहम्—शुद्धोसि, बुद्धोसि निरंजनोसि जैसे वाक्यों में इसी दर्शन का प्रतिपादन है। उनमें जीव और ब्रह्म की तात्विक एकता का प्रतिपादन है। ‘सोहम्’ उपासना के निमित्त किये गये प्राणायाम में इसी अविज्ञात तथ्य को प्रत्यक्ष करने का—प्रसुप्त जगाने का प्रयत्न किया जाता है। जीव अपने आपको शरीर मान बैठा है। उसी की सुविधा एवं प्रसन्नता की बात सोचता है, उसी के लाभ प्रयत्नों में संलग्न रहता है। काया के साथ जुड़े हुए व्यक्ति और पदार्थ ही उसे अपने लगते हैं और उसी सीमित सम्बन्ध क्षेत्र तक ममत्व को सीमित करके—अन्य सबको पराया समझता रहता है। ‘अपनों के लाभ के लिए ‘परायों’ को हानि पहुंचाने में उसे संकोच नहीं होता। यही है माया मग्न—भव-बन्धनों में जकड़े हुए—मोहग्रस्त जीव की स्थिति। इसी में बंधे रहने के कारण उसे स्वार्थ के, व्यर्थ के, अनर्थ के, कामों में संलग्न रहना पड़ता है। यही स्थिति प्राणी को अनेकानेक आदि-व्याधियों में उलझाती और शोक-संताप के गर्त में धकेलती है। इससे बचा, उबरा जाय, इसी समस्या को हल करने के लिए आत्म-ज्ञान एवं साधना विज्ञान का ढांचा खड़ा किया गया है। ‘सोहम्’ को सद्ज्ञान, तत्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान कहा गया है। इससे आत्मा को अपनी वास्तविक स्थिति समझने, अनुभव करने का संकेत है। ‘‘वह परमात्मा मैं ही हूं’’ इस तत्वज्ञान में माया मुक्ति स्थिति की शर्त जुड़ी हुई है। नरकीट, नर पशु और नर-पिशाच जैसी निकृष्ट परिस्थितियों में घिरी ‘अहंता’ के लिए इस पुनीत शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। ऐसे तो रावण, कंस, हिरण्यकश्यप जैसे अहंकारग्रस्त आततायी ही लोगों के मुख से अपने को ईश्वर कहलाने के लिये बाधित करते थे। अहंकार-उन्मत्त मनःस्थिति में वे अपने को वैसा समझते भी थे पर इससे बना क्या, उनका अहंकार ही ले डूबा ‘सोहम्’ साधना में पंचतत्वों और तीन गुणों से बने घिरे शरीर को ईश्वर मानने के लिये नहीं कहा गया है। ऐसी मान्यता तो उलटा अहंकार जगा देगी और उत्थान के स्थान पर पतन का नया कारण बनेगी। यह दिव्य संकेत आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन है। वह वस्तुतः ईश्वर का अंश है। समुद्र और लहरों की, सूर्य और किरणों की, मटाकाश और घटाकाश की, ब्रह्माण्ड और पिण्ड की, आग और चिनगारी की उपमा देकर परमात्मा और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करते हुए मनीषियों ने यही कहा है कि मल-आवरण विक्षेपों से—कषाय-कल्मषों से मुक्त हुआ जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है। दोनों की एकता में व्यवधान मात्र अज्ञान का है, वह अज्ञान ही अहंता के रूप में विकसित होता है और संकीर्ण स्वार्थ-परता में निमग्न होकर व्यर्थ चिन्तन तथा अनर्थ कार्य में निरत रहकर अपनी दुर्गति अपने हाथों आप बनाता है। साधना का उद्देश्य मनःक्षेत्र में भरी कुण्ठाओं और शरीर क्षेत्र में अभ्यस्त कुत्साओं के निराकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। सर्वतोमुखी निर्मलता का अभिवर्धन ही ईश्वर प्राप्ति की दिशा में बढ़ने वाला महान् प्रयास माना गया है। सोऽहम्-साधना की प्रतिक्रिया यही होनी चाहिए। ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ की उक्ति धर्मशास्त्रों में अनेक स्थानों पर लिखी पाई जाती है और अनेक धर्मोपदेशकों द्वारा आये दिन सुनी जाती है। उसे सामान्य बुद्धि जानती और मानती भी है। पर इतने भर से बनता कुछ नहीं। यह मान्यता अन्तःकरण के गहनतम स्तर की गहराई तक उतरनी चाहिये। गहन आस्था बनकर प्रतिष्ठापित होने वाली श्रद्धा ही अन्तःप्रेरणा बनती है और उसी के धकेले हुए मस्तिष्क तथा शरीर रूपी सेवकों को कार्य होना पड़ता है। ‘सोहम्’ तत्वज्ञान यदि अन्तरात्मा की प्रखर श्रद्धा रूप में विकसित हो सके तो उसका परिणाम सुनिश्चित रूप में दिव्य जीवन जैसा काया-कल्प बनकर सामने आना चाहिए। तब व्यक्ति को उसी स्तर पर सोचना होगा जिस पर ईश्वर सोचता है और वही करना होगा जो ईश्वर करता है। एकता की स्थिति में दोनों का स्वरूप भी एक हो जाता है। नाला जब गंगा में मिलता है और बूंद समुद्र में घुलती है तो दोनों का स्वरूप एवं स्तर एक हो जाता है। ब्रह्म-भाव से जगा हुआ जीव अपने चिन्तन और कर्म क्षेत्र में सुविकसित स्तर का देव मानव ही दृष्टिगोचर होता है। कुण्डलिनी जागरण के लिये प्रयुक्त होने वाली सोहम् साधना-अजपा गायत्री के विज्ञान एवं विधान के समन्वय को हंसयोग कहते हैं। हंसयोग साधना का महत्व और प्रतिफल बताते हुए योगविद्या के आचार्यों ने कहा है— सर्वेषु देवेषु व्याप्त वर्तते यथा ह्याग्निः काष्ठेषु तिलेषु तैलमिव । त दिवित्वा न मृत्युमेति । —संसोपनिषद् जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि और तिलों में तेल रहता है। उसी प्रकार समस्त वेदों में ‘हंस’ ब्रह्म रहता है। जो उसे जान लेता है सो मृत्यु से छूट जाता है। सोहम् ध्वनि को निरन्तर करते रहने से उसका एक शब्द चक्र बन जाता है जो उलट कर हंस सदृश प्रतिध्वनित होता है। इसी आधार पर उस साधना का एक नाम हंसयोग भी रहा गया है। हंसो हसोहमित्येवं पुनरावर्त्तन क्रमात् । सोहं सोहं भवेन्नूनमिति योग विदो विदुः । —योग रसायनम् हंसो, हंसोहं—इस पुनरावर्तित क्रम से जप करते रहने पर शीघ्र ही ‘सोहं-सोहं’ ऐसा जप होने लगता है। योगवेत्ता इसे जानते हैं। अभ्यासानंतरं कुर्याद्गच्छस्तिष्ठन्स्वपन्नपि । चिंतन हंसमंत्रस्य योगसिद्धिकरं परम् ।। —योग रसायनम् 303 अभ्यास के अनन्तर चलते, बैठते और सोते समय भी हंस मन्त्र का चिन्तन, (सांस लेते समय ‘सो’ छोड़ते समय ‘ह’ का चिन्तन अभ्यास) परम सिद्धिदायक है। इसे ही ‘हंस’, ‘हसो’ या ‘सोहं’ मन्त्र कहते हैं। जब मन उसे हंस तत्व में लीन हो जाता है तो मन के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं और शक्ति रूप, ज्योति रूप, शुद्ध-बुद्ध, नित्य निरंजन ब्रह्म का प्रकाश प्रकाशवान होता है। प्राणिनां देहमध्ये तु स्थितो हंसः सदाऽच्युतः । हंस एव परं सत्यं हंस एव तु सत्यकम् ।। हंस एव परं वाक्यं हंस एव तु वैदिकम् । हंस एव परो रुद्रो हंस एव परात्परम् ।। सर्वदेवस्य मध्यस्थो हंस एव महेश्वरः । हंसज्येातिरनूपम्यं देवमध्ये व्यवस्थितम् । —ब्रह्म विद्योपनिषद् प्राणियों की देह में भगवान ‘हंस’ रूप में अवस्थित है। हंस ही परम सत्य है, हंस ही परम् बल है। समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर है। हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम् रुद्र है, हंस ही परात्पर है। समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बनकर विद्यमान है। सदा तन्मयतापूर्वक हंस मन्त्र का जप निर्मल प्रकाश का ध्यान करते हुए करना चाहिए। नभस्स्थं निष्कलं ध्यात्वा मुच्यते भवबन्धनात् । अनाहतध्वनियुतं हसं यो वेद हृद्गतम् ।। स्व प्रकाशचिदानन्द स हसं इति गीयते । नाभिकन्द्र समं कृत्वा प्राणापानौ समाहितः । मस्तकस्थामृतास्वादं पीत्वा ध्यानेन सादरम् ।। हंसविद्यामृते लोके नास्ति नित्यत्वसाधनम् । यो ददाति महाविद्यां हंसाख्यां पावनीं पराम् । हंसहंसेति यो व्रूयाद्धंसो ब्रह्मा हरिः शिवः । गरु वक्रातु लभ्येत प्रत्यक्षं सर्वतोमुखम् ।। —ब्रह्म विद्योपनिषद् जो हृदय में अवस्थित अनाहत ध्वनि सहित प्रकाशवान चिदानन्द ‘हंस’ तत्व को जानता है सो हंस ही कहा जाता है। जो अमृत से अभिसिंचन करते हुए ‘हंस’ तत्व का जप करता है उसे सिद्धियों और विभूतियों की प्राप्ति होती है। इस संसार में ‘हंस’ विद्या के समान और कोई साधन नहीं। इस महाविद्या को देने वाला ज्ञानी सब प्रकार सेवा करने योग्य है। पाशान् छित्त्वा यथा हंसो निर्विशङ्क खमुत्पतेत् । छिन्नपाशस्तथा जीवः संसार तरते सदा ।। —क्षुरिकोपनिषद् जिस प्रकार हंस स्वच्छन्द होकर आकाश में उड़ता है उसी प्रकार इस हंसयोग का साधक सर्व बन्धनों से विमुक्त होता है। ‘ह’ और ‘स’ अक्षरों की पृथक्-पृथक् विवेचना भी शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से की है। इन अक्षरों से कई प्रकार के अर्थ निकलते हैं और दोनों के योग से साधक को एक उपयुक्त धारा मिलती है। हकारो निर्गमे प्रोक्तः सकारेण प्रवेशनम् । हकारः शिवरूपेण सकारः शक्तिरुच्यते ।। —शिव स्वरोदय श्वास के निकलने में ‘हकार’ और प्रविष्ट होने में साकार होता है। हकार शिवरूप और साकार शक्तिरूपा कहलाता है। हकारेण तु सूर्यः स्यात् सकारेणेन्दुरुच्यते । सूर्य चन्द्रमसोरैक्यं हठ इत्यभिधीयते ।। हठेन ग्रस्यते जाड्यं सर्वदोष समुद्भवम् । क्षेत्रज्ञः परमात्मा च तपोरैक्य तदाभवेत् ।। —योग शिखोपनिषद् हकार से सूर्य या दक्षिण स्वर होता है और साकार से चन्द्र या वाम स्वर होता है। इस सूर्य चन्द्र दोनों स्वरों में समता स्थापित हो जाने का नाम हठयोग है। हम द्वारा सब दोषों की कारणभूत जड़ता का नाश हो जाता है और तब साधक क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) से एकता प्राप्त कर लेता है। जीवात्मा सहज स्वभाव सोहम् का जप श्वास-प्रश्वास क्रिया के साथ-साथ अनायास ही करता रहता है। यह संख्या औसतन चौबीस घंटे में 21600 के लगभग हो जाती है। हकारेण बहियति सकारेण विशेत्पुनः । हंस हंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ।। षट शतानि त्वहोरात्रे सहस्राण्येकविंशति । एतत्संख्यान्वितं मंत्रं जीवो जपति सर्वदा ।। —गोरक्ष संहिता 41-42 यह जीव हकार की ध्वनि से बाहर आता है और साकार की ध्वनि से भीतर जाता है इस प्रकार वह सदा हंस-हंस जप करता रहता है। इस तरह वह एक दिन रात में जीव इक्कीस हजार छह सो मंत्र सदा जपता रहता है। संस्कृत व्याकरण के आधार पर सोऽहं का संक्षिप्त रूप ॐ हो जाता है। साकारं च हकारं च क्तोपयित्व प्रयोजनेत् । संधि च पूर्व रूपाख्यां ततोऽसौप्रणवो भवेत् ।। सोहम् पद में से साकार और हकार का लोप करके संधि योजना करके वह प्रणव ॐकार रूप हो जाता है। हंस योग के अभ्यास का असाधार महत्व है। उसे कुण्डलिनी जागरण साधना का तो एक अंग ही माना गया है। विभर्ति कुण्डली शक्ति रात्मानं हंसयाश्रिता —तन्त्र सार कुण्डलिनी शक्ति आत्म क्षेत्र में हंसारूढ़ होकर विचरती है। गायत्री का वाहन हंस कहा गया है। यह पक्षी विशेष न होकर हंस योग ही समझा जाना चाहिए। यों हंस पक्षी में भी स्वच्छ धवलता—नीर क्षीर विवेकयुक्त आहार विशेषताओं की ओर इंगित करते हुए निर्मल जीवन सत्-असत् निर्धारण एवं नीति युक्त उपलब्धियों को ही अंगीकार किया जाना जैसी उत्कृष्टताओं का प्रतीक माना गया है किन्तु तात्विक दृष्टि से गायत्री का हंस वाहिनी होना उसकी प्राप्ति के लिए हंस योग की सोहम् की साधना का निर्देश माना जाना ही उचित है। देहो देवालयः प्रोक्तो जीवो नाम सदा शिवः । त्यजेद ज्ञानं निर्माल्यं सोह् भावेन पूजयेत् ।। —प्रपञ्च तन्त्र देह देवालय है। इसमें जीव रूप में शिव विराजमान हैं। इसकी पूजा वस्तुओं से नहीं सोऽहम् साधना से करनी चाहिए। अन्तःकरण में हंस वृत्ति की स्थापना की यह साधना अजपा गायत्री भी कही जाती है। अजपा गायत्री का महत्व बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं— अजपा नाम गायत्री ब्रह्मविष्णुमहेश्वरी । अजपां जपते यस्तां पुनर्जन्म न विद्यते ।। —अग्नि पुराण अजपा गायत्री ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र की शक्तियों से परिपूर्ण है। इसका जप करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता है। अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदायिनी । अस्याः संकल्पमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। गोरक्षसंहिता इसका नाम ‘अजपा’ गायत्री है, जो कि योगियों के लिए मोक्ष को देने वाली है। इसके संकल्प मात्र से सब पापों से छुटकारा हो जाता है। अनया सदृशी विद्या अनया सदृशो जपः । अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति ।। —गोरक्षसंहिता गोरक्षसंहिता इसके समान न कोई विद्या है, न इसके समान कोई ज्ञान ही भूत-भविष्य काल में हो सकता है। अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदा सदा ।। —शिव स्वरोदय अजपा गायत्री योगियों के लिये मोक्ष देने वाली है। श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम्’ ध्यान के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवण शक्ति के सहारे अन्तः भूमिका में अनुभव करना—यही हैं संक्षेप में ‘सोऽहम्’ साधना। वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बांसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है। जंगलों में जहां बांस बहुत उगे होते हैं वहां अक्सर बांसुरी जैसी ध्वनियां सुनने को मिलती हैं। कारण कि बांसों में कहीं कहीं कीड़े छेद कर देते हैं और उन छेदों से जब हवा वेग पूर्वक टकराती है तो उसमें उत्पन्न स्वर प्रवाह सुनने को मिलता है। वृक्षों से टकराकर जब द्रुत गति से हवा चलती है तब भी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। यह वायु के घर्षण की ही प्रतिक्रिया है। नासिका छिद्र भी बांसुरी के छिद्रों की तरह हैं। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहां स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है, पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वासोच्छवास लेने पड़ते हैं। प्राणायाम का मूल स्वरूप ही यह है कि श्वास जितनी अधिक गहरी, जितनी मन्दगति से ली जा सके लेनी चाहिए और फिर कुछ समय भीतर रोक कर धीरे-धीरे उस वायु को पूरी तरह खाली कर देना चाहिए। गहरी और पूरी सांस लेने से स्वभावतः नासिका छिद्रों से टकरा कर उत्पन्न होने वाला ध्वनि प्रवाह और भी अधिक तीव्र हो जाता है। इतने पर भी वह ऐसा नहीं बन पाता कि खुले कानों से उसे सुना जा सके। कर्णेन्द्रियों की सूक्ष्म चेतना में ही उसे अनुभव किया जा सकता है। चित्त को श्वसन क्रिया पर एकाग्र करना चाहिए। और भावना को इस स्तर की बनाना चाहिए कि उससे श्वास लेते समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि प्रवाह की मन्द अनुभूति होने लगे। उसी प्रकार जब सांस छोड़ना पड़े तो यह मान्यता परिपक्व करनी चाहिए कि ‘हम्’ ध्वनि प्रवाह विनिसृत हो रहा है। आरम्भ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती, किन्तु क्रम और प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है। और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है वरन् आनन्द का अनुभव होता है। सो का तात्पर्य परमात्मा और हम् का जीवचेतना—समझा जाना चाहिए। निखिल विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाप्राण नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करता है और अंग प्रत्यंग में जीवकोश तथा नाड़ी तन्तु में प्रवेश करके उसको अपने सम्पर्क संसर्ग का लाभ प्रदान करता है। यह अनुभूति ‘सो’ शब्द ध्वनि के साथ अनुभूति भूमिका में उतरनी चाहिए। और ‘हम्’ शब्द के साथ जीव भाव द्वारा इस काय कलेवर पर से अपना कब्जा छोड़कर चले जाने की मान्यता प्रगाढ़ की जानी चाहिए। प्रकारान्तर से परमात्म सत्ता का अपने शरीर और मनःक्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने की ही यह धारणा है। जीव भाव अर्थात् स्वार्थवादी संकीर्णता, काम, क्रोध, लोभ मोह भरी मद मत्सरता—अपने को शरीर या मन के रूप में अनुभव करते रहने वाली आत्मा की दिग्भ्रान्त स्थिति का नाम ही जीव भूमिका है। इस भ्रम जंजाल भरे जीव भाव को हटा दिया जाय तो फिर अपना विशुद्ध अस्तित्व ईश्वर के अविनाशी अंश आत्मा के रूप में ही शेष रह जाता है, काय कलेवर के कण-कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना और जीव धारण की बेदखली यही है सोऽहम् साधना का तत्वज्ञान। श्वास प्रश्वास क्रिया के माध्यम से सो और हम् ध्वनि के सहारे इसी भाव चेतना को जागृत किया जाता है कि अपना स्वरूप ही बदल रहा है अब शरीर और मन पर से लोभ-मोह का-वासना-तृष्णा का आधिपत्य समाप्त हो रहा है और उसके स्थान पर उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व के रूप में ब्रह्मसत्ता की स्थापना हो रही है। शासन परिवर्तन जैसी राज्यक्रान्ति जैसी यह भाव भूमिका है जिसमें अनाधिकारी अनाचारी शासन-सत्ता का तख्ता उलट कर उस स्थान पर सत्य, न्याय और प्रेम संविधान वाली धर्मसत्ता का राज्याभिषेक क्रिया जाता है। सोऽहम् साधना इसी अनुभूति स्तर को क्रमशः प्रगाढ़ करती चली जाती है और अन्तःकरण यह अनुभव करने लगता है कि अब उस पर असुरता का नियन्त्रण नहीं रहा उसका समग्र संचालन देवसत्ता द्वारा किया जा सकता है। श्वास ध्वनि ग्रहण करते समय ‘सो’ और निकालते समय ‘हम्’ की धारणा में लगना चाहिए। प्रयत्न करना चाहिए कि इन शब्दों के आरम्भ में अति मन्द स्तर की होने वाली अनुभूति में क्रमशः प्रखरता आती चली जाय। चिंतन का स्वरूप यह होना चाहिए कि सांस में घुले हुए भगवान अपनी समस्त विभूतियों और विशेषताओं के साथ काय कलेवर में भीतर प्रवेश कर रहे हैं। यह प्रवेश मात्र आवागमन नहीं है, वरन् प्रत्येक अवयव पर सघन आधिपत्य बन रहा है। एक-एक करके शरीर के भीतरी प्रमुख अंगों के चित्र की कल्पना करनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए उसमें भगवान की सत्ता चिरस्थायी रूप से समाविष्ट हो गई। हृदय, फुफ्फुस आमाशय, आंतें, गुर्दे, जिगर, तिल्ली आदि में भगवान का प्रवेश हो गया। रक्त के साथ प्रत्येक नस नाड़ी और कोशिकाओं पर भगवान ने अपना शासन स्थापित कर लिया। वाह्य अंगों ने, पांच कर्मेन्द्रियों और पांच ज्ञानेन्द्रियों ने भगवान के अनुशासन में रहना और उनका निर्देश पालन करना स्वीकार कर लिया। जीभ वही बोलेगी जो ईश्वरी प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक हो। देखना, सुनना, बोलना, चलना आदि इन्द्रियजन्य गतिविधियां दिव्य निर्देशों का ही अनुगमन करेंगी। ज्ञानेन्द्रिय का उपयोग वासना के लिए नहीं मात्र ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अनिवार्य आवश्यकता का धर्म संकट सामने आ खड़ा होने पर ही किया जायेगा। हाथ-पांव मानवोचित कर्तव्य पालन के अतिरिक्त ऐसा कुछ न करेंगे जो ईश्वरीय सत्ता को कलंकित करता हो। मस्तिष्क ऐसा कुछ न सोचेगा जिसे उच्च आदर्शों के प्रतिकूल ठहराया जा सके। बुद्धि कोई अनुचित न्यायविरुद्ध एवं अदूरदर्शी अविवेक भरा निर्णय न करेगी। चित्त में अवांछनीय एवं निकृष्ट स्तरीय आकांक्षाएं न जमने पायेंगी। अहंता का स्तर नर कीटक जैसा नहीं नर नारायण जैसा होगा। यही हैं वे भावनायें जो शरीर और मन पर भगवान का शासन स्थापित होने के तथ्य को यथार्थ सिद्ध कर सकती हैं। यह सब उथली कल्पनाओं की तरह मनोविनोद भर नहीं रह जाना चाहिए वरन् उसकी आस्था इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिए कि इस भाव परिवर्तन को क्रिया रूप में परिणत हुए बिना चैन ही न पड़े। सार्थकता उन्हीं विचारों की है जो क्रिया रूप में परिणत होने की प्रखरता से भरे हों, सोहम् साधना के पूर्वार्ध में अपने काय कलेवर पर श्वसन क्रिया के साथ प्रविष्ट हुये महाप्राण की—परब्रह्म की सत्ता स्थापना का इतना गहन चिंतन करना पड़ता है कि यह कल्पना स्तर की बात न रह कर एक व्यावहारिक यथार्थता के—प्रत्यक्ष तथ्य के—रूप में प्रस्तुत—दृष्टिगोचर होने लगे। इस साधना का उत्तरार्ध पाप निष्कासन का है। शरीर में से अवांछनीय इन्द्रिय लिप्साओं का—आलस्य प्रमाद जैसी दुष्कृतियों का—मन से लोभ, मोह जैसी तृष्णाओं का—अन्तस्थल से जीवभावी अहन्ता का—निवारण-निराकरण हो रहा है। ऐसी भावनायें अत्यन्त प्रगाढ़ होनी चाहिए। दुर्भावनायें और दुष्कृतियां, निष्कृष्टतायें और दुष्टतायें क्षुद्रतायें और हीनतायें सभी निरस्त हो रही हैं—सभी पलायन कर रही हैं यह तथ्य हर घड़ी सामने खड़ा दीखना चाहिए। अनुपयुक्तताओं के निरस्त होने के उपरान्त जो हलकापन—जो सन्तोष—जो उल्लास स्वभावतः होता है और निरन्तर बना रहता है उसी का प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिए। तभी यह कहा जा सकेगा कि सोऽहम् साधना का उत्तरार्ध भी एक तथ्य बन गया। सोऽहम् साधना के पूर्व भाग में श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि के साथ जीवन सत्ता पर उस ‘परब्रह्म परमात्मा का शासन आधिपत्य स्थापित होने की स्वीकृति है। उत्तरार्ध में ‘हम्’ को—अहंता को—विसर्जित करने का भाव है। सांस निकली साथ-साथ अहम् भाव का भी निष्कासन हुआ। अहंता ही लोभ और मोह की जननी है। शरीराभ्यास में जीव उसी की प्रबलता के कारण डूबता है। माया, अज्ञान, अन्धकार, बन्धन आदि की भ्रांतियां एवं विपत्तियां इस अहंता के कारण ही उत्पन्न होती हैं। इसे विसर्जित कर देने पर ही भगवान का अन्तःक्षेत्र में प्रवेश करना—निवास करना सम्भव होता है। इस छोटे से मानवी अन्तःकरण में दो के निवास की गुंजाइश नहीं है। पूरी तरह एक ही रह सकता है। दोनों रहे तो लड़ते-झगड़ते रहते हैं और अंतर्द्वंद्व की खींचतान चलती रहती है। भगवान् को बहिष्कृत करके पूरी तरह ‘अहंमन्यता’ को प्रबल बना लिया जाय तो मनुष्य दुष्ट दुर्बुद्धि क्रूर-कर्मा असुर बनता है। अपनी कामनाएं—भौतिक महत्वाकांक्षायें ऐषणायें समाप्त करके ईश्वरीय निर्देशों पर चलने का संकल्प ही आत्म समर्पण है। यही शरणागति है। यही ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त होते ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है तब ईश्वरीय अनुभूतियां चिन्तन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता भर देती हैं। ऐसे ही व्यक्ति महामानव ऋषि, देवता एवं अवतार के नाम से पुकारे जाते हैं। ‘सो’ में भगवान का शासन आत्म-सत्ता पर स्थापित करने और ‘हम्’ में अहंता का विसर्जन करने का भाव है। प्रकारान्तर से इसे महान् परिवर्तन का आन्तरिक कायाकल्प का बीजारोपण कह सकते हैं। सोऽहम् साधना का यही है भावनात्मक एवं व्यावहारिक स्वरूप। ईश्वर जीव को ऊंचा उठाना चाहता है। जीव ईश्वर को नीचे गिराना चाहता है। अस्तु दोनों के बीच रस्साकशी चलती और खींचतान होती रहती है न ईश्वर श्रेष्ठ जीवन क्रम देखे बिना सन्तुष्ट होता है और न अपनी न्याय-निष्ठा, कर्म-निष्ठा, कर्म-व्यवस्था तथाकथित पूजा पाठ के कारण छोड़ने को तैयार होता है। वह अपनी जगह अडिग रहता है और भक्त को तरह-तरह के उलाहने देने, शिकायतें करने, लांछन लगाने की स्थिति बनी ही रहती है। भक्त ईश्वर को अपने इशारे पर नचाना भर चाहता है। उससे उचित अनुदान मनोकामनायें पूरी कराने की पात्रता-कुपात्रता परखने की आदत छोड़ देने का आग्रह करता रहता है। दोनों अपनी जगह पर अडिग रहें—दोनों की दिशायें एक दूसरे की इच्छा के प्रतिकूल बनी रहें तो फिर एकता कैसे हो, सामीप्य सान्निध्य कैसे सधे? ईश्वर प्राप्ति की आशा कैसे पूर्ण हो? इस कठिनाई का समाधान ‘सोऽहम्’ साधना के साथ जुड़े हुए तत्व ज्ञान में सन्निहित है। दोनों एक-दूसरे से गुंथ जायं—परस्पर विलीनीकरण हो जाय। भक्त अपने आपको, अन्तःकरण, आकांक्षा एवं अस्तित्व को पूरी तरह समर्पित करदे और उसी के दिव्य संकेतों पर अपनी दिशा धाराओं का निर्धारण करे। इस स्थिति की प्रतिक्रिया द्वैत की समाप्ति और अद्वैत की प्राप्ति के रूप में होती है। जीव ने ब्रह्म को समर्पण किया है ब्रह्म की सत्ता स्वभावतः जीवधारी में अवतरित हुई दृष्टिगोचर होने लगेगी। समर्पण एक पक्ष से आरम्भ तो होता है, पर उसकी परिणति उभयपक्षीय एकता में होती है। यही प्रेम योग का रहस्य है। यही भक्त के भगवान बनने का तत्वज्ञान है। ईंधन जब अग्नि को समर्पण करता है तो वह भी ईंधन न रहकर आग बन जाता है। बूंद जब समुद्र में विलीन होती है तो उसकी तुच्छता असीम विशालता में परिणत हो जाता है। नमक और पानी—दूध और चीनी जब मिलते हैं तो दोनों की पृथकता समाप्त होकर सघन एकता बनकर उभरती है। यही है वेदान्त अनुमोदित जीवन लक्ष्य की पूर्ति—परम पद की प्राप्ति। इसी स्थिति को ‘अद्वैत’ कहते हैं। शिवोहम्—सच्चिदानन्दोहम्—तत्वमसि अयमात्मा ब्रह्म—की अनुभूति इसे सर्वोत्कृष्ट अन्तःस्थिति पर पहुंचे हुए साधक को होती है इसी को ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म निर्वाण आदि नामों से पूर्णता के रूप में कहा गया है।   |     | 1  |     |   READ SCAN  Versions  HINDI गायत्री की उच्चस्तरीय पाँच साधनाएँ Scan Book Version HINDI गायत्री की उच्चस्तरीय पाँच साधनाएँ Text Book Version gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp अखंड ज्योति कहानियाँ मौत का ख्याल (kahani) भक्तिमती मीराबाई अपने (Kahani) धर्म और संस्कृति (Kahani) उलटे पैर लौट गए (Kahani) See More शुनिशेपों की खोज एक पौराणिक कथाएक बार इन्द्र देव ने कुपित होकर दुष्ट दुरात्मा प्रजाजनों के दुष्कर्मों का दण्ड देने के लिए उन्हें वर्षा का अनुदान देना बन्द कर दिया। बारह वर्षों तक लगातार दुर्भिक्ष पड़ा। पानी न बरसने से घास- पात, पेड़- पौधे, जलाशय सब सूख गये। अन्न उपजना बन्द हो गया। तृषित और क्षुधित प्राणी त्राहि- त्राहि करके प्राण त्यागने लगे। सर्वत्र हा- हाकार मच गया।स्थिति असह्य हो गयी तो मनीषियों न More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. 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