Thursday, 26 October 2017
सिद्धि मुद्रायें और असिद्ध परमात्मा
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29 जुलाई 2016
सिद्धि मुद्रायें और असिद्ध परमात्मा
अवधू गगन से खोज न्यारा ?
कबीर कहते हैं - परमात्मा पाँचवें तत्व या पाँचों तत्व से भी परे हैं अर्थात शरीर से बाहर है । ये सिर्फ़ समाधि द्वारा स्थिर हुयी विदेह अवस्था में संभव है अथवा निजत्व में पूर्ण और निश्चयात्मक असंशय भाव से थिर होकर संभव है ।
संतों शब्दई शब्द बखाना ।
(सभी शब्द, नाम, धुनों आदि का वर्णन परमात्मा की प्राप्ति के लिये कर रहे हैं)
शब्द फांस फँसा सब कोई, शब्द नहीं पहचाना ?
(और इन्हीं नकली शब्दजाल में फ़ंस कर रह गये । असली शब्द या ‘वस्तु’ की तरफ़ किसी का ध्यान नही है)
प्रथमहिं ब्रह्म स्वं इच्छा ते, पाँचै शब्द उचारा ।
(आदि सृष्टि के समय ब्रह्म ने इच्छा करते हुये 5 शब्दों को उत्पन्न किया - सोहं निरंजन रंरकार शक्ति और ॐकार)
सोहं निरंजन रंरकार, शक्ति और ॐकारा ।
पाँचों तत्व प्रकृति, तीनों गुण उपजाया ।
(फ़िर 5 तत्व और हरेक तत्व की 5-5 = 25 प्रकृति और 3 गुणों (सत, रज, तम) को उत्पन्न किया)
लोक द्वीप चारों खान, चौरासी लख बनाया ।
(फ़िर लोक, दीप, चार खाने (अंडज, जरायुज, स्वेदज, वारिज) और 84 लाख जीव जन्तुओं को बनाया ।
शब्दइ काल कलंदर कहिये, शब्दइ भर्म भुलाया ।
(शब्द को ही काल, खिलाङी कहिये और शब्द से ही समस्त भ्रम उत्पन्न हुआ)
पाँच शब्द की आशा में, सर्वस मूल गंवाया ?
(इन पाँच शब्दों के चक्कर में फ़ंसकर जीव अपना मूल परमात्मा को भूल गया)
शब्दइ ब्रह्म प्रकाश मेंट के, बैठे मूंदे द्वारा ।
(यही शब्द ब्रह्म आत्मप्रकाश छुपाकर मुक्ति या परमात्म द्वार को बन्द कर स्थित हो गये)
शब्दइ निरगुण शब्दइ सरगुण, शब्दइ वेद पुकारा ।
शुद्ध ब्रह्म काया के भीतर, बैठ करे स्थाना ?
ज्ञानी योगी पंडित औ, सिद्ध शब्द में उरझाना ।
पाँचइ शब्द पाँच हैं मुद्रा, काया बीच ठिकाना ?
मनुष्य शरीर के बीच (सभी आँखों से ऊपर) हंस के 5 शब्द कृमशः निरंजन, ॐकार, सोहं, रंरकार, शक्ति और 5 मुद्रायें कृमशः चांचरी, भूचरी, अगोचरी, खेचरी, उनमुनी हैं ।
जो जिहसक आराधन करता, सो तिहि करत बखाना ।
शब्द निरंजन चांचरी मुद्रा, है नैनन के माँही ?
(चाचरी मुद्रा, दोनों आँखें बन्द कर अन्तर में नाभि से नासिका के अग्रभाग तक द्रण होकर सिद्ध की जाती है)
ताको जाने गोरख योगी, महा तेज तप माँही ।
शब्द ॐकार भूचरी मुद्रा, त्रिकुटी है स्थाना ?
(भूचरी मुद्रा, सोहं - हंसो अजपा जप को प्राण (स्वांस) के मध्य ध्यान में रखकर सिद्ध की जाती है)
व्यास देव ताहि पहिचाना, चांद सूर्य तिहि जाना ।
सोहं शब्द अगोचरी मुद्रा, भंवर गुफा स्थाना ?
(अगोचरी मुद्रा, दोनों कानों को बन्द कर अन्दर की ध्वनि सुनकर सिद्ध की जाती है)
शुकदेव मुनी ताहि पहिचाना, सुन अनहद को काना ।
शब्द रंरकार खेचरी मुद्रा, दसवें द्वार ठिकाना ?
(खेचरी मुद्रा में जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र (तालु) और काग तक बारबार छुआकर पहुँचाकर सिद्ध की जाती है । यह मुद्रा हनुमान जी को सिद्ध थी । जिससे उन्हें उङने, छोटा बङा शरीर आदि बना लेने की कई सिद्धियां प्राप्त थीं)
ब्रह्मा विष्णु महेश आदि लो, रंरकार पहिचाना ।
शक्ति शब्द ध्यान उनमुनी मुद्रा, बसे आकाश सनेही ?
(उनमनी मुद्रा में दृष्टि को भौंहों के मध्य टिकाकर मुद्रा सिद्ध की जाती है)
झिलमिल झिलमिल जोत दिखावे, जाने जनक विदेही ।
पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा, सो निश्चय कर जाना ।
आगे पुरुष पुरान निःअक्षर, तिनकी खबर न जाना ?
नौ नाथ चौरासी सिद्धि लो, पाँच शब्द में अटके ।
मुद्रा साध रहे घट भीतर, फिर औंधे मुख लटके ?
पाँच शब्द पाँच है मुद्रा, लोक द्वीप यम जाला ।
कहैं कबीर अक्षर के आगे ? निःअक्षर का उजियाला ।
सभी मुद्रायें 10 हैं । जिनमें 5 हंसों की और 5 विशेष परमहंसों की मुद्राएं हैं ।
परमात्मा ने जैसे ब्रह्माण्ड की रचना की ठीक उसी आकार में मनुष्य शरीर की रचना की ।
इच्छानि सृष्टि - संकल्प द्वारा सृष्टि करना । सासिद्धक सृष्टि - इच्छानुसार शरीर बना लेना ।
मुद्राएं - योग स्थितियों के साक्षात्कार और प्राप्ति के लिये की गयी क्रिया अवस्था को मुद्रा कहते हैं ।
यह 10 प्रकार की हैं । निम्न 5 हंसों की मुद्रायें हैं ।
1 चाचरी - आँख बन्द कर अन्तर में नाभि से नासिका के अग्रभाग तक द्रण होकर देखना ।
2 भूचरी - परमात्मा का नाम (हँसो) अजपा जप को प्राण के मध्य ध्यान में रखकर मनन करना ।
3 अगोचरी - कानों को बन्द कर अन्दर की ध्वनि सुनना ।
4 खेचरी - जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचाकर स्थिर करना ।
5 उनमनी - द्रष्टि को भौंहों के मध्य टिकाना ।
ये 5 विशेष और परमहंसों की मुद्राएं हैं उनका साक्षात्कार प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है ।
1 साम्भवी - जीवों में संकल्प से प्रवेश कर उनके अन्तःकरण का अनुभव करना
2 सनमुखी - संकल्प से ही सभी कार्य होने लगे ।
3 सर्वसाक्षी - स्वयं को, तथा परमात्मा को सबमें देखना ।
4 पूर्णबोधिनी - जिसका विचार (या इच्छा) करता है । उसकी पूर्ति तथा बोध पल भर में ही हो जाता है । एक ही जगह स्थित सम्पूर्ण जगत की बात जानना ।
5 उनमीलनी - अनहोने कार्य करने की सिद्धि ।
at 9:40 pm
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26 जुलाई 2016
बच्चे न पढ़ें न सही..पर
बाल्यावस्था में ऐसी ही एक कहानी पढ़ी थी । जिसमें एक युवा चोर को न्यायालय में न्यायाधीश द्वारा सजा सुनाई जा रही थी । वाद निर्णय के दौरान चोर की माँ भी उपस्थिति थी । चोर को सजा होने के बाद न्यायाधीश ने उससे पूछा - तुम कुछ कहना चाहते हो ?
चोर ने कहा - हाँ, वह बात मैं अपनी माँ के कान में कहना चाहता हूँ ।
चोर अपनी माँ के पास गया । और उसका कान काट कर बोला - यदि बचपन में ही तू मुझे चोरी करने पर रोकती । प्रताङित करती । तो आज यह दिन नहीं आता ।
फ़िर कुछ ऐसे ही मिले जुले भावों की और भी कहानियां पढ़ीं । जिनमें किसी छोटे गांव, छोटे कस्बे जैसे स्थान पर किसी छोटे से ही स्कूल में अचानक किसी उच्चाधिकारी का वाहन रुकता है । उच्चाधिकारी वाहन से उतरकर प्राथमिक विद्यालय के उन गुरु को आदर से चरण स्पर्श करता है । तो सहमे से और झेंपे से वह गुरु चौंक कर उस अधिकारी से उसका परिचय पूछते हैं ।
और वह कहता है - गुरुजी, मैं आपका वही नालायक शिष्य चिन्टू पिन्टू ( आदि ) हूँ । जिसे आपने झूठ बोलने, चोरी करने, पाठ याद न करने पर ( वह ) दण्ड दिया था आदि । आज आपके कठोर अनुशासन, नियम कानून और शिक्षा से ही मैं तुच्छ इस स्थान पर पहुँचा हूँ ।
प्रातःकाल उठकर रघुनाथा । गुरु पितु मातु नवावै माथा ।
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छठी के छात्र छेदी ने छत्तीस की जगह बत्तीस कहकर जैसे ही बत्तीसी दिखाई । गुरुजी ने छङी उठाई । और मारने वाले ही थे कि छेदी ने कहा - खबरदार ! अगर मुझे मारा तो । मैं गिनती नहीं जानता । मगर RTE की धाराएँ अच्छी तरह जानता हूँ । गणित में नहीं, हिंदी में समझाना आता है ।
गुरुजी चौराहों पर खड़ी मूर्तियों की तरह जङवत हो गए । जो कल तक बोल नहीं पाता था । वो आज आँखें दिखा रहा था ।
शोरगुल सुनकर प्रधानाध्यापक भी उधर आ धमके । कई दिनों से उनका कार्यालय से निकलना ही नहीं हुआ था । वे हमेशा विवादों से दूर रहना पसंद करते थे । इसी कारण से उन्होंने बच्चों को पढ़ाना भी बंद कर दिया था ।
आते ही उन्होंने छङी को तोड़ कर बाहर फेंका । और बोले - सरकार का आदेश नही पढ़ा ? प्रताड़ना का केस दर्ज हो सकता है । रिटायरमेंट नजदीक है । निलंबन की मार पड़ गई । तो पेंशन के फजीते पड़ जाएँगे । बच्चे न पढ़ें, न सही ? पर प्रेम से पढ़ाओ । उनसे निवेदन करो ? अगर कही शिकायत कर दी तो ?
बेचारे गुरुजी पसीने पसीने हो गए । मानो हर बूँद से प्रायश्चित टपक रहा हो । इधर छेदी गुरुजी ‘हाय हाय’ के नारे लगाता जा रहा था । और बाकी बच्चे भी उसके साथ हो लिए ।
प्रधानाध्यापक ने छेदी को एक कोने में ले जाकर कहा - मुझसे कहो, क्या चाहिए ?
छेदी बोला - जब तक गुरुजी मुझसे माफी नही माँग लेते हैं । हम विद्यालय का बहिष्कार करेंगे । बताए कि शिकायत पेटी कहाँ है ?
समस्त स्टाफ आश्चर्यचकित और भय का वातावरण हो चुका था । छात्र जान चुके थे कि उत्तीर्ण होना उनका कानूनी अधिकार है ।
बड़े सर ने छेदी से कहा कि - मैं उनकी तरफ से माफी माँगता हूँ ।
पर छेदी बोला - आप क्यों मांगोगे ? जिसने किया । वही माफी माँगे । मेरा अपमान हुआ है ।
आज गुरुजी के सामने बहुत बड़ा संकट था । जिस छेदी के बाप तक को उन्होंने दंड, दृढ़ता और अनुशासन से पढ़ाया था । आज उनकी ये तीनों शक्तियां परास्त हो चुकी थी । वे इतने भयभीत हो चुके थे कि एकांत में छेदी के पैर तक छूने को तैयार थे । लेकिन सार्वजनिक रूप से गुरुता के ग्राफ को गिराना नही चाहते थे ।
छङी के संग उनका मनोबल ही नहीं, परंपरा और प्रणाली भी टूट चुकी थी । सारी व्यवस्था, नियम कानून एक्सपायर हो चुके थे । कानून क्या कहता है ? अब ये बच्चों से सीखना पङेगा ।
पाठयक्रम में अधिकारों का वर्णन था । कर्तव्यों का पता नही था । अंतिम पड़ाव पर गुरु द्रोण स्वयं चक्रव्यूह में फँस जाएँगे । वे प्रण कर चुके थे कि कल से बच्चे जैसा कहेंगे । वैसा ही वे करेंगे ।
तभी बड़े सर उनके पास आकर बोले - मैं आपको समझ रहा हूँ । वह मान गया है । और अंदर आ रहा है । उससे माफी माँग लो । समय की यही जरूरत है ।
छेदी अंदर आकर टेबल पर बैठ गया । और हवा के तेज झोंके ने शर्मिन्दा होकर द्वार बंद कर दिए ।
कलम को चाहिए कि - यही थम जाए । कई बार मौन की भाषा संवादों पर भारी पड़ जाती है ।
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ये व्यंग्य चित्र और व्यंग्य शब्द दोनों किन्हीं अज्ञात सृजकों के ‘प्रतिलिपि चेपन’ यानी आंग्ल भाषा में ‘कापी पेस्ट’ हैं ।
at 8:16 pm
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21 जुलाई 2016
ओशो स्त्री भी और पुरुष भी
मेरे इस लिखित कथन पर -
मैं ओशो या कृष्णमूर्ति के तरह निश्चित स्तरीय ( एक ही तल पर ) बात न कहकर सार्वभौमिक और मिश्रित अन्दाज में विषय रखता हूँ । क्योंकि नेट एक ऐसा स्कूल है । जिसमें पहली कक्षा से लेकर डाक्टरेट तक के लोग एक ही कक्ष में बैठे हैं ।
अतः बाद में प्रतिक्रिया में सभी चीजें स्पष्ट हो जाती हैं । अब वह बात अलग है । उस विषय से किसमें क्या और किस स्तरीय क्रिया हुयी ।
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ओशो समर्थक अंतरप्रकाश जी की प्रतिक्रिया ( संवाद और भी था । पर मूल यही है )
Rajeev Kulshreshtha जी, सन्ध्या नमन,
क्या आप बतायेंगे कि अष्टावक्र गीता जनमानस में क्यों उपदेशित न हो सकी । और भगवत गीता जनमानस की उपयोगिता बन गई ?
बाबा क्या आप ये भी बताने की अनुकम्पा करेंगे कि कृष्णमूर्ति क्यों आप्रासंगिक हो गये । और ओशो जनमानस में फैलते जा रहे है ?
दर्जा एक के विद्यार्थियों को आप सीधे डाक्ट्रेट दे या दिला सकते है ?
बाबा आपने जो पोस्ट स्टैट्स पर रखी है । क्या वह सार्वभौमिकता से सम्बध रखती है ?
- बाबा आप कृपया मेरे चारो प्रश्नों के समाधान रखने की कृपा करें ।
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क्या आप बतायेंगे कि अष्टावक्र गीता जनमानस में क्यों उपदेशित न हो सकी । और भगवत गीता जनमानस की उपयोगिता बन गई ?
उत्तर - किसी भी मुख्यधारा से जुङे महत्वपूर्ण विषय को लेकर भिन्न भिन्न मानसिक स्तरों पर जो ग्राह्यता, प्रियता, अप्रियता बनती है । उसमें देश, समाज, काल, जाति, संस्कार, शिक्षा, वातावरण आदि जैसे कारकों की विशेष भूमिका रहती है ।
अष्टावक्र गीत, गीत नहीं महागीत है । क्योंकि यह सर्वदेशीय, सर्वात्मीय, सर्वव्यापक मगर एक आत्ममूल पर ही केन्द्रित है । इसके कथन अहं आधारित मनोविकारों को मिथ्या और भ्रामक बताते हुये आत्मा या निज स्वरूप के प्रति ही जाग्रति का आह्वान देते हैं । अष्टावक्र गीत का मूल स्वर यही है और यह अद्वैत और आत्ममूल पर ही है ।
जबकि द्वैत ( पर आधारित ) सामाजिकता और धर्म, अधर्म आदि द्वि पक्षों को लेकर भगवद गीत मनोविकारों का सिर्फ़ उपचार सा ही करता है । उसमें कर्ता भाव का त्याग कर अकर्ता हो जाने का प्रमुख उपदेश है ।
भगवत गीता का भगवान कहता है - तुम मेरी शरण में आ जाओ । मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा । जबकि अष्टावक्र गीता कहती है - कैसी शरण और कौन शरणदाता और कैसे पाप ? ऐसा तो कुछ है ही नहीं ।
अतः जैसा कि मैंने ऊपर कहा - दोनों के स्तर में जमीन आसमान का अन्तर है ।
गीता कहती है - इस गूढ़ ज्ञान को जानने के लिये किसी तत्वदर्शी को तलाश करो । ऐसी जगह, ऐसे टेङे सीधे होकर आसन लगाओ, ऐसे नाक का कोना देखो आदि..करो । तब तुम उसको जानोगे ।
अष्टावक्र गीता कहती है - सिर्फ़ बात को तल पर समझ लो । ये सब ध्यान आदि की आवश्यकता ही नहीं । क्योंकि खुद तुम्ही तुम हो ।
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दोनों गीताओं पर आधारित उपरोक्त तथ्य बेहद उच्च स्तरीय हैं । जो सिर्फ़ प्रबुद्ध वर्ग का मानस ग्रहण कर पाता है । अतः आपके प्रश्न सार के अनुसार यह उत्तर उचित नही है । उपरोक्त सिर्फ़ विषय को स्पष्ट करने हेतु अधिक है । क्योंकि आपका प्रश्न सार सामान्य जनमानस और सामाजिकता पर केन्द्रित है । अतः उसके कारण अन्य हैं ।
महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत के लगभग वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय अंश भगवद गीता के वक्ता स्वयं श्रीकृष्ण हैं । जिनकी भारतीय हिन्दू अहिन्दू समाज में एक सर्वशक्तिमान छवि है । दरअसल में जिसके पीछे सिर्फ़ लालची भावनाओं की चाशनी अधिक लिपटी हुयी है ।
जैसे नरसी को करोङों का भात, अति निर्धन सुदामा को लोकपति बना देना, तमाम असुरों को खेल खेल में मार देना ( सुपरमेन ) सभी कुंवारियों विवाहित स्त्रियों का प्रेमी होना, तमाम चमत्कारिक और भक्तों को धन समृद्धि युक्त करने आदि आदि के हजारों वृतांत कृष्ण को ‘रोग अनेक दवा एक’ जैसा महत्वपूर्ण पद खुद दिला देते हैं । और इन सबसे भी बढ़कर कृष्ण की विष्णु अवतार, भगवान और त्रिलोकपति की छवि होना । यानी स्वर्ग नर्क, जन्म मरण, मोक्ष आदि सब उन्हीं के हाथों में । ऐसे व्यक्ति की चापलूसी कौन नहीं करेगा, सिर्फ़ ज्ञानी को छोङकर ।
अब आठ जगह से टेङे विकृत और लगभग कुरूप अष्टावक्र को, जिन्हें आज भी बहुत सा हिन्दू तक नहीं जानता । और बहुत हद जिनका परिचय एक ऋषि पिता द्वारा शापित पुत्र और जनक गुरु और एक स्वयं की गीता के उपदेशक जितना ही है । श्रीकृष्ण की सुन्दर सलौनी, मुरली बजईया, माखन चोर, नटखट बालक, सुन्दर बलिष्ठ किशोर, कुशल राजनेता, अजेय योद्धा, कुशल कूटनीतिज्ञ आदि आदि इतनी छवियां हैं कि वे आम जनमानस के सर्वप्रिय और सर्वविघ्नहारा हो ही जाते हैं । ये एक बेहद सुन्दर सुखद सपने जैसा है कि नहीं ?
जबकि अष्टावक्र कहते हैं - काहे का राज, काहे का राजा, जनक तू पागल हुआ है क्या ? सब कुछ महज सपना है । महज भ्रांति ।
देखें -
तृण से लेकर ब्रह्मा तक सब कुछ मैं ही हूँ । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकल्प ( कामना ) रहित, पवित्र, शांत और प्राप्त अप्राप्त से आसक्ति रहित हो जाता है ।7।
अनेक आश्चर्यों से युक्त यह विश्व अस्तित्वहीन है । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, इच्छा रहित और शुद्ध अस्तित्व हो जाता है । वह अपार शांति को प्राप्त करता है ।8।
अध्याय 11
ये मैंने सिर्फ़ दो उदाहरण भर दिये हैं । अष्टावक्र के सभी उपदेश ही यही कहते हैं कि - कहाँ पागल हुये हो । अरे सब भ्रम ही है ।
विशेष - अब यदि आप भगवद गीता और अष्टावक्र गीता की तुलना न करके उनके वक्ताओं की तुलना से तुलना करेंगे । तो बात स्पष्ट हो जायेगी ।
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अब एक और भी मुख्य कारण - सृष्टि की संरचना जिस तरीके पर आधारित है । उसमें आत्मज्ञान कारणवश सिर्फ़ मुठ्ठी भर लोगों को ही सिद्ध होता है । अतः ये लोकप्रिय होने जैसा विषय ही नहीं है ।
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बाबा क्या आप ये भी बताने की अनुकम्पा करेंगे कि कृष्णमूर्ति क्यों आप्रासंगिक हो गये । और ओशो जनमानस में फैलते जा रहे है ?
उत्तर - ओशो अपने सरल स्वभाव के कारण भले ही कृष्णमूर्ति के विषय में कुछ भी कहें । मैं कृष्णमूर्ति पर बात करना व्यर्थ और सर्वथा महत्वहीन मानता हूँ । तथापि नास्तिक और भूत प्रेतों को पूजने वाले जैसे भांति भांति के जीव वर्ग यहाँ मौजूद हैं । तो फ़िर कृष्णमूर्ति उनके देखे, फ़िर भी ठीक हैं ।
इन दोनों को अध्ययन स्तर पर ही जानने वाला यदि निरपेक्ष तुलना करेगा । तो ओशो की लोकप्रियता और कृष्णमूर्ति की तुलनात्मक ओशो उपेक्षा सहज ज्ञात हो जाती है ।
ओशो के स्वर में सिर्फ़ विरोध नहीं है । अनुरोध भी है । उनमें सिर्फ़ रूखापन नहीं है । श्रंगार भी है । ओशो कङवे और मीठे दोनों हैं । ओशो ( व्यक्ति भाव अनुसार ) दुश्मन और मित्र दोनों हैं । ओशो एकांगी और सर्वांगी दोनों हैं । ओशो स्त्री भी हैं और पुरुष भी । ओशो शैतान भी है और भगवान भी । ओशो निरे पागल भी है और गहरे विवेकी भी । ओशो सरस और नीरस भी हैं । कुल मिलाकर यदि ओशो बेहद असामाजिक हैं तो गहरे सामाजिक भी । ओशो एक और बहुत दोनों हैं आदि ।
लेकिन कृष्णमूर्ति सिर्फ़ रूखे हैं । चिङचिङे हैं । जैसे पलायनवादी हैं । अजीब एकांगी हैं । नीरस हैं । वह कीचङ में निर्लेप कमल सिद्धांत को स्वीकार ही नहीं करते । वह कहते हैं - या तो कीचङ ही हटा दो । या फ़िर कमल का ही स्थान बदलो । दोनों साथ नहीं होने चाहिये । और ऐसा न कभी हुआ । न आगे हो सकता है । कमल को कीचङ में ही रहना होगा । अब वह लेपित रहे या निर्लेपित, यही उसका कौशल है ।
यह विषय कुछ अधिक विस्तार की मांग करता है । पर जिन्होंने अध्ययन किया होगा । वे इतने से समझ सकेंगे ।
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दर्जा एक के विद्यार्थियों को आप सीधे डाक्ट्रेट दे या दिला सकते है ?
उत्तर - आपने कथन भाव को समझने की पूर्ण कोशिश नहीं की । फ़िर से गौर करिये - क्योंकि नेट एक ऐसा स्कूल है । जिसमें पहली कक्षा से लेकर डाक्टरेट तक के लोग ‘एक ही कक्ष’ में बैठे हैं । अतः बाद में प्रतिक्रिया में सभी चीजें स्पष्ट हो जाती हैं । अब वह बात अलग है । उस विषय से किसमें क्या और किस स्तरीय क्रिया हुयी ।
दर्जा एक छोङिये । दस दर्जा या फ़िर अधिक को भी दूसरे द्वारा नहीं दिलाया जा सकता । लेकिन किसी भी प्रस्तुति को लेकर उसकी साधारण जिज्ञासा, गहन जिज्ञासा, रुचि, चिढ़, तिरस्कार आदि आदि क्या प्रतिक्रिया रही । यह महत्वपूर्ण है । क्योंकि प्रतिक्रिया कुछ भी क्यों न हो । वह विषय को आगे ही बढ़ायेगी और स्पष्ट भी करेगी । अतः कक्षायें और स्तर बदलते ही रहेंगे ।
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बाबा आपने जो पोस्ट स्टेटस पर रखी है । क्या वह सार्वभौमिकता से सम्बध रखती है ?
उत्तर - सृष्टि का एक अति तुच्छ कण भी सर्वदा सार्वभौमिक ही है ।
तिनका कबहुं न निन्दिये, पांव तले जो होय ।
कबहु उङ आंखन परे, पीर घनेरी होय ।
अब आप अपने अन्तिम दो प्रश्नों पर विचारें । तो उत्तर स्वयं ही स्पष्ट हो जायेगा । फ़ेसबुक की इसी पोस्ट पर बहुस्तरीय प्रतिक्रियायें देखें ( दर्जा एक के विद्यार्थियों को आप सीधे डाक्ट्रेट )
एक ही पोस्ट पर कितने कृम बने ?
और सार्वभौमिकता की बात यह है कि जैसा कि मैंने ऊपर कहा - अतः बाद में प्रतिक्रिया में सभी चीजें स्पष्ट हो जाती हैं । अब वह बात अलग है । उस विषय से किसमें क्या और किस स्तरीय क्रिया हुयी ।
खास सिर्फ़ एक अंतरप्रकाश की हलचल के आधार पर इसने कितना विस्तार ले लिया ? नेट पर इसका बीजारोपङ हो गया । अतः आगे कितना सार्वभौम हो सकता है ? यह कहा नहीं जा सकता ।
at 9:46 pm
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17 जुलाई 2016
अष्टावक्र महागीता 1
अध्याय 1
जनक, अष्टावक्र से पूछते हैं - हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है । मुक्ति कैसे प्राप्त होती है । वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है ? ये सब मुझे बताएं ।1।
अष्टावक्र उत्तर देते हैं - यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये ।
क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये ।2।
आप न पृथ्वी हैं, न जल न अग्नि न वायु अथवा आकाश ही हैं । मुक्ति के लिए इन तत्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए ।3।
यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें । तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे ।4।
आप ब्राह्मण आदि सभी जातियों अथवा ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं । तथा आँखों से दिखाई न पड़ने वाले हैं । आप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं । ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ ।5।
धर्म, अधर्म, सुख, दुख मस्तिष्क से जुड़ें हैं । सर्व व्यापक आपसे नहीं । न आप करने वाले हैं । और न भोगने वाले हैं । आप सदा मुक्त ही हैं ।6।
आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं । सदा मुक्त ही हैं । आपका बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं ।7।
अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाववश आप ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मान लेते हैं । ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जाईये ।8।
मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ । इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें । इस प्रकार शोक रहित होकर सुखी हो जाएँ ।9।
जहाँ ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे । उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें ।10।
स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है । यह कहावत सत्य ही है कि - जैसी बुद्धि होती है । वैसी ही गति होती है ।11।
आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक, मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छारहित एवं शांत है । भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है ।12।
अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और ‘मैं’ के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें ।13।
हे पुत्र ! बहुत समय से आप ‘मैं शरीर हूँ’ इस भाव बंधन से बंधे हैं । स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ ।14।
आप असंग, अक्रिय, स्वयं प्रकाशवान तथा सर्वथा दोष मुक्त हैं । आपका ध्यान द्वारा मस्तिष्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है ।15।
यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है । वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है । तुम शुद्ध और ज्ञान स्वरुप हो । छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो ।16।
आप इच्छा रहित, विकार रहित, घन (ठोस) शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं । शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये ।17।
आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये । इस तत्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है ।18।
जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी । उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी ।19।
जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है । उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है ।20।
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अध्याय 2
जनक कहते हैं -
आश्चर्य ! मैं निष्कलंक, शांत, प्रकृति से परे, ज्ञान स्वरुप हूँ । इतने समय तक मैं मोह से संतप्त किया गया ।1।
जिस प्रकार मैं इस शरीर को प्रकाशित करता हूँ, उसी प्रकार इस विश्व को भी । अतः मैं यह समस्त विश्व ही हूँ अथवा कुछ भी नहीं ।2।
अब शरीर सहित इस विश्व को त्याग कर किसी कौशल द्वारा ही मेरे द्वारा परमात्मा का दर्शन किया जाता है ।3।
जिस प्रकार पानी लहर, फेन और बुलबुलों से पृथक नहीं है । उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं से निकले इस विश्व से अलग नहीं है ।4।
जिस प्रकार विचार करने पर वस्त्र तंतु (धागा) मात्र ही ज्ञात होता है । उसी प्रकार यह समस्त विश्व आत्मा मात्र ही है ।5।
जिस प्रकार गन्ने के रस से बनी शक्कर उससे ही व्याप्त होती है । उसी प्रकार यह विश्व मुझसे ही बना है । और निरंतर मुझसे ही व्याप्त है ।6।
आत्मा अज्ञानवश ही विश्व के रूप में दिखाई देती है । आत्मज्ञान होने पर यह विश्व दिखाई नहीं देता है । रस्सी अज्ञानवश सर्प जैसी दिखाई देती है । रस्सी का ज्ञान हो जाने पर सर्प दिखाई नहीं देता है ।7।
प्रकाश मेरा स्वरुप है । इसके अतिरिक्त मैं कुछ और नहीं हूँ । वह प्रकाश जैसे इस विश्व को प्रकाशित करता है । वैसे ही इस ‘मैं’ भाव को भी ।8।
आश्चर्य, यह कल्पित विश्व अज्ञान से मुझमें दिखाई देता है । जैसे सीप में चाँदी, रस्सी में सर्प और सूर्य किरणों में पानी ।9।
मुझसे उत्पन्न हुआ विश्व मुझमें ही विलीन हो जाता है जैसे घड़ा मिटटी में, लहर जल में और कड़ा सोने में विलीन हो जाता है ।10।
आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है । समस्त विश्व के नष्ट हो जाने पर भी जिसका विनाश नहीं होता ।
जो तृण से ब्रह्मा तक सबका विनाश होने पर भी विद्यमान रहता है ।11।
आश्चर्य है । मुझको नमस्कार है । मैं एक हूँ । शरीर वाला होते हुए भी जो न कहीं जाता है । और न कहीं आता है । और समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित है ।12।
आश्चर्य है । मुझको नमस्कार है । जो कुशल है । और जिसके समान कोई और नहीं है । जिसने इस शरीर को बिना स्पर्श करते हुए इस विश्व को अनादि काल से धारण किया हुआ है ।13।
आश्चर्य है । मुझको नमस्कार है । जिसका यह कुछ भी नहीं है । अथवा जो भी वाणी और मन से समझ में आता है । वह सब जिसका है ।14।
ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता यह तीनों वास्तव में नहीं हैं । यह जो अज्ञानवश दिखाई देता है । वह निष्कलंक मैं ही हूँ ।15।
द्वैत (भेद) सभी दुखों का मूल कारण है । इसकी इसके अतिरिक्त कोई और औषधि नहीं है कि यह सब जो दिखाई दे रहा है । वह सब असत्य है । मैं एक, चैतन्य और निर्मल हूँ ।16।
मैं केवल ज्ञान स्वरुप हूँ । अज्ञान से ही मेरे द्वारा स्वयं में अन्य गुण कल्पित किये गए हैं । ऐसा विचार करके मैं सनातन और कारण रहित रूप से स्थित हूँ ।17।
न मुझे कोई बंधन है और न कोई मुक्ति का भ्रम । मैं शांत और आश्रय रहित हूँ । मुझमें स्थित यह विश्व भी वस्तुतः मुझमें स्थित नहीं है ।18।
यह निश्चित है कि इस शरीर सहित यह विश्व अस्तित्वहीन है । केवल शुद्ध, चैतन्य आत्मा का ही अस्तित्व है । अब इसमें क्या कल्पना की जाये ।19।
शरीर, स्वर्ग, नरक, बंधन, मोक्ष और भय ये सब कल्पना मात्र ही हैं । इनसे मुझ चैतन्य स्वरुप का क्या प्रयोजन है ।20।
आश्चर्य कि मैं लोगों के समूह मंत भी दूसरे को नहीं देखता हूँ । वह भी निर्जन ही प्रतीत होता है । अब मैं किससे मोह करूँ ।21।
न मैं शरीर हूँ । न यह शरीर ही मेरा है । न मैं जीव हूँ । मैं चैतन्य हूँ । मेरे अन्दर जीने की इच्छा ही मेरा बंधन थी ।22।
आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में चित्त वायु उठने पर ब्रह्माण्ड रूपी विचित्र तरंगें उपस्थित हो जाती हैं ।23।
मुझ अनंत महासागर में चित्त वायु के शांत होने पर जीव रूपी वणिक का संसार रूपी जहाज जैसे दुर्भाग्य से नष्ट हो जाता है ।24।
आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में जीव रूपी लहरें उत्पन्न होती हैं । मिलती हैं । खेलती हैं और स्वभाव से मुझमें प्रवेश कर जाती हैं ।25।
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अध्याय 3
अष्टावक्र कहते हैं -
आत्मा को अविनाशी और एक जानो । उस आत्मज्ञान को प्राप्त कर, किसी बुद्धिमान व्यक्ति की रूचि धन अर्जित करने में कैसे हो सकती है ।1।
स्वयं के अज्ञान से भ्रमवश विषयों से लगाव हो जाता है । जैसे सीप में चाँदी का भ्रम होने पर उसमें लोभ उत्पन्न हो जाता है ।2।
सागर से लहरों के समान जिससे यह विश्व उत्पन्न होता है । वह मैं ही हूँ । जानकर तुम एक दीन जैसे कैसे भाग सकते हो ।3।
यह सुनकर भी कि आत्मा शुद्ध, चैतन्य और अत्यंत सुन्दर है । तुम कैसे जननेंद्रिय में आसक्त होकर मलिनता को प्राप्त हो सकते हो ।4।
सभी प्राणियों में स्वयं को और स्वयं में सब प्राणियों को जानने वाले मुनि में ममता की भावना का बने रहना आश्चर्य ही है ।5।
एक ब्रह्म का आश्रय लेने वाले और मोक्ष के अर्थ का ज्ञान रखने वाले का आमोद प्रमोद द्वारा उत्पन्न कामनाओं से विचलित होना आश्चर्य ही है ।6।
अंत समय के निकट पहुँच चुके व्यक्ति का उत्पन्न ज्ञान के अमित्र काम की इच्छा रखना, जिसको धारण करने में वह अत्यंत अशक्त है । आश्चर्य ही है ।7।
इस लोक और परलोक से विरक्त, नित्य और अनित्य का ज्ञान रखने वाले और मोक्ष की कामना रखने वालों का मोक्ष से डरना, आश्चर्य ही है ।8।
सदा केवल आत्मा का दर्शन करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति भोजन कराने पर या पीड़ित करने पर न प्रसन्न होते हैं और न क्रोध ही करते हैं ।9।
अपने कार्यशील शरीर को दूसरों के शरीरों की तरह देखने वाले महापुरुषों को प्रशंसा या निंदा कैसे विचलित कर सकती है ।10।
समस्त जिज्ञासाओं से रहित, इस विश्व को माया में कल्पित देखने वाले, स्थिर प्रज्ञा वाले व्यक्ति को आसन्न मृत्यु भी कैसे भयभीत कर सकती है ।11।
निराशा में भी समस्त इच्छाओं से रहित, स्वयं के ज्ञान से प्रसन्न महात्मा की तुलना किससे की जा सकती है ।12।
स्वभाव से ही विश्व को दृश्यमान जानो । इसका कुछ भी अस्तित्व नहीं है । यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने योग्य, देखने वाला स्थिर प्रज्ञायुक्त व्यक्ति क्या देखता है ? ।13।
विषयों की आतंरिक आसक्ति का त्याग करने वाले, संदेह से परे, बिना किसी इच्छा वाले व्यक्ति को स्वतः आने वाले भोग न दुखी कर सकते है और न सुखी ।14।
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अध्याय 4
अष्टावक्र कहते हैं -
स्वयं को जानने वाला बुद्धिमान व्यक्ति इस संसार की परिस्थितियों को खेल की तरह लेता है । उसकी सांसारिक परिस्थितियों का बोझ (दबाव) लेने वाले मोहित व्यक्ति के साथ बिलकुल भी समानता नहीं है ।1।
जिस पद की इन्द्र आदि सभी देवता इच्छा रखते हैं । उस पद में स्थित होकर भी योगी हर्ष नहीं करता है ।2।
उस (ब्रह्म) को जानने वाले के अन्तःकरण से पुण्य और पाप का स्पर्श नहीं होता है । जिस प्रकार आकाश में दिखने वाले धुंयें से आकाश का संयोग नहीं होता है ।3।
जिस महापुरुष ने स्वयं को ही इस समस्त जगत के रूप में जान लिया है । उसके स्वेच्छा से वर्तमान में रहने को रोकने की सामर्थ्य किसमें है ।4।
ब्रह्मा से तृण तक, चारों प्रकार के प्राणियों में केवल आत्मज्ञानी ही इच्छा और अनिच्छा का परित्याग करने में समर्थ है ।5।
आत्मा को एक और जगत का ईश्वर कोई कोई ही जानता है । जो ऐसा जान जाता है । उसको किसी से भी किसी प्रकार का भय नहीं है ।6।
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अध्याय 5
अष्टावक्र कहते हैं -
तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है । तुम शुद्ध हो । तुम क्या त्यागना चाहते हो । इस (अवास्तविक) सम्मिलन को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो ।1।
जिस प्रकार समुद्र से बुलबुले उत्पन्न होते हैं । उसी प्रकार विश्व एक आत्मा से ही उत्पन्न होता है । यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो ।2।
यद्यपि यह विश्व आँखों से दिखाई देता है परन्तु अवास्तविक है । विशुद्ध तुम में इस विश्व का अस्तित्व उसी प्रकार नहीं है । जिस प्रकार कल्पित सर्प का रस्सी में । यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो ।3।
स्वयं को सुख और दुःख में समान, पूर्ण, आशा और निराशा में समान, जीवन और मृत्यु में समान, सत्य जानकर ब्रह्म से योग ( एकरूपता ) को प्राप्त करो ।4।
at 9:32 pm
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अष्टावक्र महागीता 2
अध्याय 6
अष्टावक्र कहते हैं -
आकाश के समान मैं अनंत हूँ और यह जगत घड़े के समान महत्वहीन है । यह ज्ञान है । इसका न त्याग करना है और न ग्रहण । बस इसके साथ एकरूप होना है ।1।
मैं महासागर के समान हूँ और यह दृश्यमान संसार लहरों के समान । यह ज्ञान है । इसका न त्याग करना है और न ग्रहण । बस इसके साथ एकरूप होना है ।2।
यह विश्व मुझमें वैसे ही कल्पित है जैसे कि सीप में चाँदी । यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण । बस इसके साथ एकरूप होना है ।3।
मैं समस्त प्राणियों में हूँ । जैसे सभी प्राणी मुझमें हैं । यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण । बस इसके साथ एकरूप होना है ।4।
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अध्याय 7
जनक कहते हैं -
मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी जहाज अपनी अन्तः वायु से इधर उधर घूमता है पर इससे मुझमें विक्षोभ नहीं होता है ।1।
मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी लहरें माया से स्वयं ही उदित और अस्त होती रहती हैं । इससे मुझमें वृद्धि या क्षति नहीं होती है ।2।
मुझ अनंत महासागर में विश्व एक अवास्तविकता (स्वप्न) है । मैं अति शांत और निराकार रूप से स्थित हूँ ।3।
उस अनंत और निरंजन अवस्था में न ‘मैं‘ का भाव है और न कोई अन्य भाव ही, इस प्रकार असक्त, बिना किसी इच्छा के और शांत रूप से मैं स्थित हूँ ।4।
आश्चर्य मैं शुद्ध चैतन्य हूँ और यह जगत असत्य जादू के समान है । इस प्रकार मुझमें कहाँ और कैसे अच्छे (उपयोगी) और बुरे (अनुपयोगी) की कल्पना ।5।
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अध्याय 8
अष्टावक्र कहते हैं -
तब बंधन है । जब मन इच्छा करता है । शोक करता है । कुछ त्याग करता है । कुछ ग्रहण करता है । कभी प्रसन्न होता है । या कभी क्रोधित होता है ।1।
तब मुक्ति है । जब मन इच्छा नहीं करता है । शोक नहीं करता है । त्याग नहीं करता है । ग्रहण नहीं करता है । प्रसन्न नहीं होता है । या क्रोधित नहीं होता है ।2।
तब बंधन है । जब मन किसी भी दृश्यमान वस्तु में आसक्त है । तब मुक्ति है । जब मन किसी भी दृश्यमान वस्तु में आसक्ति रहित है ।3।
जब तक ‘मैं’ या ‘मेरा’ का भाव है । तब तक बंधन है । जब ‘मैं’ या ‘मेरा’ का भाव नहीं है । तब मुक्ति है । यह जानकर न कुछ त्याग करो और न कुछ ग्रहण ही करो ।4।
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अध्याय 9
अष्टावक्र कहते हैं -
यह कार्य करने योग्य है अथवा न करने योग्य और ऐसे ही अन्य द्वंद्व (हाँ या न रूपी संशय) कब और किसके शांत हुए हैं । ऐसा विचार करके विरक्त (उदासीन) हो जाओ । त्यागवान बनो । ऐसे किसी नियम का पालन न करने वाले बनो ।1।
हे पुत्र ! इस संसार की (व्यर्थ) चेष्टा को देख कर किसी धन्य पुरुष की ही जीने की इच्छा, भोगों के उपभोग की इच्छा और भोजन की इच्छा शांत हो पाती है ।2।
यह सब अनित्य है । तीन प्रकार के कष्टों (दैहिक, दैविक और भौतिक) से घिरा है । सारहीन है । निंदनीय है । त्याग करने योग्य है । ऐसा निश्चित करके ही शांति प्राप्त होती है ।3।
ऐसा कौन सा समय अथवा उम्र है । जब मनुष्य के संशय नहीं रहे हैं । अतः संशयों की उपेक्षा करके अनायास सिद्धि को प्राप्त करो ।4।
महर्षियों, साधुओं और योगियों के विभिन्न मतों को देखकर कौन मनुष्य वैराग्यवान होकर शांत नहीं हो जायेगा ।5।
चैतन्य का साक्षात ज्ञान प्राप्त करके कौन वैराग्य और समता से युक्त कौन गुरु जन्म और मृत्यु के बंधन से तार नहीं देगा ।6।
तत्वों के विकार को वास्तव में उनकी मात्रा के परिवर्तन के रूप में देखो । ऐसा देखते ही उसी क्षण तुम बंधन से मुक्त होकर अपने स्वरुप में स्थित हो जाओगे ।7।
इच्छा ही संसार है । ऐसा जानकर सबका त्याग कर दो । उस त्याग से इच्छाओं का त्याग हो जायेगा । और तुम्हारी यथारूप अपने स्वरुप में स्थिति हो जाएगी ।8।
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अध्याय 10
अष्टावक्र कहते हैं -
कामना और अनर्थों के समूह धन रूपी शत्रुओं को त्याग दो । इन दोनों के त्याग रूपी धर्म से युक्त होकर सर्वत्र विरक्त (उदासीन) हो जाओ ।1।
मित्र, जमीन, कोषागार, पत्नी और अन्य संपत्तियों को स्वप्न की माया के समान तीन या पाँच दिनों में नष्ट होने वाला देखो ।2।
जहाँ जहाँ आसक्ति हो । उसको ही संसार जानो । इस प्रकार परिपक्व वैराग्य के आश्रय में तृष्णा रहित होकर सुखी हो जाओ ।3।
तृष्णा (कामना) मात्र ही स्वयं का बंधन है । उसके नाश को मोक्ष कहा जाता है । संसार में अनासक्ति से ही निरंतर आनंद की प्राप्ति होती है ।4।
तुम एक (अद्वितीय) चेतन और शुद्ध हो तथा यह विश्व अचेतन और असत्य है । तुममें अज्ञान का लेश मात्र भी नहीं है और जानने की इच्छा भी नहीं है ।5।
पूर्व जन्मों में बहुत बार तुम्हारे राज्य, पुत्र, स्त्री, शरीर और सुखों का, तुम्हारी आसक्ति होने पर भी नाश हो चुका है ।6।
पर्याप्त धन, इच्छाओं और शुभ कर्मों द्वारा भी इस संसार रूपी माया से मन को शांति नहीं मिली ।7।
कितने जन्मों में शरीर, मन और वाणी से दुःख के कारण कर्मों को तुमने नहीं किया ? अब उनसे उपरत (विरक्त) हो जाओ ।8।
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अध्याय 11
अष्टावक्र कहते हैं -
भाव (सृष्टि, स्थिति) और अभाव (प्रलय, मृत्यु) रूपी विकार स्वाभाविक हैं । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकार रहित, दुख रहित होकर सुख पूर्वक शांति को प्राप्त हो जाता है ।1।
ईश्वर सबका सृष्टा है कोई अन्य नहीं । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाले की सभी आन्तरिक इच्छाओं का नाश हो जाता है । वह शांत पुरुष सर्वत्र आसक्ति रहित हो जाता है ।2।
संपत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) का समय प्रारब्धवश (पूर्वकृत कर्मों के अनुसार) है । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला संतोष और निरंतर संयमित इन्द्रियों से युक्त हो जाता है । वह न इच्छा करता है और न शोक ।3।
सुख दुख और जन्म मृत्यु प्रारब्धवश (पूर्वकृत कर्मों के अनुसार) हैं । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, फल की इच्छा न रखने वाला, सरलता से कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता है ।4।
चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है ।5।
न मैं यह शरीर हूँ । और न यह शरीर मेरा है । मैं ज्ञान स्वरुप हूँ । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है । वह किये हुए (भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है ।6।
तृण से लेकर ब्रह्मा तक सब कुछ मैं ही हूँ । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकल्प (कामना) रहित, पवित्र, शांत और प्राप्त अप्राप्त से आसक्ति रहित हो जाता है ।7।
अनेक आश्चर्यों से युक्त यह विश्व अस्तित्वहीन है । ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, इच्छा रहित और शुद्ध अस्तित्व हो जाता है । वह अपार शांति को प्राप्त करता है ।8।
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अध्याय 12
जनक कहते हैं -
पहले मैं शारीरिक कर्मों से निरपेक्ष (उदासीन) हुआ | फिर वाणी से निरपेक्ष (उदासीन) हुआ । अब चिंता से निरपेक्ष (उदासीन) होकर अपने स्वरुप में स्थित हूँ ।1।
शब्द आदि विषयों में आसक्ति रहित होकर और आत्मा के दृष्टि का विषय न होने के कारण मैं निश्चल और एकाग्र ह्रदय से अपने स्वरुप में स्थित हूँ ।2।
अध्यास (असत्य ज्ञान) आदि असामान्य स्थितियों और समाधि को एक नियम के समान देखते हुए मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ ।3।
हे ब्रह्म को जानने वाले ! त्याज्य (छोड़ने योग्य) और संग्रहणीय से दूर होकर और सुख दुख के अभाव में मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ ।4।
आश्रम अनाश्रम, ध्यान और मन द्वारा स्वीकृत और निषिद्ध नियमों को देख कर मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ ।5।
कर्मों के अनुष्ठान रूपी अज्ञान से निवृत्त होकर और तत्व को सम्यक रूप से जान कर मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ ।6।
अचिन्त्य के सम्बन्ध में विचार करते हुए भी विचार पर ही चिंतन किया जाता है । अतः उस विचार का भी परित्याग करके मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ ।7।
जो इस प्रकार से आचरण करता है वह कृतार्थ (मुक्त) हो जाता है । जिसका इस प्रकार का स्वभाव है । वह कृतार्थ (मुक्त) हो जाता है ।8।
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अध्याय 13
जनक कहते हैं -
अकिंचन (कुछ अपना न) होने की सहजता केवल कौपीन पहनने पर भी मुश्किल से प्राप्त होती है । अतः त्याग और संग्रह की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ ।1।
शारीरिक दुःख भी कहाँ (अर्थात नहीं) हैं । वाणी के दुख भी कहाँ हैं । वहाँ मन भी कहाँ है । सभी प्रयत्नों को त्याग कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ ।2।
किये हुए किसी भी कार्य का वस्तुतः कोई अस्तित्व नहीं है । ऐसा तत्व पूर्वक विचार करके, जब जो भी कर्त्तव्य है । उसको करते हुए सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ ।3।
शरीर भाव में स्थित योगियों के लिए कर्म और अकर्म रूपी बंधनकारी भाव होते हैं पर संयोग और वियोग की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ ।4।
विश्राम, गति, शयन, बैठने, चलने और स्वप्न में वस्तुतः मेरे लाभ और हानि नहीं हैं । अतः सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ ।5।
सोने में मेरी हानि नहीं है और उद्योग अथवा अनुद्योग में मेरा लाभ नहीं है । अतः हर्ष और शोक की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमानहूँ ।6।
सुख, दुख आदि स्थितियों के क्रम से आने के नियम पर बार बार विचार करके, शुभ (अच्छे) और अशुभ (बुरे) की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ ।7।
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अध्याय 14
जनक कहते हैं -
जो स्वभाव से ही विचार शून्य है और शायद ही कभी कोई इच्छा करता है । वह पूर्व स्मृतियों
से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है । जैसे कि नींद से जागा हुआ व्यक्ति अपने सपनों से ।1।
जब मैं कोई इच्छा नहीं करता । तब मुझे धन, मित्रों, विषयों, शास्त्रों और विज्ञान से क्या प्रयोजन है ।2।
साक्षी पुरुष रूपी परमात्मा या ईश्वर को जानकर मैं बंधन और मोक्ष से निरपेक्ष हो गया हूँ और मुझे मोक्ष की चिंता भी नहीं है ।3।
आतंरिक इच्छाओं से रहित, बाह्य रूप में चिंता रहित आचरण वाले, प्रायः मत्त पुरुष जैसे ही दिखने वाले प्रकाशित पुरुष अपने जैसे प्रकाशित पुरुषों द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं ।4।
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अध्याय 15
अष्टावक्र कहते हैं -
सात्विक बुद्धि से युक्त मनुष्य साधारण प्रकार के उपदेश से भी कृतकृत्य (मुक्त) हो जाता है परन्तु ऐसा न होने पर आजीवन जिज्ञासु होने पर भी परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है ।1।
विषयों से उदासीन होना मोक्ष है और विषयों में रस लेना बंधन है । ऐसा जानकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा ही करो ।2।
वाणी, बुद्धि और कर्मों से महान कार्य करने वाले मनुष्यों को तत्व ज्ञान शांत, स्तब्ध और कर्म न करने वाला बना देता है । अतः सुख की इच्छा रखने वाले इसका त्याग कर देते हैं ।3।
न तुम शरीर हो और न यह शरीर तुम्हारा है । न ही तुम भोगने वाले अथवा करने वाले हो । तुम चैतन्य रूप हो । शाश्वत साक्षी हो । इच्छा रहित हो । अतः सुखपूर्वक रहो ।4।
राग (प्रियता) और द्वेष (अप्रियता) मन के धर्म हैं और तुम किसी भी प्रकार से मन नहीं हो । तुम कामना रहित हो । ज्ञान स्वरुप हो । विकार रहित हो । अतः सुखपूर्वक रहो ।5।
समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ ।6।
इस विश्व की उत्पत्ति तुमसे उसी प्रकार होती है । जैसे कि समुद्र से लहरों की, इसमें संदेह नहीं है । तुम चैतन्य स्वरुप हो । अतः चिंता रहित हो जाओ ।7।
हे प्रिय ! इस अनुभव पर निष्ठा रखो । इस पर श्रद्धा रखो । इस अनुभव की सत्यता के सम्बन्ध में मोहित मत हो । तुम ज्ञान स्वरुप हो । तुम प्रकृति से परे और आत्म स्वरुप भगवान हो ।8।
गुणों से निर्मित यह शरीर स्थिति, जन्म और मरण को प्राप्त होता है । आत्मा न आती है और
न ही जाती है ।
at 9:24 pm
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12 जुलाई 2016
जिन्न लोक में
पहले मैंने इस घटना को अगले ही दिन प्रकाशित करने का विचार किया । परन्तु फ़िर यह उचित नहीं लगा और धीरे धीरे विचार हटता गया । लेकिन कल अचानक फ़िर लगा कि इसे बता देना चाहिये ।
वह कोई 26 जून के आसपास की रात थी । उमस भरी भयानक गर्मी जैसे अपनी चरम सीमा पर थी । मेरे बिस्तर के ठीक सिरहाने रखा कूलर भले ही पानी की नन्हीं नन्हीं बूंदों के साथ ठंडी हवा फ़ेंकने का प्रयास सा कर रहा था पर भट्टी जैसे तपते वातावरण से वह भी मानों परास्त हो रहा था । कूलर के अतिरिक्त एक टेबल फ़ैन बिस्तर के ठीक साइड में रखा था । और बिस्तर के दूसरी साइड में 4 फ़ुट ऊँची 6 फ़ुट लम्बी खिङकी पूरी तरह से खुली हुयी थी ।
खिङकी के बाहर हजार वर्ग गज से भी अधिक खुला स्थान था और अन्य मकान तथा उनकी दीवारें काफ़ी दूर ही थे । घर के आसपास का अन्य भाग भी अधिक संकुचित congested नहीं था । फ़िर भी गर्मी का यह हाल था । मानों आग की छोटी छोटी चिनगियां सी कभी कभार बरस रही हों ।
भयंकर उमस के ऐसे वातावरण में छोटे छोटे कीट पतंगे ठंडे स्थानों की ओर स्वाभाविक ही भागते हैं । सो मेरे बिस्तर पर भी कोई दस बीस कीट आराम से आ चुके थे । और कुछ मेरे वस्त्रों में घुस कर गर्मी का गुस्सा मुझ पर उतारते हुये काट रहे थे । और कई कारणों से सिवाय सहने के मेरे पास इन सब संकटों का कोई हल नहीं था । खुद को शान्त रखना अति मुश्किल हो रहा था ।
फ़िर जब बर्दाश्त के बाहर हो गया तो मैंने शीतली प्राणायाम, समाधि आदि जैसे कुछ विकल्पों पर विचार किया । परन्तु क्रियान्वित करने में असफ़ल रहा ।
इसी बीच मैंने सेलफ़ोन में एक बार समय देखा । तो 11:10 हो चुके थे । एक बार को तो मुझे लगा कि लेटने के बजाय बैठ जाना उचित है । क्योंकि बैठ कर गर्मी कम लगती है । लेकिन फ़िर मैंने इरादा टाल दिया । और जाही विधि राखे राम..जैसा सन्तोषप्रद विचार मनन करते हुये खुद को शान्त करने की कोशिश करने लगा ।
लेकिन उस वक्त तक मैं नहीं जानता था कि मेरे साथ कुछ ही देर में क्या घटने वाला है ?
11:10 के बाद शायद आधा घन्टा और हुआ होगा कि गर्मी और शरीर पर रखे हाथ के दबाव से यकायक मेरी चेतना शून्य हो गयी । अब गर्मी का कोई अहसास तक न था । और सुखद शीतलता एक आनन्द सा दे रही थी ।
तभी मेरे कन्धे और कमर पर एक अजीब सा तीवृ बल महसूस हुआ और दो दस बारह साल के मजबूत ( लेकिन उसके कुछ मिनटों बाद ही पता लगा ) बच्चों के साये का मुझे आभास हुआ । वे मुझे उठाने के लिये बल प्रयोग कर रहे थे । पर उन्हें जैसे कठिनाई सी हो रही थी । वे जिन्न बच्चे थे । लेकिन यह बात मुझे बाद में पता लगी ।
प्रेतों और जिन्नों के साथ मेरा ये कोई नया अनुभव नहीं था । और मेरा उस वक्त उनसे व्यवहार भी सामान्य लोगों की भांति नहीं होता । सामान्य लोग ऐसे में गिगिया कर चीख पङते हैं । उनको हांफ़नी सी आती है और कभी कभी भयभीत होकर वे कहते हैं - ओ रे दईया..लिये जात है..आदि ।
पर मेरे साथ ऐसा नहीं था । मैं केवल शान्त और निष्क्रिय ही था और उनके बल का अनुभव कर रहा था ।
दोनों जिन्न बच्चे अन्दाजन कोई आठ मिनट मुझे उठाने की चेष्टा करते रहे । दस बारह की आयु समान दिखने वाले कोई ढ़ाई फ़ुट लम्बे इन बच्चों का बल किसी हष्ट पुष्ट पहलवान जैसा ही था । कभी कभी बीच में वे कोई अस्पष्ट सा शब्द बोलते ।
फ़िर जैसे खिसियाकर उन्होंने मेरे बेड की दिशा बदलते हुये उसे पूर्व ( सिरहाना ) पश्चिम से दक्षिण ( सिरहाना ) उत्तर कर दिया । और फ़िर कुछ किलकारियां सी भरी । बीच में उनकी किसी हरकत से तंग आकर मैंने उन्हें गाली भी दी ।
इसके बाद उन्होंने मेरे तकिये के ऊपरी हिस्से की रुई में आग लगा दी । रुई जलने की गन्ध के साथ ही धुंआ उठने लगा । जिन्न अक्सर ही ऐसा करते हैं । चारपाई, आदमी या अन्य वस्तुओं की उठापटक तथा कभी कभी मेज कुर्सी चारपाई आदि चीजों को तोङने लगते हैं ।
जब तकिये से धुंआ उठ रहा था । मैंने उन्हें पुनः गाली दी । फ़िर जाने क्यों उन्होंने तकिया बुझा दिया ( मुझे लगता है तकिया जलाना उनके किसी से सम्पर्क या अन्य क्रिया हेतु था । जिसका परिणाम तुरन्त हुआ )
और इसके ठीक अगले क्षण मैं यहाँ ( चित्र देखें ) जिन्न लोक में था ।
यह चित्र मैंने लगभग वैसा ही बनाया है । तथापि उतना अच्छा चित्रकार न होने से हूबहू नहीं बना सका । और कुछ भाग छूट गया । क्योंकि जो दृष्टि पटल हुआ । वह दायरा अधिक था ।
जिन्न लोक में पहुँचते ही मैं सबसे पहले उस स्थान पर गर्ल 1 के पास गया । जो बाहरी आंगन से हटकर अन्दर के आंगन में बैठी थी । मुझे ध्यान नहीं, मैंने उससे क्या कहा ।
फ़िर वह और मैं दोनों साथ साथ बाहर चारपाई के पास ( देखें डाटेड रेखा ) आ गये । वह वहाँ बैठे आदमी से कुछ बोली ।
जबकि उस वक्त मेरी निगाह सीधी बगल वाले घर में गयी । जिसमें एक किशोर वयः की नाटे कद और कुछ ही चौङी देह की लङकी जैसे गम्भीर रूप से परीक्षा की तैयारी में हाथ में किताब पकङे हुये चलती हुयी पढ़ रही थी । उसने एकाएक मेरी तरफ़ देखा । हमारी निगाहें मिली । उसकी प्रतिक्रिया उस परिचित घर में मुझ अजनबी को देखकर साधारण चौंकने जैसी ही हुयी । और वह फ़िर से किताब देखने लगी । लेकिन मैं उसे और उस घर को ही देखता रहा । उसी समय उसी घर में एक जवान महिला दरवाजे से बाहर निकल कर घर के दूसरे हिस्से की तरफ़ जाने लगी । जिधर रसोई जैसा कुछ लग रहा था । और उधर से एक जवान लङकी दरवाजे की तरफ़ जाने लगी ( ये दोनों लम्बाई आदि को लेकर औसत शरीर की थीं ) लेकिन पढ़ने वाली लङकी वहीं रही और किताब में ही ध्यान रखे थी ।
बगल वाले घर की सभी लङकियां साफ़ और गेहुंआ रंग की ही थी । लेकिन मेरे साथ वाली लङकी अधिक सांवली, दुबली और करीब पाँच फ़ुट लम्बी थी । दोनों बच्चे भी अधिक सांवले थे । लेकिन चारपाई पर बैठा अधेङ पुरुष गेहुंआ से कुछ अधिक पीला सा था और तब मजबूत देह का था ।
मैं बङे आराम से खङा हुआ वह सब देख रहा था । और वहाँ कुछ देर रुकना भी चाहता था । अतः प्रथमदृष्टया ही मेरे मन में आया कि शायद ये यक्ष लोक है । और मेरा यही विचार बनने लगा था ।
लेकिन वहाँ एक बात मुझे खटक रही थी कि सभी स्त्री वर्ग के वक्ष उभार बेहद मामूली से थे । और मेरे साथ वाली लङकी तो जैसे सपाट थी । जबकि उसकी आयु बीस से ऊपर की थी । अतः ये यक्ष लोक कदापि नहीं था ।
जब गर्ल 1 चारपाई पर बैठे उस अधेङ आदमी से बात कर रही थी । मैं बगल वाले घर की तरफ़ ही देख रहा था । इन दोनों मकानों के बीच अन्तर के लिये सिर्फ़ तीन फ़ुट उँची दीवार ही थी । और उस बगल वाले घर के आगे जो मिले हुये मकान थे । उनमें भी लगभग इतनी ही दीवार थी । मकानों की बनावट कुछ ऐसी थी कि मुझे बगल वाले मकान की तरफ़ देखने से दूर तक के मकान नजर आ रहे थे और ऊपर नीला आकाश फ़ैला हुआ था ।
बगल वाले घर की लङकी के वस्त्र सफ़ेद और कुछ गुलाबी रंग मिली डिजायन वाले थे । अधेङ कुर्ता पायजामा पहने था । बच्चे साधारण नेकर कमीज पहने थे । और मेरे साथ वाली लङकी लाल में जामुनी रंग मिले हुये वस्त्र पहने थी ।
तब फ़िर मेरी निगाह उस घर को देखने लगी । जिसमें मैं खङा था । इसी चारपाई से थोङा हटकर दो मंजिला मकान की ऊँचाई के बराबर मेरे लिये कोई अपरिचित वृक्ष खङा था । और उसी वृक्ष के साइड से मकान के किसी भाग में जाने हेतु एक रास्ता था ।
मैं सबसे पहले जिस लङकी के पास गया । उस भाग में पिछली दीवाल दो मंजिला से भी अधिक उँची थी ।
यह सब मैंने उतनी देर में आराम से देखा । जब वह अधेङ और उसके पीछे कुछ झुकी खङी गर्ल 1 पासपोर्ट साइज के कुछ रंगीन फ़ोटो देख कर कुछ मिलान सा कर रहे थे । और बच्चे आपस में कुछ बातें सी करते हुये आपस में एक दूसरे की तरफ़ देख रहे थे । इतनी ही देर में मुझे निश्चय हो गया कि यह जिन्न लोक ही है ।
इस गर्ल 1 की मृत्यु लगभग 2011 में 48 आयु में हुयी थी । और चारपाई पर बैठा अधेङ आदमी उसका पिता था । जिसकी मृत्यु लगभग 2007-8 में 72 आयु में हुयी थी । उस समय जब वह जीवित थे । मैंने उन्हें अच्छे परिचित के तौर पर देखा था । कुछ समय का साथ जैसा भी था ।
यह व्यक्ति जो अभी मजबूत अधेङ लग रहा था । जीवित रहने पर थोङी ही शक्ति वाला वृद्ध था । और अपने ही एकमात्र पुत्र द्वारा गांव के बाहर खुले तालाब के पास कुछ दिनों की यन्त्रणा के बाद पुत्र और उसके साथियों द्वारा जमा धन प्राप्त करने के लालच में मार दिया गया था । यह अलग बात थी । वह थोङा ही पैसा उसके हाथ आया था और शेष धन उसकी इसी जीवित और एकमात्र रह गयी पुत्री को मिल गया था । क्योंकि वृद्ध की पत्नी इससे भी कुछ अधिक पहले बीमारी से चल बसी थी ।
वृद्ध का पुत्र जिसने पिता की हत्या की, लगभग 45 आयु का और बेहद शराबी था । पिता के मरने के एक डेढ़ साल बाद स्वयं उसे भी उसके साथियों ने ही उसी तालाब में डुबो कर मार दिया । लेकिन अब वह इस जिन्न परिवार में नही था । या मेरे जाने के समय नही था ।
इस तरह इस परिवार के सभी लोग अकाल मृत्यु को ही प्राप्त हुये थे । जिनमें यह लङकी और उसका पिता मृत्यु के बाद मुझे 26 जून के आसपास फ़िर मिले थे । लेकिन उन दोनों के अलावा वह बच्चे और अन्य सभी मेरे लिये अपरिचित थे ।
जीवित पर ही उस लङकी से मुझे पता चला कि उसके कुछ भाई छोटी अवस्था में ही मर गये थे । शायद वे जिन्न बच्चे उन्हीं में से हों । लेकिन उनकी मृत्यु अधिक बालपन में हुयी थी । परन्तु जैसा कि वहाँ सभी की मृत्यु समय आयु से वर्तमान आयु में, शरीर में काफ़ी फ़र्क था । वैसा ही उनके साथ भी हो सकता था । क्योंकि जिन्न बच्चे बिलकुल परिवारी बच्चों सा व्यवहार कर रहे थे ।
जिन्न लोक के सर्वप्रथम क्षणों में जब में परिचित लङकी के पास गया । उसने एक लम्बे अन्तराल के बाद मिलने की दिली खुशी सी चेहरे से प्रकट की । उसका पिता भी सामान्य प्रसन्न और मेरे लिये मेहमानबाजी की भांति व्यवहार कर रहा था ।
फ़िर उसके पिता ने हाथ में पकङे हुये फ़ोटो को देखते हुये इंकार जैसा भाव बनाया और दूसरे ही क्षण में अपने कमरे में वापिस बिस्तर पर था ।
मुझे इतनी शीघ्र वापिस होने की झुंझलाहट सी हुयी । पर मैं कुछ कर भी नहीं सकता था ।
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तथ्य -
जिन्न भूत प्रेत आदि के बारे में अज्ञानतावश आम धारणा उनके डरावने चेहरे या अन्य रूप अजीब से शरीर आदि को लेकर होती है । जबकि ऐसी सभी सूक्ष्म योनियों के शरीर एकदम मानव शरीर जैसे ही होते हैं । केवल उनके प्रेत शरीर के अलावा बाहर से देखने में उनमें और मनुष्य में कोई अन्तर नहीं होता । लेकिन एक ताकतवर मनुष्य के तुलना में इनमें 6 गुना अधिक ताकत होती है ।
- वहाँ के मकानों का फ़र्श या तो कच्चा था । या फ़िर उसमें लगी चीजें बिलकुल मिट्टी के समान रंग की थी । लेकिन फ़र्श एकदम संगमरमरी फ़र्श जैसा सख्त और चिकना था । बगल वाले मकान की दरवाजे वाली दीवाल जैसे सीमेंट और ईंटों से बनी थी । लेकिन उस पर प्लास्टर नहीं था । जबकि कुछ अन्य दीवालें प्लास्टर जैसी थीं । ईंट की मोटाई भी करीब 6 इंच थी और लम्बाई लगभग 10 इंच की ।
- मुझे थोङी हैरानी उस जिन्न के हाथ में पकङे फ़ोटोज को लेकर थी । रंगीन नये और पासपोर्ट साइज के फ़ोटो । लेकिन फ़िर हैरानी नहीं भी थी ।
- उन दोनों मकानों में किसी भी प्रकार का कोई सामान या वस्तु आदि कुछ भी नहीं था । और सफ़ाई इतनी थी कि एक तिनका भी नजर न आये ।
इसका कारण शायद यही था । अच्छी स्थिति वाले जिन्न आवश्यक वस्तु, भोजन आदि जो उन्हें चाहिये । उसी रूप में उपलब्ध कर सकते हैं । इसी कारण मुझे आधुनिक फ़ोटो देखकर हैरानी नहीं हुयी थी ।
ऐसे अधिकांश लोकों में वर्षा, धूप, धूल, आंधी तूफ़ान जैसा कुछ नहीं होता । अतः सफ़ाई स्वयं ही रहती है । मौसम लगभग प्रातः 5 बजे जैसा होता है । और उतना ही उजाला होता है । सर्दी गर्मी आदि नहीं होते ।
महत्वपूर्ण - जिन्न बच्चों ने जो मुझे दक्षिण दिशा में सिर और उत्तर की ओर पैर किये थे । ये उनका मुझे ले जाने के लिये तरीका था । यदि ऐसा नहीं करते तो नहीं ले जा पाते । सूक्ष्म शरीरों का कोई चुम्बकत्व गुण नियम यहाँ लागू होता है ।
हवा में उठाकर जो तकिया जलाया । वह भी ले जाने से सम्बन्धित ही यात्रा उपकरण का कार्य करता था । उनके लिये ऐसा करना भी आवश्यक था ।
- हाँ बगल वाले मकान की जो लङकी पढ़ाई कर रही थी । वह मेरे लिये आश्चर्य था । शायद स्थायी जिन्नता में ऐसा कुछ होता हो । क्योंकि जीवन के ढर्रे में सभी जगह प्रथ्वी से बहुत चीजें मिलती हैं । उस मकान की जिन्न स्त्रियां भी साधारण ग्रहणियों की भांति थी । और बगल वाले घर में क्या हो रहा है । इसके प्रति लगभग उदासीन थी । शायद ऐसा होना उनके जीवन का हिस्सा रहा हो ।
- अब तक शुद्ध रूप से जिन्न प्रेत सम्बन्धित ये मेरा लगभग दसवां लोक था । जिसमें कारणों से मेरी यात्रा हुयी थी ।
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जानकारी के तौर पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है । पर अभी इतना ही ।
at 9:56 pm
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11 जुलाई 2016
हंसदीक्षा विवरण
परिचय - आदिसृष्टि से ही जब परमात्मा द्वारा ब्रह्म, जीव और माया का खेल रचा गया । तो अविद्या रूपी प्रबल माया के साथ साथ ज्ञान स्थिति और सदगुरु जैसी विभूति का सृजन भी किया गया । ताकि सभी जीव अपने सतकर्म, परमार्थ और भावभक्ति से अपना उत्थान कर सकें । उच्च स्थितियों को प्राप्त हो सकें । जीव से ब्रह्म तक की यात्रा और स्व प्रतिष्ठा कर सकें ।
अतः अविद्या रूपी प्रबल माया से मोहित हुआ निज स्वरूप, निज पहचान, निज घर को भूला हुआ जीव जब इस अपार भवसागर के दुखों में डूबता उतराता है और इस अन्तहीन भवसागर का कोई ओर छोर नही पाता है ।
तब वह इस कष्ट से छूटने हेतु बेहद करुणाभाव से अपने स्वामी को पुकारता है । और फ़िर कुल मालिक की दया दृष्टि होने पर पहले सन्तों की कृपा प्राप्त कर उनकी सेवा, सतसंग करता है । और बाद में कृमशः गुरु-सदगुरु का सानिंध्य पाकर इस अमर ज्ञान ‘हंसदीक्षा’ का पात्र बनता है ।
सदगुरु - किसी भी एक समय में देहधारी वर्तमान सदगुरु एक ही होता है । दो-चार या कई नही होते । जिस शरीर में सदगुरु सत्ता का प्राकटय हुआ हो । उसे ही ‘समय का सदगुरु’ कहते हैं । सदगुरु का अर्थ उसका परमात्मा से एक हो चुका होना या उसके अन्दर परमात्मा का प्रकट होना होता है ।
सब घट तेरा सांईया, सेज न सूनी कोय ।
बलिहारी उन घटन की, जिहि घट परगट होय ।
लाभ - हंसदीक्षा का सबसे बङा लाभ यह है कि एक बार सच्ची दीक्षा मिल जाने पर यदि शिष्य/भक्त साधारण भक्ति भी कर पाता है तो फ़िर उसका तिर्यक योनि यानी पशु पक्षी आदि 84 लाख योनियों में जन्म न होकर सदैव मनुष्य जन्म होता है । अच्छे कुल और अच्छे संस्कारी परिवार में अपनी भक्ति और सेवा अनुसार ही उद्धार होने तक जन्म पाता है ।
ज्ञान बीज बिनसै नही, होवें जन्म अनन्त ।
ऊँच नीच घर ऊपजे, होय सन्त का सन्त ।
तुलसी अपने राम को, रीझ भजो या खीज ।
खेत परे को जामिगो, उल्टो सीधो बीज ।
सच्चे सदगुरु से हंसदीक्षा प्राप्त जीव (यदि बहुत ज्यादा विकारी और मनमुख या गुरुद्रोही न हो तो) कभी नर्क नही जाता ।
सोना काई ना लगे, लोहा घुन ना खाय ।
भला बुरा जो गुरु भगत, कबहुं न नरकै जाय ।
वर्तमान में - गुरु शिष्य परम्परा का धर्म की दृष्टि से नकली पाखंड जारी है । हैरानी की बात है कि तमाम अज्ञानी व्यक्ति किसी भी ज्ञान को आत्मज्ञान या परमात्म ज्ञान कहकर प्रचारित कर रहे हैं । जबकि वास्तव में विशुद्ध आध्यात्मिक स्तर पर बात की जाये तो ये तन्त्र मन्त्र जैसे तुच्छ ज्ञान की श्रेणी में भी नहीं आता । एक धार्मिक टीवी चैनल पर किसी गुरु को यह भी कहते सुना गया कि सभी जगह एक ही दीक्षा दी जा रही है ?
आजकल ऐसे भी गुरु हैं । जो कहते हैं - तुम कोई भी नाम मन्त्र जपो । सभी परमात्मा से ही मिलाते हैं ।
निश्चय ही इसे भारतीय सनातन धर्म के अज्ञान की पराकाष्ठा ही कहा जायेगा ।
कान में कर दी कुर्र । तुम चेला हम गुर्र ।
लोभी गुरु लालची चेला । होय नरक में ठेलम ठेला ।
सच्ची और दुर्लभ आत्मज्ञान की हँसदीक्षा - किसी भी इंसान के जो अभी सशरीर है । आदिसृष्टि से अब तक करोङों मनुष्य जन्म हो चुके हैं । इसमें (सामान्य नियम में) एक मनुष्य जन्म से दूसरे मनुष्य जन्म के बीच में भोगी जाने वाली साढ़े 12 लाख साल समय अवधि की 84 लाख योनियां अलग से होती हैं ।
बङे भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद ग्रन्थन गावा ।
कबहुंक करुना करि नर देही । देत हेत बिन परम सनेही ।
इस तरह लगभग असंख्य (कोटि) जन्मों में जीव जब अशान्ति, कष्ट, दुखों और अज्ञान से त्राहि त्राहि कर करुण भाव से परमात्मा को पुकारता है । और विभिन्न जन्मों में किये गये परमार्थिक पुण्य कार्यों से वह इतना भक्ति पदार्थ संचय कर लेता है कि उसका आगामी कोई जन्म उद्धार जन्म (जीवन) के रूप में होता है । तब उसे किसी सच्चे सन्त की शरण हासिल होती है और फ़िर कृमशः ही वह किसी माध्यम से उस सच्चे दरबार में महीनों पहले अर्जी लगाकर फ़िर वहाँ से मंजूर होने पर ही इस अति दुर्लभ हँसदीक्षा को प्राप्त कर पाता है ।
निर्वाणी नाम या धुन - सच्ची हँसदीक्षा में कोई अक्षरी मन्त्र या नाम आदि कभी नहीं दिया जाता । यहाँ तक वाणी से ‘क’ जैसा अक्षर भी नहीं जपना होता । बल्कि प्रत्येक मनुष्य की आवागमन करती स्वांस में जो निर्वाणी नाम (पहली अवस्था) स्वतः अजपा और निरन्तर हो रहा है को जाग्रत किया जाता है । और बाद में इसी पर अधिकाधिक ध्यान रखने का अभ्यास बताया जाता है । जिसे भजन, सुमरन, ध्यान, नाम जप या नाम कमाई भी कहा जाता है । हँसदीक्षा को भी अलग अलग नामों से गुरुदीक्षा, नामदान, नाम उपदेश या (गुरु से) ज्ञान लेना आदि कहा जाता है ।
निरंजन तेरे घट में, माला फ़िरे दिन रात ।
ऊपर आवै नीचे जावै, स्वांस स्वांस चढ़ि जात ।
संसारी नर जानत नाहीं, विरथा जन्म गंवात ।
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माला फ़ेरत जुग भया, फ़िरा न मन का फ़ेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फ़ेर ।
सीधे आज्ञाचक्र से उठाना - सच्ची हँसदीक्षा में (आज्ञाचक्र से नीचे के सभी चक्रों को छोङकर) सीधा आज्ञाचक्र सक्रिय कर दिया जाता है । ताकि भक्त साधक नीचे के चक्रों के कष्ट और मेहनत से बचकर सरल सहज योग भक्ति कर सके । जिसे सन्तमत में ‘सुरति शब्द योग’ या ‘सहज योग’ कहा जाता है ।
जङ चेतन की गांठ खुलना - हँसदीक्षा में ही समर्थ सदगुरु जीव के उद्धार और सार, थोथा.. नीर, क्षीर बोध हेतु जङ चेतन की गांठ खोल देते हैं । और तीसरा नेत्र खुलकर दिव्य प्रकाश के दर्शन हो जाते हैं । कोई कोई सात्विक वृति के साधक और पवित्र भाव की जीवात्मायें सिर्फ़ हँसदीक्षा के दौरान ही एक या दो अलौकिक लोक तक की सूक्ष्म यात्रायें करती हैं । जिनमें अधिकांश को स्वर्गलोक के दर्शन होने का अनुभव अधिक प्रकाश में आया है ।
कुछ कुत्सित और तमोगुण मिश्रित साधकों को निम्न लोक या तांत्रिक लोक आदि जैसे नीच लोकों के दर्शन भी होते हैं । इस तरह ये सफ़ल पूर्ण हँसदीक्षा के प्रारंभिक अनुभव कहे जा सकते हैं ।
विशेष - अपवाद स्वरूप जो शिष्य दीक्षा के समय हङबङा जाते हैं । या खुद को चौकन्ना सा होकर ‘अलर्ट’ रखते हैं । उनको मामूली अनुभव होना या बिलकुल न होना भी अनुभव में आया है । अतः दीक्षा के इच्छुक सभी शिष्यों को सुझाव है कि सरलता और भक्तिभाव से दीक्षा पूर्व के उपदेशों को ग्रहण करें । जिज्ञासाओं और शंकाओं का पहले ही गुरु से सहज निवारण कर लें । और खास दीक्षा के समय शरीर और मन को बिलकुल ढीला और आरामदायक (तनावरहित) अवस्था में छोङ दें ।
दीक्षा का समय - हँसदीक्षा का समय सुबह लगभग 8-10 बजे तक का ही होता है । उससे पूर्व की संध्या और रात्रि में सदगुरु गुप्त आदिनाम की महिमा जानकारी आदि विषयों पर गूढ़ सतसंग आये हुये शिष्यों को उनकी जिज्ञासाओं के समाधान के साथ बताते हैं । इसके बाद अगली सुबह बृह्ममुहूर्त में स्नान आदि से फ़ारिग होकर हँसदीक्षा दी जाती है ।
दीक्षा की सामग्री - हँसदीक्षा में इस मरणधर्मा शरीर के पाँच तत्वों के प्रतीक पाँच रंग के पाँच पाँच फ़ूल और धूपबत्ती या अगरबत्ती का नया पैकेट और सफ़ेद रंग (बर्फ़ी, पेङा, बतासे, रेवङियां आदि जो ठीक लगे) का प्रसाद श्रद्धा और सामर्थ्य अनुसार रखा जाता है । ये सब दीक्षा के समय ही एक पूजा की थाली में रख दिया जाता है ।
गुरुदक्षिणा - इस हँसदीक्षा में शिष्य का जीव से नया आत्मजन्म होता है । अतः काल के प्रकोप से बचने हेतु गुरु की शरण में जाकर ‘तन मन धन’ यानी पूर्ण समर्पण किया जाता है । इसी हेतु गुरुदीक्षा में गुरुदक्षिणा में धन देने का एक निश्चित आदिविधान है । जो शिष्य की श्रद्धा, सामर्थ्य अनुसार ही स्वयं उसके भाव से अर्पित किया जाता है ।
हँसदीक्षा की आवश्यक वस्तुयें - गुरु के पाँच वस्त्र (यदि भाव और आर्थिक सामर्थ्य हो तो अन्यथा आवश्यक नहीं) । चरण पादुका (भाव और सामर्थ्य अनुसार ही अन्यथा आवश्यक नही) पाँच (तत्वों के प्रतीक) रंग के पाँच पाँच (तत्व की प्रकृतियों अनुसार 25) फ़ूल । नया धूपबत्ती या अगरबत्ती का पैकेट । सफ़ेद रंग का का प्रसाद । गुरुदक्षिणा (भाव श्रद्धा और सामर्थ्य अनुसार)
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हंसदीक्षा के विषय में यथासंभव आवश्यक और सार संक्षिप्त जानकारी इस लेख में बता दी गयी है । फ़िर भी किसी जिज्ञासु को कोई बात समझ न आयी हो या उनकी कोई अन्य शंका, प्रश्न आदि हो । वह टिप्पणी में लिखें । उसका पूर्णरूपेण समाधान किया जायेगा ।
- हंसदीक्षा के स्थान (आश्रम) और अन्य जानकारी के विषय में प्रकाशित चित्रों को देखें ।
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मुक्तमंडल, आगरा, उत्तर प्रदेश ।
at 4:58 am
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जिहाद - मुंशी प्रेमचन्द
बहुत पुरानी बात है । हिंदुओं का एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत प्रदेश से भागा चला आ रहा था । मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ साथ रहते चले आये थे । धार्मिक द्वेष का नाम न था । पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे । उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था । बात बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे ।
शासन की कोई व्यवस्था न थी । हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी । आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था । जान का बदला जान था, खून का बदला खून । इस नियम में कोई अपवाद न था । यही उनका धर्म था, यही ईमान ।
मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे । पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है । एक मुल्ला ने न जाने कहाँ से आकर अनपढ़ धर्म शून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है । उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री पुरुष खिंचे चले आते हैं ।
वह शेरों की तरह गरज कर कहता है - खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनियां को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो । दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो । एक काफिर के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशनी कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है । जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे । खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा ।
और सारी जनता यह आवाज सुनकर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है । उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है । प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है । उन्हीं हिंदुओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे । हमले होने लगे हैं । कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं । कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं । कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है ।
हिंदू संख्या में कम हैं । असंगठित हैं । बिखरे हुए हैं । इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं । उनके हाथ पाँव फूले हुए हैं । कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़कर भाग खड़े हुए हैं । कुछ इस आँधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं ।
यह काफिला भी उन्हीं भागने वालों में था । दोपहर का समय था । आसमान से आग बरस रही थी । पहाड़ों से ज्वाला सी निकल रही थी । वृक्ष का कहीं नाम न था । ये लोग राजपथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे । पग पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था । यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे ।
सहसा कुछ दूर पर एक कुआँ नजर आया । वहीं डेरे डाल दिये । भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो । दो युवकों ने बंदूक भर कर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे । बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे । स्त्रियाँ बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगीं । सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे ।
सभी चिंता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे जोर से न रोते थे ।
दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है । उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ सी निकल रही हैं । मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता । मानो उसकी एक एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं ।
दूसरा कद का दुबला पतला, रूपहीन सा आदमी है । जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है । मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं । मानो वह दीपक की भाँति रो रोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है ।
उसका नाम धर्मदास है । इसका ख़ज़ाँचन्द ।
धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा - तुमने अपने लिए क्या सोचा ? कोई लाख, सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी ?
ख़ज़ाँचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया - लाख, सवा लाख की तो नहीं, हाँ, पचास साठ हजार तो नकद ही थे ।
- तो अब क्या करोगे ?
- जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूँगा । रावलपिंडी में दो चार सम्बन्धी हैं । शायद कुछ मदद करें । तुमने क्या सोचा है ?
- मुझे क्या गम ! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं । वहाँ इन्हीं का सहारा था । आगे भी इन्हीं का सहारा है ।
- आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं ।
- मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय । एक दरजन भी आ जायँ तो भून कर रख दूँ ।
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएँ की ओर चली । प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी ।
दोनों युवक उसकी ओर बढ़े । लेकिन ख़ज़ाँचंद तो दो चार कदम चल कर रुक गया । धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा-डोर ले लिया और ख़ज़ाँचंद की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएँ की ओर चला । ख़ज़ाँचंद ने फिर बंदूक सँभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा । इसी तरह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था । शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था । अब इसमें लेशमात्र भी संदेह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है । ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूप वैभव के आगे तुच्छ थी । परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार ख़ज़ाँचंद को हताश कर चुकी थी । पर वह अभागा निराश होकर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था । तीनों एक ही बस्ती के रहने वाले थे ।
श्यामा के माता पिता पहले ही मर चुके थे । उसकी बुआ ने उसका पालन पोषण किया था । अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी । उसकी अभिलाषा थी कि ख़ज़ाँचंद उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अंतिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाये । लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी । उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है । वही उसका एकमात्र अवलम्ब है ।
ख़ज़ाँचंद ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिंदा सब कुछ था और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे जीवन में नहीं मिल सकती । उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटा कर फकीर हो जाता ।
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धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिये । जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं । उनकी बंदूक की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं । धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें । लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था । फासला दो सौ गज से कम न था । रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे फूटे पड़े हुए थे । भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय । कहीं पैर न फिसल जायँ । इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे । अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या । उस पर मंजिलों का धावा हुआ । मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे । और तुरंत उसे घेर लिया ।
धर्मदास बड़ा साहसी था । पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया । उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी । पाँचों उसी के गाँव के महसूदी पठान थे ।
एक पठान ने कहा - उड़ा दो सिर मरदूद का । दग़ाबाज़ काफिर ।
दूसरा - नहीं नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले । तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं । क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दग़ा की क्या सजा दी जाय ? हमने तुम्हें रात भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था । मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ । लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं । यह आखिरी मौका है । अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया । तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी ।
धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा - जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे ...
पहले सवार ने आवेश में आकर कहा - मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं ।
तीसरा - कुफ्र है ! कुफ्र है !
पहला - उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार ।
दूसरा - ठहरो..ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है । तुम्हारे और साथी कहाँ हैं धर्मदास ?
धर्मदास - सब मेरे साथ ही हैं ।
दूसरा - कलामे शरीफ़ की कसम । अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाओ । तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा ।
धर्मदास - आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे ।
इस पर चारों सवार चिल्ला उठे - नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे । यह आखिरी मौका है ।
इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला -बस बोलो, क्या मंजूर है ?
धर्मदास सिर से पैर तक काँप कर बोला - अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूँ । तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी ?
दूसरा - हाँ, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे ।
पहला - हम इस शर्त को नहीं मानते । तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे । तुम अपनी कहो । क्या चाहते हो ? हाँ या नहीं ?
धर्मदास ने जहर का घूँट पीकर कहा - मैं खुदा पर ईमान लाता हूँ ।
पाँचों ने एक स्वर से कहा - अलहमद व लिल्लाह ! और बारी बारी से धर्मदास को गले लगाया ।
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श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी । वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा ? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा । तो मैं प्यासों मर जाती । पर इन्हें न जाने देती । श्यामा से कुछ दूर ख़ज़ाँचंद भी खड़ा था । श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा - अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती ।
ख़ज़ाँचंद - बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है ।
श्यामा - न जाने क्या बातें हो रही हैं । अरे गजब ! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है ।
ख़ज़ाँ.- जरा और समीप आ जायँ, तो मैं बंदूक चलाऊँ । इतनी दूर की मार इसमें नहीं है ।
श्यामा - अरे ! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं । यह माजरा क्या है ?
ख़ज़ाँ.- कुछ समझ में नहीं आता ।
श्यामा - कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया ?
ख़ज़ाँ.-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है ।
श्यामा - मैं समझ गयी । ठीक यही बात है । बंदूक चलाओ ।
ख़ज़ाँ.- धर्मदास बीच में हैं । कहीं उन्हें न लग जाय ।
श्यामा - कोई हर्ज नहीं । मैं चाहती हूँ, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े । कायर ! निर्लज्ज ! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया । ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है । क्या सोचते हो । क्या तुम्हारे भी हाथ पाँव फूल गये । लाओ, बंदूक मुझे दे दो । मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूँगी ।
ख़ज़ाँ.- मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास ...
श्यामा - तुम्हें कभी विश्वास न आयेगा । लाओ, बंदूक मुझे दो । खडे़ क्या ताकते हो ? क्या जब वे सिर पर आ जायँगे, तब बंदूक चलाओगे ? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान होकर जान बचाओ ? अच्छी बात है, जाओ । श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है । मगर उसे अब मुँह न दिखाना ।
ख़ज़ाँचंद ने बंदूक चलायी । एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी ।
जिहादियों ने ‘अल्लाहो अकबर’ की हाँक लगायी । दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी ।
घोड़ा वहीं गिर पड़ा । जिहादियों ने फिर ‘अल्लाहो अकबर’ की सदा लगायी और आगे बढ़े । तीसरी गोली आयी । एक पठान लोट गया ।
पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान ख़ज़ाँचंद के सिर पर पहुँच गये । और बंदूक उसके हाथ से छीन ली ।
एक सवार ने ख़ज़ाँचंद की ओर बंदूक तान कर कहा - उड़ा दूँ सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है ।
दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा - नहीं नहीं, यह दिलेर आदमी है । ख़ज़ाँचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है । लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं । अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ । तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं । इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा ( प्रायश्चित्त ) नहीं है । यह हमारा आखिरी फैसला है । बोलो, क्या मंजूर है ?
चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं । और उन्हें ख़ज़ाँचंद के सिर पर तान दिया मानो ‘नहीं’ का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जायँगी ।
ख़ज़ाँचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा । उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं । दृढ़ता से बोला - तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो ? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा ? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं ।
चारों पठानों ने कहा - काफिर ! काफिर ।
ख़ज़ाँ.- अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो । मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूँ । मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है । आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर ( प्रकाश ) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल ...
चारों पठानों के मुँह से निकला ‘काफिर ! काफिर’ और चारों तलवारें एक साथ ख़ज़ाँचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं ।
लाश जमीन पर फड़कने लगी । धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा । वह दिल में खुश था कि अब ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी । और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा ।
पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था । श्यामा अब तक मर्माहत सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी । ज्यों ही ख़ज़ाँचंद की लाश जमीन पर गिरी । वह झपट कर लाश के पास आयी । और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्त प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी । उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये ।
उसने बड़ी सुंदर बेलबूटों वाली साड़ियाँ पहनी होंगी । पर इस रक्तरंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी । बेलबूटों वाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं । यह रक्तरंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी ।
ऐसा जान पड़ा मानो ख़ज़ाँचंद की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं । उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी । जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी । वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था ।
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धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़ कर कहा - श्यामा, होश में आओ । तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गये हैं । अब रोने से क्या हासिल होगा ? ये लोग हमारे मित्र हैं । हमें कोई कष्ट न देंगे । हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे ?
श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देख कर कहा - तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ । मेरी चिंता मत करो । मैं अब न जाऊँगी । हाँ, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो । तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अंत करा दो ।
धर्मदास करुणा कातर स्वर से बोला - श्यामा, यह तुम क्या कहती हो । तुम भूल गयीं कि हमसे तुमसे क्या बातें हुई थीं ? मुझे खुद ख़ज़ाँचंद के मारे जाने का शोक है । पर भावी को कौन टाल सकता है ?
श्यामा - अगर यह भावी थी । तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूँ । जिसका मैंने सदैव निरादर किया ।
यह कहते कहते श्यामा का शोकोदगार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था । उबल पड़ा और वह ख़ज़ाँचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डाल कर रोने लगी ।
चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म समर्पण देखकर करुणार्द्र हो गये ।
सरदार ने धर्मदास से कहा - तुम इस पाकीजा खातून से कहो । हमारे साथ चले । हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी । हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे ।
धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी । वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था । इस वक्त उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती थी ।
बोला - श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आँसुओं की नदी बहा दो । पर यह जिंदा न होगी । यहाँ से चलने की तैयारी करो । मैं साथ के और लोगों को भी जाकर समझाता हूँ । खान लोग हमारी रक्षा करने का जिम्मा ले रहे हैं । हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जायगी ।
ख़ज़ाँचंद की दौलत के भी हमीं मालिक होंगे । अब देर न करो । रोने धोने से अब कुछ हासिल नहीं ।
श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देख कर कहा - और इस वापसी की कीमत क्या देनी होगी ? वही जो तुमने दी है ?
धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका । बोला - मैंने तो कोई कीमत नहीं दी । मेरे पास था ही क्या ?
श्यामा - ऐसा न कहो । तुम्हारे पास वह खजाना था । जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था । जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंद सिंह ने की थी । उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया । इन पाँवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो ! तुम शौक से जाओ ।
जिन तलवारों ने वीर ख़ज़ाँचंद के जीवन का अंत किया । उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया ।
जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया । इसके साथ जो उदासीनता दिखायी । उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित्त करूँगी । यह धर्म पर मरने वाला वीर था । धर्म को बेचने वाला कायर नहीं । अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है । तो इसका क्रियाकर्म करने में मेरी मदद करो । और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो । तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूँगी ।
पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे । धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया । देखते देखते वहाँ लकड़ियों का ढेर लग गया ।
धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियाँ काट रहे थे । चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने ख़ज़ाँचंद की जान ली थी । उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रखा ।
ज्वाला प्रचंड हुई । अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे ।
पठानों ने ख़ज़ाँचंद की सारी जंगम सम्पत्ति लाकर श्यामा को दे दी । श्यामा ने वहीं पर एक छोटा सा मकान बनवाया और वीर ख़ज़ाँचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी । उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गये । क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी । ख़ज़ाँचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया ।
मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया । एक दिन नियत किया गया । मसजिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये । पर उसका वहाँ पता न था । चारों तरफ तलाश हुई । कहीं निशान न मिला ।
साल भर गुजर गया । संध्या का समय था । श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी ।
अतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ था । वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था । सारी अभिलाषाएँ भविष्य पर अवलम्बित थीं । और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध न था । आकाश पर लालिमा छायी हुई थी । सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी । वृक्षों की काँपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी । मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियाँ भर रही हो ।
उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया । कुत्ता जोर से भूँक उठा । श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी - धर्मदास !
धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा - हाँ श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूँ । साल भर से मारा मारा फिर रहा हूँ । मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है । सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है । इस जीवन से अब ऊब उठा हूँ । पर मौत भी नहीं आती ।
धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया । फिर बोला - क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ । तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया ।
श्यामा ने उदासीन भाव से कहा - मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी ।
- मैं अब भी हिंदू हूँ । मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है ।
- जानती हूँ ।
- यह जानकर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती ।
श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली - तुम्हें अपने मुँह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती । मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूँ, जिसने हिंदू जाति का मुख उज्ज्वल किया है । तुम समझते हो कि वह मर गया ? यह तुम्हारा भ्रम है । वह अमर है । मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूँ । तुमने हिंदू जाति को कलंकित किया है । मेरे सामने से दूर हो जाओ ।
धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया । चुपके से उठा । एक लम्बी साँस ली और एक तरफ चल दिया ।
प्रातःकाल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी । दो चार गिद्ध उस पर मँडरा रहे थे । उसका हृदय धड़कने लगा । समीप जाकर देखा और पहचान गयी ।
यह धर्मदास की लाश थी ।
at 4:58 am
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05 जुलाई 2016
एक अश्लील पोस्ट
आपने कभी गौर किया है, क्या देश क्या विदेश क्या शहर क्या गांव क्या मुहल्ले, सभी जगह मुख्य गाली के रूप में माँ, बहन और पुत्री को ही हमेशा लक्ष्य किया जाता है । अलग अलग स्थानीय भाषाओं के अनुसार माँ, बहन और पुत्री इन तीन शब्दों को स्थानीय लहजे में बदल कर इनके साथ सहवास क्रिया का प्रचलित सस्ता शब्द रोमन के अनुसार Cho और den जोङ दिया जाता है । इस तरह एक सर्वदेशीय सर्वाधिक प्रचलित अपशब्द या अपमानजनक शब्द बन जाता है ।
अब गौर करने वाला दूसरा बिन्दु यह है कि सिर्फ़ घृणा या बदला या अपमान के उद्देश्य से ही नहीं बल्कि दोस्तों या मजाक के रिश्तों या फ़िर सामान्य सम्बन्धों में भी सामान्य बातचीत या हास्य या फ़िर दोस्ताना बातचीत में भी माँ, बहन और पुत्री सम्बन्ध के साथ यौन क्रिया शब्द जोङ दिया जाता है ।
ग्रामीण क्षेत्रों और ग्रामीण जनता में तो यह आम है और मैंने बच्चे से लेकर वृद्धों तक को किसी के भी सामने ऐसा बोलते सुना है । यहाँ तक कि महिलाओं या लङकियों की उपस्थिति में भी । क्योंकि यह ग्रामीण संस्कृति में रचा बसा है ।
अब एक और बात पर गौर करें । पत्नी जो कि एक अर्थ में काम का पर्याय है । उसके लिये ऐसा कभी नहीं कहा जाता । अन्य दूसरे रिश्ते मामी भाभी बुआ ताई चाची मौसी आदि भी अपवाद स्थिति या 1% छोङकर कभी इस गाली या मजाक के लक्ष्य नहीं होते । यदि किसी व्यक्ति का सामने वाले से कोई ऐसा मजाक सम्बन्ध ही है । तब अलग बात है ।
मान लो, एक व्यक्ति की मौसी सामने वाले व्यक्ति की साली, सलहज आदि जैसा कुछ लगती है तो कभी कभी बेहद न्यून प्रतिशत में उस रिश्ते के साथ यौन क्रिया शब्द जोङते हैं ।
अब बात यह है कि इसकी जङ कहाँ हैं ? पत्नी या प्रेमिका जो काम सम्बन्धों का स्वीकार्य अस्तित्व है । गाली में उससे ऐसी बाहय रूप काम भावना क्यों नहीं प्रेषित होती । सिर्फ़ ये माँ, बहन और पुत्री..ये तीन सम्बन्ध ही क्यों ।
इसके पीछे की वास्तविकता आपको हिला सकती है । जिसका मूल आदि में है ?
दरअसल पत्नी जैसा कोई अस्तित्व सृष्टि में है ही नहीं । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं । पति या पत्नी सिर्फ़ एक ऐसे (बहुत गहराई से गौर करें) शरीर का अस्तित्व है । जिनका अन्य अर्थों के साथ साथ काम क्रिया जैसा सम्बन्ध भी है ।
और समझें, पत्नी सिर्फ़ रूपान्तरण है । उससे पूर्व वह माँ, बहन, पुत्री ही है और गहराई में जायें तो ये तीन सम्बन्ध आने वाले जन्मों में कभी भी पत्नी में रूपान्तरित होते है और अभी की पत्नी भी अगले जन्मों में इन तीन सम्बन्धों में रूपान्तरित होती है । यह निश्चय और अचेतन कार्मिक वासनाओं से बना सिद्धांत है । जो होता ही होता है । राजा भोज और उनकी साली का इस सम्बन्ध में विवरण है । अन्य दृष्टांत भी मिलते हैं ।
इस पोस्ट को आपके गहन विचारार्थ अधूरा और अस्पष्ट छोङते हुये मैं आदि कारण बताता हूँ । जिसमें सृष्टा ने पत्नी बनायी ही नहीं थी और कभी नहीं बनाई ।
मूल सृष्टा पुरुष का निर्माण कर चुका था । उसने अभी स्त्री नहीं बनाई थी । फ़िर उसने पहली स्त्री बनाई और पहले मन पुरुष के पास कार्यवश भेजी । मन पुरुष उस पर मोहित हो गया लेकिन स्त्री ने एक ही सृष्टा होने से बहन होने का हवाला दिया । परन्तु कुछ विरोध तकरार के बाद वह भी कामासक्त हो उठी और सृष्टि का प्रथम स्त्री पुरुष सम्बन्ध हुआ । सोचिये ये किसके मध्य था ?
फ़िर इस सम्बन्ध से तीन पुत्र हुये और वो कर्म उदासीन से विरक्त रहने लगे ।
तब प्रथम स्त्री ने अपने अंश से तीन कन्यायें उत्पन्न कर उनको एक जगह छुपा दिया और पुत्रों को उस स्थान पर भेजा । तीनों ने (क्योंकि वह तो जानते नहीं थे) उन्हें खुशी खुशी पत्नी स्वीकार किया । उनके परस्पर सम्बन्ध हुये । सोचिये माँ का अंशी (याने समान) कौन हुआ ?
अब मूल सृष्टा ने जिन पुरुषों को पूर्व में उत्पन्न किया । वे भी समान ही माने जायेंगे और उसने इच्छा रूपी स्त्री उत्पन्न हुयी तो यह एक भाव में पुत्री हुयी । अर्थात एक भाव में प्रथम सहवास पिता पुत्री का भी कहा जा सकता है ।
तो पूर्व के दो स्त्री सम्बन्ध खास थे - माँ और बहन । आगे पुत्री हुयी । और थोङे आवरणों के साथ इन्हीं को पत्नी स्वीकार कर लिया गया ।
ऊपर गाली के तीन सम्बन्ध बेहद आध्यात्मिक अर्थ वाले हैं । जो मूल की याद दिलाते हैं या जिनमें मूल का बीज छिपा है । क्योंकि वैसे तो परमात्मा न स्त्री है न पुरुष है और दोनों में वह 1 ही है ।
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अब संक्षेप में समझें, पत्नी सिर्फ़ एक भाव है या इसका पुरुष भाव पति भी । जो काम क्रियाओं के समूह रूप को बनाता है । एक स्त्री पुरुष शरीर में परस्पर आधे आधे स्त्री पुरुष होते हैं । यदि ऐसा न हो तो स्त्री पुरुष के बीच काम सम्बन्ध असंभव है । काम सम्बन्ध के समय स्त्री की आधी स्त्री पुरुष की आधी स्त्री से और पुरुष का आधा पुरुष स्त्री के आधे पुरुष से मेल करता है और तब स्त्री पुरुष का मिलन होता है । ये मोटी बात नही है । बारबार चिन्तन करते हुये गहराई से समझ में आयेगी ।
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अश्लील पोस्ट लिखी ही है तो पुरुषों के पुरुषांग के लिये सबसे चीप शब्द ला ना और डा जैसे संयोग से बना बोलते समय क्या पदार्थ और धातु का अहसास होता है ? यहाँ सामान्य स्थिति की बात है न कि कामभावना के समय या किन्हीं उत्तेजक वार्ता के समय ।
स्वयं इसका अनुभव करें और समझदार विवेकी मित्रादि अन्य अन्य से तुलनात्मक सामान्य स्थिति में इसकी प्रकृति को जानें । ध्यान रहे ये कोई मजाक मनोरंजन नहीं है । प्रकृति रहस्य से इसका गहरा नाता है ।
खुद अनुभव करें । स्त्री यौनांग के लिये प्रचलित सबसे चीप शब्द चा ऊ और ता को बोलते समय एक पुरुष को सामान्य स्थिति में कुछ महसूस नहीं होगा ।
अब यहाँ ध्यान रखें । इसको पढकर ही आप यकायक यह शब्द बोलें । कुछ अहसास नहीं होगा लेकिन जब आप सहज स्वाभाविक सामान्य स्थिति में हों तो एक सृष्टिक पदार्थ और धातुगत अनुभूति होगी । जो ठोस और मजबूती की होगी और जिसका सम्बन्ध कामभावना से न होकर स्वयं के वीर्य बल का मापन बतायेगा । बशर्ते आप बात को ठीक से समझ कर प्रयोग अनूभूति कर सके तो ?
at 10:10 pm
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रमता के संग समता
दरअसल मेरा एक शोध अन्य बिन्दु पर अटका है जो आपकी इस लाइन से झंकृत हुआ - पूरे वृत्त में 21600 कला और एक वृत्त में 360 अंश ।
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अब दो बाते हैं - 24 घन्टे में 360 अंश वाली प्रथ्वी भी 1 चक्र (वृत) पूरा करती है और जीवन के 1 चक्कर (24 घन्टे) में 21600 स्वांस ही होती है ।
अब जो आपने 60 कला = मिनट बताया (वैसे घङी, पल, काष्ठा, निमेष आदि का मान मेरे पास है) यानी सेकेण्ड की सुई 60 बार ठिठक गति द्वारा 1 चक्र पूरा करे । तो 60 कला या 1 मिनट हुआ । मेरा शोध शरीर की मिनट सेकेण्ड की सुई को प्रथ्वी या अन्य पिंडों से क्या तारतम्य ये जोङना है ।
क्योंकि ये 4 कला (स्वांस) वृत रूपी बुलबुले एक पूर्ण वृत का सृजन विघटन निरन्तर करते हैं ।
अधिक विस्तार से नहीं लिखा । क्योंकि आप मूल बात समझ जायेंगे ।
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मेरी इस टिप्पणी पर सुनील सिंहा की प्रतिक्रिया -
सर, आपने जो शोध की बात की है पृथ्वी के पिण्ड और शरीर के समय चक्र के बीच, वह मैं विस्तार से आपसे जानने और समझने की विनती है । सुनील सिंहा
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और उसका यथासंभव उत्तर -
जी, यदि इस विषय के बारे में थोङी बहुत मौलिक जानकारी न हो । वहाँ इसका बेहद विस्तार से समझाना अपेक्षित हो जाता है । जो लेखन के रूप में कुछ असंभव सा है । क्योंकि ना जानकार के लिये ज्यादातर बिन्दुओं पर नये प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं ।
फ़िर भी सार संक्षेप में बात यह है कि - निराधार अखिल सृष्टि (पंचभूत और समस्त तारा पिंड, जीव जन्तु आदि) एक ‘सार शब्द’ की सत्ता से संचालित हैं । इस शब्द से अखण्ड (भीषण) कंपन हो रहा है । इस कंपन से अकल्पनीय माप वाला गुरुत्व, चुम्बकत्व (उत्पन्न होता है) तथा एक चुम्बकीय तरंगो का जाल भी बना हुआ है । इसी तरंग जाल द्वारा समस्त चल अचल देहधारी जीव और तारा पिंडों जैसे अन्य पद परस्पर एक सूत्र में बंधे हुये हैं । यानी किसी एक की छोटी सी गतिविधि भी समस्त (सृष्टि) को प्रभावित करती है ।
अब बात यह है कि ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ के आधार पर यह अखिल सृष्टि (मूल) ब्रह्मांडी मन द्वारा संचालित है । जो सदैव अविकारी और एक नियम है और शुद्ध पिंडी (जीव आदि) मन (यदि हो) भी इसी अविकारी और एक नियम पर कार्य करता है ।
सरलता से कहें तो ‘रमता के साथ समता’ होती है । तब वह सृष्टि, प्रकृति आदि हलचल का ज्ञाता होता है । रहस्य जानता है । साक्षी होता है आदि ।
लेकिन जीव का मन या अन्य गतिविधियां जब ब्रह्मांडी मन से विषम या अस्थिर हो उठती हैं । तब तरह तरह के विकार, रोग, अज्ञान, जङता आदि शारीरिक मानसिक बाधायें व्याधियां उत्पन्न होने लगती हैं । उनमें क्षोभ उत्पन्न हो जाता है ।
अगर इसी अनहद शब्द के साथ जोङने वाला समर्थ गुरु हो । तो ये ‘रमता के साथ समता’ स्वतः हो जाती है । क्योंकि तब जीव मन अपनी मनमानी के बजाय ब्रह्मांडी मन से नियन्त्रित होता है ।
2 सेकेण्ड की सांस का एक वृत ( या अणु ), मध्य में रिक्तता, पुनः 2 सेकेण्ड की सांस का एक वृत..ये स(रिक्त)ह और ह(रिक्त)स ऐसे अणु परमाणु बनाते हैं । ये सामान्य मनुष्य के होते हैं । बाकी योगी आदि आगे या पीछे स्थिति अनुसार ह(रिक्त)ठ या ठ के स्थान पर अन्य बीज भी हो सकता है, होते हैं ।
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मूलतः समाधि एक ही होती है । उसकी ही अलग अलग स्थितियों के भिन्न भिन्न नाम हैं । गहराता हुआ ध्यान समाधि ही है । जो कृमशः विकार, संस्कार, कारण और फ़िर कारण बीज समाप्त करके जीव का जीव भाव समाप्त कर देता है । और परमात्मा प्रकट हो जाता है ।
at 8:19 pm
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