Saturday 28 October 2017

त्रयी विद्या

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है। आचार्य व्याडि के प्रसिद्ध कोष में वर्णित है कि श्री शब्द लक्ष्मी, सरस्वती, बुद्धि, ऐश्वर्य, अर्थ धर्मादि पुरुषार्थो अणिमादि सिद्धियों, सौन्दर्य और मांगलिक उपकरणों और वेश रचना अर्थो में प्रयुक्त है। अन्य कोषों में इन्हें भारती, ब्राह्मी, गीर्देवी, वाग्देवी, वाणी, भाषा, शारदा त्रयीमूर्ति आदि नामों से उल्लिखत किया गया है। भगवती शारदा साक्षात् ब्रह्मस्वरूपिणी महामाया, महाशक्त्यात्मिक महालक्ष्मी और महाकाली के रूप में हैं। शास्त्रों में सरस्वती का मूल नाम श्री तथा श्रीपंचमी मिलता है। वसन्तपंचमी के दिन सरस्वती का जन्म दिवस मानने की परम्परा है। शारदा अत्यन्त दयालु और उदार हृदय वाली हैं। अत्यन्त ज्ञान होने से उनमें असीम करुणा है। जगत का कल्याण करती हैं। सरस्वती के अनेक मंत्र आगमों में वर्णित हैं। इसमें दस अक्षरों का यह मंत्र है- ऐं वाग्वादिनि वद वद स्वाहा। यह मंत्र सर्व विद्याप्रदायक और सर्वार्थसिद्धिप्रद है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में एक मंत्र इस प्रकार वर्णित है-ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुध जनन्यै स्वाहा।  प्राचीन ऋषि महर्षि राग द्वेष लोभ ईष्र्या मद मोह पर विजय पाकर अन्त:करण पावन और निर्मल करके ब्रह्म विद्या के स्वरूप में सरस्वती की पूजा अर्चना करते थे। इन्हें प्राप्त करके जीवनमुक्ति सुख की प्रत्यक्ष अनुभूति करते रहे हैं। विदेहमुक्ति और कैवल्य को पाते थे। शब्द जात द्वारा निर्मित स्वर पाठ सहित त्रयी विद्या के रूप में सरस्वती ब्रह्मा के मुख से विवर्तित हुई हैं। श्रीमद्भागवत में वर्णित है- सरस्वती की आराधना फलदायक है- प्रचोदितायेन पुरा सरस्वती वितन्वताजस्य सतीं स्मृतिं हृदि। स्वलक्षणा प्रादुरभूत् किलासस्यत: स मे ऋषीणामृषभ: प्रसीदताम॥ जिन्होंने सृष्टि के समय ब्रह्मा के हृदय में पूर्वकल्प की स्मृति जागृत करने के लिए ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी को प्रेरित किया और वे अपने अंगों के सहित वेद के रूप में उनके मुख से प्रकट हुई, वे ज्ञान के मूल कारण भगवान मुझ पर कृपा करें, मेरे हृदय में प्रकट हों। सरस्वती का विग्रह शुद्ध ज्ञानमय, आनन्दमय है, अत: उनके आराधकों के हृदय में ज्ञानमय शांति रहती है। विपत्ति में वे समभाव से आनन्द में ही स्थित रहने में समर्थ हो जाते हैं, जो अन्य साधना में असम्भव है। दिव्य तेज और अपरिमेय व्यक्तित्व का उच्च पक्ष है। विद्वान उन्हें शब्द ब्रह्म नाम से जानते हैं। सरस्वती के विविध ध्यान आगमों में वर्णित हैं। कहीं पर इनको हंस के ऊपर, कहीं पर कमल पर स्थित बताया गया है। पूर्ण ज्ञान स्वरूपिणी होने से वे सदा आनन्दित रहती हैं। मुख मण्डल पर सदा मन्दस्मित, प्रसन्नता और मधुर भाव बना रहता है। उनका ध्यान इस प्रकार है- हंसा रुढ़ा हरहसित हारेन्दु कुन्दावदाता, वाणी मन्दस्मित तरमुखी मौलिक बद्धेन्दुलेखा। विद्यावीणामृतम मय घटाक्ष स्रजा दीप्त हस्ता श्वेताब्जस्था भवदभिमत प्राप्तये भारती स्यात्॥ अर्थात जो हंस पर विराजमान हैं, शिव जी के अट्ठहास, हार चन्द्रमा और कुन्द के समान उ”वल वर्णवाली हैं और वाणी स्वरूपा हैं, जिनका मुख मन्द मुस्कान से सुशोभित हैं और मस्तक चन्द्ररेखा से विभूषित है। जिनके हाथ पुस्तक वीणा अमृतमय घट और अक्षमाला से उद्दीप्त होते हैं, जो श्वेत कमल पर आसीन हैं। वे सरस्वती देवी लोगों की अभीष्ट सिद्धि करने वाली हों। सरस्वती की पूजा अर्चना मानव को सर्वत्र मान और प्रतिष्ठा ही मिलती है। वह सर्वोच्च विद्याधन देती हैं। इनकी वन्दना संस्कृत साहित्य में इस प्रकार की गयी- वाणीं पूर्ण निशाकरोज्ज्वल मुखीं कर्पूर कुन्द प्रभां, चन्द्रार्धाङ्कित मस्तकां निज करै: सम्बिभ्रतीमादरात्। वीणामक्ष गुणं सुधाढ्य कलशं विद्यां च तुङ्गस्तनीं  दिव्यै राभरणै र्विभूषिततनुं हंसाधिरूढ़ा भजे॥ अर्थात् जिनका मुख पूर्णिमा के चन्द्र तुल्य गौर है, जिनकी अंग कान्ति कर्पूर और कुन्द फूल के सामान है, जिनका मस्तक अर्धचन्द्र से अलंकृत है, जो अपने हाथों में वीणा अक्षसूत्र अमृतपूर्ण कलश और पुस्तक धारण करती हैं एवं ऊंचे स्तनों वाली है, जिनका शरीर दिव्य आभूषणों से विभूषित है और जो हंस पर आरूढ़ हैं, उन सरस्वती देवी का मैं आदरपूर्वक ध्यान करता हूं। सरस्वती अज्ञान का हरण करती हैं। वेदों में सरस्वती नदी को वाग्देवता का रूप माना गया है। अन्य नदियों की तुलना में सरस्वती के प्रति ऋषियों के हृदय में श्रद्धा हुई और सरस्वती ने विशेष कृपा की। पौराणिक आख्यानों में लगभग तीस स्थानों पर पुण्यात्माओं द्वारा यज्ञादि अवसरों सरस्वती के नदी रूप में प्रवाहित  होने के प्रमाण हैं। पुष्कर में जब ब्रह्मा ने यज्ञ किया तो ऋषियों की प्रार्थना पर ब्रह्म पत्‍‌नी सरस्वती नदी के रूप में वहां प्रकट हुई। असीम प्रभायुक्त शरीर के कारण उनका नाम उस समय सुप्रभा था। नैमिषारण्य में शौ का†चनाक्षी रूप में प्रकट हुई। गया नगरी में जब महाराज गय अनुष्ठान कर रहे थे। वहां उनके ध्यान करने पर सरस्वती नदी के रूप में प्रकट हुई। तीर्थराज प्रयाग की सरस्वती की ख्याति असीम है इसी तरह मनोरमा, सुरेधु ओधवती और विमलोद का नामों से सरस्वती उत्तर कोशल, कुरुक्षेत्र, पुण्यमय, हिमालय पर्वत आदि स्थलों पर प्राणियों को पावन करने के लिए नदी रूप में प्रवाहित हुई। वे पवित्र जल के बाह्य शुद्धि और ज्ञानशक्ति के रूप में अन्त:करण को प्रक्षालित कर आराधक को विद्या प्रदान करती हैं। -डॉ. हरिप्रसाद दुबे डॉ. हरिप्रसाद दुबे धर्ममार्ग माँ सरस्वती जागरण's blog Add new comment A non commercial website dedicated to promote Indian culture, art, history, religion , hindi, naturopathy and holistic medicines/practices !

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