Friday 27 October 2017

अनपायनी भक्ति

Bhakti-Marg (भक्ति-मार्ग) : The path of Bhakti भक्ति भक्ति अपने इष्ट के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा है, परम-प्रेम रूपा है, अमृतस्वरूपा है, यह अपने इष्ट के प्रति केंद्रित अतिशय प्रेम है। नारद-भक्ति सूत्र में देवर्षि नारद कहते हैं: अथातो भक्तिं व्याख्यास्याम:।।1।। सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा।।2।। अमृतस्वरूपा च।।3।। यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति।।4।। १. अब हम भक्ति की व्याख्या करेंगे. २. वह भक्ति ईश्वर में परमप्रेम रूपा है , ३. अमृतस्वरूपा है। ४. इसे प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमृत समान हो जाता है, तृप्त हो जाता है। श्री रामचरितमानस में कलिपावनावतार महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने भक्ति के कई रूप और कई भेद बताएं हैं जैसे - अनपायनी भक्ति, प्रेम-भक्ति, अविरल भक्ति, विमल भक्ति, परम विशुद्ध भक्ति, सत्य-प्रेम, गुढ़ प्रेम, सहज स्नेह भक्ति, नवधा भक्ति इत्यादि। अनपायनी भक्ति प्रश्न उठता है भक्ति कैसी हो? तब इसके लिए हमें श्रीरामचरितमानस में स्वयं गोस्वामी तुलसीदास, सीता जी, हनुमान जी, भरत जी, लक्ष्मण जी, भगवान के सखा गुह, सनकादिक ऋषि-मुनि इत्यादि जैसी भक्ति का वरदान प्रभु से मांगते हैं उसे समझना होगा। हनुमान जी महाराज श्रीमद्भागवत में श्री हनुमान जी को परम-भागवत (अर्थात सर्वश्रेष्ठ भक्त) कहा गया है, श्री हनुमान जी महाराज स्वयं भगवान शिव के अवतार हैं, और शिव जी को भी परम-वैष्णव कहा गया है, अतः भक्ति में हनुमान जी महाराज और शिव जी दोनों हीं उच्चतम आदर्श हैं । श्री रामचरितमानस में हनुमान जी महाराज प्रभु से अनपायनी भक्ति का वर मांगते हैं! यथा: चौ॰-नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥ सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥ श्रीरामचरितमानस ५.३४.१ ॥ भावार्थ:-हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान्‌जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा॥1 उससे पहले हनुमान जी को सीता माँ की कृपा मिल चुकी थी ..उन्हें पहले सीता जी अनुपम वरदान मिल चूका था अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥ श्री रामचरितमानस ५.१७.२ ॥ भावार्थ:-हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें, वो तुमसे बहुत छोह (प्रेम) करें। अतः साधक सीता जी के कृपा की छाया में रहते हुए श्री हनुमान जी महाराज का अनुसरण कर प्रभु श्री राम की"अनपायनी भक्ति को प्राप्त कर सकता है। भक्ति का भाव स्वरुप जैसा भी हो सब में सीता जी की कृपा जरुरी है, सभी भावों में प्रभु के प्रति सेवा का भाव अर्थात "दास्य भक्ति" का तत्व हमेशा मौजूद होता है, दास्य-भक्ति के परम-आदर्श श्री हनुमान जी महाराज हैं। गोपियाँ प्रेमा-भक्ति थी पर वो श्री कृष्ण-विरह में स्वयं को कृष्ण कहने लगी कि "मैं हीं कृष्ण हूँ" यथा : असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका न्यवेदिषुः कृष्णविहारविभ्रमाः ॥ श्रीमद्भागवत १०.३०.३ ॥ इसतरह यहाँ गोपियों का प्रेम पहले से भली-भाँती दास्य-भाव से पोषित न होने के कारन उनमे अद्वैत-भाव और अहंकार की झलक दिख जाती है, अद्वैतवाद में 'सोऽहम्' न्यायतः परमार्थिक नहीं है, यह तो बस आवेश मात्र है। तासां तत् सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः । प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत ॥ श्रीमद्भागवत १०.२९.४८ ॥ प्रभु गोपियों में अहंकार देख कर स्वयं को अंतर्ध्यान कर लेते हैं और गोपियों को बहुत देर तक भान भी नहीं होता कि प्रभु अंतर्ध्यान हो गए हैं। प्रभु के अंतर्ध्यान होने पे गोपियों को अपनी गलती का आभास होता है, गोपियों को बहुत दुःख होता है, वो बहुत तरह से विलाप करके रुदन करती हैं, और सभी श्री कृष्ण से प्रगट होने के लिए बहुत विनती करती हैं, और जब तक गोपियाँ वहाँ स्वयं को अशुल्क-दासिका कहकर दास्य-भाव में भगवान श्री कृष्ण की शरणागति ग्रहण नहीं कि तब तक भगवान श्री कृष्ण प्रकट नहीं हुए, अतः दास्य-भाव सभी भावों में अन्तर्निहित है। सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ श्रीमद्भागवत १०.३१.२ ॥ गोपियाँ गोपी गीत में कहती हैं, हे नाथ! हम लोग आपकी अशुल्क दासिका हैं, फिर भी आप हमें मार हीं रहे हो (नेत्रो से दूर करके स्वयं को), क्या अस्त्रों से मारने से हीं वध होता है? इसलिए भक्तों को प्रेम-भाव में सावधानी भी बरतनी पड़ती है, और इसे भली-भांति दास्य भाव से पोषित करना चाहिए । अब हनुमान जी के बाद सीता जी कि भक्ति देखते हैं । प्रेमा-भक्ति सीता जी सीता जी का प्रेम पत्नी का प्रेम है, दाम्पत्य प्रेम। सीता जी वैसे प्रेम की मूर्ति हैं जिसमे पत्नी दास्य-भाव में आकर पति के चरण-कमलों को दबाती (सेवा करती) हैं। यहाँ भक्ति-की श्रेष्ठता है, उनके प्रेम में अभिमान और अद्वैत का लेश-मात्र भी अंश नहीं है क्यूंकि उनकी प्रेमा-भक्ति दास्य-भाव से पोषित है। सीता जी सदा अपने पति के चरणों की सेवा करनी चाहती हैं, इसी से वो अपने प्राणधन को संतुष्ट करना चाहती हैं, वो अपने स्वामी से एक होते हुए भी भक्ति के कारन भगवान से एकत्व भाव में नहीं आती, उनसे अपने चरणों को नहीं छुआती हैं, वह स्वयं श्री राम की अर्धांगिनी हैं, सकल सृष्टि की स्वामिनी हैं, श्री राम को भी अपने प्रेम के वश में रखने वाली हैं, परन्तु इसका उन्हें तनिक भी अभिमान नहीं है, अतः भगवान श्री राम को कभी भी सीता जी में गर्व देखने को नहीं मिला। सीता जी विनती करती हैं:- तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥ जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥ श्रीरामचरितमानस १.२५९.३ ॥ भावार्थ:- सबके हृदय में निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी की दासी बनने का सौभाग्य प्रदान करें। जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है॥ सीता जी प्रभु से कहती हैं - पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥ श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥2॥ भावार्थ:-आपके पैर धोकर, पेड़ों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूँगी (पंखा झलूँगी)। पसीने की बूँदों सहित श्याम शरीर को देखकर प्राणपति के दर्शन करते हुए दुःख के लिए मुझे अवकाश ही कहाँ रहेगा॥ सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निसि दासी॥ बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही॥3॥ भावार्थ:-समतल भूमि पर घास और पेड़ों के पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबावेगी। बार-बार आपकी कोमल मूर्ति को देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी॥ गोस्वामी तुलसीदास गोस्वामी तुलसीदास जी भी ऐसे हीं सत्य-प्रेम की कामना करते हैं जैसे मीन का प्रेम जल में होता है, जल से वियोग (बाहर) आने पे तड़पने लगती है उसी प्रकार का सत्य-प्रेम मुझे श्री राम में हो, जैसे दोहावली में गोस्वामी जी कहते हैं: राम प्रेम बिनु दूबरो राम प्रेमहीं पीन । रघुबर कबहुँक करहुगे तुलसिहि ज्यों जल मीन ॥ भक्ति कैसी होनी चाहिए यह गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा प्रभु से की गयी प्रार्थना से स्पष्ट होता है। भक्ति इष्ट से निरंतर प्रेमभाव है, जैसे परमभक्त गोस्वामी तुलसीदास जी निरंतर प्रिय लगने की विनती करते हैं (उनका प्रेम सदा दास्य-भाव से भली-भाँति पुष्ट है) : कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥ श्रीरामचरितमानस ७.१३० ख॥ भावार्थ:- जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी। हे रामजी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥ Translation: May You be ever so dear to me, unceasingly, uninterruptedly, for eternity, O' Rama, as woman is dear to a lustful man, and as lucre is dear to the greedy, O Lord of the Raghus! कामी पुरुष को स्त्री के प्रति प्रगाढ़ राग होता है, उसी तरह कामी नारी को पुरुष के प्रति। श्री राम तो सर्वोत्कृष्ट माधुर्य के सागर हैं (- वाल्मीकि रामायण) , तो उनसे निरंतर राग, प्रेम कौन न करना चाहेगा? गोस्वामी जी ने हर जगह श्री रघुनाथ जी की भक्ति और प्रेम की कामना की है, और यहाँ पर रघुनाथ जी से कहते हैं आप वैसे हीं मुझे निरंतर प्रिय लगो जैसे कामी पुरुषों का स्त्री में निरंतर राग (प्रेम) होता है, यही रागात्मिका प्रेमा-भक्ति है! विष्णु पुराण में इसी तरह की प्रार्थना है: या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी । त्वामनुस्मरतः सा मे ह्दयान्माऽपसर्पतु ॥ [विष्णुपुराण १.२०.१९] हे प्रभु! अविवेकी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति विषयों में रहती है (जैसे कामी पुरुष की प्रीति स्त्री में, लोभी पुरुष का धन में), उसी प्रकार की प्रीति मेरी आपमें हो और आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय से आप कभी दूर न होवे। पद्म पुराण में जैसे गोस्वामी जी प्रार्थना करते हैं उसी का स्वरुप है: युवतीनां यथा यूनि यूनां च युवतौ यथा । मनोऽभिरमते तद्वन्मनोऽभिरमतां त्वयि ॥ [पद्मपुराण ६.१२८.२५८] जैसे युवतियों कि प्रीति युवको में होती है, और जैसे युवकों का मन युवतियों में रमता हैं उसी तरह हे प्रभु! मेरा मन भी आप में सदा रमता रहे। नारद भक्ति सूत्र में भी नारद जी कहते हैं कि भक्ति ब्रज-वनिताओं जैसी होनी चाहिए, अर्थात हमारा प्रभु के प्रति प्रगाढ़ रागात्मिका प्रेम हो जैसे ब्रज-गोपियाँ को था, इसीसे वो प्रभु के प्रति निरंतर प्रगाढ़ प्रेम में डूबे रहती थी, और इसी प्रगाढ़ प्रेम और उसकी निरंतरता का अभिप्राय गोस्वामी जी की प्रभु से की गयी विनती में निकलता है । भक्तों को प्रगाढ़ प्रेम में दर्प (अहंकार) नहीं आने देना चाहिए, इसके लिए गोस्वामी जी की तरह परमप्रेम को दास्य-भाव से सिंचन करने कि जरूरत होगी, ताकि भक्ति अशास्त्रीय न बनें। सनकादिक मुनि एक बार भाइयों सहित श्री रामचंद्रजी परम प्रिय हनुमान्‌जी को साथ लेकर सुंदर उपवन देखने गए। वहाँ के सब वृक्ष फूले हुए और नए पत्तों से युक्त थे। - सुअवसर जानकर सनकादि मुनि तभी वहाँ प्रभु से प्रेमा-भक्ति की प्राप्ति की कामना को लेकर प्रकट हो गए, वो तेज के पुंज, सुंदर गुण और शील से युक्त तथा सदा ब्रह्मानंद में लवलीन रहते थे, पर श्रीराम जी की सुंदरता के आगे ब्रह्मानंद फीका लगने लगा और उन्हें भी प्रभु की प्रेमा-भक्ति की लालसा हो गयी जो प्रभु के नित्य दिव्य सखा-परिकरों को हीं श्री रामावतार में प्राप्त थी। परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम। प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥ श्रीरामचरितमानस ७.३४ ॥ भावार्थ:-आप परमानंद स्वरूप, कृपा के धाम और मन की कामनाओं को परिपूर्ण करने वाले हैं। हे श्री रामजी! हमको अपनी अविचल प्रेमाभक्ति दीजिए॥34॥ देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि॥ प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥ श्रीरामचरितमानस ७.३५.१ ॥ भावार्थ:-हे रघुनाथजी! आप हमें अपनी अत्यंत पवित्र करने वाली और तीनों प्रकार के तापों और जन्म-मरण के क्लेशों का नाश करने वाली प्रेमा-भक्ति दीजिए। हे शरणागतों की कामना पूर्ण करने के लिए कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप प्रभो! प्रसन्न होकर हमें यही वर दीजिए॥1॥ सत्य-प्रेम सीता जी, लक्ष्मण जी, दशरथ जी का सत्य-प्रेम जो प्रेम सत्य है, अर्थात स्वाभाविक सिद्ध है, जैसे मीन का जल से सत्य-प्रेम है वह जल के बाहर जीवित नहीं रह सकती, तो इसी तरह महाराज दशरथ जी का भगवान श्री राम से सत्य-प्रेम था (वात्सल्य भाव में), भगवान श्री राम के वियोग में वे अपना प्राण हीं न रख पायें । बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद। बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥ भावार्थ:- मैं अवध के राजा श्री दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया॥16॥ इस प्रकार सीता जी का और लक्ष्मण जी का भगवान श्री राम में सत्य-प्रेम है, दोनों श्री राम के बिना एक-मुहूर्त भी जीवित नहीं रह सकते । न च सीता त्वया हीना न च अहम् अपि राघव । मुहूर्तम् अपि जीवावो जलान् मत्स्याव् इव उद्धृतौ ॥ वाल्मीकि रामायण २.५३.३१ ॥ हे राघव! न तो सीता जी और न मैं (लक्ष्मण) हीं आपके बिना एक मुहूर्त भी जीवित नहीं रह सकते हैं, जैसे मछली जल के बिना नहीं रह सकती है | इस तरह सीता जी का भगवान श्री राम में प्रगाढ़ दाम्पत्य-प्रेम और सत्य-प्रेम था । अविरल भक्ति और परम विशुद्ध भक्ति निरंतर प्रेम को श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी जी ने "अविरल भक्ति" का नाम दिया है ओर वही ;अविरल भक्ति' जब पूर्ण निष्काम होती है तो उसे "परम विशुद्ध" कहते हैं, जिसको पुराण-श्रुति गाते हैं और यह किसी विरले को हीं प्राप्त होती है - अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव। जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव॥ श्रीरामचरितमानस ७.८४ क॥ भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम। सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम॥ श्रीरामचरितमानस ७.८४ ख॥ भावार्थ:- आपकी जिस अविरल (प्रगाढ़) एवं विशुद्ध (अनन्य निष्काम) भक्ति को श्रुति और पुराण गाते हैं, जिसे योगीश्वर मुनि खोजते हैं और प्रभु की कृपा से कोई विरला ही जिसे पाता है॥ हे भक्तों के (मन इच्छित फल देने वाले) कल्पवृक्ष! हे शरणागत के हितकारी! हे कृपासागर! हे सुखधान श्री रामजी! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिए॥ नवधा भक्ति श्रीरामचरितमानस में श्री राम शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं अर्थात भक्ति के नौ-रूप: जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥ भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥ श्रीरामचरितमानस ३.३५.३॥ भावार्थ:- जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है॥ नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥ प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥४॥ भावार्थ:- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥ गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥ श्रीरामचरितमानस ३.३५॥ भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥ मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥ छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥ श्रीरामचरितमानस ३.३६.१॥ भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥ सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥ आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥२॥ भावार्थ:- सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥ नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥ नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥३॥ भावार्थ:- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥ सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥ जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥४॥ भावार्थ:- हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥ मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥ श्रीरामचरितमानस ३.३६.५॥ भावार्थ:- मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। कलिपावनावतार गोस्वामी तुलसीदास जी द्वैत-अद्वैत के भेद से और दो प्रकार की भक्ति के बारे में श्री रामचरितमानस में संकेत करते हैं - १. भेद भक्ति और २. अभेद भक्ति । गोस्वामी जी को विशिष्टाद्वैतानुसार भेद-भक्ति हीं स्वीकार है, जिसमें जीव और प्रकृति ब्रह्म (भगवान) के विशेषण हैं, अंग हैं, और ब्रह्म इनसे (जीव और प्रकृति / सूक्ष्मचिदचिद् और स्थूलचिदचिद्) से नित्य विशिष्ट होने के कारण विशिष्टाद्वैत है, अर्थात विशिष्ट-अद्वैत है। भेद भक्ति और अभेद भक्ति समझने के लिए जीवात्मा और परमात्मा के स्वरुप का ज्ञान होना आवश्यक है। जीवात्मा और परमात्मा :- गोस्वामी जी ने लिखा है:- चौ०:- ईश्वर अंश जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥ भावार्थ:- जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है॥ जीव अविनाशी (नित्य) है, परमात्मा भी नित्य हैं, दोनों नित्य हैं । जीव परमात्मा का अंश है, अर्थात स्वरूपतः परमात्मा और जीवात्मा के बिच नित्य भेद है, परन्तु सम्बन्धतः अर्थात अंश-अंशी सम्बन्ध से दोनो के बीच अभेद है, स्वरूपतः अभेद नहीं। अतः जीव परमात्मा से सम्बन्धदृष्टि से अभिन्न हो सकता है पर स्वरूप से कभी भी अभिन्न नहीं होता क्योंकि दोनों ही नित्य हैं। जीव परमात्मा का अंश है, नित्य दास है, यही उसका यथार्थ स्वरूप है। गोस्वामी जी ने स्पष्ट शब्दों में अभेद मत का खंडन किया है: जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान। परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥ श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड 69॥ भावार्थ:-यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते हैं, तो वे कल्पभर के लिए नरक में पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान (सर्वथा स्वतंत्र) हो सकता है?॥69॥ अर्थात ईश्वर सर्वथा स्वतंत्र है, और जीवात्मा परमात्मा के अधीन होने के कारण परतंत्र। परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता॥ भावार्थ:- जीव परतंत्र है, भगवान सर्वथा स्वतन्त्र हैं। जीव अनेक हैं, श्रीपति (सीतापति) भगवान् एक हैं। इस प्रकार कोई कितना भी प्रयत्न क्यूँ न कर लेवे, जीव कभी सीतापति नहीं बन सकता! भेद भक्ति और अभेद भक्ति : १. भेद भक्ति: भेद भक्ति में भक्त सेवक की भांति प्रभु के चरणों की निरंतर सेवा करना चाहता है वैकुण्ठ में, साकेत लोक में उनका सामीप्य चाहता है, उनसे एकत्व नहीं, उनमे लीन नहीं होना चाहता है! जैसे शरभंग ने भेद भक्ति की और प्रभु के धाम में उनकी नित्य सेवा और सामीप्य का वर पाया: अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥ ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥ भावार्थ:- ऋषि शरभंग ने योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और श्री राम की कृपा से वे बैकुंठ को चले गए। मुनि भगवान में लीन इसलिए नहीं हुए कि उन्होंने पहले ही भेद-भक्ति का वर ले लिया था। अभेद भक्ति में (प्रभु से अद्वैत-भक्ति में) जीव अपना "मैं" का त्याग कर अपना अस्तित्व परमात्मा में विलीन कर उनसे एकत्व चाहता है, सारूप्य चाहता है, पर विशिष्टाद्वैत में भक्त ऐसी अद्वैत (अभेद)-भक्ति और मोक्ष नहीं चाहता! जैसा श्री रामचरितमानस जी में वेद कहते हैं: जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं। ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥ करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं। मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥6॥ भावार्थ:- "ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है" — जो लोग इस प्रकार कहकर उस ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किंतु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं। हे करुणा के धाम, हे प्रभो! हे सद्गुणों की खान! हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम करें॥ गोस्वामी जी नित्य सगुन भगवान का हीं यश गाना चाहते हैं, पर सुनने में आया कुछ ईर्ष्यालु लोग भक्तनक्षत्र आकाश में सूर्य की भांति देदीप्यमान कलिपावनावतार परमपूज्यनीय महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी पे मिथ्या आक्षेप करते हैं की वो Impersonalist (निराकरवादी) हैं, पर ऐसा करके वो सूर्य पे कीचड़ उछालने का हीं प्रयास हैं, ऐसे लोगों को विशिष्टाद्वैत में सगुन और निर्गुन का थोड़ा भी विवेक नहीं है। भगवती श्रुति भगवान के दोनों स्वरूपों (सगुन और निर्गुन) का बोध कराने के साथ साथ नेति नेति भी कह देती है, अर्थात श्रुति के अनुसार भगवान सगुन और निर्गुन दोनों स्वरूपों में स्थित हैं, इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास रचित श्री रामचरितमानस एक अद्भुत महाकाव्य होने के कारण श्रुति-सिद्धांतानुसार भगवान के दोनों स्वरूपों (सगुन और निर्गुन) का बोध तो कराती है हीं, साथ में 'पुरुष प्रसिद्ध प्रकाश निधि प्रगट परावर नाथ' रघुकुलमनि (वेद में प्रसिद्ध परम पुरुष सब के स्वामी) श्री राम के चरणों की भक्ति का परम सुलभ मार्ग दिखाती है। श्रीरामचरितमानस श्रुति के गुढ़ एवं गुढ़तम रहस्यों का प्रगट करती है। गोस्वामी जी जो कि स्वयं सगुन श्री राम के अनुरागी-भक्त हैं, वो सगुन भगवान के सेवकों को बड़भागी नहीं, अति बड़भागी कहते हैं- हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥ श्री रामचरितमानस ४.२६.७॥ भावार्थ:- हम सब सेवक अत्यंत बड़भागी हैं, जो निरंतर सगुण ब्रह्म (श्री रामजी) में प्रीति रखते हैं॥ श्री रामचरितमानस में सगुन-भक्ति पे जितना कहा गया है, शायद हीं इतना किसी अन्य ग्रन्थ में प्राप्त हो! जहाँ श्री रामचरितमानस में मंगलाचरण में सगुन-भगवान श्री राम की स्तुति है, वहाँ श्रीमद्भागवत महापुराण के मंगलाचरण में निर्गुन-निराकार की स्तुति है। यहाँ देखें :link जहाँ श्रीमद्भागवत में भक्ति एक वृद्ध नारी है, वहाँ श्रीरामचरितमानस में भक्ति एक समर्था नारी है जो माया को व्यापने नहीं देती। सेवक-सेव्य भाव में हीं जीव की यथार्थ स्वरुप सिद्धि होती है। इस भाव में होने पे कभी भी जीव का पतन संभव नहीं है, यथा: सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि। भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥ श्री रामचरितमानस ११९क ॥ भावार्थ:- काकभुशुण्डि जी कहते हैं - हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! मैं सेवक हूँ और भगवान्‌ मेरे सेव्य (स्वामी) हैं, इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता। ऐसा सिद्धांत विचारकर श्री रामचंद्रजी के चरण कमलों का भजन कीजिए॥ चाहें कोई कितना भी सिद्ध पुरुष हो, देव हो, ज्ञानी हो, योगी हो, तपस्वी हो वो रघुनाथ जी की सेवा के बिना इस संसार-सागर से तर हीं नहीं सकता। चाहें ब्रह्मा हों, चाहें रूद्र शिव हों, चाहें सनकादिक हों, चाहें वायु (हनुमान) हों, चाहें लक्ष्मण (रामानुज) हों इन सभी ने प्रभु श्री राम (श्री राम रूप) की अनन्य शरणागति ले रखी है, और भगवती 'श्री' का कहना हीं क्या वो तो श्री राम की अर्धांगिनी हीं हैं। अतः चारो वैष्णव (श्री, ब्रह्मा, रूद्र और सनकादिक) सम्प्रदाय यथार्थ रूप से भगवान श्री राम के हीं परमाश्रित हैं। अतः गोस्वामी तुलसीदासजीने यह उचित हीं कहा है – साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद विरक्त संन्यासी॥ जोगी शूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥ तरहिं न बिनु सेए मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामि॥ श्रीरामचरितमानस ७.१२४.३-४ ॥ भावार्थ:- साधक, सिद्ध, जीवनमुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान, कर्म (रहस्य) के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पंडित और विज्ञानी-॥3॥ ये कोई भी मेरे स्वामी श्री रामजी का सेवन (भजन) किए बिना नहीं तर सकते। मैं, उन्हीं श्री रामजी को बार-बार नमस्कार करता हूँ। अतः प्रभु श्री राम के प्रति अनुराग, परमप्रेम, सेवा, भक्ति का प्रतिपादन करना हीं गोस्वामी जी का ध्येय है। परन्तु जो ज्ञान के दंभ में ऐसी भक्ति का अनादर करते हैं वो सुर दुर्लभ पद को प्राप्त करके भी गिर जाते हैं, यथा:- "जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी। ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी॥" परन्तु भगवान के भक्त का, दास का कभी नाश अर्थात पतन नहीं होता:- हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥ ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति बाढ़इ बिहंगबर॥ भावार्थ:-हे पक्षीराज! इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जीवों का क्लेश नहीं मिटता। श्री हरि के सेवक को अविद्या नहीं व्यापती। प्रभु की प्रेरणा से उसे विद्या व्यापती है॥ इससे दास का नाश नहीं होता और भेद भक्ति बढ़ती है। अर्थात भक्ति का फल है यथार्थ सम्यक ज्ञान, और इससे प्रभु के चरणों में भेद भक्ति बढती हीं है! २. अभेद-भक्ति परमात्मा की अभेद-भक्ति में परमात्मा से एकत्व का भाव अर्थात अभेद का भाव रहता है, और अंत में सारे "अहं" ("मैं") भाव को नष्ट कर परमात्मा से अभेद की अनुभूति प्राप्त होती है, इसमें "अहं" का नाश होने से केवल "ब्रह्म" हीं रहता है, यह अभेद-भक्ति साधन-ज्ञान से होती है। ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।। गीता 9.15।। कोई साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेद-भावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, और दूसरे कई साधक अपनेको पृथक् मानकर मुझ विराट् रूप की सेव्य-सेवकभावसे मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं ।।गीता 9.15।। श्रीमद्भागवत के अनुसार शास्त्रेष्वियानेव सुनिश्चितो नृणां क्षेमस्य सध्रयग्विमृशेषु हेतुः । असंग आत्मव्यतिरिक्त आत्मनि दृढा रतिर्ब्रह्मणि निर्गुणे च या ॥२१॥ हरेर्मुहुस्तत्परकर्णपुर गुणाभिधानेन विजृम्भमाणया । भक्त्या ह्यासंगः सदसत्यनात्मनि स्यान्निर्गुणे ब्रह्माणि चात्र्जसा रतिः ॥२५॥ यदा रतिर्ब्रह्मणि नैष्ठिकी पुमा नाचार्यवान ज्ञानविरागरंहसा । दहत्यवीर्य हृदयं जीवकोशं पत्र्चात्मकं योनिमिवोत्थितो ऽग्निः ॥२६॥ दग्धाशयो मुक्तसमस्ततदगुणो नैवात्मनो बहिरन्तर्विचष्टे । परात्मनोर्यदु व्यवधानं पुरस्तात स्वप्ने यथा पुरुषस्तद्विनाशे ॥ श्रीमद्भागवत ४.२२.२१, २६-२७॥ सनत्कुमार जी ने राजा पृथु से कहा: "शास्त्र जीवों के कल्याण के लिए भलीभांति विचार करने वाले हैं, उनमे आत्मा से भिन्न देहादि के प्रति वैराग्य तथा अपने आत्मस्वरूप "निर्गुण ब्रह्म" में सुदृढ़ अनुराग होना — यही कल्याण का साधन निश्चित किया गया है॥२१॥ भक्तजनों के कानों को सुख देने वाले श्रीहरि के गुणों का बार बार वर्णन करनेसे और भक्तिभाव से मनुष्य का कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण जड़ प्रपंच से वैराग्य हो जाता है और आत्मस्वरूप निर्गुण परब्रह्ममें अनायास हीं उसकी प्रीति हो जाती है॥२५॥ परब्रह्म में सुदृढ़ प्रीति हो जाने पे पुरुष सद्गुरु की शरण लेता है, फिर ज्ञान-वैराग्य के प्रबल वेगके कारण वासनाशुन्य हुए अपने अविद्यादि पांच प्रकार के क्लेशों से युक्त अहंकारात्मक अपने ("मैं", "मेरा") लिंग्ङ-शरीर को वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकड़ी से प्रकट होकर फिर उसी को जला देती है ॥२६॥ इस प्रकार लिंग्ङ-देह का नाश होने पे, वह उसके कर्तृत्वादि सभी गुणों से मुक्त हो जाता है (अर्थात उसके अब कोई कर्तव्य नहीं रह जाते) । फिर तो जैसे स्वप्नावस्था में तरह तरह के पदार्थ देखनेपर भी उससे जग पड़नेपर उनमें से कोई चीज दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार वह पुरुष शरीर के बाहर दिखायी देने वाले घट-पटादि और भीतर अनुभव होने वाले सुख-दुःखादि को भी नहीं देखता। इस तरह से परमात्मा और जीवात्मा के बिच का भेद नष्ट हो जाता है, क्यूंकि उसके बिच में यही पदार्थ पहले व्यवधान कर भेद उत्पन्न कर रहे थे।" अतः यहाँ श्रीमद्भागवत में अभेद-भक्ति का स्वरुप वर्णन किया गया है, इसमें व्यक्ति रहते हुए भी ब्रह्म में ब्रह्मलीन रहता है । यहाँ मनुष्य अपने आत्मस्वरूप निर्गुण परमात्मा से प्रीति करता है। यह तो ज्ञान मार्ग है जिसे गोस्वामी तुलसीदास जी श्री रामचरितमानस में तलवार की धार पे चलना कहते हैं। तत्त्वं नरेन्द्र जगतामथ तस्थुषां च देहेन्द्रियासुधिषणात्मभिरावृतानाम । यः क्षेत्रावित तपतया हृदै विष्वगाविः प्रत्यक चकास्ति भगवांस्तमवेहि सोऽस्मि ॥ श्रीमद्भागवत ४.२२.३७॥ सनत्कुमार जी ने राजा पृथु से कहते हैं: अतः राजन! जो भगवान देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि, और अहंकार से आवृत सभी स्थावर-जंगम प्राणियों के ह्रदयों में जीवके नियामक अंतर्यामी आत्मारूपसे सर्वत्र साक्षात् प्रकाशित हो रहे हैं — उन्हें तुम 'वह मैं हीं हूँ' ऐसा जानो । यह परमात्मा से अद्वैत-भक्ति कहलाती है, अद्वैत-वादी इसी मार्ग पे चलते हैं। शास्त्रों में भेद भक्ति और अभेद-भक्ति दोनों का वर्णन है, परन्तु भगवान श्री राम के परम-भक्त काकभुशुण्डि महाराज जी को यह अद्वैत/निर्गुन-भक्ति नहीं सोहाती! एक बार काकभुशुण्डि महाराज को लोमश मुनि के दर्शन हुए, तब काकभुशुण्डि महाराज ने लोमश ऋषि से सगुण ब्रह्म की आराधना (की प्रक्रिया) कहने का निवेदन किया तब मुनीश्वर ने श्री रघुनाथजी के गुणों की कुछ कथाएँ आदर सहित कहीं। फिर लोमश मुनि काकभुशुण्डि जी को... लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वैत अगुन हृदयेसा॥ अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा॥2॥ भावार्थ:-ब्रह्म का उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है, निर्गुण है और हृदय का स्वामी (अंतर्यामी) है। उसे कोई बुद्धि के द्वारा माप नहीं सकता, वह इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित, अनुभव से जानने योग्य, अखण्ड और उपमारहित है॥2॥ मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी॥ सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा॥3॥ भावार्थ:-वह मन और इंद्रियों से परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार, सीमारहित और सुख की राशि है। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है, (तत्वमसि), जल और जल की लहर की भाँति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है॥3॥ बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा॥ पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥4॥ भावार्थ:-मुनि ने मुझे अनेकों प्रकार से समझाया, पर निर्गुण मत मेरे हृदय में नहीं बैठा। मैंने फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर कहा- हे मुनीश्वर! मुझे सगुण ब्रह्म की उपासना हीं कहिए॥4॥ राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना॥ सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥5॥ भावार्थ:- मेरा मन रामभक्ति रूपी जल में मछली हो रहा है (उसी में रम रहा है)। हे चतुर मुनीश्वर ऐसी दशा में वह उससे अलग कैसे हो सकता है? आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिए जिससे मैं श्री रघुनाथजी को अपनी आँखों से देख सकूँ॥5॥ अतः भक्ति में प्रेम वैसा होना चाहिए जैसे मछली का जल से प्रेम होता है, जल के बिना मछली जीवित नहीं रह सकती, यही सत्य प्रेम है। भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा॥ मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा॥6॥ भावार्थ:- (पहले) नेत्र भरकर श्री अयोध्यानाथ को देखकर, तब निर्गुण का उपदेश सुनूँगा। मुनि ने फिर अनुपम हरिकथा कहकर, सगुण मत का खण्डन करके निर्गुण का निरूपण किया॥6॥ तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥ उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥7॥ भावार्थ:- तब मैं निर्गुण मत को हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुण का निरूपण करने लगा। मैंने उत्तर-प्रत्युत्तर किया, इससे मुनि के शरीर में क्रोध के चिह्न उत्पन्न हो गए॥7॥ इसप्रकार काकभुशुण्डि महाराज जी को निर्गुन-मत अच्छा नहीं लगा, और वो उसका खंडन करके सगुन का निरूपण करने लगे, क्यूंकि उनका राघव के चरणों में सत्य-प्रेम था। जिन्हें प्रभु के चरणों में पूर्ण-अनुराग नहीं होता, उन्हें सम्यक ज्ञान प्राप्त नहीं होता और वो अभेद भक्ति करते हैं। ज्ञान और भक्ति में अंतर श्रीरामचरितमानस में गरुड़ जी काकभुशुण्डिजी से ज्ञान और भक्ति में अंतर बताने का आग्रह करते हैं:- एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥4॥ कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥ सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं॥5॥ भावार्थ:- गरुड़ जी कहते हैं: मैंने आपकी कृपा से श्री रामचंद्रजी के पवित्र गुण समूहों को सुना और शांति प्राप्त की। हे प्रभो! अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूँ। हे कृपासागर! मुझे समझाकर कहिए॥4॥ संत मुनि, वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ कुछ भी नहीं है। हे गोसाईं! वही ज्ञान मुनि ने आपसे कहा, परंतु आपने भक्ति के समान उसका आदर नहीं किया॥5॥ ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥ सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥6॥ भावार्थ:-हे कृपा के धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है? यह सब मुझसे कहिए। गरुड़जी के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजी ने सुख माना और आदर के साथ कहा-॥6॥ भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥ नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥7॥ भावार्थ:- भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं। हे नाथ! मुनीश्वर इनमें कुछ अंतर बतलाते हैं। हे पक्षीश्रेष्ठ! उसे सावधान होकर सुनिए॥7॥ भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है अर्थात भक्ति की पराकाष्ठा का फल ज्ञान है और ज्ञान की पराकाष्ठा प्रभु श्रीराम जी के चरणों में परमप्रेमा अमृतस्वरूपा भक्ति है। अर्थात, परा-भक्ति और परा-ज्ञान एक हीं है। ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना॥ पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती॥8॥ भावार्थ:- हे हरि वाहन! सुनिए, ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान- ये सब पुरुष हैं। पुरुष का प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है। अबला (माया) स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है॥8॥ पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर। न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर॥ श्रीरामचरितमानस ७.११५ क ॥ भावार्थ:-परंतु जो वैराग्यवान्‌ और धीरबुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को त्याग सकते हैं, न कि वे कामी पुरुष, जो विषयों के वश में हैं (उनके गुलाम हैं) और श्री रघुवीर के चरणों से विमुख हैं॥115 (क)॥ सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि। बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥ श्रीरामचरितमानस ७.११५ ख॥ भावार्थ:-वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चंद्रमुख को देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं। हे गरुड़जी! साक्षात्‌ भगवान विष्णु की माया ही स्त्री रूप से प्रकट है॥115 (ख)॥ इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ॥ मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा॥ श्रीरामचरितमानस ७.११६.१ ॥ भावार्थ:-यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतों का मत (सिद्धांत) ही कहता हूँ। हे गरुड़जी! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती॥1॥ माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ॥ पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी॥ २ ॥ भावार्थ:-आप सुनिए, माया और भक्ति- ये दोनों ही स्त्री वर्ग की हैं, यह सब कोई जानते हैं। फिर श्री रघुवीर को भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो निश्चय ही नाचने वाली (नटिनी मात्र) है॥2॥ भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया॥ राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी॥ ३ ॥ भावार्थ:-श्री रघुनाथजी भक्ति के विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया उससे अत्यंत डरती रहती है। जिसके हृदय में उपमारहित और उपाधिरहित (विशुद्ध) रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती है,॥3॥ तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई॥ अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी॥4॥ भावार्थ:-उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर (चला) सकती। ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे भी सब सुखों की खानि भक्ति की ही याचना करते हैं॥4॥ यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ। जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ॥ श्रीरामचरितमानस ७.११६ क॥ भावार्थ:-श्री रघुनाथजी का यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाता। श्री रघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता॥116 (क)॥ परन्तु ज्ञान मार्ग पे चलना एक कृपाण की धार पे चलने के सामान है जिसपे सारा प्रयत्न भक्त का होता है और इससे गिरते देर नहीं लगती है, भक्ति मार्ग अत्यंत सुगम है और भक्त गिर भी जाए तो प्रभु संभाल लेते हैं: ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥ जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई॥1॥ भावार्थ:-ज्ञान का मार्ग कृपाण (दोधारी तलवार) की धार के समान है। हे पक्षीराज! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती। जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपद को प्राप्त करता है॥1॥ अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद॥ राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं॥2॥ भावार्थ:-संत, पुराण, वेद और (तंत्र आदि) शास्त्र (सब) यह कहते हैं कि कैवल्य रूप परमपद अत्यंत दुर्लभ है, किंतु हे गोसाईं! वही (अत्यंत दुर्लभ) मुक्ति श्री रामजी को भजने से बिना इच्छा किए भी जबर्दस्ती आ जाती है॥2॥ कैवल्य पद भक्त के लिए अनिच्छित हीं रहती है। जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥ तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥3॥ भावार्थ:-जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों प्रकार के उपाय क्यों न करे। वैसे ही, हे पक्षीराज! सुनिए, मोक्षसुख भी श्री हरि की भक्ति को छोड़कर नहीं रह सकता॥3॥ अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥ भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा॥4॥ भावार्थ:-ऐसा विचार कर बुद्धिमान्‌ हरि भक्त भक्ति पर लुभाए रहकर मुक्ति का तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति करने से संसृति (जन्म-मृत्यु रूप संसार) की जड़ अविद्या बिना ही यंत्र और परिश्रम के (अपने आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है,॥4॥ सभी साधनों का अंतिम फल - भक्ति गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस में कहा है कि वेद-पुराणोक्त जितने भी साधन हैं - उन सभी साधनों का फल अंत में श्री राम जी के चरणों में परमदुर्लभ भक्ति है, परन्तु यह भक्ति श्रीरामकृपा से किसी विरले को हीं मिलती है:- तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥२॥ नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना॥ भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई॥३॥ जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी॥ सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई॥ श्रीरामचरितमानस ७.१२६.२-४ ॥ भावार्थ:- तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता,॥२॥ अनेकों प्रकार के कर्म, धर्म, व्रत और दान, अनेकों संयम दम, जप, तप और यज्ञ, प्राणियों पर दया, ब्राह्मण और गुरु की सेवा, विद्या, विनय और विवेक की बड़ाई (आदि)-॥३॥— जहाँ तक वेदों ने साधन बतलाए हैं, हे भवानी! उन सबका फल श्री रघुनाथ (भगवान श्री हरि) की भक्ति ही है, किंतु श्रुतियों में गाई हुई वह श्री रघुनाथजी की भक्ति श्री रामजी की कृपा से किसी एक (विरले) ने ही पाई है॥४। यथा शिव भगवान की भक्ति का अंतिम फल श्री राम भक्ति है: एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥ सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥ श्रीरामचरितमानस ७.१०६.१ ॥ भावार्थ:- एक बार गुरुजी ने मुझे बुला लिया और बहुत प्रकार से (परमार्थ) नीति की शिक्षा दी कि हे पुत्र! शिवजी की सेवा का फल यही है कि श्री रामजी के चरणों में प्रगाढ़ भक्ति हो॥1॥ भक्ति परम-स्वतंत्र भक्ति बिना किसी अवलंब के रहती है, जबकि ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य को रहने के लिए भक्ति की आवश्यकता है इसी कारणवश श्रीमद्भागवत में ज्ञान-वैराग्य को भक्ति का पुत्र कहा गया है:- सो सुतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥ भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥ श्रीरामचरितमानस३.१६.२ ॥ भावार्थ:-वह भक्ति स्वतंत्र है, उसको (ज्ञान-विज्ञान आदि किसी) दूसरे साधन का सहारा (अपेक्षा) नहीं है। ज्ञान और विज्ञान तो भक्ति के अधीन हैं। हे तात! भक्ति अनुपम एवं सुख की मूल है और वह तभी मिलती है, जब संत अनुकूल (प्रसन्न) होते हैं॥ भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥ पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥ श्रीरामचरितमानस ७.४५.३ ॥ भावार्थ:- भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है॥ ।।SitaRam।। Share this Page ॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥ The content on website is written purely for the spiritual purpose of spreading love and devotion in the lotus feet of Bhagavan Sri Sri SitaRam by Ravi Shankar (a humble servant of Sri SitaRama). 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