Saturday 28 October 2017

गायत्री त्रिपदा देवी त्र्यक्षरी

All World Gayatri Pariwar Books गायत्री मंत्र का... गायत्री की २४... 🔍 INDEX गायत्री मंत्र का तत्वज्ञान गायत्री की २४ अक्षर   |     | 3  |     |   गायत्री महामंत्र में सम्पूर्ण जड़- चेतनात्मक जगत का ज्ञान बीज रूप से पाया जाता है ।। मस्तिष्क के मूल में से जो मुख्य 24 ज्ञान तन्तु निकल कर मनुष्य के देह तथा मन का संचालन करते हैं उनका गायत्री 24 अक्षरों से सूक्ष्म सम्बन्ध है ।। गायत्री के अक्षरों के विधिवत् उच्चारण से शरीर के भिन्न- भिन्न स्थानों में पाये जाने वाले सूक्ष्म चक्र, मातृका, ग्रन्थियाँ, पीठ, स्थान आदि जागृत होते हैं ।। जिस प्रकार टाइपराइटर मशीन पर उँगली रखते ही सामने रखे कागज पर वे ही अक्षर छप जाते हैं, उसी प्रकार मुख, कण्ठ और तालु में छुपी हुई अनेक ग्रन्थियों की चाबियाँ रहती हैं ।। गायत्री अक्षरों का क्रम से संगठन ऐसा विज्ञानानुकूल है कि उन अक्षरों के उच्चारण से शरीर के उन गुप्त स्थानों पर दबाव पड़ता है और वे जागृत होकर मनुष्य की अनेक सुषुप्त शक्तियों को कार्यशाला बना देते हैं। गायत्री मंत्र के भीतर अनेक प्रकार के ज्ञान- विज्ञान छुपे हुये हैं ।। अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र- शस्त्र, बहुमूल्य धातुएँ बनाना, जीवन दात्री औषधियाँ, रसायन तैयार करना, वायुयान जैसे यंत्र बनना, शाप और वरदान देना, प्राण- विद्या, कुण्डलिनी चक्र, दश महाविद्या, महामातृका, अनेक प्रकार की योग सिद्धियाँ गायत्री- विज्ञान के अन्तर्गत पाई जाती है ।। उन विधाओं का अभ्यास करके हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार की सिद्धि- ऋद्धियाँ प्राप्त की थीं ।। आज भी हम गायत्री साधना द्वारा उन सब विधाओं को प्राप्त करके अपने प्राचीन गौरव का पुनर्स्थापन कर सकते हैं ।। ''गायत्री सनातन अनादि काल का मंत्र है ।। पुराणों में बताया गया है कि'' सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को आकाशवाणी द्वारा गायत्री- मंत्र की प्राप्ति हुई थी ।। उसी मंत्र की साधना करके उनको सृष्टि रचने की शक्ति मिली थी ।। गायत्री के जो चार चरण प्रसिद्ध हैं उन्हीं की व्याख्या स्वरूप ब्रह्माजी को चार वेद मिले हैं और उनके चार मुख हुये थे ।। इसमें सन्देह नहीं कि जिसने गायत्री के मर्म को भली प्रकार जान लिया है उसने चारों वेदों को जान लिया ।। गायत्री साधना करने से हमारे सूक्ष्म शरीर और अन्तःकरण पर जो मल विक्षेप के आवरण जमे होते हैं वे दूर होकर आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है ।। आत्मा के शुद्ध स्वरूप द्वारा ही सब प्रकार की समृद्धियाँ और सम्पत्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं ।। दर्पण की तरह आत्मा को शुद्ध बनाने से उसके सब प्रकार के मल दूर हो जाते हैं, और मनुष्य अन्तःकरण निर्मल, प्रकाशवान बनकर परमेश्वर की समस्त शक्तियों, समस्त गुणों, सर्व सामर्थ्यों, सब सिद्धियों से परिपूर्ण हो जाता है ।। गायत्री के तत्त्वरूप 24 वर्ण में 24 प्रकार की आत्मतत्त्व- रूपता स्थित हैं ।। चौबीस तत्त्व के बाहर और भीतर रहकर उसे अपने अन्तर में स्थित करने से मनुष्य ''अन्तर्यामी' ' बन जाता है ।। सब ज्ञानों में से यह अन्तर्यामी- विज्ञान सर्वश्रेष्ठ है, जो गायत्री की साधना द्वारा ही प्राप्त होता है ।। जो आत्मा के भीतर है और आत्मा के बाहर भी विद्यमान है, जो आत्मा के भीतर और बाहर रहकर उसका शासन करता है, वही वास्तविक आत्मा है, वही अमृत है, वही अन्तर्यामी है ।। सर्वान्तर्यामी आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्मांड का आयतन अर्थात् प्रतिष्ठा है, ऐसा निश्चय होने के पश्चात् ब्रह्मांड के 24 तत्त्वों का आकलन करना सम्भव हो जाता है ।। इस प्रकार अन्य सब विज्ञान अन्तर्यामी विज्ञान से न्यून श्रेणी के हैं ।। इस बात की पुष्टि में 'योगी याज्ञवल्क्य' में कहा गया है कि ''जो स्वयं अदृष्ट, अश्रुत, अमूर्त, अविज्ञात है वही अन्तर्यामी है, वही अमृत- स्वरूप है, और इसी कारण वह तुम्हारे मेरे और अन्य सबके आत्माओं का पूज्य है ।। हे गौतम ! इस विज्ञान के अतिरिक्त जो अन्य विज्ञान हैं वे सब दुःखदायी हैं ।। अन्तर्यामी का विज्ञान ही यथार्थ विज्ञान हैं ।। गायत्री जिन चौबीस तत्वात्मक विज्ञानों का बोध कराती है वे इस अन्तर्यामी विज्ञान के सहायक होने से ही श्रेष्ठ हैं ।। अन्तर्यामी ब्रह्म का तत्त्वबोध कर लेना कोई साधारण काम नहीं है, क्योंकि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है ।। स्थूल शक्तियों का विचार करने वालों के लिये उसका यथार्थ बोध हो सकना असम्भव ही है ।। योग के आचरण से बुद्धि को सूक्ष्म बनाकर सुविचार और निर्विचार समापत्ति द्वारा (चित्त जिस विषय में संलग्न होता है और स्फटिक मणि जैसा प्रतीत होता है उस तदाकारापत्ति को ही 'समापत्ति' कहा जाता है) सूक्ष्म विषयों की प्रतीत की जाती है ।। सूक्ष्मता की अवधि अलिंग तक होती है, अलिंग ही सर्व प्रधान तत्त्व है ।। जिसका किसी में लय हो सके ऐसा कोई तत्त्व ही जहाँ नहीं है, अथवा वह किसी के साथ मिल सके ऐसा भी कुछ जहाँ शेष नहीं रहता, वही प्रधान तत्त्व होता है ।। समापत्ति के विषय को समझाते हुए योग शास्त्रकार ऋषियों ने कहा है कि ''स्थूल अर्थों में अवितर्क और निर्वितर्क और सूक्ष्म अर्थ में सविचार और निर्विचार' इन चार प्रकार की समाधियों की आवश्यकता होती है, और इस समाधि की सूक्ष्मता आलिंग प्रधान तक होती है ।। इस समापत्ति से 24 तत्त्व रूपावस्था जानने में आती हैं ।'' हिरण्य गर्भ जैसा सूक्ष्मतर अथवा अन्तर्यामी तत्त्व जानना हो तो उस सुख स्वरूप परमात्मा को योगाभ्यास द्वारा प्राप्त करना ही परम पुरुषार्थ है ।। इसके लिए गायत्री के 24 अक्षरों से प्राप्त अति सूक्ष्म ज्ञान सर्वाधिक श्रेष्ठ है ।। साधना की सफलता के रहस्य गोपथ ब्राह्मण में अच्छी तरह समझायें गये हैं ।। इसके अन्तर्गत मौदगल्य और मैत्रेयी संवाद में गायत्री तत्त्वदर्शन पर 33- 35 कण्डिकाओं में विस्तृत प्रकाश डाला गया है ।। मैत्रेयी पूछते हैं- '' सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य, कवयः किश्चित आहुः'' अर्थात् हे भगवान्! यह बताइये कि ''सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य'' इसका अर्थ सूक्ष्मदर्शी विद्वान क्या करते हैं ।। इसका उत्तर देते हुए मौदगल्य कहते हैं- ''सवित प्रविश्यताः प्रयोदयात् यामित्र एति ।'' अर्थात्- सविता की आराधना इसलिए है कि वे बुद्धि क्षेत्र में प्रवेश करके उसे शुद्ध करते और सत्कर्म परायण बनाते हैं ।। वे आगे और भी कहते हैं- ''कवय देवस्य सवितुः वरेण्यं भर्ग अन्न पाहु'' अर्थात् तत्त्वदर्शी सविता का आलोक अन्न में देखते हैं ।। अन्न की साधना में जो प्रखर पवित्रता बरती जाती है, उसे सविता का अनुग्रह समझा जा सकता है ।। आगे और भी स्पष्ट किया गया है- ''मन एवं सविता वाकृ सावित्री'' अर्थात् परम तेजस्वी सविता जब मनः- क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जो जिह्वा को प्रभावित करते हैं और वचन के दोनों प्रयोजनों में जिह्वा पवित्रता का परिचय देती है ।। इस तथ्य को आगे और भी अधिक स्पष्ट किया गया है -''प्राण एव सविता अन्न सावित्री, यत्र ह्येव सविता प्राणस्तरन्नम् ।। यत्र वा अन्न तत् प्राण इत्येते ।'' अर्थात्- सविता प्राण है और सावित्री अन्न ।। जहाँ अन्न है वहाँ प्राण होगा और जहाँ प्राण है वहाँ अन्न ।। प्राण जीवन, जीवट, संकल्प एवं प्रतिभा का प्रतीक है ।। यह विशिष्टता पवित्र अन्न की प्रतिक्रिया है ।। प्राणवान व्यक्ति पवित्र अन्न ही स्वीकार करते हैं एवं अन्न की पवित्रता को अपनाये रहने वाले प्राणवान बनते हैं ।। सविता सूक्ष्म भी है और दूरवर्ती भी, उसका निकटतम प्रतीक यज्ञ है ।। यज्ञ को सविता कहा गया है ।। उसकी पूर्णता भी एकाकीपन में नहीं है ।। सहधर्मिणी सहित यज्ञ ही समग्र एवं समर्थ माना गया है ।। यज्ञपत्नी दक्षिणा है ।। दक्षिणा को सावित्री कह सकते हैं ।। 33वीं कण्डिका में कहा गया है- ''यज्ञ एवं सविता दक्षिणा सावित्री'' अर्थात् यज्ञ सविता है और दक्षिणा सावित्री ।। इन दोनों को अन्योऽन्याश्रित माना जाना चाहिए ।। यज्ञ के बिना दक्षिणा की और दक्षिणा के बिना यज्ञ की सार्थकता नहीं होती है ।। यह यज्ञ का तत्त्वज्ञान उदार परमार्थ प्रयोजनों में है ।। यज्ञ का तात्पर्य सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान करना है ।। गायत्री जप की पूर्णता कृत्य द्वारा होती है ।। इसका तत्त्वज्ञान यह है कि पवित्र यज्ञीय जीवन जिया जाय, साथ ही सविता देवता को प्रसन्न करने वाली- उसकी प्रिय पत्नी दक्षिणा का भी सत्कार किया जाय ।। यहाँ दुष्प्रवृत्तियों के परित्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन करने के निमित्त किए गये संकल्पों को ही भाव भरी दक्षिणा- देव दक्षिणा समझा जाना चाहिए ।। गायत्री उपासना में सफलता- असफलता मिलने की पृष्ठभूमि में शास्त्रोक्त क्रिया कृत्यों का जितना महत्त्व है उससे भी अधिक उस तत्त्वज्ञान का है जिसमें साधक को व्यक्तित्व परिष्कृत करने के लिए मन, बुद्धि और आहार को पवित्र बनाने तथा सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में प्रबल प्रयत्न करने वाली बात भी सम्मिलित है ।। गायत्री उपासना की दिनचर्या, क्रम, पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिसे ब्रह्मकर्म, तप, साधन कहा जा सके ।। कहा गया है कि ''इदं ब्रह्म ह श्रियं प्रतिष्ठाम् अयवनम् ऐक्षत'' अर्थात् ब्रह्मा ने गायत्री में शोभा, सम्पदा और कीर्ति के सभी तत्त्व भर दिये ।। किन्तु साथ ही यह भी प्रावधान रखा कि ''सावित्र्या ब्राह्मणं सृष्ट्वा तत् सावित्री पर्यपधात्'' अर्थात् उसन गायत्री को धारण कर सकने में समर्थ ब्राह्मण को सृजा और उसे सावित्री के साथ बाँध दिया ।। ब्राह्मण वंश से नहीं, ऐसे कर्म करने से बनता है, जिनमें सत्य और तप का व्रत जुड़ा हुआ है ।। गोपथ की इसी कण्डिका में इस तथ्य को प्रकट करते हुए कहा गया है- ''कर्मणा तपः, तपसः सत्यम्- सत्येन ब्रह्म ब्रह्मणा ब्रह्मणाम्- ब्रह्मणेन व्रतम् समदधात '' अर्थात् सत्कर्मों को तप कहते हैं- तप से सत्य की प्राप्ति होती है, सत्य ही ब्रह्म है- ब्रह्म को धारण करने वाला ब्राह्मण- ब्राह्मण वह जो आदर्शपालन का व्रत धारण करे- ऐसे ही व्रतधारी ब्राह्मण को गायत्री की प्राप्ति होती है। शालीनता एवं तपश्चर्या की बात पढ़ते, सुनते यो सोचते रहने से काम नहीं चलता ।। सदाचरण को व्रत रूप में जीवन- क्रम में अविच्छिन्न रूप से समाविष्ट रखा जाना चाहिए ।। इस परिपालन के आधार पर ही ब्रह्मतेज प्रखर होता है और गायत्री तत्त्व की उपलब्धि में कृत- कृत्य होने का अवसर मिलता है ।। मौदगल्य कहते हैं -''व्रतेन वै ब्राह्मणः संशितः भवति- अशून्य भवति- अविच्छिन्नःअस्य तन्तु- अविच्छिन्नं जीवनं भवति'' अर्थात् व्रत से ब्राह्मणत्व मिलता है- जो ब्राह्मण है वही मनीषी है- ऐसा व्यक्ति समृद्ध और समर्थ रहता है- उसकी परम्परा छिन्न नहीं होती और मरण सहज पड़ता है ।। गायत्री का तत्त्वज्ञान और उसके अनुग्रह का रहस्य बताते हुए महर्षि मौदगल्य ने विस्तारपूर्वक यही समझाया है कि चिन्तन और चरित्र की दृष्टि से संयम और परमार्थ की दृष्टि से व्यक्तित्व को पवित्र बनाने वाले ब्रह्मपरायण व्यक्ति ही गायत्री के तत्त्ववेत्ता हैं और उन्हीं को वे सब लाभ मिलते हैं जिनका वर्णन गायत्री की महिमा एवं फलश्रुति का वर्ण करते हुए स्थान- स्थान पर प्रतिपादित किया गया है ।। इस रहस्य के ज्ञाता की ओर संकेत करते हुए गोपथ ब्राह्मण का ऋषि कहता है ।। ''य एवं वेद यः च एवं विद्वान एवं एतम् व्याचष्टे''- जो इस पवित्र जीवन समेत की गई सावित्री का आश्रय लेता है, वही ज्ञानी है- वही मनीषी है, उसी को पूर्णता प्राप्त होता है ।। मानवी सत्ता से लेकर विस्तृत ब्रह्माण्ड में समान रूप से व्याप्त त्रिपदा गायत्री को भुवनेश्वरी रूप सर्वविदित है ।। गायत्री बीज 'ॐकार' है ।। उसकी सत्ता तीनों लोक (भूर्भुवः स्वः) लोकों में संव्याप्त है ।। साधक के लिए उसे 24 अक्षर सिद्धियों एवं उपलब्धियों से भरे- पूरे हैं ।। इन अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं को अपनाने वाले साधक निश्चित रूप से आप्तकाम बनते हैं और उस तरह खिन्न उद्विग्न नहीं रहते जिस तरह के लिप्सा- लालसाओं की अनुपयुक्त कामनाओं की आग में जलते- भुनते हुए शोक- संताप सहते हैं ।। इस तथ्य को ''रुद्रयामल'' में इस प्रकार प्रकट किया गया है- गायत्री त्रिपदा देवी त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी ।। चतुर्विंशाक्षरा विद्या सा चैवाभीष्ट देवता॥ -रुद्रयामल ''तीन पद वाली तथा तीन अक्षर (भूर्भुवः स्वः) युक्त समस्त भुवनों की अधिष्ठात्री 24 अक्षर वाली पराविद्या रूप गायत्री देवी- सबको इच्छित फल देने वाली है ।'' स्पष्ट है कि गायत्री के तत्वज्ञान को हृदयंगम करके उसके अनुसार पद्धति अपनाने वाले साधकों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।। (गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ.1.27 ))   |     | 3  |     |    Versions  HINDI गायत्री मंत्र का तत्वज्ञान Text Book Version gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp अखंड ज्योति कहानियाँ मौत का ख्याल (kahani) भक्तिमती मीराबाई अपने (Kahani) धर्म और संस्कृति (Kahani) उलटे पैर लौट गए (Kahani) See More रूढ़ियों में न भटकें, विवेक मार्ग अपनायें समय- शक्ति को व्यसन से बचायें, सृजन में लगायेंसनातन दर्शनभारतीय संस्कृति को 'सनातन' कहा गया है। सनातन का अर्थ होता है जिसका अस्तित्व अनादिकाल से बना रहा है और अनन्त काल तक बना रहेगा। जो सनातन है, वही सत्य है, वही अनश्वर है। परम पिता परमात्मा या माँ आदिशक्ति- चित्शक्ति सत्य- सनातन है। उसकी रची हुई माया परिवर्तनशील है, नश्वर है, उसके रूप बदलते रहते हैं। सभी वस्तुओं और प्राणियों के रूप प् More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era. Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages 39 in 0.056143045425415

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