Wednesday, 25 October 2017

जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है

Aryamantavya Search PRIMARY MENUSKIP TO CONTENT वैदिक दर्शन, वैदिक धर्म, हिन्दी ‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’ JANUARY 19, 2015 RDHOOT 1 COMMENT ओ३म् ‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’ मनुष्य जीवन का उद्देश्य है उन्नति करना। संसार में ईश्वर सबसे बड़ी सत्ता है। जीवात्माओं की ईश्वर से पृथक स्वतन्त्र सत्ता है। जीवात्मा को अपनी उन्नति के लिए सर्वोत्तम या बड़ा लक्ष्य बनाना है। सबसे बड़ा लक्ष्य तो यही हो सकता है कि वह ईश्वर व ईश्वर के समान बनने का प्रयास करे। प्रश्न यह है कि मनुष्य यदि प्रयास करे तो क्या वह ईश्वर बन सकता है? इसका उत्तर विचार पूर्वक दिया जाना समीचीन है। इसके लिए ईश्वर तथा जीवात्मा, दोनों के स्वरूप को जानना होगा। ईश्वर क्या है? ईश्वर वह है जिससे यह संसार अस्तित्व में आता है अर्थात् ईश्वर इस सृष्टि या जगत का निमित्त कारण हैं। निमित्त कारण किसी वस्तु के बनाने वाले चेतन तत्व व सत्ता को कहते हैं। इसमें ईश्वर भी आता है और मनुष्य वा जीवात्मा भी। ईश्वर ने इस सारे संसार को रचकर बनाया है। ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में हमारे पूर्वजों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि पुरूषों सहित स्त्रियों को भी बनाया और उसके बाद से वह मैथुनी सृष्टि द्वारा मनुष्य आदि और समस्त प्राणियों की रचना कर उन्हें जन्म देता आ रहा है।   ईश्वर के कार्यों में सृष्टि की रचना कर उसका संचालन करना और अवधि पूरी होने पर प्रलय करना भी सम्मिलित है जिसे वह इस सृष्टि के कल्प में विगत 1.96 अरब वर्षो से करता आ रहा है। इससे पूर्व भी वह अनन्त बार अनन्त कल्पों में सृष्टि की रचना कर उसका पालन करता रहा है। वह यह कार्य इस लिए कर पाता है कि उसका स्वरूप सच्चिदानन्द (सत्य, चित्त व आनन्द) स्वरूप है। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। जीवों के पुण्य व पापों के अनुसार जीवों को भिन्न-भिन्न योनियों में भेजकर उन्हें उनके अनुसार सुख-दुःख रूपी फल देना भी ईश्वर का कार्य है और यह भी उसका स्वरूप है। दूसरी ओर जीवात्मा के कुछ गुण ईश्वर के अनुरूप हैं व कुछ भिन्न। जीवात्मा अर्थात् हम वा हमारा आत्मा अर्थात् हमारे शरीर मे विद्यमान चेतन तत्व है। यह या इसका स्वरूप कैसा है? जीवात्मा सत्य पदार्थ, चेतन तत्व, आनन्द रहित व ईश्वर से आनन्द की अपेक्षा रखने व प्राप्त करने वाला, अल्पज्ञ, निराकार, अल्प व सीमित शक्ति से युक्त, न्याय व अन्याय करने वाला, अजन्मा, अनादि, अविनाशी, अमर, जिसका आधार ईश्वर है, ईश्वर से ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, अजर, नित्य व पवित्र है। यह कर्म करने में स्वतन्त्र तथा उनका फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ईश्वर की उपासना करना इसका कर्तव्य है।   जीवात्मा और ईश्वर का वेद सम्मत युक्ति व तर्क सम्मत स्वरूप उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित है। जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों में अल्पज्ञता, नित्य व इसका अनादि होना आदि गुण हैं जो सर्वज्ञता में कदापि नहीं बदल सकते। ईश्वर अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार ही सर्वज्ञ है। जीवात्मा अल्प शक्तिशाली है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सृष्टि को बनाकर इसका सफलतापूर्वक संचालन करता है। यह कार्य जीवात्मा कितनी भी उन्नति कर ले नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वव्यापक है और जीवात्मा एकदेशी। यह जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर भी सर्वव्यापकता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार से जीवों की अपनी सीमायें है। अतः जीवात्मा सदा जीवात्मा ही रहेगा और ईश्वर सदा ईश्वर रहेगा। यह जान लेने के बाद यह जानना शेष है कि जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर किस स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसका उत्तर यह मिलता है कि जीवात्मा के अन्दर मुख्य रूप से दो गुण विद्यमान हैं। एक ज्ञान व दूसरा कर्म या क्रिया। जीवात्मा अल्पज्ञ और ससीम होने से सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर सकता है और सीमित कर्म या क्रियायें ही कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने में भी इसे ईश्वर की सहायता की अपेक्षा है। ईश्वर ने जीवात्मा में ज्ञान की उत्पत्ति के लिए सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा के माध्यम से दिया था जो विगत 1.96 अरब वर्षों से यथावत् चला आ रहा है। वेदों में एक साधारण तिनके से लेकर सभी सृष्टिगत पदार्थों व संसार की सबसे सूक्ष्म व बड़ी सत्ता ईश्वर तक का आवश्यक ज्ञान दिया गया है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने से यह पूर्णतया निभ्रान्त सत्य ज्ञान है और परम प्रमाण है। यह भी कह सकते हैं कि वेदो में सत्य ज्ञान की पराकाष्ठा है। जीवात्मा परम्परानुसार पुरूषार्थ व तप पूर्वक वेदों का ज्ञान अर्जित कर सर्वोच्च उन्नति पर पहुंच सकता है। यही उसका उद्देश्य व लक्ष्य भी है। जीवात्मा में दूसरा गुण कर्म करने का है। कर्म भी मुख्यतः शुभ व अशुभ भेद से दो प्रकार के हैं। उसे कौन से कर्म करने हैं और कौन से नहीं, इसका ज्ञान भी वेदों से मिलता है। अन्य सामान्य आवश्यक कर्मों के साथ ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता-आचार्य व विद्वान अतिथियों की सेवा तथा सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखते हुए उनके जीवानयापन में सहयोगी होना ही मनुष्य के मुख्यः कर्म हैं जो उन्हें नियमित रूप से करने होते हैं। इनमें अनाध्याय नहीं होता। इस प्रकार वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंचता है। इसके अलावा जीवन की उन्नति का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। केवल धन कमाना और सुख सुविधाओं को एकत्रित करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। धर्म व सदाचार पूर्वक घन कमाना यद्यपि धर्म के अन्तर्गत आता है परन्तु इससे जीवन की सर्वांगीण उन्नति नहीं हो सकती। इसके लिए तो वेद विहित व निर्दिष्ट सभी करणीय कर्मों को करना होगा और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना होगा।   ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र आदि वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य की ईश्वर से मित्रता हो जाती है अर्थात् जीवात्मा ईश्वर का सखा बन जाता है। महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, पतंजलि, गौतम, कपिल, कणाद, व्यास, जैमिनी, पाणिनी तथा यास्क आदि ऋषियों ने सम्पूर्णं वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेदानुसार कर्म करके ईश्वर का सान्निध्य, मित्रता व सखाभाव को प्राप्त किया था। यह ईश्वर तो नहीं बने परन्तु ईश्वर के सखा अवश्य बने। यह सभी विद्वान भी थे और धर्मात्मा भी। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ ‘व्यवहार भानु’ में एक प्रश्न उठाया है कि क्या सभी मनुष्य विद्वान व धर्मात्मा हो सकते हैं? इसका युक्ति व प्रमाण सिद्ध उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है कि सभी विद्वान नहीं हो सकते परन्तु धर्मात्मा सभी हो सकते हैं। ईश्वर का मित्र बनने के लिए वेदों का विद्वान बनना व वेद की शिक्षाओं का आचरण कर धर्मात्मा बनना मनुष्य जीवन की उन्नति का शिखर स्थान है। इससे ईश्वर से सखा भाव बन जाता है। यदि कोई विद्वान न भी हो तो वह विद्वानों की संगति कर उनके मार्गदर्शन में ऋषियों मुनियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर धर्मात्मा बन कर ईश्वर से मित्रता व सखाभाव उत्पन्न कर सकता है और जीवन सफल बना सकता है। यह सफलता धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरूषार्थों का युग्म है। यह वेद के ज्ञान से सम्पन्न और वेदानुसार आचरण करने वाले योगियों या ईश्वर भक्तों को ही प्राप्त होती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आजकल प्रचलित मत-मतान्तर के अनुयायियों को ईश्वर का यह मित्रभाव पूर्णतः प्राप्त नहीं हो सकता, आंशिक व न्यून ही प्राप्त हो सकता है। यह सभी मत-मतान्तर धर्म नहीं है। यह विष मिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं इसलिए कि इनमें सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण हैं। पूर्ण सत्य केवल वेदों में है जिसे स्वाध्याय द्वारा जाना जा सकता है। आईये, वेद की शरण में चले और वेदाचरण कर ईश्वर से मित्रभाव व सखा प्राप्त कर अपने जीवन की उच्चतम उन्नति कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करें। यह मित्रभाव ऐसा होता है कि दोनों एक तो नहीं बनते लेकिन लगभग समान कहे जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में जीव यह धोषणा कर सकता है कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’अर्थात् मैं ब्रह्म में हूं, ब्रह्म अर्थात् ईश्वर मुझ में है, हम दोनों परस्पर सखा व मित्र बन गये हैं। यही नहीं ‘सर्वा आशा मम मित्रं भवंतु’अर्थात् सभी दिशायें और सभी प्राणी मेरे मित्र बन गये हैं। मेरा जीवन सार्थक हो गया है। –मनमोहन कुमार आर्य पताः 196 चुक्खूवाला-2 देहरादून-248001 फोनः 09412985121 SHARE THIS: TwitterFacebookGoogleEmailPrint Related ‘ईश्वर अनादि काल से अनन्त काल तक सबका एकमात्र साथी’ April 7, 2016 In "IMP" ‘ईश्वर के कृतज्ञ सभी मनुष्यों को वैदिक विधि से ईश्वर-स्तुति करनी चाहिये’ -मनमोहन कुमार आर्य December 22, 2015 In "वैदिक धर्म" ‘ईश्वर व उसकी उपासना पद्धतियां - एक वा अनेक?’ November 12, 2014 In "वैदिक दर्शन" ISHWARJIVATMAMAHARSHI DAYANANDMITRA Post navigation PREVIOUS POST ‘ईश्वर को क्यों जानें, जानें या न जानें?’ NEXT POST क्या आर्य विदेशी थे ? ONE THOUGHT ON “‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’” bkdhiri JANUARY 20, 2015 AT 4:09 AM swami daya nand sarswati ne likha hai ke dasya bhakti bhi ki ja sakti hai..Mata pita maan kar mitra man kar ,,,swami man kar….. kya apni prakirti swabhaw ke anusaar bhagti ki ja sakti hai….to jeewatma ko ishwar smaan man kar apni aatma ko ooper nahi uthaya ja sakta…aatmik unatti ke liye…..smadhi awastha me to yahi hota hai………aapka lekh gyan vadhak hai dhanyawad REPLY LEAVE A REPLY Your email address will not be published. Required fields are marked * Comment Name * Email * Website POST COMMENT SUBSCRIBE TO BLOG VIA EMAIL Enter your email address to subscribe to this blog and receive notifications of new posts by email. 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