अ ..... उ ..... म
नाद ....बिन्दु .....कला
असूर्या नाम ते लोका ..........ईशा ० उ०
आत्मा का हनन करने वाले
उन लोको में जाते हैं , जो असूर्या (अन्धकार लोक) नाम वाले हैं
अप्रकाश रूप हैं और घोर अन्धकार से व्याप्त हैं
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लिंग अर्थात लीन
अर्थात बाह्य इन्द्रियों के
अगोचर चिद्रूप अर्थ का बोध कराने वाला तत्व
लिंग कहलाता हैं
श्रीतत्वचिन्तामणि के छठे षट्चक्र प्रकरण में
इन्ही लिंगो की, विभिन्न चक्रों में स्थिति प्रतिपादित हैं
"शिवात्मक ज्योतिरूप"
और अपने अन्दर स्थित उत्कृष्ट लिंग को छोड़कर
बाह्य लिंग में आस्था रखने वाले मूर्ख कहे गए हैं
जो सम्वित् रुपी लिंग का बार बार ध्यान करता हैं
तथा बाह्य वस्तु से परांगमुख होकर व्यवहार करता हैं
वह योगी "प्राण लिंगी " कहा जाता हैं
ॐ नमः शिवाय !
प्रणव बीज स्वरुप हैं
और पञ्चाक्षरी विद्या उसका वृक्ष
मेरा न बंधन हैं , न मोक्ष
क्योंकि दोनों ही, मल के रूप में हैं
इस प्रकार की भावना से ,स्नान का नाम ही , निर्मलीकरण हैं
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ॐ का उकार -- बिन्दु :)
भगवती त्रिपुरसुन्दरी के निष्कल स्वरुप की स्थिति
महाबिन्दु :) में मानी गयी हैं
श्रीविद्या में 3 कूट या बीज ---
वाग्भव ,कामराज , शक्ति
प्रत्येक कूट या बीज के अंत में स्थित
हृल्लेखा में कामकला की स्थिति मानी जाती हैं
योगिनीहृदयम् तन्त्र में इसकी 12 कलाओ का वर्णन हैं
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यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोझो;
यत्रास्ति भोगे न च तत्र भोग:।
श्रीसुंदरीसेवनतत्परानां,
भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।
माँ त्रिपुरा की स्थुलरूप का नाम ललिता है।
श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है। यह
चार वेदों में भी अत्यंत गुप्त है। प्रचलित गायत्री के
स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद
स्पष्ट है, चतुर्थ पाद अस्पष्ट है। गायत्री वेद
का सार है। वेद चतुर्दश विद्याओं का सार है। इन
विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है।
कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है। इसका रहस्य गुरू
के मुख से ग्रहण योग्य है। संमोहन तंत्र के अनुसार
तारा, तारा का साधक,
कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है। हंस
तारा, महा विद्या,
योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली,
हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और
कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है।
श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है।
यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है। दूसरा मत
मालिनी मत (काली मत) है। कादी मत
का तात्पर्य है जगत चैतन्य
रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेदप्राप्ति।
काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह
मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना।
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आगमशास्त्र के अनुसार
गृहस्थ का गुरु , गृहस्थ ही हो सकता हैं
यति को कभी गुरु नहीं बनाया जा सकता
वानप्रस्थी और यति का गुरुत्व , निष्फल माना जाता हैं
शिष्य के धन का अपहरण करने वाले गुरु तो बहुत मिल जायेंगे
किन्तु वैसे गुरु दुर्लभ हैं , जो शिष्य के हृदय के ताप को दूर कर सके
--- अनंतरूद्र और बृहस्पति संवाद (गुरु स्वरुप निरूपण)
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महर्षि कपिल ने सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष के संबंध से जगत की रचना सिद्ध की है। उनकी यह प्रकृति महामाया ही है, जो कि सत्व, रज व तम, इन तीनों गुणों की साम्य अवस्था है। पुरुष की दृष्टि जब प्रकृति पर पड़ती है तो उसके गुणों में खलबली मचती है। इससे महत् तत्व- अहंकार, आकाश, अग्नि, वायु, जल व पृथ्वी सहित बुद्धि, मन और पांच ज्ञानेंद्रियों एवं पांच कमर्ेंद्रियों की उत्पत्ति होती है। यही निराकार प्रकृति का साकार व्यक्त रूप है।
संसार का कोई भी कार्य शक्ति के बिना संभव नहीं, इसीलिए शक्ति ने बाद में देवी के रूप में अनेकों नाम धारण किए। शक्ति उपासना बेहद जटिल है, जिसमें अनेक प्रकार की तांत्रिक विधियां समाहित हैं। बौद्धों ने इस पर काफी काम किया। इनकी महायान शाखा में नागार्जुन प्रसिद्ध आचार्य हुए। महायान से ही मंत्रयान और बज्रयान की उत्पत्ति हुई, जिससे आगे चलकर तंत्र-मंत्र, हठयोग आदि वाममार्गी साधना पद्धतियां विकसित हुईं। इसलिए शक्ति उपासना के दो ही रूप बने, तांत्रिक व वैष्णव।
वैष्णव पद्धति में भगवती जगदंबा की उपासना मां के रूप में होती है, जो तांत्रिक विधियों से मुक्त है। ऋग्वेद के वाकसूक्त [देवीसूक्त] में महर्षि अंभृण की वाक नामक कन्या कहती है- मैं [शक्ति] ही संपूर्ण जगत को उत्पन्न करने वाली, पालन करने वाली और धारण करने वाली हूं। मुझमें ही इंद्र, वरुण और अग्नि समाहित हैं। ग्यारह रुद्रों के रूप में मैं ही विचरण करती हूं। अष्ट वसु और बारह आदित्यों के रूप में भी मैं ही भासमान होती हूं। त्वष्टा, पूषा और भग [ऐश्वर्य] को मैं ही धारण करती हूं। ज्ञान से युक्त ब्रह्म को जानने वाली भी मैं ही हूं।
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्म ताम्॥1॥
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धा˜यै नमो नम:।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नम:॥2॥
आगमिक तान्त्रिक श्लोक या मन्त्र
इस प्रकार सुगठित हैं
मानो शंकर जी की वीणा बज रही हो
संगीत in -built हैं , इनमे
जैसे ---
तंत्रोक्त देवी सूक्त ---
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्म ताम्॥1॥
रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धा˜यै नमो नम:।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नम:॥2॥
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इष्ट की महिमा सुनने के बाद
भक्त , मदोन्मत्त हो जाता हैं
जैसे मदिरापान कर लिया हो
इसीलिए मदोन्मत्त होकर महिमा सहित
भागवत वचनों को सुनना चाहिए , पढना चाहिए
या नामजप आदि करना चाहिए
इसे ही मदिरापान करके
जप करना कहा जाता हैं
तन्त्र
नौसिखियों को तमीज सिखाता हैं
काम करने का तरीका सिखाता हैं
तन्त्र गलत नहीं
आपके दिमाग में घुसा हुआ कलिमल ही इतना हैं कि
आपको हरेक चीज में , दोष दीखता हैं
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शिव पुराण में
- २४,००० श्लोक है तथा इसके क्रमश: ६ खण्ड हैं:-
विद्येश्वर संहिता
रुद्र संहिता
कोटिरुद्र संहिता
उमा संहिता
कैलास संहिता
वायु संहिता आदि।
इसमें भगवान शिव के भव्यतम व्यक्तित्व का गुणगान किया गया है। शिव- जो स्वयंभू हैं, शाश्वत हैं,सर्वोच्च सत्ता है, विश्व चेतना हैं और ब्रह्माण्डीय अस्तित्व के आधार हैं।सभी पुराणों में शिव पुराण को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होने का दर्जा प्राप्त है। इसमें भगवान शिव के विविध रूपों, अवतारों, ज्योतिर्लिंगों, भक्तों और भक्ति का विशद् वर्णन किया गया है।
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"गु " का अर्थ हैं -- गुणातीत
"रू " का अर्थ हैं -- रूपातीत
"गुकारं" प्राकृतगुणातीतं
"रूकारं" अशुद्धमायारूपातीतम्
ॐ नमः शिवाय !
जय श्रीराम !
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