परमार्थ में प्राणी मात्र से अभेददृष्टि होने पर भी
व्यवहार में उनसे यथायोग्य भेद व्यवहार करना आवश्यक है ,
दोनों का सामंजस्य यही योग है |
एक बहुत सुन्दर श्लोक है -
भावाद्वैतं सदा कुर्यात् क्रियाद्वैतं न कुत्रचित् |
सत्यद्वैते क्रिया कुत्र यत्र द्वैतं भजेमहि ||
(यहाँ क्रियाद्वैत शब्द भागवत के क्रियाद्वैत से अन्यार्थ में है |)
अंतर्दृष्टि से सबके प्रति निजात्मभाव रखकर लोक - व्यवहार में यथानुरूप धर्मयुद्ध में भूमिका संपादित करना / यथायोग्य भेदव्यवहार करना - यही धर्म है |
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ये बड़ी भारी भ्रान्ति समाज में व्याप्त है कि चार मठ भगवान आद्य शंकराचार्य जी ने बनाए , उन्होंने बनाए नहीं अपितु उनका प्रवर्तन किया क्योंकि वे लुप्त हो चुके थे , मठ अनादि हैं | जैसे सनातन धर्म का प्रवर्तन मात्र किया तद्वत् |
श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् प्रवर्तक हैं निर्माता नहीं |
ऐसे ही पुराण भी महर्षि वेदव्यास जी ने संकलित किये , निर्मित नहीं |
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एक ही अद्वयज्ञान जिसका वाचक प्रणव है उसका विस्तार ही वेद है |
इस ॐ कार रूप एक वेद का ही विस्तार चार वेद हैं , और इस वेद का ही अर्थ ब्राह्मण भाग और तात्पर्य पुराण आदि हैं | इस प्रकार सारा वैदिक साहित्य केवल ॐ कार का ही विस्तार मात्र है |
...................ये समस्त विस्तार भी वस्तुतः हमारी अन्तर्प्रज्ञाशक्ति में कमी के कारण है|
यह वेद परा , पश्यंती , मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में प्राण , इन्द्रिय और मनोमय है और सृष्टि के सभी प्राणियों के अंतर में अनाहत नाद रूप से है |
................यही कारण है कि जिसमें स्वयंप्रज्ञा नहीं होती उसका शास्त्र भी कुछ भला नहीं कर पाते |
इसी गूढ़ विज्ञान पर चातुर्वर्ण्य व्यवस्था है कि ब्राह्मण (सत्त्व प्रधान देहधारी ) को वेद पढ़ना है और शूद्र ( तमः प्रधान ) को नहीं | सब बहुत गहन विज्ञान है |
वेद में न इतिहास है न भूगोल , किन्तु वेद इतिहास और भूगोल दोनों का प्रकाशक है तथापि वेद का प्रयोजन इतिहास और भूगोल बतलाना नहीं | यह बहुत गहरी बात है |
इस प्रकार वेद में इतिहास का निषेध करने वाले और उसका वर्णन देखने वाले दोनों अपनी -अपनी जगह सही हैं |
बिना वेद के मुक्ति नहीं मिल सकती और जो मुक्त है
उसके लिए वेद का अध्ययन करके कोई लाभ नहीं है |
दूसरी ख़ास बात यह भी ज्ञातव्य है बन्धु कि वेद पढ़कर भी
यदि मुक्त न हुए तो भी वेद पढ़ने से कोई लाभ नहीं |
स्वयं ईश्वर की वाणी अगर कल्याण न कर सके तो
फिर वह व्यक्ति मूर्खता की पराकाष्ठा से भी आगे है ।
ब्राह्मण है और वेद को छोड़कर अन्य कार्यों में श्रम करता है तो शास्त्र कहता है वह शूद्रवत् है |
ब्राह्मण को पहले वेद को धारण करना है | फिर करो समाज सेवा , गो सेवा , राष्ट्र सेवा आदि |
जय श्रीराम !
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ये सिद्ध है संसार का कोई भी सम्बन्ध हो ---अधिक हो या न्यून , किसी भी तरह से हो स्वार्थ अवश्य होता हैं। और सब सम्बन्ध भी देह के साथ ही हैं । देह के नष्ट होते ही ये सम्बन्ध भी नष्ट हो जाएँगे.... स्त्री, पुत्र, धन, आदि समस्त साम्राज्य से सम्बन्ध टूट जाएगा। जाने कितनी स्त्रीया हुयी, कितने ही माता पिता हुये, कितने ही पुत्र हुये शत्रु हुये.... सब कहा हैं ? कौन जाने । और हम हमेशा से इनमे ही उलझते चले आ रहे है ... चले जा रहे हैं । और उन श्री भगवान को भूल जाते हैं जो समस्त जीवो के अंतरात्मा होने से समस्त प्राणियों के निरतिशय-निरुपाधिक प्रेम के आस्पद हैं। 'आत्मानमेव प्रियमुपासीत' - प्रियरूप से आत्मा ही उपास्य योग्य हैं।"योsन्यमात्मन: प्रियं ब्रुवाण ब्रूयात् प्रियं रोत्स्यतीति" --- आत्मा से भिन्न अन्य किसी को जो प्रिय कहता हैं , उसे अपने उस 'प्रिय' के लिए रुदन ही करना पड़ता हैं । कहना बस इतना हैं कि - सभी संबन्धो के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन अवश्य करना चाहिए किन्तु बिना उनमें आसक्त हुये भगवान के प्रति ही प्रेम को दृढ़ करना चाहिए, उनकी ही भक्ति करनी चाहिए, यथायोग्य यथासामर्थ्य उनकी आज्ञाओ (शास्त्रो) का पालन करना चाहिए। ॥जय श्री राम॥
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