Monday, 24 July 2017

मानस तप

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मानस तप
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नारायण ! जिसे मन से सम्पन्न किया जाये वह मानस तप है । शरीर से या वाणी से जो सम्पन्न किया जायेगा उसमें मन का उपयोग तो रहेगा ही क्योंकि बिना मन के सम्बन्ध के न ज्ञानेन्द्रियाँ की और न कर्मेन्द्रियों की प्रवृत्ति हो सकती है । ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ सभी मन के ही अधीन चलती है । जो भी शारीरिक और वाचिक क्रिया होगी उसमें मन तो कार्यकारी रहेगा ही । अतः मानस का मतलब है जो मनोमात्र से निर्वर्त्य है , जिसे मन से ही सम्पन्न किया जाता है । अन्य तपों में मन भी प्रयुक्त है , वाणी या शरीर भी प्रयुकत हैं। मानस तप में तो मन ही प्रधान है , अन्यों का इसमें प्रवेश है ही नहीं । अतः मानस का अर्थ है जो मनोमात्र से सम्पन्न होता है । इसमें सबसे पहले मनःप्रसाद है । मन की प्रसन्नता होनी चाहिये । श्रीमद्भगवद्गीताकार कहते हैं :

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमत्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानस उच्यते ॥

" मनःप्रसादः " मन की प्रसन्नता होनी चाहिये । संस्कृत भाषा में प्रसन्नता का अर्थ होता है जहाँ सारे मल दूर हो जायें । जैसे जब बरसात का मौसम समाप्त हो जाता है तब तालाब बिल्कुल साफ हो जाते हैं । तब कहते हैं " सरः प्रसीदति " । इसी प्रकार मन की प्रसन्नता का मतलब है कि काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद , मात्सर्य आदि जितने मन के दोष हैं वे सब बैठ जायें । इनके कारण ही मन हमेशा वृत्ति बनाता रहता है , कभी वृत्तिहीन नहीं हो पाता । काम , क्रोध आदि विकार उठते ही रहते हैं इसलिये मन के अन्दर स्थिरता नहीं होती । मन में इन सारी वृत्तियों का न उठना और ये सारे दोष मन में न होना मन की प्रसन्नता है । वृत्ति उठने का तो मतलब हुआ कि मन के अन्दर प्रकट भान है । वृत्ति न उठने पर भी मल मन में बने रहते हैं । जैसे क्रोध होता है तो कामना का भान नहीं रहता , क्रोध का ही भान रहता है । इसी प्रकार जब लोभ होता है तब काम - क्रोध आदि का भान नहीं रहता , परन्तु वे मल दूर नहीँ हुए हैं । अन्तःकरण में उनके संस्कार मोजूद हैं । किसी एक काल में एक जगता है , दूसरे काल में दूसरा उद्बुद्ध होता है। अतः सारे दोष मन में हैं , केवल उस समय उनकी वृत्ति नहीं बन रही है अर्थात् उस समय उनका भान नहीं हो रहा है । मन की प्रसन्नता का मतलब है कि ये मल हट जायें , मन इनमें से कोई भी वृत्ति न बनाते हुए भी जाग्रत् रह सके । ऐसा मन प्रसन्न है । मन का स्वरूप ही है कुछ - न - कुछ संकल्प करना , बिना संकल्प किये हुए मन की सत्ता ही नहीं रहेगी । संकल्प करता अंतःकरण ही मन है । जब काम , क्रोध आदि से संकल्प नहीं हो तब मन के द्वारा परमात्मा के विषय में संकल्प होगा । शास्त्रीय भाषा में , " अनात्मप्रत्यय " का अभाव हो तभी आत्मप्रत्यय मौजूद हो पायेगा । परमात्म - विषयक संकल्प होने से मन की मौजूदगी सिद्ध होती है । काम , क्रोधादि का संकल्प नहीं होने से मन में मल नहीं है यह पता चलता है । वह परमात्म - विषयक संकल्प भी क्षणिक नहीं होता , क्योंकि मल स्वरूप से ही दूर हो गये हैं इसलिये मन के विचलन का हेतु नहीं रह गया है । इस दशा में मन में बिलकुल स्वच्छता है और परमात्म - वृत्ति को छोड़कर अन्य वृत्ति नहीं होने से सर्वथा शान्ति है । हमारा स्वरूप आत्मा है इसलिये परमात्मा - सम्बन्धी वृत्ति में तो हमें शान्ति मिलती है । अनात्मा हमारा स्वरूप नहीं है इसलिये अनात्म की वृत्ति में अशान्ति है । अनात्मवृत्ति से कभी पूरी तरह शान्ति हो ही नहीं सकती । इस प्रकार , मन मौजूद है परन्तु परमात्मा के विषय में संकल्प करता है , अनात्मा के विषय में नहीं करता , यह " मनःप्रसाद " है । नारायण ! इतना समझ लेना चाहिये कि प्रारम्भ में जब मन को शान्त करने जा रहे हैं तब काम , क्रोधादि विकारों का मल कैसे दूर किया जाये , इसके दो साधन हैं ।

एक साधन विवेक है ।
आत्मा और अनात्मा का विवेक करके " अनात्मा से मेरा वास्तविक सम्बन्ध है नहीं " इसके बारे में बार - बार दृढ़ प्रत्यय - प्रवाह करना एक तरीका है । दूसरा है कि मन का सारा भाव परमात्मा में केन्द्रित कर देना । इसलिये रोज बोलते हैं - " त्वमेव माता च पिता त्वमेव । त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव । त्वमेव सर्वँ मम देव देवः । " परमात्मा ही विद्या है इसलिये केवल परमात्मा को जानने की इच्छा करनी है क्योंकि वही विद्यारूप है । वही वित्तरूप है । यह खतरनाक प्रार्थना है ! इसमें यह नहीं कहा कि आपसे धन मिलेगा बल्कि आप ही धन हो अर्थात् आप मिल गये तो धन मिल गया । धन - विषयक लोभ रह ही नहीं सकता क्योंकि जानने या पाने की इच्छा परमात्ममात्र की है । इसी प्रकार माता - पिता से मोह होता है। कह दिया कि आप ही माता - पिता हो अर्थात् आपको छोड़कर और कोई मोह का विषय भी नहीं है । इस प्रकार से जितने मन के विकार हैं उनको विवेक के द्वारा धीरे - धीरे छोड़कर परमात्मा पर केन्द्रित कर देने से मन प्रसन्न , स्वच्छ हो जाता है । यह मेरा अनुभव सिद्ध है । इसी का अभ्यास कराने के लिये पुराने जमाने में यह पद्धति थी कि तुमको जो पहनना हो वह पहले भगवान् को अर्पण करो , फिर उनका प्रसाद लेकर ग्रहण करो कि भगवान् का प्रसाद है इसलिये हम पहन रहे हैं । इसी प्रकार जो खाना है वह पहले भगवान् को चढ़ाओ । बताया है कि अमावस्या के दिन , जितना भी महीने भर मेँ कमाया है वह सब भगवती को चढ़ा दो , फिर उसमें से तृतीय अंश अपने लिये ले लो । भगवती को देने के बाद , वह हमें प्रतिग्रह देती है - इस रूप से ग्रहण करो । इससे हैमवती उमा भगवगती प्रसन्न होती है । इस प्रकार से सब चीजों को परमात्म - संबन्धी कर सको इसलिये यह शिक्षा दी जाती है । हर हालत में , अनात्म - सम्बन्धी सब वृत्तियों को छोड़ना है , आत्म - सम्बन्धी वृत्ति बनानी है । जितना - जितना अनात्म पदार्थोँ को विवेक करके अपने से भिन्न करेंगे उतनी ही मन के अन्दर स्वच्छता आयेगी और जितनी भावनायें परमात्मा से अतिरिक्त दूसरी तरफ नहीं जायेगी उतनी ही शान्ति आयेगी । यह मनःप्रसाद है ।

नारायण ! भगवान् कहते हैं " सौम्यत्व " । मन की प्रसन्नता ऐसी चीज़ है जो मनुष्य के चेहरे और शरीर पर भी प्रकट हो जाती है । उपनिषद् के ऋषियों ने गाया है कि कुछ भी हो जाये , तत्वज्ञ के चेहरे पर मलिनता नहीं आती । उसका कारण यह है कि अंतःकरण की अनात्माकार वृत्ति से ही मलिनता आती है । यदि अंतःकरण की वृत्ति होगी कि " मैंने ग़लत काम किया है " तो मुख के ऊपर उसका प्रभाव आ जायेगा । जब वृत्ति यह बनती है कि " बहुत अच्छा हुआ " , तो मुख के ऊपर भी एक शान्ति और प्रसन्नता आ जाती है । गुरु जब अपने शिष्य को उपदेश देते है तो कहते हैं - " हे सोम्य ! " इस का तात्पर्य है कि इस उपदेश को तभी दिया जा सकता है जब उसके अन्तःकर में इतनी शान्ति आ गई है कि उसके अर्थात् शिष्य के मुख के ऊपर झलकती है । कोई अत्यन्त कष्ट में पड़ा हुआ दुःख के अन्दर पीडित है , उसे अगर आप तत्त्व का उपदेश देंगे तो कभी ग्रहण ही नहीं होगा । अतः तत्त्व का उपदेश तभी करना चाहिये कि जब श्रोता की प्रसन्नता चेहरे पर आ जाये । इसीको स्पष्ट करने के लिये हर जगह गुरु शिष्य को सोम्य कहते हैं । इसलिये भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने मनःप्रसाद के बाद ही सौम्यता को कहा है ।

नारायण ! भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने भिन्न - भिन्न तपों को गाते हुए जब मानस तप के वारे में गाते हैं तो गाते गाते कहते हैं : " मौन " अर्थात् शब्द का प्रयोग न करना अथवा वाणी का संयम । वाणी का संयम भी मनःसंयम पूर्वक होता है इसलिये मनःसंयम को मौन शब्द से कह दिया जाता है । मौन का सीधा अर्थ हुआ वाणी का नियन्त्रण करना । फिर इसे भगवान् ने कैसे गिन दिया , क्योंकि उसको तो वाचिक में गिनना चाहिये था ? वाणी का संयम मनःसंयम पूर्वक होता है । कई जगह कार्य के नाम से कारण को कह दिया जाता है , नाम तो कार्य का लिया जाता है लेकिन उससे कारण का ग्रहण हो जाता है । इसी प्रकार यहाँ मौन शब्द से मन के संयम को लेना है । शब्दार्थ तो वही रहेगा परन्तु वाक् - संयम का कारण मन का संयम है । इसलिये वाक् - संयम से मन के संयम को समझ लेना है । किसी - किसी आचार्य ने यह भी कहा है कि मुनि के भाव को मौन कहते है । बृहदारण्यक उपनिषद् में भगवान् भाष्यकार ने मौन का यही अर्थ किया है । मनन करने वाले का भाव मौन है । उसको भी यहाँ समझा जा सकता है। परन्तु मुनि के भाव का सूक्ष्म अर्थ है कि श्रवण के बाद मनन करना और यहाँ तप का प्रसंग है। इसलिये भगवान् भाष्यकार आचार्य शङ्कर ने श्रवण के बाद ज्ञान होकर उसी की पुष्टि के लिये जो प्रयत्न है, केवल उस का ग्रहण यहाँ नहीं किया है । मन का संयम मात्र तो राक्षसों में भी देखा जाता है । वे लोग भी मन का बड़ा संयम करते हैं । रामायण में आता है कि मेघनाद किसी अनुष्ठान के लिये बैठा कि वह अनुष्ठान सफल हो जाये तो राम जी को मार सके ।

विभीषणजी को इसका पता लग गया । उन्होंने श्रीअंगद जी से कहा " यह अनुष्ठान सफल नहीं होना चाहिये क्योंकि उसका अनुष्ठान सफल हो गया तो राम जी की जीत नहीं होनी है । " कहाँ पर बैठकर अनुष्ठान कर रहा है यह विभीषण जी ने अंगद जी को बता दिया। अंगद जी ने विभीषण जी की प्रेरणा से सारे वानरों से कहा " किसी भी तरह वहाँ जाकर उस अनुष्ठान में विक्षेप पैदा करो । " बन्दरों ने वहाँ जाकर मेघनाद के अनुष्ठान में विक्षेप करना शुरू किया , कोई उसके बालों को खींचता था , कोई और किसी प्रकार से अनुष्ठान में विघ्न डालता था । लेकिन मेघनाद का संयम इतना तीव्र था कि उसमें बिलकुल विकार नहीं आया ! अंत में उसकी पत्नी को ले आये और उसके सामने ही उसे तरह - तरह से परेशान करने लगे । पत्नी की वह स्थिति देखकर मेघनाद सहन नहीं कर सका , उसे गुस्सा आ गया , जो अनुष्ठान कर रहा था वह पूरा नहीं हुआ , उससे पूर्व ही वह बन्दरों को भगाने लग गया । मेघनाद भी समझ गया कि राम जी को नहीं मार पायेगा । इसलिये इतना संयम तो राक्षस भी कर लेते हैं , परन्तु उन्हें परमात्म - विषयक कोई ज्ञान नहीं होता । मनन तो उसके बाद की बात रही । चूँकि रजोगुणी - तमोगुणी मनःसंयम को भी यहाँ लेना है इसलिये भगवान् भाष्यकार ने यहाँ मौन का वह अर्थ नहीं किया है जो बृहदारण्यक उपनिषद् में स्वयं भाष्यकार ने किया है । मन की प्रसन्नता अथवा सौम्यता मन का संयम है ।

नारायण ! भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं " आत्मविनिग्रह " - मन का निरोध करना । चित्तवृत्ति निरोध को ही योग कहा गया है । मौन शब्द के प्रयोग से वाक् - संयम करने वाला भी जो मन का संयम है वही कहा गया है । अन्य सारी वृत्तियों का भी निरोध आत्मविनिग्रह से कहा है । सामान्य रूप से मन का संयम आत्मविनिग्रह से कथिक है । यहाँ आत्मविनिग्रह भगवान् ने कहा है । मन को कौन रोकेगा ? मन को रोकने वाला अहं ही है । है अहं भी अन्तःकरण की वृत्ति और मन भी अन्तःकरण की वृत्ति है , परन्तु मन का निरोध अहं करेगा और चूँकि अहं में ही आत्मा सीधे प्रतिबिम्बित होता है , अहं का पता लगाने पर आत्मा का पता लगता है , इसलिये आत्मा अर्थात् अहं में प्रतिबिम्बित हुआ जो जीव है वही मन का विनिग्रह करेगा । चित्तवृत्ति को रोकना योग है , लेकिन भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने केवल निरोध अर्थात् निग्रह का प्रयोग न करके " विनिग्रह " कहा है । एक तो मन का निरोध प्राणायाम आदि से भी हो जाता है क्योंकि प्राण और मन समनियत है । मन में वृत्ति बनेगी तो प्राण भी जरूर वृत्ति बनायेगा और प्राण वृत्ति बनायेगा तो मन भी वृत्ति बनायेगा । इसलिये इसे समझाने के लिये भगवान् श्री आचार्य सुरेश्वर ने कहा कि जैसे काँच के अगले भाग में मुख दीखता है , उसके पिछले भाग में मुख नहीं दीखता परन्तु दोनों मिलकर काँच है । यदि पिछले वाले हिस्से को काट कर निकाल दो तो अगले भाग में भी मुख नहीं दीखेगा । इसी प्रकार चेतन मन की वृत्ति में दीखता है , प्राण की वृत्ति में दीखता नहीं , प्राण में चेतनता की अर्थात् ज्ञान की प्रतीति नहीं होती । परन्तु प्राण और मन चीज एक ही है । मन अगला हिस्सा है और प्राण पिछला हिस्सा है । पिछले हिस्से प्राण को हिलाओगे तो मन हिलेगा और अगले हिस्से मन को हिलाओगे तो प्राण हिलेगा । इसलिये प्राण सम - नियत है । अतः यदि तुम प्राण का निरोध कर लेते हो , प्राण को नहीं हिलते देते हो तो मन का निग्रह हो जाता है । उससे भी समाधि का अभ्यास हो जाता है । परन्तु वह यहाँ " मानस तप " में नहीं आयेगा क्योंकि वहाँ प्राण के द्वारा मन को दबाया है । जैसे ही प्राण निरोध को हटाया जायेगा , वैसे ही मन फिर अपने ढंग से काम करने लगेगा । इसलिये निग्रह न कहकर भगवान् ने " विनिग्रह " कहा । प्राणायाम आदि की सहायता से नहीं वरन् विचार - पूर्वक जो निग्रह किया जाता है , वही मानस तप कहा जायेगा । अहंकार आत्मविनिग्रह करेगा । बुद्धि के द्वारा विचार और विवेक करेगा और उसके द्वारा मन का निग्रह या निरोध करेगा । यह तप तो अपने आप में एकान्त में भी करना है ।

नारायण ! जब दूसरे से व्यवहार करना है तो भावसंशुद्धि चाहिये । दूसरे से व्यवहार करने में किसी भी प्रकार की कुटिलता का अभाव होना भावसंशुद्धि है । क्योंकि मन प्रायः यह करता है कि व्यवहार काल में सारी स्थिति प्रकट नहीं करता । शिष्टता आदि के चलते भी कई बार मन में खीज होने पर भी व्यवहार प्रसन्नता का ही करते हैं । इस प्रकार का व्यवहार मानस तप नहीं है । भावसंशुद्धि में तो जैसा मन का भाव है वैसा ही बाहर में प्रकट करना है । यह मानस तपस्या है क्योंकि जैसे ही भीतरी भाव प्रकट करने जाते हो , अन्दर में खलबलाहट मचती है कि " यह जिलाधीश है , ऐसा कहेंगे तो यह परेशान करेगा"। " परेशान करेगा तो मैं सहन करूँगा " यह तप है । वाणी से सत्य बोलना वाक्तप में आ जायेगा। असत्य में प्रेरक मन की अशुद्धि को दूर करना भावसंशुद्धि मानस तप है। दूसरे के साथ व्यवहारकाल में भाव को छिपाने की वृत्ति का न होने देना भावसंशुद्धि है । भगवान् कहते हैं " इति एतत् " इतना जो बताया है वह मानस तप है । इति शम् ।

नारायण स्मृतिः

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