Monday, 24 July 2017

‘सृष्टि-वेदोत्पत्ति का इतिहास

‘सृष्टि-वेदोत्पत्ति का इतिहास व वैदिक वर्ण-जन्म-जाति व्यवस्था’
(आर्य  समाज पक्ष )

हमारी सृष्टि 1,96,08,53,114 वर्ष पुरानी है। यह सत्य है कि यह सृष्टि इससे अधिक और न कम पुरानी है। इसका कारण है कि हमारे पूवर्जाें ने सृष्टि के आरम्भ से ही काल गणना करना आरम्भ कर दिया था। वह बीत रहे दिन को जोड़ते जाते थे। यह रहस्यपूर्ण व आष्चर्यजनक लगता है, परन्तु है यह पूर्ण सत्य जिसका ज्ञान आगे दिये जा रहे तथ्यों से हो जायेगा। यदि हमें सत्य को जानना है तो हमें विदेशियों द्वारा हमारे मन में भरी गईं कुछ मान्यताओं को एक किनारे रखना होगा, या उन्हें कुछ समय के लिए भूलना होगा, तब हम इस सत्य व यथार्थ मान्यता को जान पायेंगे। यदि हम किसी विषय का अध्ययन करते हैं और उस विषय के बारे में पहले से ही हमारे मस्तिक में आगे पढ़े जाने वाले ज्ञान के विपरीत कुछ शुद्धाशुद्ध ज्ञान भरा हुआ हो, तो हम पढ़े जाने वाले ज्ञान को पूरी तरह से समझ नहीं पाते। इसके लिए पुराने ज्ञान को कुछ समय के लिए स्वयं से अलग करना होता है। वस्तुतः ऐसा हुआ कि ईश्वर ने जीवों के कल्याण, मोक्ष व सुख की प्राप्ति के लिए, इस सृष्टि को बनाया है। यह सृष्टि प्रकृति से, जो कि एक जड़ सूक्ष्म व निर्जीव पदार्थ है, और जिस पर सुख व दुख का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, उस प्रकृति के अत्यन्त ही सूक्ष्म कणों, सत्व, रज व तम, से बनी है।

जब प्रलय अवस्था के बाद सृष्टि के बनने से पूर्व प्रकृति की साम्यावस्था होती है, तब यह प्रकृति में सत्, रज व तम नामी तीन प्राकृतिक गुणों की साम्यावस्था होती है। यह कह सकते हैं कि सत्, रज व तम गुण पृथक रूप में सर्व व्यापक आकाश में रहते हैं। जिस प्रकार से आटे की रोटी बनने से पहले, इसके अवयव आटा, जल, अग्नि आदि अलग-अलग होते हैं। रोटी बन जाने पर आटा व पानी आदि इस प्रकार से मिल जाते हैं कि इन्हें रोटी में विद्यमान इन आटे व जल आदि को पूर्व रूप में, जब तक कि रोटी का अस्तित्व है, नहीं लाया जा सकता। इसी प्रकार से प्रकृति में सत्, रज व तम गुण हैं। साम्य अवस्था में इन्हें पृथक से जाना नहीं जा सकता। जब सृष्टि का निर्माण सृष्टिकर्ता परमात्मा से होना आरम्भ होता है तो ईश्वर की प्रेरणा से कारण प्रकृति में एक प्रकार से हल-चल, गति व क्रिया उत्पन्न होती है। ईश्वर के सर्वव्यापक होने से सारे ब्रह्माण्ड में फैली हुई प्रकृति में एक साथ यह गति व हलचल होती है। इससे सत्व, रज व तम, जो सम्भवत् ऊर्जा के कण हैं तथा जिन पर धनात्मक, ऋणात्मक व न्यूटर्ल आवेष है, घनी भूत होकर परमाणु बनते हैं। यह परमाण व अणु घनी-भूत होते जाते हैं और फिर इनसे सूर्य, चन्द्र व पृथिवी, ग्रह-उपग्रह, आकाष के अन्य सभी लोक-लोकान्तर व सभी पिण्ड अस्तित्व में आते हैं। पहली प्रेरणा व क्रिया से आरम्भ होकर ब्रह्माण्ड बनने तक का सारा कार्य ईष्वरीय प्रेरणा, उसके सर्वज्ञ ज्ञान व सर्वषक्तिमान गुण व सामर्थ्य से होता है। इस प्रकार से 6 चतुर्युगियों की अवधि, 2,59,20,000 वर्ष, में यह सारा संसार, वनस्पतियां एवं पषु-पक्षी आदि बनते हैं। इसके बाद मनुष्य का आविर्भाव होता है। इस अवधि के पष्चात ईश्वर से मनुष्यों का आविर्भाव होता है।

सृष्टि के आरम्भ में सभी प्राणियों की अमैथुनी सृष्टि होती है और यह सृष्टि तिब्बत में किसी स्थान पर होने का अनुमान है। तब भौगोलिक परिस्थितियां भी आज से भिन्न थी जिसका पूरा अनुमान होना कठिन है। अमैथुनी सृष्टि को इस प्रकार से समझ सकते हैं कि बिना माता-पिता के प्राणि जगत की सृष्टि। यह सृष्टि सर्वव्यापक ईश्वर द्वारा की जाती है जिसने जीवों के लिए यह सृष्टि बनाई है। अमैथुनी सृष्टि में सहस्रों स्त्री व पुरूष उत्पन्न होते हैं। ईश्वर कुछ पवित्र आत्माओं को भी जन्म देता है जिनके षरीरों व बुद्धि आदि में आज के मनुष्यों की तुलना में कहीं अधिक क्षमतायें होती हैं। कुछ पवित्रात्मायें पूर्व सृष्टि व जन्म में वैदिक धर्म का पालन करते हुए मोक्ष को प्राप्त या उसके समकक्ष अर्हता वाली होती है। इनमें से चार पवित्रात्माओं जिनकी संज्ञा ऋषि होती है, इन चार ऋषियों ‘‘अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा’’ को ईश्वर क्रमषः चार वेद ‘‘ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद’’ का ज्ञान देता है।

यह ज्ञान इस निमित्त है कि इन ऋषियों से वह ज्ञान सभी स्त्री-पुरूषों को प्राप्त हो सके जिससे उनका जीवन निर्वाह व धर्म-कर्तव्य का पालन करते हुए निर्विघ्न रूप से चले। यदि ईश्वर मनुष्य को जन्म तो दे दे, जैसा कि सभी मतों के लोग मानते हैं परन्तु ज्ञान न दे, तो ईश्वर पर यह आरोप आता है कि ईश्वर ने मनुष्यों को ज्ञान न देकर उचित नहीं किया? माता-पिता के उदाहरण से इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं कि वह असमर्थ होते हुए भी अपने बच्चों की हितकामना के साथ उन्हें पढ़ाते-लिखाते हैं जिससे उनकी उन्नति हो व वह योग्य व्यक्ति बन सकें। बच्चों को पहले ज्ञान कौन देता है, माता-पिता ही तो देते हैं। बच्चे की वह अवस्था ऐसी होती है कि माता के अतिरिक्त उस बच्चे को अन्यों द्वारा सम्भालना कठिन होता है। ऐसी अवस्था में माता, बच्चे को दुग्धपान, उसका मल-मूत्र साफ करना, स्नान व मालिष के साथ मुंह से बोल कर उसे अच्छी-अच्छी बातें व लोरियां आदि सिखाती है। बच्चा उन षब्दों को सुनकर आवाज को पहचानने लगता है और माता की बातों का कुछ ही दिनों में अर्थ समझने लगता है। अगर किसी बात पर मां उसे डांट दे ंतो वह रोने लगता है जिससे अनुमान होता है कि वह समझता है कि मां ने उसे किसी गलत काम के लिए डांटा है। परमात्मा सर्वज्ञ है।

संसार में जितना भी ज्ञान अर्थात् पदार्थों को बनाने व उनसे उपयोग लेने तथा मनुष्य द्वारा पदार्थो में कार्य कर रहे नियमों को जानने का ज्ञान परमात्मा से ही तो संसार के लोगों को मिला है। जब ईश्वर ज्ञानी व सर्वज्ञ है और सूक्ष्म स्वरूप से जीवात्मा की आत्मा के भीतर भी विद्यमान है, तो क्या यह सम्भव है कि वह मनुष्यों की रचना करके उन्हें अज्ञानी रखेगा? क्या कोई पिता ऐसा है जो चाहेगा कि उसका पुत्र अज्ञानी होकर दुख उठाये? जब भौतिक व षारीरिक सम्बन्ध के माता-पिता अपनी सन्तान को ज्ञानी बनाना चाहते हैं तो षाष्वत् सम्बन्धों वाला हमारा पिता, ईश्वर, हमें अज्ञानी रखेगा, ऐसा कदापि सम्भव ही नहीं है। अतः आरम्भ की अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न स्त्री-पुरूषों को ईश्वर से ज्ञान प्राप्त होना सिद्ध है। यह चार ऋषि एक अन्य ऋषि ‘‘ब्रह्मा’’ को एक-एक कर चारों वेदों का ज्ञान देते हैं और साथ-साथ अन्य तीन वेदों का ज्ञान प्राप्त करते हैं और उसके बाद फिर मिल कर पांचों ऋषि उस वेद ज्ञान का अन्य सभी स्त्री-पुरूषों में प्रचार करते हैं। इस प्रकार से सृष्टि के आदि में सभी मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त होता है।

यह चार ऋषि सृष्टि के आरम्भ के पहले ही दिन ‘चैत्र-प्रतिपदा’ से ज्ञान होने के कारण काल गणना आरम्भ कर देते हैं और इस प्रकार यह काल गणना सर्वत्र प्रचलित हो जाती है। अन्य लोग भी जानकर इसका प्रयोग करते हैं। इस प्रकार चलते-चलते आज के दिन 1,96,08,53,114 $ 9 दिन चैत्र षुक्ल नवमी, सन् 2014 को हो गये हैं। यहां यह बात अतीव महत्वपूर्ण है कि आरम्भ में उत्पन्न हुए यह सभी मनुष्य आज के संसार के सभी लोगों के पूर्वज थे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व षूद्रों तथा आज की सभी जन्म-जातियों, हिन्दू, मुस्लिमों, ईसाईयों व अन्य-अन्य के। इस प्रकार से सृष्टि के आरम्भ में पांच ऋषियों के अतिरिक्त सभी स्त्री-पुरूष काम-वासना रहित बालक बुद्धि की भांति व्यवहार करते रहे और इन पांच ऋषियों से अध्ययन करते रहे। अनुमान किया जाता है कि ऐसा पांच वर्ष तक चला तब ऋषियों ने गुण, कर्म व स्वभाव की योग्यता से इनका परस्पर विवाह सम्बन्धी व्यवहार व सम्बन्ध कराया। इस प्रकार से सृष्टि के आरम्भ में सभी स्त्री पुरूष परस्पर प्रेमपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। उनमें किसी प्रकार का परस्पर भेदभाव, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, असमानता-समानता, ऊंची जाति-नीची जाति का किंचित भी नहीं था। यह व्यवस्था वर्षो तक सामान्य रूप से चलती रही। कारण कि खाने के लिए फल, वनस्पतियां, साग-भाजी, कन्द-मूल, गोदुग्ध व इससे बने पदार्थ, पीने के लिए षुद्ध जल, ष्वांस के लिए षुद्ध वायु उपलब्ध थी। इससे उनका निर्वाह भली प्रकार से होता था। सृष्टि का आदि मानव सभ्य, षिक्षित व समझदार था। वह ईश्वर द्वारा स्वभाव से ही षाकाहारी बनाया गया था। भोजन की कोई समस्या उसके सामने नहीं थी, उसे भोजन के षाकाहारी सभी पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। सृष्टि के आदि ग्रन्थ वेदों से भी षाकाहारी भोजन का समर्थन व मांस, हिंसा, ईष्या, द्वेष, चोरी, दूसरों के पदार्थों पर अधिकार को अनुचित, अधर्म व अकर्तव्य बताया गया है।

स्वाभाविक है कि हर समय एक जैसा नहीं रहता। समाज में नई-नई घटनायें घटती रहती हैं जिसका प्रभाव सामाजिक व्यवस्था व संरचना पर पड़ता है। अच्छे लोग अज्ञान, स्वार्थ, प्रलोभन, लोकैषणा, वित्तैषणा, पुत्रैषणा आदि अनेक कारणों से बुरे बनते हैं और इनके विपरीत गुणों को धारण करके अच्छे होते हैं या बन जाते हैं। बुरे लोगों से समाज में सज्जन लोगों को कष्ट व परेषानी होती है। सृष्टि के विगत काल में भी ऐसी कुछ व अनेक घटनायें हुईं जिससे सामाजिक ढांचा कमजोर हुआ और समाज में समस्यायें उत्पन्न हुई। हमारे पास अनेकों प्रमाण हैं कि महाभारत काल, जो आज से लगभग 5,000 वर्ष पूर्व हुआ था, तब तक हमारे यहां बड़ी संख्या में ऋषि-मुनि आदि थे जिनके नियन्त्रण में हमारे राजा प्रजा-पालन आदि कार्य धर्म-पूर्वक व ऋषियों की आज्ञा के अनुसार करते थे। अतः किसी भी मनुष्य के साथ, रंग, ज्ञान, षकल-सूरत, लिंग, भाषा आदि के नाम पर भेदभाव नहीं किया गया।

महाभारत काल तक देश में वैदिक वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित रही। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व षूद्र, यह चार वर्ण हमारे ऋषि-मुनियों ने वेदों के आधार पर निर्धारित किये थे। सभी वर्णों के लिए कुछ योग्यतायें निर्धारित थी। जो जिस योग्य होता था उसका वही वर्ण होता था। कोई अज्ञानी ब्राह्मण नहीं होता था, कोई निर्बल क्षत्रिय नहीं होता था, कोई व्यापार, कृषि तथा पषुपालन न जानने वाला वैश्य नहीं होता था। सभी अज्ञानी, बलहीन व भोजन आदि सेवा कार्य करने वाले षूद्र कहे जाते थे और वह अपने निर्धारित कार्यों को करते थे। इन बन्धुओं का कुषल-क्षेम या योग-क्षेम भली प्रकार से राज्य व्यवस्था व उनके स्वामियों द्वारा होता था।

महाभारत का युद्ध हुआ। देश-विदेश के सभी राजा कुछ कौरवों के साथ चले गये तो कुछ पाण्डवों के साथ आ गये। अनेक दिनों तक युद्ध हुआ। इन दिनों वैज्ञानिक शस्त्र आदि सामग्री अपनी चरम पर थी। कुछ ही दिनों में लाखों लोग युद्ध में बलिदान हो गये। देश भर में अव्यवस्था फैल गयी। शिक्षा व्यवस्था व अन्य सभी व्यवस्थाओं के संचालन में अवरोध उत्पन्न हो गया। ऐसे समय में स्त्री, बच्चों, वैश्यों व शूद्रों पर ब्राह्मणों के सहयोग से बचे हुए क्षत्रियों ने देश में शासन चलाया। उस समय की परिस्थितियों के कारण ब्राह्मणों के हाथ अपूर्व शक्ति आ गई। अधिकांश क्षत्रिय राजा काल-कवलित हो चुके हैं। इससे ब्राह्मण वर्ग व अन्यों में भी आलस्य व प्रमाद फैलना स्वाभाविक था। उन्होंने शिक्षा को यथोचित महत्व नहीं दिया और अपने जीवन को सुखी व समृद्ध बनाने की अनेक व्यवस्थायें कर डाली।

पुरानी परम्परा के अनुसार ब्राह्मण वर्ग का समाज के सभी स्तरों पर वर्चस्व तो था ही। यह वर्चस्व उनके ज्ञान, वेद-ज्ञान, ब्रह्मज्ञान, योग, समाधि, अनुसंधान, देश-रक्षा के कार्यों व राजाओं को मूल्यवान सुझाव देने आदि के कारण से था और देश भर में शिक्षा व्यवस्था के सुसंचालन के कारण था। इस वर्ग में आयी बुराईयों व कमजोरियों का परिणाम समाज व देश के लिए पतन व दुख का कारण बना। हमारे देश में महाभारत काल तक जो शुद्ध अंहिसात्मक यज्ञ होते थे वह अब अंहिसात्मक न होकर हिंसात्मक हो गये। उनमें पशुओं को मारकर उनके शरीर के अंशों से आहुतियां दी जाने लगी। निर्दोश पशु मरने लगे, समाज मांसाहारी बनने लगा। ऐसे समय में अज्ञानतावश लोगों में मांसाहार के साथ मदिरापान आदि का प्रयोग भी आरम्भ हो गया। स्त्री व शूद्रों के अध्ययन के अधिकार छीन लिये गये। हमें लगता है कि शायद यह डर था कि कहीं स्त्रियां व शूद्र अपने परिश्रम के गुणों से ब्राह्मणों से आगे निकल गये तो समस्या आ जायेगी। इस अविवेक पूर्ण कार्य व व्यवस्था ने देश को पतन व दुःखों में डुबाकर रसातल में पहुंचा दिया।

इसकी प्रतिक्रिया में बौद्धमत का आविर्भाव हुआ। बौद्धमत ने जो उपचार किया वह ऐसा था कि रोग को पहचाने बिना व रोग का कारण जाने बिना इलाज किया गया। खराबी जहां थी उसे तो ठीक नहीं किया गया, उसके स्थान पर अच्छी बातों का भी विरोध किया गया और कहा गया कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है और यज्ञ करना अनावश्यक व अनुपयोगी है। समाज में यह प्रवृति देखी गई है कि यदि कोई व्यक्ति किसी से त्रस्त हो तो जो नेता उसके हित व इच्छा के अनुकूल बातें कहता व करता है, युक्तियां देता है, त्रस्त लोग उसको अपना नेता व अग्रणीय पुरूश मान लेते हैं। ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं और यज्ञ करने की कोई आवश्यकता नहीं है, अज्ञानी व अल्पशिक्षित लोगों को यह विचार पसन्द आये और उन्होंने भगवान बुद्ध की इतर सभी शिक्षाओं को भी अपना लिया। यद्यपि उन दिनों की परिस्थितियों में सामान्य प्रजाजनों को इससे कुछ लाभ हुआ होगा परन्तु नास्तिकता के आ जाने व धर्म-कर्म-कर्तव्य व यज्ञों की परम्परा के मन्द व बन्द हो जाने से समाज को अप्रत्याशित हानि हुई।

ईश्वर नाम की एक सर्वव्यापक व न्यायकारी सत्ता है। सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व मानव व सभी प्राणियों के शरीरों को उसने बनाया है। उसका अन्य कोई विकल्प है ही नहीं। उसे नकारना हम समझते हैं कि बुद्धिहीनता व अज्ञानता का प्रमाण है। परन्तु परिस्थितियां इतनी खराब थी कि इस विकल्प को चुना गया जिससे उस काल के दीन-हीन व पीडि़तों को लाभ हुआ। कोई भी चीज स्थाई नहीं होती। परिवर्तन चलता रहता है। दक्षिण देश में उत्पन्न स्वामी शंकराचार्यजी का प्रादुर्भाव होता है। परिस्थितिया ऐसी बनती हैं कि वह बौद्धमत का विरोध करते हैं। बौद्ध राजा जो सत्यधर्म प्रिय था, उसे शास्त्रार्थ आयोजित कराने का सुझाव व परामर्श देते हैं। शास्त्रार्थ होता है और स्वामी शंकराचार्य का मत कि ईश्वर है, केवल एक ईश्वर ही है, ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं है, अद्वैतवाद उनकी ऐसी मान्यतााओं ने नाम पाया। दूसरी ओर बौद्ध मत की ओर से कहा जाता था कि ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है। ईश्वर आस्तिक लोगों की कोरी कल्पना है। सारहीन है, असत्य है, एक वर्ग ने अपने स्वार्थ के लिए इसे स्वीकार किया है। शास्त्रार्थ में तर्क-वितर्क-प्रमाण-उदाहरण- अंधकार-रज्जू-सर्प की भ्रांति आदि युक्तियां प्रस्तुत की जाती हैं। बौद्ध मतावलम्बी उत्तर नहीं दे पाते। उन्होंने तो आस्तिक के यथार्थ स्वरूप पर कभी विचार ही नहीं किया था। उनका अध्ययन स्वामी शंकराचार्यजी से हेय व निम्न-कोटि का था। बौद्धों को अद्वैतमत को स्वीकार करना पड़ा।

बौद्धों में प्रजा के मनोनुकूल अवैदिक मूर्तिपूजा की जाती थी जिससे सत्य परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना, उसके सत्य स्वरूप व असंख्य गुणों का ध्यान करना, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के लिए पुरूशार्थ का करना समाप्त हो गया। हमारे वैदिक धर्मी अद्वैतवादियों ने भी मूर्ति पूजा आरम्भ कर दी। जिसके गम्भीर व मानव-जाति के लिए दुःखद परिणाम हुए। इस अन्धकारमय वातावरण में नाना प्रकार के अन्धविश्वास, कुरीतियों व पाखण्डों ने जन्म लिया जिससे समाज कमजोर, रोगी व विशम बन गया तथा इसमें असमानता, ऊंच-नीच का भेदभाव, प्रभावशाली वर्ग का अन्यों पर शोशण, अन्याय व अधर्म का आचरण उत्पन्न हुआ जिसने समाज व देश को कमजोर व खोखला बना दिया। ‘स्त्री शूद्रोनाधीयताम’् की वेद विरोधी मान्यता इसी समय में प्रचलित हुई। स्त्री-शूद्र ही नहीं अपितु क्षत्रियों व वैश्यों का भी पढ़ना व अध्ययन कुप्रभावित हो गया। समाज अज्ञानी व मूर्खतापूर्ण कार्यों को करने वाला बन गया। इन सबका उल्लेख स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में मुख्यतः ग्याहरवें, बारहवें, तेरहवें व चौदहवें समुल्लास सहित अन्य समुल्लासों में भी प्रसंग के अनुरूप किया है। इसके अन्य कुपरिणाम भी धीरे-धीरे सामने आने लगे।

महाभारत काल में देश उन्नति के चरम पर था। इस कारण यह देश सोने की चिड़िया कहा जाता था। भारत पारस पत्थर के समान था तो अन्य देश दरिद्र थे। वहां जो समझदार राजा व अन्य पुरूश थे उनकी गीद्ध-दृश्टि भारत की स्वर्ण व अन्य सम्पदा को लूटने की थी। वह यहां आने लगे। यहां के भोले व अज्ञानी लोग उनके शड्यन्त्रों में फंसते चले गये। इसमें मत-मजहब के धर्मान्तरण की भावना के साथ, मन्दिरों को ध्वंस व लूट भी शामिल थी। ऐसे समय में भारतीयों की न इज्जत सुरक्षित रही, न धन, न स्वतन्त्रता, सब कुछ लूट लिया गया जिसका कारण महाभारत का युद्ध व उसके बाद के ज्ञानी वर्ग का अनुचित व्यवहार व धार्मिक निर्णय थे। इतिहास पर दृश्टि डालने पर लगता है कि शूद्रों पर अत्याचार इसी समय में हुए। उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया गया। छुआछुत का प्रचलन हुआ। गुरूकुलों व विद्यालयों में वह अन्य वर्णों के साथ पढ़-लिख नहीं सकते थे। अज्ञानी व्यक्ति का जीवन जैसा होता है वैसा हमारे इन वैदिक धर्मीं बन्धुओं का जीवन हो गया। यह न तो अपने हित के बारे में ठीक से सोच सकते थे, न विद्रोह या विरोध कर सकते थे। आन्दोलन शब्द या सत्याग्रह इनके मस्तिश्क में नहीं था। यह सब तो अध्ययनशील व पठित लोगों को ही ज्ञात होता है।

इस प्रकार शूद्र वर्ण के लोगों का नानाविध शोशण व अन्याय हुआ जिसके लिए अज्ञानता, मूर्खता, स्वार्थ की प्रवृति, अन्याय व शोशण आदि का मुख्य स्थान था। पहले देश मुस्लिम व यवनों का गुलाम बना फिर उनसे चालाक अंग्रेज व्यापार करने इंग्लैण्ड से भारत आये, और उन्होंने जब यहां का हाल, बेहाल देखा तो अपनी क्षमता का प्रयोग कर धीरे-धीरे सारे देश को परतन्त्र कर लिया। परतन्त्रता अभिक्षाप होती है परन्तु कई बार परमात्मा की कृपा से उससे कुछ थोड़ा सा लाभ भी हो जाया करता है। अंग्रेजों ने छोटे-छोटे राज्यों पर अपना नियन्त्रण किया और एक वृहत राज्य या देश भारत बनाया और एक प्रभावशाली परन्तु भारतीयों के शोशण व अन्याय से युक्त शासन व्यवस्था दी। यद्यपि यह सब उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए किया परन्तु इससे भविश्य में देश को स्वतन्त्रता की प्राप्ति होने पर कुछ थोड़ा सा लाभ भी हुआ। यह हमारे पूर्व शासकों की अदूरदर्शिता थी कि उन्होंने अंग्रेजों के शोशण करने के लिए बनाई गई शासक-शोशक व्यवस्था को ज्यों का त्यों या बहुत ही कम परिवर्तन के साथ स्वीकार कर लिया।

अंग्रेजी को अपनाना, हिन्दी की उपेक्षा, स्वदेशी को प्रार्थमिकता के स्थान पर स्वतन्त्रता से पूर्व की विदेशी विचारधारा के अनुसार ही सब कुछ देश में किया जाने लगा। इसका कारण भी हमारे शासकों में विदेशों में रहकर अध्ययन करना व स्वधर्म, स्वसंस्कृति, स्वभाशा व भाशाओं के प्रति अज्ञान व उसमें अरूचि होना था। जिस प्रकार से कोई भी गर्म तरल पदार्थ जो बाद में ठण्डा होकर ठोस हो जाता हो, किसी पात्र में डाल दिया जाये तो वह उसका ही आकर ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार से हमारे शासकों का आचार व व्यवहार रहा और लगता है कि प्रायः सभी अंग्रेजी मानसिकता में ढल गये। इनसे जहां अन्य समस्यायें आयीं वहीं सबसे अधिक नैतिकता व चारित्रिक गिरावट सर्वत्र दृश्टिगोचर हुआ व हो रहा है। संसार के सभी देश नैतिकता व चरित्र के मानदण्डों में हमसे प्रायः आगे हैं जिसका कारण हमारे राजनीति व कारपोरेट से जुड़े लोगों के क्षुद्र स्वार्थ, बुरे व परमुखापेक्षी संस्कार व वैदिक धर्म-कर्तव्य व शि का अभाव हैं। अस्तु।

अंग्रेजों का दमन चक्र चल रहा था और देश की सारी प्रजा अंग्रेजों के अत्याचारों से त्रस्त थी। समस्या इतनी गम्भीर थी कि इसे और आगे झेला नहीं जा सकता था। इसका परिणाम स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम सन् 1857 में हुआ। इसका पूरा विवरण वीर सावरकर कृत सन् ‘सन् 1857 – स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम’ में सत्य-2 वर्णित है जो प्रत्येक भारतीय के लिए पठनीय है। जिसने इस पुस्तक को नहीं पढ़ा हम उन्हें हतभागी मनुश्य मानते हैं। इसे पढ़कर ही हमारी भावना को समझा जा सकता है। मई, 1857 में महर्शि दयानन्द 33 वर्श के युवक थे तथा योग व अध्यात्म की खोज में देशभर में भ्रमण कर रहे थे। यहां हम महर्शि द्वारा लिखाई गई एक पुस्तक ‘‘अपना जीवन चरित’’ की चर्चा करना चाहेगें जिसके बारे में कहा जाता है कि वह उन्होंने कोलकाता में स्वयं बोल कर लिखवाई थी। यह ग्रन्थ प्रकाशकों से उपलब्ध है और एक बार पढ़ना आरम्भ करने पर अन्त तक रूचि बनी रहती है। पाठक अनुभव करते हैं कि यह ग्रन्थ सत्य हो सकता है, है व होना चाहिये। आर्य समाज के विद्वानों में इस विशय में मतभेद हैं।

इस ग्रन्थ से पता चलता है कि महर्शि दयानन्द ने स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम सन् 1857 में सक्रिय भूमिका निभाई थी। यह एक वास्तविकता है कि महर्शि दयानन्द के भावी स्वभाव व चरित्र को देख कर सहज अनुमान होता है कि वह देश पर आये इस संक्रान्तिकाल में अन्याय का विरोध न कर उससे दूर रहते। वह भारत माता व देशवासियों के दुःखों को दूर करने के लिए ऐसे सुअवसर पर निश्क्रिय बैठे रहते व क्रान्ति के घटनाचक्र से किंचित भी प्रभावित न होते, यह असम्भव था। गुप्त कार्यों के प्रमाण मिलना कठिन या असम्भव होता है। इससे दोनों ही बातें सामने आती हैं। प्रमाणों के अभाव में यह भी नहीं कह सकते कि उनकी कोई भूमिका नहीं थी और यह भी कि उनकी महत्वपूर्ण भूमिका स्वतन्त्रता के इस आन्दोलन में थी। यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस अवधि का स्वामी दयानन्द के जीवन की घटनायें इतिहास में अंकित नहीं है। ऐसा क्यों? का उत्तर नहीं मिलता है। इससे अनुमान होता है कि उनकी सक्रिय व गुप्त भूमिका आजादी के इस आन्दोलन में अवश्य थी जिसका प्रमाण उनके भावी जीवन के कार्य हैं।

इस घटना के बाद सन् 1860 में स्वामी दयानन्द मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द की कुटिया में आर्श व्यााकरण एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन करने को पहुंचते हैं। यह दोनों ही गुरू व शिश्य ऐतिहासिक दृश्टि से अपूर्व थे। हमें तो अनुभव होता है कि इन दोनों ने अपनी तपस्या व साधना से ईश्वर के सानिध्य में ईश्वर की प्रेरणा से अनेक गुप्त रहस्यों को जाना था जिसका ज्ञान इनके पूर्व व पश्चातवर्तियों को प्रायः नहीं था। सन् 1863 ई. में प्रचार क्षेत्र में उतरने पर स्वामी दयानन्द ने वेद व अन्य मत-मतान्तरों व आर्य जाति के इतिहास से सम्बन्धित सभी पहलुओं पर विचार व चिन्तन किया व सभी उपेेपदह सपदो को समझा। ईश्वर की उन पर ऐसी कृपा रही कि वह उन बातों को जान सके जो शायद् उनसे पूर्व किसी को न तो पता थीं।

वैदिक वर्ण व्यवस्था पर विचार करने पर उन्हें यह ज्ञान हुआ कि वैदिक काल व महाभारत काल तक वैदिक वर्ण व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण शूद्रों को सम्मानित स्थान प्राप्त था। वेदों के अनुसार शूद्रों की मानव शरीर के पैरों से उपमा दी गई है। पैंरों पर सारा शरीर, जिनकी उपमा वेदों के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य है, स्थित होता है। अतः एक ही शरीर में चारों वर्ण सृश्टिकर्ता ईश्वर से उपमा पाते हैं जिससे इन चारों वर्णों में किसी भेदभाव व छोटे-बड़े की भावना का कोई स्थान नहीं रहता।

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