Monday 24 July 2017

नारायण लेटे क्यों हैं ?

ये सृष्टि के सारे देवी देवता तो अपने -अपने आसनों में बैठे - बैठे ही अपने भक्तों का ध्यान करते रहते हैं , पर ये नारायण लेटे क्यों हैं ?

Bindoo Saakshi - प्यारे सखा ! ये बड़े ही राज की बात है , वस्तुतः एक मात्र ये नारायण ही ऐसे सबसे विरले हैं जिनको सबसे अधिक ये अभिमान है कि मेरे रहते मेरे भक्त का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता , इसीलिये ये इस अभिमान में परम निःशंक होकर सिर पर हाथ रखकर लेटे हुए हैं |
व्यक्ति जब लेटता है तो सबकुछ त्यागकर हलके वस्त्र पहन कर तब लेटता है , किन्तु ये देखो मेरे प्रियतम को , कैसे दिव्यातिदिव्य मुकुटमणियों, मालाओं से सज - धज कर शंख , चक्र गदा और पद्म लेकर लेटे हैं , .............क्यों जानते हो ?

क्योंकि ये इनका लेटना इनका अपने भक्त के प्रति स्वाभिमान है , इनका परम लगाव है | अपने भक्त के प्यार में पागल होकर ये यह भी भूल गए कि जब लेटा हुआ हूँ तो मुझे शंख चक्र गदा आदि को एक ओर रख देना चाहिए | (y)

.........इनको लगता है कि मेरी नीयत का किसी को पता नहीं चलेगा पर हमसे ये छिप नहीं सकते  (y)

शंख इसलिए रखा है कि जब भक्त के सम्मुख विपत्तियां आये तो उन विपत्तियों को शंखनाद से यह बतला दूं कि मैं हूँ इसके आगे, मुझसे बात करो !

चक्र और गदा उनका छेदन और मर्दन करने के लिए ,

और ये पद्म (कमल ) हाथ में रखा है अपने भक्त को देने के लिए , प्यार की निशानी (y)
................................................ये अनिर्वचनीय प्रीत की बातें (रहस्य ) हैं , सभी को समझ नहीं आतीं !!!

|| जय श्री राम ||

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कोई भी ये नहीं चाहता कि मेरे साथ कुछ बुरा हो पर जब् जीव का बुरा समय आता है
तब माता पिता मित्र बन्धु देवता धन वैभव , आदि आदि सब निस्तेज होते देखे जाते हैं |

अपनी छाया भी साथ छोड़ देती है , इसीलिए कहा जाता है |
और तो और स्वयं ये अपने मन और बुद्धि भी लाचार और दुखदायक प्रतिकूल भावनाओं से भर कर अपने लिए दुखदायी हो जाते हैं , फिर अन्यों का तो कहना ही क्या !!!

जीव स्वयं को केवल साक्षी के रूप में अनुभूत करने लगता है ,
ऐसा साक्षी जो बस देख ही सकता है , कर कुछ नहीं सकता | उसके हाथ में कहीं कुछ नहीं |

.....जब ऐसी दुखद अवस्था प्राप्त हो तो सब ओर से मन को हटाकर शान्ति से एक स्थल पर बैठिये और जिनकी दृष्टि से कोई भी व्यथा बच नहीं सकती ऐसे परम अन्तर्यामी, सर्वद्रष्टा , गुणातीत , जीव के सच्चे हितैषी शेषशायी भगवान नारायण को ध्यान करते हुए उनको ही पुकारियेगा | जो प्रभु केवल अपने भक्तों के शरणापन्नता रूप गुणमात्र को ही देख कर उसे अपना जान लेते हैं ऐसे भगवान नारायण का ध्यान हृदय में आते ही खराब समय के साथ खराब होना शुरू हो जाता है |

.......................... वस्तुतः हम तो यह जानते हैं कि बुरे समय को जब भी अभिमान आ जाता है कि मैं सबका बुरा कर सकता हूँ तो वह विष्णुभक्तों के सम्मुख आता है और इस तरह उसका अभिमान दूर होता है |

और विष्णुभक्त के साथ यह इसलिए होता है कि
भगवान विष्णु उसे यह सुन्दर अनुभव कराते हैं कि उसके सदा से वही थे ,
सदा वही हैं और सदा वही रहेंगे |

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥

..........ऐसे काल की बुद्धि को भी उसका महाकाल होकर
ठीक करने वाले भगवान नारायण की सदा ही जय हो !

|| जय श्री राम ||
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सभी मित्रों को अंतर्हृदय से नमो नारायणाय _/\_
लोक में जब साधारण जड़ शरीरधारी जीवविशेष से प्यार में लोग घर से भाग जाते हैं , खुशी -खुशी जहर पी लेते हैं , लोक लाज मर्यादाएं सब त्यागते देखे जाते हैं तो उस सर्वाधार , सर्वाश्रय , अचिन्त्य सच्चिदानन्द परमात्मा से अपना सहज नित्य प्रेम प्रकट होने पर प्राणी का क्या हाल होता होगा , विचार कीजिये !!!

श्री राम जय राम जय जय राम

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प्रश्न - तथाकथित सामूहिक उपनयनों के विषय में आपकी क्या राय है ?

उत्तर - हमारा शास्त्रीय विचार है कि ये तथाकथित सामूहिक उपनयनों की नौटंकिया करके स्वार्थ सिद्ध करने से पूर्व तथाकथित स्वनामधन्यों को उन द्विज बालकों का सामूहिक यथायोग्य शास्त्राध्ययन के सत्र- संचालन की दिशा में प्रयास करना चाहिए |

श्री आद्य शंकराचार्य भगवान ने स्पष्ट कहा है -
बिना धर्मजिज्ञासा किये गुरुकुल से समावर्तन नहीं करना चाहिए -
अधीतवेदस्य धर्मजिज्ञासामकृत्वा गुरुकुलान्न समावर्तितव्यमिति |

अन्यथा ऐसे उपनयन केवल दिखावा मात्र तो हैं ही
अपितु यज्ञोपवीत का अपमान भी हैं , श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि -

वेद का अध्ययन करने के अनन्तर आचार्य अन्तेवासी शिष्य को उपदेश करता है ( ना कि पहले ) , अर्थात् ग्रन्थ -ग्रहण के पश्चात् अनुशासन करता है -उसका अर्थ ग्रहण कराता है |

वेदामनूच्याध्यापयाचार्योsन्तेवासिनं शिष्यमनुशास्ति ग्रन्थग्रहणादनुपश्चाच्छास्ति तदर्थं ग्राहयतीत्यर्थः |

वेद का "व" तो उनको ज्ञात नहीं , बना दिए सैकड़ों उपनीत .... क्या लाभ ऐसे भारवाहियों से ?
गोस्वामी जी की - //द्विज चिन्ह जनेऊ उघार तपी /// वाली चौपाई सिद्ध हुई |

|| जय श्री राम ||

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ये अपने सनातन धर्म में बहुत पाखण्ड है भाई ,

............. द्विज बालकों को सुबह - शाम की आरती करवा के भंडार खिलवाने वाले कलियुगी महाराज भरे हैं , वो इसलिए क्योंकि जो दिखेगा वही बिकेगा , आचार्य नहीं अपितु बिजनेसमैन कहिये इनको !!

.......... शर्म होती तो उनको यूं नौकर बनाने के स्थान पर गर्भस्थ शिशु की भांति उनका निष्काम भाव से पोषण करके षडंग - वेदाध्ययन करवाते !!

वैसे भी बेचारे स्वयं अध्यापन कैसे करेंगे , काला अक्षर भैस जो हैं !

बहुत तथाकथित शिष्यों का पेट दुःख रहा होगा , मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मैं उस पक्षी की तरह हूँ जो हिलती डाल से इसलिए नहीं घबराता क्योंकि अपने पंखों के विश्वास में डाल पर बैठता है , ना कि डाल के भरोसे | (आज एक पोस्ट पर इस पक्षी के उदाहरण को देखा अच्छा लगा ) ,
लेना एक न देना दो !!!

आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः।
तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः।। (- अथर्ववेद ११/५/३ )

|| जय श्री राम ||

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पाखण्ड शब्द का अर्थ होता है - पा रक्षणे धातु से रक्षार्थ में प्रयोग होने वाला पा शब्द उक्त स्थल पर आचार्यों सवारा वेदत्रयी का बोधक माना गया है | अतः पाखण्ड का अर्थ होता है - वेद का खंडन |

जिस दृष्टि से हमने किया है उस दृष्टि से
यदि दूसरे यदि इस पंक्ती का प्रयोग करेंगे तो उचित ही करेंगे |

सनातन धर्म पाखण्ड है और सनातन धर्म में पाखण्ड है - इन दोनों में बहुत अन्दर है |
क्योंकि यथावत चलने वाले और विपरीत चलने वाले सर्वत्र ही होते हैं |

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इतना लाखों रुपया विवाह के नाम पर लुटाते हैं ,
और उपनयन के भव्य सम्मान - विचार का नामोनिशान नहीं ,
जबकि हमारी शास्त्रीय दृष्टि में सबसे बड़ा संस्कार उपनयन संस्कार है |

जिसका उपनयन संस्कार सुधर गया (सविधि अध्ययन पूर्वक संपन्न हो गया )
उसके बांकी के समस्त संस्कार स्वतः सुधर जाते हैं |

इसीलिये वेद ने सबसे अधिक बल उपनयन के ऊपर दिया है |
सनातन धर्म की आज जो विसंगतिपूर्ण स्थिति है , वह सब एक प्रकार से उपनयन की वास्तविक प्रणाली पर न चलने और उसके महत्त्व को न समझने से उपजी है |
|| जय श्री राम ||

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जो पूर्ण श्रद्धा से शास्त्र की आज्ञाओं पर चलेगा , वही विजयी होगा , वही यशस्वी होगा , जो शास्त्र विरुद्ध चलेगा , उसका पतन होगा - ये ध्रुव सत्य है | और यह नियम सबके लिए है ,

..........................क्या हम , क्या आप और क्या वो !
यह नियम शाश्वत है , सार्वकालिक है , सार्वभौमिक है (सबके लिए है ) |

अतः जो सत्य है , उसे गहराई से पहचानिए और दृढ़ता से उसके पक्ष में खड़े रहना सीखिए ! ......जयोस्तु पाण्डुपुत्राणां येषां पक्षे जनार्दनः ||

जे ज्ञान मान बिमत्त तव भव हरनि भगति न आदरी,
ते पाई सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ||

बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होई रहे,
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भाव नाथ सो समरामहे ||

भगवान् श्रीमन्नारायण को भूरिशः वन्दन _/\_
सत्य- सनातन -  धर्म की जय हो !

हर हर महादेव !
|| जय श्री राम ||

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