Monday, 24 July 2017

काय – स्व – धर्म चिंतनम

“ काय – स्व – धर्म चिंतनम “ { १ } : -

मेरे रामजी के वानर !
शरीरका विचार जब करते हैं तो दो संभावनायें सामने आती है । यह शरीर आकस्मिक है या किसीके द्वारा निर्णीत ? माँ - बाप के द्वारा मैं अकस्मात पैदाहुआ हूँ या माँ - बाप को साधन बनाकर मुझे पैदा किया गया है । ये आधारभूत विकल्पहैं । यदि शरीर आकस्मिक है तब तो हमारा धर्म भी आकस्मिक होगा । धर्मों का कोई कारणनहीं रह जायेगा । रहेंगे तो शरीर के ही धर्म , परन्तु जबजन्म ही आकस्मिक है तब धर्म भी आकस्मिक होंगे । और यदि हमारा जन्म किसी के द्वारानिर्णीत है तो जिसने हमको जन्म दिया है उसने हमारे लिये जो कर्तव्य निर्धारित कियेहैं वे हमारे धर्म होंगे । आस्तिक लोगों की मान्यता , उनका निश्चय है कि इस जगत् में कोई कार्य आकस्मिक नहीं होता । जब छोटी से छोटी घटना भीआकस्मिक नहीं है तो जन्म कैसे आकस्मिक होगा ! " कस्मात्" अर्थात् " किस कारण से " और " अकस्मात् " अर्थात् " अकारण "।अकारण कुछ नहीं होता , यह सभी के सभी आस्तिकों का निश्चय है। हमको - आपको कारण दिखाई न दे यह हो सकता है परन्तु कारण है अवश्य । जैसे यह निश्चय है आस्तिकों का है वैसे ही निश्चय वैज्ञानिकों का भी है । कोई वैज्ञानिक यह यहनहीं मानता कि कोई कार्य बिना कारण के होता है । सारा अन्वेषण कारणों का होता है ।आज हमें कारण पता नहीं लगे , परन्तु ढूँढते - ढूँढ़ते कारण मिलेगा जरूर क्योंकि कारण है जरूर , यह धारणा होगी तभी कारण ढूँढ़ेगे , नहीं तो किसी भी चीज को अकस्मात् अर्थात् अकारण मान लेंगे । यदि छोटी से छोटी चीच अकस्मात् नहीं है तो जन्म भी आकस्मिक नहीं है ।

श्रीमद्भगवद्गीतागायक भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण अपनी गीता को मस्ती मेँगाते हुए कहते है कि जन्म कहाँ होता है इस बात निर्धारण मैं करता हूँ और इसलिये उसशरीर के अन्दर कौन सा कर्म किया जाये यह भी मैं बताता हूँ ।

भगवान् गाते है कि चार वर्णों का स्रष्टा मैं हूँ । " गुणकर्मविभागशः " तुमको मैं वहाँ पैदा करता हूँ जहाँ योग्य गुणों को तुम अपने अन्दर लाओ और उचित कमों कोतुम करो ।

नारायण! नारायण !! नारायण !!! जन्म के साथ हमें पता लग जाना चाहिये कि कौन से गुण अपनेमें लाने है और कौन से कर्म करने है । क्योंकि परमेश्वर जन्म का निर्धारण करता है इसलिये हमें मालूम है कि जहाँ , जिस वर्ण में हम पैदा हुए हैतदनुकूल गुण - कर्मों का विकाश हमारा परम धर्म है , ईश्वरेच्छाहै कि उनका ही विकाश करें ।

दूसरापक्ष कहा था कि जन्म आकस्मिक है, अर्थात् अकारण है , तब क्याकरें ? श्रीमद्भगवद्गीताजी मेंयह भी उठाया गया है : अर्जुन ने भगवान् पुछा है कि जो शास्त्रज्ञान से रहित है ,वह धर्म का निश्चय कैसे करे ? तब भगवान् ने मस्ती में गाते हुए कहा कि मायासे उत्पन्न चीज़ों के अन्दर तीन गुण न हों , यह नहीं हो सकता " अर्जुन ! " चाहे स्वर्ग आदि लोकों में जाओ अथवा बड़े - से - बड़ेदेवता के पास जाओ , सबके अन्दरये गुण होंगे ही ।

नारायण ! किसी भी पुराण आप देख लें , सब देवताओंके अलग - अलग गुण अलग - अलग काल में देखे जाते हैं । इसलिये भगवान् ने स्पष्ट कहा- " सत्वं " कोईभी " है " वालापदार्थ , जिसमें सत्ता है , वह चाहे जड़ हो या चेतन , जो भीसत्ता वाला पदार्थ है वह इन तीन गुणों से रहित हो , ऐसा कहींनहीं मिलता । इस शरीर में अपने सत्त्व , रज , तम का कैसे निर्णय करे ? इस भगवान्मधुसूदन ने बड़े विस्तार से बताया है कि कैसा भोजन , कैसीबुद्धि आदि किस गुण वाली है । शरीर के अन्दर " मैं- पना " रहते हुए हमको शरीर के धर्मों विचार करनापड़ेगा ।

ब्रह्मनिष्ठाहोने तक शरीर - मन में जरूर रहोगे । आचार्य श्रीसर्वज्ञ शङ्करभगवद्पाद जी ने भी इस बात को स्पष्ट किया है : एक जगह भगवान् ने कह दिया कि केवल शरीर सेहोने वाले कर्मों से मनुष्य लिप्त नहीं होता । वहाँ भगवान् भाष्यकार आचार्य श्रीशङ्करभगवत्पाद् स्पष्ट करते हैं कि केवल शरीर से कर्म नहीं किया जा सकता ।शरीर में कर्म होने से पहले मन में कर्म करना ही पड़ेगा । शंका हुई की फिर भगवान्श्रीकृष्ण ने " शारीरं केवलं कर्म " कैसे कह दिया ? श्रीभगवान् भाष्यकार आचार्य सर्वज्ञ श्रीशङ्कर ने समाधान दिया कि शरीर - निर्वाह मात्र के कर्मों के बारे में कह रहेहैं । केवल शरीर से कर्म नहीं होता । आत्मा अहं को , अहं सूक्ष्म को , सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर को स्पर्श करेगा तभी स्थूलशरीर क्रिया कर सकता है । भगवान् श्रीकृष्ण का कहना है कि शरीर - निर्वाह मात्र केलिये जो कर्म किया जाता है उससे दोष नहीं होता ।

जो आकस्मिक जन्म मानते हैं उनकी इसलिये किसी भी शारीरिक धर्म में दृढ़भावना नहीं बनती । ब्राह्मण तो जन्म से मरणपर्यन्त एक ही रहेगा । इसलिये उसे पताहै कि उसे क्या गुण - कर्म प्राप्त करने हैं । परन्तु जो आकस्मिक मानते है वेहमेशा भ्रम में पड़े रहते हैं । पुछे - बारहवीं कक्षा में क्या पढ़ रहे हो ? कहते हैं - " विज्ञान लिया है । " आगे क्या करोगे ? " देखिये , क्या करते हैं ? अभी निश्चय नहीं किया । अगर इंजीनियरिंग में आ गये तोइंजीनियर बन जायेंगे नहीं तो बी . एस . सी . , बी . एड . करके अध्यापक बन जायेंगे । " अर्थात् निश्चय नहीं है कि मैं कौन हूँ ?मास्टरी कर रहे हैं । कहीं विज्ञापन देखा कि क्लर्क की जगह खाली और तनख्वाह ज्यादा है तो वहाँ आवेदन दे देते हैं ।चूंकि निश्चय नहीं होता अथवा निश्चय नहीं कर पाते इसलिये हमेशा भ्रम में पड़े रहतेहैं । कोई अपवाद हो जाये , वहदूसरी बात है । जिसे निश्चय नहीं वह बदलता रहता है । इसलिये भगवान् ने कहा" चातुर्वर्ण्य " मेरा बनाया हुआ हैं । भगवान् ने आकाश, वायु इत्यादि बना दिये तो कोई प्रश्न नहींकरता कि पानी से प्यास क्यों बुझती है , आग से क्यों नहीं ? यह इसलिये कि पदार्थों का धर्म पता है । इसी प्रकार भगवान् के बनाये हुए" चातुर्वर्ण्य " के विषय में कोई प्रश्न नहीं किया जाता है ।

चूंकि ईश्वर द्वारा निश्चित है इसलिये मैं अपना धर्म करूँ - यह भाव रहता है । जिसेशास्त्रीय ज्ञान नहीं है उसके लिये भगवान् ने उपाय बता दिये । परन्तु उस उपाय मेंभी दृढ निश्यय वाला बनना ही पड़ेगा अन्यथा कोई संस्कारहमारे दृढ़ नहीं होंगे । आचार के साथ विचार का संयोग आवश्यक है ।
अनाचार औरअत्याचार , दोनों से बचना है ।" अनाचारस्तु मालिन्यम्अत्याचारस्तु मूर्खता । " आचार का पालन न किया गया तो शरीर - मन इतने मलिन हो जायेंगे कि आत्मविचार के लायक नहींरहेंगे । शौच - स्नान आदि सामान्य आचार चार - छह दिन पालन न करें तो ही इतनी गंदगीहो जाती है कि सफाई किये बिना आत्मचिन्तन में प्रवृत्त नहीं हो पाते । अनाचार मेँ हेतु तमोगुण है पर वह स्वयं को उपस्थित " निवृत्तिमार्ग " के रूप में करता है । सदाचारी न होना प्रमाद है ,निवृत्ति मार्ग की साधना नहीं है । जैसे आचार गलत वैसे अति - आचार भी गलत है । केवल आचार में ही तत्पर रहकर परमात्मविचारसे तल्लीन न होना भी साधक के लिये व्यर्थ है । आचार को ही जीवन का लक्ष्य नहीं बनालेना चाहिये । विचार - आचार के मेल से ही सही व्यवहार होता है ।श्रीमद्भगवद्गीताजी के द्वारा भगवान् ने " स्वधर्म " की बात रखकर सावधान किया है कि व्यवहारभूमि में जो" स्व " है उसके धर्म का निर्णय कर अपने व्यवहार कोशुद्ध रखना चाहिये तभी " परमार्थस्व - का " विचार भी संभवहोगा ।

अर्जुन जब स्वधर्म का निश्चय करेगा तब उसका विकम्पन मिटेगा क्योंकि धर्मविषयक भ्रम दूर हो जायेगा । खाण्डव वन जलाकर इन्द्रप्रस्थ की स्थापनाहुई थी । अर्जुन के निमित्त से ही वह वन जल सका था । अतः इन्दप्रस्थ में बसे लोगोंके हित के प्रति अर्जुन का दायित्व था । हस्तिनापुर पारंपरिक राज्य था , उसके वाशिन्दों के बारे में वहाँ का राजाधृतराष्ट्र जिम्मेवार हो सकता था , परइन्द्रप्रस्थ वालों का धर्मानुसार पालन हो यह अर्जुन का धर्म था , उन्हें दुर्योधन के भरोसे छोड़ना अनुचित होता ।शरीर से बाह्य होने से प्रजा गौणात्मा है पर तन्निमित्तक धर्म का विचार भी आवश्यक है ।

युधिष्ठिर आदि को अर्जुन ने भरोसा दिया था तभी वे भी युद्ध के लिये तैयार हुए, उनके प्रति अत एव उसका कर्तव्यथा । द्रौपदी की प्रतिज्ञा . कि दुःशासन के भुजा - रक्त से वह अपने केश धोये बिनावेणी नहीं बांधेगी , तभी अर्जुनके बल पर निर्भर थी । इन सभी के प्रति कर्तव्य का विचार स्वधर्म - अवेक्षण में आजाता है । विराट् , द्रुपद" अर्जुन लड़ेगा " इस भरोसे ही युद्ध में तत्पर हुए थे क्योंकि वे अकेले भीष्म - द्रोण को नहीं हरा सकते यह जानते थे । राजा युद्ध में तुम्हारी सहायताके लिये आये हैं । युद्ध के बाद दुर्योधन इनका घोर दुश्मन बन जायेगा । तुम्हारे जाने के बाद भी वह इनके ऊपर आत्याचार करेगा कि ये तुम्हारी सहायता के लिये आये थे। इसलिये अपने गौण आत्माओं के प्रति तू औचित्य का विचार कर ।

....... नारायण ! अर्जुन यदि कहे कि" गौण आत्मा का विचार तो करलूं , परन्तु मेरे शरीर के बारे में क्या होगा ? शरीरको तो युद्ध से परेशानी होगी । दिव्यास्त्रों की चोट आदि खानी पड़ेगी ? " तो उत्तर है : तू वेद को मानने वाला है । क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न हुआ है ,शरीर से क्षत्रिय है । क्षत्रियका धर्म है - "शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यंयुद्धे चाप्यपलायनं" , शूरता इत्यादि क्षत्रियका धर्म है । शूरता का मतलब क्या ?शूरता का मतलब है कि यदि कोईयुद्ध के लिये आहुत करे तो क्षत्रिय उस आह्वाहन को कभी भी न डुकराये ।

नारायण। यहाँपहला शङ्ख भीष्म ने बजाया था अर्थात् युद्ध का आह्वाहन कर दिया है । अब यदि तूआह्वाहन को ठुकरायेगा तो तू क्षत्रिय के धर्म से विमुख हो जायेगा । युद्ध के मैदानमें आकर भागना - यह तुम्हारे शरीर का धर्म नहीं है । इसलिये शरीर के धर्म कीदृष्टि से भी तेरा धर्म युद्ध करना ही है ।
तेरीप्रकृति , गुणानुसारी स्वभाव भी शूरता का ही है अतः" त्रैगुण्य " के विचार से भी युद्धतेरा धर्म है । साक्षात् भगवान् सदाशिव - शङ्कर जब किरात रूप धारण करके आये थे तबतूने उन्हें अपनी शूरता दिखाई भी है । गन्धर्वों के साथयुद्ध करते हुए तुमने अपने तेज को प्रदर्शित किया है। अगर तेरी ऐसे प्रकृति नहींहोती तो विराट् नगर के अन्दर जब तू केवल नाच - गान सिखाने के लिये बैठा हुआ था ,तेरे को क्या जरूरत थी कि कहता कि" मैं रथ हांक सकता हूँ ?" विराट् का पुत्र तो घबड़ा रहा था ,तू वहाँ शान्त बैठा था , तूने खुद ही कहा कि " मैं रथ चलाना जानता हूँ" । जब विराट् का पुत्र घबड़ाने लगा तो तू रथ कोचलाकर ले जाता । वह न करके तू अपने अस्त्रों को उठाकर युद्ध में कूद पड़ा । वह सब किसलिये किया था ? तेरी प्रकृतिही तेरे को नियुक्त किया । विराट् नगर में कोई जरूरत न होने पर भी प्रकृति ने तेरेको प्रवृत्त किया इसी प्रकार जब भी तेरी प्रकृति ऐसा करेगी । क्षात्र धर्म कीदृष्टि से भी तेरे शरीर का धर्म युद्ध करना है और यदि तृ " त्रिगुणात्मिका " प्रकृति के अधीन होकर कहता है तो भी तेरा यही धर्म है। जब लोग कहेंगे कि " अर्जुन डर कर भाग गया , भीष्म के सामने कोई टिक सकता है । " तबतेरे से नहीं रहा जायेगा । उस प्रकृति की दृष्टि से भी तेरे शरीर ने जो जन्म लियाहै वह युद्ध के लिये ही है । उस धर्म का तू अतिक्रमण कर रहा है ।

अर्जुनकह सकता है कि " शरीर के धर्म को जाने दीजिये , नहीं पालन होगा तो क्या होगा, असली चीज़ तो मन है । " यह मन वाला दर्शन भारत में भी आ गया है कि शरीर से कुछ भी करो , मन शुद्ध होना चाहिये ! ग्रीस के अन्दर प्लेटोहम लोगों की तरह मानता था कि मन और शरीर का आश्रय - आश्रित भाव सम्बन्ध है ।अरस्तु ने अलग माना कि शरीर और मन अलग - अलग है । तभी से यह दर्शन चल गया । भारतमें पहले यह दर्शन नहीं आया था लेकिन अब आने लगा है कि शारीरिक धर्म का पालन नकरके मन शान्त हो जाये क्योंकि असली चीज़ तो मन ही है । अर्जुन यह कह सकता है कि" शरीर से धर्म का पालन नहींकरूंगा । मन से कर लूंगा । "

नारायण! भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं कि मन बनता किससे है ? " आहरशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः " जिन विषयों का सेवनकरते हो उसी से मन बनता है । मन कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । आँख से रूप देखतेहैं तो मन में उसके संस्कार आ गये । कान से सुनते है तो मन में उस शब्द के संस्कारआ गये । जिन - जिन विषयों को हम ग्रहण करते है उन - उन का वासनाजाल मन में भर जाताहै । जैसे मुँह से भोजन लेते हैं और शरीर का निर्माण करने वाला वह आहार है वैसे हीमन का निर्माण करने वाला भी आहार ही है । यदि हम विषयों कासेवन गलत ढंग से करेंगे तो हमारा मन कभी भी ठीक नहीं हो सकता । युद्ध के मैदान मेंप्रत्याहार अर्थात् इन्द्रियों का विषयों से रुकना सहज स्वाभिक होता है । सब कोईजानते हैं और महापुरुषों से सुने है कि द्रोणाचार्य ने जब परीक्षा ली थी कि चिड़िया की आँखमें तीर मारना है तब हरेक से तीर चलाने से पहले पूछते थे कि " क्या दीखता है ? " सब को पेड़ आदि चीजें दीखती थी। केवल अर्जुन ने ही कहाथा कि " मेरे को लक्ष्य आँखके अलावा और कुछ नहीं दीख रहा है ? " समग्र इन्द्रियों का नियन्त्रण करेंगे तभी लक्ष्य का भेदन कर सकेंगे ।युद्ध के अन्दर सहज रूप से तुम्हारी वृत्ति एकाग्र हो जाती है क्योंकि वहाँ यदिथोड़ी - सी असावधानी की तो गर्दन कटी ! ऐसी एकाग्रता का तुम्हें अभ्यास है । अतःयुद्ध करने से तुम्हारे मन में कोई खराबी आने वाली नहीं है । युद्ध करने का तरीका मैं तुम्हें बतलाऊँगा - ऐसा भगवान् अर्जुन से कहते हैं ।

अर्जुन प्रश्न उठाता है कि " युद्ध करने में भीष्म , द्रोण आदि को मारना पड़ेगा और बड़ों को मारना धर्म नहीं है । इसी डर से मैंयुद्ध छोड़ करहा हूँ । " भगवान् श्रीमधुसूदन कहते हैं कि भीष्म ,द्रोण का वध या कोई भी बड़े - से - बड़ादुष्कर्म तभी पाप उत्पन्न कर सकता है जब तुम्हारा उद्देश्य सुख - दुःख . लाभ -हानि या जय - पराजय है । अगर ये सामने नहीं हैं , केवल कर्त्तव्यबुद्धि से तुम युद्ध कर रहे हो तो अधर्मनहीं होगा ।

नारायण। विचार करें , गुरु जी ब्राह्मण हैं , उनके पेट में बड़ा दर्द है । वे ब्राह्मण भी हैं , गुरुभी हैं और मैं पेट का सबसे अच्छा शल्य करने वाला चिकित्सक हूँ । परन्तु ब्राह्मणका रक्त निकालना बुरा है और वह भी गुरु का , अतः मैं उसका शल्य नहीं करता ! क्या इसको कोई भी धर्म समझेगा ? उनका शल्यकरना धर्म है , अधर्म नहीं है क्योंकि वहाँ उद्देश्य गुरु कीसेवा है , ब्राह्मण की सेवा है , खूनबहाना नहीं है । शास्त्र का वचन तो यही कहता है कि ब्राह्मण का खून बहा कर धोर नरक जाओगे । उस वाक्य को देखकर यही ठीक लगता है कि मैं यह पाप नहीं करूंगा । इसीलिये भगवान् श्रीमनु महाराज ने बहुत पहले इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि प्रज्ञा सेरहित व्यक्ति कभी भी धर्मपालन नहीं कर सकता । " यस्यनास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किं " स्वयं प्रज्ञाहीन शास्त्र के अर्थ को उलट - पुलट करेगा तो उसके मन की शुद्धि कहाँ से होनी है। अतःभीष्म द्रोण मर रहे हैं , परन्तु तुम्हारे उद्देश्य जय - पराजयादि नहीं है । केवल धर्ममात्र तुम्हारा उद्देश्य है ।

मन वासना या इच्छा का केन्द्र है । समग्र इच्छाओं को हमें परमेश्वर की तरफ ले जाना है। " परमेश्वर की इच्छा ही मेरी इच्छा है " इस स्थिति में हमें पहुँचना है । भगवान् ने कहा कि अर्जुन मेरी इच्छा भीष्मादि के मरण की हो चुकी है । जिनको तू कह रहा है कि इन्हें मारूं या न मारूं ,वे सब तो मर चुके हैं ! उन सबको मैंने मार रखा है । जिसके प्रतिपरमात्मा का संकल्प हो चुका है कि वे मरे हुये हैं , उन्हेंमरना ही है । वैसा न करके तू मेरी इच्छा का ही प्रतिरोध करेगा । अतः ईश्वर कीइच्छा में अपनी इच्छा न मिलाकर अपनी इच्छा के अनुसार करेगा और स्वेच्छाचरण ही अधर्म होता है । यदि तू चाहता है कि मन एकाग्र हो तो भी मन की शुद्धि का साधन जय -पराजय की भावना को छोड़कर युद्ध करना है । इस प्रकार मन को ठीक करने का भी यही साधनहै । अतः यदि तू अपने आपको मन के साथ एक कर रहा है तो तेरी इच्छा परमात्मा कीइच्छा में मिलाते हुए जय - पराजय की भावना को छोड़ते हुए ईश्वर की इच्छा के अनुसार युद्ध करना तेरा स्वधर्म है । तभी मन की शुद्धि होगी , अन्यथा मन के धर्म का पालन नहीं होगा ।

अर्जुनयदि मन भी नहीं बुद्धि की , अहं की बात उठाये कि" मुझे अकर्त्तृत्वभाव पाना है , मन केधर्मों का पालन क्यों करूँ ? " तो श्रीकृष्ण ने इसका भीजवाब दिया है । " बुद्धियुक्तो जहातीह उभेसुकृतदुष्कूते । " सुकृत - दुष्कृत " मैं " में रहते हैं , मैंनेपुण्य किया, पाप किया आदि अभिमानरूप से वे " मैं " में रहते हैं । अहंकार में रहने वालेसुकृत - दुष्कृत दोनों को छोड़ना है , प्रवृत्ति - निवृत्तिदोनों का त्याग चाहिये , " युद्ध नहीं करूंगा" इस अभिमान को रखने से " अकर्त्तृत्वभाव" नहीं मिलेगा । इसलिये " अकर्माणिचकर्म यः " से भगवान् इस बात को स्पष्ट करते हैं ।शरीरादि के करने का न करने पर निर्भर न रहने वाली आत्मा की " अकर्तृता " है । बाह्य कृया करना और उसे रोकनादोनों " कर्तृत्व " हैं जैसेगाड़ी की रफ्तार बढ़ाना और उसे अतिशीघ्र रोकना - दोनों चालक के कार्य ही हैं । ऐसानहीं कि चालक केवल गाड़ी चलाये , कहे कि " मैं चालक हूँ , रोकूँ क्यों ! " नारायण। रोकना भी तो एक क्रिया ही है , प्रयाससाध्य है। बल्कि रफ्तार बढ़ाने में चालक को कम जोर पड़ता है , तेज चलती गाड़ी रोकने में अधिक ज़ोर पड़ता है ।ऐसे ही " मैं नहीं करूंगा" ऐसा निश्चय कर बैठने वाला ज्यादाक्रिया कर रहा है बजाये उसके जो अपने स्वभावानुसार संकल्पपूर्वक भी कार्य कर रहा है। अतः अर्जुन बुद्धियुक्त होने की बात करे तो भी उसे युद्ध न करने का हठ छोड़ना हीउचित है ।
इस प्रकार ,चाहे जिस गौण या मिथ्या आत्मा केसंदर्भ में सोचा जाये ,युद्ध से अतिरिक्त ओर कुछस्वधर्म नहीं बनता ,उसका उस अवसर पर उचित व्यवहारयुद्ध ही है ।

नारायण ! भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण कहते हैं कि क्षत्रिय के लिये धर्म सेप्राप्त युद्ध अर्थात् जिस युद्ध में कहीं अधर्म का प्रश्न ही नहीं है वहीसर्वश्रेष्ठ धर्म है । जितने आततायी के लक्षण बताये हैं वे सारे दुर्योधन में घटतेहैं अतः यह युद्ध केवल धर्म के लिये ही हो रहा है । अन्यथा , युद्धिष्ठिर , जो स्वयंधर्मराज हैं , वे कभी भी इस युद्ध में आगवानी न करते। इसकारण से जो क्षात्र धर्म वाला है उसके लिये इस धर्म से अतिरिक्त और कोई श्रेय नहींहै । अर्जुन का भगवान् से प्रश्न था कि " मुझे श्रेय का मार्ग बताईये ।" भगवान् स्पष्ट कहते हैंकि मैं तुझे यह श्रेय का मार्ग बता रहा हूँ । यह युद्ध करना तेरे लिये कल्याण कासाधन है ।

“ हे पृथापुत्र ! ‘ विचार करो : पहली बात तो यह है कि ये सबक्षत्रिय जो युद्ध के मैदान में आये हैं , इनमें से दुर्योधनकी तरफ से बहुत से लोग पापकर्मी हैं इसलिये ये सब मिलकर नरक जाने वाले हैं। परन्तु क्षत्रिय हैं इसलिये युद्ध में सामने मारे जाने के फलस्वरूप स्वर्ग लोक को जायेंगेजिसके अतिरिक्त और उनका स्वर्ग प्राप्ति का कोई उपाय नहीं है क्योंकि पापी हैं ।भीष्म , द्रोण तो अपनी योग्यतासे स्वर्ग चले जायेंगे । बाकी लोगों को भी अन्त में मरना ही पड़ेगा । धर्मयुद्ध काजो मौका उन्हें मिला है उसे हटाने का तू निमित्त बनेगा । दूसरी बात यह है किअग्निहोत्र आदि करो , अन्य सब यज्ञ करो तो जब प्रारब्ध कर्म समाप्त होगा , तब स्वर्ग जाओगे , तब तक स्वर्ग नहीं मिलेगा । और निश्चित भी नहीं है कितेरा अग्निहोत्र आदि ठीक संपन्न हुआ या नहीं । यज्ञादि कर्मों में कोई गलती रह गईतो स्वर्ग नहीं मिलेगा । परन्तु यहाँ युद्ध के मैदान में मरने पर क्षत्रिय स्वर्ग जाते है यह तो निश्चित पता है । इसलिये दुर्योधन के पक्ष वालों को भी तुम इस युद्धसे उपकृत करोगे ही , इसमें संदेहनहीं । इसलिये यह धर्मयुद्ध है और श्रेयस्कर है जो तुम्हारे लिये भी कल्याण कामार्ग बनायेगा और दूसरों के लिये भी स्वर्ग आदि का मार्ग बना देगा । उस धर्म युद्धको स्पष्ट करते हैं ।

भगवान् कहते है" हे पृथापुत्र ! " यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् " अर्थात् “यदृच्छा “ से सामने आयायह युद्ध स्वर्ग जाने के लिये खुला दरवाजा है । भगवान् कहते हैं इन सब क्षत्रियों को स्वर्ग जाने का मौका मिला है ।

सावशेष ........
श्री नारायण हरिः !“ काय – स्व – धर्म चिंतनम “ { २ } :

...... मेरे नारायण !“ एक बातध्यान में रखें कि भगवान् तो पूरा प्रयास करके अंत में दुर्योधनसे कहा था कि पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो तो युद्ध टल सकता है । अगर दुर्योधन नेपाँच गाँव दे दिये होते तो पाण्डवों को अपने गाँव मिल जाते और दुर्योधन को अपनीसम्पत्ति मिल जाती , लेकिन इनसारे क्षत्रियों को यहाँ युद्ध के लिये इकट्ठे हुए हैं, स्वर्ग जाने का मौका कैसे मिलता ? जिसे अंग्रेजी पढ़ने वाले लोग " चांस " कहते हैं , देव - भाषा संस्कृत भगवान् ने उसके लिए " यदृच्छा " शब्द का अपने गीतागायन में प्रयोग किया है । यह एकप्रकार से " चांस" या " यदृच्छा " ही हो गयी है कि दुर्योधन ने इतनी बड़ी सल्तनत में सेपाँच गाँव देना भी नहीं माना और सब लोगों के लिए स्वर्ग जाने का रास्ता खुल गया।

भगवान्ने अर्जुन को " पार्थ " सम्बोधन करके याद दिलाते हैं कि तू क्षत्रिय है , पृथा पुत्र है। कहाँ तो ऐसे मौके पर तुम्हें प्रसन्नता होनी चाहिए और कहाँ तू दुःखी होने लगा ! क्षत्रिय लोग तो ऐसा मौका आने पर सुखी होते हैं कि अच्छा हुआ जो धर्म युद्ध हुआ ।यहाँ भी जितने लोग आये हुए हैं ये सब प्रसन्न हो रहे हैं कि युद्ध का मौका मिला ।" सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते लभन्तेयुद्धमीदूशम् " { श्रीभगवद्गीता- 2 / 32 } । " ईदृशं युद्धं " अर्थात् “ धर्म्य युद्ध “ , इस युद्ध का कारण कोईअधर्म नहीं है , केवल धर्म केलिए यह युद्ध मिल रहा है । " हेपार्थ ! " ऐसा मिलनाअत्यन्त कठिन है और वह मौका इन सब क्षत्रियों को मिल गया । यह देखकर ये सब हर्षितहो रहे हैं । अतः तेरा युद्ध से विमुख होना अनुचित है - अनुचित है ।

" मेरेनारायण ! " अर्जुन के शोक का सामान्य अर्थात् मूल कारणआत्मा - अनात्मा में परस्पर" अध्यास " था जिसे हटाने के लिये भगवान् ने पहले आत्मस्वरूप का वर्णन किया। उसके शोक के प्रति विशेष कारण था धर्म के बारे में अविवेक पूर्वकविपरीत बुद्धि, धर्म को अधर्म समझना । इसे दूर करते हुएभगवान् ने क्षत्रिय के धर्म का वैशिष्ट्य बता रहे हैं : " ज्योतिष्टोम " आदि सही सम्पन्न हुए या नहीं यह निश्चय नहीं किया जा सकता जबकि युद्ध में लड़कर मरना यहक्षात्र धर्म सम्पन्न हो गया यह निश्चित हो जाता है जिससे स्वर्गलाभ भी असन्दिग्ध रहता है । इसलिये स्वर्ग का द्वारा खुल गया भगवान् ने कहा ।

नारायण। भगवान् कहते है - " हे पार्थ ! " यह “ धर्म्य संग्राम “ है अर्थात् धर्म के लिये कियाजाने वाला संग्राम है । भगवान् ने जहाँ क्षत्रिय के धर्मों का विचार किया है वहाँहमारे आचार्य स्मृतिकारों ने कहा है कि क्षत्रिय का मुख्य धर्म प्रजापालन है ।प्रजापालन धर्म तभी हो सकता है जब आप प्रजा के पालन करने वाले राजा पद को प्राप्तकरो । इसका मतलब केवल राजा बनना नहीं समझ लेंगे , राजा के किसी अंग के अन्दर भी राजधर्म ही रहेगा। अतःअधर्म का राज्य होगा तो आप अधर्म के द्वारा प्रजापालन करोगे और अधर्म के द्वारा प्रजा का पालन करने से अधर्म होगा , धर्म नहीं होगा । यह बात अच्छी तरह याद रखें , क्योंकि आज प्रायः लोग कह देते हैं कि " राज्य जो कहे उसे करना धर्म है ऐसा शास्त्रोंमें कहा है । " परन्तु जहाँ यह कहा है वहाँ उसका तात्पर्य है कि जहाँ राज्य धर्मानुसारी हो वहाँ उसकी आज्ञा कापालन धर्म होता है । अन्यथा “ हिरण्यकशिपु “ वेद का विरोध करनेवाला था , ऋषि राजाज्ञा पालन नहीं कर रहे थे तो क्या वे अधर्म कर रहे थे ? अतः राजाज्ञा अभी धर्म होती जब राजा अर्थात्राज्य - व्यवस्था धार्मिक हो । शास्त्रकारों ने यह नियम किया है कि अर्थशास्त्र कीअपेक्षा धर्मशास्त्र प्रबल है । सांसारिक लाभों को देने वाला अर्थशास्त्रहै । " मेरे नारायण !" यहाँ अर्थशास्त्र से आधुनिकअर्थशास्त्र { Economics } नहीं समझेंगे । धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष - चार में से इहलोग की कामनाओं को पूर्ण करने के साधनों को अर्थ कहाजाता है । जो परलोक का साधन बताता है वही धर्मशास्त्र कहा जाता है । पुराणों मेंया महाभारत आदि में जगह - जगह अर्थशास्त्र की दृष्टि से भी कह दिया गया है । अतः वहाँ लिखा है - इतने मात्र से निर्णय नहीं होता , किस संदर्भ में और तात्पर्य से लिखा है इसका विचारकरना पड़ता है ।

" मेरे नारायण ! " अर्जुन की शंका यही है कियुद्ध न करने पर हमें राज्य फल नहीं मिलेगा अतः इसकी अपेक्षा भीष्म , द्रोण आदि पूज्यों को नहीं मारना धर्म है । यही उसकी शंका का हृदय है ।भगवान् श्रीमधुसूदन कहते है कि जहाँ क्षत्रिय के धर्म बताये गये हैं वहाँधर्मानुसारी राज्य की व्यवस्था से प्रजा - पालन उसका धर्म बताया गया है । पिता कीआज्ञा के कारण भीष्म , भीष्म के संबध के कारण द्रोण इस समयअधर्म - राज्य की मदत करने वाले हैं अतः इनका वध न करना अधर्म हो जायेगा , अधर्म को बढ़ाने का कारण हो जायेगा । इसलिये भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण नेकहा कि यह धर्म्य युद्ध है , धर्म के लिये किया जाने वाला युद्ध है । क्षत्रिय काप्रधान धर्म धर्मानुसार प्रजापालन है जो दुर्योधन के कारण धृतराष्ट्र नहीं कर रहाहै , अतः यह युद्ध धर्म्य है ।यदि तू इसे नहीं करेगा तो तेरा जो प्रजापालन रूप धर्म है उससे तू विमुख हो जायेगा। तू अपने धर्म से च्यूत हो जायेगा ।

नारायण ! अर्जुन की जो शंका है वह युद्ध को काम्यकर्म मानकर है ।राज्यप्राप्ति की कामना से प्रेरित होकर युद्ध करने से राज्यग्रहण करना ठीक है यह " अर्थशास्त्र " कहेगा। " धर्मशास्त्र " कहेगाकि भीष्म , द्रोण आदि महानुभावों को न मारना ठीक है । अतःअर्जुन की शंका है कि धर्मशास्त्र अर्थशास्त्र से प्रबल है । " नारायण ! " इसकाजवाब भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने दिया कि धर्म्य संग्राम के अन्दर धर्म के लिये युद्ध कर रहे हो , राजा बनने के लिये नहीं वरन् प्रजापालन केलिये कर रहे हो । प्रजापालन क्षत्रिय का नित्य कर्म है अतः यह काम्य नहीं रह जाता। यदि तू युद्ध से विरत होगा तो" स्वधर्म हित्वा " तू अपने स्वधर्म से च्यूत हो जायेगा । " अर्जुन ! " तुम्हारायह कहना है कि" भीष्म द्रोण के खुन सेसने हुए भोगों की प्राप्ति मैं नहीं चाहता " , यदिभोगप्राप्ति के लिये तू युद्ध करे तो यह प्रसंग आयेगा , परन्तु यह युद्ध भोगप्राप्ति के लिये नहीं है " अर्जुन ! "

भगवान्दूसरी बात एक और कहते हैं : यदि धर्म की दृष्टि छोड़कर इहलोक की दृष्टि से सोचा जाये तब भी युद्ध छोड़ना ठीक नहीं । इस लोक के फलों में सबसे बड़ाफल " कीर्ति " , " यश " या अच्छा नाम है । कोई कार्य करने - न करने का निर्णय लेते समय वह यश काकारण बनेगा या नहीं - इसका विचार करना चाहिये ।

नारायण ! इतिहास में प्रसिद्ध है की एक शेर गाय को मारने के लिये उसकेपीछे जा रहा था ।" राजा दिलीप " ने उस गाय को बचाने का प्रयत्न किया तो वह हथियार भीनहीं चला पाया । वह दैवी शेर था ,उसने मनुष्य की भाषा में कहा कि " तेरा परिश्रम व्यर्थ जायेगा , मेरे को तू नहीं मार सकेगा । " तब" राजा दिलीप " ने जवाब में कहा " तेरेको खाना है तो मुझे खा ले ,गाय को छोड़ दे । " शेर ने कहा " तेराइतना अच्छा शरीर है ,तू इसे क्यों नष्ट करना चाहता है? " राजा ने जवाब देता है " यशः शरीरे भव मे दयालुः " यदितू मेरे शरीर पर दया करना चाहता है तो मेरे " यशरूपी शरीर पर दया कर ।" तू मुझे खा लेगा तो शरीरजायेगा लेकिन मेरा" यश रूपी शरीर " रहेगा कि " गायकी रक्षा के लिये राजा ने अपना शरीर दे दिया । " अन्यथा मेरी हमेशा अपकीर्ति रहेगी कि" इन्होंने अपने शरीर कोबचा कर गाय को मरने दिया" ।

नारायण! मनुष्य का इस लोग में सबसे प्रधान शरीर " यश" है " कीर्ति " है । भगवान् श्रीमधुसूदन कहते है कि अर्जुन ! युद्ध सेविमुख होने पर तरी कीर्ति चली जायेगी । इसलिये इस लोक में तेरे को श्रेष्ठ फल होगा।

केवल धर्म नहीं होगा या कीर्ति नहीं होगी इतना ही तुझेपाप की भी प्राप्ति होगी । प्रजापालन नित्य कर्म है । नित्य कर्म और काम्य कर्ममें यह फर्क है कि फल की कामना होने पर जिसे करो वह काम्य कर्म है । यदि तुमको यहकामना नहीं है तो वह कर्म मत करो , कोईदोष नहीं होगा । नित्य कर्म वह है जो अवश्य करना चाहिये , उसे न करना दोष बन जाता है । यदि यह युद्ध कार्म्यकर्म होता , धर्म्य संग्राम नहोता , तो तू कह सकता था कियुद्ध नहीं करेगा । युद्ध करने जो पुण्य होता , वह तुझे नहीं मिलता। नित्य कर्म वह है जो तुम्हें कामना से नहीं करना है , वरन् शास्त्र में विधि है इसलिये करना है । जैसे प्रातःकाल बाह्म मुहूर्त्त में उठकरस्नान सन्धयादि करना है । यह काम्य कर्म नहीं है । किसी फल की इच्छा से नहीं वरन्विधि है इसलिये किया जाता है। इसलिये यदि तुम सुबह उठकर नहीं नहाते हो तो नहाने कापुण्य नहीं होता , इतना ही नहीं वरन् न नहाने का पाप भी होता है । नित्य कर्म न करने से दोष की प्राप्ति होती है अथवा " प्रत्यवाय " होता है । इसलिये नित्य कर्म में तुम यह नहीं कह सकतेकि " मुझे इसका फल नहींचाहिये तो इसे न करूँ। प्रजापालन तुम्हारा नित्यकर्म होने से यदि तुम उसे नहींकरोगे तो उसको न करने से धर्म तो नहीं ही होगा . कीर्ति भी जायेगी और साथ में पापभी होगा । "

नारायण ! अर्जुन ने बड़े जोर शोर कहा था " इससे अच्छा तो मैं भीख माँग कर गुजारा करलूंगा । " तब भगवान् ने कहाकि ऐसा करने से पाप कमायेगा , धर्मछूटेगा । अतः युद्ध न करने से न इहलोक में फायदा है और न परलोक में फायदा है ।

अगर तू मोक्ष कासाधक है तो जान ले कि नित्य कर्म न करने से " प्रत्यवाय " { इसका अर्थ है- 'विपरीत फल' । सकाम कर्म यदि विधिपूर्वक पूरा नहीं किया जाता तो फल प्राप्त होने के बदले हानि भी हो सकती है ।यदि कोई धन कमाने के लिये व्यापार प्रारम्भ करे तो उसे अपने पास से कुछ धन उसमें लगाना पड़ेगा । अब यदि वह समय से वस्तुओं को खरीदे-बेचे नहीं, आलस्य करे या मन लगाकर व्यापार न करे तो लाभ होने के बदले उसकी अपनी पूँजी भी कम हो जायेगी । इसी प्रकार स्वस्थ होने की कामनासे गलत औषधि का सेवन करना या पथ्य का भली-भाँति पालन न करना घातक हो जाता है।}

के कारण - तेरा चित्त शुद्ध नहीं होगा क्योंकि शास्त्रकारों ने बताया है कि जोमोक्ष का साधक हो वह उन कर्मों को न करे जिनका वेद ने मना किया है और जिन कर्मोंको कामनापूर्वक करने के को कहा है उनको भी न करे परन्तु " नित्यनैमित्तिके कुर्यात प्रत्यवायजिहायसया" प्रत्यवाय से बचने के लिये नित्य- नैमित्तिक कर्मों को तो करता रहे क्योंकि प्रत्यावाय तुम्हारे अंतःकरण को शुद्धनहीं होने देगा और अन्तःकरण की अशुद्धि के कारण तुम्हारा अतःकरण परमात्मप्राप्ति कीयोग्यता को प्राप्त नहीं करेगा । श्रीमद्भगवद्गीता गायक भगवान् श्रीयशोदानन्दन अपनी मस्ती गाते हुए कहते हैं - हे पृथापुत्र ! " सकाम कर्मों के दोष इसी जीवन तक सीमित नहीं हैं । उनका परिणाम दूरगामी भी होता है । उनके फलस्वरूप मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र में अधिकाधिक फँसता चला जाता है । फल की कामना से कर्म करने वाला व्यक्ति भले ही सफल होकर कुछ विषय सुख प्राप्त कर ले किन्तु उसे पता नहीं होता कि वह इसी के साथ नई वासनायें अर्जित कर रहा है । ये अर्जित वासनायें अनुकूल अवसर आने पर पुनः कर्म में प्रेरित करेंगी और मन में अशान्ति उत्पन्न होगी । “ हे सखे ! “ मनुष्य सकाम कर्म सुखों की आशा से करताहै, किन्तु उन्हीं के कारण वहदुःखों में पड़ता है। सकाम कर्मों के फलस्वरूप ही ' दुःखालयम् अशाश्वतम्' रूपी पुनर्जन्म प्राप्त होता है । प्रत्येक शरीर में जन्म-मृत्यु, जरा व रोग लगते हैं । ये विकार नये-नये दुखों के श्रोत हैं । सभी दुःखोंके मूल में सकाम कर्मों का भण्डार ही विद्यमान है ।

सकाम कर्म मनुष्य को क्षुद्र बना देते हैं । व्यक्ति विषयों की कामना करते हैं और उन्हें प्राप्त कर अपनी इन्द्रियों और शरीर को सुखी बनाना चाहते हैं । उनका प्रयास उसी प्रकार है जैसे किसी छोटे से गन्दे जलाशय से जलपीकर प्यास बुझाने का प्रयास करना। विषयों में तृप्ति चाहने वाला मनुष्य अपने व्यक्तित्व को संकुचित, क्षुद्रव कृपण बना लेता है ।

सकाम कर्मों मेंप्रवृत्त रहना और उसी में तृप्ति खोजना जीवन का निम्न स्तर है । इस स्तर पर मनुष्यका दृष्टिकोण बहुत सीमित और स्वार्थमय होता है । इस कारण वह अनजाने में ही ऐसेकर्म कर बैठता है जिससे वह भविष्य में स्वयं विपत्तियों का शिकार बन जाता है।उसकी शक्तियों का अपव्यय भी होता है और वह उच्चकोटि के सुखों से वंचित रहता है ।

सकाम कर्म करनेवाले के मन में स्वार्थ व अहंकार रहना स्वाभाविक है । इन्हीं वृत्तियों से प्रेरितहोकर मनुष्य संघर्ष में पड़ता है । यदि समाज के सभी मनुष्य स्वार्थपूर्ण सकाम कर्मों में लगे रहेंगे तो टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी । यही टकराव कालान्तरमें सामाजिक विघटन व पतन का रूप ले लेता है ।

इस प्रकार भगवान ने सिद्ध कर दिया कि युद्ध से विमुखहोना न अर्थ और काम को संपन्न करेगा , न धर्म और मोक्ष का उपाय बनेगा वरन् ऐहिक सुविधाओं से वंचित रहेगा ही ,अपयश देकर सांसारिक दुःख का हेतु बनेगा ,पाप का कारण होगा और इसलिये मोक्ष मार्गका भी विरोधी होगा।
समाप्त ।

श्री नारायण हरिः !

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