Monday 24 July 2017

पंचाग्नि विद्या

!! ॐ समस्तब्रह्मविद्यासम्प्रदायप्रवर्तकाचार्येभ्यो नमः !!

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“ पंचाग्नि विद्या
( 1 ) :
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नारायण ! उपनिषद् के अतिधन्य ऋषि कहते हैं कि एक बार " जबाला " के पुत्र " सत्यकाम " ने अपनी माता से पुछा , हे भवति ! हमारी इच्छा ब्रह्मचर्य धारण करने की है , मुझे यह बताईये कि " किं गोत्रो न्वहमस्मीति " " मेरा गोत्र क्या है ? "

माता ने अपने पुत्र " सत्यकाम " से कहा , बेटा ! मैं नहीं जानती तू किस गोत्र का है । मैं युवावस्था में अनेक व्यक्तियों की सेवा किया करती थी , उसी समय मैंने तुझे पाया , इसलिये मुझे नहीं मालूम तेरा क्या गोत्र है । बस , तुमसे यही कहती हूँ कि मेरा नाम " जबाला " है , और " सत्यकाम " तेरा नाम है। सो तुम अपने गुरू के पूछने पर कह देना कि तू " जाबाल - सत्यकाम " है ।

नारायण ! सत्यकाम " गौतम - गोत्री " - " हारिद्रुमत मुनि " के पास जाकर बोला , हे भगवन् ! मैं आपके पास ब्रह्मचर्य - वास करूंगा , इस कारण से मैं आपके श्री चरणों में उपस्थित हुआ हूँ ।
अतिधन्य " गौतम गोत्रीय - हारिद्रुमत मुनि " ने पूछा , हे सोम्य ! तेरा गोत्र क्या है ? उसने उत्तर दिया, हे भगवन् ! मैं नहीं जानता कि मेरा गोत्र क्या है । मैंने अपने मातु - श्री से पुछा था कि मेरा गोत्र क्या है ? उन्होंने मुझे उत्तर दिया कि युवावस्था में वे अनेक व्यक्तियों की सेवा किया करती थीं , उसी काल में मेरा जन्म हुआ , इसलिये उन्हें नहीं मालूम कि मेरा क्या गोत्र है । माता ने कहा कि " जबाला " उनका नाम है , " सत्यकाम " मेरा नाम है । सो भगवन्! मैं " जाबाल सत्यकाम " हूँ ।
मुनि हारिद्रुमत कहने लगे , जो ब्राह्मण न हो वह तो ऐसी बात कह नहीं सकता । हे सोम्य ! समिधा ले आ , मैं तुझे " उपनयन " की दीक्षा दूंगा । तू सत्य से नहीं डिगा । उसका उपनयन करके मुनि कृश तथा निर्बल 400 चार सौ गौएं छाटकर उसे कहा , हे सोम्य ! इनके पीछे जाओ , इनकी सेवा करो । गौओं को हांकते समय मनि से कहा , जब तक ये बछड़े - बछड़ी बढ़कर 1 , 000 नहीं हो जायेंगे , मैं नहीं लौटूंगा । सत्यकाम वर्षोँ तक प्रवास में रहा । वे जब सहस्र हो गये तब उन गाय - बैलों में से एक बैल ने सत्यकाम को पुकारा - सत्यकाम ! सत्यकाम ने यह सुनकर उत्तर दिया , भगवन् ! क्या आज्ञा है ? बैल ने कहा , हे सोम्य ! हम हजार हो गये हैं , हमें आचार्य - कुल में पहुँचा दो ।
बैल ने कहा , तुमने इतने साल हमारी सेवा की है इसलिये तुझे " ब्रह्म " के एक पाद का रहस्य समझा दूं । सत्यकाम ने कहा , भगवन् ! समझाइये ।

तब उस बैल ने कहा , हे सोम्य ! ब्रह्म के चार पाद है , चार चरण हैं , जिनमें से एक का नाम " प्रकाशवान् " है । इस " प्रकाशवान् " - चरण की चार कलाएं हैं - " प्राची - दिक् - कला " , " दक्षिण - दिक् - कला " , " उदीचि - दिक् - कला " । जो व्यक्ति " ब्रह्म " के चार कलाओं वाले " प्रकाशवान् - चरण " के रहस्य को जानता हुआ उसकी उपासना करता है वह इस लोक में स्वयं " प्रकाशवान् " हो जाता है , और जो इस प्रकार ब्रह्म के " चतुष्कल - प्रकाशवान् - चरण " के रहस्य को जानता हुआ उसकी उपासना करता है वह दूसरे प्रकाशवान् लोकों को भी जीत लेता है ।

नारायण ! इस प्रकरण का यह अभिप्राय है कि क्योंकि सत्यकाम गौओं के साथ बैल को लेकर चारों दिशाओं में फिरता रहा इसलिए इस साथा से उसे मानों बैल के द्वार यह ज्ञान हो गया कि इन चारों दिशाओं में जिनमें मैं फिरता रहा , ब्रह्म का ही प्रकाश फैल रहा है ।

बैल ने फिर कहा - तुझे ब्रह्म के दूसरे चरण का ज्ञान अग्नि देगा । सत्यकाम ने अगले दिन आचार्य कुल चलने के लिए प्रस्थान कर लिया , और गौवों को हांक दिया । उन्हें चलते हुए जहाँ संध्या हुई वहाँ आग जलाकर , गौवों को रोककर , समिधा का आघान करके , अग्नि के पीछे पूर्वाभिमुख बैठ गया ।
उस समय उसके सामने अग्नि - देवता प्रकट हुए और पुकारे - सत्यकाम ! सत्यकाम ने यह सुनकर उत्तर दिया , भगवन् ! क्या आज्ञा है ?

अग्नि - देव ने कहा - हे सोम्य ! " ब्रह्म " के दूसरे पाद का रहस्य मैं तुम्हें समझाता हूँ । सत्यकाम ने कहा , भगवन् ! समझाइये । अग्नि देव बोले , हे सोम्य ! ब्रह्म के चार पाद हैं जिनमें एक नाम " अनन्तवान् " है । इस अनन्तवान् चरण की चार कलाएं हैं - पृथ्वी - कला , अन्तरिक्ष - कला , द्यौ कला , समुद्र कला ।

जो व्यक्ति ब्रह्म के चार कलाओं वाले अनन्तवान् - चरण के रहस्य को जानता हुआ उसकी उपासना करता है वह इस लोक में अनन्तवान् हो जाता है , और जो इस प्रकार ब्रह्म के चतुष्कल अनन्तवान् चरण के रहस्यों को जानता हुआ उसकी उपासना करता है वह दूसरे अनन्तवान् लोकों को जीत लेता है।
नारायण ! गौ चराते हुए सत्यकाम का एक साथी बैल था जिसने पहला उपदेश दिया । दूसरा साथी अग्नि थी - वह दिन को उससे भोजन बनाता , और रात उसे तापता था । अग्नि ने उसे भौतिक प्रकाश तो दिया , परन्तु साथ ही यह आध्यात्मिक प्रकाश भी दिया कि पृथिवी , अन्तरिक्ष , द्यु , समुद्र कितने विशाल हैं , मानो अनन्त हैं ,इसी प्रकार ब्रह्म भी अनन्त है ।
नारायण ! अग्नि ने फिर कहा , तुझे ब्रह्म के तीसरे चरण का ज्ञान हंस , अर्थात् सूर्य देगा। सत्यकाम ने अगले दिन आचार्य - कुल चलने के लिये प्रस्थान कर दिया , और गौवों को हाँक दिया । उन्हें चलते हुए जहाँ सन्ध्या हुई वहाँ आग जलाकर , गौवों को रोककर , समिधा का आधान करके , अग्नि के पीछे पूर्वाभिमुख बैठ गया । उस समय उसके सामने सूर्य देव प्रकट हुए और पुकारे - सत्यकाम ! सत्यकाम ने यह सुनकर उत्तर दिया , भगवन् क्या आज्ञा है ?

सूर्य देव ने कहा , हे सोम्य ! ब्रह्म के चार पाद हैं जिनमें से एक का नाम " ज्योतिष्मान् " है । इस ज्योतिषमान् " - चरण की चार कलाएं हैं - अग्नि - कला , सूर्य - कला , चन्द्र - कला , विद्युत - कला।
जो व्यक्ति ब्रह्म के चार कलाओं वाले ज्योतिष्मान् चरण के रहस्य को जानता हुआ उसकी उपासना करता है वह इस लोग में ज्योतिष्मान् हो जाता है , और जो इस प्रकार ब्रह्म के चतुष्कल ज्योतिष्मान् चरण के रहस्य को जानता हुआ इसकी उपासना करता है वह दूसरे ज्योतिष्मान् लोकों को भी जीत लेता है ।

नारायण ! वन - वन भ्रमण करने वाले सत्यकाम का बैल तथा अग्नि के अतिरिक्क तीसरा साथी सूर्य था । सूर्य ने भी उसे यही शिक्षा दी कि अग्नि , सूर्य , चन्द्र , विद्युत - सबमें ब्रह्म की ही ज्योति छिटक रही है । उसी की ज्योति से सब ज्योतिष्मान् है ।
सूर्य देव ने फिर कहा - तुझे ब्रह्म के चोथे चरण का ज्ञान " मद्गु " अर्थात् वायु देगा । सत्यकाम ने अगले दिन आचार्य कुल चलने के लिये प्रस्थान कर दिया , और गौवों को हांक दिया , उन्हें चलते हुए जहाँ सन्ध्या हुई वहाँ आग जलाकर , गौवों को रोककर , समिधा का आधान करके , अग्नि के पीछे पूर्वाभिमुख बैठ गया । उस समय उसके सामने वायु देव प्रकट हुए और पुकारा - सत्यकाम ! सत्यकाम ने यह सुनकर उत्तर दिया , भगवन् ! क्या आज्ञा है ।
वायु देव ने कहा , हे सोम्य ! ब्रह्म के चतुर्थ पाद का रूप मैं तुझे समझाता दूं । सत्यकाम ने कहा , भगवन् ! समझाइये । वायु देव बोले , हे सोम्य ! ब्रह्म के चार पाद है जिनमें से एक का नाम " आयतनवान् " है । इस आयतनवान् चरण की चार कलायें हैं - प्राण - कला , चक्षु - कला , श्रोत्र - कला , मन - कला ।

जो व्यक्ति ब्रह्म के चार कलाओं वाले आयतनवान् - चरण के रहस्य को जानता हुआ उसकी उपासना करता है वह इस लोक में आयतनवान् - अर्थात् विस्तारवान् हो जाता है और जो इस प्रकार ब्रह्म के चतुष्कल आयतनवान् चरण के रहस्य को जानता हुआ उसकी उपासना करता है वह दूसरे आयतनवान् लोकों को भी जीत लेता है ।

नारायण ! गौ , अग्नि तथा सूर्य के अतिरिक्त सत्यकाम का चौथा साथी जंगल में वायु था। उसने भी उसे यही शिक्षा दी कि ब्रह्माण्ड का वायु पिण्ड प्राण है , और जैसे शरीर के प्राण पर आंख , कान और मन का अवलम्ब - आयतन है । शरीर की प्राण शक्ति ब्रह्माण्ड की वायु शक्ति है , और वायु शक्ति ही ब्रह्म शक्ति है । इस प्रकार सत्यकाम को 16 कलाओं वाले ब्रह्म का ज्ञान हो गया । बैल , अग्नि , सूर्य तथा वायु ने चार - चार कलाओं का उपदेश दिया , इसमें ब्रह्म की सोलहों कलाओं का वर्णन हो गया ।
इस प्रकार ब्रह्म ज्ञानी बनकर सत्यकाम आचार्य कुल में लौट आया ।

नोट ☞ { अतिधन्य श्रुतिभगवती की कृपा से सत्यकाम आचार्य कुल में आचार्य पद पर सुशोभित हुए! आचार्य कुल में ही एक ब्रह्मचारी त५ह " उपकौशल " जिन्हें अग्त्नियों ने पंचाग्नि के रहस्य हो बताया ! इसलिए हमने थोडा उससे पूर्व के कथानक - सत्यकाम चरित्र को उद्धृत कीयाक है कि सत्संग में और आनंद की प्राप्ति हो ! }
सावशेष ....!! ॐ समस्तब्रह्मविद्यासम्प्रदायप्रवर्तकाचार्येभ्यो नमः !!

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“ पंचाग्नि विद्या ” ( २ ) :
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नारायण ! गौ रूपा श्रुतिभगवती के कृपा - कटाक्ष प्राप्त कर " सत्यकाम " आचार्य - कुल में लौट आया। अतिधन्य " मुनि हारिद्रुमत " ने कहा - सत्यकाम ! यह सुनते ही सत्यकाम ने उत्त दिया , कहिये भगवन् !
आचार्य पाद् मुनि श्री हारिद्रुमत बोले , सोम्य ! ऐसा भासता है कि तुम तो ब्रह्म - ज्ञानी हो गये हो । तुझे किस ने उपदेश दिया ! सत्यकार ने उत्तर दिया , भगवन् ! मुझे यह ज्ञान किसी मनुष्य से तो प्राप्त हुआ नहीं , परन्तु मैं तो गुर आपको ही मानता हूँ - आप मुझे उपदेश दें ।
भगवन् ! मैंने आप जैसे गुरु चरणों सुना है कि आचार्य से सीखी हुई विद्या ही सबसे उत्तम होती है । सत्यकाम के इस वचन को सुनकर आचार्य श्री हारिद्रुमत मुनि ने कहा - हे सोम्य ! जो तुमने सीख लिया है इसमें कुछ शेष नहीं रहा , कुछ शेष नहीं रहा । " न वीयायेति वियायेती " ।
नारायण ! प्रकृति में आँख खोलकर फिरते हुए जैसे बैल , अग्नि , सूर्य तथा वायु से ब्रह्मज्ञान हो गया, वैसे भी आँखे खोलकर देखेगा उसे ब्रह्म - ज्ञान हुए बिना नहीं रहेगा । यही इसका आशय है ।
नारायण ! सत्यकाम जाबाल अपने गुरु से उपदेश पाकर स्वयं आचार्य बन गये और उनके आश्रम में भी अनेक ब्रह्मचारी गण शिक्षा - दीक्षा पाने पाने लगे ।

नारायण ! " कमल नामक ऋषि का वंशज - " उपकोसल " , सत्यकाम जाबाल के आश्रम में एक ब्रह्मचारी था । वह आचार्य की अग्नियों की 12 बारह वर्षोँ तक परिचर्या करता रहा । आचार्य अन्य अन्तेवासियों का का समावर्तन करते रहे , आचार्य ने " उपकोसल " का भी " समावर्तन - संस्कार " किया लेकिन उसे घर नहीं भेजा ।

नारायण ! आचार्य सत्यकाम की पत्नी ने ने कहा - इस ब्रह्मचारी ने पर्याप्त तपस्या कर ली है , इसने गृह के अग्नियों की भी बहुत सेवा की है - भोजन के लिये आग जलाता रहा , अग्निहोत्र के लिये समिधाओं का चयन करता रहा है , घर की सदा दीप्त रहने वाली अग्नि की भी देख - रेख करता रहा ! हे प्रिये ! कहीं ऐसा न हो , अग्नियाँ क्रुद्ध होकर आपको शाप दे दें , इसलिये इसे जो भी कुछ शिक्षा देनी हो दे दें । अपनी पत्नी की सब बाते सुनने पर भी आचार्य बिना कुछ कहे ही प्रवास पर चले गये ।
नारायण ! उपकोसल को यह देखकर बड़ा कष्ट हुआ । उसने भोजन करना छोड़ दिया । उसे आचार्य की पत्नी ने कहा , हे ब्रह्मचारी ! भोजन कर , तू खाता क्यों नहीं ? ब्रह्मचारी उपकोसल ने उत्त दिया , मुझ अभागे पुरुष में ये अनेक मार्गोँ मेँ दौड़ने वाली कामनाएँ भरी पड़ी है , मैं व्याधि से , कष्ट से परिपूर्ण हूँ, मैं खाना नहीं खाऊँगा ।

उपकोसल की व्याकुल अवस्था को देखकर घर की अग्नियों ने आपस में कहा , यह ब्रह्मचारी उपकोसल तप कर चुका है , इसने हमारी भली प्रकार सेवा की है , इसलिये चलो, हम ही इस ब्रह्मचारी उपकोसल को उपदेश दे दें ।

नारायण ! जैसे श्रुतिरूपा गौ , अग्नि , सूर्य , वायु को देखकर संयम करते हुये अपने आप सत्यकाम का ज्ञान उदय हुआ था , वैसे सत्यकाम के इस शिष्य " उपकोसल " को भी संयम करते हुए , अग्नियों को देखने से ही अग्नियाँ प्रसन्न होते हुए उपकोसल के समक्ष प्रकट हुए ।
अगिदेव प्रकट होकर कहते है , हे ब्रह्मचारी ! " प्राण " ब्रह्म है , " कं ब्रह्म है " , " खं ब्रह्म है " । ब्रह्मचारी उपकोसल ने कहा , यह तो मैं जानता हूँ कि " प्राण " ब्रह्म है , " कं " और " खं " को मैं ब्रह्म नहीं जानता । अतिधन्य अग्नि देवों ने उत्तर दिया , जो " कं " है , वही " खं " है , और जो " खं " है , वही " कं " है - इस प्रकार " कं " और " खं " दोनों एक ही है । इस प्रकार अग्नि देवों ने ब्रह्म का वर्णन करते हुए " पिण्ड " के " प्राण " का तथा " कं " और " खं " द्वारा ब्रह्माण्ड के आकाश का वर्णन किया ।
नारायण ! जब दोनों " कं " और " खं " एक ही है तब " कं " और " खं " एक ही अर्थ हुआ । " खं " का अर्थ है " आकाश " ! इस प्रकार अग्निदेवों के उपदेश का अर्थ हुआ कि पिण्ड में " प्राण " तथा " ब्रह्माण्ड " में { क - ख } आकाश ये दोनों ब्रह्म के ही भिन्न - भिन्न रूप हैं । परन्तु फिर ब्रह्माण्ड की ब्रह्म - सत्ता के लिये " क " और " ख " इन दो अक्षरों का प्रयोग क्यों किया ? इन दो अक्षरों का प्रयोग ब्रह्म के दो पहलुओं का वर्णन करने के लिये श्रुति ने किया है । " कं " का अर्थ है " सुख - स्वरूप " और " खं " का अर्थ है " आकाश " । " खं " अर्थात् आकाश , " मात्रा " { Quantity } की अभिव्यक्ति करता है ; " कं ", अर्थात् सुख , " गुण " { Quality } को अभिव्यक्त करता है । मात्रा में आकाश से बड़ी कोई वस्तु नहीं , गुण में सुख से बढ़कर कोई अभिप्रेत नहीं । ब्रह्म मात्रा में आकाश के समान है, ब्रह्म गुण में सुख के समान है । पिण्ड में { Subjectively } प्राण को ब्रह्म कहा ; ब्रह्माण्ड में { Objectively } गुण { Qualitx } की दृष्टि से " कं " , अर्थात् सुख को ब्रह्म कहा , मात्रा { Quanity } की दृष्टि से " खं " , अर्थात् आकाश को ब्रह्म कहा , किन्तु आकाश शब्द में " कं " और " खं " दोनों को सम्मिलित कर लिया ।

नारायण ! जब अग्नियां ब्रह्मचारी उपकोसल को सांझा उपदेश दे चुकीं , तब एक - एक अग्नि ने अलग- अलग उपदेश किया ।

" गार्हपत्याग्नि " ने , उस अग्नि ने जो सदा घर में स्थित बनी रहती है , कभी बुझती नहीं , चार शब्दों का उच्चारण किया - " पृथिवि " , " अग्नि " , " अन्न " , " आदित्य " ।
" गार्हपत्याग्नि " ने कहा - कि ये चारो अर्थात् पृथिवि , अग्नि , अन्न और आदित्य ये चारों तुम्हें जो पृथक - पृथक तत्त्व दीख पड़ते हैं , परन्तु इन सब में " एकात्मकता " है । आदित्य में जो पुरुष दिखाई देता है वह मैं हूँ , मैं वही हूँ । अर्थात् , गार्हपत्याग्नि भी उसी " आदित्य - पुरुष " पर - ब्रह्म का एक रूप है ।

हे सोम्य ! जो आदित्य में पुरुष के समान दीख रहे ब्रह्म को पृथिवी , अग्नि , अन्न तथा आदित्य में सब जगह गया हुआ जान कर , और यह जान कर कि गार्हपत्याग्नि उषी ब्रह्म का रूप है उसकी उपासना करता है , वह समस्त पाप - कृत्यों को नष्ट कर डालता है , लोकों का स्वामी हो जाता है, पूर्ण आयु को भोगता है , ज्योतिर्मय जीवन व्यतित करता है , उसके वंश के पुरुषों में कोई क्षीण नहीं होता । हम उस व्यक्ति की इस तथा उस लोक में रक्षा करती है - जो आदित्य - पुरुष को इस प्रकार जान कर उपासना करता है ।

सावशेष .....!! ॐ समस्तब्रह्मविद्यासम्प्रदायप्रवर्तकाचार्येभ्यो नमः !!

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“ पंचाग्नि विद्या ” ( ३ ) :
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नारायण ! " गार्हपत्याग्नि " ने जब " उपकोसल " को उपदेश दे दिया , उसके बाद " अन्वाहार्यपचनाग्नि " ने , उस अग्नि ने जो " गार्हपत्याग्नि " से आंच ग्रहण करके भोजन बनाने के काम में लाई जाती है , चार शब्दों का उच्चारण किया - जल , दिशाएं , नक्षत्र , चन्द्रमा । उसने कहा कि ये चारों तुम्हें पृथक - पृथक तत्त्व दीख पड़ते हैं , परन्तु इन सब में एकात्मता है । चन्द्रमा में जो पुरुष दिखाई देता है वह मैं हूं , मैं वही हूँ । अर्थात् " अन्वाहार्यपचनाग्नि " भी उसी " चन्द्र - पुरुष " पर - ब्रह्म का एक रूप है ।
जो चन्द्र में पुरुष के समान दीख रहे ब्रह्म को जल , दिशाएं , नक्षत्र तथा चन्द्र में सब जगह गया हुआ जानकर , और यह जान कर कि " अन्वाहार्यपचनाग्नि " भी उसी ब्रह्म का रूप है उसकी उपासना करता है , वह समस्त पाप - कृत्यों को नष्ट कर डालता है , लोकों का स्वामी हो जाता है , पूर्ण आयु को भोगता है , ज्योतिर्मय जीवन व्यतित करता है , उसके वंश के पुरुषों में कोई क्षीण नहीं होता । हम उस व्यक्ति की इस तथा उस लोक में रक्षा करती हैं - जो " चन्द - पुरुष " को इस प्रकार जान कर उसकी उपासना करता है ।
नारायण ! " अन्वाहार्यपचनाग्नि " के बाद " आहवनीयाग्नि " ने , उस अग्नि ने जो " गार्हपत्य " से आंच ग्रहण करके " अग्निहोत्र " के काम आती है , चार शब्दों का उच्चारण किया - प्राण , आकाश , द्यौः , विद्युत् । उसने कहा कि ये चारों तुम्हें पृथक् - पृथक् तत्त्व दीख पड़ते हैं , परन्तु इन सब में एकात्मता है । विद्युत में जो पुरुष दिखाई देता है वह मैं हूँ , मैं वही हूं । अर्थात् , " आहवनियाग्नि " भी उसी " विद्युत - पुरुष " पर - ब्रह्म का एक रूप है।
जो विद्युत् में पुरुष के समान दीख रहे ब्रह्म को प्राण , आकाश , द्यौः तथा विद्युत में सब जगह गया हुआ जान कर , और यह जान कर कि " आहवनियाग्नि " भी उसी ब्रह्म का रूप है उसकी उपासना करता है , वह समस्त पाप - कृत्यों को नष्ट कर डालता है , लोकों का स्वामी हो जाता है , पूर्ण आयु को भोगता है , ज्योतिर्मय जीवन व्यतीत करता है , उसके वंश के पुरुषों में कोई क्षीण नहीं होता । हम उस व्यक्ति की इस तथा उस लोक में रक्षा करती हैं - जो " विद्युत - पुरुष " को इस प्रकार जानकर उसकी उपासना करता है ।
नारायण ! इसके बाद तीनों अग्नियां एक - स्वर बोली - हे उपकोसल ! हे सोम्य ! हमारे सम्बन्ध में जो विद्या - " अग्नि - विद्या " - और " आत्म - विद्या " थी उसका हमने तुझे उपदेश दे दिया । { पिण्ड का प्राण ब्रह्म है , यह " आत्म - विद्या " का उपदेश था , और ब्रह्माण्ड की अग्नि भी ब्रह्म के रूप हैं , यह " अग्नि - विद्या " का उपदेश था । } इन दोनों विद्याओं की गति कहाँ तक है - यह तुम्हें आचार्य बतलाएंगे । इतने में आचार्य आ पहुँचे , और उन्होंने उपकोसल को पुकारा - हे उपकोसल ! उपकोसल ने उत्तर दिया , भगवन् ! क्या आज्ञा है ? आचार्य ने कहा , सोम्य ! तेरा मुख ब्रह्म - ज्ञानियों की तरह चमक रहा है , तुझे किस ने ब्रह्म - ज्ञान दिया ? शिष्य ने मानो सारी घटना को छिपाते हुए उत्तर दिया , मुझे कौन शिक्षा देता ? फिर अग्नियों की तरफ़ संकेत करके उसने कहा , मुझे उपदेश देने वाले इन अग्नियों - जैसे थे , परन्तु बिल्कुल इन - जैसे भी नहीं थे , मानो इन अग्नियों ने ही दैवी रूप धारण कर लिया था । आचार्य ने पूछा , उन्होंने तुझे क्या उपदेश दिया ?
नारायण ! उपकोसल को अग्नियों द्वारा जो उपदेश मिला था , उसने आचार्य से सुना दिया । आचार्य ने कहा , सोम्य ! अग्नियों ने तुझे लोकों के सम्बन्ध में ही ज्ञान दिया कि आदित्य - चन्द्र - विद्युत् आदि लोकों में जो तत्त्व है वह ब्रह्म है , मैं तुझे वह ज्ञान दूंगा जिसके जानने से कमल पत्र जैसे पानी में रहता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता । उपकोसल ने कहा , भगवन् ! मुझे उस विद्या का उपदेश दीजिये । गुरु ने कहना प्रारम्भ किया -
आचार्य कहते हैं - हे सोम्य ! यह जो आंख में पुरुष दिखाई देता है , यह " आत्मा " है , यह अमृत है , अभय है - यह ब्रह्म है । जैसे आंख में घी या जल छोड़ने से वे आंख में न रह कर किनारों से निकल जाते हैं , ऐसे ही यह आत्मा आंख में रहता हुआ भी उससे अलग रहता है ।
इस आत्मा को " संयद् - वाम " कहा जाता है क्योंकि सब " वाम " शोभा - इसी में " संयत् - सिमिट जाती है । उससे , अर्थात् " आत्मा " के स्व - रूप से बढ़कर कोई दिव्य आभा नहीं है । जो ऐसा जानता है , उसके चरणों पर सृष्टि के सभी सौन्दर्य लोट - पोट हो जाते हैं ।
आत्मा को " वाम - नी " भी कहते हैं , क्योंकि सृष्टि के सभी सौन्दर्यों का यह आत्मा नेता है , अग्रणी है , रूपवानों की जहाँ पंक्ति बँधे , वहाँ आत्मा के ज्ञानवाला सब से अधिक रूपवान् होने से सब से आगे रहता है । " वाम " का अर्थ है रूप या शोभा । जो ऐसा जानता है वह सब सौन्दर्यों का नेना , अग्रणी हो जाता है ।
इसे " भाम - नी " भी कहते हैं , क्योंकि यही आत्मा ही सब लोकों में अपनी आभा से प्रकाशमान हो रहा है । जो ऐसा जानता है वह लोकों में प्रकाशमान हो जाता है ।
हे सोम्य ! ऐसा ब्रह्मवित् जब मर जाता है . तब उसका दाह - संस्कार चाहे किया जाये चाहे न किया जाय , वह ज्योति को ही प्राप्त होता है । दाह करने की अवस्था में तो अग्नि - रूप ज्योति में उसे डाल ही दिया जाता है , न करने की अवस्था में भी उसका अग्नि - सदृश ज्योतिर्मय रूप हो जाता है। पहले - पहल यह रूप " अर्चि " - किरण - के सदृश होता है , किरण से बढ़ता हुआ " दिन " के समान इसका ज्योतिर्मय रूप हो जाता है , उससे बढ़ कर " पूर्णमासी " के पखवाड़े में , इन पन्द्रह दिनों में जितना प्रकाश है उतने प्रकाश से वह ज्योतिर्मय हो जाता है , उससे बढ़ कर " छः मासों " , मासों से बढ़ कर " संवत्सर " , और संवत्सर से बढ़ कर " आदित्य " की महान् ज्योति के सदृश उसका रूप तेज से भरपूर हो जाता है । " आदित्य - ज्योति " से वह " चन्द्र - ज्योति " और " चन्द्र- ज्योति " से " विद्युत् - ज्योति " को प्राप्त होता है । इस प्रकार विकसित होते हुए पुरुष का " मानव " से यह " अमानव " रूप प्रकट होता है ।
वसी अमानव - ब्रह्म भक्तो को ब्रह्म - मार्ग का प्रदर्शन करता है , यही " देव - पथ " कहलाता है , " ब्रह्म - पथ " कहलाता है । इस मार्ग पर चलने वाले मानव इस आवर्त में - आवागमन के संसार - में लौटकर नहीं आते , लौट कर नहीं आते । { ऐसा मुण्डक श्रुति ने भी कहा है । }
आचार्य कहते हैं : हे सोम्य ! इस सृष्टि में जो - कुछ पावन कार्य हो रहा है , वह मानो " यज्ञ " ही हो रहा है । यह पावन कार्य " गति " द्वारा हो रहा है ; गति ही संसार में पवित्रता उत्पन्न करती है , इसलिये यह गति ही यज्ञ है । जैसे यज्ञ के दो मार्ग हैं , वैसे संसार में " गति " के भी दो मार्ग हैं - " वाणी " और " मन " । यज्ञ के दो मार्ग कौन से हैं ? यज्ञ में ब्रह्मा वाणी का प्रयोग नहीं करता , " मन " द्वारा यज्ञ के मार्ग का संस्कार करता है ; " होता - अध्वर्यु - उद्गाता " मन का प्रयोग नहीं करते , " वाणी " द्वारा ऋचाओं का पाठ करते हैं । ठीक ऐसे सृष्टि - यज्ञ का , अर्थात् सृष्टि में हो रहे गति रूप यज्ञ का कुछ लोग " मन " के मार्ग द्वारा , और कुछ लोग " वाणी " के के मार्ग द्वारा अनुष्ठान करते हैं । जहाँ यज्ञ के प्रारम्भ होने के बाद , और समाप्त होने से पूर्व , बह्मा बोल पड़ता है - वहाँ वह अपने मार्ग को छोड़कर दूसरे ही मार्ग पर चल देता है , उसका अपना काम रह जाता है । सो , यह ऐसे ही है जैसे कोई व्यक्ति एक पांव से चलने लगे , या कोई रथ एक पहिये पर घूमने लगे । ऐसा करने वाला हानि उठाता है , ठीक ऐसे ही यज्ञ में ब्रह्मा का " मन " में सब बातो पर देख - रेख रखने के बजाय बोलने लगना हानि - कारक है । सृष्टि में हो रहे गति - रूप यज्ञ को भी मन से - ज्ञान से - चलाना जगत् के ब्रह्मा लोगों का काम है । वे ज्ञान के जगत् में विचरते हुए , सृष्टि की गति का संचालन करने के स्थान में , अगर बहुत वाग्विलास में पड़ेंगे , तो सृष्टि का रथ दो पहियों से एक पहिये पर घुमने लगेगा । ऐसा यज्ञ नष्ट हो जायेगा , यज्ञ के नष्ट होने पर यजमान भी नष्ट ही हो जायगा , और यज्ञ करना भी एक पाप का ही साधन बनेगा ।
सावशेष ....!! ॐ समस्तब्रह्मविद्यासम्प्रदायप्रवर्तकाचार्येभ्यो नमः !!

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“ पंचाग्नि विद्या ” ( ४ ) :
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नारायण ! उपकोसल को आचार्य उपदेश करते हुए आचार्य कहते है :
हे सोम्य ! यज्ञ के प्रारम्भ होने के पीछे , और समाप्त होने के पूर्व , ब्रह्मा कुछ नहीं बोलता, वहाँ " मन " का कार्य ब्रह्मा करता है रहता है , " वाणी " का कार्य " अध्वर्यु - होता - उद्गाता " - ये तीन करते हैं , और इस प्रकार " मन " तथा " वाणी " ये दोनों मार्ग अपना - अपना कार्य करते रहते हैं , किसी मार्ग को हानि नहीं पहुँचती ।
यह ऐसे ही है जैसे कोई व्यक्ति एक पांव के स्थान में दोनों पांव से चले , या कोई रथ एक पहिये पर घूमने के बजाय दोनों पर घूमे । जैसे ये प्रतिष्ठित होते हैं , स्थिर होते हैं , वैसे जिस यज्ञ में " मन " तथा " वाणी " का ठीक - ठीक प्रयोग होता है , वह यज्ञ डगमगाता नहीं , और यजमान यज्ञ करके श्रेष्ठतर हो जाता है । सृष्टि में हो रहे " गति - यज्ञ " को स्थिर रखने के लिये " मन " तथा " वाणी " दोनों के प्रयोग की आवश्यकता है ।
नारायण ! मन में संकल्प करके उसे वाणी द्वारा प्रकट करना ही यज्ञ है । मन में विचार सुस्पष्ट न हो, और वाणी द्वारा यूं ही बोलते जाना , यही हम - सब करते हैं , यह अयज्ञीय बात है । उपनिषद् के ऋषि ने यज्ञ के दृष्टान्त से हम सब को दिखलाया कि जैसे यज्ञ में मन तथा वाणी दोनों के प्रयोग से यज्ञ बनता है , ऐसे ही जीवन - रूपी यज्ञ मेँ इन दोनों का समन्वय होना चाहिये । मन तथा वाणी दो दोनो पहियों पर जीवन का गाड़ी ठीक चलती है - दोनों को साथ - साथ एक - दूसरे का सहायक बनकर चलना चाहिए , ऐसा न हो कि मन अलग चले , वाणी अलग चले । उपनिषदों में जो बाहर हो रहा है उसे भीतर दिखाने का प्रयत्न हमारे अतिधन्य ऋषियों ने किया है । बाहर का यज्ञ भीतर हो रहे यज्ञ का प्रतीक है । बाहर यज्ञ में ब्रह्मा यज्ञ कराता है , परन्तु वाणी से बोलता नहीं । " अध्वर्यु " वाणी से बोलते हैं ; भीतर के प्राण - यज्ञ में ब्रह्मा का काम मन करता है , जो बोलता नहीं परन्तु काम वही चलाता है , " अध्वर्यु - होता - उद्गाता " का काम वाणी करती है । बाहर का यज्ञ तो भीतर के " प्राण - यज्ञ " का प्रतीक है - इस बात को उपनिषद् के ऋषि ने स्पष्ट किया है ।
नारायण ! आचार्य कहते हैं :
हे सोम्य - उपकोसल ! प्रजापति ब्रह्मा ने पृथिवी , अन्तरिक्ष , द्यौः - इन लोकों को तपाया । जब वे तपे, तो उनके रस को निचोड़ा - पृथिवी से - " अग्नि " , अन्तरिक्ष से - " वायु " , और द्यौः से " आदित्य " - ये तीन देवता , अर्थात् ये तीन ऋषि ही रस हैं ।
इन तीनों देवताओं अर्थात् तीनों ऋषियों को तपाया , जब वे तपे , तो उनके रस को निचोड़ा - अग्नि से - " ऋक् " , वायु से - " यजु " और आदित्य से - " साम " हुआ ।
हे सोम्य ! उन्होंने ऋक् - यजु - साम नाम की " त्रयी - विद्या " को तपया । वह जब तपी तो उसका रस निचोड़ा - ऋक् से - " भूः " , यजु से - " भुवः " और साम से - " स्वः " - ये तीन " व्याहृतियां " उत्पन्न हुई ।
हे सोम्य ! यदि ऋचा - पाठ में " होता " से कोई अशुद्धि हो जाय , तो " गार्हपत्याग्नि " में " भूः स्वाहा" - कहकर आहुति दे दे । " भूः " व्याहृति ऋग्वेद का ही तो रस है , इस प्रकार ऋचा के ही रस से , ऋचा के वीर्य से ऋचा पाठ के ब्रण अर्थात् घाव की मानो पूर्ति हो जाती है ।
यदि यजु - पाठ में अध्वर्यु से अशुद्धि हो जाय , तो दक्षिणाग्नि अर्थात् अन्वाहार्यपचनाग्नि में " भुवः स्वाहा " - कहकर आहुति दे दे । " भुवः " व्याहृति यजु का ही तो रस है , इस प्रकार यजु के ही रस से , यजु के वीर्य से यजु - पाठ के घाव की मानो पूर्ति हो जाती है।
यदि साम - पाठ में " उद्गाता " से अशुद्धि हो जाय , तो आहवनीयाग्नि में " स्वः स्वाहा " - कहकर आहुति दे दे । " स्वः " व्याहृति साम का ही तो रस है , साम के वीर्य से साम - पाठ के घाव की मानो पूर्ति हो जाती है ।
सो , जिस प्रकार कोई लवण के द्वारा - टंक अर्थात् सुहागा के द्वारा स्वर्ण को स्वर्ण से जोड़ दे , चांदी को चांदी से , कलई को कलई से , सीसे को सीसे से , लोहे को लोहे से और लकड़ी को चमड़े से जोड़ दे इसी प्रकार , लोकों के रस देवता , देवताओं के रस " त्रयी विद्या " , और त्रयी - विद्या के रस " भूर्भुवः स्वः " से यज्ञ के घाव को - उसकी त्रुटि को - पूरा जाता है । जहाँ इस बात को जानने वाला ब्रह्मा होता है, वहाँ मानों यज्ञ का औषध पहले से मौजूद है ।
जहां इस बात को जानने वाला ब्रह्मा होता है , वहां यज्ञ " उत्तराभिमानी " अर्थात् उत्तरोत्तर फल - प्रद होता है । इस प्रकार के ब्रह्मा के लिये लिये ही यह गाथा प्रसिद्ध है कि जहां - जहां से कोई लौटने लगता है वहाँ - वहाँ ही सहायता के लिये जा पहुँचता है । जैसे कुरु लोगों की उस इकले वीर ने घोड़ों से रक्षा की थी , वैसे मननशील ब्रह्मा यद्यपि अकेला ऋत्विक् होता है , तो भी वह यज्ञ की , यजमान की , और सभी ऋत्विजों की रक्षा करता है । इसलिये ऐसा जानने वालों को ही ब्रह्मा निर्वाचित करे , ऐसा न जानने वाले को नहीं , ऐसा न जानने वाले को नहीं ।
समाप्त !
ॐ नमो ब्रह्मणे

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