Monday 24 July 2017

शास्त्र : परिभाषा और स्वरूप विचार -

शास्त्र : परिभाषा और स्वरूप विचार -
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शास्त्र शब्द अनुशासन अर्थ वाली शास् धातु से ष्ट्रन प्रत्यय पूर्वक (सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन –उणादि० ४/१५८ ) निष्पन्न होता है | “शासनात् शास्त्रम्” शासन करने वाला होने से शास्त्र कहलाता है तात्पर्य यह है कि इसके द्वारा धर्मों का अनुशासन किया जाता है -

शिष्यन्ते धर्माः अनेनेति शास्त्रम् |

अतः इसकी ( शास्त्र की ) परिभाषा है -

“ शिष्यतेsनुशिष्यतेsपूर्वोsर्थो बोध्यते अनेनेति शास्त्रं वेदस्तदुपजीविस्मृतिपुराणादि च | ”

अर्थात् शासन किया जाता है - अनुशासन किया जाता है , अर्थात् अपूर्व अर्थ का बोध कराया जाता है
इसके द्वारा इसलिए शास्त्र अर्थात् वेद कहलाता है , इस शास्त्र (वेद) के उपजीवी स्मृति-पुराणादि हैं (इसलिए ये भी शास्त्र हैं ) |

श्री मन्मध्वाचार्य का मत उद्धृत करते हुए श्री माधवाचार्य ने सर्वदर्शन संग्रह के पूर्णप्रज्ञ दर्शनम् (पृष्ठ ५८ ) में शास्त्र का स्वरूप निम्न ऋग्वेदादि वेद स्मृति , पुराणों , रामायण आदि इतिहास से लेकर पांचरात्रपर्यंत ग्रंथों को शास्त्र का स्वरूप स्पष्ट किया है -

शास्त्रं च वेदाः स्मृतयः पुराणं च तदात्मकम् | इतिहासः पञ्चरात्रं भारतं च विदुर्बुधाः ||
ऋग्यजुः सामाथर्वाख्या भारतं पञ्चरात्रकम् | मूलरामायणं चैव शास्त्रमित्यभिधीयते ||

शास्त्र एक व्यवस्था का नाम है, जिसे सरल भाषा में इस प्रकार समझा सकते हैं कि -
शासन करने वाले अर्थात् सत्कार्य में प्रवृत्त और असत्कार्य से निवृत्त करने वाले विधि -निषेधात्मक सकल वेदादि आर्ष ग्रन्थ शास्त्र कहलाते हैं और केवल “शासनात् शास्त्रम् “ इस रूप में विधि-प्रतिषेध करने वाले ग्रन्थ ही नहीं वरन् “ शंसनात् शास्त्रम्” अर्थात् किसी गूढ़ तत्व का शंसन –प्रतिपादन करने वाले वेदान्त आदि भी शास्त्र ही कहलाते हैं |

|| इति ||

जब हम शास्त्र के “शिष्यते अनेन” अर्थ से अनुशासनात्मक स्वरूप पर विचार करते हैं तो शङ्का यह होती है कि लोकव्यवहार से ही इस स्वरूप द्वारा अर्थबोध हो सकता है , अर्थात् लोक व्यवहार से भी अनुशासन का ज्ञान तो प्राप्त होता ही है तो फ़िर् शास्त्र रूपी शासन की क्या आवश्यकता है ?
तब कहा गया कि शास्त्रेण धर्मनियमः क्रियते , अर्थात् लोकव्यवहार से प्राप्त होने वाले अनुशासन में शास्त्र केवल धर्म नियम ही करता है |
धर्म नियम का अर्थ है जो नियम धर्म के लिये हों. धर्म प्रयोजन वाले हों आदि , उन नियमो का विधान करना शास्त्र का कार्य है -

धर्माय नियमो धर्मनियमः , धर्मार्थो वा नियमो धर्मनियमः , धर्मप्रयोजनो वा नियमो धर्मनियमः | ( -महाभाष्य, पस्पसाह्निक )

इसलिए लोकव्यवहार से अवज्ञात होने वाले अनुशासन का भी शास्त्रपूर्वक प्रयोग व्यवहार से ही अभ्युदय होता है ( शास्त्रपूर्वके प्रयोगेsभ्युदयः ) |

शास्त्र स्वयं भगवान की आज्ञा हैं ( श्रुतिस्मृती ममेवाज्ञा ० ) , बिना शास्त्र रूपी अनुशासन के कार्य किये सिद्धि , सुख अथवा परमगति प्राप्त नहीं होती -

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् || ( -गीता १६/२३ )

भगवान् के इस शास्त्ररूपी शासन की महत्ता स्पष्ट करते हुए श्री आद्यशंकराचार्य भगवान् कहते हैं कि भगवान् का श्रुति और स्मृति रूप शासन अत्यंत उत्कृष्ट है इसीलिये उनको उर्जितशासन भी कहा जाता है , जैसा कि -

श्रुतिस्मृतिलक्षणमूर्जितं शासनमस्येति ऊर्जितशासनः – (- शांकरभाष्य , वि० सह० ११०)

यह शास्त्र स्वयं साक्षात् श्री भगवान के ही अवतार स्वरूप हैं -

अवतीर्णो जगन्नाथः शास्त्ररूपेण वै प्रभुः (-शाण्डिल्य स्मृ० ४/१९३ )

इसलिए शास्त्रवचनों पर शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि शास्त्र पर शंका का अर्थ होता है स्वयं श्री भगवान् पर शंका | इसीलिये श्री आद्य शंकराचार्य जी ने स्वभाष्य में कहा है की शास्त्रयुक्त कोई भी बात अकर्तव्य नहीं हो सकती | राम , कृष्ण आदि मे हम जितनी दृढ निष्ठा रखते हैं , उतनी ही शास्त्र मे भी रखनी आवश्यक है -

तस्माच्छास्त्रे दृढा कार्या भक्तिर्मोक्षपरायणैः | (-शाण्डिल्य स्मृ० ४/१९४ )

सामान्यतया शास्त्र की प्रवृत्ति ३ प्रकार से होती है,( जैसा की तर्कभाषा , यतींद्रमतदीपिका आदि ग्रंथों में तत्तत् प्रकरणों में समझाया गया है ) -

उद्देश, लक्षण और परीक्षा |

उद्देश कहते हैं जहां पर केवल नाम मात्र से वस्तु का संकीर्तन हो -
उद्देशस्तु नाममात्रेण वस्तुसंकीर्तनम् |

असाधारण धर्मवचन लक्षण कहलाता है-
लक्षणं त्वसाधारणधर्मवचनम् जैसे सास्नादिमत्वं गोत्वमिति |

ऐसे ही लक्षित का लक्षण ठीक है या नहीं इस का विचार परीक्षा कहलाता है -
लक्षितस्य लक्षणं उत्पद्यते नवेति विचारः परीक्षा |

शास्त्रकारों ने कहा है कि किसी एक शास्त्र को ही पढ़कर शास्त्र का निर्णय नहीं प्राप्त किया जा सकता ( नैकशास्त्रमधीयानो गच्छति शास्त्रनिर्णयम् ) अपितु जो विविध प्रकार के शास्त्रों को सम्यक् रूप से रूप से जानता है , भूयोविद्य है , वही शास्त्रज्ञ रूप से प्रशंसनीय होता है |

पारावर्यावित्सु तु खलु वेदितृषु भूयोविद्यः प्रशस्यो भवति | ( –निरुक्त १/१६ )

अतः भूयोविद्य होकर ही शास्त्र के वचनों को समझने का प्रयास करना चाहिए |

|| इति ||

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|| जय श्री राम

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