Monday 24 July 2017

अष्टावक्र

अष्टावक्र—एक परिचय

अष्टावक्र आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि थे। शरीर से जितने विचित्र थे, ज्ञान से उतने ही विलक्षण। उनके पिता कहोड़ ऋषि थे जो उछालक के शिष्य थे और उनके दामाद भी। कहोड़ अपनी पत्नी सुजाता के साथ उछालक के ही आश्रम में रहते थे। ऋषि कहोड़ वेदपाठी पण्डित थे। वे रोज रातभर बैठ कर वेद पाठ किया करते थे। उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। गर्भ से बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो एक रात को गर्भ के भीतर से ही बोला, हे पिता ! आप रात भर वेद पढ़ते रहते हैं। लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता। मैंने गर्भ में ही आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।’’ गर्भस्थ बालक ने यह भी कहा कि रोज-रोज के पाठ मात्र से क्या लाभ। वे तो शब्द मात्र हैं। शब्दों में ज्ञान कहाँ ? ज्ञान स्वयं में है। शब्दों में सत्य कहाँ ? सत्य स्वयं में है।

ऋषि कहोड़ के पास अन्य ऋषि भी बैठे थे। अजन्मे गर्भस्थ बालक की इस तरह की बात सुनकर उन्होंने अत्यन्त अपमानित महसूस किया। बेटा अभी पैदा भी नहीं हुआ और इस तरह की बात कहे। वेद पण्डित पिता का अहंकार चोट खा गया था। वे क्रोध से आग बबूला हो गये। क्रोध में पिता ने बेटे को अभिशाप दे दिया। ‘‘हे बालक ! तुम गर्भ में रहकर ही मुझसे इस तरह का वक्र वार्तालाप कर रहे हो। मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि कि तुम आठ स्थानों से वक्र होकर अपनी माता के गर्भ से उत्पन्न होगे।’’ कुछ दिनों पश्चात् बालक का जन्म हुआ। शाप के अनुसार वह आठ स्थानों पर से ही वक्र था। आठ जगह से कुबड़े, ऊँट की भाँति इरछे-तिरछे। इसलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ा।

अष्टावक्र के जन्म के पूर्व ही पिता ऋषि कहोड़ धन अर्जन की आवश्यकतावश राजा जनक के वहाँ गये जहाँ शास्त्रार्थ का आयोजन था। एक हजार गाएँ राजमहल के द्वार पर खड़ी की गई थीं। उन गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया गया था। उनके गलों में हीरे-जवाहरात लटका दिये गये थे। शास्त्रार्थ की शर्त यह थी कि जो विजेता होगा वह इन गायों को हाँक ले जाएगा। तथा विजेता हारने वाले का किसी भी तरह से वध कर सकेगा। शास्त्रार्थ राज्य के महापण्डित वंदिन से करना होता था। कहते हैं शास्त्रार्थ में ऋषि कहोड़ हार गये। इसलिए विजेता पण्डित वंदिन ने उन्हें पानी में डुबाकर मरवा डाला।

जब काफी दिनों कर ऋषि कहोड़ आश्रम में लौटकर नहीं आये तो उछालक ने उनकी खोज कराई। उनके शिष्य द्वारा ज्ञात हुआ कि कहोड़ को शास्त्रार्थ में पराजित होने के फलस्वरूप वंदिन ने मरवा डाला है। इस तथ्य को बालक अष्टावक्र से छुपा कर रखा गया था। बालक अष्टावक्र अपने नाना उछालक को ही अपना पिता जानता था। बारह वर्ष बीत गये। अष्टावक्र तो गर्भ में ही महान पण्डित और ज्ञानी हो चुका था। इसके साथ ही उसने अपने नाना उछालक के आश्रम में बारह वर्ष तक और अध्ययन किया। तब तो वह ब्रह्मा के समान मेधावी हो चुका था। तभी एक दिन अचानक उसे अपने पिता के बारे में वास्तविक तथ्य की जानकारी हुई। उसने अपनी माता से इस सम्बन्ध में पूछा। तब उसकी माँ ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। बालक अष्टावक्र को बड़ा आघात लगा। उसने उसी समय माँ से कहा ‘‘माँ मुझे आज्ञा दो, मैं अभी जाकर उस दुष्ट को परास्त करता हूँ तब मैं अपने पिता का बदला अच्छी तरह से लूँगा।’’

माँ ने बालक को बहुत मनाया कि यह इसके लिए घातक होगा। वह अभी बालक है। लेकिन अष्टावक्र नहीं माने। वह अपने मामा श्वेतकेतु को साथ लेकर राजा जनक के नगर की ओर चल पड़ा। उस समय जनक के वहाँ महायज्ञ हो रहा था। उसमें भाग लेने के लिए देश भर से अनेक पण्डित बुलाए गए थे। अष्टावक्र सीधे राजप्रसाद की ओर पहुँच गए। लेकिन द्वारपाल ने अन्दर जाने से रोक दिया। उसने कहा कि वृद्ध और चतुर ब्राह्मण ही यज्ञ में जाने के अधिकारी हैं। बालकों को इसके अन्दर जाने का अधिकार नहीं है। अष्टावक्र ने अनेक प्रकार से द्वारपाल से वाद-विवाद किया। अन्त में उन्होंने कहा ‘‘द्वारपाल ! सिर के बाल सफेद होने से कोई मनुष्य वृद्ध नहीं हो जाता। जो व्यक्ति बालक होकर भी ज्ञानी है उसे ही देवताओं ने स्थविर कहा है। अगर ऋषियों के द्वारा स्थापित धर्म के अनुसार विचार करो तो अवस्था से, बाल पकने से, धन से या बन्धुओं के अधिक होने से मनुष्य को कोई महत्त्व नहीं मिलता है। सांगोपांग वेद को जानने वाले विद्वान् ही महत् और वृद्ध हैं। हम तुम्हारे महापण्डित वंदिन को देखने आए हैं। हम उस वंदिन को शास्त्रार्थ में परास्त करके विद्वानों को चकित कर देंगे। तब तुम्हें हमारी मेधा के बारे में मालूम होगा’’ तब कहीं द्वारपाल ने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया।

अष्टावक्र दरबार में भीतर चले गये। महापण्डित भीतर इकट्ठे थे। पण्डितों ने उसे देखा। उसका आठ भागों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर। वह चलता तो भी लोगों को देखकर हँसी आ जाती। उनका चलना भी बड़ा हास्यपद था। सारी सभा अष्टावक्र को देखकर हँसने लगी। अष्टावक्र भी खिलखिलाकर हँसा। जनक को विचित्र लगा। उन्होंने पूछा, और सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ गया कि क्यों हँसते हैं। परंतु बालक तुम क्यों हँसे ?बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र ने कहा ‘‘मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि चमड़े के पारखियों (मूर्खों) की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है। यह सभी सुनकर सन्न रह गये। सभा में सन्नाटा छा गया। महापण्डितों की जमात तिलमिला उठी। सम्राट् जनक ने धैर्य पूर्वक पूछा ‘‘धृष्ट बालक! तुम्हारा मतलब क्या है ?’’ अष्टावक्र जरा भी विचलित नहीं हुआ। उसने जवाब दिया ‘‘बड़ी सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मैं नहीं दिखाई पड़ता। इनको आड़ा-टेढ़ा शरीर दिखाई पड़ता है। ये चमड़ी के पारखी हैं। इसलिए ये चमार हैं। राजन् ! मन्दिर के टेढ़े होने से कहीं आकाश टेढ़ा होता है ? घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फूटता है ? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ देखो।’’ बालक के मुख से ज्ञानपूर्ण उपहास सुनकर सभी पण्डित हतप्रभ और लज्जित रह गये। उन्हें अपने अहंकार और मूर्खता पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ।

अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा—हे राजन् ! अब मैं आपके उस मेघावी राजपण्डित से मिलना चाहता हूँ, जो पण्डितों के बीच में भय बना हुआ है। उसी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा से मैं यहाँ आया हूँ। मैं अद्वैत ब्रह्मवाद के विषय में उससे वार्ता करूँगा। राजा जनक ने कई तरह से उसे विचलित करने के लिए डराया और समझाया। शास्त्रार्थ के विचार को त्याग देने के लिए कहा लेकिन अष्टावक्र अडिग रहा और स्वर कठोर करके कहा—‘‘हे राजन् ! बालक कहकर आप मुझे हीन क्यों कहते हैं ? मेरा आग्रह है कि आप वंदिन को शास्त्रार्थ के लिए बुलाइए फिर आप देखेंगे कि मैं उसको किस प्रकार परास्त करता हूँ।’’ राजा को विश्वास होने लगा कि यह बालक असाधारण है। उन्होंने परीक्षा के लिए कुछ प्रश्न किये।

जनक ने पूछा—हे ब्राह्मणपुत्र ! जो मनुष्य तीस अंग वाले, बारह अंश वाले, चौबीस पर्व वाले, तीन सौ साठ आरे वाले पदार्थ के अर्थ को जानता है वही सबसे बड़ा पण्डित है।’’

अष्टावक्र ने तुरन्त उत्तर दिया, ‘‘हे राजन् ! चौबीस पर्व छः नाभि, बारह प्रधि और तीन सौ साठ आरे वाला वही शीघ्रगामी कालचक्र आपकी रक्षा करे।’’

राजा जनक ने फिर कहा, ‘‘जो दो वस्तुएँ अश्विनी के समान से संयुक्त और बाज पक्षी के समान टूट पड़ने वाली हैं उनका देवताओं में से कौन देवता गर्भाधान कराता है ? वे वस्तुएँ क्या उत्पन्न करती हैं?’’

अष्टावक्र ने कहा ‘‘ हे राजन् ! ऐसी अशुभ वस्तुओं की आप कल्पना भी न करें। वायु उनका सारथी है, मेघ उनका जन्मदाता है। फिर वे भी मेघ को उत्पन्न करती हैं।’’राजा जनक ने पूछा, ‘‘सोते समय आँख कौन नहीं मूँदता ? जन्म लेकर कौन नहीं हिलता ? हृदय किसके नहीं है ? और कौन सी वस्तु वेग के साथ बढ़ती है ?’’

अष्टावक्र ने कहा, ‘‘मछली सोते समय अपनी आँख नहीं मूँदती। अण्डा उत्पन्न होकर नहीं हिलता। पत्थर के हृदय नहीं होता। नदी वेग से बढ़ती है।’’

अष्टावक्र के वचनों को सुनकर राजा जनक प्रसन्न हो गये। उन्होंने उस ब्राह्मण बालक के हाथ जोड़कर कहा—‘‘हे ब्राह्मणपुत्र ! आपकी जैसी अवस्था है वैसे आप बालक नहीं हैं। ज्ञान में आप निश्चित ही वृद्ध हैं। मुझे आपकी मेधा पर निश्चित ही विश्वास हो गया है। आप जाइए, इस मण्डप के भीतर महापण्डित वंदिन बैठे हैं। उनके सामने बैठकर शास्त्रार्थ प्रारम्भ कीजिये।’’

अष्टावक्र ने अन्दर पहुँचकर वंदिन को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा।

वंदिन देखकर चौंक पड़ा। बिना उत्तर दिये उसकी नादानी पर हँसा। अष्टावक्र ने कहा—हे महाभिमानी पण्डित वंदिन। कायरों की भाँति चुप क्यों बैठा है। आ मेरे सामने शास्त्रार्थ कर।’’

वंदिन ने अपमानपूर्ण वाणी सुनकर आवेश में प्रश्न प्रारम्भ किये। उसने कहा, ‘‘एक अग्नि कई प्रकार से प्रज्वलित की जाती है। सूर्य एक होकर भी सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है। एक वीर इन्द्र सब शत्रुओं का नाश करता है और यमराज सब पितरों के स्वामी हैं।’’

अष्टावक्र ने कहा—‘‘इन्द्र और अग्नि दोनों सखा के रूप में साथ-साथ विचरते हैं। नारद और पर्वत दोनों देवर्षि हैं। अश्विनीकुमार दो हैं। रथ के पहिये दो होते हैं ! और विधाता के विधान के अनुसार स्त्री और पति दो व्यक्ति होते हैं।

फिर वंदिन बोला—‘‘कर्म से तीन प्रकार के जन्म होते हैं। तीन वेद मिलकर वाजपेय यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। अव्वर्यु गण तीन प्रकार के स्नानों की विधि बताते हैं। लोक तीन प्रकार के हैं और लोक तीन प्रकार के हैं और ज्योंति के भी तीन भेद कहे गये हैं।’’

अष्टावक्र ने उत्तर दिया—‘‘ब्राह्मणों के आश्रम चार प्रकार के हैं। चार वर्ण यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। दिशाएँ चार हैं। वर्ण चार प्रकार के हैं। और गाय के चार पैर होते हैं।’’

वंदिन ने कहा, ‘‘अग्नि पाँच हैं। पंक्ति द्वंद्व में पाँच चरण होते हैं। यज्ञ पाँच प्रकार के हैं। वेद में चैत्नय प्रमाण विकल्प, विपर्यय, निद्र और स्मृति ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ कही गई हैं। और पंचनद देश सर्वत्र पवित्र कहा गया है।’’

फिर अष्टावक्र ने कहा- ‘‘अग्न्याधान की दक्षिणा में छः गोदान की विधि है। ऋतुएँ छः हैं। इन्द्रियाँ छः हैं और सारे वेद में छः साद्यस्क यज्ञ की विधि का वर्णन है।’’

वंदिन बोला,‘‘ ग्राम्य पशु सात प्रकार के होते हैं। वन के पशु भी सात प्रकार के होते हैं। सात छन्दों से एक यज्ञ सम्पन्न होता है। ऋषि सात हैं। पूजनीय सात हैं और वीणा का नाम सप्ततंत्री है।’’

अष्टावक्र ने कहा—‘‘ आठ गोपों का एक शतमान होता है। सिंह को मारने वाले शरभ के आठ पैर होते हैं। देवताओं में आठ वसु हैं। और सभी यज्ञों में आठ पहर का यूप होता है।’’

वंदिन ने उत्तर दिया, ‘‘पितृ यज्ञ में नौ समधेनी होती है। नौ भागों से सृष्टि क्रिया होती है। बृहती छंद के चरण में नौ अक्षर होते हैं। और गणित के अंक नौ हैं।’’

अष्टावक्र ने कहा, ‘‘दिशाएँ दस हैं। दस सैकड़ों का एक हजार होता है। स्त्रियों का गर्भ दस महीने में पूर्णावस्था को पहुँचता है। तत्व के उपदेसक दस हैं। अधिकारी दस हैं। और द्वेष करने वाले भी दस हैं।वं

दिन बोला—‘‘इंद्रियों के विषय ग्यारह प्रकार के होते हैं। ग्यारह विषय ही जीव रूपी पशु के बन्धन स्तम्भ हैं। प्राणियों के विकार ग्यारह प्रकार के हैं। और रुद्र ग्यारह प्रसिद्ध हैं।’’

अष्टावक्र ने उत्तर दिया—‘‘वर्ष बारह महीने में पूर्ण होता है। जगती द्वंद्व के बारह अक्षर होते हैं। बारह दिनों में प्राकृत यज्ञ पूरा होता है। और आदित्य सर्वत्र विख्यात है।’’

फिर वंदिन बोला—‘‘त्रयोदशी तिथि पुण्यतिथि कहीं गयी है। पृथ्वी के तेरह द्वीप हैं।’’ बस इतना कहकर वंदिन चुप पड़ गया।

उसको आगे बोलते न देख अष्टावक्र ने विषय की पूर्ति करते हुए कहा—आत्मा के भोग तेरह प्रकार के हैं। और बुद्धि आदि तेरह उसकी रुकावटें हैं।बस इतना सुनते ही वंदिन ने अपना सिर झुका लिया।

दूसरे ही क्षण सभा में कोलाहल मच गया। सभी अष्टावक्र की जय-जयकार करने लगे।

आज महात्मा कहोड़ की आत्मा किसी अज्ञात लोक से अपने पुत्र अष्टावक्र को कितना आशीर्वाद दे रही होगी। सभी उपस्थित ब्राह्मण हाथ जोड़कर अष्टावक्र की वंदना करने लगे।

तब अष्टावक्र ने कहा ‘‘हे ब्राह्मणों ! मैंने इस अहंकारी वंदिन को आज परास्त कर दिया है। इस अत्याचारी ने कितने ही पुण्यात्मा ब्राह्मणों को पराजित करके पानी में डुबवा दिया है। इसलिए मैं भी आज्ञा देता हूँ कि इस पराजित वंदिन को उसी तरह पानी में डुबा दिया जाय।’’

अष्टावक्र राजा जनक की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा। राजा स्तब्ध बैठे थे। अष्टावक्र क्रुद्ध होने लगा और कहा कि आप डुबाए जाने की आज्ञा क्यों नहीं देते।
इस तरह चुप बैठे रहना मेरा अपमान है।

राजा जनक ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा ‘‘हे ब्राह्मण ! आप साक्षात् ब्रह्मा हैं। इसलिए मैं आपके इस कठोर स्वर को भी सुन रहा हूँ। आपने वंदिन को जिस प्रकार की आज्ञा दी है उसका मैं समर्थन करता हूँ।’’

वंदिन ने आज्ञा स्वीकार करते हुए कहा इससे मेरा उपकार होगा। मुझे अपने पिता वरुण का दर्शन होगा।

अष्टावक्र की ओर मुड़कर वंदिन ने कहा, ‘‘हे ऋषि अष्टावक्र ! आप महान हैं। सूर्य के समान दीप्यमान आपकी मेधा है। और अग्नि के समान आपका तेज है। मैं चलते समय आपको वरदान देता हूँ कि आप इसी क्षण अपने स्वर्गीय पिता कहोड़ को फिर से जीवित अवस्था में पाएँगे। उनके साथ अन्य ब्राह्मण भी जल से निकल आयेंगे।’’

उसी क्षण अन्य ब्राह्मणों के साथ कहोड़ जल से बाहर निकल आये। उन्होंने राजा जनक की वंदना की।

राजा ने प्रसन्न होकर अनेकों बहुमूल्य उपहार देकर उन्हें विदा किया।

कहोड़, अष्टावक्र और श्वेतकेतु के साथ उद्यालक आश्रम में वापस आये। कहोड़ ने पत्नी सुजाता और अष्टावक्र को समंगा नदी में स्नान करने के लिए कहा। अष्टावक्र ने जाकर उस नदी में स्नान किया। उसी क्षण उसका कुबड़ापन दूर हो गया। वह सुन्दर शरीर वाले युवक की तरह जल से बाहर निकला।

राजा जनक अष्टावक्र के ज्ञान से अत्यन्त प्रभावित हुए थे।

उन्हें अपनी पूर्व धारणा पर पश्चाताप था। अष्टावक्र की बातों ने उन्हें झकझोर दिया था। दूसरे दिन जब सम्राट् घूमने निकले तो उन्हें अष्टावक्र राह में दिख गये।
उतर पड़े घोड़े से और अष्टावक्र को साष्टांग प्रणाम् किया।

उन्होंने निवेदन किया, महापुरुष ! राजमहल में पधारें। कृपया मेरी जिज्ञासाओं का समाधान करें।

राजमहल विशेष अतिथि के सत्कार के लिये सजाया गया। बारह वर्ष के अष्टावक्र को उच्च सिंहासन पर बैठाया गया। उससे जनक ने अपनी जिज्ञासाएँ बतायीं। जनक की जिज्ञासा पर ज्ञान का संवाद प्रवाहित हो चला। जनक अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते। अष्टावक्र उनको समझाते। जनक की जिज्ञासाओं के समाधान में अष्टावक्र अपना ज्ञान उड़ेलते गये। ज्ञान की गंगा बह चली। जनक अष्टावक्र का संवाद 298 सूत्र-श्लोकों में निबद्ध हुआ है।

इस प्रकार अष्टावक्र गीता की रचना हुई। अध्यात्म ज्ञान का अनुपम शास्त्र ग्रंथ रचा गया। इसमें 82 सूत्र जनक द्वरा कहे गये हैं और शेष 216 अष्टावक्र के मुख से प्रस्फुटित हुए हैं।

यह ग्रंथ अष्टावक्र संहिता के नाम से भी जाना जाता है।संवाद का प्रारम्भ जनक की जिज्ञासा से हुआ है। सचेतन पुरुष की अपने को जानने की शाश्वत जिज्ञासा।

वही तीन मूल प्रश्न कि-

पुरुष को ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ?
मुक्ति कैसे होगी ?
वैराग्य कैसे प्राप्त होगा ?
तीन बीज प्रश्न हैं ये।
इन्हीं में से और प्रश्न निकलते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर आकार फिर इन्हीं प्रश्नों में विलीन हो जाते हैं।

इन प्रश्नों के संधान में खोजियों के खोज के अनुभव का ज्ञान अपार भण्डार सृजित हुआ है। अनेकानेक पथ और पंथ बन गये। भारत में अध्यात्म आत्मन्वेषण की परम्परा प्राचीनकाल से सतत सजीव है।

इन प्रश्नों के जो समाधान-उपाय ढूँढ़े गये, उन्हें सामान्यतया तीन मुख्य धाराओं में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात् भक्ति मार्ग, कर्ममार्ग और ज्ञानयोग मार्ग।

भागवत् गीता जो युद्धक्षेत्र-कर्मक्षेत्र में कृष्ण-अर्जुन का संवाद है, जो हिन्दुओं का शीर्ष ग्रन्थ है, में तीनों मार्गों को समन्वित किया गया है।

समन्वयवादी दृष्टिकोण है कृष्ण की गीता का। भक्ति भी, ज्ञान भी, कर्म भी। जिसे जो रुचे चुन ले। इसलिए गीता की सहस्त्रों टीकाएँ हैं, अनेकानेक भाष्य हैं। सबने अपने-अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन गीता के भाष्य में किया है। अपने दृष्टिकोण की पुष्टि गीता से प्रमाणित की है। इसलिए गीता हिन्दुओं का गौरव ग्रंथ है, सर्वमान्य है।

परन्तु अष्टावक्र गीता एक निराला, अनूठा ग्रंथ है। सत्य का सपाट, सीधा व्यक्तव्य। सत्य जैसा है वैसा ही बताया गया है। शब्दों में कोई लाग-लपेट नहीं है। इतना सीधा और शुद्धतम व्यक्तव्य कि इसका कोई दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता। इसमें अपने-अपने अर्थ खोजने की गुंजाइश ही नहीं है। जो है, वही है। अन्यथा नहीं कहा जा सकता। इसलिए अष्टावक्र गीता के भाष्य नहीं है, विभिन्न व्याख्याएँ नहीं है।

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Ashtavakra was a spiritually advanced Rishi, the author Ashtavakra Gita also known as Ashtavakra Samhita, which is a treatise on the instruction by Ashtaakra to Janaka about the Self/Atman. He is also known as the guru of the king Janaka and the sage Yajnavalkya. Ashtavarkra literally mean one born with eight different deformities of the body. When he was born he was deformed at 8 places two feet, two knees, two hands, the chest and the head, thus the name Ashtavakra.

The sage Uddalaka had a disciple named Kahola/Kahoda in his ashrama where he taught the vedas. Kahola was his favorite disciple and he offered his daughter Sujatha’s hand in marriage to him and continue to live with them. Sujata was soon pregnant and she wanted her unborn son to be exposed to the knowledge and so often sat with Uddalaka and Kahola when they were teaching their disciples. It is a belief that when expectant mothers expose themselves to spiritual teachings while the child is still in the womb, that child gathers all that knowledge and gets enlightened early on in life.

One day while Kahola was reciting the Vedas, the baby in the womb is said to have corrected his father at 8 places where he had gone wrong, the child was still in the womb. Kahola perceived this as arrogance on the part of the child who is yet to be born, he felt insulted in front of his disciples too, so he cursed the child to be born with 8 deformities for the 8 corrections he pointed out.

The child was to be born soon and there were some financial hassles that had to be taken care of, so Sujata asked Kahola, her husband, to seek the favor of King Janaka. There at the palace the King was in a spot. A Hermit by the name of Bandin/Vandin had defeated all the known scholars and philosophers of the kingdom. And the condition of this hermit was that all who was defeated him should be immersed in water/river. Kahola was easily defeated by Vandin and immersed under water.

Now Sujatha hearing of the news was very upset, but Uddalaka assured his daughter that the child would be brought up like his own son. Around the same time Uddalaka too had a son who was named Swethaketu. Both the kids grew up together in the hermitage. Ashtavakra grew up thinking Uddalaka as his father, neither did Sujata nor did Udalaka tell him otherwise. But one day when he was twelve years old Ashtavakra was sitting onn Uddalaka’s lap when Swethaketu pulled him down and informed him that it was not the lap of his father. Taken aback at this sudden revelation he ran to his mother, his eyes welled in tears and asked her about his father in detail. At his insistence Sujatha narrated the story that happened before his birth and how the Sage had defeated him and how he was immersed in water at his failure. Ashtavakras anger knew no bounds. He was determined to take revenge and late that night along with Swethaketu for company he left for the court of king Janaka to confront the sage Vandin.

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At the gate the gatekeeper was amused at the two children who had come to confront Vandin. When queried, the young Ashtavakra said that intelligence is not measured by the age of the person. This convinced the gatekeeper who let him in. The King took a fancy for this young boy and tried to dissuade him from getting into a confrontation lest he loses to Vandin. But seeing the determination and the knowledge the King gave in to him and let Ashtavakra take on Vandin. The Debate was a unique one, in which each of them was supposed to compose a verse under simple counts. Vandin lost when he could not complete one last verse which the young Ashtavakra composed in ease and so Vandin was finally defeated. The condition of the contest was that if Vandin were to lose he would grant any wish of his vanquisher.

Ashtavakra demanded that he be put through the same fate as his other opponents who were immersed in water/river. At this Vandin revealed that he was the son of Varuna and all the rishis who were immersed in water were safe and they were sent underwater so as to do a Yagna for Lord Varuna. It was also almost time that the yagna got over. At Vandins request his father sent all the sages back to the land. Ashtavakra was very happy to see his father so was Kahola who was extremely pleased with his son. On his return to the Ashrama Kahola asked Ashtavakra to take a dip in the river Samanga, and so his deformities were gone.

It is said that after defeating all the wise men Ashtavakra’s Ego was very high. To humble him Goddess herself is said to have come in form of a lady hermit to humble his ego. She told him that his knowledge was incomplete and asked him to understand the importance of the Grihasthashrama: life of a house holder. And who else better than King Janaka himself who was a true jeevan Muktaa.

Sage Ashtavakras’ name comes in to mention in the epic story of Mahabharata. In the 12 years of exile, the Pandavas come to the hermitage of Sage Lomasa, who take them to the river Samanga: the river in which Ashtravakra had taken a dip and was cured of his deformities. On Yudhishtira’s request, the sage narrates the story of Ashtavakra which forms 3 chapters of the Mahabharata.

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