अविमुक्त क्षेत्र वाराणसी
देवगुरु वृहस्पति ने याज्ञवल्क्य से एक समय पूछा ” सर्व प्रसिद्द कुरुक्षेत्र कहाँ है? वह क्षेत्र जहाँ देवता यजन करते हैं? क्षेत्र जो सभी प्राणियों के लिए ब्रह्म सदन हैं? ” याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया ” हे गुरु ! अविमुक्त वह क्षेत्र है जहाँ देववर्ग यजन करता है, यही कुरुक्षेत्र है जहाँ मृत्यु काल में प्राणियों को रूद्र तारक मंत्र उपदेश करते हैं जिससे मुक्त होकर वह अमरत्व प्राप्त कर लेता है।”
ज्ञातव्य है कि वाराणसी को भी पुराणो में अविमुक्त क्षेत्र कहा गया हैं। पुराणो में यह प्रसिद्ध है मृत्यु को प्राप्त जीवात्माओं को भगवान शिव इसी क्षेत्रमें तारक मंत्र का उपदेश देते हैं जिससे उनको उत्तम गति प्राप्त होती है। याज्ञवल्क्य उपदेश में स्पष्ट करते हैं कि अविमुक्त क्षेत्र अनंत और अव्यक्त आत्मा का सदन है। इसी क्षेत्र में प्राणियों को आत्मउद्धार के लिए उपासना करनी चाहिये। इस क्षेत्र की उपस्थिति समष्टि में काशी और व्यष्टि में मानव देह है।
वाराणसी दो शब्दों से मिलकर बना है – वरणा और नासी । वरणा का अर्थ है सभी इन्द्रियों के दोषो का निवारण करने वाला और नासी का अर्थ है इन्द्रियों द्वारा किये गये पापों का निवारण करने वाला । कहाँ होता है यह ? अविमुक्त क्षेत्र वाराणसी में होता है । व्यष्टि में यह क्षेत्र भ्रूवों के मिलन बिंदु और नासाग्र का मिलान बिंदु के बीच स्थित कहा गया है । इस आकाश को ही योग उपनिषदों में द्यौ कहा गया है जहां देव वर्ग अपना यजन करता है। भ्रुवों और नासाग्र की सन्धि को ही संध्या कहा गया है और इसकी ही उपासना का विधान योग शास्त्र में किया गया है । इस द्यौ लोक में ही रूद्र की यथेष्ट उपासना सम्भव है और यही कर्त्तव्य है ।
ॐ नमस्ते रूद्र मन्यवउतोत इषवे नमः!
बाहुब्यामुतते नमः!!
याते रूद्रशिवा तनूर घोरापाप्काशिनी!
तया नस्तान्वा गिरिशंताभी चाकशीह!
उक्त वर्णित अविमुक्त क्षेत्र में जब रूद्र की शतरुद्रिय
इत्यादि मन्त्रों से उपासना की जाती है तो अमृतत्व की उपलब्धि सहज ही संभव हो जाती है । शतरुद्रिय वे वैदिक मंत्र हैं जो अमृत स्वरूप ही कहे गए हैं । इनका वाचन मनुष्य को मुक्ति प्रदान करता है । भगवदगीता में श्री कृष्ण ने इसी क्षेत्र में अवस्थित हो ध्यान करने उपदेश किया है ।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्न्न चलम् स्थिरम् ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रे स्व दिशश्चानवलोकयन् ॥
काया, शिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ भलीभांति शान्त अन्तःकरण वाला योगी मेरे परायण होकर स्थित होवे । iliयह ध्यान की प्रक्रिया अविमुक्त की उपासना की ही प्रक्रिया है जिसमे भगवान ने आगे कहा है “भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक । स तं पुरुषमुपैती दिव्यं “| कृष्ण ने ध्यान की जो विधि बतलाई वह सनातन विधि है, उपनिषदों में इसी ध्यान विधि का वर्णन है । इसी क्षेत्र में ईश्वर की ज्ञान रूप से अवस्थिति है । गौरतलब है कि योगसूत्र में प्रणव अर्थात ओउम को ईश्वर का वाचक कहा गया है। चन्द्र बिंदु सहित प्रणव सबका समाहार है जिसकी अवस्थिति भ्रूमध्य में बतलाई जाती है जिसे योग में आज्ञाचक्र नाम से जाना जाता है! आज्ञाचक्र में ब्रह्मा और विष्णु दोनों का समाहार है जिसके देवता परमशिव हैं ! इससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि यही अविमुक्त क्षेत्र है चेतनात्मक विकास का क्षेत्र जहां प्रणव रूप रूद्र का निवास है। इस क्षेत्र में ध्यान का फल कर्म बंधन से विमुक्ति है और इसी क्षेत्र प्राण को सम्यक स्थापित कर योगीजन अपनी देह का त्याग करते हैं ।
आध्यात्म अविमुक्त क्षेत्र में अवस्थिति को ही कहा गया है क्योकि इसी क्षेत्र में मन का पूर्ण समाहार होता है ! केनोपनिषद में इस बात को बहुत स्पष्टता से कहा गया है
” अथाध्यात्मं यदेतद् गच्छतीव च मनोSनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णं संकल्पः ”
अर्थात अध्यात्म इस ब्रह्म रूपी प्रणव अर्थात ओउम में मन का पूर्ण समाहार है ! सत्य में नानात्व नहीं है, जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है, जो यहां है वही वहां भी है । नेत्रों की दृष्टि को भृकुटि के बीच स्थित करके तथा नासिका में प्राण और समान को सम करके जिन्होंने मन और बुद्धि को जीत लिया है उन्हें इन्द्रियनिग्रह नहीं करना पड़ता है । इन्द्रिय निग्रह इत्यादि तो वे मुर्ख लोग ही करते हैं जिनकी अपनी बुद्धि अपने वश में नहीं है । अविमुक्त क्षेत्र में अवस्थित होकर आत्मतत्व की उपासना करने वाला शिवत्व को प्राप्त करता है ।
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गंगापुत्र भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था अर्थात उनकी इच्छा के बिना यमराज भी उनके प्राण हरने में असमर्थ थे। वे बड़े पराक्रमी तथा भगवान परशुराम के शिष्य थे। भीष्म पिछले जन्म में कौन थे तथा उन्होंने ऐसा कौन सा पाप किया जिनके कारण उन्हें मृत्यु लोक में रहना पड़ा? इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है।
उसके अनुसार-गंगापुत्र भीष्म पिछले जन्म में द्यौ नामक वसु थे। एक बार जब वे अपनी पत्नी के साथ विहार करते-करते मेरु पर्वत पहुंचे तो वहां ऋषि वसिष्ठ के आश्रम पर सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाली नंदिनी गौ को देखकर उन्होंने अपने भाइयों के साथ उसका अपहरण कर लिया। जब ऋषि वसिष्ठ को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने द्यौ सहित सभी भाइयों को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। जब द्यौ तथा उनके भाइयों को ऋषि के शाप के बारे में पता लगा तो वे नंदिनी को लेकर ऋषि के पास क्षमायाचना करने पहुंचे। ऋषि वसिष्ठ ने अन्य वसुओं को एक वर्ष में मनुष्य योनि से मुक्ति पाने का कहा लेकिन द्यौ को अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए लंबे समय तक मृत्यु लोक में रहने का शाप दिया।
द्यौ ने ही भीष्म के रूप में भरत वंश में जन्म लिया तथा लंबे समय तक धरती पर रहते हुए अपने कर्मों का फल भोगा।
font bahut chota hai. size badhaeye
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