मुख्य मेनू खोलें  खोजें संपादित करेंइस पृष्ठ का ध्यान रखेंकिसी अन्य भाषा में पढ़ें छंद छन्द संस्कृत वांग्मय में सामान्यतः लय को बताने के लिये प्रयोग किया गया है।[1] विशिष्ट अर्थों में छन्द कविता या गीत में वर्णों की संख्या और स्थान से सम्बंधित नियमों को कहते हैं जिनसे काव्य में लय और रंजकता आती है। छोटी-बड़ी ध्वनियां, लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों में, मात्रा बताती हैं और जब किसी काव्य रचना में ये एक व्यवस्था के साथ सामंजस्य प्राप्त करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम दे दिया जाता है और लघु-गुरु मात्राओं के अनुसार वर्णों की यह व्यवस्था एक विशिष्ट नाम वाला छन्द कहलाने लगती है, जैसे चौपाई, दोहा, आर्या, इन्द्र्वज्रा, गायत्री छन्द इत्यादि। इस प्रकार की व्यवस्था में मात्रा अथवा वर्णॊं की संख्या, विराम, गति, लय तथा तुक आदि के नियमों को भी निर्धारित किया गया है जिनका पालन कवि को करना होता है। इस दूसरे अर्थ में यह अंग्रेजी के मीटर[2] अथवा उर्दू फ़ारसी के रुक़न (अराकान) के समकक्ष है। हिन्दी साहित्य में भी परंपरागत रचनाएँ छन्द के इन नियमों का पालन करते हुए रची जाती थीं, यानि किसी न किसी छन्द में होती थीं। विश्व की अन्य भाषाओँ में भी परंपरागत रूप से कविता के लिये छन्द के नियम होते हैं। छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। चूँकि, आचार्य पिङ्गल द्वारा रचित 'छन्दःशास्त्र' सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ है, इस शास्त्र को पिङ्गलशास्त्र भी कहा जाता है।[3] इतिहास संपादित करें प्रचीन काल के ग्रंथों में संस्कृत में कई प्रकार के छन्द मिलते हैं जो वैदिक काल के जितने प्राचीन हैं। वेद के सूक्त भी छन्दबद्ध हैं। पिङ्गल द्वारा रचित छन्दशास्त्र इस विषय का मूल ग्रन्थ है। छन्द की सबसे पहले चर्चा ऋग्वेद में हुई है। यदि गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है। पद्यरचना का समुचित ज्ञान छन्दशास्त्र की जानकारी के बिना नहीं होता। काव्य ओर छन्द के प्रारम्भ में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण’ नहीं आना चाहिए। शब्दार्थ संपादित करें वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है। छन्दस् शब्द 'छद' धातु से बना है। इसका धातुगत व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है - 'जो अपनी इच्छा से चलता है'। इसी मूल से स्वच्छंद जैसे शब्द आए हैं। अत: छंद शब्द के मूल में गति का भाव है। किसी वाङमय की समग्र सामग्री का नाम साहित्य है। संसार में जितना साहित्य मिलता है ’ ऋग्वेद ’ उनमें प्राचीनतम है। ऋग्वेद की रचना छंदोबद्ध ही है। यह इस बात का प्रमाण है कि उस समय भी कला व विशेष कथन हेतु छंदो का प्रयोग होता था।छंद को पद्य रचना का मापदंड कहा जा सकता है। बिना कठिन साधना के कविता में छंद योजना को साकार नहीं किया जा सकता। छंद के अंग संपादित करें छंद के निम्नलिखित अंग होते हैं - गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं। यति - पद्य पाठ करते समय गति को तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं। तुक - समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः तुकान्त होते हैं। मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा २ प्रकार की होती है लघु और गुरु। ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा लघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है। लघु मात्रा का मान १ होता है और उसे। चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। इसी प्रकार गुरु मात्रा का मान मान २ होता है और उसे ऽ चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है। गण - मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह को एक गण मान लिया जाता है। गणों की संख्या ८ है - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ), तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।), भगण (ऽ।।), नगण (।।।) और सगण (।।ऽ)। गणों को आसानी से याद करने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा। सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ छन्दशास्त्र के दग्धाक्षर हैं। जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)। ‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता है मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं। । ऽ ऽ ऽ । ऽ । । । ऽ य मा ता रा ज भा न स ल गा गण चिह्न उदाहरण प्रभाव यगण (य) ।ऽऽ नहाना शुभ् मगण (मा) ऽऽऽ आजादी शुभ् तगण (ता) ऽऽ। चालाक अशुभ् रगण (रा) ऽ।ऽ पालना अशुभ् जगण (ज) ।ऽ। करील अशुभ् भगण (भा) ऽ।। बादल शुभ् नगण (न) ।।। कमल शुभ् सगण (स) ।।ऽ कमला अशुभ छंद के प्रकार संपादित करें मात्रिक छंद ː जिन छंदों में मात्राओं की संख्या निश्चित होती है उन्हें मात्रिक छंद कहा जाता है। जैसे - दोहा, रोला, सोरठा, चौपाई वार्णिक छंद ː वर्णों की गणना पर आधारित छंद वार्णिक छंद कहलाते हैं। जैसे - घनाक्षरी, दण्डक वर्णवृत ː सम छंद को वृत कहते हैं। इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है। जैसे - द्रुतविलंबित, मालिनी मुक्त छंदː भक्तिकाल तक मुक्त छंद का अस्तित्व नहीं था, यह आधुनिक युग की देन है। इसके प्रणेता सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' माने जाते हैं। मुक्त छंद नियमबद्ध नहीं होते, केवल स्वछंद गति और भावपूर्ण यति ही मुक्त छंद की विशेषता हैं। मुक्त छंद का उदाहरण - वह आता दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता। पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी-भर दाने को, भूख मिटाने को, मुँह फटी-पुरानी झोली का फैलाता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता। काव्य में छंद का महत्त्व संपादित करें छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है। छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं। छंद में स्थायित्व होता है। छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं। छंद के निश्चित आधार पर आधारित होने के कारण वे सुगमतापूर्वक कण्ठस्त हो जाते हैं। उदाहरण - भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै। अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै। तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै। सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥ अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो बाघम्बर था, वह (अमृत बूंद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र - बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है। छंदों के कुछ प्रकार संपादित करें दोहा संपादित करें दोहा मात्रिक छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) चरण में 13-13 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण - मुरली वाले मोहना, मुरली नेक बजाय। तेरो मुरली मन हरो, घर अँगना न सुहाय॥ रात-दिवस, पूनम-अमा, सुख-दुःख, छाया-धूप। यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप॥ रोला संपादित करें रोला मात्रिक सम छंद होता है। इसके विषम चरणों में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण - यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै। पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥ सोरठा संपादित करें सोरठा मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण - जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन। करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥ चौपाई संपादित करें चौपाई मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण - बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुराग॥ अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥ कुण्डलिया संपादित करें कुण्डलिया विषम मात्रिक छंद है। इसमें छः चरण होते हैं अौर प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। उदाहरण - कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम। खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥ उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै। बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥ कह 'गिरिधर कविराय', मिलत है थोरे दमरी। सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥ रत्नाकर सबके लिए, होता एक समान। बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान॥ सीप चुने नादान,अज्ञ मूंगे पर मरता। जिसकी जैसी चाह,इकट्ठा वैसा करता। 'ठकुरेला' कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर। हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर॥ इन्हें भी देखें संपादित करें भारतीय छन्दशास्त्र वैदिक छंद सन्दर्भ संपादित करें ↑ Mukherjee, Sujit (अंग्रेज़ी में) (गूगल पुस्तक). A Dictionary of Indian Literature: Beginnings-1850. https://books.google.co.in/books?id=YCJrUfVtZxoC&lpg=PA76&dq=chhand%20sanskrit&pg=PA76#v=onepage&q=chhand%20sanskrit&f=false. ↑ Mukherjee, Sujit (अंग्रेज़ी में) (गूगल पुस्तक). A Dictionary of Indian Literature: Beginnings-1850. https://books.google.co.in/books?id=YCJrUfVtZxoC&lpg=PA76&dq=chhand%20sanskrit&pg=PA76#v=onepage&q=chhand%20sanskrit&f=false. ↑ www.anubhuti-hindi.org/kavyacharcha/Chhand.htm बाहरी कड़ियाँ संपादित करें हिन्दी छन्दोलक्षण (गूगल पुस्तक ; लेखक - नारायण दास) संस्कृत छन्द छन्द रचना (सुसंस्कृतम्) World’s oldest Combinatoric Formula : यमाताराजभानसलगं कहानी दो अंकों की - 'यमाताराजभानसलगा' का गणितीय विवेचन (वन्देमातरम्) Appendix II of Griffith's translation, a listing of the names of various Vedic meters, with notes. Metrically Restored Text of the Rigveda RELATED PAGES दोहा भारतीय छन्दशास्त्र सोरठा Last edited 1 month ago by an anonymous user  सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप
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