Saturday, 9 December 2017

उपनयन संस्कार

रुहेलखण्ड Rohilkhand उपनयन संस्कार इस संस्कार में आचार्य शिष्य से कहता है कि -'तू ईश्वर का ब्रह्मचारी है। वस्तुतः ईश्वर ही तेरा आचार्य है। मैं तो उसकी ओर से तेरा आचार्य हूँ।' इस का यह अर्थ है कि आचार्य कहता है कि ईश्वर कृपा से जो ज्ञान मैंने प्राप्त किया है, वही मैं तुझे दूंगा। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है - बालक की शिक्षा पर उसके भावी जीवन का अच्छा या बुरा होना निर्भर था। उसके भावी जीवन पर ही समाज की उन्नति या अवनति निर्भर थी। गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष की क्षत्रिय का ग्यारह वर्ष की और वैश्य का बारह वर्ष की अवस्था में किया जाता था। तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का पाँच, बलवान क्षत्रिय का छः और कृषि आदि करने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की अवस्था में भी यह संस्कार किया जा सकता था। अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं जाता था। अधिकतम निर्धारण आयु तक जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं होता था, उन्हें व्रात्य कहा जाता था और शिष्ट समाज में उनको निंदनीय समझा जाता था। मनु ने ब्राह्मण बालक के लिए चौबीस वर्ष लिखी है। तीनों वणाç के बालकों की अवस्थाओं में अंतर का कारण यह प्रतीत होता है कि ब्राह्मण बालक के घर में सदा ही पढ़ने- पढ़ाने का वातावरण रहता था। क्षत्रिय के परिवार में इससे कुछ कम और वैश्य के परिवार में उससे भी कम। ब्राह्मण को वैसे भी क्षत्रिय और वैश्य की अपेक्षा अध्ययन में कम समय लगाना पड़ता था। गृह्यसूत्रों और स्मृतियों में उपनयन संस्कार का पूरा विवरण मिलता है। इस समय बालक एक मेखला धारण करता था, जो तीनों वणाç के लिए अलग- अलग निर्धारित की गई थीं। ब्राह्मण बालक मूंज की, क्षत्रिय धनुष की डोरी की और वैश्य ऊन के धागे की कोंधनी धारण करता था। उनके डंडे भी अलग- अलग लकड़ियों के होते थे। ब्राह्मण ढाक या बेल का, क्षत्रिय बरगद का और वैश्य उदुंबर का डंडा धारण करता था। वह यज्ञोपवीत भी धारण करता था। आचार्य इसके बाद बालक से पूछता था कि क्या वह वास्तव में अध्ययन करने का इच्छुक है और ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा करता है। बालक के इन दोनों बातों का पूर्ण आश्वासन देने पर ही आचार्य उसे अपना शिष्य बनाता था और कहता था कि तू आज से मेरे कहने के ही अनुसार कार्य करेगा। इसके बाद आचार्य गायत्री मंत्र का अर्थ शिष्य को समझाता था। इस संस्कार के बाद बालक "द्विज' कहलाता था, क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता था। इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्य को भली- भांति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें। इसके बाद बालक भिक्षा माँगता था, जिससे कि उसमें अहम्यन्यता न रहे। भिक्षा में प्राप्त भोजन वह गुरु को देता था और गुरु के भोजन कर लेने के बाद उसमें से जो भोजन शेष बचता था, उसे वह स्वयं खाता था। उपनयन संस्कार की पृष्ठभूमि :- "उपनयन' वैदिक परंपरा की अनुयायी आर्य संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार था। यह एक प्रकार का शुद्धिकरण ( संस्करण ) था, जिसे करने से वैदिक वर्णव्यवस्था में व्यक्ति द्विजत्व को प्राप्त होता था ( जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते ),अर्थात् वह वेदाध्ययन का अधिकारी हो जाता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ होता है "नैकट्य प्रदान करना', क्योंकि इसके द्वारा वेदाध्ययन का इच्छुक व्यक्ति वेद- शास्रों में पारंगत गुरु/ आचार्य की शरण में जाकर एक विशेष अनुष्ठान के माध्यम से वेदाध्ययन की दीक्षा प्राप्त करता था, अर्थात् वेदाध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी को गुरु अपने संरक्षण में लेकर एक विशिष्ट अनुष्ठान के द्वारा उसके शारीरिक एवं जन्म- जन्मांतर दोषों/ कुसंस्कारों का परिमार्जन कर उसमें वेदाध्ययन के लिए आवश्यक गुणों का आधार करता था, उसे एतदर्थ आवश्यक नियमों ( व्रतों ) की शिक्षा प्रदान करता था, इसलिए इस संस्कार को "व्रतबन्ध' भी कहा जाता था। फलतः अपने विद्यार्जन काल में उसे एक नियमबद्ध रुप में त्याग, तपस्या और कठिन अध्यवसाय का जीवन बिताना पड़ता था तथा श्रुतिपरंपरा से वैदिक विद्या में निष्णात होने पर समावर्तन संस्कार के उपरांत अपने भावी जीवन के लिए दिशा- निर्देश ( दीक्षा ) लेकर ही अपने घर आता था। उत्तरवर्ती कालों में यद्यपि वैदिक शिक्षा- पद्धति की परंपरा के विच्छिन्न हो जाने से यह एक परंपरा का अनुपालन मात्र रह गया है, किंतु पुरातन काल में इसका एक विशेष महत्व था। उपनयन की अनिवार्यता :- इस संदर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि आप० गृ० सू० ( 1/1/1/19 ) के अनुसार संस्कार केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, जो कि गुरुजनों के आश्रम में जाकर उनके सान्निध्य में रहकर ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए गुरुमुख से वैदिक विद्याओं को प्राप्त करना चाहते थे। इसमें प्रत्येक वैदिक शाखा के अध्ययन के लिए उपनयन का पृथक्- पृथक् विधान हुआ करता था। अतः उपनयन उन लोगों के लिए अनिवार्य नहीं था, जो कि गुरुओं के आश्रमों में जाकर उनके नैकट्य में रहते हुए वेदाध्ययन के इच्छुक नहीं होते थे। उपनयन के इस पक्ष का संकेत उस आख्यान से मिलता है, जिसमें कि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को यह परामर्श देते हैं कि उसे ब्रह्मचर्य ( विद्यार्थी ) का व्रत धारण करना चाहिए, क्योंकि उसके परिवार के सदस्यों ने जन्म के आधार पर ब्राह्मणत्व ( द्विजत्व ) का दावा नहीं किया है ( छांदोग्य० उप० 6.1.9 )। अतः वैदिक परंपरा में दीक्षित होने, स्वशाखीय वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरु/ आचार्य के सान्निध्य में रहना तथा वहाँ रहते हुए अध्ययन के साथ- साथ विभिन्न व्रतों का सम्यक् रुप से पालन करना, नित्य प्रातः सायं संध्या- हवन करना, भिक्षाचरण के द्वारा अपना तथा गुरु का पोषण करना एवं वैदिक विद्याओं में पारंगत होने पर गुरु से अंतिम दीक्षा लेकर वापस आना ही, उपनयन संस्कार का प्रमुख लक्ष्य था। ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त "अंतेवासी' एवं "ब्रह्मचारी' के विवरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में "उपनयन' अर्थात् विद्याध्ययनार्थ गुरु के पास जाने का आनुष्ठानिक कृत्य पर्याप्त सरल था। विद्याध्ययन का इच्छुक ब्रह्मचारी ( शिक्षार्थी ) हाथ में समिधा, काष्ठ लेकर गुरु के आश्रम में जाता था और उनका शिष्य ( ब्रह्मचारी ) बनकर शिक्षा प्राप्त करने की आकांक्षा व्यक्त करता था। गुरु उसके संबंध में गोत्रादि की जानकारी लेकर उसे शिष्यत्व के लिए स्वीकार कर लेता था। शतपथ ब्राह्मण ( 11/4/5 ) में इसका जो रुप प्राप्त होता है, वह कुछ इस प्रकार है - बालक आचार्य के पास जाकर कहता है "मैं ब्रह्मचर्य के लिए आया हूँ' मुझे ब्रहृमचारी हो जाने दीजिए।' इस पर गुरु पूछते हैं - "तुम्हारा नाम क्या है ?' (नाम जानने के उपरांत ) गुरु उसे अपने पास ले लेते हैं (उपनयति) और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहते हैं - "तुम इंद्र के ब्रह्मचारी हो, अग्नि तुम्हारे गुरु हैं, मैं तुम्हारा गुरु हूँ।' ( गुरु उसका नाम लेकर संबोधित करता है )। गुरु शिक्षा देता है "जल पिओ, काम करो ( अभिप्रेत है गुरु का ) , अग्नि में समिधाएँ डालो,( दिन में ) मत सोओ।' तब वह उसे "सावित्री' का मंत्र देता था। उपनिषद् काल में भी उपनयन संस्कार इतना ही सरल था, इसके उदाहरण पुरातनतम उपनिषदों - छांदोग्य एवं वृहदारण्यक में पाये जाते हैं। छांदोग्य के एक संदर्भ ( 5/11/7 ) में आता है कि जब औपमन्यव तथा अन्य चार विद्यार्थी अपने हाथों में समिधाएँ लेकर अश्वपति केकय के पास पहुँचे, तो वे उनसे बिना उपनयन की क्रियाएँ किये ही बात करने लगे। जब सत्यकाम जाबाल ने अपने गोत्र का वास्तविक परिचय दिया, तो गौतम हारिद्रुत ने कहा - हे प्रिय बालक जाओ समिधाएँ ले आओ, मैं तुम्हें दीक्षित कर्रूँगा। तुम सत्य पर स्थिर रहे। (छान्दोग्य 4/4/5 )। उद्दालक आरुणि ने जो स्वयं ब्रह्मचारी एवं उद्भट विद्वान थे, अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मचारी के रुप में विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास भेजा था, ( छान्दोग्य० 6/1/1/1- 2 )। आयु निर्धारण :- उपनयन संबंधी आयु निर्धारण के संबंध में यद्यपि वैदिक संहिताओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता, किंतु गृह्यसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में इसका स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। तदनुसार वर्णभेद से ब्राह्मण बटुक का उपनयन आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का ग्यारवें वर्ष में तथा वैश्य का बारहवें वर्ष में किया जाना चाहिए। पर साथ ही पार० गृ० सू० "यथा मंगलं वा सर्वेषाम्' की व्यवस्था भी देता है। उधर अभिप्राय विशेष के आधार पर मनु इसे क्रमशः पांच, छः तथा आठ वर्ष में किये जाने की व्यवस्था भी देते हैं। आश्व० के अनुसार यह क्रमशः 16, 22, 24 वर्ष तक भी हो सकता है जैसा कि ऊपर कहा गया है। वैदिक साहित्य में उपनयन का सर्वप्रथम उल्लेख श० ब्रा० (11.5.4 ) में पाया जाता है। प्रारम्भ में इसका स्वरुप अति संक्षिप्त एवं सरल था। शिक्षार्थी हाथ में कुश एवं समिधाएं लेकर आचार्य के पास जाता था तथा प्रणाम पूर्वक अपने कुल तथा गोत्र का परिचय देकर उनसे अपना शिष्य स्वीकार करने के लिए विनम्र अनुरोध करता था। उसके परिचय तथा उपयुक्त पात्रता से सन्तुष्ट होकर आचार्य उसे अपना शिष्य स्वीकार कर, अपने सान्निध्य में रखने तथा वैदिक ज्ञान में दीक्षित करने का आश्वासन देकर उसे अपने पास रख लेता था, तथा वैदिक विद्याओं में पारंगत होने पर उसका समावर्तन संस्कार करके गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने के लिए यथावश्यक दीक्षा देकर उसे अपने घर वापस भेज देता था। उपनयन का बदलता स्वरुप किन्तु अथर्व० एवं ब्राह्मणकाल तक आते-आते इसमें कतिपय अन्य अनुष्ठानों का समावेश हो गया, जो कि गृह्यसूत्र काल में आकर और अधिक जटिल हो गया तथा इसमें अनेक कर्मकाण्डीय अनुष्ठानों का समावेश हो गया, जो कि उत्तरवर्ती कालों में बढ़ता गया एवं स्मृतिका में आकर तो वर्णव्यवस्था के अधीन इसे सभी वणाç तथा व्यक्तियों के लिए एक अनिवार्य द्विजातीय संस्कार का रुप दे दिया गया। फलतः यह एक विशिष्ट शिक्षासंस्कार के स्थान पर द्विजत्व प्राप्ति का एक सर्वसामान्य संस्कार बन कर रह गया तथा इसके सम्पादन में मूल संस्कार का नाट्याभिनय प्रारम्भ हो गया। इतना ही नहीं विवाह संस्कार से पूर्व इसकी अनिवार्यता घोषित कर दिये जाने से उन सभी लोगों का उपनयन संस्कार किया जाने लगा, जिनका शिक्षा के साथ दूर का भी सम्बन्ध नहीं हो सकता था, अर्थात् अन्ध, बहिर, कुब्ज, वामन, षंढ (नपुंसक) आदि सभी का उपनयन किया जाने लगा, तथा इसके साथ यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करने का विधान भी कर दिया गया, या यों कहें कि यज्ञोपवीत धारण करना ही इसका मुख्य अनुष्ठान हो जाने से यज्ञोपवीत संस्कार तथा उपनयन संस्कार दोनों परस्पर पर्यायवाची हो गये। उल्लेख्य है कि गृह्यसूत्रों में उपनयन संस्कार के साथ अथवा अन्य किसी स्वतंत्र संस्कार के रुप में यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उपवीत सूत्र धारण करने का कहीं कोई उल्लेख या विवरण प्राप्त नहीं होता है। वस्तुतः इसके नाम, यज्ञोपवीत, से ही व्यक्त है कि इसका सम्बन्ध यज्ञ में यजमान के द्वारा धारण किये जाने वाले उत्तरीय से था, जो कि गोभिल के अनुसार सूत्र, वस्र या कुशरज्जु कुछ भी हो सकता था। कुश के यज्ञोपवीत (यज्ञोत्तरीय) के सम्बंध में देवल का कहना है कि इसे वस्र के अभाव में धारण किया जा सकता है। आप० घ० सू० (2/2/4/22-23 ) का भी कहना है कि यज्ञ कार्य उत्तरीय के साथ किया जाना चाहिए। उसके अभाव में केवल सूत्र से भी काम चलाया जा सकता है। किन्तु आधुनिक युग तक आते-आते उपनयन संस्कार का रुप इतना बदल गया कि जनेऊ धारण करना ही उपनयन हो गया। इससे सम्बद्ध वैदिक अनुष्ठान बिल्कुल पीछे छूट गये और यह एक परम्परा का अनुपालन मात्र बन कर रह गया। यहां तक कि आधुनिक काल में लोग बिना किसी अनुष्ठान के हरिद्वार आदि तीर्थ स्थलों में जाकर गंगा स्नान करके एक बाजारु यज्ञोपवीत (जनेऊ) खरीदकर गले में डाल लेते हैं और इससे ही समझ लिया जाता है कि उसका उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो गया तथा इस संस्कार की अनिवार्यता में आस्था रखने वाले कुछ लोग विवाह के दिन पूर्वांग पूजा के साथ इसकी कतिपय आनुष्ठानिक औपचारिकताओं को संक्षिप्त रुप से पूरा करके यज्ञोपवीत को धारण कर इससे निवृत्त हो जाते हैं। जहां इसे एक पृथक् संस्कार के रुप में सम्पन्न किया जाता है वहां भी उपनयन एक नाटकीय प्रदर्शन ही होता है। विहाह से पूर्व यज्ञोपवीत आनुष्ठानिक विस्तार : - इसके ऐतिहासिक विकास क्रम की उपर्युक्त पृष्ठभूमि में अब इसके आनुष्ठानिक विकास के स्वरुप पर भी किंचित विचार कर लेना अनुचित न होगा। इसका सर्वप्रथम विवरण हमें पार० गृ० सू० में देखने का मिलता है। तदनुसार बटुक का पिता उसे लेकर आचार्य के पास जाता था तथा बटुक आचार्य के पास जाकर विनीत भाव से कहता था, "मैं आपका ब्रह्मचारी हूं' अर्थात् मैं आपका शिष्य बनना चाहता हँ। गुरु वैदिक मंत्र के साथ उसे नवीन वस्र धारण कराता था। तदनन्तर उसकी कटि में मेखला बन्धन करता था। फिर यज्ञोपवीत, अजिन व दण्ड प्रदान करता था और बटुक उसे स्वीकार कर धारण करता था। इसे अनन्तर अपनी अंजलि में जल लेकर उसकी अंजलि में डालता था। फिर सूर्य का दर्शन करा कर उसके दाहिने कन्धे के ऊपर से हाथ ले जाकर उसके हृदय देश का स्पर्श (हृदयालभन) करता था। इसके बाद उसका दाहिना हाथ पकड़ कर पूछता था "तुम्हारा क्या नाम है ? वह अपना नाम लेकर कहता था, मैं अमुक ( नामोच्चार करके ) नाम वाला हूँ'। यह आचार्य पुनः प्रश्न करता था "तुम किसके ब्रह्मचारी ( शिष्य ) हो ? 'इस पर वह उत्तर देता था, "आपका ब्रह्मचारी हूँ।' इस पर वह कहता था - "हे बेटा ! तुम इन्द्र परमैश्वर्य संपन्न के ब्रह्मचारी हो,तुम्हारा प्रथम आचार्य अग्नि है, दूसरा आचार्य मैं हूँ।' मैं तुम्हें प्रजापति, सकवता, औषधि, द्यावापृथिवी, विश्वेदेवा एवं सम्पूर्ण भूतों के लिए रक्षार्थ समर्पित करता हूँ।'' इसके साथ ही उपनयन संस्कार का अनुष्ठान पूरा हो जाता था   | विषय सूची | Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey Copyright IGNCA© 2004 सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।

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