Friday, 8 December 2017

यज्ञोपवीत संस्कार विवेचन

लेखक प्रकाशक English ISBN,शीर्षक, लेखक या कीवर्ड खोजें MENU आचार्य श्रीराम शर्मा यज्ञोपवीत संस्कार विवेचन श्रीराम शर्मा आचार्य मूल्य:$ 1.95 प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश यज्ञोपवीत संस्कार विवेचन शिखा और सूत्र यह दो हिन्दू धर्म के सर्वमान्य प्रतीक है। सुन्नत होने से किसी को मुसलमान ठहराया जा सकता है, सिख धर्मानुयायी पंच-केशों के द्वारा अपनी धार्मिक मान्यता प्रकट करते हैं। पुलिस, फौज, जहाज और रेल आदि विभागों के कर्मचारी अपनी पोशाक से पहचाने जाते हैं। इसी प्रकार हिन्दू धर्मानुयायी अपने इन दो प्रतीकों को अपनी धार्मिक निष्ठा को प्रकट करते हैं। शिखा का महत्त्व कानट्रेक्ट में लिखेंगे, यह यज्ञोपवीत की ही विवेचना की जा रही है। उपयोगिता और आवश्यकता यज्ञोपवीत के धागों में नीति का सारा सार सन्निहित कर दिया गया है। जैसे कागज और स्याही के सहारे किसी नगण्य से पत्र या तुच्छ-सी लगने वाली पुस्तक में अत्यन्त महत्वपूर्ण ज्ञान-विज्ञान भर दिया जाती है, उसी प्रकार सूत के इन नौ धागों में जीवन विकास का सारा मार्गदर्शन समाविष्ट कर दिया गया है। इन धागों को कन्धों पर, हृदय पर, कलेजे पर, पीठ पर प्रतिष्ठापित करने का प्रयोजन यह है कि सन्निहित शिक्षाओं का यज्ञोपवीत के ये धागे हर समय स्मरण करायें और उन्हीं के आधार पर हम अपनी रीति-नीति का निर्धारण करते रहें। जन्म से मनुष्य भी एक प्रकार का पशु ही है। उसमें स्वार्थपरता की प्रवृत्ति अन्य जीव-जन्तुओं जैसी ही होती है, पर उत्कृष्ट आदर्शवादी मान्यताओं द्वारा वह मनुष्य बनता है। जब मानव की आस्था यह बन जाती है कि उसे इंसान की तरह ऊँचा जीवन जीना है और उसी आधार पर वह अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करता है, तभी कहा जाता है कि इसने पशु-योनि छोड़कर मनुष्य योनि में प्रवेश किया अन्यथा नर-पशु से तो यह संसार भरा ही पड़ा है। स्वार्थ संकीर्णता से निकल कर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। शरीर-जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से वैसा ही होता है जैसा अन्य जीवों का। आदर्शवाद जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा लेना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है-दूसरा जन्म। हर हिन्दू धर्मानुयायी को आदर्शवादी जीवन जीना चाहिए, द्विज बनना चाहिए। इस मूल तत्व को अपनाने की प्रक्रिया को समारोहपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार के नाम से सम्पन्न किया जाता है। इस व्रत-बंधन को आजीवन स्मरण रखने और व्यवहार में लाने की प्रतिज्ञा तीन लड़ों वाले यज्ञोपवीत की उपेक्षा करने का अर्थ है- जीवन जीने की प्रतिज्ञा से इनकार करना। ऐसे लोगों का किसी जमाने में सामाजिक बहिष्कार किया जाता था, उन्हें लोग छूते तक भी नहीं थे, अपने पास नहीं बिठाते थे। इस सामाजिक दण्ड का प्रयोजन यही था कि वे प्रताड़ना-दबाव में आकर पुन: मानवीय आदर्शों पर चलने की प्रतिज्ञा-यज्ञोपवीत धारण को स्वीकार करें। आज जो अन्त्यज, चाण्डाल आदि दीखते हैं, वे किसी समय के ऐसे ही बहिष्कृत व्यक्ति रहे होंगे। दुर्भाग्य से उनका दण्ड कितनी ही पीड़ियाँ बीत जाने पर भी उनकी सन्तान को झेलना पड़ रहा है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिन्हें यज्ञोपवीत धारी बनाने के लिए कोई दण्ड व्यवस्था की गई थी, उनकी सन्तानें अब यदि यज्ञोपवीत पहनने को इच्छुक एवं आतुर हैं, तो उन्हें वैसा करने से रोका जाता है। शास्त्रों के अभिवचन यज्ञोपवीत द्विजत्व का चिन्ह है। कहा भी है- मातुरग्रेऽधिजननम् द्वितीयम् मौञ्जि बन्धनम्। अर्थात्-पहला जन्म माता के उदर से और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है। आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणम् कृणुते गर्भमन्त:। त रात्रीस्तिस्र उदरे विभत्ति तं जातंद्रष्टुमभि संयन्ति देवा:।। अथर्व 11/3/5/3 अर्थात्-गर्भ में रहकर माता और पिता के संबंध से मनुष्य का पहला जन्म होता है। दूसरा जन्म विद्या रूपी माता और आचार्य रूप पिता द्वारा गुरुकुल में उपनयन और विद्याभ्यास द्वारा होता है। ‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में लिखा है कि यज्ञोपवीत के नौ धागों में नौ देवता निवास करते हैं। (1) ओउमकार (2) अग्नि (3) अनन्त (4) चन्द्र (5) पितृ (6) प्रजापति (7) वायु (8) सूर्य (9) सब देवताओं का समूह। वेद मंत्रों से अभिमंत्रित एवं संस्कारपूर्वक कराये यज्ञोपवीत में 9 शक्तियों का निवास होता है। जिस शरीर पर ऐसी समस्त देवों की सम्मिलित प्रतिमा की स्थापना है, उस शरीर रूपी देवालय को परम श्रेय साधना ही समझना चाहिए। ‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में यज्ञोपवीत के संबंध में एक और महत्वपूर्ण उल्लेख है- ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणी कृतम्। कृतो ग्रन्थिस्त्रनेत्रेण गायत्र्याचाभि मन्त्रितम्।। अर्थात्-ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन धागे का सूत्र बनाया। विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों काण्डों से तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसे ब्रह्म गाँठ लगा दी। इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियों समेत बनकर तैयार हुआ। यज्ञोपवीत के लाभों का वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है- येनेन्द्राय वृहस्पतिवृर्व्यस्त: पर्यद धाद मृतं नेनत्वा। परिदधाम्यायुष्ये दीर्घायुत्वाय वलायि वर्चसे।। पारस्कर गृह सूत्र 2/2/7 ‘‘जिस प्रकार इन्द्र को वृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और सम्पत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत पहना जाय।’’ देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तत्रपृषयस्तपसे ये निषेदु:। भीमा जन्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधति परमे व्योमन्।। ऋग्वेद 10/101/4 अर्थात-तपस्वी ऋषि और देवतागणों ने कहा कि यज्ञोपवीत की शक्ति महान है। यह शक्ति शुद्ध चरित्र और कठिन कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देती है। इस यज्ञोपवीत को धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पहुँच जाते हैं। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।। -ब्रह्मोपनिषद् अर्थात- यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है। यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बन्धनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है। त्रिरस्यता परमा सन्ति सत्या स्यार्हा देवस्य जनि मान्यग्ने:। अनन्ते अन्त: परिवीत आगाच्छुचि: शुक्रो अर्थो रोरुचान:।। -4/1/7 अर्थात- इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्षण है। 1. सत्य व्यवहार की आकांक्षा 2. अग्नि जैसी तेजस्विता 3. दिव्य गुणों से युक्त प्रसन्नता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है। नौ धागों में नौ गुणों के प्रतीक हैं। 1.    अहिंसा 2.    सत्य 3.    अस्तेय 4.    तितिक्षा 5.    अपरिग्रह 6.    संयम 7.    आस्तिकता 8.    शान्ति 9.    पवित्रता। 1.    हृदय से प्रेम 2.    वाणी में माधुर्य 3.    व्यवहार में सरलता 4.    नारी मात्र में मातृत्व की भावना 5.    कर्म में कला और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति 6.    सबके प्रति उदारता और सेवा भावना 7.    गुरुजनों का सम्मान एवं अनुशासन 8.    सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं सत्संग 9.    स्वच्छता, व्यवस्था और निरालस्यता का स्वभाव। यह भी नौ गुण बताये गये हैं। अभिनव संस्कार पद्धति में श्लोक भी दिये गये हैं। यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है-नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को अपने कन्धों पर परम पवित्र उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करते रहना। अपनी गतिविधियों का सारा ढाँचा इस आदर्शवादिता के अनुरुप ही खड़ा करना। इस उत्तरदायित्व के अनुभव करते रहने की प्रेरणा का यह प्रतीक सत्र धारण किये रहने प्रत्येक हिन्दू का आवश्यक धर्म-कर्तव्य माना गया है। इस लक्ष्य से अवगत कराने के लिए समारोहपूर्वक उपनयन किया जाता है। विधि व्यवस्था बालक जब थोड़ा सदाचार हो जाय और यज्ञोपवीत के आदर्शों को समझने एवं नियमों को पालने योग्य हो जाय तो उसका उपनयन संस्कार कराना चाहिए। साधारणतया 12 से 13 वर्ष की आयु इसके लिए ठीक है। जिनका तब तक न हुआ हो तो वे कभी भी करा सकते हैं। जिन महिलाओं की गोदी में छोटे बच्चे नहीं वे भी उसे धारण कर सकती है। जो पहने उन्हें 1.    मल-मूत्र त्यागते समय जनेऊ को कान पर चढ़ाना 2.    गायत्री की प्रतिमा यज्ञोपवीत की पूजा प्रतिष्ठा के लिए एक माला (108 बार) गायत्री मंत्र का नित्य जप करना, 3.    कण्ठ से बिना बाहर निकाले ही साबुन आदि से उसे धोना, 4.    एक भी लड़ टूट जाने पर उसे निकाल कर दूसरा पहनना, 5.    घर में जन्म-मरण, सूतक, हो जाने या छ: महीने बीत जाने पर पुराना जनेऊ हटाकर नया पहनना, 6.    चाबी आदि कोई वस्तु उसमें न बाँधना-इन नियमों का पालन करना चाहिए। प्रकाशक: युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष:2005 आईएसबीएन : 0000 पृष्ठ : 24 मुखपृष्ठ : पेपरबैक To give your reviews on this book, Please Login मुख पृष्ठ   |   खोजें   |   परिचय   |   समाचार   |   संपर्क करें   |   मेरी पसंद   |   Terms of Service Copyright © 2004 Pustak.org. 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