[18/12/2017, 2:51 PM] VedantS: Mind Positive = Life positive
Shiv Yog Sanatan: FOR SHIV YOGIS, EVERY DAY AUSPICIOUS, EVERY MOMENT RIGHT FOR MEDITATION, EVERY DIRECTION POSITIVE FOR MEDITATION
Shiv Yog Guru says: "Meditate anytime, meditate anywhere (even moving car or aeroplane) meditate every day, meditate in any direction, every day auspicious, inner self the best place to meditate"
[19/12/2017, 3:18 PM] VedantS: दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातु:स्पर्शश्चेत्तत्र कल्प्य:स नियति यदहो स्वर्णातामश्मसारम्।
नो स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरणयुगे सदगुरु:स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं दधाति क्षितिनिरुपमस्तेन वाऽलौकिकोऽपि।।
[31/12/2017, 9:18 AM] VedantS: नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥1॥
मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥1॥
Now I tell you the nine forms of Devotion; please listen attentively and cherish them in your mind. The first in order is fellowship with the saints and the second is marked by a fondness for My stories.
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥2॥
तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥2॥
Humble service of the lotus feet of ones preceptor is the third form of Devotion, while the fourth type of Devotion consists in singing My praises with a guileless purpose.
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥3॥
मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥3॥
Muttering My Name with unwavering faith constitutes the fifth form of adoration revealed in the Vedas. The sixth variety consists in the practice of self-control and virtue, desisting from manifold activities and ever pursuing the course of conduct prescribed for saints.
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥4॥
सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥4॥
He who practices the seventh type sees the world full of Me without distinction and reckons the saints as even greater than Myself. He who cultivates the eighth type of Devotion remains contented with whatever he gets and never thinks of detecting others' faults.
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥5॥
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥5॥
The ninth form of Devotion demands that one should be guileless and straight in one?s dealings with everybody, and should in his heart cherish implicit faith in Me without either exultation or depression. Whoever possesses any one of these nine forms of Devotion, be he man or woman or any other creature, sentient or insentient.
[31/12/2017, 10:58 AM] VedantS: *योगाचे प्रकार*
अष्टांग योगामध्ये योगाचे विविध प्रकार सांगितले आहेत. मात्र काही योग प्रकारांचा आरोग्य, साधना किंवा मोक्ष प्राप्त करण्यासाठीही केला जाऊ शकतो. योगाचे सहा प्रकार मानले जातात.
१)राजयोग २) हठयोग ३) लययोग ४) ज्ञानयोग ५) कर्मयोग व ६) भक्तियोग. ज्या क्रमाने त्यांना योगशास्त्रात लिहिण्यात आले आहे, त्या क्रमाने त्यांना दर्जा व महत्व प्राप्त झाले आहे.
१)राजयोग-यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधी, हे पतंजली राजयोगाचे आठ अंग आहेत. त्यांना अष्टांग योग ही म्हटले जाते.
२)हठयोग -षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान व समाधी, हे हठयोगाचे सात अंग आहेत. मात्र हठयोगीचा जोर आसन किंवा कुंडलिनी जागृतीसाठी आसन, बंध, मुद्रा व प्राणायमावर अधिक असतो. यालाच क्रियायोग म्हटले जाते.
३)लययोग -यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधी असे लययोगाचे आठ अंग आहेत.
४)ज्ञानयोग -अशुध्द आत्म्याचे ज्ञान प्राप्त करणे, हाच ज्ञानयोग आहे. याला ध्यानयोग असे ही म्हटले जाते.
५)कर्मयोग -कर्म करणेच कर्मयोग आहे. कर्माने आल्यात कौशल्य आत्मसात करणे, हा त्यामागील खरा उद्देश आहे. याला सहजयोगही म्हटले जाते.
६)भक्तियोग -भक्ति, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सौख्य व आत्मनिवेदन असे नऊ गुण असणार्या व्यक्तीला भक्त म्हटले जाते. व्यक्ती त्याची आवड, प्रकृत्ती व साधना यांच्या योग्यतानुसार त्याची निवड करू शकतो. भक्ती योगानुसार सौख्य, समन्वय, आपुलकी असे गुण निर्माण होतात.
योगाची संक्षिप्त रूपे आपण पाहिलीत. या व्यतिरिक्त ध्यानयोग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, मंत्रयोग व तंत्रयोग आदी अनेक प्रकार आहेत. मात्र वरील सहा प्रकार मुख्य असून योगाचे अनेक प्रकार त्यात समाविष्ठ आहेत.
[31/12/2017, 10:58 AM] VedantS: *शान्तितुल्यं तपो नास्ति*
*न संतोषात्परं सुखम्*।
*न तृष्णया: परो व्याधिर्न*
*च धर्मो दया परा:*।।
शान्ति के समान कोई तप नही है, संतोष से श्रेष्ठ कोई सुख नही, तृष्णा से बढकर कोई रोग नही और दया से बढकर कोई धर्म नहीं।
*सुप्रभातम्*
आपका दिन मंगलमय हो।।
[31/12/2017, 1:20 PM] VedantS: भगवत्कृपा से हम 5 फरवरी 2018 से भगवद्गीता श्लोक प्रति श्लोक फिर से शुरू करेंगे
कृपया स्वयं भी भाग लें एवं अपने मित्रों को भी बतायें
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आज का श्लोक : श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप --९.२२
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते |
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् || २२ ||
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अनन्याः– जिसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से; चिन्तयन्तः– चिन्तन करते हुए; माम्– मुझको; ये– जो; जनाः– व्यक्ति; पर्युपासते– ठीक से पूजते हैं; तेषाम्– उन; नित्य– सदा; अभियुक्तानाम्– भक्ति में लीन मनुष्यों की; योग– आवश्यकताएँ; क्षेमम्– सुरक्षा, आश्रय; वहामि– वहन करता हूँ; अहम्– मैं |
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किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ |
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तात्पर्य : जो एक क्षण भी कृष्णभावनामृत के बिना नहीं रह सकता, वह चौबीस घण्टे कृष्ण का चिन्तन करता है और श्रवण, कीर्तन, स्मरण पादसेवन, वन्दन, अर्चन, दास्य, सख्यभाव तथा आत्मनिवेदन के द्वारा भगवान् के चरणकमलों की सेवा में रत रहता है | ऐसे कार्य शुभ होते हैं और आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण होते हैं, जिससे भक्त को आत्म-साक्षात्कार होता है और उसकी यही एकमात्र कामना रहती है कि वह भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करे | ऐसा भक्त निश्चित रूप से बिना किसी कठिनाई के भगवान् के पास पहुँचता है | यह योग कहलाता है | ऐसा भक्त भगवत्कृपा से इस संसार में पुनः नहीं आता | क्षेम का अर्थ है भगवान् द्वारा कृपामय संरक्षण | भगवान् योग द्वारा पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होने में सहायक बनते हैं और जब भक्त पूर्ण कृष्णभावनाभावित हो जाता है तो भगवान् उसे दुखमय बद्धजीवन में फिर से गिरने से उसकी रक्षा करते हैं |
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प्रश्न १ : भगवान् की सेवा में रत रहने के लिए कौन-कौन से भक्तिमय कार्यों का इस श्लोक में उल्लेख हुआ है ? यह किस प्रकार भक्त को भगवान् के पूर्ण संरक्षण में ले जाते हैं ?
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