Tuesday, 28 February 2017

धार्मिक विधि

धार्मिक विधि

धार्मिक विधि का अर्थ धार्मिक रस्में हैं जो विभिन्न धर्मों की मान्यताओं के अनुसार सम्पन्न होते हैं।[1]

धार्मिक विधि से जुड़े कुछ विश्वास:वातावरण में शुभ ऊर्जासंपादित करें

विश्वास के अनुसार धार्मिक विधि द्धारा संपन्न मंत्र-पूजा-हवन इत्यादि करने से हवन में उपयोग होने वाली सामग्री के कारण, वहाँ के वातावरण में शुभ ऊर्जा पैदा होती है। जिसके कारण कुछ समय के लिये सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है।[2]

सन्दर्भसंपादित करें

 http://dict.hinkhoj.com/words/meaning-of-%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A7%E0%A4%BF-in-english.html http://www.bhandarivaastu.com/answer-11.php

वैयक्तिक विधि

वैयक्तिक विधि

विधि या कानून को वैयक्तिक विधि (Personal law) और प्रादेशिक विधि - इन दो प्रवर्गों में विभक्त किया जा सकता है। वैयक्तिक विधि से तात्पर्य उस विधि से है जो केवल किसी व्यक्तिविशेष अथवा व्यक्तियों के वर्ग पर लागू हो चाहे वे व्यक्ति कहीं पर भी रहते हों। यह विधि प्रादेशिक विधि से भिन्न है जो केवल एक निश्चित प्रदेश के भीतर सब व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होती है। वैयक्तिक विधि की वह प्रणाली भारत में वारेन हेस्टिग्ज ने प्रारंभ की थी। उन्होंने कुछ तरह के दीवानी मामलों में हिंदुओं के लिए हिंदू विधि तथा मुसलमानों के लिए मुस्लिम विधि विहित की थी। यह व्यवस्था आज भी विद्यमान है और हिंदू विधि विवाह, दत्तकग्रहण, संयुक्त परिवार, ऋण, बँटवारा, दाय तथा उत्तराधिकार, स्त्रीधन, पोषण और धार्मिक धर्मस्वों के मामलों में हिंदुओं पर लागू है।

इतिहाससंपादित करें

ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा न्यायिक अधिकारों के प्रयोग संबंधी पहली व्यवस्था 1661 में चार्ल्स द्वितीय के चार्टर द्वारा की गई थी। 1726 के चार्टर द्वारा प्रेसीडेंसी वाले तीनों नगरों में मेयर के न्यायालयों की स्थापना कर दी गई। इन न्यायालयों द्वारा जिस विधि को व्यवहार में लाने का विचार था वह इंग्लैंड की विधि थी जो देशजों तथा विदेशियें दोनों पर समान रूप से लागू होती थी। इसके कारण लोगों को कठिनाई हुई और यह प्रश्न उठा कि इंग्लैंड की व्यवहार विधि को भारतीयों पर लागू किया जाए या नहीं। 1753 के चार्टर में इस बात की स्पष्ट रूप से व्यवस्था की गई थी कि मेयरों के न्यायालयों को भारतीयों के आपसी अभियोगों की सुनवाई तब तक नहीं करनी है जब तक दोनों पक्ष अपनी सहमति से इन अभियोगों को मेयरों के न्यायालयों के निर्णय के लिए प्रस्तुत न करें। इस व्यवस्था के बारे में मोरले द्वारा यह कहा गया है कि यह उनकी अपनी विधियों का प्रथम आरक्षण है। इस व्यवस्था के सिद्धांत को वारेन हेस्टिंग्ज ने अपना लिया और 1772 की योजना में य व्यवस्था की गई कि दाय विवाहजाति और अन्य धार्मिक प्रथाओं अथवा विधिसूत्रों संबंधी सभी मामलों में, मुसलमानों के लिए कुरान की विधि और हिंदुओं के लिए शास्त्रों में दी गई विधि का सदा ही अवलंबन किया जाएगा। ऐसे कानून का उद्देश्य यह था कि भारत के लोगों को अपने पूर्वजों की उन विधियों के अधीन रहने का एक अवसर दिया जाए जिनके वे अभ्यस्त थे और जिने साथ उनका अनेक प्रकार से गठबंधन था। हेस्टिंग्ज को यह विश्वास हो गया था कि बाह्य वैधिक प्रणाली पर आधारित किसी संहिता को लादने से भारी असफलता का सामना करना पड़ेगा।

इस योजना का विशेष पहलू इसका सीमित स्वरूप है। वैयक्तिक विधि को केवल विशेष विषयों, जैसे दाय, विवाह, जाति और धार्मिक विधिसूत्रों तक ही सीमित रखा गया था। इसके अतिरिक्त हिंदू और मुसलमान विभिन्न संप्रदायों तथा उपसंप्रदायों में विभक्त हैं। हिंदू विभिन्न समूहों में, जैसे सिखजैन और बौद्ध में बँटे हुए हैं। मुसलमानों के शीया और सुन्नी ये दो मुख्य संप्रदाय हैं। शीया विधि तथा सून्नी विधि में काफी भिन्नता है। जहाँ तक उनपर उनकी वैयक्तिक विधि के लागू किए जाने का संबंध था, यह बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थी कि इन विभिन्न संप्रदायों की क्या स्थिति रहेगी। कालांतर में ऐसे प्रश्न उठे और उनका निपटारा केवल न्यायालयों द्वारा किया गया था। राजा दीदार हुसैन बनाम रानी जुहूरुन्नुसा के मामले में प्रिवी कौंसिल ने यह व्यवस्था दी थी कि शीया लोग अपनी शीया विधि के अनुसार न्याय प्राप्त करने के अधिकारी हैं।

हेस्टिंग्ज की 1772 की व्यवस्था को, जिसमें हिंदुओं तथा मुसलमानों के लिए वैयक्तिक विधि विहित की गई थी, केवल अंग्रेज न्यायाधीशों की सहायता से कार्यरूप देना असंभव हो जाता क्योंकि वे भारतीय भाषाओं, भारतीयों के अभ्यासों और उनकी रूढ़ियों से अपरिचित थे और उन्हें इन विधियों का कोई ज्ञान नहीं था। अत: हेस्टिंग्ज ने न्यायिक प्रणाली को चलाने के लिए इन न्यायाधीशों को उन भारतीय विधि अधिकारियों, काजियों और पंडितों की सहायता उपलब्ध कराई जिनका काम इन विधियों के सिद्धांतों की व्यख्या उन न्यायाधीशों के समक्ष करना था। अंग्रेज न्यायाधीशों ने उन भारतीय विधि अधिकारियों का कभी विश्वास नहीं किया जिनके बारे में ये समझा जाता था कि वे भ्रष्टाचार कर सकते हैं और रिश्वत ले सकते हैं। इस संबंध में केवल एक यही चारा रह गया था कि अनुभवी तथा योग्य भारतीय विधिशास्त्रियों की सहायता से हिंदू तथा मुस्लिम विधि के पूर्ण निबंध तैयार करके उनका अंग्रेजी में अनुवाद कराया जाए। अत: हिंदू तथा मुस्लिम विधि के सिद्धांतों को सुनिश्चित करने तथा उनकी परिभाषा करने के प्रयत्न किए गए। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप पहले पहल हिंदू विधि संबंधी हेलहीड की संहिता तैयार हुई। इसी प्रकार अरबी के "हिदाया" का फारसी रूपांतर तैयार किया। इसी प्रकार शनै:शनै: वैयक्तिक विधि के संबंध में अंग्रेजी के प्रसिद्ध विद्वानों द्वारा रचित कई अन्य उत्तम पुस्तकें सामने आई।

परंतु दंड विधि (criminal law) के क्षेत्र में कोई आरक्षण नहीं किए गए। मुस्लिम दंडविधि में, जो उस समय लागू थी, भारी पविर्तन किए गए और यह विधि दंडसंहिता (penal code), 1860 तथा दंड-प्रक्रिया-संहिता (criminal procedure code), 1861 के प्रवर्तन तक लागू रही। इन अधिनियमो ने उस समय विद्यमान दंडविधियों को निष्प्रभावी कर दिया और ये अधिनियम जाति, पंथ और धर्म के भेदभाव के बिना सभी पर लागू कर दिए गए।

हालाँकि हिंदुओं तथा मुसलमानों की विधियों को विवाह, दत्तकग्रहण, दाय आदि मामलों में बनाए रखा गया था, तथापि यह अनुभव किया गया कि हिंदू विधि की प्राचीन प्रणाली बदलते हुए जमाने के अनुकूल नहीं है। अत: कई ऐसे कानून बनाए गए जिनके द्वारा वैयक्तिक विधियों को समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप बना दिया गया। इस संबंध में हिंदू विधि में संशोधन करनेवाला पहला महत्वपूर्ण अधिनियम वह था जिसमें "सती" प्रथा की समाप्ति की व्यवस्था की गई। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में सुधार लाने के लिए कई कानून बनाए गए। 1856 में हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित किया गया जिसके द्वारा हिंदू विधवा के पुनर्विवाह को वैध बना दिया गया। 1872 के विशेष विवाह अधिनियम ने ऐसे हिंदुओं को इस अधिनियम के अधीन विवाह करने योग्य बना दिया जो यह घोषणा करें कि वे हिंदू धर्म को नहीं मानते। इस अधिनियम में 1937 के आर्य विवाह वैधीकरण अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि ऐसे व्यक्तियों के बीच सभी विवाह वैध होंगे जो विवाह के समय आर्यसमाजी होंगे चाहे विवाह से पूर्व वे भिन्न जातियों के हों अथवा भिन्न धर्म को मानते रहे हों। इन विधियों के द्वारा विवाह संबंधी कठोर हिंदू विधियों में परिवर्तन कर दिया गया। 1946 के हिंदू विवाहिता पृथक् निवास तथा पोषण अधिकार अधिनियम द्वारा कतिपय परिस्थितियों में हिंदू विवाहिता को पृथक् निवास तथा पोषण का अधिकार दे दिया गया। 1930 के हिंदू विद्या अभिलाभ अधिनियम में हिंदू अविभक्त परिवार के एक सदस्य के अधिकारों की उस सपत्ति के बारे में परिभाषा की गई है जो उसने अपनी विद्या के बल पर अर्जित की हो।

दाय के क्षेत्र में भी कई परिवर्तन किए गए। हिंदू दाय (निर्योग्यता निराकरण) अधिनियम द्वारा कतिपय अनर्ह वारिसों का दाय से अपवर्जन संबंधी हिंदू पुरुष की संपदा के लिए उत्तराधिकारी के रूप में दूर गोत्रीय की अपेक्षा कतिपय निकट बंधु को वरीयता दी जाएगी। 1937 के हिंदू स्त्री संपत्ति अधिकार अधिनियम द्वारा संदायाता, बँटवारे और दाय के संबंधित हिंदू विधि में संशोधन किया गया तथा स्त्रियों को और अधिक अधिकार दिए गए।

इन अधिनियमों ने हिंदू विधि की रूढ़िवादी प्रणाली को अनेक दृष्टियों से प्रभावित किया परंतु कोई उग्र परिवर्तन नहीं किए जा सके। अंग्रेज प्रशासक वैयक्तिक विधियों में परिवर्तन करने से डरते थे। उनका विचार था कि दाय, विवाह आदि से संबंधित विधियों में हस्तक्षेप करने पर यह समझा जाएगा कि देशजों के धर्म में हस्तक्षेप किया जा रहा है क्योंकि दोनों का निकट संबंध है और देशजों में इससे खीज पैदा हो सकती है परंतु स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात् स्थिति बदल गई। वैयक्तिक विधियों के संहिताकरण के लिए कई ठोस कारण थे। हिंदू विधि पर विचार करने के लिए 1941 में एक समिति नियुक्त की गई। इसने यह सिफारिश की कि विधि का क्रमिक अवस्थाओं में संहिताबद्ध किया जाना चाहिए। 1944 में राव समिति नामक एक अन्य समिति नियुक्त की गई। इस समिति ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया और संहिता का एक प्रारूप उपस्थित किया। हिंदू विधि विधेयक को, जो एक लंबे अर्से तक संसद् के समक्ष रहा, कड़े विरोध के कारण छोड़ दिया गया। अंततोगत्वा यह निश्चय किया गया कि अपेक्षित विधान को किस्तों में प्रस्तुत किया जाए। इस प्रकार हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में बनाया गया तथा हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम और हिंदू दत्तक ग्रहण तथा पोषण अधिनियम 1956 में पारित किए गए।

हिंदू विवाह अधिनियम के द्वारा हिंदुओं में विवाह संबंधी विधि में संशोधन किया गया तथा इसे संहिताबद्ध किया गया। इसके द्वारा वैध हिंदू विवाह की शर्तों तथा अपेक्षाओं को भी सरल कर दिया गया है। इसके द्वारा द्विविवाह को दंडनीय अपराध बना दिया गया है। दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन, न्यायिक पृथक्करण और विवाह तथा तलाक की नास्तित्वता संबंधी नियम भी इस अधिनियम द्वारा निर्धारित किए गए।

1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के द्वारा हिंदुओं में इच्छापत्रहीन उत्तराधिकार संबंधी नियमों में उग्र परिवर्तन किए गए हैं। इस अधिनियम में दाय की एक समान प्रणाली की व्यवस्था की गई है और यह मिताक्षरा तथा दाय भाग द्वारा विनियमित व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होती है। मिताक्षरा द्वारा स्वीकृत वारिसों की तीन श्रेणियाँ, जैसे गोत्रज सपिंड, समानोदक और बंधु तथा दायभाग द्वारा स्वीकृत वारिसों की तीन श्रेणियों जैसे संपिड, सकुल्य और बंधु अब नहीं रही है। अब वारिसों को चार प्रवर्गों में विभक्त किया गया है जो इस प्रकार हैं

(1) अनुसूची के वर्ग 1 में दिए गए वारिस,(2) अनुसूची के वर्ग 2 में दिए गए वारिस,(3) गोत्रीय, तथा(4) अन्य गोत्रीय।

प्रथमत : संपत्ति अनुसूची के वर्ग 1 में दिए गए वारिसों को मिलती है। और यदि ऐसे कोई वारिस न हो तो दूसरे, तीसरे और चौथे प्रर्ग के वारिसों को मिलती है। अब पुरुष तथा स्त्री वारिस समान समझे जाने लगे हैं। हिंदू स्त्री द्वारा धृत संपत्ति उसकी परम (एक मात्र उसकी) संपत्ति होगी। उस अधिनियम द्वारा स्त्रीधन संबंधी उत्तराधिकार से संबंधित कानून में भी संशोधन कर दिया गया है।

हिंदू दत्तक ग्रहण तथा पोषण अधिनियम के द्वारा दत्तक ग्रहण तथा पोषण की विधि को संहिताबद्ध किया गया है। पिछली विधि के अनुसार पुत्री को गोद नहीं लिया जा सकता था परंतु इस अधिनियम में लड़कों तथा लड़कियों दोनों के गोद लिए जाने को व्यवस्था है। इस अधिनियम द्वारा एक हिंदू स्त्री को भी स्वाधिकार से गोद लेने का अधिकार दिया गया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि उपर्युक्त अधिनियमों से हिंदू विधि की रूढ़िवादी प्रणाली में भारी परिवर्तन हुआ है।

वारेन हेस्टिंग्ज की 1772 की योजना में दाय, विवाह, जाति और अन्य धार्मिक प्रथाओं संबंधी सभी मामलों में मुसलमानों पर कुरान की विधियों को लागू करने के लिए व्यवस्था की गई थी। कानून द्वारा किए गए कुछ परिवर्तनों के अलावा यह योजना आज भी बहुत कुछ वैसी ही है। इस संबंध में पहला महत्वपूर्ण परिवर्तन 1913 के वक्फ अधिनियम द्वारा किया गया।

1937 में शरीयत अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य यह था कि सभी मुस्लिम संप्रदायों के लिए मुस्लिम विधि को पुन: स्थापित किया जाए। खोजा तथा मेमन जैसे कुछ संप्रदाय ऐसे थे जिन्होंने हिंदू धर्म को छोड़कर इस्लाम को ग्रहण कर लिया था। धर्मपरिवर्तन के पश्चात् भी इन संप्रदायों ने हिंदू विधि को पूर्णत: नहीं छोड़ा था। कुछ मामलों के बारे में उनका विनियमन हिंदू विधि द्वारा होता था क्योंकि वह उनकी रूढ़विधि थी। 1937 के शरीयत अधिनियम प्रत्येक मुसलमान पर लागू होता है, चाहे वह किसी भी संप्रदाय का हो। इसके दो वर्ष पश्चात् एक अन्य अधिनियम, मुस्लिम विवाहविच्छेद अधिनियम, 1939 पारित किया गया। इस अधिनियम द्वारा मुस्लिम पत्नी को अपने पति से न्यायिक रूप से अलग रहने के बारे में अधिकार दिया गया। इन अधिनियमों से मुस्लिम विधि में किसी हद तक परिवर्तन तो हुआ, परंतु जो परिवर्तन हुए हैं, वे अपर्याप्त हैं। जब प्राचीन प्रणाली विकसित हुई थी तब समाज आधुनिक भारतीय समाज से भिन्न था। अब सामाजिक वातावरण तथा आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने के कारण ऐसा प्रतीत होता है जैसे इस विधि के कुछ नियम आज की सामाजिक परिस्थितियों से मेल न खाते हों।

अत: इस विधि में ऐसा परिवर्तन करना आवश्यक हो गया है कि वह आज की परिस्थितियों, आवश्यकताओं और वांछनीयताओं में उपयोगी सिद्ध हो सके।

इन्हें भी देखेंसंपादित करें

धार्मिक विधि (religious law)

गोत्र

गोत्र

गोत्र मोटे तौर पर उन लोगों के समूह को कहते हैं जिनका वंश एक मूल पुरुष पूर्वज से अटूट क्रम में जुड़ा है। व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पाणिनि में गोत्र की परिभाषा है 'अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्' (४.१.१६२), अर्थात 'गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली (एक साधु की) संतान्। गोत्र, कुल या वंश की संज्ञा है जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है।

गोत्रीय तथा अन्य गोत्रीयसंपादित करें

भारत में हिंदू विधि के मिताक्षरा तथा दायभाग नामक दो प्रसिद्ध सिद्धांत हैं। इनमें से दायभाग विधि बंगाल में तथा मिताक्षरा पंजाब के अतिरिक्त शेष भारत में प्रचलित है। पंजाब में इसमें रूढ़िगत परिवर्तन हो गए हैं। मिताक्षरा विधि के अनुसार रक्तसंबंधियों के दो सामान्य प्रवर्ग हैं :

(१) गोत्रीय अथवा गोत्रज सपिंड, और(२) अन्य गोत्रीय अथवा भिन्न गोत्रीय अथवा बंधु।

हिंदू विधि के मिताक्षरा सिद्धांत के अनुसार रक्त संबंधियों को दो सामान्य प्रवर्गों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम प्रवर्ग को गोत्रीय अर्थात् 'सपिंड गोत्रज' कहा जा सकता है। गोत्रीय अथवा गोत्रज सपिंड वे व्यक्ति हैं जो किसी व्यक्ति से पितृ पक्ष के पूर्वजों अथवा वंशजों की एक अटूट श्रृखंला द्वारा संबंधित हों। वंशपरंपरा का बने रहना अत्यावश्यक है। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति के पिता, दादा और परदादा आदि उसके गोत्रज सपिंड या गोत्रीय हैं। इसी प्रकार इसके पुत्र पौत्रादि भी उसके गोत्रीय अथवा गोत्रज सपिंड हैं, या यों कहिए कि गोत्रज सपिंड वे व्यक्ति हैं जिनकी धमनियों में समान रक्त का संचार हो रहा हो।

रक्त-संबंधियों के दूसरे प्रवर्ग को 'अन्य गोत्रीय' अथवा भिन्न गोत्रज सपिंड या बंधु भी कहते हैं। अन्य गोत्रीय या बंधु वे व्यक्ति हैं जो किसी व्यक्ति से मातृपक्ष द्वारा संबंधित होते हैं। उदाहरण के लिये, भानजा अथवा भतीजी का पुत्र बंधु कहलाएगा।

गोत्रीय से आशय उन व्यक्तियों से है जिनके आपस में पूर्वजों अथवा वंशजों की सीधी पितृ परंपरा द्वारा रक्तसंबंध हों। परंतु यह वंश परंपरा किसी भी ओर अनंतता तक नहीं जाती। यहाँ केवल वे ही व्यक्ति गोत्रीय हैं जो समान पूर्वज की सातवीं पीढ़ी के भीतर आते हैं। हिंदू विधि के अनुसार पीढ़ी की गणना करने का जो विशिष्ट तरीका है वह भी भिन्न प्रकार का है। यहाँ व्यक्ति को अथवा उस व्यक्ति को अपने आप को प्रथम पीढ़ी के रूप में गिनना पड़ता है जिसके बार में हमें यह पता लगाना है कि वह किसी विशेष व्यक्ति का गोत्रीय है अथवा नहीं। उदाहरण के लिये, यदि 'क' वह व्यक्ति है जिसके पूर्वजों की हमें गणना करनी है तो 'क' को एक पीढ़ी अथवा प्रथम पीढ़ी के रूप में गिना जायगा। उसके पिता दूसरी पीढ़ी में तथा उसके दादा तीसरी पीढ़ी में आएँगे और यह क्रम सातवीं पीढ़ी तक चलेगा। ये सभी व्यक्ति 'क' के गोत्रीय होंगे। इसी प्रकार हम पितृवंशानुक्रम में अर्थात् पुत्र पौत्रादि की सातवीं पीढ़ी तक, अर्थात् 'क' के प्रपौत्र के प्रपौत्र तक, गणना कर सकते हैं। ये सभी गोत्रज सपिंड हैं परंतु केवल इतने ही गोत्रज सपिंड नहीं हैं। इनके अतिरिक्त सातवीं पीढ़ी तक, जिसकी गणना में प्रथम पीढ़ी के रूप में पिता सम्मिलित हैं, किसी व्यक्ति के पिता के अन्य पुरुष वंशज अर्थात् भाई, भतीजा, भतीजे के पुत्रादि भी गोत्रज सपिंड हैं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के दादा के छ: पुरुष वंशज और परदादा के पिता के छ: पुरुष वंशज भी गोत्रज सपिंड हैं। हम इन छ: वंशजों की गणना पूर्वजावलि के क्रम में तब तक करते हैं जब तक हम 'क' के परदादा के परदादा के छ: पुरुष वंशजों को इसमें सम्मिलित नहीं कर लेते। इस वंशावलि में और गोत्रज सपिंड भी सम्मिलित किए जा सकते हैं जैसे 'क' की धर्मपत्नी तथा पुत्री और उसका दौहित्र। 'क' के पितृपक्ष के छह वंशजों की धर्मपत्नियाँ अर्थात् उसकी माता, दादी, परदादी और उसके परदादा के परदादा की धर्मपत्नी तक भी गोत्रज सपिंड हैं।

सम्यक् तथा संकुचित वैधिक निर्वचन के अनुसार, गोत्रज सपिंडों की कुल संख्या ५७ है। 'क' के समान पूर्वज की १३वीं पीढ़ी तक के इन पूर्वजों के वंशजों के परे जो व्यक्ति होंगे वे 'क' के समानोदक होंगे। इनके अतिरिक्त 'क' के परदादा के परदादा के परे पितृपरंपरा के सात पूर्वज और उस परंपरा में ४१वीं पीढ़ी तक के उनके वंशज भी 'क' के समानोदक होंगे। समानोदक वे व्यक्ति हैं जिन्हें 'क' श्राद्ध करते समय जल देता है। परतु व्यापक दृष्टि से समानोदक भी गोत्रीय ही हैं।

इन्हें भी देखेंसंपादित करें

वैयक्तिक विधि

विश्वामित्र

विश्वामित्र

पेज समस्याएं

विश्वामित्र वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। ऋषि विश्वामित्र बड़े ही प्रतापी और तेजस्वी महापुरुष थे। ऋषि धर्म ग्रहण करने के पूर्व वे बड़े पराक्रमी और प्रजावत्सल नरेश थे।

रचनाएँसंपादित करें

विश्वमित्र जी को गायत्री मन्त्र का दृष्टांत हुआ।

क्षत्रिय राजा के रूप मेंसंपादित करें

प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। विश्वामित्र जी उन्हीं गाधि के पुत्र थे। एक दिन राजा विश्वामित्र अपनी सेना को लेकर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गये। विश्वामित्र जी उन्हें प्रणाम करके वहीं बैठ गये। वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र जी का यथोचित आदर सत्कार किया और उनसे कुछ दिन आश्रम में ही रह कर आतिथ्य ग्रहण करने का अनुरोध किया। इस पर यह विचार करके कि मेरे साथ विशाल सेना है और सेना सहित मेरा आतिथ्य करने में वशिष्ठ जी को कष्ट होगा, विश्वामित्र जी ने नम्रतापूर्वक अपने जाने की अनुमति माँगी किन्तु वशिष्ठ जी के अत्यधिक अनुरोध करने पर थोड़े दिनों के लिये उनका आतिथ्य स्वीकार कर लिया।

वशिष्ठ जी ने नंदिनी गौ का आह्वान करके विश्वामित्र तथा उनकी सेना के लिये छः प्रकार के व्यंजन तथा समस्त प्रकार के सुख सुविधा की व्यवस्था कर दिया। वशिष्ठ जी के आतिथ्य से विश्वामित्र और उनके साथ आये सभी लोग बहुत प्रसन्न हुये।

नंदिनी गौ का चमत्कार देखकर विश्वामित्र ने उस गौ को वशिष्ठ जी माँगा पर वशिष्ठ जी बोले राजन! यह गौ मेरा जीवन है और इसे मैं किसी भी कीमत पर किसी को नहीं दे सकता।

वशिष्ठ जी के इस प्रकार कहने पर विश्वामित्र ने बलात् उस गौ को पकड़ लेने का आदेश दे दिया और उसके सैनिक उस गौ को डण्डे से मार मार कर हाँकने लगे। नंदिनी गौ क्रोधित होकर उन सैनिकों से अपना बन्धन छुड़ा लिया और वशिष्ठ जी के पास आकर विलाप करने लगी। वशिष्ठ जी बोले कि हे नंदिनी! यह राजा मेरा अतिथि है इसलिये मैं इसको शाप भी नहीं दे सकता और इसके पास विशाल सेना होने के कारण इससे युद्ध में भी विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मैं स्वयं को विवश अनुभव कर रहा हूँ। उनके इन वचनों को सुन कर नंदिनी ने कहा कि हे ब्रह्मर्षि! एक ब्राह्मण के बल के सामने क्षत्रिय का बल कभी श्रेष्ठ नहीं हो सकता। आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं एक क्षण में इस क्षत्रिय राजा को उसकी विशाल सेनासहित नष्ट कर दूँगी। और कोई उपाय न देख कर वशिष्ठ जी ने नंदिनी को अनुमति दे दी।

आज्ञा पाते ही नंदिनी ने योगबल से अत्यंत पराक्रमी मारक शस्त्रास्त्रों से युक्त पराक्रमी योद्धाओं को उत्पन्न किया जिन्होंने शीघ्र ही शत्रु सेना को गाजर मूली की भाँति काटना आरम्भ कर दिया। अपनी सेना का नाश होते देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त कुपित हो वशिष्ठ जी को मारने दौड़े। वशिष्ठ जी ने उनमें से एक पुत्र को छोड़ कर शेष सभी को भस्म कर दिया।

अपनी सेना तथा पुत्रों के के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र को राज सिंहासन सौंप कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। कठोर तपस्या करके विश्वामित्र जी ने महादेव जी को प्रसन्न कर लिया ओर उनसे दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।

महर्षि वशिष्ठ से प्रतिशोधसंपादित करें

इस प्रकार सम्पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके विश्वामित्र बदला लेने के लिये वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे। उन्हें ललकार कर विश्वामित्र ने अग्निबाण चला दिया। वशिष्ठ जी ने भी अपना धनुष संभाल लिया और बोले कि मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तू मुझ पर वार कर। आज मैं तेरे अभिमान को चूर-चूर करके बता दूँगा कि क्षात्र बल से ब्रह्म बल श्रेष्ठ है। क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने एक के बाद एक आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, रुद्रास्त्र, ऐन्द्रास्त्र तथा पाशुपतास्त्र एक साथ छोड़ दिया जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर मानव, मोहन, गान्धर्व, जूंभण, दारण, वज्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, वरुणपाश, पिनाक, दण्ड, पैशाच, क्रौंच, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र, वायव्य, मंथन, कंकाल, मूसल, विद्याधर, कालास्त्र आदि सभी अस्त्रों का प्रयोग कर डाला। वशिष्ठ जी ने उन सबको नष्ट करके उन्होंने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। ब्रह्मास्त्र के भयंकर ज्योति और गगनभेदी नाद से सारा संसार पीड़ा से तड़पने लगा। सब ऋषि-मुनि उनसे प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है। अब आप ब्रह्मास्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शान्त करें। इस प्रार्थाना से द्रवित होकर उन्होंने ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाया और मन्त्रों से उसे शान्त किया।

पराजित होकर विश्वामित्र मणिहीन सर्प की भाँति पृथ्वी पर बैठ गये और सोचने लगे कि निःसन्देह क्षात्र बल से ब्रह्म बल ही श्रेष्ठ है। अब मैं तपस्या करके ब्राह्मण की पदवी और उसका तेज प्राप्त करूँगा। इस प्रकार विचार करके वे अपनी पत्नीसहित दक्षिण दिशा की और चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवनयापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कि ब्रह्मा जी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि-देवर्षि आदि का नहीँ, वे दुःखी ही हुये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करना चाहिये।"

त्रिशंकु की स्वर्गयात्रासंपादित करें

Indra prevents Trisanku from ascending to Heaven in physical form

इस बीच इक्ष्वाकु वंश में त्रिशंकु नाम के एक राजा हुये। त्रिशंकु सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे अतः इसके लिये उन्होंने वशिष्ठ जी अनुरोध किया किन्तु वशिष्ठ जी ने इस कार्य के लिये अपनी असमर्थता जताई। त्रिशंकु ने यही प्रार्थना वशिष्ठ जी के पुत्रों से भी की,जो दक्षिण प्रान्त में घोर तपस्या कर रहे थे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने कहा कि जिस काम को हमारे पिता नहीं कर सके तू उसे हम से कराना चाहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तू हमारे पिता का अपमान करने के लिये यहाँ आया है। उनके इस प्रकार कहने से त्रिशंकु ने क्रोधित होकर वशिष्ठ जी के पुत्रों को अपशब्द कहे। वशिष्ठ जी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चाण्डाल हो जाने का शाप दे दिया।

शाप के कारण त्रिशंकु चाण्डाल बन गये तथा उनके मन्त्री तथा दरबारी उनका साथ छोड़कर चले गये। फिर भी उन्होंने सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा का परित्याग नहीं किया। वे विश्वामित्र के पास जाकर बोले अपनी इच्छा को पूर्ण करने का अनुरोध किया। विश्वामित्र ने कहा तुम मेरी शरण में आये हो। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा। इतना कहकर विश्वामित्र ने अपने उन चारों पुत्रों को बुलाया जो दक्षिण प्रान्त में अपनी पत्नी के साथ तपस्या करते हुये उन्हें प्राप्त हुये थे और उनसे यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने के लिये कहा। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर आज्ञा दी कि वशिष्ठ के पुत्रों सहित वन में रहने वाले सब ऋषि-मुनियों को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण दे आओ।

सभी ऋषि-मुनियों ने उनके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया किन्तु वशिष्ठ जी के पुत्रों ने यह कहकर उस निमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया कि जिस यज्ञ में यजमान चाण्डाल और पुरोहित क्षत्रिय हो उस यज्ञ का भाग हम स्वीकार नहीं कर सकते। यह सुनकर विश्वामित्र जी ने क्रुद्ध होकर उन्हें कालपाश में बँध कर यमलोक जाने और सात सौ वर्षों तक चाण्डाल योनि में विचरण करने का शाप दे दिया और यज्ञ की तैयारी में लग गये।

विश्वामित्र के शाप से वशिष्ठ जी के पुत्र यमलोक चले गये। वशिष्ठ जी के पुत्रों के परिणाम से भयभीत सभी ऋषि मुनियों ने यज्ञ में विश्वामित्र का साथ दिया। यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं को नाम ले लेकर अपने यज्ञ भाग ग्रहण करने के लिये आह्वान किया किन्तु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्ध्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूँ। इतना कह कर विश्वामित्र ने मन्त्र पढ़ते हुये आकाश में जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुये स्वर्ग जा पहुँचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देख इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिये तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गये। त्रिशंकु की पीड़ा की कल्पना करके विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नये तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मण्डल बना दिया। इसके बाद उन्होंने नये इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिये लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे।

इन्द्र की बात सुन कर विश्वामित्र जी बोले कि मैंने इसे स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्ग मण्डल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने अपने स्थानों को वापस चले गये।

विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्तिसंपादित करें

देवताओं के चले जाने के बाद विश्वामित्र भी ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के लिये पूर्व दिशा में जाकर कठोर तपस्या करने लगे‌।‌ इस तपस्या को भ़ंग करने के लिए नाना प्रकार के विघ्न उपस्थित हुए किन्तु उन्होंने बिना क्रोध किये ही उन सबका निवारण किया। तपस्या की अवधि समाप्त होने पर जब वे अन्न ग्रहण करने के लिए बैठे, तभी ब्राह्मण भिक्षुक के रूप में आकर इन्द्र ने भोजन की याचना की। विश्वामित्र ने सम्पूर्ण भोजन उस याचक को दे दिया और स्वयं निराहार रह गये। इन्द्र को भोजन देने के पश्चात विश्वामित्र के मन में विचार आया कि सम्भवत: अभी मेरे भोजन ग्रहण करने का समय नहीं आया है इसीलिये याचक के रूप में यह विप्र उपस्थित हो गया,मुझे अभी और तपस्या करना चाहिये। अतएव वे मौन रहकर फिर दीर्घकालीन तपस्या में लीन हो गये। इस बार उन्होंने प्राणायाम से श्वास रोक कर महादारुण तप किया। इस तप से प्रभावित देवताओं ने ब्रह्माजी से निवेदन किया कि भगवन्! विश्वामित्र की तपस्या अब पराकाष्ठा को पहुँच गई है। अब वे क्रोध और मोह की सीमाओं को पार कर गये हैं। अब इनके तेज से सारा संसार प्रकाशित हो उठा है। सूर्य और चन्द्रमा का तेज भी इनके तेज के सामने फीका पड़ गया है। अतएव आप प्रसन्न होकर इनकी अभिलाषा पूर्ण कीजिये।

देवताओं के इन वचनों को सुनकर ब्रह्मा जी उन्हें ब्राह्मण की उपाधि प्रदान की किन्तु विश्वामित्र ने कहा कि हे भगवन्! जब आपने मुझे यह वरदान दिया है तो मुझे ओंकार, षट्कार तथा चारों वेद भी प्रदान कीजिये। प्रभो! अपनी तपस्या को मैं तभी सफल समझूँगा जब वशिष्ठ जी मुझे ब्राह्मण और ब्रह्मर्षि मान लेंगे।

महर्षि वशिष्ठ द्वारा मान्यतासंपादित करें

विश्वामित्र की बात सुन कर सब देवताओं ने वशिष्ठ जी का पास जाकर उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया। उनकी तपस्या की कथा सुनकर वशिष्ठ जी विश्वामित्र के पास पहुँचे और उन्हें अपने हृदय से लगा कर बोले कि विश्वामित्र जी! आप वास्तव में ब्रह्मर्षि हैं। मैं आज से आपको ब्राह्मण स्वीकार करता हूँ।

स्रोतसंपादित करें

" वाल्मीकि रामायण - विश्वामित्र का पूर्व चरित्र"

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