Monday, 27 February 2017

कृषिका

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भारत की कृषि और किसानों के हितार्थ संचालित हमारे ब्लॉग "कृषिका" पर आपका हार्दिक स्वागत है। कृषि को अब सिर्फ आजीविका का साधन ना मानकर, लाभकारी व्यवसाय के रूप में अपनाने की आवश्यकता है। इसके लिए खेती किसानी की विज्ञान सम्मत तकनीकों को गाँव-किसान तक पहुँचाना जरुरी है। अपने अनुभव एवं कृषि शोध परिणामों पर आधारित नवीन आलेख प्रस्तुत हैं । आशा है, कि मेरा यह विनम्र प्रयास, देश के अन्नदाताओं एवं छात्रों के लिए उपयोगी एवं सार्थक सिद्ध होगा। जय जवान,जय किसान, जय विज्ञान ! -डॉ-गजेन्द्र

शनिवार, 5 मार्च 2016

सीप से मोती उत्पादनः किसानों के लिए नई सौगात

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर

प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं विभाग 

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

            हीरे के मोती ही सबसे नायाब महारत्न है जिसे  चन्द्र रत्न माना जाता  है और नवरत्नों में मोती की अपनी ही शान है। यही कारण है कि सदियों से यह महिलाओं के गले की शोभा रहा है। मोती की एक विशेषता यह है कि यद्धिप इसे नवरत्नों में गिना जाता है पर यह कोई रत्न (पत्थर) नहीं है, यह तो समुद्र के एक जलजीव के मुहँ की लार से सीप के गर्भ मे बनता है। विज्ञान के अनुसार यह शुद्ध कैल्शियम है। मोती  को  मुक्ता, शशि रत्न तथा अग्रेजी में पर्ल कहते है । मोती खनिज रत्न न होकर जैविक रत्न होता है । मूंगे की भांति ही मोती का निर्माण भी समुंद्र के  गर्भ  में  एक विशेष प्रकार के कीट-घोंघें  द्वारा किया जाता है। यह नाजुक  जीव सीप के  अंदर रहता है। वस्तुतः सीप एक प्रकार का घोंघें  का घर होता है। मान्यता है कि जब सीप में स्वाति नक्षत्र की बूँद आ गिरती है तो वही मोती बन जाती है । परन्तु मोती के  जन्म के  विषय में वैज्ञानिक धारणा यह है कि जब कोई विजातीय कण घोंघें के  भीतर प्रविष्ट हो जाता है तब वह उस पर अपने शरीर से निकलने वाले मुक्ता पदार्थ का आवरण चढ़ाना शुरू कर देता है और  इस प्रकार कुछ समय पश्चात यह सुन्दर मोती का रूप धारण कर लेता है।


             मोती एक प्राकृतिक रत्न  है जो सीप से पैदा होता है। भारत समेत हर देश में  मोतियों की माँग बढ़ती जा रही है, लेकिन दोहन और प्रदूषण से इनकी संख्यौ घटती जा रही है। अपनी घरेलू माँग को पूरा करने के लिए भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से हर साल मोतियों का बड़ी मात्रा में आयात करता है। पहले मोती केवल समुद्र से ही प्राप्त होते थे बाद में इन्हें कृत्रिम रूप से झील, तलाब, नदी आदि में मोती की खेती करके भी बनाया जाने लगा है। म¨ती फारस की खाड़ी, श्रीलंका, बेनेजुएला, मैक्सिको ,आस्ट्रेलिया तथा बंगाल की खाड़ी में पाए जाते हैं। भारत में मोती मुख्यतः दक्षिण भारत के  तमिलनाडू राज्य के  ततूतीकेरन तथा बिहार के  दरभंगा जिले से प्राप्त होते है। वर्तमान समय में सबसे अधिक मोती चीन तथा जापान में उत्पन्न होते है। फारस की खाड़ी में उत्पन्न ह¨ने वाले म¨ती क¨ ही बसरे का म¨ती कहा जाता है जिसे सवर्¨त्तम माना गया है। आजकल मोती कई रंगो में मिलते हैं। जैसे श्वेत, श्याम, गुलाबी व पीत वर्ण व श्याम वर्ण के मोतियों को (तहीती) कहते हैं। ये काले रंग के मोती महिलाओं के गले में बहुत सुंदर लगते हैं। आस्ट्रेलिया के हल्के पीत वर्ण के मोती दुर्लभ होते हैं। इन्हें साउथ-पी पर्ल के नाम से जाना जाता है। अकोया नामक मोती साधारण होते हैं। आम आदमी की पहुँच में भी है।

तीन प्रकार के होते हैं मोती

केवीटी- सीप के अंदर ऑपरेशन के जरिए फारेन बॉडी डालकर मोती तैयार किया जाता है। इसका इस्तेमाल अंगूठी और लॉकेट बनाने में होता है। चमकदार होने के कारण एक मोती की कीमत हजारों रुपए में होती है।

गोनट- इसमें प्राकृतिक रूप से गोल आकार का मोती तैयार होता है। मोती चमकदार व सुंदर होता है। एक मोती की कीमत आकार व चमक के अनुसार 1 हजार से 50 हजार तक होती है।

मेंटलटीसू- इसमें सीप के अंदर सीप की बॉडी का हिस्सा ही डाला जाता है। इस मोती का उपयोग खाने के पदार्थों जैसे मोती भस्म, च्यवनप्राश व टॉनिक बनाने में होता है। बाजार में इसकी सबसे ज्यादा मांग है।

ऐसे बनता है मोती

          घोंघा नाम का एक कीड़ा जिसे मॉलस्क कहते हैं, अपने शरीर से निकलने वाले एक चिकने तरल पदार्थ द्वारा अपने घर का निर्माण करता है।  घोंघे के घर को सीपी कहते हैं। इसके अन्दर वह अपने शत्रुओं से भी सुरक्षित रहता है। घोंघों की हजारों किस्में हैं और उनके शेल भी विभिन्न रंगों जैसे गुलाबी, लाल, पीले, नारंगी, भूरे तथा अन्य और भी रंगों के होते हैं तथा ये अति आकर्षक भी होते हैं। घोंघों की  मोती बनाने वाली किस्म बाइवाल्वज कहलाती है इसमें से भी ओएस्टर घोंघा सर्वाधिक मोती बनाता है। मोती बनाना भी एक मजेदार प्रक्रिया  है। वायु, जल व भोजन की आवश्यकता पूर्ति के लिए कभी-कभी घोंघे जब अपने शेल के द्वार खोलते हैं तो कुछ विजातीय पदार्थ जैसे रेत कण कीड़े-मकोड़े आदि उस खुले मुंह में प्रवेश कर जाते हैं। घोंघा अपनी त्वचा से निकलने वाले चिकने तरल पदार्थ द्वारा उस विजातीय पदार्थ पर परतें चढ़ाने लगता है। 

भारत समेत अनेक देशों  में मोतियों की माँग बढ़ती जा रही है, लेकिन दोहन और प्रदूषण से इनका उत्पादन घटता जा रहा है। अपनी घरेलू माँग को पूरा करने के लिए भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से हर साल मोतियों का बड़ी मात्रा में आयात करता है। मेरे देश की धरती , सोना उगले, उगले हीरे-मोती।  वास्तव में हमारे देश में विशाल समुन्द्रिय तटों के साथ ढेरों सदानीरा नदियां, झरने और तालाब मौजूद है।  इनमें मछली पालन  अलावा हमारे बेरोजगार युवा एवं किसान अब मोती पालन कर अच्छा मुनाफा कमा सकते है। 

कैसे करते हैं खेती

              मोती की खेती के लिए सबसे अनुकूल मौसम शरद ऋतु यानी अक्टूबर से दिसंबर तक का समय माना जाता है। कम से कम 10 गुणा 10 फीट या बड़े आकार के तालाब में मोतियों की खेती की जा सकती है। मोती संवर्धन के लिए 0.4 हेक्टेयर जैसे छोटे तालाब में अधिकतम 25000 सीप से मोती उत्पादन किया जा सकता है।  खेती शुरू करने के लिए किसान को पहले तालाब, नदी आदि से सीपों को इकट्ठा करना होता है या फिर इन्हे खरीदा भी जा सकता है। इसके बाद प्रत्येक सीप में छोटी-सी शल्य क्रिया के  उपरान्त इसके भीतर 4 से 6 मिली मीटर व्यास वाले साधारण या डिजायनदार बीड जैसे गणेश, बुद्ध, पुष्प आकृति  आदि डाले जाते है । फिर सीप को बंद किया जाता है। इन सीपों को नायलॉन बैग में 10 दिनों तक एंटी-बायोटिक और प्राकृतिक चारे पर रखा जाता है। रोजाना इनका निरीक्षण किया जाता है और मृत सीपों को  हटा लिया जाता है। अब इन सीपों को तालाबों में डाल दिया जाता है। इसके लिए इन्हें नायलॉन बैगों में रखकर (दो सीप प्रति बैग) बाँस या पीवीसी की पाइप से लटका दिया जाता है और तालाब में एक मीटर की गहराई पर छोड़ दिया जाता है। प्रति हेक्टेरयर 20 हजार से 30 हजार सीप की दर से इनका पालन किया जा सकता है। अन्दर से निकलने वाला पदार्थ नाभिक के चारों ओर जमने लगता है जो  अन्त में मोती का रूप लेता है। लगभग 8-10 माह बाद सीप को चीर कर मोती निकाल लिया जाता है। 

कम लागत ज्यादा मुनाफा

             एक सीप लगभग 20 से 30 रुपए की आती है। बाजार में 1 मिमी से 20 मिमी सीप के मोती का दाम करीब 300 रूपये से लेकर 1500 रूपये होता है। आजकल डिजायनर मोतियों को  खासा पसन्द किया जा रहा है जिनकी बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। भारतीय बाजार की अपेक्षा विदेशी बाजार में मोतिओ  का निर्यात कर काफी अच्छा पैसा कमाया जा सकता है। तथा सीप से मोती निकाल लेने के बाद सीप को भी बाजार में बेंचा जा सकता है। सीप द्वारा कई सजावटी सामान तैयार किये जाते है। जैसे कि सिलिंग झूमर, आर्कषक झालर, गुलदस्ते आदि वही वर्तमान समय में सीपों से कन्नौज में इत्र का तेल निकालने का काम भी बड़े पैमाने पर किया जाता है। जिससे सीप को भी स्थानीय बाजार में तत्काल बेचा जा सकता है। सीपों से नदीं और तालाबों के जल का शुद्धिकरण भी होता रहता है जिससे जल प्रदूषण की समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है।  

              सूखा-अकाल की मार झेल रहे किसानों एवं  बेरोजगार छात्र-छात्राओं को मीठे पानी में मोती संवर्धन के क्षेत्र में आगे आना चाहिए क्योंकि मोतीयों की मांग देश विदेश में बनी रहने के कारण इसके खेती का भविष्य उज्जवल प्रतीत होता है। भारत के अनेक राज्यों के नवयुवकों ने मोती उत्पादन को एक पेशे के रूप में अपनाया है।  मध्य प्रदेश एवं  छत्तीसगढ़ राज्य में  भी मोती उत्पादन की बेहतर  संभावना है।  मोती संवर्द्धन से सम्बधित अधिक जानकारी के  लिए सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वााकल्चर, भुवनेश्वंर (ओडीसा)  से संपर्क किया जा सकता है । यह संस्थान ग्रामीण नवयुवकों, किसानों  एवं छात्र-छात्राओँ  को  मोती उत्पादन पर  तकनीकी  प्रशिक्षण प्रदान करता है।

Prof Gajendra Singh Tomar पर शनिवार, मार्च 05, 2016

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