Sunday, 25 February 2018
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गुरुवार, दिसंबर 23, 2010
पानी । जो वास्तव में अमृत था ?
आज से 500 वर्ष पहले पीपा नाम का एक क्षत्रिय राजा हुआ । जो राजपूत था । ये कबीर के समय से थोडे समय बाद की बात है । उस समय सुरति शब्द योग यानी सहज योग का प्रचार जोरों पर था । कबीर साहब प्रथ्वी छोडकर वापस सतलोक जा चुके थे । रैदास जी अभी सशरीर थे । रैदास जी । मीरा जी । धर्मदास आदि द्वारा सहज योग के प्रचार से जन जन को इसकी जानकारी हो चुकी थी । सिकन्दर लोदी के अपने धार्मिक गुरु शेख तकी सहित कबीर के चरणों में गिर जाने के बाद और उससे पहले भी काफ़ी संख्या में मुसलमानों ने भी सहज योग अपनाया । जिनमें मगहर का राजा बिजली खां पठान भी था । तो साहब । चारों ओर सहज योग का बोलबाला देखकर पीपा राजा के मन में भी आया कि वह भी किसी अच्छे महात्मा से नाम का उपदेश लेकर नाम की कमाई करे । और अपना उद्धार करे । उसने लोगों से किसी अच्छे महात्मा के बारे में पूछा । लोगों ने कहा । कि अच्छे महात्मा में कबीर साहब को शरीर छोडे समय हो चुका है । इस समय उनका चेला रैदास ही अच्छा महात्मा है । राजा ने सोचा कि अगर चमार को गुरु बनाता है । तो प्रजा पर असर पडेगा कि राजा चमार हो गया है ? पर इस समय दूसरा कोई पहुंचा हुआ संत है नहीं । इसलिये जाना भी जरूरी है । इसलिये छुपकर ऐसे टाइम जाऊंगा । जब किसी को पता ही न लगे । एक बार ऐसा मौका आ गया । कोई मेला लगा था । सब जनता मेला चली गयी । पर राजा न गया । वह छुपता छुपाता रैदास के घर पहुंचा । और बोला । गुरूजी नामदान दे दो । उस समय रैदास चमढा भिगोने के कुन्ड में पानी भर रहे थे । उनके हाथ में मिट्टी का सकोरा था । उन्होने राजा से कहा । ले पहले पानी पी ले । क्योंकि महात्मा का रौब और वाणी ही अलग होती है । अतः पीपा कैसे मना कर पाता । बोला । लाइये महाराज । रैदास ने उसे ओक ( अंजुली ) से पानी पिलाया । ( पानी । जो वास्तव में अमृत था ? ) । पर राजा के मन में चमार वाली बात भरी हुयी थी । उसने मुंह दूसरी ओर करके कुरते की आस्तीन के सहारे वह पानी मुंह से बाहर गिरा दिया । इस तरह बहुत सा पानी कुरते की बांह में लग गया । और उसके अजीब दाग से बन गये । राजा ने सोचा । इसने तो मेरा क्षत्रिय धर्म ही भृष्ट कर दिया । अपने घर का पानी पिलाकर मुझे चमार ही बना दिया । रैदास जी ये बात जान गये । पर उन्होंने पीपा से कुछ नहीं कहा । और चुप ही रहे । राजा ने घर आकर तुरन्त अपना कुरता उतारा । और धोबी को बुलाकर कहा । जा इसको जल्दी धोकर ला । और ध्यान रहे । इस बात की किसी को कानोंकान भी खबर न हो । जी महाराज । कहकर धोबी वस्त्र लेकर चला गया । पहले के समय में जो दाग उतरते नहीं थे । उसे धोबी मुंह में लेकर चूसते थे । इसलिये धोबी खुद मसाला ( कपडे धोने का ) तैयार करने लगा । और अपनी लडकी से बोला । ये दाग चूस चूसकर निकाल । लडकी छोटी ही थी । अतः दाग को चूसने के बाद । थूकने के बजाय पीती चली गयी । ज्यों ज्यों पानी उसके शरीर में जा रहा था । उसके अन्दर प्रकाश होने लगा । माया के परदे उतरने लगे । और ग्यान का प्रकाश होता गया ।..कुछ ही समय में लडकी अलौकिक ग्यान की बातें बोलने लगी । उसकी वाणी में दिव्यता प्रकट हो गयी । चारों तरफ़ ये बात फ़ैल गयी कि फ़लाने धोबी की लडकी तो बहुत ऊंची महात्मा हो गयी । ये खबर राजा के पास भी गयी । उसे आश्चर्य हुआ । उसे महात्माओं के पास जाने का शौक तो लग ही गया था । फ़िर चमार के घर जाने में तो मुश्किल थी । पर धोबी के घर जाने में कोई मुश्किल न थी । रात को राजा फ़िर छुपकर धोबी के घर पहुंचा । उसे देखते ही धोबी की लडकी तुरन्त उठकर खडी हो गयी । पीपा झिझकता हुआ सा बोला । बीबी मैं तेरे पास राजा बनकर नहीं भिखारी बनकर आया हूं । वह लडकी बोली । मैं आपको राजा समझकर उठकर खडी नहीं हुयी । बल्कि आपकी जाति से । आपकी वजह से । जो कृपा मुझ पर हुयी । उसके लिये मैं उठकर खडी हुयी । पीपा हैरान हो गया । मेरी जाति की वजह से । मेरी वजह से ..? हां राजा । लडकी ने कहा । जो रहस्य । जो कृपा । आपके कुरते की बांह में थी । उसे मैंने चूस लिया । उसी कृपा से यह हुआ । ..राजा मन में विचार करने लगा कि वह तो पानी था । जो रैदास जी उसको पिला रहे थे । और वह सोच रहा था कि उसका धर्म भृष्ट कर दिया । तब राजा मन ही मन अपने आपको धिक्कारने लगा । मुझे धिक्कार है । मेरे राज को धिक्कार है । मेरे कुल को धिक्कार है ।.. अब उसने लोकलाज की परवाह न की । और उसी समय दौडा दौडा रैदास जी के पास पहुंचा । और बोला । महाराज जी । फ़िर से वही कुन्ड का पानी पिला दीजिये । रैदास जी ने कहा । अब वह पानी नही मिल सकता । वह तो उसी समय के लिये था । वह कुन्ड का पानी नहीं था । वह सचखन्ड से लाया हुआ अमृत था । जब तू मेरे पास पहली बार आया । मैंने सोचा कि ये क्षत्रिय राजा है । राज छोडकर आया है । इसे कोई खास चीज दूं ।..मगर अब नाम ले । और उसकी कमायी कर ।.. इस तरह रैदास जी ने पीपा को नामदान दिया । और उसने अच्छी कमाई भी की । भक्त पीपा की वाणी गुरु ग्रन्थ साहब में संग्रहीत है ।
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बुधवार, सितंबर 22, 2010
जीवन के पार का रहस्य अंधेरे की काली चादर के पीछे है ।
शाम के लगभग आठ बजने को हैं । मैं गांव के बाहर के एक मन्दिर में हूं । ये मन्दिर शाम सात बजे की आरती के बाद सुनसान हो जाता है । तब इसमें पिछले सात वर्षों से रह रहा एक नागा बाबा ही रह जाता है । नागा बाबा किसी सिद्धि के उल्टा पड जाने के कारण विक्षिप्त हो चुका है । मन्दिर गांव से काफ़ी दूर है । और लगभग जंगली और पहाडी इलाका है । मैं मन्दिर के पिछले हिस्से में काफ़ी दूर बने एक समाधि जैसे चबूतरे पर बैठा हूं । नागा बाबा मन्दिर में गांजा पीने में व्यस्त है । मेरा उससे कोई लेना देना नहीं है । इस वक्त मेरा किसी से कोई लेना देना नहीं है । मैं एक अनोखा संगीत सुनने के लिये यहां रुका हूं । जिसके लिये अंधेरा । एकांत और जंगल होना जरूरी है । संगीत हो रहा है । संगीत निरन्तर है । बस मुझे उसको सुनना है । एकान्त का संगीत । अंधेरे का संगीत । यहां काफ़ी सर्प होते है । काफ़ी अन्य निशाचरी जीव जन्तु होते हैं । जिनसे लोग डरते है । इसलिये वे यहां से अंधेरा होते ही भागते हैं । पर जीवन का रहस्य शायद अंधेरे से ही निकलकर आता है । जब तक हम अंधेरे में नहीं जाते । जब तक उस एकान्त में नहीं जाते । हम रहस्य को ठीक से नहीं जान सकते । जीवन के पार का रहस्य अंधेरे की काली चादर के पीछे है । प्रकृति के संगीत में छुपा है । ये संगीत उन ध्वनियों का है । जो जंगल का अटूट हिस्सा है । झींगुरों की आवाज । टिटहरी की आवाज । कीट पतंगो की आवाज । सारा जंगल संगीतमय हो उठा है । ये ध्वनियां बडी मनमोहक है । अगर कोई इन्हें सुनना जानता हो । मैं इन्हें अक्सर सुनता हूं । जंगल में नहीं होता । तब भी सुनता हूं । इनमें बडे बडे रहस्य है । पहले सभी ध्वनियां एक साथ सुनाई देती हैं । फ़िर कुछ अपने आप सुनाई देना बन्द हो जाती है । फ़िर तीन चार ध्वनियां ही सुनाई देती है । फ़िर किसी एक ध्वनि से आपका अस्तित्व जुड जाता है । बुद्ध ने कहा है । गुफ़ा की शान्ति व्यर्थ है । वह तुम्हारी नहीं गुफ़ा की शान्ति है । गुफ़ा छोडते ही अशान्ति फ़िर से हाजिर हो जायेगी । तुम्हें भीड में शान्त होना है । भीड दो है । एक बाहर की भीड है । एक तुम्हारे अन्दर भीड है । एक कोलाहल बाहर है । एक कोलाहल तुम्हारे अन्दर है । गुफ़ा बाहर का कोलाहल शान्त कर सकती है । उससे क्या होगा ? शान्त अन्दर से होना है । इसके लिये किसी से जुडना
जरूरी है । और वो प्रकृति ही हो सकती है । सभी रहस्य प्रकृति के अन्दर ही तो हैं । तब ये आवाजें क्यों हो रही हैं ? ये किसको पुकार रहीं हैं । ये खुद हमें बताती हैं । बस इनसे पूछना होता है । पूछने के लिये संवाद जरूरी है । पहले सबको सुनो । फ़िर कुछ को सुनो । फ़िर एक को चुनो । ये साधारण बात नहीं । बडी गहन बात है । खास कोई एक होता है । दो होते हैं । बहुत नहीं होते । वो खास तुमसे बात करने का इच्छुक है । पर यदि तुम खुद खास हो जाओ । हां । सच है । खास होना पडता है । खास कोई होता नहीं । बल्कि होना पडता है । खास होने के लिये खास की तरफ़ जाना होता है । तो.. ये सारा संगीत एक रहस्य बताता है । मगर । एक रुकावट हो जाती है । डर की रुकावट । तुम ऐसे माहौल के अभ्यस्त नहीं हो । डर लगता है । डर तुम्हें संगीत नहीं सुनने देता । कोई बात नहीं । अपने घर के पास ही सुनो । ऐसे शुरू करो । तुम्हें यहां भी अजीव सा अहसास होगा । पर याद रखो । डर को दूर करने के लिये डर के पास जाना जरूरी है । जव तुम डर के पास रहने लगते हो । तो डर तुम्हारा पडोसी हो जाता है ।
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गुरुवार, सितंबर 16, 2010
जानों । जानने से लाभ होता है । मानो मत ।
मेरी समझ से internet को हम सूचनाओं का खजाना तो कह सकते हैं । पर ग्यान का खजाना नहीं कह सकते । हो सकता है । इस point पर मैं गलत होऊं । पर मैंने जितने भी समय internet को use किया है । और इच्छित चीजों को search किया है । तो उनके result से मुझे निराशा ही हाथ लगी है । ये तुलना मैं library से कर रहा हूं । library में कुछ देर के प्रयास के बाद कोई ऐसी अनमोल और पुरानी पुस्तक हाथ लग ही जाती थी । जो अगले आठ दिनों तक न सिर्फ़ ग्यान में भारी इजाफ़ा करती । बल्कि मानसिक खुराक का काम भी देती थी । ये घटना लगभग दस साल पहले की है । जब प्राचीन रहस्यों और प्राचीन ग्यान पर एक शोधकर्ता विद्धान की पुस्तक मुझे मिली । मैंने इस पुस्तक को खरीदने हेतु बहुत पता किया । पर वह बाजार आदि में उपलब्ध नहीं थी । और संक्षेप में वह पुस्तक मुझे नहीं मिल पायी । तब मैंने उसके महत्वपूर्ण अंशो को एक डायरी में लिख लिया । लेकिन बाद के साधनाकाल में बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ कि वो डायरी ही कहीं खो गयी । खैर । उस डायरी की याद मुझे एक तोतलाते बालक को देखकर याद आयी । उस diary में चार या पांच अक्षरों का एक ऐसा शब्द था । जिससे हकलाना और तुतलाना ठीक हो जाता था । ये बात एक दिन मुझे महाराज जी के सामने याद आ गयी । मैंने कहा । महाराज जी वह कौन सा शब्द हो सकता है ? आत्मग्यान के साधक को जैसा उत्तर मिल सकता था । वैसा ही मुझे महाराज जी से मिला । थोपे हुये ग्यान को ग्रहण मत करो । तुम्हारी आत्मा के पास हर उत्तर है । और जीवन का वास्तविक लक्ष्य हमेशा याद रखो । ये शरीर तुम्हें बारबार मिलने वाला नहीं है ? सीधी सी बात थी । महाराज जी उस दिन अलग तरह के मूड में थे । इंसान के दिमाग में एक खासियत होती है कि एक बार कोई बात आ जाय । तो सहज निकलती नहीं है । शायद महाराज जी ने यह बात जान ली थी । इसके लगभग दो तीन महीने बाद की बात है । महाराज जी के पास उनका एक शिष्य मिलने आया । जिसके साथ दस साल का बालक था । वह क शब्द को त बोलता था । और भी शब्दों में तुतलाने का अधिक समावेश था । वह शिष्य बालक को यूं ही ले आया था । उसके साथ क्या होने वाला है । ये शायद उसको भी पता नहीं था ? पापा दे तौन एं ? पापा ये कौन हैं ? उसने एक आदमी की तरफ़ इशारा करके पूछा । महाराज जी ने कहा । क बोलो । ता बोलई ना पात । ज बोलो । दा । उसने बोला । मैंने महाराज जी की तरफ़ देखा । उनके चेहरे पर वही शान्ति थी । उनका किसी की तरफ़ कोई ध्यान नहीं था । फ़िर वे उस बालक को बताने लगे । देखो क यहां से निकलता है ? यहां से जोर देकर बोलो । बालक ने वैसा ही किया । कुछ अस्पष्ट खरखराहट उसके कंठ से निकली । इसके बाद लगभग पचास बार के प्रयास में वह तुरन्त क बोलने लगा । अब ज इस तरह से बोलो । यहां जोर देना हैं ..। पांच छह दिन में ही बालक बिना किसी दवा के
एकदम साफ़ उच्चारण करने लगा । उसका पिता इसको चमत्कार बताते हुये महाराज जी के पैरों में गिर गया । महाराज जी ने कहा । ये कोई चमत्कार नहीं है । इसका स्वर यन्त्र अवरुद्ध था । क च प द ग ह आदि अक्षर कंठ तालु नाभि आदि स्थानों से आते हैं । उन स्थानों पर जोर देकर बोलने से उच्चारण सही होने लगता है । और यन्त्र बखूबी कार्य करने लगता है । जाहिर था । महाराज जी ने मेरी शंका का समाधान निराले अंदाज में किया था । बहुत साधारण तरीका । प्रक्टीकल । और एक जीव का भला ।
यही महाराज जी अपने प्रवचन में हमेशा कहते है कि जानों । जानने से लाभ होता है । मानो मत । मानने से कोई लाभ नहीं होता । उलटे तरह तरह के विचारों से आदमी धर्म को लेकर भृमित हो जाता है । सनातन धर्म के बारे में अनेक धारणायें मानने का ही परिणाम है ।
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सोमवार, सितंबर 06, 2010
महाराज जी के प्रवचन का अंश..
जब प्रलय़ होती है । तब प्रथ्वी जल में । जल वायु में । वायु अग्नि में । अग्नि आकाश में । आकाश महतत्व में लय हो जाता है । इसके बाद गूंज रह जाती है । इस तरह प्रलय हो जाती है । इसी गूंज को शब्द कहते हैं । क्योंकि यह ध्वनि जैसा है । इसलिये इसे गूंज कहते हैं । आदि सृष्टि में । जब सबसे पहले परमात्मा द्वारा
प्रथम बार सृष्टि का निर्माण हुआ । इसी गूंज में । हुं । उत्पन्न हुआ । हुं । यानी अहम भाव । या अहम भाव
की स्फ़ुरणा । तब मूल माया उत्पन्न हुयी । इसके बाद दो प्रकृतियां उत्पन्न हुयीं । परा और अपरा । तब इच्छा उत्पन्न हुयी । इच्छा से चाह उत्पन्न हुयी । चाह से वासना पैदा हुयी । और तब उसने सोचा कि कुछ करना चाहिये । तब पांच महाभूत यानी पांच महाशक्तियां उत्पन्न हुयी । फ़िर ये पांच महाभूत आपस में मिश्रित हो गये । और पांच तत्वों की रचना हुयी । प्रथ्वी । जल । वायु । अग्नि । आकाश । उस समय ये सार तत्व या चेतन या परमात्मा पूर्ण था । उसने संकल्प किया कि मैं एक से अनेक हो जाऊं । तब इसके पहले संकल्प से अन्डज की रचना हुयी । दूसरे संकल्प से जलचर यानी कच्छ मच्छ आदि की रचना हुयी । उस समय ये पहली बार घबराया । तब फ़िर से संकल्प किया । और तब वनचर शेर तेंदुआ आदि की रचना हुयी । फ़िर इसके चौथे संकल्प से मनुष्य़ की रचना हुयी । जो आदि मानव हुआ । वायु में प्रथ्वी का भार होता है । अग्नि का तेज होता है । जल की शीतलता होती है । आकाश की मधुरता होती है । उदाहरण जल में से धुंआ निकलता है । वह अग्नि तत्व का होता है । आग पर कपडा रखने से वह भीग ( पसीज ) जाता है । प्रथ्वी में ज्वालामुखी फ़ूटते हैं । ये अग्नि तत्व के उदाहरण हैं । आकाश तत्व में पांचों तत्व सूक्ष्म रूप से मिले हुये हैं । इच्छा खत्म हुयी तो चाह खत्म हो गयी । चाह खत्म हो गयी तो वासना खत्म हो गयी । और ये जैसा का तैसा हो गया । यही वास्तविक मुक्ति है । श्री महाराज जी के प्रवचन से ..।
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लेखकीय - इधर व्यस्तता अधिक है । ब्लाग्स का कार्य न के बराबर हो रहा है । सतसंग में सुने गये दुर्लभ
रहस्य को आपके लिये संक्षेप में प्रकाशित कर रहा हूं ।
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महाराज जी के प्रवचन से गूढ दोहे
राम खुदा सब कहें । नाम कोई बिरला नर पावे । है । बिन अक्षर नाम । मिले बिन दाम । सदा सुखकारी ।बाई शख्स को मिले । आस जाने मारी ।
बहुतक मुन्डा भये । कमन्डल लये ।
लम्बे केश । सन्त के वेश । दृव्य हर लेत । मन्त्र दे कानन भरमावे ।
ऐसे गुरु मत करे । फ़न्द मत परे । मन्त्र सिखलावें ।
तेरो रुक जाय कन्ठ । मन्त्र काम नहि आवे । ऐसे गुरु करि भृंग । सदा रहे संग । लोक तोहि चौथा दरसावें ।
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जहां लगि मुख वाणी कहे । तंह लगि काल का ग्रास । वाणी परे जो शब्द है । सो सतगुरु के पास ।
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कोटि नाम संसार में । उनसे मुक्ति न होय । आदि नाम जो गुप्त है । बूझे बिरला कोय ।
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कृत रत नाम जपे तेरी जिह्वा । सत्य नाम सतलोक में लियो महेशी जानि ।
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इन्ड पिन्ड ब्रह्मान्ड से न्यारा । कहो कैसे लख पायेगा । गुरु जौहरी जो भेद बतावे । तब इसको लख पायेगा ।
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घाट घाट चले सो मानवा । औघट चले सो साधु । घाट औघट दोनों तजे । ताको मतो अगाध ।
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अलख लखूं । अलखे लखूं । लखूं निरंजन तोय । हूं सबको लखूं । हूं को लखे न कोय ।
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तोमें राम । मोमें राम । खम्ब में राम । खडग में राम । सब में राम ही राम । श्री महाराज जी के प्रवचन से ..।
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लेखकीय - इधर व्यस्तता अधिक है । ब्लाग्स का कार्य न के बराबर हो रहा है । सतसंग में सुने गये दुर्लभ
रहस्य को आपके लिये संक्षेप में प्रकाशित कर रहा हूं ।
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गुरुवार, सितंबर 02, 2010
गुरु मंडल के बारें में जानकारी ।
internet पर कई लोगों ने मुझसे कहा है । कि गुरु जी के सभी फ़ोटो किसी एक ही स्थान पर उपलब्ध करायें । और हम सरलता से आपके गुरुमंडल से जुड सकें । तथा अपनी बात कह सकें । अपने संदेश आप तक भेज सकें । इसलिये कोई व्यवस्था ऐसी होनी चाहिये । इसलिये शीघ्र एक साइट बनाने का विचार हो रहा है । लेकिन तब तक आप ये सुबिधायें अपना सकते हैं । क्योंकि बहुत से लोग ब्लाग comment के द्वारा अपनी बातें कहना पसन्द नहीं करते । ऐसे लोग Face Book पर Rajeev kumar kulshrestha सर्च करके महाराज जी के फ़ोटो और अन्य फ़ोटो जानकारी एक साथ देख सकते हैं । और जुड भी सकते हैं । अपनी बात भी कर सकते हैं । व्यक्तिगत रूप से golu224@yahoo.com और Rajeevkumar230969@yahoo.com पर मेल कर सकते हैं । फ़ोन द्वारा बात करने के लिये श्री महाराज जी ( गुरु जी ) सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज " परमहंस " का नम्बर 0 9639892934 और मेरा राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ का नम्बर 0 9808742164 है । English में बात करने के लिये shri vinay sharma का नम्बर Mobile No : 0 9873495770 है । English में ही बात करने के लिये एक अनुभवी साधक श्री राधारमण गौतम का नम्बर 0 9760232151 है । internet पर ही मेरे सभी ब्लाग देखने के लिये । राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ । को google search में Copy Pest करें । english में Rajeev kumar kulshrestha को भी Copy Pest कर सकते हैं । satuguru-satykikhoj को भी Copy Pest कर सकते हैं । इसी के साथ अमेरिका के मेरे मित्र त्रयम्बक उपाध्याय ने जो मुझे गुरुजी के नये नये फ़ोटो खींचने का शौक लगा दिया । वह भी मैं गुरु जी के भक्तों शिष्यों के लिये प्रकाशित कर रहा हूं ।
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जीव माया की मोह निद्रा में है ।
तेरी अजर बनी अबनौती । इसमें बिगडा बनी न होती ।
कई दिनों बाद पूज्य श्री महाराज जी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । अबकी बार श्री महाराज जी से एकान्त में गम्भीर वार्ता का काफ़ी समय मिला । और काफ़ी अलौकिक रहस्यों के बारे में जाना । पहले काफ़ी चिल्ला ( डांट ) खायी । क्योंकि आत्म ग्यान में बडे से बडे रहस्य को मौखिक तौर पर जानना तुच्छ समझा जाता है । मुंहजबानी जानने के बजाय साधना से उसे practical स्तर पर जानने का अधिक महत्व होता है । तब मैंने निवेदन किया । महाराज जी सामान्य जन के लिये मौखिक ग्यान प्रेरणा का कार्य करता है । इस पर पहले तो चिल्ला पडी । कि जीव ( आम आदमी ) कहीं भक्ति करना चाहता है ? वह तो धन वासना के पीछे भागता हुआ निरन्तर काल के गाल में जाता हुआ खुश हो रहा है ? तब मैंने निवेदन किया । महाराज जी जीव माया की मोह निद्रा में है । साधु संतों का कार्य ही है । जीव को इस मोह निद्रा से जगाना । हे गुरुदेव । मुझ तुच्छ को आपने ही अहसास कराया । मोह का क्षय हो जाना ही वास्तविक मोक्ष है । न सिर्फ़ बताया । बल्कि मोह का क्षय कैसे होता है । ये सिखाया भी । निर्मल आत्मा का । निज स्वरूप का दर्शन कैसे होता है । इसका सप्रमाणिक रास्ता दिखाया । जिस पर चलते हुये अनेक साधक वास्तविक भक्ति का स्वरूप जान गये । और ग्रहस्थ में रहते हुये भली प्रकार वह भक्ति कर रहे हैं । जो पूर्व में अग्यानतावश समझी जाता था कि हिमालय पर बैठकर ही की जा सकती है ? खैर । अबकी बार जो भी जाना । उसे लगभग सात आठ लेखों में अपने ब्लाग्स में प्रकाशित कर रहा हूं । जो धार्मिक । ऐतहासिक । और ज्योतिष आदि का शोध करने के साथ साथ भक्तों के भी बेहद काम आयेगा । इसी के साथ अमेरिका के मेरे मित्र त्रयम्बक उपाध्याय ने जो मुझे गुरुजी के नये नये फ़ोटो खींचने का शौक लगा दिया । वह भी मैं गुरु जी के भक्तों शिष्यों के लिये प्रकाशित कर रहा हूं ।
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रविवार, अगस्त 22, 2010
ग्वारी विलेज जहां आश्रम की शुरूआत हो चुकी है
आखिरकार वो दिन आ ही गया । जिसका हम महाराज जी । सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँसके शिष्यों को मुद्दत से इंतजार था । पहले महाराज जी फ़ोन भी अपने पास नही रखते थे । और प्रायः नहरआदि एकान्त स्थल या वनक्षेत्र में ही अक्सर रहते थे । इससे हम लोगों को महाराज जी के नित्यदर्शन और सतसंग लाभ आदि से वंचित रहना पडता था । जिससे सभी साधक एक बैचेनी महसूस करते थे । तब
महाराज जी के शिष्यों ने आग्रह किया ।महाराज जी कहीं एक छोटी कुटिया या छोटा आश्रम होना चाहिये । जिससे आपसे काफ़ी दूर से मिलने की आस ले के आया श्रद्धालु कुछ राहत महसूस कर सके । तब महाराज जी ने कहा । अभी नहीं । अभी स्थायी रूप से रहने का इरादा नहीं है । मैं राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ महाराज जी का लाडला होने के कारण पीछे पड गया कि महाराज जी सुबह शाम नित्य आपके दर्शन और सतसंग का लाभ हम बच्चों को कबसे प्राप्त होगा ? तब कुछ दिनों पहले महाराज जी ने आगामी क्वार महीने 2010 से स्थायी रूप से रहने की बात कही । लेकिन उन्होंने हम पर कृपा करते हुये एक मोबायल फ़ोन 0 96398 92934 रखना अवश्य स्वीकार कर लिया । इससे इतना फ़ायदा तो हो ही गया कि महाराज जी से किसी भी समय बात कर सकते थे । और उनके दर्शन हेतु उस स्थान पर जा सकते थे । खैर फ़िर भी हमें महाराज जी के एक निश्चित स्थान पर रहने का इंतजार अभी भी था । और आखिरकार महाराज जी ने
ग्वारी गांव में सघन वृक्षों के नीचे एकान्त स्थान में कुटिया बनाने की स्वीकृति दे दी । देखते ही देखते ट्रेक्टर
आदि से जमीन एक सी कराकर एक बीस फ़ुट लम्बी बीस फ़ुट चौडी कुटिया जिसे साधुओं की भाषा मेंबंगला कहते हैं । तैयार हो गयी । और शीघ्र ही उसके चारों तरफ़ फ़ूल आदि पेडों की बाड और गेट आदि बनाने का कार्य शुरू हो गया । उस स्थान पर बिजली और नल की बोरिंग पहले से ही मौजूद थी । आने जाने वालों की सुविधाओं का ध्यान रखते हुये महाराज जी ने आश्रम का स्थान मेन रोड से महज आधा किलोमीटर अन्दर समुचित रास्ते वाला ही चुना । उत्तर प्रदेश के जिला मैंनपुरी और जिला इटावा को आपस में जोडने वाली सडक पर । करहल तहसील और पूर्व मुख्यमन्त्री सपा मुखिया श्री मुलायम सिंह यादव का गांव सैफ़ई । इस आश्रम से लगभग चौदह किलोमीटर के अन्तर पर है । श्री मुलायम सिंह यादव का ग्रहनगर और क्षेत्र होने से मैंनपुरी से इटावा तक का अधिकांश क्षेत्र निर्माण और भव्यता के स्तर पर किसी अति आधुनिक शहर या विदेशी भूमि का अहसास दिलाता है । अति आधुनिक और चिकनी मजबूत सडकों का जाल पूरे क्षेत्र में बिछा हुआ है । सैफ़ई में हवाई अड्डा से लेकर उच्चस्तर के अस्पताल स्टेडियम और अन्य प्रकार की सुविधायें भी मौजूद है । जहां तक मेरी जानकारी है । सैफ़ई का विधुत उत्पादन उसी स्थान पर होता है । और चौबीस घन्टे बिजली रहती है । यह सब कहने का आशय यह है कि ना जानकारी वाले जो लोग मैंनपुरी को पिछडा क्षेत्र मानते हैं । यहां आकर चकाचौंध हो जाते हैं । मैंनपुरी से
इटावा के बीच में लगभग 55 किलोमीटर का अन्तर है । आगरा से मैंनपुरी और इटावा दोनों ही लगभग 125 किलोमीटर की दूरी पर है । मैंनपुरी से ग्वारी विलेज जहां आश्रम की शुरूआत हो चुकी है लगभग 18 किलोमीटर दूर है । इटावा से ग्वारी विलेज 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । दिल्ली से मैंनपुरी के लिये सीधी बस सेवा और रेल सेवा उपलव्ध है । कानपुर से भी सीधी बस सेवा उपलब्ध है । दिन रात चौबीस घन्टे के किसी भी समय इस स्थान पर पहुंचने में किसी प्रकार की दिक्कत और किसी प्रकार का भय नहीं है । फ़िलहाल आश्रम में और साधुओं के रहने तथा आने जाने वालों के ठहरने हेतु कुछ कमरों का निर्माण प्रारम्भ होने वाला है । और साथ ही कुछ ही दिनों में एक अलग आश्रम पर विचार चल रहा है ।
जिसका स्थान तय हो चुका है । जो लोग संत मत sant mat की आत्म दर्शन की परमात्मा से मिलाने वाली इस दिव्य साधना DIVY SADHNA का अनुभव करना चाहते हैं । वे महाराज जी सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस के पास इस आश्रम में पहुंचकर ग्यान प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु अच्छे परिणाम के लिये उन्हें कम से कम आठ दिन का समय लेकर आना होगा । मेडीटेसन या अन्य ध्यान साधनाओं का पूर्व में अभ्यास कर चुके साधक आठ दिन में दिव्य अनुभूतियों और समाधि का अनुभव आसानी से प्राप्त कर लेते हैं । ऐसा मेरा कई बार का अनुभव है । अंत में अपने सभी सतसंगी भाईयों और प्रेमीजनों को जय गुरुदेव की । जय जय श्री गुरुदेव ।
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आत्म दर्शन के आध्यात्मिक विचारों का आदान प्रदान " करने हेतु
" जय जय श्री गुरुदेव " प्रातः स्मरणीय सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस
मुख्य आश्रम - ग्वारी गांव । करहल । परमानन्द शोध संस्थान आगरा (उ .प्र .) भारत जिला - मैंनपुरी ।
Parmanand Research Institute Agra (u.p ) India ( मैंनपुरी इटावा रोड पर । बुझिया पुल से 6 km )
सम्पर्क- ( 0 ) 98087 42164 ( राजीव ) ( 0 ) 96398 92934 ( गुरुदेव )
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निवेदन- समस्त विश्व समुदाय के भाई बहनों से निवेदन है कि हम विश्व स्तर पर दिव्य साधना DIVY SADHNA का एक "आध्यात्मिक मंच " का गठन करना चाहते हैं । जिसमें विश्व का कोई भी नागरिक अपनी भागीदारी कर सकता है । यह पूर्णतया निशुल्क और गैरलाभ उद्देश्य की "आपस में भाईचारा और आत्म दर्शन के आध्यात्मिक विचारों का आदान प्रदान " करने हेतु प्रारम्भ की गयी एक सीधी और सरल योजना है ।
उद्देश्य- आज के समय में विश्व में अनेकों मत और धर्म प्रचलित है । लेकिन अधिकतर लोग असन्तुष्ट हैं । प्रत्येक को अपने धर्म में अच्छाई और बुराई दोनों ही नजर आती है..लेकिन हमें इससे कोई लेना देना नहीं हैं । एक मनुष्य होने के नाते हमारे कर्तव्य हमारे अपने विचार क्या हैं..ये महत्वपूर्ण हैं । वास्तव में मनुष्य के रूप में हम एक ही है और सबकी आत्मा का एक ही धर्म है "सनातन धर्म "! आज अगर समाज के अंदर से बुराईयों का समूल नाश करना है तो इस विचार से ही , इस भावना से ही हो सकता है कि हम एक ही परमात्मा की संतान है । क्या आप मुझसे सहमत हैं । यदि हाँ तो हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिये क्या कर रहें हैं । हमारे ग्यान का अन्य
को क्या लाभ है और क्या लाभ हो सकता है ? इस पर एक "साझामंच " बनाने में हमारी यथासंभव मदद करें ।
यदि आप सहमत हैं तो कृपया निम्न जानकारी भरकर भेंजे और इसके अतिरिक्त आप कोई अन्य उत्तम विचार रखते हों तो कृपया अवश्य बतायें ।
आप का नाम...............................................माता /पिता का नाम..........................................
लिंग-स्त्री /पुरुष....................आयु................धर्म- यदि बताना चाहें............................................
विवाहित /अविवाहित /विधवा / विधुर .................................................................................
शहर /ग्राम...........................जिला.......................राज्य......................देश.......................
स्थायी पता .....................................................................................................................
वर्तमानपता.....................................................................................................................
कार्य /नौकरी / व्यवसाय....................................फ़ोन नम्बर,std कोड सहित.............................
मोबायल नम्बर...............................................
क्या आपने गुरुदीक्षा ली हैं......................यदि हाँ तो किस से....................................................
( अधिक गुरुओं से दीक्षा ली होने पर पाँच गुरुओं तक के नाम बताएं , जो आपको श्रेष्ठ लगे हों .)
1-.........................................................2-....................................................................
3-..........................................................4-...................................................................
5-...........................................................6-..................................................................
( क्षमा करें पर हमें और आपको भी ऐसे कई लोगों से वास्ता पङा होगा जो कई गुरुओं की शरण में जा चुके हैं और ये सच है कि जब तक सच्चे संत सच्चे गुरु न मिल जायं , हमें अपनी तलाश जारी रहनी चाहिये । कार्तिकेय जी ने कई गुरु किये थे , जब हम ग्यान को अक्सर थोङा ही समझते हैं तो अक्सर साधारण बाबा पुजारी आदि को गुरु बना लेते हैं और फ़िर अधिक समझ आने पर ऊँचा या पहुँचा हुआ गुरु बनाते हैं..ये उसी तरह है जब तक बीमारी कट न जाय हम डाक्टर बदलते रहते हैं.इस सम्बन्ध में अधिक जाननें के लिये ब्लाग देखें / फ़ोन करें / व्यक्तिगत मिलें ।
आपके गुरु ने जो मन्त्र दिया , उसमें अक्षरों की संख्या (गिनती ) कितनी थी. (मन्त्र न बताएं ).................
.......................यदि इस प्रश्न का उत्तर न देना चाहें तो कोई बात नहीं .
विशेष-इस प्रश्न का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि आप संत मत sant mat के उस "महामन्त्र "को जानते हैं जो सिर्फ़ "ढाई अक्षर "का है और मुक्ति और आत्मकल्याण का इकलौता मन्त्र है और सतगुरु द्वारा दिये जाने पर बहुत जल्द प्रभाव दिखाता है.. सतगुरु कबीर साहेब मीरा ,दादू, पलटू , हनुमानजी ,बुद्ध, शंकरजी ,रामकृष्ण परमहँस ,तुलसीदास ,नानक वाल्मीक आदि ने जिसको जपा है और वर्तमान में भी कई संत जिसका उपदेश कर रहें है आप को उस मन्त्र का ग्यान है या नहीं ??
निम्न प्रश्नों का उत्तर हाँ या ना में ही दे , यदि नही देना चाहते तो भी कोई बात नहीं..हमारा उद्देश्य आपकोवास्तविक ग्यान से परिचय कराना ही है
1-दीक्षा के बाद आपको कोई अलौकिक अनुभव हुआ .हाँ / नहीं .............................
2-कितने दिन में हुआ..हाँ / नहीं.....................................................................
3-आपने सूक्ष्म लोकों या लोक लोकांतरों के भ्रमण का अनुभव किया या नहीं..हाँ / नहीं................
4-आपको प्रकाश दिखता है या नहीं...हाँ / नहीं...................................
5-आप मानते हैं मुक्ति जीते जी ही होती है मरने के बाद नही..हाँ / नही..................
6-आपको चेतन समाधि का अनुभव हुआ ..हाँ / नहीं ...................................
7-आपका ध्यान कितनी देर तक लग जाता है.. 1 घन्टे 2 घन्टे 3 घन्टे........................................
8- अन्य कोई अनुभव, यदि हो-......................................................................................
...................................................................................................................................
9-आपका कोई सुझाव-...................................................................................................
................................................................................................................................
................................................................................................................................
10-जो बात इस संदेश में आपको पसंद न आयी हो-...............................................................
.................................................................................................................................
विनीत-
समस्त " परमानन्द शोध संस्थान " साधक संघ
विशेष- हमारा उद्देश्य न तो किसी प्रकार का विवाद फ़ैलाना है और न ही किसी व्यक्ति या धर्म को ठेस पहुचाँना है ।
बल्कि हमारा उद्देश्य ऐसे व्यक्तियों और साधकों से परिचय तथा संवाद करना है जो हमारी जैसी आत्म दर्शन की सोच रखते है तथा आत्मकल्याण हेतु सुरती शब्द साधना ,सहज योग या राजयोग साधना कर रहें और अन्य जीवों को चेताने में विश्वास रखते हैं ..फ़िर भी यदि किसी को कोई बात आपत्तिजनक लगती हो तो कृपया हमें Email करें । हम आपकी भावनाओं का सम्मान करते हुये अपनी कमीं अवश्य दूर करेंगे ।
golu224@yahoo.com ...satguru555@yahoo.com ....rajeevkumar23096@yahoo.com
बुरा जो देखन में चलया , बुरा न मिलया कोय ,जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोय ।
कबीर सब ते हम बुरे, हम ते भले सब कोय , जिन ऐसा कर बूझिया मित्र हमारा सोय ।
धन्यवाद
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शनिवार, अगस्त 21, 2010
हनुमान जी का जन्म
बहुत कम लोग ये बात जानते होंगे कि हनुमान जी का जन्म कैसे हुआ . श्री रामचन्द्रजी के पदस्पर्श से पत्थर से औरत बनी अहिल्या हनुमानजी की नानी थीं .और गौतम रिषी उनके नाना थे . हनुमान की माता अंजनी गौतम की पुत्री थीं . ये बात बहुत से लोगो को पता है कि इन्द्र अहिल्या पर आसक्त हो गया था.उसने एक दिन एक चाल चली .उसे पता था कि गौतम सुबह चार बजे गंगा स्नान के लिये जाते हैं .उसने अपने एक साथी के साथ मिल कर एक दिन रात के दो बजे सूर्य निकलने जैसा प्रकाश फ़ैला दिया . और मुर्गे की नकली बांग निकाली .होनी ही थी, कि गौतम ने उसे सच समझा और गंगास्नान के लिये चले गये .उधर इन्द्र ने गौतम का वेश बनाकर अहिल्या के साथ व्यभिचार किया .वास्तव में थोडी ही देर में अहिल्या को पता चल गया कि उसके साथ कामाचार करने वाला कोई कपटी है लेकिन उसने कोई एतराज नहीं किया . अंजनी यह द्रष्य देख रही थी. बाद में अहिल्या को पता चला कि अंजनी ने उसके साथ छ्ल होते देख लिया है.उसने अंजनी से कहा कि वह ये बात अपने पिता को न बताये,लेकिन अंजनी ने उसकी बात मानने से साफ़ इंकार कर दिया.तब क्रोधित होकर अंजनी ने उसे शाप दे दिया कि में करे हुये का भोगूंगी,पर तू बिना किये का भोगेगी. उधर थोडी ही देर में गौतम जी को पता चला कि उनके साथ छ्ल हुआ है.उन्होने वहीं ध्यान लगाया और सारा हाल जान लिया,अब उनके मन में एक ही बात थी कि देखें अहिल्या इस बात को छुपाती है या बता देती है. ऐसा ही हुआ अहिल्या इस बात को छुपा गयी और गौतम जी ने उसे पत्थर की हो जाने का शाप दे दिया .उस समय अहिल्या क्रोध में थी क्योंकि गौतम जी ने अंजनी से छल के बारे में पूछा था तो अंजनी ने साफ़ साफ़ सच बता दिया .इसीलिये अहिल्या ने अंजनी को शाप दिया कि वो बिना करे का भुगतेगी.इस पर अंजनी ने द्रणता से कहा कि वह अपने जीवन में किसी पुरुष की छाया भी अपने ऊपर नहीं पङ्ने देगी ऐसा कह कर वह उसी समय निर्जन वन में तप करने चली गयी.और अहिल्या रिषी के शाप से पत्थर की हो गयी अहिल्या के शाप देने के बाद अंजनी रिष्य्मूक पर्वत श्रंखला में चली गयी और घनघोर तप करने लगी. उधर सती के अपने पिता के घर यग्य में दाह करने के बाद बहुत समय बीत चुका था और भगवान शंकर में तेज का समावेश हो चुका था देवता विचार कर रहे थे कि शंकर जी को बहुत समय से सती का साथ नहीं है ऐसे में यदि उनका तेज (वीर्य) स्खलित हो गया तो हाहाकार मच जायेगा. इसके लिये वे एक ऐसी तपस्वनी की तलाश में थे जो शंकर का तेज सह सके. तब देवताओं ने ध्यान से देखा तो उन्हें अंजनी नजर आई .अंजनी संसार से ध्यान हटाकर घनघोर तपस्या में लीन थी और राम के अवतरण का समय आ चुका था. रुद्र के ग्यारहवें अंश हनुमान जी के अवतार का भी समय आ रहा था .तब कुछ देवता भगवान शंकर के साथ महात्माओं का वेश वनाकर अंजनी की कुटिया के सामने पहुँचे और पानी पीने की इच्छा जाहिर की .अंजनी ने प्रण कर रखा था कि किसी भी पुरुष की छाया तक अपने ऊपर न पङने देगी.लेकिन महात्माओं को जल पिलाने में उसे कोई बुराई नजर नही आयी.और महात्माओं को जल न पिलाने से उसकी तपस्या में दोष आ सकता था इसलिये वह महात्माओं को जल पिलाने के उद्देश्य से एक पात्र में जल ले आयी.जब वह जल पिलाने लगी तो महात्माओं ने पूछा कि बेटी तुमने गुरु किया या नहीं. अंजली ने कहा कि वह गुरु के विषय में कुछ नहीं जानती .तब महात्माओं ने कहा कि निगुरा (जिसका कोई गुरु न हो ) का पानी पीने से भी पाप लगता है अतः हम तुम्हारा जल नहीं पी सकते .अंजनी को जब गुरु का इतना महत्व पता चला तो उसने महात्माओं से गुरु के बारे में और अधिक जाना फ़िर उसने इच्छा जाहिर की कि वे महात्मा लोग उसे गुरुदीक्षा कराने में मदद करें. देवताओं ने कहा कि ये महात्मा (शंकर जी ) तुम्हें दीक्षा दे सकते हैं.अंजनी ने विधिवत दीक्षा ली और शंकर ने दीक्षा प्रदान करते समय उसके कान में मन्त्र फ़ूँकते समय अपना तेज उसके अंदर प्रविष्ट कर दिया .इससे अंजनी को गर्भ ठहर गया. उसे लगा कि महात्मा वेशधारी पुरुषों ने उसके साथ छल किया है. उसने अपनी अंजुली में जल लिया और उसी समय शाप देने को उद्धत हो गयी .तब शंकर आदि अपने असली वेश में आ गये और कहा कि वेटी तू अपनी तपस्या नष्ट न कर और ये सब होना था तेरा ये पुत्र युगों तक पूज्यनीय होगा और ये सब पहले से निश्चित था. अंजनी संतुष्ट हो गयी.
उधर केसरी वानर अंजनी पर आसक्त था और बाद में अंजनी का भी रुझान भी केसरी की तरफ़ हो गया और दोनों ने विवाह कर लिया इस तरह हनुमान जी के अवतार का कारण बना और अहिल्या का ये शाप कि तू विना किये का भोगेगी भी सच हो गया. वास्तव में अलौकिक घटनायें रहस्मय होती हैं और मानवीय बुद्धि से इनका आंकलन नहीं किया जा सकता है जो सच हमारे सामने आता है उसके पीछे भी कोई सच होता है .
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मंगलवार, अगस्त 17, 2010
इस कंकाल का रहस्य क्या है ?
आइये आज कुछ अलग रहस्यों की बात करते हैं । जिन पर साधारण जीवन में चर्चा कम से कम मैंने तो नहीं सुनी । और लोगों ने सुनी हो तो वह अलग बात है ? आपने एक चीज कई बार देखी होगी । पर आपको यह पता नहीं होगा । कि वो चीज या आकृति है क्या ? यधपि योगियों और संतों के लिये वह रहस्य नहीं है ? ये चीज है । हमारी आंखों के ठीक सामने आठ नौ इंच दूरी से लेकर सात आठ फ़ुट दूर बनने वाली विभिन्न प्रकार की कंकाल जैसी आकृतियां । कई बार इस रहस्यमय चीज को मैंने बनाऊ ढोल टायप साधुओं से पूछा कि ये क्या है । तो उन्होंने जबाब दिया कि ये तुम्हारे जितने जन्म हो चुके हैं । उनके कंकाल दिखते हैं ? वास्तविकता ये नहीं है ? ये आकृतियां दरअसल हमारी चित्तवृतियां हैं । अब आप अलग अलग मानसिक स्थितियों में इसका प्रयोग करके देखना । जब चित्त में विचार घनीभूत होंगे आकृति बडी बनेगी । विचार हल्के होंगे आकृति छोटी बनेगी । मन में जिस तरह के और जितने विचार होंगे । ये आकृति उसी तरह की बनेगी । एक खास बात ये होती है कि मन की शुद्धता और गंदगी या तामसिकता के आधार पर इसका रंग काला सफ़ेद के अनुपात में अंतर होगा । दिव्यता य़ा पवित्र भाव होने पर सफ़ेद अधिक दिखेगा । और वासनात्मक या निराशात्मक भावों की अधिकता होने पर काला अधिक दिखेगा । अब मान लीजिये किसी समय आपके मन में विचार बना । कल मुझे दिल्ली जाना है । इस चित्त के विचार का एक वृत बन गया । तभी विचार आया । बच्चे की फ़ीस जमा करनी है । दूसरा वृत । बीबी के लिये साडी लानी है । तीसरा वृत । बिजली का बिल भरना है । एक और वृत । इस तरह इन विचारों के हल्के भारी भाव के अनुसार कंकाल सी दिखने वाली आकृति में गोले बनते हैं । जिनको ध्यान क्रिया का अच्छा अभ्यास है । वे
यह बात गौर करके देखें कि जिस समय अनुलोम विलोम क्रिया और ध्यान एकाग्रता से मन विचारशून्य हो जाता है । उस समय ये आकृति दिखाई देनी बन्द हो जाती है । त्राटक के अच्छे अभ्यासियों को भी ये दिखाई नहीं देगी । तो अब आप कई बार ये प्रयोग करके देखना । ये आपकी मानसिक स्थित का एकदम सही पता बताती है । इसको बार बार देखने से योग की अच्छी स्थिति बनती है । और बहुत से फ़ालतू विचार नष्ट हो जाते हैं । इसको बार बार देखने से कई रोग भी ठीक हो जाते हैं । और मन बडी तेजी से साफ़ होकर नियन्त्रण में होने लगता है । न मानों तो करके देखना । अगर पहले आपने कभी नहीं किया । तो शुरूआत में कालापन अधिक दिखाई देगा । और इसको प्रतिदिन देखते रहने पर उसमें सफ़ेदी की मात्रा बडती जायेगी । और तब आप एक अजीव सी फ़ुर्ती और उत्साह अनुभव करेंगे । ज्यों ज्यों आप इसको देखते जायेंगे । इसके कई रहस्य खुलते जायेंगे । हालांकि अलौकिक ग्यान के रहस्य में यह कोई बडी तोप नहीं है । पर जो कुछ नहीं जानते । उनके लिये बहुत है । दूसरे ये तीन काम खास करती है । चिडचिडापन और अवसाद हटाना । दूसरा कुम्भ स्नान की तरह आपके मन से पाप धोना या मन को शुद्ध करना ।तीसरा सभी बीमारियां या वासनायें मन के विकार के कारण हीं होती हैं । इसलिये ये क्रिया आश्चर्यजनक रूप से फ़ायदा करती है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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मन को देखना ...?
मन । काल । कल्पना । सृष्टि । इन चारों शब्दों का अर्थ एक ही है । मन यानी जो माना जा रहा है । या जिससे माना जा रहा है । काल । क्योंकि मन से की गयी कल्पना या विचार मात्र काल्पनिक ही है इसलिये पानी के बुलबुले के समान उसका विचार के अनुसार अस्तित्व है । अब इसमें दूसरे घटक के अनुसार बुलबुले की आयु बड जाती है । जैसे । साफ़ पानी का बुलबुला है । तो कुछ ही सेकेंड रहेगा । साबुन के पानी का बुलबुला है तो साबुन के रूप में दूसरा घटक होने से बुलबुले की आयु पानी के बुलबुले की अपेक्षा बड जायेगी । यदि पानी में तेल का अंश मिला हुआ है । तो बुलबुला और देर तक रहेगा । कीचडयुक्त गन्दगी में बनने वाले बुलबुले और अधिक देर तक रहते हैं । इसी तरह हमारे विचार उनमें मिले भाव और घटक के अनुसार घने या क्षीण होते हैं । और यही आने वाली स्थिति परिस्थिति और यहां तक कि जन्म मरण को भी नियन्त्रित करते हैं । वास्तव में इनको सूक्ष्म रूप में जान लिया जाय । तो यही यम होते हैं । ईश्वर की सृष्टि और इंसान की सृष्टि ( यानी घर मकान शादी आदि अन्य उपक्रम ) लगभग एक ही नियम के अनुसार बनती है । फ़र्क सिर्फ़ इतना है । कि ईश्वर का दस्तावेज आरीजनल होता है । और मनुष्य़ का फ़ोटोस्टेट जैसा । वह संकल्प से बनती है । यह स्थूल क्रिया से । मन से जुडने पर ही आत्मा जीव भाव धारण कर जीवात्मा कहलाने लगता है । और मन से पार हो जाने पर या अमन हो जाने पर यह अविनाशी और जन्म मरण धर्म से मुक्त हो जाता है । काल काल सब कोय कहे । काल न जाने कोय । जो जो मन की कल्पना काल कहावे सोय । मन को योग स्थिति या त्राटक के अच्छे अभ्यास से आराम से देखा जा सकता है । और मजे की बात यह है । कि चित्तवृतियों की तरह इसको उसी तरह शरीर से बाहर देखा जा सकता है । जैसा अभी आप मेरा लेख देख रहे हैं । या किसी भी अन्य चीज को देखते हैं । मन की शेप डेढ सेमी व्यास की गोल बिन्दी के बराबर होती है । और चित्र के अनुसार इसमें अलग अलग अवस्थाओं में परिवर्तन होते हैं । साधारण जीव अवस्था होने पर इस बिन्दी में चार छिद्र होते हैं । जिन्हें मन । बुद्धि । चित्त । अहम । कहते हैं । इन्हीं से संसार बना है । और इन्हीं से संसार आपको नजर आ रहा है । वरना इसकी हकीकत कुछ और ही है ? क्योंकि संसार इन्हीं चारों से बना है । इसलिये इन्ही से बरताव में आता है । इन चारों छिद्रों के पास पानी में उठने वाले बेहद छोटे बुलबुलों के समान स्फ़ुरणा होती रहती है । इसी क्रिया से अनेकों भाव बनते और नष्ट होते रहते हैं । योग अवस्था में यह स्फ़ुरणा शान्त हो जाती है । योग में और अधिक अच्छी स्थिति हो जाने पर ये चारों छिद्र एक हो जाते हैं । तब उसको सुरति बोलते हैं ।
वास्तविक एकादशी इसी को कहते है । वास्तविक दशरथ होना इसी को कहते हैं । राम राम सब कोय कहे । दशरथ कहे न कोय । एक बार दशरथ कहो । फ़ेर मरन न होय । एकादशी यानी पांच कर्म और पांच ग्यानइन्द्रियों को एक करके प्रभु में लगा देना । दशरथ । मन राजा जो इन्द्रियों के रथ पर सवार होकर दसों दिशाओं में दौडता रहता है । उसे समेटकर एकाग्र और निश्चल अवस्था से प्रभु में लगा देना । एक बार दशरथ कहना होता है । संत मन होने पर इसमें जीव वासना रूपी कालिख मिट जाती है । और ये दिव्यता युक्त हो जाता है । परमहंस जो संत से ऊंची स्थिति है । इसमें मन खत्म हो जाता है । हंसा परमहंस जब हुय जावे । पारब्रह्म परमात्मा साफ़ साफ़ दिखलावे । इसके बाद की जो ऊंची स्थिति है । वह गोपनीय है । पारब्रह्म ही ईश्वर से ऊंची स्थिति है । हिरण्यगर्भ । ईश्वर और विराट ये तीन मुख्य स्थितियां होती हैं । जो समस्त ऐश्वर्य से युक्त हो उसको ईश्वर कहतें हैं ।
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मंगलवार, अगस्त 10, 2010
आओ मेरी नैया में । मैं ले चलूं भव से पार ।
राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार ।आओ मेरी नैया में । मैं ले चलूं भव से पार ।
इस नैया में जो चढ जायेगा ।
जन्म जन्म के पापों से मुक्ति को मिल जायेगा ।कटे चौरासी बंधन । पडे न समय की मार । राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार ।पाप गठरिया शीश धरी कैसे आऊं में ।अपने ही अवगुण से खुद शरमाऊं में । नैया तेरी सांची गुरुवर । मेरे पाप हजार । राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार । जीवन अपना सौंप दे मेरे हाथों में ।
स्वांस स्वांस को पोत ले मेरी यादों में ।
पाप पुन्य का बनकर । मैं आया ठेकेदार ।
राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार ।करके दया सतगुरु ने चदरिया रंग डाली ।
जन्म जन्म की मैली चादर धो डाली ।
दाग भरी थी मेरी चदरिया । कर दी लाल ही लाल ।राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार । बडे भाग से सदगुरु जी का ग्यान मिला । मुझ दुख हारी को जीने का आधार मिला । जलने लगी थी । बीच भंवर । आगे खेवनहार । राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार । आओ मेरी नैया में । मैं ले चलूं भव से पार ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
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घर बार छोडकर मैं । फ़िरता बेचारा हूं ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
तुम सुख के सागर हो । निर्बल के सहारे हो ।
नैनों में समाये हो । मुझे प्राण से प्यारे हो ।
नित माला जपूं तेरी । नहीं दिल से भुला देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
पापी हूं या कपटी हूं । जैसा भी हूं तेरा हूं ।
घर बार छोडकर मैं । फ़िरता बेचारा हूं ।
मैं दुख का मारा हूं । मेरे दुखडे मिटा देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
मैं तेरा सेवक हूं चरणों का चेला हूं ।
नहीं नाथ भुलाना मुझे । इस जग में अकेला हूं ।
तेरे दर का भिखारी हूं । मेरे दोष मिटा देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
करुणानिधि नाम तेरा । करुणा दिखलाओ ।
तुम सोये हुये भाग्यों को । हे नाथ जगाओ ।
मेरी नाव भंवर डोले । इसे पार लगा देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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चाहे दुश्मन हों हजार । मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
दिन रात आनन्द मनाय रही । मैं गीत प्रभु के गाय रही ।
चाहे कुछ भी कहे संसार मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
कष्टों में उमर बितायी थी । दुष्टों ने बहुत सतायी थी ।
मैं अब न सहूंगी मार मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
मुझे भक्ति बहुत ही प्यारी है । मेरे रक्षक सतगुरु प्यारे हैं ।
चाहे दुश्मन हों हजार । मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
एक प्रभु की प्रेम दीवानी हूं । जिन रमझ गुरु की जानी हूं ।
गुरु कर दो बेडा पार । अब डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
हरि ओम बोलो ।
जब से गुरु का नाम लिया है । गिरतों को गुरु ने थाम लिया है । सतगुरु ही मेरा सहारा है । मुझे भव से पार उतारा है । हरि ओम बोलो ।
ये गुरु जो तारनहार हुये । ये कलयुग के अवतार हुये । सारा जग माने सदगुरु को ।सदगुरु को । मेरे सदगुरु को ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
जो प्रेम गुरु से करते हैं । वो भव सागर से तरते हैं । हो उसका बेडा पार सदा । जो गुरु से करते प्यार सदा ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
आंगन में बहारें फ़ूलों की । पावन चरणों की धूलों की । यहां स्वर्गीय हवायें चलती हैं । जो नित नित पावन करती हैं ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
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आते तेरे द्वार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
एक तुम्ही आधार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
जब तक मिलो न तुम जीवन में । शांति कहां मिल सकती मन में ।
खोज फ़िरा संसार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
कैसा भी हो तैरनहारा । मिले न जब तक शरण तुम्हारा ।
हो न सका उस पार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
हे प्रभु तुम्ही विविध रूपों में । हमें बचाते भवकूपों में ।
ऐसे परम उदार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
हम आये हैं द्वार तुम्हारे । दुख उद्धार करो दुख हारे ।
सुन लो दास पुकार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
छा जाता जग में अंधियारा । तब पाने प्रकाश की धारा । आते तेरे द्वार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
आवागमन चक्र जो दुनियां में चल रहा ।
हर जीव जन्म मृत्यु की ज्वाला में जल रहा ।
इस जीव का इस चक्र में । चलता हुनर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
अब दुख से निकलने का कोई रास्ता नहीं ।
सतगुरु के सिवा अन्य कहीं आस्था नहीं ।
पड जाय वो जिस पर । दाता की नजर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
श्रद्धा ही से तो । वो तेरा राम मिलेगा ।
अंतस में ही अखण्ड परमधाम मिलेगा ।
इस द्वार में माया का नहीं कोई असर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
जीवन में महामुक्ति का परिणाम पा लिया ।
परिपूर्ण परमानन्दमय विश्राम पा लिया ।
तू है जीवात्म ब्रह्म । जो व्यापक अमर है ।ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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सोमवार, अगस्त 09, 2010
मैं मैं चिल्लाते हुये मनुष्य़ को कालरूपी भेडिया मार डालता है ।
कालरूपी इस महासागर में यह सम्पूर्ण जगत डूबता उतराता रहता है । मृत्यु । रोग । बुडापा । जैसे भयंकर जाल में फ़ंसा और जकडा हुआ भी यह मनुष्य सच को जानने की कोशिश नहीं करता । मनुष्य के लिये प्रतिक्षण भय है । समय तेजी से बीत रहा है । कब काल झपट्टा मार दे । किन्तु अग्यानता के वशीभूत यह उसी प्रकार से दिखाई नहीं दे रहा । जैसे जल में पडा हुआ कच्चा घडा गलते हुये दिखाई नहीं देता । एक बार के लिये वायु को बांध सकते हैं । आकाश को बांट सकते हैं ( खन्ड होना ) तरंगों को सूत्र में पिरो सकते हैं । किन्तु आयु का विश्वाश नहीं कर सकते हैं । जिस प्रकार प्रलय अग्नि के प्रभाव से प्रथ्वी दहकती है । सुमेर जैसे पर्वत बिखरने लगते हैं । समुद्र का जल सूख जाता है । फ़िर इस क्षण भंगुर शरीर के सम्बन्ध में क्या कहा जा सकता है ? ये मेरा पुत्र है । ये मेरी पत्नी है । ये मेरा धन है । इस प्रकार बकरे के समान मैं मैं चिल्लाते हुये इस मनुष्य़ को कालरूपी भेडिया जबरदस्ती मार डालता है । यह मैंने किया है । यह मुझे करना है । यह किया गया । यह नही किया गया । इस प्रकार की भावना वाला मनुष्य स्वतः ही मृत्यु के वश में हो जाता है । कल किये जाने वाले कार्य को आज ही कर लो । जो आज करना है अभी कर लो । क्योंकि तुम्हारा कार्य हो गया या अभी अधूरा है । या बिलकुल नही हुआ । मृत्यु कभी इसका विचार नहीं करती । वृद्धावस्था ( मृत्यु को ) राह दिखा रही है । भयंकर रोग इसके सैनिक हैं । मृत्यु इसकी प्रबल शत्रु है । फ़िर भी आदमी इसका भक्ति रूपी रक्षा करने वाला अमोघ हथियार प्राप्त नहीं करता । इससे बडी मूर्खता क्या होगी । तृष्णा रूपी सुई से छेदा हुआ । विषय रूपी घी में डूबा हुआ । राग द्वेश रूपी अग्नि में पके हुये इस मनुष्य रूपी पकवान को मृत्यु बडे चाव से तत्काल ही खा लेती है । बालक । युवा । बूडे । और गर्भ में स्थित सभी प्राणियों को मृत्यु अपने में समाहित कर लेती है । इस जगत का ऐसा ही हाल देखा जाता है । यह जीव अपने शरीर को भी त्यागकर यमलोक चला जाता है । तो भला माता पिता स्त्री पुत्र जो सम्बन्ध हैं । वे किस कारण से बनाये गये हैं । संसार दुख का मूल है । फ़िर वह किसका होकर रहा है । अर्थात जो इस संसार में रम गया । उसने सदा के लिये दुख को पाल लिया । जिसने इस संसार के मोह का त्याग कर दिया । वह सदा के लिये सुखी हो गया । इसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी सुखी नही हो सकता । यह संसार सभी दुखों का जनक । समस्त आपदाओं का घर । सब प्रकार के पापों का आश्रय है । अतः ग्यान होते ही मनुष्य को क्षण भर में इसका त्याग कर देना चाहिये । लोहे की जंजीरों में फ़ंसा मनुष्य एक बार को मुक्त हो सकता है । किन्तु स्त्री धन और पुत्र मोह में फ़ंसा व्यक्ति मुक्त नहीं हो पाता । मन को प्रिय लगने वाली जितनी चीजों से मनुष्य सम्बन्ध जोड लेता है । उतनी ही दुख की कीलें उसके ह्रदय में गडती जाती हैं । विषय का आहार करने वाले देह में स्थित देवता । तथा तुम्हारी सभी प्रकार की सामर्थ्य को खत्म कर देने वाले इन्द्रिय रूपी चोरों द्वारा तुम्हारे सभी लोक नष्ट हो रहे हैं । फ़िर भी तुम अग्यान में हो । ये बडे कष्ट की बात है । जिस प्रकार मांस के लोभ में फ़ंसी मछली को अन्दर छुपा कांटा दिखाई नहीं देता । वैसे ही जूठे सुखों के लालच में फ़ंसा हुआ ये मनुष्य यम की फ़ांस को नहीं देख पाता ।
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तो परलोक में जाकर क्या करेगा ?
यहां यदि इस जीवन में । इसी मृत्यु लोक में । इस शरीर में । तुमने नरक रूपी महा व्याधि का पूर्व उपचार नहीं किया । तो परलोक में जाकर रोगी मुक्ति के लिया क्या उपाय करेगा । जहां इसके उपचार के लिये कोई औषधि ही प्राप्त नहीं होती । बुडापा तो बाघिन के समान है । जिसे प्रकार चटके हुये घडे का जल धीरे धीरे बह जाता है । उसी प्रकार तुम्हारी आयु भी निरन्तर घटती ही जा रही है । शरीर में विधमान रोग भयंकर शत्रु के समान कष्ट देते हैं । इसलिये वास्तविक कल्याण इसी में है । कि इन सब व्याधियों से मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास किया जाय । जब तक शरीर स्वस्थ है । उसमें किसी प्रकार का दुख नही है । जब तक विपत्तियां सामने नहीं हैं । जब तक शरीर की इन्द्रिया सबल हैं । यानी शरीर की जर्जरता से शिथिल नहीं हुयी हैं । तब तक ही आत्मा के कल्याण का प्रयास किया जा सकता है । तत्व ग्यान की प्राप्ति हेतु प्रयत्न किया जा सकता है । बाद में आग लगने पर कुंआ खोदने पर क्या लाभ होगा ? ये मनुष्य अनेक प्रकार के कार्यों में व्यस्त और उलझा हुआ रहने से तेजी से बीत रहे समय को नही जान पाता । वह दुख सुख तथा आत्मा के हित को भी ठीक से नहीं जानता । जन्म लेने वालों को । मरने वालों को । आपत्ति ग्रस्त लोगों को । रोग से पीडित लोगों को । अत्यन्त दुखी लोगों को देखकर भी मनुष्य ममता मोह लालच लोभ के नशे में ऐसा चूर रहता है । कि जन्म मरण आदि नाना प्रकार के दुख वाले संसार से भी नही डरता और इसमें मगन हो जाता है । यहां की सभी सम्पदा स्वप्न के समान ही तो है । यौवन फ़ूल के समान है । अर्थात शीघ्र कुम्हला जाने वाला है । आयु चंचल बिजली के समान नष्ट हो जाने वाली है । ऐसा जानकर भी धैर्य बना रहना क्या उचित जान पडता है । ये सौ वर्ष का जीवन बहुत छोटा है । जो आधा तो आलस और नींद में ही चला जाता है । कुछ बचपन । रोग और वृद्धावस्था और अन्य दुखों में व्यतीत हो जाता है । युवावस्था का जो थोडा सा महत्वपूर्ण है । वो भोग विलास और अन्य लोभ में खत्म हो जाता है । जो कार्य तुरन्त करना चाहिये । उसके सम्बन्ध में सोच विचार नहीं है । जहां जागते रहना चाहिये । वहां तुम सोते हो । भय के स्थान पर बिना कारण आश्वस्त हो । ऐसा कौन सा मनुष्य है । जो मारा नही जायेगा ? जल के बुलबुले के समान जीव इस शरीर में स्थित है । यहां जिन वस्तुओं का साथ हैं । वे अनित्य हैं । फ़िर भी जीव कैसे निर्भयता से नितान्त अनित्य । शरीर । भोग । पुत्र । स्त्री । कुल आदि के साथ भ्रम में रहता है । कि यही सच है ? क्या ये वास्तव में सच है ? जो अहित में हित । अनिश्चित में निश्चित । अनर्थ में अर्थ को समझता है । ऐसा व्यक्ति अपने मुख्य प्रयोजन से निश्चय ही दूर है । जो पत्थर को देखते हुये भी ठोकर खाता है । जो सुनते हुये भी सत्य ग्यान को प्राप्त नहीं कर पाता । जो सद ग्रन्थों को पडते हुये भी उनके रहस्य को नही समझ पाता । वह निश्चय ही देव माया से विमोहित है और अन्त में दुर्दशा को प्राप्त होने वाला है । इसमें कोई संशय की बात नहीं है । अपने भूल का फ़ल उसे स्वयं ही भोगना होगा । ये तय ही है ?
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संसार में कोई सुखी नहीं है ।
अपनी अग्यानता के कारण ही जीव ( सभी योनियां ) इस संसार में पैदा होता है । सभी प्रकार के दुखों से युक्त और मलिन ( मैला ) इस असार संसार में अनेक प्रकार के शरीरों में प्रविष्ट जीवात्माओं की अनन्तराशियां हैं । जो इसी संसार में जन्म लेते हैं । इसी में मर जाते हैं । किन्तु उनका अन्त नहीं होता । और वे दुख से सदैव व्याकुल रहते हैं । इस संसार में कोई सुखी नहीं है । इस जगत से परे । पारब्रह्मस्वरूप । निरवयव । सर्वग्य । सर्वकर्ता । सर्वेश । निर्मल । अद्वय तत्व । स्वयं प्रकाश । आदि अन्त से रहित । विकारशून्य । परात्पर । निर्गुण । सच्चिदानन्द शिव हैं । ये जीव उन्हीं का
अंश है । जो अनादि अविध्या से वैसे ही आच्छादित हैं । जैसे अग्नि में विस्फ़ुल्लिंग होते हैं । अनादि कर्मों के प्रभाव से प्राप्त शरीर आदि अनेकों उपाधियों में होने के कारण भिन्न भिन्न हो गये हैं । सुख दुख देने वाले पुन्य और पाप संग्रह का इस शरीर पर नियन्त्रण है । अपने कर्म के अनुसार ही जीव को जाति देह ( योनि ) आयु तथा भोग की प्राप्ति होती है । सूक्ष्म या लिंग शरीर के बने रहने तक ये जन्म मरण का । आवागमन का चक्र चलता ही रहता है । स्थावर ( पेड पौधे । पहाड आदि ) कृमि कीट । पशु पक्षी । मनुष्य । धार्मिक देवता और मुमुक्ष । यथाक्रम चार प्रकार के शरीरों को धारणकर हजारों बार उनका परित्याग करते हैं । यदि पुन्य कर्म के प्रभाव से उनमें से किसी को मानव योनि मिल जाय तो उसे ग्यानमार्ग अपनाकर मोक्ष प्राप्त करना चाहिये । समस्त चौरासी लाख योनियों में स्थित जीवात्माओं को इसी एक मात्र मानव योनि में तत्वग्यान का लाभ होकर मोक्ष मिल सकता है । इस मृत्युलोक में हजारों नहीं बल्कि करोडों बार जन्म लेने पर जीव को कभी कभी ही पूर्व संचित पुन्य के प्रभाव से मानव योनि प्राप्त होती है । यह मानव योनि मोक्ष की सीडी है । इस देवताओं को भी दुर्लभ योनि को प्राप्त कर जो प्राणी स्वयं अपना उद्धार नहीं करता । उससे बडकर पापी कोई नहीं हो सकता । अन्य योनियों की अपेक्षा सुन्दर इन्द्रियों वाले इस जन्म का लाभ लेकर जो मनुष्य आत्मा का हित नहीं सोचता । वह आत्मघाती के समान है । कोई भी पुरुषार्थ शरीर के बिना सम्भव नहीं है । इसलिये शरीर रूपी धन की जतन से रक्षा करते हुये पुन्य कर्म और ग्यान लाभ करना चाहिये । आत्मा ही सबका पात्र है । इसलिये उसकी रक्षा में मनुष्य हमेशा तत्पर रहे । जो व्यक्ति आजीवन आत्मा के प्रति सचेष्ट रहता है । वह जीवित ही । इसी जन्म में अपना कल्याण होते देखता है । मनुष्य को ग्राम क्षेत्र धन घर शुभ अशुभ कर्म और शरीर बार बार प्राप्त नहीं होते । अतः विद्वान ये जानकर जतन से शरीर की रक्षा करते हैं । कोढ आदि जैसे महा भयंकर रोग हो जाने पर भी मनुष्य इस शरीर को नही छोडना चाहता । नाम जपत ( ढाई अक्षर का महामन्त्र ) कोढी भला । कंचन भली न देह ) इसलिये शरीर की रक्षा धर्म के लिये । धर्म की रक्षा ग्यान के लिये । और ग्यान की रक्षा ध्यान योग के लिये । ध्यान योग की रक्षा तत्काल इसी जीवन में मुक्ति प्राप्त हेतु जतन से करनी चाहिये । यदि आत्मा ही अहितकारी कर्म से अपने को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता । तो अन्य दूसरा कौन हितकारी है ? जो आत्मा को सुख प्रदान करेगा ।
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शुक्रवार, अगस्त 06, 2010
राजा प्रियवृत का वंश वर्णन
राजा प्रियवृत के आग्नीध । अग्निबाहु । वपुष्मान । धुतिमान । मेधा । मेधातिथि । भव्य ।शवल । पुत्र । ज्योतिष्मान ये दस पुत्र हुये । इन पुत्रों में से मेधा । अग्निबाहु । पुत्र । नाम के तीन पुत्र योगी और जातिस्मर
यानी पूर्व जन्म की याद रखने वाले थे । इन लोगों ने राज्य के प्रति कोई रुचि प्रकट नहीं की । अतः प्रियवृत ने सप्तदीपा प्रथ्वी को अपने अन्य सात पुत्रों में विभक्त कर दिया । पचास करोड योजन में विस्त्रत ( एक योजन में चार कोस या बारह किलोमीटर होते है । ) पूरी प्रथ्वी नदी में तैरती हुयी नाव के समान । चारों और अवस्थित अथाह जल के ऊपर स्थित है । इसमें जम्बू । प्लक्ष । शाल्मल । कुश । क्रौंच । शाक । पुष्कर
ये सात दीप हैं । जो सात समुद्रों से घिरे हुये हैं । इन सात समुद्रों के नाम । लवण । इक्षु । सुरा । घृत । दधि । दुग्ध और जल सागर हैं । ये सभी दीप तथा समुद्र इस क्रम में एक दूसरे से दुगने परिमाण में अवस्थित हैं । जम्बू दीप में मेरु नामक पर्वत है । जो एक लाख योजन में फ़ैला हुआ है । इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है । ये प्रथ्वी में सौलह हजार योजन धंसा हुआ है । और शिखर बत्तीस हजार योजन फ़ैला हुआ है । इसका अधोभाग जो प्रथ्वी के ऊपर सन्निहित है । वह भी सोलह हजार योजन के विस्तार में कर्णिका के रूप में अवस्थित है । इसके दक्षिण में हिमालय । हेमकूट । तथा निषध । उत्तर में नील । श्वेत और श्रंगी नामक वर्ष पर्वत हैं । प्लक्ष आदि दीपों के निवासी मरण धर्म से मुक्त हैं । उनमें युग और अवस्था के आधार पर विषमता नहीं होती । जम्बू दीप के राजा आग्नीध के नौ पुत्र हुये । उनके नाम । नाभि । किम्पुरुष । हरिवर्ष । इलावृत । रम्य । हिरण्यमय । कुरु । भद्राश्व । केतुमाल थे । राजा आग्नीध ने उन सब पुत्रों को उनके नाम से प्रसिद्ध भूखण्ड दिया । राजा नाभि और उनकी पत्नी मेरुदेवी से ऋषभ नाम का पुत्र हुआ । उनसे भरत हुये । भरत का पुत्र सुमति हुआ । सुमति के तेजस नाम के पुत्र हुये । तेजस के इन्द्रधुम्न । इन्द्रधुम्न के परमेष्ठी । परमेष्ठी के प्रतीहार । प्रतीहार के प्रतिहर्ता । प्रतिहर्ता के प्रस्तार । प्रस्तार के विभु । विभु के नक्त । नक्त के गय । गय का नर । नर से विराट । विराट से धीमान । धीमान से भौवन । भौवन से त्वष्टा । त्वष्टा के विरजा । विरजा के रज । रज के शतजित । शतजित के विष्वग्ज्योति नामक पुत्र हुआ
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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गुरुवार, जुलाई 15, 2010
हमारी बेङियाँ....?
एक राज्य में सभी लोग शान्तिपूर्वक रहते थे । अचानक ऐसा हुआ कि राज्य में भारी बाङ आ गयी । चारों तरफ़ हाहाकार मच गया । अफ़रातफ़री में लोग सुरक्षित स्थानों की ओर भागने लगे । उसी राज्य में मनसुख लाला और धर्मदास नामक दो व्यक्ति रहते थे । ये दोनों एकदम विपरीत स्वभाव के थे । मनसुख लाला जहाँ सिर्फ़ अपने बारे में ही सोचता था । धर्मदास खुद पर संकट होने के बाबजूद भी दूसरों की सहायता हेतु तत्पर रहता था । बाङ का संकट आते ही धर्मदास ने एक बङी नाव का इंतजाम किया । और कील आदि की सहायता से नाव में अनेकों गोल कङे लगाकर उनमें रस्सियाँ बाँध दी । मनसुख लाला ने कोई इंतजाम नहीं किया । धीरे धीरे बाङ घरों में घुसने लगी । चारों तरफ़ पानी ही पानी नजर आने लगा । धर्मदास ने अपनी नाव पानी में उतार दी और बहते हुये । डूबते हुये लोगों को कङों में बँधी रस्सी के सहारे नाव पर बुलाने लगा । इसके विपरीत मनसुख लाला ने एक पेङ की पिंडी ( मोटे गोल लकङी के लठ्ठे को पिंडी कहते है । ये पानी में तैरती है । ) ले ली । और उस पर अकेला बैठकर सुरक्षित स्थान की तलाश में जाने लगा । यदि कोई डूबता हुआ इंसान उसकी पिंडी का सहारा भी लेने की कोशिश करता । तो मनसुख लाला उसको धक्का मार देता । धर्मदास नाव को घुमाता हुआ अधिकाधिक लोगों को बचाने की कोशिश करने लगा । दोनों विपरीत स्वभाव वाले पानी में थे । होते होते मनसुख लाला की पिंडी एक तेज भंवर में फ़ँसकर पलट गयी । मनसुख लाला भंवर में डूबने लगा । और जो पिंडी उसे पानी से बचा रही थी । वही भंवर में फ़ँसकर उसको दबाती हुयी डुबोने लगी । मनसुख लाला डूब गया । उधर धर्मदास ने खुद को बचाने के साथ ही अनेको लोगों को उस आपदा से बचाया ।
श्री महाराज जी कहते हैं । इसी तरह संसार में विभिन्न आपदाओं की बाङ आयी हुयी है । जिनमें फ़ँसकर जीव त्राहि त्राहि कर रहा है । ये अग्यान से भ्रमित और माया से मोहित जीव प्रतिक्षण काल के गाल में जा रहा है । संतजन अपनी ग्यानरूपी नौका में बँधी रस्सी पकङाकर इस कठिन दारुण भवसागर से उबारने में उसकी मदद करते हैं । अन्यथा ये दिन प्रतिदिन तेजी से मृत्यु के मुख में जा रहा है । और मनसुख लाला जैसे लोग खुद भी डूबते हैं और दूसरों को भी डुबोते हैं । परहित सरस धर्म नहीं भाई । परपीङा सम नहीं अधिकाई ।
* एक अजीव शहर था । हर शहर की तरह यहाँ पर पर भी अमीर । मध्यम और गरीब लोग रहते थे । अजीव इसलिये था । कि लोगों ने अपनी हैसियत के अनुसार शोभा मानते हुये । अमीर लोगों ने हाथ पैरों में सोने की बेङियाँ । मध्यम लोगों ने चाँदी की बेङियाँ और निम्न या गरीब लोगों ने लोहे की बेङियाँ अपनी मर्जी से ही धारण कर रखी थी । हाँलाकि वे इससे बहुत कष्ट पाते थे पर फ़िर भी अपने मन में आनन्दित महसूस करते थे । एक दिन ऐसा हुआ कि घूमते घूमते एक ग्यानी उनके शहर में आ पहुँचा । उसने देखा कि कितने अजीब लोग हैं । अपने लिये कष्ट का इंतजाम खुद ही कर रखा है । उसने इन्हें सही रास्ता दिखाने की सोची । उसने एक समझदार आदमी को चुना और एकांत में ले जाकर बोला । जिन बेङियों से तुम शोभा और जूठा आनन्द महसूस करते हो । येवास्तव में कष्टदायक है । इनके कटते ही तुम असली आनन्द को जानोगे । वह आदमी क्योंकि विचारशील था । उसने देखा कि ये कहने वाले के शरीर पर एक भी बेङी नही थी । उसने कहा कि ठीक है । पहले तुम मेरे हाथों की बेङी काटो । तब देखता हूँ कि तुम्हारी बात में कितनी सत्यता है । ग्यानी एक पत्थर पर हाथ रखकर उसकी छेनी हथोङे से बेङियाँ काटने लगा । इससे उस आदमी को कुछ चोट भी लगी । और कष्ट भी हुआ । वह क्रोधित होकर बोला । तुम तो कहते थे । कि बेङियाँ कटने से आनन्द होगा । पर मुझे तो भयंकर परेशानी हो रही है । ग्यानी ने कहा । कुछ देर ठहरो । तुम्हारी बेङियाँ काफ़ी पुरानी हो चुकी हैं । और तुम्हारा शरीर भी उसी अनुसार ढल चुका है । इसलिये परेशानी हो रही है । खैर । थोङी तकलीफ़ हुयी । उसके बाद एक हाथ की बेङी कट गयी । ग्यानी ने कहा । कि अब तुम मुक्त रूप से इस हाथ को मेरी तरह घुमा फ़िराकर देखो । उस आदमी ने वैसा ही किया । पर क्योंकि काफ़ी समय बाद बेङी मुक्त हुआ था । शुरु में उसको हाथ को घुमाने में तकलीफ़ महसूस हुयी । मगर थोङी ही देर में आनन्द आने लगा । वह बोला शीघ्रता से तुम मेरी सारी बेङियाँ काट दो । बेङी से मुक्त होने में तो वाकई आनन्द है । अन्य बेङियाँ कटने में भी थोङी परेशानी हुयी । पर उस आदमी को अब अनुभव हो चुका था कि बेङी कटने में परेशानी होती ही है । लेकिन पूरी बेङियाँ कटते ही वह एक नया आनन्द महसूस करने लगा । उसने आनन्दित होकर कहा कि आप बहुत अच्छे हैं । आपने मुझे नया आनन्द और मुक्त अवस्था दी है । कृपया मेरे पूरे घर की बेङियाँ काट दो । ग्यानी ने कहा कि ये तुम्हारी गलतफ़हमी हैं । कोई भी बेङियों से मुक्त नहीं होना चाहता । वे उसी अवस्था में सुख ( मगर झूठा ) मानते हैं । आदमी ने कहा । ऐसा कैसे हो सकता है । मैं उनको जाकर अपना हाल बताऊँगा । इस पर ग्यानी सिर्फ़ मुस्कराया । वह आदमी दौङकर अपने घर पहुँचा और बोला कि मुक्त होने में आनन्द है । हमारे यहाँ एक बेङी काटने वाला आया है । तुम सव शीघ्रता से बेङियाँ कटवा लो । और मेरी तरह आनन्द महसूस करो । इस पर अधिकांश लोगों ने उसे झिङक दिया । मूर्ख है तू । अब तेरे में कोई शोभा नजर नहीं आती । हमें देख हम कितने अच्छे लगते हैं । तू अपने इस ग्यानी के साथ अन्यत्र चला जा । ग्यानी मुक्त आदमी को देखकर मुस्कराया ?
* वास्तव में संसार काम । क्रोध । लोभ । मोह । तेरा । मेरा । अमीर । गरीब । ऊँच । नीच आदि हजारों विकार बेङियों से बँधा हुआ है । सोचो ये बेङियाँ किसने डालीं हैं ? खुद हमने । आवरण पर आवरण चङाते हुये हम अपने ही जाल में फ़ँसते चले जा रहे हैं । और अगर कोई हमें रास्ता दिखाने का प्रयास करता है । तो हम उसका उपहास करते हैं । हेय दृष्टि से देखते हैं । नंगा आने वाला । नंगा जाने वाला । इंसान जाने किस बात पर गर्वित है ? कौन सी ऐसी सम्पदा है । जो तुम्हारे लिये स्थायी है । अगर तुम पूरे विश्व के राजा भी हो जाओ । तो भी उतना ही उपयोग कर सकोगे । जितना कि तुम्हारे लिये तय है । धन । यौवन ।स्त्री । पुत्र । परिवार । हाथी । घोङे कितने ही जतन से संभालो । एक दिन सब मिट्टी में मिल जाना है । पुराने राजाओं के मजबूत किले आज भी खङें हैं । पर कहाँ है । वे राजा ? और कहाँ हैं । उनके वारिस ? आदमी अपनी सात । सत्तर पीङियों का इंतजाम करता है । और अंत में झूठे अहम में नरक में जाता है । पालने वाला भगवान है या आप ? क्या आप अपने परिजनों का भाग्य बदल सकते हैं ? हरगिज नहीं । तो फ़िर झूठी दौलत कमाने के स्थान पर स्थायी आराम देने वाले ग्यान को पकङों । कोई ना काहू सुख दुख कर दाता । निज कर कर्म भोग सब भ्राता । * सदा न रहेगा जमाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । आयेगा बुलाबा तो जाना पङेगा । आखिर में सर को झुकाना पङेगा । वहाँ न चलेगा बहाना किसी का ।नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । शौक तुम्हारी रह जायेगी । दौलत तुम्हारी रह जायेगी । नही साथ जाता खजाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । पहले तो अपने आप को संभालो । नहीं है बुराई औरों में निकालो । बुरा है । बुरा जग में बताना किसी को । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । ये तो जहाँ में लगा ही रहेगा । आना किसी का । और जाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । सदा न रहेगा जमाना किसी का ।
सदा न रहेगा जमाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का ।
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गुरुपूर्णिमा उत्सव पर आप सभी सादर आमन्त्रित हैं ।
गुर्रुब्रह्मा गुर्रुविष्णु गुर्रुदेव महेश्वरा । गुरुः साक्षात पारब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ।श्री श्री 1008 श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज " परमहँस "अनन्तकोटि नायक पारब्रह्म परमात्मा की अनुपम अमृत कृपा से ग्राम - उवाली । पो - उरथान । बुझिया के पुल के पास । करहल । मैंनपुरी । में सदगुरुपूर्णिमा उत्सव बङी धूमधाम से सम्पन्न होने जा रहा है । गुरुपूर्णिमा उत्सव का मुख्य उद्देश्य इस असार संसार में व्याकुल पीङित एवं अविधा
से ग्रसित श्रद्धालु भक्तों को ग्यान अमृत का पान कराया जायेगा । यह जीवात्मा सनातन काल से जनम मरण की चक्की में पिसता हुआ धक्के खा रहा है व जघन्य यातनाओं से त्रस्त एवं बैचेन है । जिसे उद्धार करने एवं अमृत पिलाकर सदगुरुदेव यातनाओं से अपनी कृपा से मुक्ति करा देते हैं ।
अतः ऐसे सुअवसर को न भूलें एवं अपनी आत्मा का उद्धार करें । सदगुरुदेव का कहना है । कि मनुष्य यदि पूरी तरह से ग्यान भक्ति के प्रति समर्पण हो । तो आत्मा को परमात्मा को जानने में सदगुरु की कृपा से पन्द्रह मिनट का समय लगता है । इसलिये ऐसे पुनीत अवसर का लाभ उठाकर आत्मा की अमरता प्राप्त करें ।
नोट-- यह आयोजन 25-07-2010 को उवाली ( करहल ) में होगा । जिसमें दो दिन पूर्व से ही दूर दूर से पधारने वाले संत आत्म ग्यान पर सतसंग करेंगे ।
विनीत -
राजीव कुलश्रेष्ठ । आगरा । पंकज अग्रवाल । मैंनपुरी । पंकज कुलश्रेष्ठ । आगरा । अजब सिंह परमार । जगनेर ( आगरा ) । राधारमण गौतम । आगरा । फ़ौरन सिंह । आगरा । रामप्रकाश राठौर । कुसुमाखेङा । भूरे बाबा उर्फ़ पागलानन्द बाबा । करहल । चेतनदास । न . जंगी मैंनपुरी । विजयदास । मैंनपुरी । बालकृष्ण श्रीवास्तव । आगरा । संजय कुलश्रेष्ठ । आगरा । रामसेवक कुलश्रेष्ठ । आगरा । चरन सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । उदयवीर सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । मुकेश यादव । उवाली । मैंनपुरी । रामवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । सत्यवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । कायम सिंह । रमेश चन्द्र । नेत्रपाल सिंह । अशोक कुमार । सरवीर सिंह ।
RAJEEV BABA पर गुरुवार, जुलाई 15, 2010 1 टिप्पणी:
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शनिवार, जुलाई 10, 2010
काल पुरुष..
सतपुरुष के पाँचवे शब्द से उत्पन्न हुआ । काल निरंजन या काल पुरुष या ररंकार शक्ति या राम ही इस सप्त दीप नव खन्ड का मालिक है । जिसके अन्तर्गत यह प्रथ्वी । पाताल । स्वर्गलोक आदि जिन्हें त्रिलोकी कहा जाता है । आते हैं । सतपुरुष के सोलह अंशो में काल निरंजन ही प्रतिकूल स्वभाव वाला था । शेष पन्द्रह सुत । दया । आनन्द । प्रेम आदि गुणों वाले थे । और वे उत्पन्न होने के वाद आनन्दपूर्वक सतपुरुष द्वारा स्थापित अठासी हजार दीपों में से अपने दीप में रहने लगे । यह वह समय था । जब सृष्टि अस्तित्व में नहीं आयी थी । यानी पहली बार भी सृष्टि की शुरुआत नहीं हुयी थी । इसको ठीक तरह से यूँ समझना चाहिये । कि प्रथ्वी । आकाश । स्वर्ग आदि का निर्माण भी नहीं हुआ था । काल निरंजन आनन्द दीप में रहने के स्थान पर एक अलग स्थान पर चला गया । और एक पैर पर खङे होकर तपस्या करने लगा । इसी स्थिति में उसने सत्तर युगों तक तपस्या की । तब उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर सतपुरुष ने उसे अलग से मानसरोवर दीप दे दिया । लेकिन काल निरंजन इससे भी
संतुष्ट नहीं हुआ । और फ़िर से एक पैर पर खङे होकर तपस्या करने लगा । और पूर्ववत ही उसने फ़िर सत्तर युगों तक तपस्या की । तब उसकी तपस्या से सतपुरुष ने उसे तीनों लोक और शून्य का राज्य दे दिया । यानी प्रथ्वी । स्वर्ग । पाताल । और शून्यसत्ता का निर्माण हो गया । ये राज्य सात दीप नवखन्ड में फ़ैला था । यही वो समय या स्थिति थी । जिसको big bang theory कहा जाता है । पर बैग्यानिक जो बात बताते हैं । वह मामूली सही और ज्यादातर गलत है । बिग छोङो । कोई छोटा बेंग भी नहीं हुआ । लेकिन ये प्रथ्वी आदि अस्तित्व में आ गये । और इनमें लगभग उसी तरह बदलाव होने लगा । जैसा कि बैग्यानिक अनुमान लगाते हैं । पर प्रथ्वी किसी भी प्रकार के जन जीवन से एकदम रहित थी । जीव के नाम पर एक छोटा सा कीङा भी नहीं था । वृक्ष भी नहीं थे । अमीबा भी अभी पैदा नहीं हुआ था । और इंसान के बाबा दादा यानी बन्दर या चिम्पेंजी भी नहीं थे । क्योंकि उनके खाने के लिये आम अमरूद के पेङ जो नहीं थे ( हा..हा..हा.) लेकिन इन पर जीवन हो । और उस जीवन के लिये जरूरी
अनुकूलता हो । उसके लिये वायुमंडल आदि में धीरे धीरे वैसे ही परिवर्तन आ रहे थे । जैसा कि बैग्यानिक अनुमान लगाते हैं । काल निरंजन इस सबसे बेफ़िक्र फ़िर तपस्या में जुट गया । और पुनः सत्तर युग तक तपस्या की । दरअसल उसको अपने राज्य के लिये कुछ ऐसी चीजों की आवश्यकता थी । जिससे उसकी इच्छानुसार सृष्टि का निर्माण हो सके । तब सतपुरुष ने उसकी इच्छा जानकर सृष्टि निर्माण के अगले चरण हेतु अपने प्रिय अंश कूर्म को सृष्टि के लिये आवश्यक सामान के साथ भेजा ।
ये सामान कूर्म के उदर में था । कूर्म अति सज्जन स्वभाव के थे । जबकि काल निरंजन तीव्र स्वभाव का था । वह कूर्म को खाली हाथ देखकर चिङ गया । और उन पर प्रहार किया । इस प्रहार से कूर्म का पेट फ़ट गया और उनके उदर से सर्वप्रथम पवन निकले । शीस से तीन गुण सत रज तम निकले । पाँच तत्व । सूर्य चन्द्रमा तारे आदि निकले । यानी तीन लोक और शून्य की सत्ता में सृष्टि की कार्यवाही आगे बङने लगी । वायु सूर्य चन्द्रमा और पाँच तत्व एक्टिव होकर कार्य करने लगे । और प्रथ्वी आदि स्थानों पर जीवन के लिये परिस्थितियाँ तैयार होने लगी । परन्तु प्रथ्वी पर अभी भी किसी प्रकार का जीवन नहीं था । क्योंकि " अमीबा भगवान " का अवतार नहीं हुआ था और पेङ भी अभी नहीं थे । जो बन्दर मामा जी पहुँच जाते । ( हा ..हा..हा.।) खैर । चिन्ता न करें । जब इतना इंतजाम हो गया । तो आगे भी भगवान सुनेगा । देने वाले श्री भगवान । अब इस सूने राज्य से काल निरंजन का भला क्या भला होता । वह बेकरारी से उस चीज के इंतजार में था । जो सृष्टि के लिये परम आवश्यक थी ?
क्या थी ये चीज ?
लिहाजा काल निरंजन फ़िर से तपस्या करने लगा । और युगों तक तपस्या करता रहा । उधर सृष्टि स्वतः सूर्य जल वायु आदि की क्रिया से अनुकूलता की और तेजी से बङ रही थी । क्योंकि प्रदूषण फ़ैलाने वाले अमेरिका और उसके दोस्तों का जन्म नहीं हुआ था । खैर साहब । अबकी बार सतपुरुष ने काल निरंजन की इच्छा जानकर अष्टांगी कन्या यानी आध्या शक्ति को उसके पास जीव बीज " सोहंग " को लेकर भेजा । यही वो चीज थी । जिसका निरंजन को बेकरारी से इंतजार था । लेकिन ये निरंजन अजीव स्वभाव का था । अष्टांगी ने इसको भैया का सम्बोधन
किया । और सतपुरुष की भेंट बताने ही वाली थी । कि ये उसको खा गया । तब उस स्त्री ने जो उस समय एक मात्र " एक " ही थी । उसके उदर के अन्दर से सतपुरुष का ध्यान किया । और सतपुरुष के आदेश से उनका ध्यानकर बाहर निकल आयी । अष्टांगी ने जीव बीज निरंजन को सोंप दिया । काल निरंजन में उस सुन्दर अष्टांगी कन्या को देखकर " काम " जाग गया । और उसने अष्टांगी से रति का प्रस्ताव किया । जिसे थोङी ना नुकुर के बाद अष्टांगी ने मान लिया । वजह दो थी । एक तो वह निरंजन से भयभीत थी । दूसरे वह स्वयं भी रति को इच्छुक हो उठी थी । दोनों वहीं लम्बे समय तक रति करते रहे । जिसके परिणाम स्वरूप । ब्रह्मा । विष्णु । शंकर । का जन्म हुआ । बस उसके कुछ समय बाद ही जब ये ब्रह्मा विष्णु शंकर बहुत छोटे बालक थे । निरंजन अष्टांगी को आगे की सृष्टि आदि
करने के बारे में बताकर । शून्य में जाकर अदृश्य हो गया । और आज तक अदृश्य है । यही निरंजन या ररंकार शक्ति राम कृष्ण के रूप में दो बङे अवतार धारण करती है । और तब इसके सहयोग में अष्टांगी सीता । राधा । के रूप में अवतार लेती है । जब ये तीनों बालक कुछ बङे हो गये तो इन चारों ने मिलकर " सृष्टि बीज " से सृष्टि का निर्माण किया । अष्टांगी ने अपने अंश से कुछ कन्यायें गुपचुप उत्पन्नकर समुद्र में छुपा दीं । जो अष्टांगी के प्लान के अनुसार नाटकीय तरीके से इन तीनों किशोरों को मिल गयीं । जिसे उन्होंने माँ के कहने से पत्नी मान लिया । ये तीन कन्यायें । सावित्री । लक्ष्मी । पार्वती थी । इस तरह सृष्टि की शुरुआत हो गयी । इस सम्बन्ध में और जानने के लिये कुछ अन्य लेख भी पढने होंगे । जो ब्लाग में प्रकाशित हो चुके हैं । " जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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बुधवार, जून 30, 2010
सांख्य और योग में समाधि लाभ
आत्मा तथा परमात्मा का अस्तित्व प्रमाण और लक्षण से सिद्ध करने के बाद शोधकर्ताओं ने न केवल आत्मा का या परमात्मा का बल्कि अतीन्द्रिय जङ पदार्थों का भी रहस्य जानने के लिये योग साधना को ही उपयुक्त माना है । और अन्य साधनों से यह प्राप्त नहीं होगा । ऐसा निश्चय किया है । आत्मा और मन का जब योग समाधि द्वारा प्रत्यक्ष संयोग होता है । तब उस संयोग से ही आत्मा का प्रत्यक्ष होता है । इसी प्रकार सूक्ष्म और इन्द्रियों से परे पदार्थों का भी प्रत्यक्ष या देखना होता है । जो योगी समाधि को समाप्त कर चुके हैं । वो विना समाधि अवस्था के ही इनको देखते हैं । आत्मा में प्रविष्ट होने से आत्मा के गुणों को जाना जाता
है । समाधि विशेष के अभ्यास से तत्व ग्यान को जाना जा सकता है । सांख्य के समान दूसरा ग्यान नहीं । योग के समान दूसरा बल नहीं । ऐसा पुरातन प्रमाण कहा गया है । चित्त को नाश करके योग में गति होती है । अतः चित्त को नाश करने की दो निष्ठायें कहीं जाती हैं । ये सांख्य और योग हैं । चित्त वृति के निरोध से योग और सम्यक ग्यान से सांख्य की प्राप्ति होती है । सांख्य और योग अलग अलग नहीं हैं । दोनों का फ़ल एक ही है ।
योग द्वारा अंतर्मुख होने के लिये । यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार । ये पाँच बाह्य उपाय हैं । धारणा ध्यान समाधि । ये तीन आन्तरिक उपाय हैं । सांख्य द्वारा अंतर्मुख होने के लिये पाँच बाह्य उपाय योग के ही होते हैं । योग में धारणा ध्यान समाधि किसी विषय को ध्येय बनाकर करते हैं । इसके विपरीत सांख्य में बिना ध्येय के अन्तर्मुख होते हैं । इसमें चित्त और उसकी वृतियां तीन गुणो वाली हैं । यानी गुण ही गुणों में वरत रहे हैं । इस भाव से आत्मा को चित्त से अलग करके देखते हैं । इस प्रकार वैराग द्वारा इस वइति का निरोध होने पर शुद्ध चैतन्यस्वरूप स्थित को देखते हैं ।
योग में उत्तम अधिकारियों के लिये असम्प्रग्यात समाधि लाभ के विशेष उपाय और ईश्वर प्रणिधान को इस
तरह जानें । यह ॐ की मात्राओं द्वारा उपासना है ।
वाणी से जाप--एक मात्रा वाले अकार ॐ की उपासना । इसमें स्थूल शरीर का अभिमान होता है । स्थूल शरीर से आत्मा की संग्या " विश्व " उपासक होता है । स्थूल शरीर से परमात्मा विराट है । वह उपास्य होता है ।
दूसरा " मानसिक जाप --अकार उकार दो मात्रा वाले ॐ की उपासना है । इसमें सूक्ष्म शरीर का अभिमान है ।सूक्ष्म शरीर से आत्मा की संग्या " तेजस " उपासक कही गयी है । सूक्ष्म जगत से परमात्मा हिरण्यगर्भ
उपास्य है ।
तीसरा " ध्यान ध्वनि जाप " है । अकार उकार मकार तीन मात्रा वाले ॐ की उपासना । इसमें कारण शरीर का अभिमान होता है । कारण शरीर से आत्मा की संग्या " प्राग्य " उपासक है । कारण जगत से परमात्मा " ईश्वर उपास्य है ।
( मेरे ख्याल से शास्त्रकारों से कहीं त्रुटि हुयी है । स्थूल से ईश्वर । सूक्ष्म से हिरण्यगर्भ । और कारण से विराट । ऐसा होना चाहिये । यह मत शास्त्रों के अनुसार है । संभवत टीकाकारों या मुद्रण में गलती से ऐसा हुआ हो । वैसे भी धर्म में " मतभेद " होना स्वाभाविक है । )
जब ये तीन मात्रा वाली ध्वनि सूक्ष्म होते होते निरुद्ध हो जाय । और अमात्र विराम रह जाय । तब यह कारण शरीर कारण जगत से परे शुद्ध परमात्म प्राप्ति रूप अवस्था है । जो प्राणि मात्र का ध्येय है । ( मेरे हिसाब से ऐसा कह सकते है । पर यही अंतिम सत्य नहीं है । और यही परमात्मा है । ये तो एकदम ही गलत है । यह योग की उच्च स्थित है । इससे ऊपर योग में ही तीन शरीर अन्य है । उनको प्राप्त करने के बाद परमात्मा के मार्ग पर दृष्टि जाती है । यह योगियों का मत है । संतो का नहीं ? ) सांख्य में उपरोक्त उपाय " ध्यानं निर्विषयं मनः " द्वारा है । इसके द्वारा जो वृति आये उसको दवाना होता है । अंत में सब वृतिया रुक जाने पर निरोध वृति का भी निरोध करें । यहीं स्वरूप को जानना है । योग का भक्ति का लम्बा मार्ग सुगम है । इसके विपरीत सांख्य के ग्यान का छोटा मार्ग कठिन है । " जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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समाधि के विषय में ..।
आईये धारणा ध्यान समाधि के बारे में बात करते हैं ।
पहली " धारणा " है । ध्यान अवस्था में जब इन्द्रियाँ अन्तर्मुख हो जाती है । तब ध्य्र्य विषय । नाभि ह्रदयकमल । नाक का अग्र भाग । भृकुटि । ब्रह्मरन्ध्र आदि अध्यात्मिक देशरूप या विषय या चन्द्रध्रुव आदि बाहर देशरूप विषय इसी को ध्येय कहते हैं । ध्येय यानी ध्यान का विषय । इसमें स्थिर होना होता है । इसी एक ध्येय विषय में वृति को बाँधने को धारणा कहा गया है ।
दूसरा " ध्यान " है । ध्यान में चित्त जिस विषय में लगता है । वह विषय लगातार दिखाई दे । अन्य कुछ बीच में न आये और स्थिरता होने लगे । उसको ध्यान कहते हैं ।
तीसरा " समाधि " है । जिस विषय में धारणा करते हुये ध्यान के द्वारा वृति स्थिर होकर जब उसमें ध्येय केवल अर्थमात्र से नजर आता है । और ध्यान का स्वरूप शून्य जैसा हो जाता है ।उसे समाधि कहा गया है ।
जब किसी विषय में चित्त को ठहराते है । तब चित्त की वह विषयाकारवृति तीनों आकारों के इकठ्ठी होने से त्रिपुटी होती है । समाधि का अनुभव इस तरह होता है कि ये पता नहीं लगता कि मैं ध्यान कर रहा हूँ ।
लेकिन जब धारणा ध्यान समाधि एक ही विषय में करनी हो तो उसको " सयंम " कहते हैं । अभ्यास के बल से सयंम का परिपक्व हो जाना सयंम की जीत है । सयंम को स्थूल सूक्ष्म आलम्बन के भेद से रहती हुयी चित्तवृतियों में लगाना चाहिये । पहले स्थूल को जीतें फ़िर सूक्ष्म को । इस तरह कृमशः नीचे की भूमियों को जीतें । तदुपरान्त ऊपर की भूमि में सयंम करें । नीचे की भूमियों को जीते विना ऊपर की भूमियों में सयंम करने वाला विवेक ग्यान रूपी फ़ल नहीं पाता । यदि ईश्वर के अनुग्रह से योगी का चित्त पहले ही उत्तरभूमि में लगने योग्य है । तो फ़िर नीचे लगाने की आवश्यकता नहीं होती । चित्त किस योग्यता का है । इसका ग्यान योगी को योग द्वारा स्वयं हो जाता है ।
आईये शब्द के बारे में जानें । शब्द तीन प्रकार का है । पहला वर्णात्मक है । क ख ग आदि जो वाणी रूपी इन्द्रिय से उत्पन्न होता है । दूसरा धुनात्मक या नादात्मक है । यह प्रयत्न द्वारा प्रेरित उदान वायु का परिणाम विशेष है । यही शब्दों की धारा को उत्पन्न करता हुआ श्रोता के कान तक जाता है ।
तीसरा स्फ़ोट होता है । यह अर्थव बोधक केवल बुद्धि से ग्रहीत होता है । निरवयव नित्य और निष्कर्म है । वर्ण शीघ्र उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं । इनका मेल नहीं होता । क्योंकि गौ = ग के समय औ नहीं है । पचति में इकार स्फ़ोट व्यंजक है । वैसे स्फ़ोट का बङा शास्त्रार्थ है । शब्द अर्थ ग्यान का परस्वर अध्यास भिन्नों में अभिन्न बुद्धि से होता है । आरोप को अर्थात में अन्य में अन्य बुद्धि करने को अध्यास कहते है ।
शब्दों का अर्थ और ग्यान के साथ संकेतरूप । इसका यह अर्थ है । यह अध्यास है । पर वास्तव में शब्द अर्थ और प्रत्यय तीनों भिन्न हैं । जब उनके भेद में योगी चित्त को एकाग्र करता है । तब उनका प्रत्यक्ष कर पशु पक्षियों की बोली जान लेता है । ये क्या बोल रहे हैं । योगियों में विचित्र शक्ति होती है । इसीलिये धारणा ध्यान समाधि की बेहद महिमा है । साधारण लोगों को जो शब्द अर्थ और ग्यान का भेद प्रतीत होता है । वह समाधि जन्य नहीं है । इससे वे नहीं जान सकते ।
संस्कार का साक्षात करने से पूर्व जन्मों का ग्यान होता है । संस्कार दो प्रकार के होते हैं । एक स्मृति बीज रूप में रहते हैं । जो स्मृति और कलेशों का कारण हैं । दूसरे विपाक के कारण वासना रूप में रहते हैं । जो जन्म आयु भोग और सुख दुख का कारण हैं । ये धर्म और अधर्म रूप हैं । ये सब संस्कार इस जन्म और पिछले जन्म में किये हुये कर्मों के कारण रिकार्ड की तरह चित्त में चित्रित रहते हैं । इसमें सयंम करने से जिस देश काल और निमित्त में वे संस्कार बने हैं । उनका ग्यान हो जाता है । दूसरों के संस्कार साक्षात करने से दूसरों का तथा आगे के संस्कार साक्षात करने से आगे का ग्यान हो जाता है ।
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
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सोमवार, जून 28, 2010
विधा दो प्रकार की होती है ।
विधा दो प्रकार की होती है ।
1--अपरा--कहना , सुनना , देखना , लिखना , पढना , आदि भौतिक तत्वो के मध्य सब कुछ आदि ।
2-- परा-- न वाणी के माध्यम से कही जाती है । न इन्द्रियों द्वारा देखी कही सुनी जाती है । और भौतिक से संगत नहीं करती । इसे " सहज योग " राज योग " राज विधा " ब्रह्म विधा " या गुहियम भेद भी कहा गया है । जो पराविधा का अभ्यास करता है । वह ग्यान तथा विग्यान दोनों को पाकर । विग्यान के परे जाकर परमात्मा का स्वरूप अनुभव करता है । जो अंतकरणः के सबसे भीतरी स्थान के समस्त ग्यान का आदिकरण है । अपने शरीर को मानना ही परिवर्तन है । यानी जन्म मरण है । कर्तापन के अभिमान से ही यह अच्छा बुरा भोगता है ।सुष्मणा से कन्ठ पर चूल्हे की आकृति की " हुता " नामक नाङी स्थित है । इस नाङी से जीव संगत करता है । और संस्कारों को उसी नाङी में जमा करता है । उन्ही संस्कारों का प्रतिफ़ल पाता है । और अंत समय अपने साथ ले जाता है । कन्ठ देश से ऊपर जिहवा का तन्तु है । उसको जानने से तन्तु भूख प्यास की चेष्टा बन्द कर देता है । जीव अंत समय में संसार की जिन वस्तुओं का ध्यान करता है । उन्ही के आकार का । उसी के अनुसार शरीर धारणकर भोग भोगने पङते हैं ।
अब आईये वाणी के बारे में जानें ?
वाणी चार प्रकार की होती है । 1--बैखरी--तेज चिल्लाकर बोलना । 2--मध्यमा--साधारण बातचीत । 3--पश्यन्ति--ऊँ आँ ओ..एई..आ..अह..आदि । 4--परा--जीभ को तालू से लगाकर स्वांस को नाभि तक पूरा जाने दें । तथा फ़िर बाहर पूरी तरह से निकालें । फ़िर उसके अन्दर ध्यान से सुनने पर एक " ध्वनात्मक शब्द " सुनाई देता है । वह परावाणी है । इसी वाणी में वह अक्षर निहित है ।
सन्यास चार प्रकार का होता है । 1--मीन--मछली जैसे पानी की धारा विचार करती हुयी चङती चली जाती है ।
2--मरकट-- जिस प्रकार बन्दर एक डाली से दूसरी डाली पर कूदने में संजम कर वापस लौट आता है ।
3--विहंगम--पक्षी आकाश में उङता चला जाता है । और आगे का ग्यान न होने पर वापस लौट आता है ।
4--शून्य--साधक इन्द्रियों के परे जाकर प्राण में अक्षर में मिल जाता है । यह अक्षर शून्य से सता रखता है ।
यह योगी अत्यन्त श्रेष्ठ योगी है । वह शक्तियों को प्राप्त कर चारों पदार्थों को पाता है ।
विशेष--योगी भ्रंग की ध्वनि का अभ्यास नित्य करे तो संस्कार से रहित हो जाता है । यह ध्वनि साधक जिह्वा को तालू से लगाकर नाभि स्वांस को बहुत धीमी गति से देर तक निकाले । तथा देर तक धीरे धीरे स्वांस को कुम्भक करे । और अपने ध्यान को कंठ पर दृणता से जमाये । तो वहाँ भ्रंग ध्वनि पैदा हो जायेगी । तब कंठ की " हुता " नाङी में रखे सब संस्कार जलकर भस्म हो जायेंगे । जो स्वांस ऊपर को जाता है । वह " संस्कार " शब्द का उच्चारण करता हुआ नाभि पर ठहरता है । नाभि से बाहर आने वाला स्वांस " हंकार " शब्द को प्रकट करता हुआ आता है । वह हंसा प्राण का ही शब्द है । बार बार स्वांस के आने जाने में प्राण में " हंसो हंसो " शब्द पलटकर " सोहं सोहं " का शब्द प्रकट होता है । इस का अभ्यास योग के द्वारा करके क्रियात्मक रूप से योगीजन योग में पारंगत हो जाते हैं । आत्मा ( हंस ) शरीर में सात द्वार ऊपर है । मुख , नाक , कान आँख सात द्वार ऊपर हैं । तथा गुदा और लिंग दो द्वार नीचे हैं । ये नौ द्वार हैं । आत्मा हंस रूप में आने जाने वाली स्वांस के द्वारा सारे शरीर में व्यापक स्थित है । " हंसो..सोहंग " प्राणवाक्य हंस शब्द ग्यान और मोक्ष यानी मुक्ति का साधन रूप है । रात दिन 24 घन्टो में स्वांस गति ( गिनती ) 21600 है । यह " हंसो " ही अजपा है । इसी को प्रणव मन्त्र या महामन्त्र भी कहते है । यह तत्व से जीव जपता है ।
बार बार प्राण वायु को शरीर से बाहर निकालने का तथा यथाशक्ति बाहर रोके रहने का आग्रह अभ्यास करने से मन में निर्मलता आ जाती है । तथा शरीर में सभी नाङियां साफ़ होकर मल से रहित हो जाती है । फ़िर शरीर किसी भी प्रकार के रोग " वात पित्त कफ़ " से रहित होकर शक्ति को प्राप्त करता है । इस प्रकार के विषय जीवों को लगे हैं । शब्द यानी ध्वनि का विषय सर्प और मृग आदि को लगा है । वह बीन के वश में हो जाता है । रूप का विषय " पतंगा को लगा है । प्रकाश की लौ पर आकर्षित होकर जलकर मर जाता है । रस " मछली " को स्वाद की खातिर कांटे में फ़ँसकर मर जाती है । गन्ध का विषय " भंवरा " को लगा है । कमल के फ़ूल में बन्द होकर मर जाता है । स्पर्श का विषय " हाथी " को प्रिय है । भूसा भरी हथिनी को देखकर काम स्पर्श के उद्देश्य से उसके समीप जाता है । और कैद कर लिया जाता है । शब्द रूप रस गन्ध स्पर्श ये पाँचों विषय मनुष्य को लगे हैं । इन्ही से बन्धन में है ।
सूक्ष्म तन्मात्राओं में ये पाँच अनुभव होते हैं । शब्द में दिव्य शब्द । रूप में अदभुत रूप । रस में जिह्वा पर
अनुभूति ।गन्ध में विशेष गन्ध । स्पर्श में परमात्म स्पर्श । एक भी तन्मात्रा प्राप्त होने पर परमात्मा का
सानिंध्य पाने लगता है । बीज मन्त्र सात है । " ॐ , ह्यीं , श्रीं , क्लीं , एं , रंग . सोहंग " और अंत में " दोष पराया देख कर चले हसंत हसंत । अपनो याद न आवये जाको आदि न अंत । "
अब एक विशेष बात -- ये कुछ लेख मैंने पाठको के विशेष आग्रह पर लिखे है । इसलिये मैं बता देना चाहता हूँ कि ये " योग और योगियों का ग्यान है । इस से शक्ति प्राप्त होती है । आत्मग्यान या परमात्मा नहीं । उक्त ग्यान को मेरे अनुसार " भक्ति " नहीं कह सकते । दूसरे आप इनमें से कोई क्रिया प्रक्टीकल के तौर पर न करें । ये सामान्य बात नहीं है । इनको विशेष देखरेख में करना होता है ।
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
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गुरुवार, दिसंबर 23, 2010
पानी । जो वास्तव में अमृत था ?
आज से 500 वर्ष पहले पीपा नाम का एक क्षत्रिय राजा हुआ । जो राजपूत था । ये कबीर के समय से थोडे समय बाद की बात है । उस समय सुरति शब्द योग यानी सहज योग का प्रचार जोरों पर था । कबीर साहब प्रथ्वी छोडकर वापस सतलोक जा चुके थे । रैदास जी अभी सशरीर थे । रैदास जी । मीरा जी । धर्मदास आदि द्वारा सहज योग के प्रचार से जन जन को इसकी जानकारी हो चुकी थी । सिकन्दर लोदी के अपने धार्मिक गुरु शेख तकी सहित कबीर के चरणों में गिर जाने के बाद और उससे पहले भी काफ़ी संख्या में मुसलमानों ने भी सहज योग अपनाया । जिनमें मगहर का राजा बिजली खां पठान भी था । तो साहब । चारों ओर सहज योग का बोलबाला देखकर पीपा राजा के मन में भी आया कि वह भी किसी अच्छे महात्मा से नाम का उपदेश लेकर नाम की कमाई करे । और अपना उद्धार करे । उसने लोगों से किसी अच्छे महात्मा के बारे में पूछा । लोगों ने कहा । कि अच्छे महात्मा में कबीर साहब को शरीर छोडे समय हो चुका है । इस समय उनका चेला रैदास ही अच्छा महात्मा है । राजा ने सोचा कि अगर चमार को गुरु बनाता है । तो प्रजा पर असर पडेगा कि राजा चमार हो गया है ? पर इस समय दूसरा कोई पहुंचा हुआ संत है नहीं । इसलिये जाना भी जरूरी है । इसलिये छुपकर ऐसे टाइम जाऊंगा । जब किसी को पता ही न लगे । एक बार ऐसा मौका आ गया । कोई मेला लगा था । सब जनता मेला चली गयी । पर राजा न गया । वह छुपता छुपाता रैदास के घर पहुंचा । और बोला । गुरूजी नामदान दे दो । उस समय रैदास चमढा भिगोने के कुन्ड में पानी भर रहे थे । उनके हाथ में मिट्टी का सकोरा था । उन्होने राजा से कहा । ले पहले पानी पी ले । क्योंकि महात्मा का रौब और वाणी ही अलग होती है । अतः पीपा कैसे मना कर पाता । बोला । लाइये महाराज । रैदास ने उसे ओक ( अंजुली ) से पानी पिलाया । ( पानी । जो वास्तव में अमृत था ? ) । पर राजा के मन में चमार वाली बात भरी हुयी थी । उसने मुंह दूसरी ओर करके कुरते की आस्तीन के सहारे वह पानी मुंह से बाहर गिरा दिया । इस तरह बहुत सा पानी कुरते की बांह में लग गया । और उसके अजीब दाग से बन गये । राजा ने सोचा । इसने तो मेरा क्षत्रिय धर्म ही भृष्ट कर दिया । अपने घर का पानी पिलाकर मुझे चमार ही बना दिया । रैदास जी ये बात जान गये । पर उन्होंने पीपा से कुछ नहीं कहा । और चुप ही रहे । राजा ने घर आकर तुरन्त अपना कुरता उतारा । और धोबी को बुलाकर कहा । जा इसको जल्दी धोकर ला । और ध्यान रहे । इस बात की किसी को कानोंकान भी खबर न हो । जी महाराज । कहकर धोबी वस्त्र लेकर चला गया । पहले के समय में जो दाग उतरते नहीं थे । उसे धोबी मुंह में लेकर चूसते थे । इसलिये धोबी खुद मसाला ( कपडे धोने का ) तैयार करने लगा । और अपनी लडकी से बोला । ये दाग चूस चूसकर निकाल । लडकी छोटी ही थी । अतः दाग को चूसने के बाद । थूकने के बजाय पीती चली गयी । ज्यों ज्यों पानी उसके शरीर में जा रहा था । उसके अन्दर प्रकाश होने लगा । माया के परदे उतरने लगे । और ग्यान का प्रकाश होता गया ।..कुछ ही समय में लडकी अलौकिक ग्यान की बातें बोलने लगी । उसकी वाणी में दिव्यता प्रकट हो गयी । चारों तरफ़ ये बात फ़ैल गयी कि फ़लाने धोबी की लडकी तो बहुत ऊंची महात्मा हो गयी । ये खबर राजा के पास भी गयी । उसे आश्चर्य हुआ । उसे महात्माओं के पास जाने का शौक तो लग ही गया था । फ़िर चमार के घर जाने में तो मुश्किल थी । पर धोबी के घर जाने में कोई मुश्किल न थी । रात को राजा फ़िर छुपकर धोबी के घर पहुंचा । उसे देखते ही धोबी की लडकी तुरन्त उठकर खडी हो गयी । पीपा झिझकता हुआ सा बोला । बीबी मैं तेरे पास राजा बनकर नहीं भिखारी बनकर आया हूं । वह लडकी बोली । मैं आपको राजा समझकर उठकर खडी नहीं हुयी । बल्कि आपकी जाति से । आपकी वजह से । जो कृपा मुझ पर हुयी । उसके लिये मैं उठकर खडी हुयी । पीपा हैरान हो गया । मेरी जाति की वजह से । मेरी वजह से ..? हां राजा । लडकी ने कहा । जो रहस्य । जो कृपा । आपके कुरते की बांह में थी । उसे मैंने चूस लिया । उसी कृपा से यह हुआ । ..राजा मन में विचार करने लगा कि वह तो पानी था । जो रैदास जी उसको पिला रहे थे । और वह सोच रहा था कि उसका धर्म भृष्ट कर दिया । तब राजा मन ही मन अपने आपको धिक्कारने लगा । मुझे धिक्कार है । मेरे राज को धिक्कार है । मेरे कुल को धिक्कार है ।.. अब उसने लोकलाज की परवाह न की । और उसी समय दौडा दौडा रैदास जी के पास पहुंचा । और बोला । महाराज जी । फ़िर से वही कुन्ड का पानी पिला दीजिये । रैदास जी ने कहा । अब वह पानी नही मिल सकता । वह तो उसी समय के लिये था । वह कुन्ड का पानी नहीं था । वह सचखन्ड से लाया हुआ अमृत था । जब तू मेरे पास पहली बार आया । मैंने सोचा कि ये क्षत्रिय राजा है । राज छोडकर आया है । इसे कोई खास चीज दूं ।..मगर अब नाम ले । और उसकी कमायी कर ।.. इस तरह रैदास जी ने पीपा को नामदान दिया । और उसने अच्छी कमाई भी की । भक्त पीपा की वाणी गुरु ग्रन्थ साहब में संग्रहीत है ।
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बुधवार, सितंबर 22, 2010
जीवन के पार का रहस्य अंधेरे की काली चादर के पीछे है ।
शाम के लगभग आठ बजने को हैं । मैं गांव के बाहर के एक मन्दिर में हूं । ये मन्दिर शाम सात बजे की आरती के बाद सुनसान हो जाता है । तब इसमें पिछले सात वर्षों से रह रहा एक नागा बाबा ही रह जाता है । नागा बाबा किसी सिद्धि के उल्टा पड जाने के कारण विक्षिप्त हो चुका है । मन्दिर गांव से काफ़ी दूर है । और लगभग जंगली और पहाडी इलाका है । मैं मन्दिर के पिछले हिस्से में काफ़ी दूर बने एक समाधि जैसे चबूतरे पर बैठा हूं । नागा बाबा मन्दिर में गांजा पीने में व्यस्त है । मेरा उससे कोई लेना देना नहीं है । इस वक्त मेरा किसी से कोई लेना देना नहीं है । मैं एक अनोखा संगीत सुनने के लिये यहां रुका हूं । जिसके लिये अंधेरा । एकांत और जंगल होना जरूरी है । संगीत हो रहा है । संगीत निरन्तर है । बस मुझे उसको सुनना है । एकान्त का संगीत । अंधेरे का संगीत । यहां काफ़ी सर्प होते है । काफ़ी अन्य निशाचरी जीव जन्तु होते हैं । जिनसे लोग डरते है । इसलिये वे यहां से अंधेरा होते ही भागते हैं । पर जीवन का रहस्य शायद अंधेरे से ही निकलकर आता है । जब तक हम अंधेरे में नहीं जाते । जब तक उस एकान्त में नहीं जाते । हम रहस्य को ठीक से नहीं जान सकते । जीवन के पार का रहस्य अंधेरे की काली चादर के पीछे है । प्रकृति के संगीत में छुपा है । ये संगीत उन ध्वनियों का है । जो जंगल का अटूट हिस्सा है । झींगुरों की आवाज । टिटहरी की आवाज । कीट पतंगो की आवाज । सारा जंगल संगीतमय हो उठा है । ये ध्वनियां बडी मनमोहक है । अगर कोई इन्हें सुनना जानता हो । मैं इन्हें अक्सर सुनता हूं । जंगल में नहीं होता । तब भी सुनता हूं । इनमें बडे बडे रहस्य है । पहले सभी ध्वनियां एक साथ सुनाई देती हैं । फ़िर कुछ अपने आप सुनाई देना बन्द हो जाती है । फ़िर तीन चार ध्वनियां ही सुनाई देती है । फ़िर किसी एक ध्वनि से आपका अस्तित्व जुड जाता है । बुद्ध ने कहा है । गुफ़ा की शान्ति व्यर्थ है । वह तुम्हारी नहीं गुफ़ा की शान्ति है । गुफ़ा छोडते ही अशान्ति फ़िर से हाजिर हो जायेगी । तुम्हें भीड में शान्त होना है । भीड दो है । एक बाहर की भीड है । एक तुम्हारे अन्दर भीड है । एक कोलाहल बाहर है । एक कोलाहल तुम्हारे अन्दर है । गुफ़ा बाहर का कोलाहल शान्त कर सकती है । उससे क्या होगा ? शान्त अन्दर से होना है । इसके लिये किसी से जुडना
जरूरी है । और वो प्रकृति ही हो सकती है । सभी रहस्य प्रकृति के अन्दर ही तो हैं । तब ये आवाजें क्यों हो रही हैं ? ये किसको पुकार रहीं हैं । ये खुद हमें बताती हैं । बस इनसे पूछना होता है । पूछने के लिये संवाद जरूरी है । पहले सबको सुनो । फ़िर कुछ को सुनो । फ़िर एक को चुनो । ये साधारण बात नहीं । बडी गहन बात है । खास कोई एक होता है । दो होते हैं । बहुत नहीं होते । वो खास तुमसे बात करने का इच्छुक है । पर यदि तुम खुद खास हो जाओ । हां । सच है । खास होना पडता है । खास कोई होता नहीं । बल्कि होना पडता है । खास होने के लिये खास की तरफ़ जाना होता है । तो.. ये सारा संगीत एक रहस्य बताता है । मगर । एक रुकावट हो जाती है । डर की रुकावट । तुम ऐसे माहौल के अभ्यस्त नहीं हो । डर लगता है । डर तुम्हें संगीत नहीं सुनने देता । कोई बात नहीं । अपने घर के पास ही सुनो । ऐसे शुरू करो । तुम्हें यहां भी अजीव सा अहसास होगा । पर याद रखो । डर को दूर करने के लिये डर के पास जाना जरूरी है । जव तुम डर के पास रहने लगते हो । तो डर तुम्हारा पडोसी हो जाता है ।
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गुरुवार, सितंबर 16, 2010
जानों । जानने से लाभ होता है । मानो मत ।
मेरी समझ से internet को हम सूचनाओं का खजाना तो कह सकते हैं । पर ग्यान का खजाना नहीं कह सकते । हो सकता है । इस point पर मैं गलत होऊं । पर मैंने जितने भी समय internet को use किया है । और इच्छित चीजों को search किया है । तो उनके result से मुझे निराशा ही हाथ लगी है । ये तुलना मैं library से कर रहा हूं । library में कुछ देर के प्रयास के बाद कोई ऐसी अनमोल और पुरानी पुस्तक हाथ लग ही जाती थी । जो अगले आठ दिनों तक न सिर्फ़ ग्यान में भारी इजाफ़ा करती । बल्कि मानसिक खुराक का काम भी देती थी । ये घटना लगभग दस साल पहले की है । जब प्राचीन रहस्यों और प्राचीन ग्यान पर एक शोधकर्ता विद्धान की पुस्तक मुझे मिली । मैंने इस पुस्तक को खरीदने हेतु बहुत पता किया । पर वह बाजार आदि में उपलब्ध नहीं थी । और संक्षेप में वह पुस्तक मुझे नहीं मिल पायी । तब मैंने उसके महत्वपूर्ण अंशो को एक डायरी में लिख लिया । लेकिन बाद के साधनाकाल में बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ कि वो डायरी ही कहीं खो गयी । खैर । उस डायरी की याद मुझे एक तोतलाते बालक को देखकर याद आयी । उस diary में चार या पांच अक्षरों का एक ऐसा शब्द था । जिससे हकलाना और तुतलाना ठीक हो जाता था । ये बात एक दिन मुझे महाराज जी के सामने याद आ गयी । मैंने कहा । महाराज जी वह कौन सा शब्द हो सकता है ? आत्मग्यान के साधक को जैसा उत्तर मिल सकता था । वैसा ही मुझे महाराज जी से मिला । थोपे हुये ग्यान को ग्रहण मत करो । तुम्हारी आत्मा के पास हर उत्तर है । और जीवन का वास्तविक लक्ष्य हमेशा याद रखो । ये शरीर तुम्हें बारबार मिलने वाला नहीं है ? सीधी सी बात थी । महाराज जी उस दिन अलग तरह के मूड में थे । इंसान के दिमाग में एक खासियत होती है कि एक बार कोई बात आ जाय । तो सहज निकलती नहीं है । शायद महाराज जी ने यह बात जान ली थी । इसके लगभग दो तीन महीने बाद की बात है । महाराज जी के पास उनका एक शिष्य मिलने आया । जिसके साथ दस साल का बालक था । वह क शब्द को त बोलता था । और भी शब्दों में तुतलाने का अधिक समावेश था । वह शिष्य बालक को यूं ही ले आया था । उसके साथ क्या होने वाला है । ये शायद उसको भी पता नहीं था ? पापा दे तौन एं ? पापा ये कौन हैं ? उसने एक आदमी की तरफ़ इशारा करके पूछा । महाराज जी ने कहा । क बोलो । ता बोलई ना पात । ज बोलो । दा । उसने बोला । मैंने महाराज जी की तरफ़ देखा । उनके चेहरे पर वही शान्ति थी । उनका किसी की तरफ़ कोई ध्यान नहीं था । फ़िर वे उस बालक को बताने लगे । देखो क यहां से निकलता है ? यहां से जोर देकर बोलो । बालक ने वैसा ही किया । कुछ अस्पष्ट खरखराहट उसके कंठ से निकली । इसके बाद लगभग पचास बार के प्रयास में वह तुरन्त क बोलने लगा । अब ज इस तरह से बोलो । यहां जोर देना हैं ..। पांच छह दिन में ही बालक बिना किसी दवा के
एकदम साफ़ उच्चारण करने लगा । उसका पिता इसको चमत्कार बताते हुये महाराज जी के पैरों में गिर गया । महाराज जी ने कहा । ये कोई चमत्कार नहीं है । इसका स्वर यन्त्र अवरुद्ध था । क च प द ग ह आदि अक्षर कंठ तालु नाभि आदि स्थानों से आते हैं । उन स्थानों पर जोर देकर बोलने से उच्चारण सही होने लगता है । और यन्त्र बखूबी कार्य करने लगता है । जाहिर था । महाराज जी ने मेरी शंका का समाधान निराले अंदाज में किया था । बहुत साधारण तरीका । प्रक्टीकल । और एक जीव का भला ।
यही महाराज जी अपने प्रवचन में हमेशा कहते है कि जानों । जानने से लाभ होता है । मानो मत । मानने से कोई लाभ नहीं होता । उलटे तरह तरह के विचारों से आदमी धर्म को लेकर भृमित हो जाता है । सनातन धर्म के बारे में अनेक धारणायें मानने का ही परिणाम है ।
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सोमवार, सितंबर 06, 2010
महाराज जी के प्रवचन का अंश..
जब प्रलय़ होती है । तब प्रथ्वी जल में । जल वायु में । वायु अग्नि में । अग्नि आकाश में । आकाश महतत्व में लय हो जाता है । इसके बाद गूंज रह जाती है । इस तरह प्रलय हो जाती है । इसी गूंज को शब्द कहते हैं । क्योंकि यह ध्वनि जैसा है । इसलिये इसे गूंज कहते हैं । आदि सृष्टि में । जब सबसे पहले परमात्मा द्वारा
प्रथम बार सृष्टि का निर्माण हुआ । इसी गूंज में । हुं । उत्पन्न हुआ । हुं । यानी अहम भाव । या अहम भाव
की स्फ़ुरणा । तब मूल माया उत्पन्न हुयी । इसके बाद दो प्रकृतियां उत्पन्न हुयीं । परा और अपरा । तब इच्छा उत्पन्न हुयी । इच्छा से चाह उत्पन्न हुयी । चाह से वासना पैदा हुयी । और तब उसने सोचा कि कुछ करना चाहिये । तब पांच महाभूत यानी पांच महाशक्तियां उत्पन्न हुयी । फ़िर ये पांच महाभूत आपस में मिश्रित हो गये । और पांच तत्वों की रचना हुयी । प्रथ्वी । जल । वायु । अग्नि । आकाश । उस समय ये सार तत्व या चेतन या परमात्मा पूर्ण था । उसने संकल्प किया कि मैं एक से अनेक हो जाऊं । तब इसके पहले संकल्प से अन्डज की रचना हुयी । दूसरे संकल्प से जलचर यानी कच्छ मच्छ आदि की रचना हुयी । उस समय ये पहली बार घबराया । तब फ़िर से संकल्प किया । और तब वनचर शेर तेंदुआ आदि की रचना हुयी । फ़िर इसके चौथे संकल्प से मनुष्य़ की रचना हुयी । जो आदि मानव हुआ । वायु में प्रथ्वी का भार होता है । अग्नि का तेज होता है । जल की शीतलता होती है । आकाश की मधुरता होती है । उदाहरण जल में से धुंआ निकलता है । वह अग्नि तत्व का होता है । आग पर कपडा रखने से वह भीग ( पसीज ) जाता है । प्रथ्वी में ज्वालामुखी फ़ूटते हैं । ये अग्नि तत्व के उदाहरण हैं । आकाश तत्व में पांचों तत्व सूक्ष्म रूप से मिले हुये हैं । इच्छा खत्म हुयी तो चाह खत्म हो गयी । चाह खत्म हो गयी तो वासना खत्म हो गयी । और ये जैसा का तैसा हो गया । यही वास्तविक मुक्ति है । श्री महाराज जी के प्रवचन से ..।
*****
लेखकीय - इधर व्यस्तता अधिक है । ब्लाग्स का कार्य न के बराबर हो रहा है । सतसंग में सुने गये दुर्लभ
रहस्य को आपके लिये संक्षेप में प्रकाशित कर रहा हूं ।
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महाराज जी के प्रवचन से गूढ दोहे
राम खुदा सब कहें । नाम कोई बिरला नर पावे । है । बिन अक्षर नाम । मिले बिन दाम । सदा सुखकारी ।बाई शख्स को मिले । आस जाने मारी ।
बहुतक मुन्डा भये । कमन्डल लये ।
लम्बे केश । सन्त के वेश । दृव्य हर लेत । मन्त्र दे कानन भरमावे ।
ऐसे गुरु मत करे । फ़न्द मत परे । मन्त्र सिखलावें ।
तेरो रुक जाय कन्ठ । मन्त्र काम नहि आवे । ऐसे गुरु करि भृंग । सदा रहे संग । लोक तोहि चौथा दरसावें ।
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जहां लगि मुख वाणी कहे । तंह लगि काल का ग्रास । वाणी परे जो शब्द है । सो सतगुरु के पास ।
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कोटि नाम संसार में । उनसे मुक्ति न होय । आदि नाम जो गुप्त है । बूझे बिरला कोय ।
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कृत रत नाम जपे तेरी जिह्वा । सत्य नाम सतलोक में लियो महेशी जानि ।
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इन्ड पिन्ड ब्रह्मान्ड से न्यारा । कहो कैसे लख पायेगा । गुरु जौहरी जो भेद बतावे । तब इसको लख पायेगा ।
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घाट घाट चले सो मानवा । औघट चले सो साधु । घाट औघट दोनों तजे । ताको मतो अगाध ।
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अलख लखूं । अलखे लखूं । लखूं निरंजन तोय । हूं सबको लखूं । हूं को लखे न कोय ।
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तोमें राम । मोमें राम । खम्ब में राम । खडग में राम । सब में राम ही राम । श्री महाराज जी के प्रवचन से ..।
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लेखकीय - इधर व्यस्तता अधिक है । ब्लाग्स का कार्य न के बराबर हो रहा है । सतसंग में सुने गये दुर्लभ
रहस्य को आपके लिये संक्षेप में प्रकाशित कर रहा हूं ।
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गुरुवार, सितंबर 02, 2010
गुरु मंडल के बारें में जानकारी ।
internet पर कई लोगों ने मुझसे कहा है । कि गुरु जी के सभी फ़ोटो किसी एक ही स्थान पर उपलब्ध करायें । और हम सरलता से आपके गुरुमंडल से जुड सकें । तथा अपनी बात कह सकें । अपने संदेश आप तक भेज सकें । इसलिये कोई व्यवस्था ऐसी होनी चाहिये । इसलिये शीघ्र एक साइट बनाने का विचार हो रहा है । लेकिन तब तक आप ये सुबिधायें अपना सकते हैं । क्योंकि बहुत से लोग ब्लाग comment के द्वारा अपनी बातें कहना पसन्द नहीं करते । ऐसे लोग Face Book पर Rajeev kumar kulshrestha सर्च करके महाराज जी के फ़ोटो और अन्य फ़ोटो जानकारी एक साथ देख सकते हैं । और जुड भी सकते हैं । अपनी बात भी कर सकते हैं । व्यक्तिगत रूप से golu224@yahoo.com और Rajeevkumar230969@yahoo.com पर मेल कर सकते हैं । फ़ोन द्वारा बात करने के लिये श्री महाराज जी ( गुरु जी ) सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज " परमहंस " का नम्बर 0 9639892934 और मेरा राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ का नम्बर 0 9808742164 है । English में बात करने के लिये shri vinay sharma का नम्बर Mobile No : 0 9873495770 है । English में ही बात करने के लिये एक अनुभवी साधक श्री राधारमण गौतम का नम्बर 0 9760232151 है । internet पर ही मेरे सभी ब्लाग देखने के लिये । राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ । को google search में Copy Pest करें । english में Rajeev kumar kulshrestha को भी Copy Pest कर सकते हैं । satuguru-satykikhoj को भी Copy Pest कर सकते हैं । इसी के साथ अमेरिका के मेरे मित्र त्रयम्बक उपाध्याय ने जो मुझे गुरुजी के नये नये फ़ोटो खींचने का शौक लगा दिया । वह भी मैं गुरु जी के भक्तों शिष्यों के लिये प्रकाशित कर रहा हूं ।
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जीव माया की मोह निद्रा में है ।
तेरी अजर बनी अबनौती । इसमें बिगडा बनी न होती ।
कई दिनों बाद पूज्य श्री महाराज जी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । अबकी बार श्री महाराज जी से एकान्त में गम्भीर वार्ता का काफ़ी समय मिला । और काफ़ी अलौकिक रहस्यों के बारे में जाना । पहले काफ़ी चिल्ला ( डांट ) खायी । क्योंकि आत्म ग्यान में बडे से बडे रहस्य को मौखिक तौर पर जानना तुच्छ समझा जाता है । मुंहजबानी जानने के बजाय साधना से उसे practical स्तर पर जानने का अधिक महत्व होता है । तब मैंने निवेदन किया । महाराज जी सामान्य जन के लिये मौखिक ग्यान प्रेरणा का कार्य करता है । इस पर पहले तो चिल्ला पडी । कि जीव ( आम आदमी ) कहीं भक्ति करना चाहता है ? वह तो धन वासना के पीछे भागता हुआ निरन्तर काल के गाल में जाता हुआ खुश हो रहा है ? तब मैंने निवेदन किया । महाराज जी जीव माया की मोह निद्रा में है । साधु संतों का कार्य ही है । जीव को इस मोह निद्रा से जगाना । हे गुरुदेव । मुझ तुच्छ को आपने ही अहसास कराया । मोह का क्षय हो जाना ही वास्तविक मोक्ष है । न सिर्फ़ बताया । बल्कि मोह का क्षय कैसे होता है । ये सिखाया भी । निर्मल आत्मा का । निज स्वरूप का दर्शन कैसे होता है । इसका सप्रमाणिक रास्ता दिखाया । जिस पर चलते हुये अनेक साधक वास्तविक भक्ति का स्वरूप जान गये । और ग्रहस्थ में रहते हुये भली प्रकार वह भक्ति कर रहे हैं । जो पूर्व में अग्यानतावश समझी जाता था कि हिमालय पर बैठकर ही की जा सकती है ? खैर । अबकी बार जो भी जाना । उसे लगभग सात आठ लेखों में अपने ब्लाग्स में प्रकाशित कर रहा हूं । जो धार्मिक । ऐतहासिक । और ज्योतिष आदि का शोध करने के साथ साथ भक्तों के भी बेहद काम आयेगा । इसी के साथ अमेरिका के मेरे मित्र त्रयम्बक उपाध्याय ने जो मुझे गुरुजी के नये नये फ़ोटो खींचने का शौक लगा दिया । वह भी मैं गुरु जी के भक्तों शिष्यों के लिये प्रकाशित कर रहा हूं ।
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रविवार, अगस्त 22, 2010
ग्वारी विलेज जहां आश्रम की शुरूआत हो चुकी है
आखिरकार वो दिन आ ही गया । जिसका हम महाराज जी । सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँसके शिष्यों को मुद्दत से इंतजार था । पहले महाराज जी फ़ोन भी अपने पास नही रखते थे । और प्रायः नहरआदि एकान्त स्थल या वनक्षेत्र में ही अक्सर रहते थे । इससे हम लोगों को महाराज जी के नित्यदर्शन और सतसंग लाभ आदि से वंचित रहना पडता था । जिससे सभी साधक एक बैचेनी महसूस करते थे । तब
महाराज जी के शिष्यों ने आग्रह किया ।महाराज जी कहीं एक छोटी कुटिया या छोटा आश्रम होना चाहिये । जिससे आपसे काफ़ी दूर से मिलने की आस ले के आया श्रद्धालु कुछ राहत महसूस कर सके । तब महाराज जी ने कहा । अभी नहीं । अभी स्थायी रूप से रहने का इरादा नहीं है । मैं राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ महाराज जी का लाडला होने के कारण पीछे पड गया कि महाराज जी सुबह शाम नित्य आपके दर्शन और सतसंग का लाभ हम बच्चों को कबसे प्राप्त होगा ? तब कुछ दिनों पहले महाराज जी ने आगामी क्वार महीने 2010 से स्थायी रूप से रहने की बात कही । लेकिन उन्होंने हम पर कृपा करते हुये एक मोबायल फ़ोन 0 96398 92934 रखना अवश्य स्वीकार कर लिया । इससे इतना फ़ायदा तो हो ही गया कि महाराज जी से किसी भी समय बात कर सकते थे । और उनके दर्शन हेतु उस स्थान पर जा सकते थे । खैर फ़िर भी हमें महाराज जी के एक निश्चित स्थान पर रहने का इंतजार अभी भी था । और आखिरकार महाराज जी ने
ग्वारी गांव में सघन वृक्षों के नीचे एकान्त स्थान में कुटिया बनाने की स्वीकृति दे दी । देखते ही देखते ट्रेक्टर
आदि से जमीन एक सी कराकर एक बीस फ़ुट लम्बी बीस फ़ुट चौडी कुटिया जिसे साधुओं की भाषा मेंबंगला कहते हैं । तैयार हो गयी । और शीघ्र ही उसके चारों तरफ़ फ़ूल आदि पेडों की बाड और गेट आदि बनाने का कार्य शुरू हो गया । उस स्थान पर बिजली और नल की बोरिंग पहले से ही मौजूद थी । आने जाने वालों की सुविधाओं का ध्यान रखते हुये महाराज जी ने आश्रम का स्थान मेन रोड से महज आधा किलोमीटर अन्दर समुचित रास्ते वाला ही चुना । उत्तर प्रदेश के जिला मैंनपुरी और जिला इटावा को आपस में जोडने वाली सडक पर । करहल तहसील और पूर्व मुख्यमन्त्री सपा मुखिया श्री मुलायम सिंह यादव का गांव सैफ़ई । इस आश्रम से लगभग चौदह किलोमीटर के अन्तर पर है । श्री मुलायम सिंह यादव का ग्रहनगर और क्षेत्र होने से मैंनपुरी से इटावा तक का अधिकांश क्षेत्र निर्माण और भव्यता के स्तर पर किसी अति आधुनिक शहर या विदेशी भूमि का अहसास दिलाता है । अति आधुनिक और चिकनी मजबूत सडकों का जाल पूरे क्षेत्र में बिछा हुआ है । सैफ़ई में हवाई अड्डा से लेकर उच्चस्तर के अस्पताल स्टेडियम और अन्य प्रकार की सुविधायें भी मौजूद है । जहां तक मेरी जानकारी है । सैफ़ई का विधुत उत्पादन उसी स्थान पर होता है । और चौबीस घन्टे बिजली रहती है । यह सब कहने का आशय यह है कि ना जानकारी वाले जो लोग मैंनपुरी को पिछडा क्षेत्र मानते हैं । यहां आकर चकाचौंध हो जाते हैं । मैंनपुरी से
इटावा के बीच में लगभग 55 किलोमीटर का अन्तर है । आगरा से मैंनपुरी और इटावा दोनों ही लगभग 125 किलोमीटर की दूरी पर है । मैंनपुरी से ग्वारी विलेज जहां आश्रम की शुरूआत हो चुकी है लगभग 18 किलोमीटर दूर है । इटावा से ग्वारी विलेज 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । दिल्ली से मैंनपुरी के लिये सीधी बस सेवा और रेल सेवा उपलव्ध है । कानपुर से भी सीधी बस सेवा उपलब्ध है । दिन रात चौबीस घन्टे के किसी भी समय इस स्थान पर पहुंचने में किसी प्रकार की दिक्कत और किसी प्रकार का भय नहीं है । फ़िलहाल आश्रम में और साधुओं के रहने तथा आने जाने वालों के ठहरने हेतु कुछ कमरों का निर्माण प्रारम्भ होने वाला है । और साथ ही कुछ ही दिनों में एक अलग आश्रम पर विचार चल रहा है ।
जिसका स्थान तय हो चुका है । जो लोग संत मत sant mat की आत्म दर्शन की परमात्मा से मिलाने वाली इस दिव्य साधना DIVY SADHNA का अनुभव करना चाहते हैं । वे महाराज जी सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस के पास इस आश्रम में पहुंचकर ग्यान प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु अच्छे परिणाम के लिये उन्हें कम से कम आठ दिन का समय लेकर आना होगा । मेडीटेसन या अन्य ध्यान साधनाओं का पूर्व में अभ्यास कर चुके साधक आठ दिन में दिव्य अनुभूतियों और समाधि का अनुभव आसानी से प्राप्त कर लेते हैं । ऐसा मेरा कई बार का अनुभव है । अंत में अपने सभी सतसंगी भाईयों और प्रेमीजनों को जय गुरुदेव की । जय जय श्री गुरुदेव ।
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आत्म दर्शन के आध्यात्मिक विचारों का आदान प्रदान " करने हेतु
" जय जय श्री गुरुदेव " प्रातः स्मरणीय सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस
मुख्य आश्रम - ग्वारी गांव । करहल । परमानन्द शोध संस्थान आगरा (उ .प्र .) भारत जिला - मैंनपुरी ।
Parmanand Research Institute Agra (u.p ) India ( मैंनपुरी इटावा रोड पर । बुझिया पुल से 6 km )
सम्पर्क- ( 0 ) 98087 42164 ( राजीव ) ( 0 ) 96398 92934 ( गुरुदेव )
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निवेदन- समस्त विश्व समुदाय के भाई बहनों से निवेदन है कि हम विश्व स्तर पर दिव्य साधना DIVY SADHNA का एक "आध्यात्मिक मंच " का गठन करना चाहते हैं । जिसमें विश्व का कोई भी नागरिक अपनी भागीदारी कर सकता है । यह पूर्णतया निशुल्क और गैरलाभ उद्देश्य की "आपस में भाईचारा और आत्म दर्शन के आध्यात्मिक विचारों का आदान प्रदान " करने हेतु प्रारम्भ की गयी एक सीधी और सरल योजना है ।
उद्देश्य- आज के समय में विश्व में अनेकों मत और धर्म प्रचलित है । लेकिन अधिकतर लोग असन्तुष्ट हैं । प्रत्येक को अपने धर्म में अच्छाई और बुराई दोनों ही नजर आती है..लेकिन हमें इससे कोई लेना देना नहीं हैं । एक मनुष्य होने के नाते हमारे कर्तव्य हमारे अपने विचार क्या हैं..ये महत्वपूर्ण हैं । वास्तव में मनुष्य के रूप में हम एक ही है और सबकी आत्मा का एक ही धर्म है "सनातन धर्म "! आज अगर समाज के अंदर से बुराईयों का समूल नाश करना है तो इस विचार से ही , इस भावना से ही हो सकता है कि हम एक ही परमात्मा की संतान है । क्या आप मुझसे सहमत हैं । यदि हाँ तो हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिये क्या कर रहें हैं । हमारे ग्यान का अन्य
को क्या लाभ है और क्या लाभ हो सकता है ? इस पर एक "साझामंच " बनाने में हमारी यथासंभव मदद करें ।
यदि आप सहमत हैं तो कृपया निम्न जानकारी भरकर भेंजे और इसके अतिरिक्त आप कोई अन्य उत्तम विचार रखते हों तो कृपया अवश्य बतायें ।
आप का नाम...............................................माता /पिता का नाम..........................................
लिंग-स्त्री /पुरुष....................आयु................धर्म- यदि बताना चाहें............................................
विवाहित /अविवाहित /विधवा / विधुर .................................................................................
शहर /ग्राम...........................जिला.......................राज्य......................देश.......................
स्थायी पता .....................................................................................................................
वर्तमानपता.....................................................................................................................
कार्य /नौकरी / व्यवसाय....................................फ़ोन नम्बर,std कोड सहित.............................
मोबायल नम्बर...............................................
क्या आपने गुरुदीक्षा ली हैं......................यदि हाँ तो किस से....................................................
( अधिक गुरुओं से दीक्षा ली होने पर पाँच गुरुओं तक के नाम बताएं , जो आपको श्रेष्ठ लगे हों .)
1-.........................................................2-....................................................................
3-..........................................................4-...................................................................
5-...........................................................6-..................................................................
( क्षमा करें पर हमें और आपको भी ऐसे कई लोगों से वास्ता पङा होगा जो कई गुरुओं की शरण में जा चुके हैं और ये सच है कि जब तक सच्चे संत सच्चे गुरु न मिल जायं , हमें अपनी तलाश जारी रहनी चाहिये । कार्तिकेय जी ने कई गुरु किये थे , जब हम ग्यान को अक्सर थोङा ही समझते हैं तो अक्सर साधारण बाबा पुजारी आदि को गुरु बना लेते हैं और फ़िर अधिक समझ आने पर ऊँचा या पहुँचा हुआ गुरु बनाते हैं..ये उसी तरह है जब तक बीमारी कट न जाय हम डाक्टर बदलते रहते हैं.इस सम्बन्ध में अधिक जाननें के लिये ब्लाग देखें / फ़ोन करें / व्यक्तिगत मिलें ।
आपके गुरु ने जो मन्त्र दिया , उसमें अक्षरों की संख्या (गिनती ) कितनी थी. (मन्त्र न बताएं ).................
.......................यदि इस प्रश्न का उत्तर न देना चाहें तो कोई बात नहीं .
विशेष-इस प्रश्न का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि आप संत मत sant mat के उस "महामन्त्र "को जानते हैं जो सिर्फ़ "ढाई अक्षर "का है और मुक्ति और आत्मकल्याण का इकलौता मन्त्र है और सतगुरु द्वारा दिये जाने पर बहुत जल्द प्रभाव दिखाता है.. सतगुरु कबीर साहेब मीरा ,दादू, पलटू , हनुमानजी ,बुद्ध, शंकरजी ,रामकृष्ण परमहँस ,तुलसीदास ,नानक वाल्मीक आदि ने जिसको जपा है और वर्तमान में भी कई संत जिसका उपदेश कर रहें है आप को उस मन्त्र का ग्यान है या नहीं ??
निम्न प्रश्नों का उत्तर हाँ या ना में ही दे , यदि नही देना चाहते तो भी कोई बात नहीं..हमारा उद्देश्य आपकोवास्तविक ग्यान से परिचय कराना ही है
1-दीक्षा के बाद आपको कोई अलौकिक अनुभव हुआ .हाँ / नहीं .............................
2-कितने दिन में हुआ..हाँ / नहीं.....................................................................
3-आपने सूक्ष्म लोकों या लोक लोकांतरों के भ्रमण का अनुभव किया या नहीं..हाँ / नहीं................
4-आपको प्रकाश दिखता है या नहीं...हाँ / नहीं...................................
5-आप मानते हैं मुक्ति जीते जी ही होती है मरने के बाद नही..हाँ / नही..................
6-आपको चेतन समाधि का अनुभव हुआ ..हाँ / नहीं ...................................
7-आपका ध्यान कितनी देर तक लग जाता है.. 1 घन्टे 2 घन्टे 3 घन्टे........................................
8- अन्य कोई अनुभव, यदि हो-......................................................................................
...................................................................................................................................
9-आपका कोई सुझाव-...................................................................................................
................................................................................................................................
................................................................................................................................
10-जो बात इस संदेश में आपको पसंद न आयी हो-...............................................................
.................................................................................................................................
विनीत-
समस्त " परमानन्द शोध संस्थान " साधक संघ
विशेष- हमारा उद्देश्य न तो किसी प्रकार का विवाद फ़ैलाना है और न ही किसी व्यक्ति या धर्म को ठेस पहुचाँना है ।
बल्कि हमारा उद्देश्य ऐसे व्यक्तियों और साधकों से परिचय तथा संवाद करना है जो हमारी जैसी आत्म दर्शन की सोच रखते है तथा आत्मकल्याण हेतु सुरती शब्द साधना ,सहज योग या राजयोग साधना कर रहें और अन्य जीवों को चेताने में विश्वास रखते हैं ..फ़िर भी यदि किसी को कोई बात आपत्तिजनक लगती हो तो कृपया हमें Email करें । हम आपकी भावनाओं का सम्मान करते हुये अपनी कमीं अवश्य दूर करेंगे ।
golu224@yahoo.com ...satguru555@yahoo.com ....rajeevkumar23096@yahoo.com
बुरा जो देखन में चलया , बुरा न मिलया कोय ,जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोय ।
कबीर सब ते हम बुरे, हम ते भले सब कोय , जिन ऐसा कर बूझिया मित्र हमारा सोय ।
धन्यवाद
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शनिवार, अगस्त 21, 2010
हनुमान जी का जन्म
बहुत कम लोग ये बात जानते होंगे कि हनुमान जी का जन्म कैसे हुआ . श्री रामचन्द्रजी के पदस्पर्श से पत्थर से औरत बनी अहिल्या हनुमानजी की नानी थीं .और गौतम रिषी उनके नाना थे . हनुमान की माता अंजनी गौतम की पुत्री थीं . ये बात बहुत से लोगो को पता है कि इन्द्र अहिल्या पर आसक्त हो गया था.उसने एक दिन एक चाल चली .उसे पता था कि गौतम सुबह चार बजे गंगा स्नान के लिये जाते हैं .उसने अपने एक साथी के साथ मिल कर एक दिन रात के दो बजे सूर्य निकलने जैसा प्रकाश फ़ैला दिया . और मुर्गे की नकली बांग निकाली .होनी ही थी, कि गौतम ने उसे सच समझा और गंगास्नान के लिये चले गये .उधर इन्द्र ने गौतम का वेश बनाकर अहिल्या के साथ व्यभिचार किया .वास्तव में थोडी ही देर में अहिल्या को पता चल गया कि उसके साथ कामाचार करने वाला कोई कपटी है लेकिन उसने कोई एतराज नहीं किया . अंजनी यह द्रष्य देख रही थी. बाद में अहिल्या को पता चला कि अंजनी ने उसके साथ छ्ल होते देख लिया है.उसने अंजनी से कहा कि वह ये बात अपने पिता को न बताये,लेकिन अंजनी ने उसकी बात मानने से साफ़ इंकार कर दिया.तब क्रोधित होकर अंजनी ने उसे शाप दे दिया कि में करे हुये का भोगूंगी,पर तू बिना किये का भोगेगी. उधर थोडी ही देर में गौतम जी को पता चला कि उनके साथ छ्ल हुआ है.उन्होने वहीं ध्यान लगाया और सारा हाल जान लिया,अब उनके मन में एक ही बात थी कि देखें अहिल्या इस बात को छुपाती है या बता देती है. ऐसा ही हुआ अहिल्या इस बात को छुपा गयी और गौतम जी ने उसे पत्थर की हो जाने का शाप दे दिया .उस समय अहिल्या क्रोध में थी क्योंकि गौतम जी ने अंजनी से छल के बारे में पूछा था तो अंजनी ने साफ़ साफ़ सच बता दिया .इसीलिये अहिल्या ने अंजनी को शाप दिया कि वो बिना करे का भुगतेगी.इस पर अंजनी ने द्रणता से कहा कि वह अपने जीवन में किसी पुरुष की छाया भी अपने ऊपर नहीं पङ्ने देगी ऐसा कह कर वह उसी समय निर्जन वन में तप करने चली गयी.और अहिल्या रिषी के शाप से पत्थर की हो गयी अहिल्या के शाप देने के बाद अंजनी रिष्य्मूक पर्वत श्रंखला में चली गयी और घनघोर तप करने लगी. उधर सती के अपने पिता के घर यग्य में दाह करने के बाद बहुत समय बीत चुका था और भगवान शंकर में तेज का समावेश हो चुका था देवता विचार कर रहे थे कि शंकर जी को बहुत समय से सती का साथ नहीं है ऐसे में यदि उनका तेज (वीर्य) स्खलित हो गया तो हाहाकार मच जायेगा. इसके लिये वे एक ऐसी तपस्वनी की तलाश में थे जो शंकर का तेज सह सके. तब देवताओं ने ध्यान से देखा तो उन्हें अंजनी नजर आई .अंजनी संसार से ध्यान हटाकर घनघोर तपस्या में लीन थी और राम के अवतरण का समय आ चुका था. रुद्र के ग्यारहवें अंश हनुमान जी के अवतार का भी समय आ रहा था .तब कुछ देवता भगवान शंकर के साथ महात्माओं का वेश वनाकर अंजनी की कुटिया के सामने पहुँचे और पानी पीने की इच्छा जाहिर की .अंजनी ने प्रण कर रखा था कि किसी भी पुरुष की छाया तक अपने ऊपर न पङने देगी.लेकिन महात्माओं को जल पिलाने में उसे कोई बुराई नजर नही आयी.और महात्माओं को जल न पिलाने से उसकी तपस्या में दोष आ सकता था इसलिये वह महात्माओं को जल पिलाने के उद्देश्य से एक पात्र में जल ले आयी.जब वह जल पिलाने लगी तो महात्माओं ने पूछा कि बेटी तुमने गुरु किया या नहीं. अंजली ने कहा कि वह गुरु के विषय में कुछ नहीं जानती .तब महात्माओं ने कहा कि निगुरा (जिसका कोई गुरु न हो ) का पानी पीने से भी पाप लगता है अतः हम तुम्हारा जल नहीं पी सकते .अंजनी को जब गुरु का इतना महत्व पता चला तो उसने महात्माओं से गुरु के बारे में और अधिक जाना फ़िर उसने इच्छा जाहिर की कि वे महात्मा लोग उसे गुरुदीक्षा कराने में मदद करें. देवताओं ने कहा कि ये महात्मा (शंकर जी ) तुम्हें दीक्षा दे सकते हैं.अंजनी ने विधिवत दीक्षा ली और शंकर ने दीक्षा प्रदान करते समय उसके कान में मन्त्र फ़ूँकते समय अपना तेज उसके अंदर प्रविष्ट कर दिया .इससे अंजनी को गर्भ ठहर गया. उसे लगा कि महात्मा वेशधारी पुरुषों ने उसके साथ छल किया है. उसने अपनी अंजुली में जल लिया और उसी समय शाप देने को उद्धत हो गयी .तब शंकर आदि अपने असली वेश में आ गये और कहा कि वेटी तू अपनी तपस्या नष्ट न कर और ये सब होना था तेरा ये पुत्र युगों तक पूज्यनीय होगा और ये सब पहले से निश्चित था. अंजनी संतुष्ट हो गयी.
उधर केसरी वानर अंजनी पर आसक्त था और बाद में अंजनी का भी रुझान भी केसरी की तरफ़ हो गया और दोनों ने विवाह कर लिया इस तरह हनुमान जी के अवतार का कारण बना और अहिल्या का ये शाप कि तू विना किये का भोगेगी भी सच हो गया. वास्तव में अलौकिक घटनायें रहस्मय होती हैं और मानवीय बुद्धि से इनका आंकलन नहीं किया जा सकता है जो सच हमारे सामने आता है उसके पीछे भी कोई सच होता है .
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मंगलवार, अगस्त 17, 2010
इस कंकाल का रहस्य क्या है ?
आइये आज कुछ अलग रहस्यों की बात करते हैं । जिन पर साधारण जीवन में चर्चा कम से कम मैंने तो नहीं सुनी । और लोगों ने सुनी हो तो वह अलग बात है ? आपने एक चीज कई बार देखी होगी । पर आपको यह पता नहीं होगा । कि वो चीज या आकृति है क्या ? यधपि योगियों और संतों के लिये वह रहस्य नहीं है ? ये चीज है । हमारी आंखों के ठीक सामने आठ नौ इंच दूरी से लेकर सात आठ फ़ुट दूर बनने वाली विभिन्न प्रकार की कंकाल जैसी आकृतियां । कई बार इस रहस्यमय चीज को मैंने बनाऊ ढोल टायप साधुओं से पूछा कि ये क्या है । तो उन्होंने जबाब दिया कि ये तुम्हारे जितने जन्म हो चुके हैं । उनके कंकाल दिखते हैं ? वास्तविकता ये नहीं है ? ये आकृतियां दरअसल हमारी चित्तवृतियां हैं । अब आप अलग अलग मानसिक स्थितियों में इसका प्रयोग करके देखना । जब चित्त में विचार घनीभूत होंगे आकृति बडी बनेगी । विचार हल्के होंगे आकृति छोटी बनेगी । मन में जिस तरह के और जितने विचार होंगे । ये आकृति उसी तरह की बनेगी । एक खास बात ये होती है कि मन की शुद्धता और गंदगी या तामसिकता के आधार पर इसका रंग काला सफ़ेद के अनुपात में अंतर होगा । दिव्यता य़ा पवित्र भाव होने पर सफ़ेद अधिक दिखेगा । और वासनात्मक या निराशात्मक भावों की अधिकता होने पर काला अधिक दिखेगा । अब मान लीजिये किसी समय आपके मन में विचार बना । कल मुझे दिल्ली जाना है । इस चित्त के विचार का एक वृत बन गया । तभी विचार आया । बच्चे की फ़ीस जमा करनी है । दूसरा वृत । बीबी के लिये साडी लानी है । तीसरा वृत । बिजली का बिल भरना है । एक और वृत । इस तरह इन विचारों के हल्के भारी भाव के अनुसार कंकाल सी दिखने वाली आकृति में गोले बनते हैं । जिनको ध्यान क्रिया का अच्छा अभ्यास है । वे
यह बात गौर करके देखें कि जिस समय अनुलोम विलोम क्रिया और ध्यान एकाग्रता से मन विचारशून्य हो जाता है । उस समय ये आकृति दिखाई देनी बन्द हो जाती है । त्राटक के अच्छे अभ्यासियों को भी ये दिखाई नहीं देगी । तो अब आप कई बार ये प्रयोग करके देखना । ये आपकी मानसिक स्थित का एकदम सही पता बताती है । इसको बार बार देखने से योग की अच्छी स्थिति बनती है । और बहुत से फ़ालतू विचार नष्ट हो जाते हैं । इसको बार बार देखने से कई रोग भी ठीक हो जाते हैं । और मन बडी तेजी से साफ़ होकर नियन्त्रण में होने लगता है । न मानों तो करके देखना । अगर पहले आपने कभी नहीं किया । तो शुरूआत में कालापन अधिक दिखाई देगा । और इसको प्रतिदिन देखते रहने पर उसमें सफ़ेदी की मात्रा बडती जायेगी । और तब आप एक अजीव सी फ़ुर्ती और उत्साह अनुभव करेंगे । ज्यों ज्यों आप इसको देखते जायेंगे । इसके कई रहस्य खुलते जायेंगे । हालांकि अलौकिक ग्यान के रहस्य में यह कोई बडी तोप नहीं है । पर जो कुछ नहीं जानते । उनके लिये बहुत है । दूसरे ये तीन काम खास करती है । चिडचिडापन और अवसाद हटाना । दूसरा कुम्भ स्नान की तरह आपके मन से पाप धोना या मन को शुद्ध करना ।तीसरा सभी बीमारियां या वासनायें मन के विकार के कारण हीं होती हैं । इसलिये ये क्रिया आश्चर्यजनक रूप से फ़ायदा करती है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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मन को देखना ...?
मन । काल । कल्पना । सृष्टि । इन चारों शब्दों का अर्थ एक ही है । मन यानी जो माना जा रहा है । या जिससे माना जा रहा है । काल । क्योंकि मन से की गयी कल्पना या विचार मात्र काल्पनिक ही है इसलिये पानी के बुलबुले के समान उसका विचार के अनुसार अस्तित्व है । अब इसमें दूसरे घटक के अनुसार बुलबुले की आयु बड जाती है । जैसे । साफ़ पानी का बुलबुला है । तो कुछ ही सेकेंड रहेगा । साबुन के पानी का बुलबुला है तो साबुन के रूप में दूसरा घटक होने से बुलबुले की आयु पानी के बुलबुले की अपेक्षा बड जायेगी । यदि पानी में तेल का अंश मिला हुआ है । तो बुलबुला और देर तक रहेगा । कीचडयुक्त गन्दगी में बनने वाले बुलबुले और अधिक देर तक रहते हैं । इसी तरह हमारे विचार उनमें मिले भाव और घटक के अनुसार घने या क्षीण होते हैं । और यही आने वाली स्थिति परिस्थिति और यहां तक कि जन्म मरण को भी नियन्त्रित करते हैं । वास्तव में इनको सूक्ष्म रूप में जान लिया जाय । तो यही यम होते हैं । ईश्वर की सृष्टि और इंसान की सृष्टि ( यानी घर मकान शादी आदि अन्य उपक्रम ) लगभग एक ही नियम के अनुसार बनती है । फ़र्क सिर्फ़ इतना है । कि ईश्वर का दस्तावेज आरीजनल होता है । और मनुष्य़ का फ़ोटोस्टेट जैसा । वह संकल्प से बनती है । यह स्थूल क्रिया से । मन से जुडने पर ही आत्मा जीव भाव धारण कर जीवात्मा कहलाने लगता है । और मन से पार हो जाने पर या अमन हो जाने पर यह अविनाशी और जन्म मरण धर्म से मुक्त हो जाता है । काल काल सब कोय कहे । काल न जाने कोय । जो जो मन की कल्पना काल कहावे सोय । मन को योग स्थिति या त्राटक के अच्छे अभ्यास से आराम से देखा जा सकता है । और मजे की बात यह है । कि चित्तवृतियों की तरह इसको उसी तरह शरीर से बाहर देखा जा सकता है । जैसा अभी आप मेरा लेख देख रहे हैं । या किसी भी अन्य चीज को देखते हैं । मन की शेप डेढ सेमी व्यास की गोल बिन्दी के बराबर होती है । और चित्र के अनुसार इसमें अलग अलग अवस्थाओं में परिवर्तन होते हैं । साधारण जीव अवस्था होने पर इस बिन्दी में चार छिद्र होते हैं । जिन्हें मन । बुद्धि । चित्त । अहम । कहते हैं । इन्हीं से संसार बना है । और इन्हीं से संसार आपको नजर आ रहा है । वरना इसकी हकीकत कुछ और ही है ? क्योंकि संसार इन्हीं चारों से बना है । इसलिये इन्ही से बरताव में आता है । इन चारों छिद्रों के पास पानी में उठने वाले बेहद छोटे बुलबुलों के समान स्फ़ुरणा होती रहती है । इसी क्रिया से अनेकों भाव बनते और नष्ट होते रहते हैं । योग अवस्था में यह स्फ़ुरणा शान्त हो जाती है । योग में और अधिक अच्छी स्थिति हो जाने पर ये चारों छिद्र एक हो जाते हैं । तब उसको सुरति बोलते हैं ।
वास्तविक एकादशी इसी को कहते है । वास्तविक दशरथ होना इसी को कहते हैं । राम राम सब कोय कहे । दशरथ कहे न कोय । एक बार दशरथ कहो । फ़ेर मरन न होय । एकादशी यानी पांच कर्म और पांच ग्यानइन्द्रियों को एक करके प्रभु में लगा देना । दशरथ । मन राजा जो इन्द्रियों के रथ पर सवार होकर दसों दिशाओं में दौडता रहता है । उसे समेटकर एकाग्र और निश्चल अवस्था से प्रभु में लगा देना । एक बार दशरथ कहना होता है । संत मन होने पर इसमें जीव वासना रूपी कालिख मिट जाती है । और ये दिव्यता युक्त हो जाता है । परमहंस जो संत से ऊंची स्थिति है । इसमें मन खत्म हो जाता है । हंसा परमहंस जब हुय जावे । पारब्रह्म परमात्मा साफ़ साफ़ दिखलावे । इसके बाद की जो ऊंची स्थिति है । वह गोपनीय है । पारब्रह्म ही ईश्वर से ऊंची स्थिति है । हिरण्यगर्भ । ईश्वर और विराट ये तीन मुख्य स्थितियां होती हैं । जो समस्त ऐश्वर्य से युक्त हो उसको ईश्वर कहतें हैं ।
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मंगलवार, अगस्त 10, 2010
आओ मेरी नैया में । मैं ले चलूं भव से पार ।
राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार ।आओ मेरी नैया में । मैं ले चलूं भव से पार ।
इस नैया में जो चढ जायेगा ।
जन्म जन्म के पापों से मुक्ति को मिल जायेगा ।कटे चौरासी बंधन । पडे न समय की मार । राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार ।पाप गठरिया शीश धरी कैसे आऊं में ।अपने ही अवगुण से खुद शरमाऊं में । नैया तेरी सांची गुरुवर । मेरे पाप हजार । राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार । जीवन अपना सौंप दे मेरे हाथों में ।
स्वांस स्वांस को पोत ले मेरी यादों में ।
पाप पुन्य का बनकर । मैं आया ठेकेदार ।
राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार ।करके दया सतगुरु ने चदरिया रंग डाली ।
जन्म जन्म की मैली चादर धो डाली ।
दाग भरी थी मेरी चदरिया । कर दी लाल ही लाल ।राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार । बडे भाग से सदगुरु जी का ग्यान मिला । मुझ दुख हारी को जीने का आधार मिला । जलने लगी थी । बीच भंवर । आगे खेवनहार । राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार । आओ मेरी नैया में । मैं ले चलूं भव से पार ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
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घर बार छोडकर मैं । फ़िरता बेचारा हूं ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
तुम सुख के सागर हो । निर्बल के सहारे हो ।
नैनों में समाये हो । मुझे प्राण से प्यारे हो ।
नित माला जपूं तेरी । नहीं दिल से भुला देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
पापी हूं या कपटी हूं । जैसा भी हूं तेरा हूं ।
घर बार छोडकर मैं । फ़िरता बेचारा हूं ।
मैं दुख का मारा हूं । मेरे दुखडे मिटा देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
मैं तेरा सेवक हूं चरणों का चेला हूं ।
नहीं नाथ भुलाना मुझे । इस जग में अकेला हूं ।
तेरे दर का भिखारी हूं । मेरे दोष मिटा देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
करुणानिधि नाम तेरा । करुणा दिखलाओ ।
तुम सोये हुये भाग्यों को । हे नाथ जगाओ ।
मेरी नाव भंवर डोले । इसे पार लगा देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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चाहे दुश्मन हों हजार । मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
दिन रात आनन्द मनाय रही । मैं गीत प्रभु के गाय रही ।
चाहे कुछ भी कहे संसार मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
कष्टों में उमर बितायी थी । दुष्टों ने बहुत सतायी थी ।
मैं अब न सहूंगी मार मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
मुझे भक्ति बहुत ही प्यारी है । मेरे रक्षक सतगुरु प्यारे हैं ।
चाहे दुश्मन हों हजार । मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
एक प्रभु की प्रेम दीवानी हूं । जिन रमझ गुरु की जानी हूं ।
गुरु कर दो बेडा पार । अब डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
हरि ओम बोलो ।
जब से गुरु का नाम लिया है । गिरतों को गुरु ने थाम लिया है । सतगुरु ही मेरा सहारा है । मुझे भव से पार उतारा है । हरि ओम बोलो ।
ये गुरु जो तारनहार हुये । ये कलयुग के अवतार हुये । सारा जग माने सदगुरु को ।सदगुरु को । मेरे सदगुरु को ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
जो प्रेम गुरु से करते हैं । वो भव सागर से तरते हैं । हो उसका बेडा पार सदा । जो गुरु से करते प्यार सदा ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
आंगन में बहारें फ़ूलों की । पावन चरणों की धूलों की । यहां स्वर्गीय हवायें चलती हैं । जो नित नित पावन करती हैं ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
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आते तेरे द्वार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
एक तुम्ही आधार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
जब तक मिलो न तुम जीवन में । शांति कहां मिल सकती मन में ।
खोज फ़िरा संसार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
कैसा भी हो तैरनहारा । मिले न जब तक शरण तुम्हारा ।
हो न सका उस पार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
हे प्रभु तुम्ही विविध रूपों में । हमें बचाते भवकूपों में ।
ऐसे परम उदार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
हम आये हैं द्वार तुम्हारे । दुख उद्धार करो दुख हारे ।
सुन लो दास पुकार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
छा जाता जग में अंधियारा । तब पाने प्रकाश की धारा । आते तेरे द्वार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
आवागमन चक्र जो दुनियां में चल रहा ।
हर जीव जन्म मृत्यु की ज्वाला में जल रहा ।
इस जीव का इस चक्र में । चलता हुनर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
अब दुख से निकलने का कोई रास्ता नहीं ।
सतगुरु के सिवा अन्य कहीं आस्था नहीं ।
पड जाय वो जिस पर । दाता की नजर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
श्रद्धा ही से तो । वो तेरा राम मिलेगा ।
अंतस में ही अखण्ड परमधाम मिलेगा ।
इस द्वार में माया का नहीं कोई असर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
जीवन में महामुक्ति का परिणाम पा लिया ।
परिपूर्ण परमानन्दमय विश्राम पा लिया ।
तू है जीवात्म ब्रह्म । जो व्यापक अमर है ।ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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सोमवार, अगस्त 09, 2010
मैं मैं चिल्लाते हुये मनुष्य़ को कालरूपी भेडिया मार डालता है ।
कालरूपी इस महासागर में यह सम्पूर्ण जगत डूबता उतराता रहता है । मृत्यु । रोग । बुडापा । जैसे भयंकर जाल में फ़ंसा और जकडा हुआ भी यह मनुष्य सच को जानने की कोशिश नहीं करता । मनुष्य के लिये प्रतिक्षण भय है । समय तेजी से बीत रहा है । कब काल झपट्टा मार दे । किन्तु अग्यानता के वशीभूत यह उसी प्रकार से दिखाई नहीं दे रहा । जैसे जल में पडा हुआ कच्चा घडा गलते हुये दिखाई नहीं देता । एक बार के लिये वायु को बांध सकते हैं । आकाश को बांट सकते हैं ( खन्ड होना ) तरंगों को सूत्र में पिरो सकते हैं । किन्तु आयु का विश्वाश नहीं कर सकते हैं । जिस प्रकार प्रलय अग्नि के प्रभाव से प्रथ्वी दहकती है । सुमेर जैसे पर्वत बिखरने लगते हैं । समुद्र का जल सूख जाता है । फ़िर इस क्षण भंगुर शरीर के सम्बन्ध में क्या कहा जा सकता है ? ये मेरा पुत्र है । ये मेरी पत्नी है । ये मेरा धन है । इस प्रकार बकरे के समान मैं मैं चिल्लाते हुये इस मनुष्य़ को कालरूपी भेडिया जबरदस्ती मार डालता है । यह मैंने किया है । यह मुझे करना है । यह किया गया । यह नही किया गया । इस प्रकार की भावना वाला मनुष्य स्वतः ही मृत्यु के वश में हो जाता है । कल किये जाने वाले कार्य को आज ही कर लो । जो आज करना है अभी कर लो । क्योंकि तुम्हारा कार्य हो गया या अभी अधूरा है । या बिलकुल नही हुआ । मृत्यु कभी इसका विचार नहीं करती । वृद्धावस्था ( मृत्यु को ) राह दिखा रही है । भयंकर रोग इसके सैनिक हैं । मृत्यु इसकी प्रबल शत्रु है । फ़िर भी आदमी इसका भक्ति रूपी रक्षा करने वाला अमोघ हथियार प्राप्त नहीं करता । इससे बडी मूर्खता क्या होगी । तृष्णा रूपी सुई से छेदा हुआ । विषय रूपी घी में डूबा हुआ । राग द्वेश रूपी अग्नि में पके हुये इस मनुष्य रूपी पकवान को मृत्यु बडे चाव से तत्काल ही खा लेती है । बालक । युवा । बूडे । और गर्भ में स्थित सभी प्राणियों को मृत्यु अपने में समाहित कर लेती है । इस जगत का ऐसा ही हाल देखा जाता है । यह जीव अपने शरीर को भी त्यागकर यमलोक चला जाता है । तो भला माता पिता स्त्री पुत्र जो सम्बन्ध हैं । वे किस कारण से बनाये गये हैं । संसार दुख का मूल है । फ़िर वह किसका होकर रहा है । अर्थात जो इस संसार में रम गया । उसने सदा के लिये दुख को पाल लिया । जिसने इस संसार के मोह का त्याग कर दिया । वह सदा के लिये सुखी हो गया । इसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी सुखी नही हो सकता । यह संसार सभी दुखों का जनक । समस्त आपदाओं का घर । सब प्रकार के पापों का आश्रय है । अतः ग्यान होते ही मनुष्य को क्षण भर में इसका त्याग कर देना चाहिये । लोहे की जंजीरों में फ़ंसा मनुष्य एक बार को मुक्त हो सकता है । किन्तु स्त्री धन और पुत्र मोह में फ़ंसा व्यक्ति मुक्त नहीं हो पाता । मन को प्रिय लगने वाली जितनी चीजों से मनुष्य सम्बन्ध जोड लेता है । उतनी ही दुख की कीलें उसके ह्रदय में गडती जाती हैं । विषय का आहार करने वाले देह में स्थित देवता । तथा तुम्हारी सभी प्रकार की सामर्थ्य को खत्म कर देने वाले इन्द्रिय रूपी चोरों द्वारा तुम्हारे सभी लोक नष्ट हो रहे हैं । फ़िर भी तुम अग्यान में हो । ये बडे कष्ट की बात है । जिस प्रकार मांस के लोभ में फ़ंसी मछली को अन्दर छुपा कांटा दिखाई नहीं देता । वैसे ही जूठे सुखों के लालच में फ़ंसा हुआ ये मनुष्य यम की फ़ांस को नहीं देख पाता ।
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तो परलोक में जाकर क्या करेगा ?
यहां यदि इस जीवन में । इसी मृत्यु लोक में । इस शरीर में । तुमने नरक रूपी महा व्याधि का पूर्व उपचार नहीं किया । तो परलोक में जाकर रोगी मुक्ति के लिया क्या उपाय करेगा । जहां इसके उपचार के लिये कोई औषधि ही प्राप्त नहीं होती । बुडापा तो बाघिन के समान है । जिसे प्रकार चटके हुये घडे का जल धीरे धीरे बह जाता है । उसी प्रकार तुम्हारी आयु भी निरन्तर घटती ही जा रही है । शरीर में विधमान रोग भयंकर शत्रु के समान कष्ट देते हैं । इसलिये वास्तविक कल्याण इसी में है । कि इन सब व्याधियों से मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास किया जाय । जब तक शरीर स्वस्थ है । उसमें किसी प्रकार का दुख नही है । जब तक विपत्तियां सामने नहीं हैं । जब तक शरीर की इन्द्रिया सबल हैं । यानी शरीर की जर्जरता से शिथिल नहीं हुयी हैं । तब तक ही आत्मा के कल्याण का प्रयास किया जा सकता है । तत्व ग्यान की प्राप्ति हेतु प्रयत्न किया जा सकता है । बाद में आग लगने पर कुंआ खोदने पर क्या लाभ होगा ? ये मनुष्य अनेक प्रकार के कार्यों में व्यस्त और उलझा हुआ रहने से तेजी से बीत रहे समय को नही जान पाता । वह दुख सुख तथा आत्मा के हित को भी ठीक से नहीं जानता । जन्म लेने वालों को । मरने वालों को । आपत्ति ग्रस्त लोगों को । रोग से पीडित लोगों को । अत्यन्त दुखी लोगों को देखकर भी मनुष्य ममता मोह लालच लोभ के नशे में ऐसा चूर रहता है । कि जन्म मरण आदि नाना प्रकार के दुख वाले संसार से भी नही डरता और इसमें मगन हो जाता है । यहां की सभी सम्पदा स्वप्न के समान ही तो है । यौवन फ़ूल के समान है । अर्थात शीघ्र कुम्हला जाने वाला है । आयु चंचल बिजली के समान नष्ट हो जाने वाली है । ऐसा जानकर भी धैर्य बना रहना क्या उचित जान पडता है । ये सौ वर्ष का जीवन बहुत छोटा है । जो आधा तो आलस और नींद में ही चला जाता है । कुछ बचपन । रोग और वृद्धावस्था और अन्य दुखों में व्यतीत हो जाता है । युवावस्था का जो थोडा सा महत्वपूर्ण है । वो भोग विलास और अन्य लोभ में खत्म हो जाता है । जो कार्य तुरन्त करना चाहिये । उसके सम्बन्ध में सोच विचार नहीं है । जहां जागते रहना चाहिये । वहां तुम सोते हो । भय के स्थान पर बिना कारण आश्वस्त हो । ऐसा कौन सा मनुष्य है । जो मारा नही जायेगा ? जल के बुलबुले के समान जीव इस शरीर में स्थित है । यहां जिन वस्तुओं का साथ हैं । वे अनित्य हैं । फ़िर भी जीव कैसे निर्भयता से नितान्त अनित्य । शरीर । भोग । पुत्र । स्त्री । कुल आदि के साथ भ्रम में रहता है । कि यही सच है ? क्या ये वास्तव में सच है ? जो अहित में हित । अनिश्चित में निश्चित । अनर्थ में अर्थ को समझता है । ऐसा व्यक्ति अपने मुख्य प्रयोजन से निश्चय ही दूर है । जो पत्थर को देखते हुये भी ठोकर खाता है । जो सुनते हुये भी सत्य ग्यान को प्राप्त नहीं कर पाता । जो सद ग्रन्थों को पडते हुये भी उनके रहस्य को नही समझ पाता । वह निश्चय ही देव माया से विमोहित है और अन्त में दुर्दशा को प्राप्त होने वाला है । इसमें कोई संशय की बात नहीं है । अपने भूल का फ़ल उसे स्वयं ही भोगना होगा । ये तय ही है ?
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संसार में कोई सुखी नहीं है ।
अपनी अग्यानता के कारण ही जीव ( सभी योनियां ) इस संसार में पैदा होता है । सभी प्रकार के दुखों से युक्त और मलिन ( मैला ) इस असार संसार में अनेक प्रकार के शरीरों में प्रविष्ट जीवात्माओं की अनन्तराशियां हैं । जो इसी संसार में जन्म लेते हैं । इसी में मर जाते हैं । किन्तु उनका अन्त नहीं होता । और वे दुख से सदैव व्याकुल रहते हैं । इस संसार में कोई सुखी नहीं है । इस जगत से परे । पारब्रह्मस्वरूप । निरवयव । सर्वग्य । सर्वकर्ता । सर्वेश । निर्मल । अद्वय तत्व । स्वयं प्रकाश । आदि अन्त से रहित । विकारशून्य । परात्पर । निर्गुण । सच्चिदानन्द शिव हैं । ये जीव उन्हीं का
अंश है । जो अनादि अविध्या से वैसे ही आच्छादित हैं । जैसे अग्नि में विस्फ़ुल्लिंग होते हैं । अनादि कर्मों के प्रभाव से प्राप्त शरीर आदि अनेकों उपाधियों में होने के कारण भिन्न भिन्न हो गये हैं । सुख दुख देने वाले पुन्य और पाप संग्रह का इस शरीर पर नियन्त्रण है । अपने कर्म के अनुसार ही जीव को जाति देह ( योनि ) आयु तथा भोग की प्राप्ति होती है । सूक्ष्म या लिंग शरीर के बने रहने तक ये जन्म मरण का । आवागमन का चक्र चलता ही रहता है । स्थावर ( पेड पौधे । पहाड आदि ) कृमि कीट । पशु पक्षी । मनुष्य । धार्मिक देवता और मुमुक्ष । यथाक्रम चार प्रकार के शरीरों को धारणकर हजारों बार उनका परित्याग करते हैं । यदि पुन्य कर्म के प्रभाव से उनमें से किसी को मानव योनि मिल जाय तो उसे ग्यानमार्ग अपनाकर मोक्ष प्राप्त करना चाहिये । समस्त चौरासी लाख योनियों में स्थित जीवात्माओं को इसी एक मात्र मानव योनि में तत्वग्यान का लाभ होकर मोक्ष मिल सकता है । इस मृत्युलोक में हजारों नहीं बल्कि करोडों बार जन्म लेने पर जीव को कभी कभी ही पूर्व संचित पुन्य के प्रभाव से मानव योनि प्राप्त होती है । यह मानव योनि मोक्ष की सीडी है । इस देवताओं को भी दुर्लभ योनि को प्राप्त कर जो प्राणी स्वयं अपना उद्धार नहीं करता । उससे बडकर पापी कोई नहीं हो सकता । अन्य योनियों की अपेक्षा सुन्दर इन्द्रियों वाले इस जन्म का लाभ लेकर जो मनुष्य आत्मा का हित नहीं सोचता । वह आत्मघाती के समान है । कोई भी पुरुषार्थ शरीर के बिना सम्भव नहीं है । इसलिये शरीर रूपी धन की जतन से रक्षा करते हुये पुन्य कर्म और ग्यान लाभ करना चाहिये । आत्मा ही सबका पात्र है । इसलिये उसकी रक्षा में मनुष्य हमेशा तत्पर रहे । जो व्यक्ति आजीवन आत्मा के प्रति सचेष्ट रहता है । वह जीवित ही । इसी जन्म में अपना कल्याण होते देखता है । मनुष्य को ग्राम क्षेत्र धन घर शुभ अशुभ कर्म और शरीर बार बार प्राप्त नहीं होते । अतः विद्वान ये जानकर जतन से शरीर की रक्षा करते हैं । कोढ आदि जैसे महा भयंकर रोग हो जाने पर भी मनुष्य इस शरीर को नही छोडना चाहता । नाम जपत ( ढाई अक्षर का महामन्त्र ) कोढी भला । कंचन भली न देह ) इसलिये शरीर की रक्षा धर्म के लिये । धर्म की रक्षा ग्यान के लिये । और ग्यान की रक्षा ध्यान योग के लिये । ध्यान योग की रक्षा तत्काल इसी जीवन में मुक्ति प्राप्त हेतु जतन से करनी चाहिये । यदि आत्मा ही अहितकारी कर्म से अपने को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता । तो अन्य दूसरा कौन हितकारी है ? जो आत्मा को सुख प्रदान करेगा ।
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शुक्रवार, अगस्त 06, 2010
राजा प्रियवृत का वंश वर्णन
राजा प्रियवृत के आग्नीध । अग्निबाहु । वपुष्मान । धुतिमान । मेधा । मेधातिथि । भव्य ।शवल । पुत्र । ज्योतिष्मान ये दस पुत्र हुये । इन पुत्रों में से मेधा । अग्निबाहु । पुत्र । नाम के तीन पुत्र योगी और जातिस्मर
यानी पूर्व जन्म की याद रखने वाले थे । इन लोगों ने राज्य के प्रति कोई रुचि प्रकट नहीं की । अतः प्रियवृत ने सप्तदीपा प्रथ्वी को अपने अन्य सात पुत्रों में विभक्त कर दिया । पचास करोड योजन में विस्त्रत ( एक योजन में चार कोस या बारह किलोमीटर होते है । ) पूरी प्रथ्वी नदी में तैरती हुयी नाव के समान । चारों और अवस्थित अथाह जल के ऊपर स्थित है । इसमें जम्बू । प्लक्ष । शाल्मल । कुश । क्रौंच । शाक । पुष्कर
ये सात दीप हैं । जो सात समुद्रों से घिरे हुये हैं । इन सात समुद्रों के नाम । लवण । इक्षु । सुरा । घृत । दधि । दुग्ध और जल सागर हैं । ये सभी दीप तथा समुद्र इस क्रम में एक दूसरे से दुगने परिमाण में अवस्थित हैं । जम्बू दीप में मेरु नामक पर्वत है । जो एक लाख योजन में फ़ैला हुआ है । इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है । ये प्रथ्वी में सौलह हजार योजन धंसा हुआ है । और शिखर बत्तीस हजार योजन फ़ैला हुआ है । इसका अधोभाग जो प्रथ्वी के ऊपर सन्निहित है । वह भी सोलह हजार योजन के विस्तार में कर्णिका के रूप में अवस्थित है । इसके दक्षिण में हिमालय । हेमकूट । तथा निषध । उत्तर में नील । श्वेत और श्रंगी नामक वर्ष पर्वत हैं । प्लक्ष आदि दीपों के निवासी मरण धर्म से मुक्त हैं । उनमें युग और अवस्था के आधार पर विषमता नहीं होती । जम्बू दीप के राजा आग्नीध के नौ पुत्र हुये । उनके नाम । नाभि । किम्पुरुष । हरिवर्ष । इलावृत । रम्य । हिरण्यमय । कुरु । भद्राश्व । केतुमाल थे । राजा आग्नीध ने उन सब पुत्रों को उनके नाम से प्रसिद्ध भूखण्ड दिया । राजा नाभि और उनकी पत्नी मेरुदेवी से ऋषभ नाम का पुत्र हुआ । उनसे भरत हुये । भरत का पुत्र सुमति हुआ । सुमति के तेजस नाम के पुत्र हुये । तेजस के इन्द्रधुम्न । इन्द्रधुम्न के परमेष्ठी । परमेष्ठी के प्रतीहार । प्रतीहार के प्रतिहर्ता । प्रतिहर्ता के प्रस्तार । प्रस्तार के विभु । विभु के नक्त । नक्त के गय । गय का नर । नर से विराट । विराट से धीमान । धीमान से भौवन । भौवन से त्वष्टा । त्वष्टा के विरजा । विरजा के रज । रज के शतजित । शतजित के विष्वग्ज्योति नामक पुत्र हुआ
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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गुरुवार, जुलाई 15, 2010
हमारी बेङियाँ....?
एक राज्य में सभी लोग शान्तिपूर्वक रहते थे । अचानक ऐसा हुआ कि राज्य में भारी बाङ आ गयी । चारों तरफ़ हाहाकार मच गया । अफ़रातफ़री में लोग सुरक्षित स्थानों की ओर भागने लगे । उसी राज्य में मनसुख लाला और धर्मदास नामक दो व्यक्ति रहते थे । ये दोनों एकदम विपरीत स्वभाव के थे । मनसुख लाला जहाँ सिर्फ़ अपने बारे में ही सोचता था । धर्मदास खुद पर संकट होने के बाबजूद भी दूसरों की सहायता हेतु तत्पर रहता था । बाङ का संकट आते ही धर्मदास ने एक बङी नाव का इंतजाम किया । और कील आदि की सहायता से नाव में अनेकों गोल कङे लगाकर उनमें रस्सियाँ बाँध दी । मनसुख लाला ने कोई इंतजाम नहीं किया । धीरे धीरे बाङ घरों में घुसने लगी । चारों तरफ़ पानी ही पानी नजर आने लगा । धर्मदास ने अपनी नाव पानी में उतार दी और बहते हुये । डूबते हुये लोगों को कङों में बँधी रस्सी के सहारे नाव पर बुलाने लगा । इसके विपरीत मनसुख लाला ने एक पेङ की पिंडी ( मोटे गोल लकङी के लठ्ठे को पिंडी कहते है । ये पानी में तैरती है । ) ले ली । और उस पर अकेला बैठकर सुरक्षित स्थान की तलाश में जाने लगा । यदि कोई डूबता हुआ इंसान उसकी पिंडी का सहारा भी लेने की कोशिश करता । तो मनसुख लाला उसको धक्का मार देता । धर्मदास नाव को घुमाता हुआ अधिकाधिक लोगों को बचाने की कोशिश करने लगा । दोनों विपरीत स्वभाव वाले पानी में थे । होते होते मनसुख लाला की पिंडी एक तेज भंवर में फ़ँसकर पलट गयी । मनसुख लाला भंवर में डूबने लगा । और जो पिंडी उसे पानी से बचा रही थी । वही भंवर में फ़ँसकर उसको दबाती हुयी डुबोने लगी । मनसुख लाला डूब गया । उधर धर्मदास ने खुद को बचाने के साथ ही अनेको लोगों को उस आपदा से बचाया ।
श्री महाराज जी कहते हैं । इसी तरह संसार में विभिन्न आपदाओं की बाङ आयी हुयी है । जिनमें फ़ँसकर जीव त्राहि त्राहि कर रहा है । ये अग्यान से भ्रमित और माया से मोहित जीव प्रतिक्षण काल के गाल में जा रहा है । संतजन अपनी ग्यानरूपी नौका में बँधी रस्सी पकङाकर इस कठिन दारुण भवसागर से उबारने में उसकी मदद करते हैं । अन्यथा ये दिन प्रतिदिन तेजी से मृत्यु के मुख में जा रहा है । और मनसुख लाला जैसे लोग खुद भी डूबते हैं और दूसरों को भी डुबोते हैं । परहित सरस धर्म नहीं भाई । परपीङा सम नहीं अधिकाई ।
* एक अजीव शहर था । हर शहर की तरह यहाँ पर पर भी अमीर । मध्यम और गरीब लोग रहते थे । अजीव इसलिये था । कि लोगों ने अपनी हैसियत के अनुसार शोभा मानते हुये । अमीर लोगों ने हाथ पैरों में सोने की बेङियाँ । मध्यम लोगों ने चाँदी की बेङियाँ और निम्न या गरीब लोगों ने लोहे की बेङियाँ अपनी मर्जी से ही धारण कर रखी थी । हाँलाकि वे इससे बहुत कष्ट पाते थे पर फ़िर भी अपने मन में आनन्दित महसूस करते थे । एक दिन ऐसा हुआ कि घूमते घूमते एक ग्यानी उनके शहर में आ पहुँचा । उसने देखा कि कितने अजीब लोग हैं । अपने लिये कष्ट का इंतजाम खुद ही कर रखा है । उसने इन्हें सही रास्ता दिखाने की सोची । उसने एक समझदार आदमी को चुना और एकांत में ले जाकर बोला । जिन बेङियों से तुम शोभा और जूठा आनन्द महसूस करते हो । येवास्तव में कष्टदायक है । इनके कटते ही तुम असली आनन्द को जानोगे । वह आदमी क्योंकि विचारशील था । उसने देखा कि ये कहने वाले के शरीर पर एक भी बेङी नही थी । उसने कहा कि ठीक है । पहले तुम मेरे हाथों की बेङी काटो । तब देखता हूँ कि तुम्हारी बात में कितनी सत्यता है । ग्यानी एक पत्थर पर हाथ रखकर उसकी छेनी हथोङे से बेङियाँ काटने लगा । इससे उस आदमी को कुछ चोट भी लगी । और कष्ट भी हुआ । वह क्रोधित होकर बोला । तुम तो कहते थे । कि बेङियाँ कटने से आनन्द होगा । पर मुझे तो भयंकर परेशानी हो रही है । ग्यानी ने कहा । कुछ देर ठहरो । तुम्हारी बेङियाँ काफ़ी पुरानी हो चुकी हैं । और तुम्हारा शरीर भी उसी अनुसार ढल चुका है । इसलिये परेशानी हो रही है । खैर । थोङी तकलीफ़ हुयी । उसके बाद एक हाथ की बेङी कट गयी । ग्यानी ने कहा । कि अब तुम मुक्त रूप से इस हाथ को मेरी तरह घुमा फ़िराकर देखो । उस आदमी ने वैसा ही किया । पर क्योंकि काफ़ी समय बाद बेङी मुक्त हुआ था । शुरु में उसको हाथ को घुमाने में तकलीफ़ महसूस हुयी । मगर थोङी ही देर में आनन्द आने लगा । वह बोला शीघ्रता से तुम मेरी सारी बेङियाँ काट दो । बेङी से मुक्त होने में तो वाकई आनन्द है । अन्य बेङियाँ कटने में भी थोङी परेशानी हुयी । पर उस आदमी को अब अनुभव हो चुका था कि बेङी कटने में परेशानी होती ही है । लेकिन पूरी बेङियाँ कटते ही वह एक नया आनन्द महसूस करने लगा । उसने आनन्दित होकर कहा कि आप बहुत अच्छे हैं । आपने मुझे नया आनन्द और मुक्त अवस्था दी है । कृपया मेरे पूरे घर की बेङियाँ काट दो । ग्यानी ने कहा कि ये तुम्हारी गलतफ़हमी हैं । कोई भी बेङियों से मुक्त नहीं होना चाहता । वे उसी अवस्था में सुख ( मगर झूठा ) मानते हैं । आदमी ने कहा । ऐसा कैसे हो सकता है । मैं उनको जाकर अपना हाल बताऊँगा । इस पर ग्यानी सिर्फ़ मुस्कराया । वह आदमी दौङकर अपने घर पहुँचा और बोला कि मुक्त होने में आनन्द है । हमारे यहाँ एक बेङी काटने वाला आया है । तुम सव शीघ्रता से बेङियाँ कटवा लो । और मेरी तरह आनन्द महसूस करो । इस पर अधिकांश लोगों ने उसे झिङक दिया । मूर्ख है तू । अब तेरे में कोई शोभा नजर नहीं आती । हमें देख हम कितने अच्छे लगते हैं । तू अपने इस ग्यानी के साथ अन्यत्र चला जा । ग्यानी मुक्त आदमी को देखकर मुस्कराया ?
* वास्तव में संसार काम । क्रोध । लोभ । मोह । तेरा । मेरा । अमीर । गरीब । ऊँच । नीच आदि हजारों विकार बेङियों से बँधा हुआ है । सोचो ये बेङियाँ किसने डालीं हैं ? खुद हमने । आवरण पर आवरण चङाते हुये हम अपने ही जाल में फ़ँसते चले जा रहे हैं । और अगर कोई हमें रास्ता दिखाने का प्रयास करता है । तो हम उसका उपहास करते हैं । हेय दृष्टि से देखते हैं । नंगा आने वाला । नंगा जाने वाला । इंसान जाने किस बात पर गर्वित है ? कौन सी ऐसी सम्पदा है । जो तुम्हारे लिये स्थायी है । अगर तुम पूरे विश्व के राजा भी हो जाओ । तो भी उतना ही उपयोग कर सकोगे । जितना कि तुम्हारे लिये तय है । धन । यौवन ।स्त्री । पुत्र । परिवार । हाथी । घोङे कितने ही जतन से संभालो । एक दिन सब मिट्टी में मिल जाना है । पुराने राजाओं के मजबूत किले आज भी खङें हैं । पर कहाँ है । वे राजा ? और कहाँ हैं । उनके वारिस ? आदमी अपनी सात । सत्तर पीङियों का इंतजाम करता है । और अंत में झूठे अहम में नरक में जाता है । पालने वाला भगवान है या आप ? क्या आप अपने परिजनों का भाग्य बदल सकते हैं ? हरगिज नहीं । तो फ़िर झूठी दौलत कमाने के स्थान पर स्थायी आराम देने वाले ग्यान को पकङों । कोई ना काहू सुख दुख कर दाता । निज कर कर्म भोग सब भ्राता । * सदा न रहेगा जमाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । आयेगा बुलाबा तो जाना पङेगा । आखिर में सर को झुकाना पङेगा । वहाँ न चलेगा बहाना किसी का ।नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । शौक तुम्हारी रह जायेगी । दौलत तुम्हारी रह जायेगी । नही साथ जाता खजाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । पहले तो अपने आप को संभालो । नहीं है बुराई औरों में निकालो । बुरा है । बुरा जग में बताना किसी को । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । ये तो जहाँ में लगा ही रहेगा । आना किसी का । और जाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । सदा न रहेगा जमाना किसी का ।
सदा न रहेगा जमाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का ।
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गुरुपूर्णिमा उत्सव पर आप सभी सादर आमन्त्रित हैं ।
गुर्रुब्रह्मा गुर्रुविष्णु गुर्रुदेव महेश्वरा । गुरुः साक्षात पारब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ।श्री श्री 1008 श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज " परमहँस "अनन्तकोटि नायक पारब्रह्म परमात्मा की अनुपम अमृत कृपा से ग्राम - उवाली । पो - उरथान । बुझिया के पुल के पास । करहल । मैंनपुरी । में सदगुरुपूर्णिमा उत्सव बङी धूमधाम से सम्पन्न होने जा रहा है । गुरुपूर्णिमा उत्सव का मुख्य उद्देश्य इस असार संसार में व्याकुल पीङित एवं अविधा
से ग्रसित श्रद्धालु भक्तों को ग्यान अमृत का पान कराया जायेगा । यह जीवात्मा सनातन काल से जनम मरण की चक्की में पिसता हुआ धक्के खा रहा है व जघन्य यातनाओं से त्रस्त एवं बैचेन है । जिसे उद्धार करने एवं अमृत पिलाकर सदगुरुदेव यातनाओं से अपनी कृपा से मुक्ति करा देते हैं ।
अतः ऐसे सुअवसर को न भूलें एवं अपनी आत्मा का उद्धार करें । सदगुरुदेव का कहना है । कि मनुष्य यदि पूरी तरह से ग्यान भक्ति के प्रति समर्पण हो । तो आत्मा को परमात्मा को जानने में सदगुरु की कृपा से पन्द्रह मिनट का समय लगता है । इसलिये ऐसे पुनीत अवसर का लाभ उठाकर आत्मा की अमरता प्राप्त करें ।
नोट-- यह आयोजन 25-07-2010 को उवाली ( करहल ) में होगा । जिसमें दो दिन पूर्व से ही दूर दूर से पधारने वाले संत आत्म ग्यान पर सतसंग करेंगे ।
विनीत -
राजीव कुलश्रेष्ठ । आगरा । पंकज अग्रवाल । मैंनपुरी । पंकज कुलश्रेष्ठ । आगरा । अजब सिंह परमार । जगनेर ( आगरा ) । राधारमण गौतम । आगरा । फ़ौरन सिंह । आगरा । रामप्रकाश राठौर । कुसुमाखेङा । भूरे बाबा उर्फ़ पागलानन्द बाबा । करहल । चेतनदास । न . जंगी मैंनपुरी । विजयदास । मैंनपुरी । बालकृष्ण श्रीवास्तव । आगरा । संजय कुलश्रेष्ठ । आगरा । रामसेवक कुलश्रेष्ठ । आगरा । चरन सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । उदयवीर सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । मुकेश यादव । उवाली । मैंनपुरी । रामवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । सत्यवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । कायम सिंह । रमेश चन्द्र । नेत्रपाल सिंह । अशोक कुमार । सरवीर सिंह ।
RAJEEV BABA पर गुरुवार, जुलाई 15, 2010 1 टिप्पणी:
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शनिवार, जुलाई 10, 2010
काल पुरुष..
सतपुरुष के पाँचवे शब्द से उत्पन्न हुआ । काल निरंजन या काल पुरुष या ररंकार शक्ति या राम ही इस सप्त दीप नव खन्ड का मालिक है । जिसके अन्तर्गत यह प्रथ्वी । पाताल । स्वर्गलोक आदि जिन्हें त्रिलोकी कहा जाता है । आते हैं । सतपुरुष के सोलह अंशो में काल निरंजन ही प्रतिकूल स्वभाव वाला था । शेष पन्द्रह सुत । दया । आनन्द । प्रेम आदि गुणों वाले थे । और वे उत्पन्न होने के वाद आनन्दपूर्वक सतपुरुष द्वारा स्थापित अठासी हजार दीपों में से अपने दीप में रहने लगे । यह वह समय था । जब सृष्टि अस्तित्व में नहीं आयी थी । यानी पहली बार भी सृष्टि की शुरुआत नहीं हुयी थी । इसको ठीक तरह से यूँ समझना चाहिये । कि प्रथ्वी । आकाश । स्वर्ग आदि का निर्माण भी नहीं हुआ था । काल निरंजन आनन्द दीप में रहने के स्थान पर एक अलग स्थान पर चला गया । और एक पैर पर खङे होकर तपस्या करने लगा । इसी स्थिति में उसने सत्तर युगों तक तपस्या की । तब उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर सतपुरुष ने उसे अलग से मानसरोवर दीप दे दिया । लेकिन काल निरंजन इससे भी
संतुष्ट नहीं हुआ । और फ़िर से एक पैर पर खङे होकर तपस्या करने लगा । और पूर्ववत ही उसने फ़िर सत्तर युगों तक तपस्या की । तब उसकी तपस्या से सतपुरुष ने उसे तीनों लोक और शून्य का राज्य दे दिया । यानी प्रथ्वी । स्वर्ग । पाताल । और शून्यसत्ता का निर्माण हो गया । ये राज्य सात दीप नवखन्ड में फ़ैला था । यही वो समय या स्थिति थी । जिसको big bang theory कहा जाता है । पर बैग्यानिक जो बात बताते हैं । वह मामूली सही और ज्यादातर गलत है । बिग छोङो । कोई छोटा बेंग भी नहीं हुआ । लेकिन ये प्रथ्वी आदि अस्तित्व में आ गये । और इनमें लगभग उसी तरह बदलाव होने लगा । जैसा कि बैग्यानिक अनुमान लगाते हैं । पर प्रथ्वी किसी भी प्रकार के जन जीवन से एकदम रहित थी । जीव के नाम पर एक छोटा सा कीङा भी नहीं था । वृक्ष भी नहीं थे । अमीबा भी अभी पैदा नहीं हुआ था । और इंसान के बाबा दादा यानी बन्दर या चिम्पेंजी भी नहीं थे । क्योंकि उनके खाने के लिये आम अमरूद के पेङ जो नहीं थे ( हा..हा..हा.) लेकिन इन पर जीवन हो । और उस जीवन के लिये जरूरी
अनुकूलता हो । उसके लिये वायुमंडल आदि में धीरे धीरे वैसे ही परिवर्तन आ रहे थे । जैसा कि बैग्यानिक अनुमान लगाते हैं । काल निरंजन इस सबसे बेफ़िक्र फ़िर तपस्या में जुट गया । और पुनः सत्तर युग तक तपस्या की । दरअसल उसको अपने राज्य के लिये कुछ ऐसी चीजों की आवश्यकता थी । जिससे उसकी इच्छानुसार सृष्टि का निर्माण हो सके । तब सतपुरुष ने उसकी इच्छा जानकर सृष्टि निर्माण के अगले चरण हेतु अपने प्रिय अंश कूर्म को सृष्टि के लिये आवश्यक सामान के साथ भेजा ।
ये सामान कूर्म के उदर में था । कूर्म अति सज्जन स्वभाव के थे । जबकि काल निरंजन तीव्र स्वभाव का था । वह कूर्म को खाली हाथ देखकर चिङ गया । और उन पर प्रहार किया । इस प्रहार से कूर्म का पेट फ़ट गया और उनके उदर से सर्वप्रथम पवन निकले । शीस से तीन गुण सत रज तम निकले । पाँच तत्व । सूर्य चन्द्रमा तारे आदि निकले । यानी तीन लोक और शून्य की सत्ता में सृष्टि की कार्यवाही आगे बङने लगी । वायु सूर्य चन्द्रमा और पाँच तत्व एक्टिव होकर कार्य करने लगे । और प्रथ्वी आदि स्थानों पर जीवन के लिये परिस्थितियाँ तैयार होने लगी । परन्तु प्रथ्वी पर अभी भी किसी प्रकार का जीवन नहीं था । क्योंकि " अमीबा भगवान " का अवतार नहीं हुआ था और पेङ भी अभी नहीं थे । जो बन्दर मामा जी पहुँच जाते । ( हा ..हा..हा.।) खैर । चिन्ता न करें । जब इतना इंतजाम हो गया । तो आगे भी भगवान सुनेगा । देने वाले श्री भगवान । अब इस सूने राज्य से काल निरंजन का भला क्या भला होता । वह बेकरारी से उस चीज के इंतजार में था । जो सृष्टि के लिये परम आवश्यक थी ?
क्या थी ये चीज ?
लिहाजा काल निरंजन फ़िर से तपस्या करने लगा । और युगों तक तपस्या करता रहा । उधर सृष्टि स्वतः सूर्य जल वायु आदि की क्रिया से अनुकूलता की और तेजी से बङ रही थी । क्योंकि प्रदूषण फ़ैलाने वाले अमेरिका और उसके दोस्तों का जन्म नहीं हुआ था । खैर साहब । अबकी बार सतपुरुष ने काल निरंजन की इच्छा जानकर अष्टांगी कन्या यानी आध्या शक्ति को उसके पास जीव बीज " सोहंग " को लेकर भेजा । यही वो चीज थी । जिसका निरंजन को बेकरारी से इंतजार था । लेकिन ये निरंजन अजीव स्वभाव का था । अष्टांगी ने इसको भैया का सम्बोधन
किया । और सतपुरुष की भेंट बताने ही वाली थी । कि ये उसको खा गया । तब उस स्त्री ने जो उस समय एक मात्र " एक " ही थी । उसके उदर के अन्दर से सतपुरुष का ध्यान किया । और सतपुरुष के आदेश से उनका ध्यानकर बाहर निकल आयी । अष्टांगी ने जीव बीज निरंजन को सोंप दिया । काल निरंजन में उस सुन्दर अष्टांगी कन्या को देखकर " काम " जाग गया । और उसने अष्टांगी से रति का प्रस्ताव किया । जिसे थोङी ना नुकुर के बाद अष्टांगी ने मान लिया । वजह दो थी । एक तो वह निरंजन से भयभीत थी । दूसरे वह स्वयं भी रति को इच्छुक हो उठी थी । दोनों वहीं लम्बे समय तक रति करते रहे । जिसके परिणाम स्वरूप । ब्रह्मा । विष्णु । शंकर । का जन्म हुआ । बस उसके कुछ समय बाद ही जब ये ब्रह्मा विष्णु शंकर बहुत छोटे बालक थे । निरंजन अष्टांगी को आगे की सृष्टि आदि
करने के बारे में बताकर । शून्य में जाकर अदृश्य हो गया । और आज तक अदृश्य है । यही निरंजन या ररंकार शक्ति राम कृष्ण के रूप में दो बङे अवतार धारण करती है । और तब इसके सहयोग में अष्टांगी सीता । राधा । के रूप में अवतार लेती है । जब ये तीनों बालक कुछ बङे हो गये तो इन चारों ने मिलकर " सृष्टि बीज " से सृष्टि का निर्माण किया । अष्टांगी ने अपने अंश से कुछ कन्यायें गुपचुप उत्पन्नकर समुद्र में छुपा दीं । जो अष्टांगी के प्लान के अनुसार नाटकीय तरीके से इन तीनों किशोरों को मिल गयीं । जिसे उन्होंने माँ के कहने से पत्नी मान लिया । ये तीन कन्यायें । सावित्री । लक्ष्मी । पार्वती थी । इस तरह सृष्टि की शुरुआत हो गयी । इस सम्बन्ध में और जानने के लिये कुछ अन्य लेख भी पढने होंगे । जो ब्लाग में प्रकाशित हो चुके हैं । " जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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बुधवार, जून 30, 2010
सांख्य और योग में समाधि लाभ
आत्मा तथा परमात्मा का अस्तित्व प्रमाण और लक्षण से सिद्ध करने के बाद शोधकर्ताओं ने न केवल आत्मा का या परमात्मा का बल्कि अतीन्द्रिय जङ पदार्थों का भी रहस्य जानने के लिये योग साधना को ही उपयुक्त माना है । और अन्य साधनों से यह प्राप्त नहीं होगा । ऐसा निश्चय किया है । आत्मा और मन का जब योग समाधि द्वारा प्रत्यक्ष संयोग होता है । तब उस संयोग से ही आत्मा का प्रत्यक्ष होता है । इसी प्रकार सूक्ष्म और इन्द्रियों से परे पदार्थों का भी प्रत्यक्ष या देखना होता है । जो योगी समाधि को समाप्त कर चुके हैं । वो विना समाधि अवस्था के ही इनको देखते हैं । आत्मा में प्रविष्ट होने से आत्मा के गुणों को जाना जाता
है । समाधि विशेष के अभ्यास से तत्व ग्यान को जाना जा सकता है । सांख्य के समान दूसरा ग्यान नहीं । योग के समान दूसरा बल नहीं । ऐसा पुरातन प्रमाण कहा गया है । चित्त को नाश करके योग में गति होती है । अतः चित्त को नाश करने की दो निष्ठायें कहीं जाती हैं । ये सांख्य और योग हैं । चित्त वृति के निरोध से योग और सम्यक ग्यान से सांख्य की प्राप्ति होती है । सांख्य और योग अलग अलग नहीं हैं । दोनों का फ़ल एक ही है ।
योग द्वारा अंतर्मुख होने के लिये । यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार । ये पाँच बाह्य उपाय हैं । धारणा ध्यान समाधि । ये तीन आन्तरिक उपाय हैं । सांख्य द्वारा अंतर्मुख होने के लिये पाँच बाह्य उपाय योग के ही होते हैं । योग में धारणा ध्यान समाधि किसी विषय को ध्येय बनाकर करते हैं । इसके विपरीत सांख्य में बिना ध्येय के अन्तर्मुख होते हैं । इसमें चित्त और उसकी वृतियां तीन गुणो वाली हैं । यानी गुण ही गुणों में वरत रहे हैं । इस भाव से आत्मा को चित्त से अलग करके देखते हैं । इस प्रकार वैराग द्वारा इस वइति का निरोध होने पर शुद्ध चैतन्यस्वरूप स्थित को देखते हैं ।
योग में उत्तम अधिकारियों के लिये असम्प्रग्यात समाधि लाभ के विशेष उपाय और ईश्वर प्रणिधान को इस
तरह जानें । यह ॐ की मात्राओं द्वारा उपासना है ।
वाणी से जाप--एक मात्रा वाले अकार ॐ की उपासना । इसमें स्थूल शरीर का अभिमान होता है । स्थूल शरीर से आत्मा की संग्या " विश्व " उपासक होता है । स्थूल शरीर से परमात्मा विराट है । वह उपास्य होता है ।
दूसरा " मानसिक जाप --अकार उकार दो मात्रा वाले ॐ की उपासना है । इसमें सूक्ष्म शरीर का अभिमान है ।सूक्ष्म शरीर से आत्मा की संग्या " तेजस " उपासक कही गयी है । सूक्ष्म जगत से परमात्मा हिरण्यगर्भ
उपास्य है ।
तीसरा " ध्यान ध्वनि जाप " है । अकार उकार मकार तीन मात्रा वाले ॐ की उपासना । इसमें कारण शरीर का अभिमान होता है । कारण शरीर से आत्मा की संग्या " प्राग्य " उपासक है । कारण जगत से परमात्मा " ईश्वर उपास्य है ।
( मेरे ख्याल से शास्त्रकारों से कहीं त्रुटि हुयी है । स्थूल से ईश्वर । सूक्ष्म से हिरण्यगर्भ । और कारण से विराट । ऐसा होना चाहिये । यह मत शास्त्रों के अनुसार है । संभवत टीकाकारों या मुद्रण में गलती से ऐसा हुआ हो । वैसे भी धर्म में " मतभेद " होना स्वाभाविक है । )
जब ये तीन मात्रा वाली ध्वनि सूक्ष्म होते होते निरुद्ध हो जाय । और अमात्र विराम रह जाय । तब यह कारण शरीर कारण जगत से परे शुद्ध परमात्म प्राप्ति रूप अवस्था है । जो प्राणि मात्र का ध्येय है । ( मेरे हिसाब से ऐसा कह सकते है । पर यही अंतिम सत्य नहीं है । और यही परमात्मा है । ये तो एकदम ही गलत है । यह योग की उच्च स्थित है । इससे ऊपर योग में ही तीन शरीर अन्य है । उनको प्राप्त करने के बाद परमात्मा के मार्ग पर दृष्टि जाती है । यह योगियों का मत है । संतो का नहीं ? ) सांख्य में उपरोक्त उपाय " ध्यानं निर्विषयं मनः " द्वारा है । इसके द्वारा जो वृति आये उसको दवाना होता है । अंत में सब वृतिया रुक जाने पर निरोध वृति का भी निरोध करें । यहीं स्वरूप को जानना है । योग का भक्ति का लम्बा मार्ग सुगम है । इसके विपरीत सांख्य के ग्यान का छोटा मार्ग कठिन है । " जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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समाधि के विषय में ..।
आईये धारणा ध्यान समाधि के बारे में बात करते हैं ।
पहली " धारणा " है । ध्यान अवस्था में जब इन्द्रियाँ अन्तर्मुख हो जाती है । तब ध्य्र्य विषय । नाभि ह्रदयकमल । नाक का अग्र भाग । भृकुटि । ब्रह्मरन्ध्र आदि अध्यात्मिक देशरूप या विषय या चन्द्रध्रुव आदि बाहर देशरूप विषय इसी को ध्येय कहते हैं । ध्येय यानी ध्यान का विषय । इसमें स्थिर होना होता है । इसी एक ध्येय विषय में वृति को बाँधने को धारणा कहा गया है ।
दूसरा " ध्यान " है । ध्यान में चित्त जिस विषय में लगता है । वह विषय लगातार दिखाई दे । अन्य कुछ बीच में न आये और स्थिरता होने लगे । उसको ध्यान कहते हैं ।
तीसरा " समाधि " है । जिस विषय में धारणा करते हुये ध्यान के द्वारा वृति स्थिर होकर जब उसमें ध्येय केवल अर्थमात्र से नजर आता है । और ध्यान का स्वरूप शून्य जैसा हो जाता है ।उसे समाधि कहा गया है ।
जब किसी विषय में चित्त को ठहराते है । तब चित्त की वह विषयाकारवृति तीनों आकारों के इकठ्ठी होने से त्रिपुटी होती है । समाधि का अनुभव इस तरह होता है कि ये पता नहीं लगता कि मैं ध्यान कर रहा हूँ ।
लेकिन जब धारणा ध्यान समाधि एक ही विषय में करनी हो तो उसको " सयंम " कहते हैं । अभ्यास के बल से सयंम का परिपक्व हो जाना सयंम की जीत है । सयंम को स्थूल सूक्ष्म आलम्बन के भेद से रहती हुयी चित्तवृतियों में लगाना चाहिये । पहले स्थूल को जीतें फ़िर सूक्ष्म को । इस तरह कृमशः नीचे की भूमियों को जीतें । तदुपरान्त ऊपर की भूमि में सयंम करें । नीचे की भूमियों को जीते विना ऊपर की भूमियों में सयंम करने वाला विवेक ग्यान रूपी फ़ल नहीं पाता । यदि ईश्वर के अनुग्रह से योगी का चित्त पहले ही उत्तरभूमि में लगने योग्य है । तो फ़िर नीचे लगाने की आवश्यकता नहीं होती । चित्त किस योग्यता का है । इसका ग्यान योगी को योग द्वारा स्वयं हो जाता है ।
आईये शब्द के बारे में जानें । शब्द तीन प्रकार का है । पहला वर्णात्मक है । क ख ग आदि जो वाणी रूपी इन्द्रिय से उत्पन्न होता है । दूसरा धुनात्मक या नादात्मक है । यह प्रयत्न द्वारा प्रेरित उदान वायु का परिणाम विशेष है । यही शब्दों की धारा को उत्पन्न करता हुआ श्रोता के कान तक जाता है ।
तीसरा स्फ़ोट होता है । यह अर्थव बोधक केवल बुद्धि से ग्रहीत होता है । निरवयव नित्य और निष्कर्म है । वर्ण शीघ्र उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं । इनका मेल नहीं होता । क्योंकि गौ = ग के समय औ नहीं है । पचति में इकार स्फ़ोट व्यंजक है । वैसे स्फ़ोट का बङा शास्त्रार्थ है । शब्द अर्थ ग्यान का परस्वर अध्यास भिन्नों में अभिन्न बुद्धि से होता है । आरोप को अर्थात में अन्य में अन्य बुद्धि करने को अध्यास कहते है ।
शब्दों का अर्थ और ग्यान के साथ संकेतरूप । इसका यह अर्थ है । यह अध्यास है । पर वास्तव में शब्द अर्थ और प्रत्यय तीनों भिन्न हैं । जब उनके भेद में योगी चित्त को एकाग्र करता है । तब उनका प्रत्यक्ष कर पशु पक्षियों की बोली जान लेता है । ये क्या बोल रहे हैं । योगियों में विचित्र शक्ति होती है । इसीलिये धारणा ध्यान समाधि की बेहद महिमा है । साधारण लोगों को जो शब्द अर्थ और ग्यान का भेद प्रतीत होता है । वह समाधि जन्य नहीं है । इससे वे नहीं जान सकते ।
संस्कार का साक्षात करने से पूर्व जन्मों का ग्यान होता है । संस्कार दो प्रकार के होते हैं । एक स्मृति बीज रूप में रहते हैं । जो स्मृति और कलेशों का कारण हैं । दूसरे विपाक के कारण वासना रूप में रहते हैं । जो जन्म आयु भोग और सुख दुख का कारण हैं । ये धर्म और अधर्म रूप हैं । ये सब संस्कार इस जन्म और पिछले जन्म में किये हुये कर्मों के कारण रिकार्ड की तरह चित्त में चित्रित रहते हैं । इसमें सयंम करने से जिस देश काल और निमित्त में वे संस्कार बने हैं । उनका ग्यान हो जाता है । दूसरों के संस्कार साक्षात करने से दूसरों का तथा आगे के संस्कार साक्षात करने से आगे का ग्यान हो जाता है ।
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
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सोमवार, जून 28, 2010
विधा दो प्रकार की होती है ।
विधा दो प्रकार की होती है ।
1--अपरा--कहना , सुनना , देखना , लिखना , पढना , आदि भौतिक तत्वो के मध्य सब कुछ आदि ।
2-- परा-- न वाणी के माध्यम से कही जाती है । न इन्द्रियों द्वारा देखी कही सुनी जाती है । और भौतिक से संगत नहीं करती । इसे " सहज योग " राज योग " राज विधा " ब्रह्म विधा " या गुहियम भेद भी कहा गया है । जो पराविधा का अभ्यास करता है । वह ग्यान तथा विग्यान दोनों को पाकर । विग्यान के परे जाकर परमात्मा का स्वरूप अनुभव करता है । जो अंतकरणः के सबसे भीतरी स्थान के समस्त ग्यान का आदिकरण है । अपने शरीर को मानना ही परिवर्तन है । यानी जन्म मरण है । कर्तापन के अभिमान से ही यह अच्छा बुरा भोगता है ।सुष्मणा से कन्ठ पर चूल्हे की आकृति की " हुता " नामक नाङी स्थित है । इस नाङी से जीव संगत करता है । और संस्कारों को उसी नाङी में जमा करता है । उन्ही संस्कारों का प्रतिफ़ल पाता है । और अंत समय अपने साथ ले जाता है । कन्ठ देश से ऊपर जिहवा का तन्तु है । उसको जानने से तन्तु भूख प्यास की चेष्टा बन्द कर देता है । जीव अंत समय में संसार की जिन वस्तुओं का ध्यान करता है । उन्ही के आकार का । उसी के अनुसार शरीर धारणकर भोग भोगने पङते हैं ।
अब आईये वाणी के बारे में जानें ?
वाणी चार प्रकार की होती है । 1--बैखरी--तेज चिल्लाकर बोलना । 2--मध्यमा--साधारण बातचीत । 3--पश्यन्ति--ऊँ आँ ओ..एई..आ..अह..आदि । 4--परा--जीभ को तालू से लगाकर स्वांस को नाभि तक पूरा जाने दें । तथा फ़िर बाहर पूरी तरह से निकालें । फ़िर उसके अन्दर ध्यान से सुनने पर एक " ध्वनात्मक शब्द " सुनाई देता है । वह परावाणी है । इसी वाणी में वह अक्षर निहित है ।
सन्यास चार प्रकार का होता है । 1--मीन--मछली जैसे पानी की धारा विचार करती हुयी चङती चली जाती है ।
2--मरकट-- जिस प्रकार बन्दर एक डाली से दूसरी डाली पर कूदने में संजम कर वापस लौट आता है ।
3--विहंगम--पक्षी आकाश में उङता चला जाता है । और आगे का ग्यान न होने पर वापस लौट आता है ।
4--शून्य--साधक इन्द्रियों के परे जाकर प्राण में अक्षर में मिल जाता है । यह अक्षर शून्य से सता रखता है ।
यह योगी अत्यन्त श्रेष्ठ योगी है । वह शक्तियों को प्राप्त कर चारों पदार्थों को पाता है ।
विशेष--योगी भ्रंग की ध्वनि का अभ्यास नित्य करे तो संस्कार से रहित हो जाता है । यह ध्वनि साधक जिह्वा को तालू से लगाकर नाभि स्वांस को बहुत धीमी गति से देर तक निकाले । तथा देर तक धीरे धीरे स्वांस को कुम्भक करे । और अपने ध्यान को कंठ पर दृणता से जमाये । तो वहाँ भ्रंग ध्वनि पैदा हो जायेगी । तब कंठ की " हुता " नाङी में रखे सब संस्कार जलकर भस्म हो जायेंगे । जो स्वांस ऊपर को जाता है । वह " संस्कार " शब्द का उच्चारण करता हुआ नाभि पर ठहरता है । नाभि से बाहर आने वाला स्वांस " हंकार " शब्द को प्रकट करता हुआ आता है । वह हंसा प्राण का ही शब्द है । बार बार स्वांस के आने जाने में प्राण में " हंसो हंसो " शब्द पलटकर " सोहं सोहं " का शब्द प्रकट होता है । इस का अभ्यास योग के द्वारा करके क्रियात्मक रूप से योगीजन योग में पारंगत हो जाते हैं । आत्मा ( हंस ) शरीर में सात द्वार ऊपर है । मुख , नाक , कान आँख सात द्वार ऊपर हैं । तथा गुदा और लिंग दो द्वार नीचे हैं । ये नौ द्वार हैं । आत्मा हंस रूप में आने जाने वाली स्वांस के द्वारा सारे शरीर में व्यापक स्थित है । " हंसो..सोहंग " प्राणवाक्य हंस शब्द ग्यान और मोक्ष यानी मुक्ति का साधन रूप है । रात दिन 24 घन्टो में स्वांस गति ( गिनती ) 21600 है । यह " हंसो " ही अजपा है । इसी को प्रणव मन्त्र या महामन्त्र भी कहते है । यह तत्व से जीव जपता है ।
बार बार प्राण वायु को शरीर से बाहर निकालने का तथा यथाशक्ति बाहर रोके रहने का आग्रह अभ्यास करने से मन में निर्मलता आ जाती है । तथा शरीर में सभी नाङियां साफ़ होकर मल से रहित हो जाती है । फ़िर शरीर किसी भी प्रकार के रोग " वात पित्त कफ़ " से रहित होकर शक्ति को प्राप्त करता है । इस प्रकार के विषय जीवों को लगे हैं । शब्द यानी ध्वनि का विषय सर्प और मृग आदि को लगा है । वह बीन के वश में हो जाता है । रूप का विषय " पतंगा को लगा है । प्रकाश की लौ पर आकर्षित होकर जलकर मर जाता है । रस " मछली " को स्वाद की खातिर कांटे में फ़ँसकर मर जाती है । गन्ध का विषय " भंवरा " को लगा है । कमल के फ़ूल में बन्द होकर मर जाता है । स्पर्श का विषय " हाथी " को प्रिय है । भूसा भरी हथिनी को देखकर काम स्पर्श के उद्देश्य से उसके समीप जाता है । और कैद कर लिया जाता है । शब्द रूप रस गन्ध स्पर्श ये पाँचों विषय मनुष्य को लगे हैं । इन्ही से बन्धन में है ।
सूक्ष्म तन्मात्राओं में ये पाँच अनुभव होते हैं । शब्द में दिव्य शब्द । रूप में अदभुत रूप । रस में जिह्वा पर
अनुभूति ।गन्ध में विशेष गन्ध । स्पर्श में परमात्म स्पर्श । एक भी तन्मात्रा प्राप्त होने पर परमात्मा का
सानिंध्य पाने लगता है । बीज मन्त्र सात है । " ॐ , ह्यीं , श्रीं , क्लीं , एं , रंग . सोहंग " और अंत में " दोष पराया देख कर चले हसंत हसंत । अपनो याद न आवये जाको आदि न अंत । "
अब एक विशेष बात -- ये कुछ लेख मैंने पाठको के विशेष आग्रह पर लिखे है । इसलिये मैं बता देना चाहता हूँ कि ये " योग और योगियों का ग्यान है । इस से शक्ति प्राप्त होती है । आत्मग्यान या परमात्मा नहीं । उक्त ग्यान को मेरे अनुसार " भक्ति " नहीं कह सकते । दूसरे आप इनमें से कोई क्रिया प्रक्टीकल के तौर पर न करें । ये सामान्य बात नहीं है । इनको विशेष देखरेख में करना होता है ।
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
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