Friday 23 February 2018

बोधिधर्म बौद्धाचार्य

मुख्य मेनू खोलें खोजें 3 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ। किसी अन्य भाषा में पढ़ें बोधिधर्म बौद्धाचार्य बोधिधर्म बौद्धाचार्य एक महान भारतीय बौद्ध भिक्षु एवं विलक्षण योगी थे। इन्होंने 520 या 526 ई. में चीन जाकर ध्यान-सम्प्रदाय (झेन बौद्ध धर्म) का प्रवर्तन या निर्माण किया। ये दक्षिण भारत के कांचीपुरम के राजा सुगन्ध के तृतीय पुत्र थे। इन्होंने अपनी चीन-यात्रा समुद्री मार्ग से की। वे चीन के दक्षिणी समुद्री तट केन्टन बन्दरगाह पर उतरे। Bodhidharma Names (details) Known in English: Bodhidharma Balinese: Darmo Bengali: বোধিধর্ম Burmese: ဗောဓိဓမ္မ Chinese abbreviation: 達摩 Hanyu Pinyin: Pútídámó Hokkien: Tatmo Indonesian: Budhi Darma Japanese: 達磨 Daruma Kannada: ಬೋಧಿ ಧರ್ಮ Khmer: ពោធិធម្ម "pothi-thaom-meahk" Korean: 달마 Dalma Malay: Dharuma Malayalam: ബോധിധർമ്മൻ Bodhidharman Odia: ବୋଦିଦର୍ମନ୍ Persian: بودی‌دارما Sanskrit: बोधिधर्म Simplified Chinese: 菩提达摩 Sinhala: බෝධිධර්ම Tagalog: Dharāma Tamil: போதிதருமன் Pōtitaruman Telugu: బోధిధర్మా Thai: ตั๊กม๊อ Takmoh Tibetan: Dharmottāra Traditional Chinese: 菩提達摩 Vietnamese: Bồ-đề-đạt-ma Wade–Giles: P'u-t'i-ta-mo Bodhidharma, Ukiyo-e woodblock print by Tsukioka Yoshitoshi, 1887. धर्म Buddhism पाठशाला Chan पद तैनाती उपदि Chanshi 1st Chan Patriarch उत्तराधिकारी Huike धार्मिक जीवनकाल शिष्य Huike प्रसिद्ध है कि भगवान बुद्ध अद्भुत ध्यानयोगी थे। वे सर्वदा ध्यान में लीन रहते थे। कहा जाता है कि उन्होंने सत्य-सम्बन्धी परमगुह्य ज्ञान एक क्षण में महाकाश्यप में सम्प्रेषित किया और यही बौद्ध धर्म के ध्यान सम्प्रदाय की उत्पत्ति का क्षण था। महाकाश्यप से यह ज्ञान आनन्द में सम्प्रेषित हुआ। इस तरह यह ज्ञानधारा गुरु-शिष्य परम्परा से निरन्तर प्रवाहित होती रही। भारत में बोधिधर्म इस परम्परा के अट्ठाइसवें और अन्तिम गुरु हुए। प्रारंभिक जीवन संपादित करें उत्तरी चीन के तत्कालीन राजा बू-ति ने उनके दर्शन की इच्छा की। वे एक श्रद्धावान बौद्ध उपासक थे। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अनेक महनीय कार्य किये थे। अनेक स्तूप, विहार एवं मठों का निर्माण कराया था एवं संस्कृत बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद कराया था। राजा के निमन्त्रण पर बोधिधर्म की उनसे नान-किंग में भेंट हुई। उन दोनों में निम्न प्रकार से धर्म संलाप हुआ। बू-ति-भंते और बोधिधर्म संपादित करें बू-ति-भन्ते - मैंने अनेक विहार आदि का निर्माण कराया है तथा अनेक बौद्ध धर्म के संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद कराया है तथा अनेक व्यक्तियों को बौद्ध भिक्षु बनने की अनुमति प्रदान की है। क्या इन कार्यों से मुझे पुण्य-लाभ हुआ है? बोधिधर्म - बिलकुल नहीं। बू-ति - वास्तविक पुण्य क्या है? बोधिधर्म - विशुद्ध प्रज्ञा, जो शून्य, सूक्ष्म, पूर्ण एवं शान्त है। किन्तु इस पुण्य की प्राप्ति संसार में संभव नहीं है। बू-ति - सबसे पवित्र धर्म सिद्धान्त कौन है? बोधिधर्म - जहाँ सब शून्यता है, वहाँ पवित्र कुछ भी नहीं कहा जा सकता। बू-ति - तब मेरे सामने खड़ा कौन बात कर रहा है? बोधिधर्म - मैं नहीं जानता। उपर्युक्त संवाद के आधार पर बोधिधर्म एक रूक्ष स्वभाव के व्यक्ति सिद्ध होते हैं। उन्होंने सम्राट के पुण्य कार्यों का अनुमोदन भी नहीं किया। बाहर के कठोर दिखाई देने पर भी उनके मन में करुणा थी। वस्तुत: उन्होंने राजा को बताया कि दान देना, विहार बनवाना, आदि पुण्य कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, वे अनित्य हैं। इस प्रकार उन्होंने सम्राट को अहंभाव से बचाया और शून्यता के उच्च सत्य का उपदेश किया, जो पुण्य-पाप पवित्र-अपवित्र सत-असत आदि द्वन्द्वों और प्रपंचों से अतीत है। उपर्युक्त भेंट के बाद बोधिधर्म वहाँ रहने में कोई लाभ न देखकर यां-त्सी-नदी पार करके उत्तरी चीन के बेई नामक राज्य में चले गये। इसके बाद उनका अधिकतर समय उन राज्य की राजधानी लो-याङ के समीप शुग-शन पर्वत पर स्थित 'शाश्व-शान्ति' (श्वा-लिन्) नामक विहार में बीता, जिसका निर्माण पांचवीं शती के पूर्वार्द्ध में हुआ था। इस भव्य विहार का दर्शन करते ही बोधिधर्म मन्त्रमुग्ध हो गए और हाथ जोड़े चार दिन तक विहार के सामने खड़े रहे। यहीं नौ वर्ष तक रहते हुए बोधिधर्म ने ध्यान की भावना की। वे दीवार के सामने खड़े रहे। यहीं नौ वर्ष तक रहते हुए बोधिधर्म ने ध्यान की भावना की। वे दीवार की ओर मुख करके ध्यान किया करते थे। जिस मठ में बोधिधर्म ने ध्यान किया, वह आज भी भग्नावस्था में विद्यमान है। झेन सम्प्रदाय के संस्थापक संपादित करें आचार्य बोधिधर्म ने चीन में ध्यान-सम्प्रदाय की स्थापना मौन रहकर चेतना के धरातल पर की। बड़ी कठोर परीक्षा के बाद उन्होंने कुछ अधिकारी व्यक्तियों को चुना और अपने मन से उनके मन को बिना कुछ बोले शिक्षित किया। बाद में यही ध्यान-सम्प्रदाय कोरिया और जापान में जाकर विकसित हुआ। शैन-क्कंग संपादित करें बोधिधर्म के प्रथम शिष्य और उत्तराधिकारी का नाम शैन-क्कंग था, जिसे शिष्य बनने के बाद उन्होंने हुई-के नाम दिया। पहले वह कुन्फ़्यूशियसी धर्म का अनुयायी था। बोधिधर्म की कीर्ति सुनकर वह उनका शिष्य बनने के लिए आया था। सात दिन और सात रात तक दरवाज़े पर खड़ा रहा, किन्तु बोधिधर्म ने मिलने की अनुमति नहीं थी। जाड़े की रात में मैदान में खड़े रहने के कारण बर्फ़ उनके घुटनों तक जम गई, फिर भी गुरु ने कृपा नहीं की। तब शैन-क्कंग ने तलवार से अपनी बाई बाँह काट डाली और उसे लेकर गुरु के समीप उपस्थित हुआ और बोला कि उसे शिष्यत्व नहीं मिला तो वह अपने शरीर का भी बलिदान कर देगा। तब गुरु ने उसकी ओर ध्यान देकर पूछा कि तुम मुझसे क्या चाहते हो? शैन-क्कंग ने बिलखते हुए कहा कि मुझे मन की शान्ति चाहिए। बोधिधर्म ने कठोरतापूर्वक कहा कि अपने मन को निकाल कर मेरे सामने रखो, मैं उसे शान्त कर दूँगा। तब शैन्-क्कंग ने रोते हुए कहा कि मैं मन को कैसे निकाल कर आप को दे सकता हूँ? इस पर कुछ विनम्र होकर करुणा करते हुए बोधिधर्म ने कहा- मैं तुम्हारे मन को शान्त कर चुका हूँ। तत्काल शैन्-क्कांग को शान्ति का अनुभव हुआ, उसके सारे संदेह दूर हो गए और बौद्धिक संघर्ष सदा के लिए मिट गए। शैन्-क्कांग चीन में ध्यान सम्प्रदाय के द्वितीय धर्मनायक हुए। अंतिम संपादित करें चीन से प्रस्थान करने से पूर्व बोधिधर्मने अपने शिष्यों को बुलाया और उनकी उपलब्धियों के बारे में पूछा। उनमें से एक शिष्य ने कहा कि मेरी समझ में सत्य विधि और निषेध दोनों से परे हैं। सत्य के संचार का यही मार्ग है। बोधिधर्म ने कहा- तुम्हें मेरी त्वचा प्राप्त है। इनके बाद दूसरी भिक्षुणी शिष्या बोली कि सत्य का केवल एक बार दर्शन होता है, फिर कभी नहीं, बोधिधर्म ने कहा कि तुम्हें मेरा मांस प्राप्त है। इसके बाद तीसरे शिष्य ने कहा कि चारों महाभूत और पाँचों स्कन्ध शून्य हैं और असत है। सत रूप में ग्रहण करने योग्य कोई वस्तु नहीं है। बोधिधर्म ने कहा कि तुम्हें मेरी हड्डियाँ प्राप्त हैं। अन्त में हुई-के ने आकर प्रणाम किया और कुछ बोले नहीं, चुपचाप अपने स्थान पर खड़े रहे। बोधिधर्म ने इस शिष्य से कहा कि तुम्हें मेरी चर्बी प्राप्त है। इसके बाद ही बोधिधर्म अन्तर्धान हो गए। अन्तिम बार जिन लोगों ने उन्हें देखा, उनका कहना है कि वे नंगे पैर त्सुग्-लिंग पर्वतश्रेणी में होकर पश्चिम की ओर जा रहे थे और अपना एक जूता हाथ में लिए थे। इन लोगों के कहने पर बाद में लोयांग में बोधिधर्म की समाधि खोली गई, किन्तु उसमें एक जूते के अलावा और कुछ न मिला। कुछ लोगों का कहना है कि बोधिधर्म चीन से लौटकर भारत आए। जापान में कुछ लोगों का विश्वास है कि वे चीन से जापान गए और नारा के समीप कतयोग-यामा शहर में एक भिक्षुक के रूप में उन्हें देखा गया। ग्रंथ संपादित करें बोधिधर्म ने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा, किन्तु ध्यान सम्प्रदाय के इतिहास ग्रन्थों में उनके कुछ वचनों या उपदेशों का उल्लेख मिलता है। जापान में एक पुस्तक 'शोशित्सु के छह निबन्ध' नाम प्रचलित है, जिसमें उनके छह निबन्ध संगृहीत माने जाते हैं। सुजुकी की राज में इस पुस्तक में निश्चित ही कुछ वचन बोधिधर्म के हैं, किन्तु सब निबन्ध बोधिधर्म के नहीं हैं। चीन के तुन-हुआं नगर के 'सहस्त्र बुद्ध गुहा विहार' के ध्वंसावशेषों में हस्तलिखित पुस्तकों को एक संग्रह उपलब्ध हुआ था, जिसमें एक प्रति बोधिधर्म द्वारा प्रदत्त प्रवचनों से सम्बन्धित है। इसमें शिष्य के प्रश्न और बोधिधर्म के उत्तर खण्डित रूप में संगृहीत हैं। इसे बोधिधर्म के शिष्यों ने लिखा था। इस समय यह प्रति चीन के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। ध्यान संप्रदाय संपादित करें ध्यान सम्प्रदाय में सत्य की अनुभूति में प्रकृति का महान उपयोग है। प्रकृति ही ध्यानी सन्तों का शास्त्र है। ज्ञान की प्राप्ति की प्रक्रिया में वे प्रकृति का सहारा लेते हैं और उसी के निगूढ प्रभाव के फलस्वरूप चेतना में सत्य का तत्क्षण अवतरण सम्भव मानते हैं। बोधिधर्म के विचारों के अनुसार वस्तुतत्त्व के ज्ञान के लिए प्रज्ञा की अन्तर्दृष्टि की आवश्यक है, जो तथ्यता तक सीधे प्रवेश कर जाती है। इसके लिए किसी तर्क या अनुमान की आवश्यकता नहीं है। इसमें न कोई विश्लेषण है, न तुलनात्मक चिन्तन, न अतीत एवं अनागत के बारे में सोचना है, न किसी निर्णय पर पहुँचना है, अपितु प्रत्यक्ष देखना ही सब कुछ है। इसमें संकल्प-विकल्प और शब्दों के लिए भी कोई स्थान नहीं है। इसमें केवल 'ईक्षण' की आवश्यकता है। स्वानुभूति ही इसका लक्ष्य है, किन्तु 'स्व' का अर्थ नित्य आत्मा आदि नहीं है। ध्यान सम्प्रदाय एशिया की एक महान उपलब्धि है। यह एक अनुभवमूलक साधना-पद्धति है। यह इतना मौलिक एवं विलक्षण है, जिसमें धर्म और दर्शन की रूढियों, परम्पराओं, विवेचन-पद्धितियों, तर्क एवं शब्द प्रणालियों से ऊबा एवं थका मानव विश्रान्ति एवं सान्त्वना का अनुभव करता है। इसकी साहित्यिक एवं कलात्मक अभिव्यक्तियाँ इतनी महान एवं सर्जनशील हैं कि उसका किसी भाषा में आना उसके विचारात्मक पक्ष को पुष्ट करता है। इसने चीन, कोरिया और जापान की भूमि को अपने ज्ञान और उदार चर्याओं द्वारा सींचा है तथा इन देशों के सांस्कृतिक अभ्युत्थान में अपूर्व योगदान किया है। सन्दर्भ संपादित करें इन्हें भी देखें संपादित करें बाहरी कड़ियाँ संपादित करें संवाद Last edited 20 days ago by Sanjeev bot RELATED PAGES बुद्ध जयंती सुज़ुकी देइसेत्ज़ झेन सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

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