Saturday, 24 February 2018
कबीर की ‘सोऽहम्’ साधना
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June 1958
संत कबीर की ‘सोऽहम्’ साधना
(डॉ. रामकुमार वर्मा, एम. ए.)
भक्ति-काल की रचनाओं ने दो दिशा ग्रहण कीं। एक निर्गुण और निराकारवादी थी, दूसरी सगुण और साकारवादी। काल-क्रमानुसार निर्गुण प्रथम है। यह काल ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी का था जिसमें सन्त कबीर ने प्राचीन परम्पराओं का संशोधन करते हुए सन्त सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा की। लगभग एक शताब्दी बाद सूर, तुलसीदास और मीरा ने वैष्णव भक्ति के आदर्शों को ग्रहण करते हुए सगुण सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया जिसमें राम और कृष्ण की भक्ति शतमुखी होकर जन-जीवन मन्दाकिनी की भाँति प्रवाहित हुई।
निर्गुण सम्प्रदाय की पृष्ठभूमि में नाथ सम्प्रदाय है और समानान्तर दिशाओं में वैष्णव भक्ति का अलंकार धारण किए हुए रामानन्द द्वारा प्रचारित शंकर का अद्वैतवाद तथा अनेक सूफी, सन्तों द्वारा प्रचारित सूफी मत हैं। सन्त कबीर पर रामानन्द की अद्वैत विचारधारा का प्रभाव सबसे अधिक है। कबीर ने साधना के क्षेत्र में योग और प्रेम को जो महत्व दिया है, यह क्रमशः नाथ सम्प्रदाय और सूफी मत का प्रभाव ही माना जा सकता है। यद्यपि प्रेम का महत्व वैष्णव भक्ति से भी समर्थित होता है, परन्तु प्रेम की मादकता जो अनेक प्रतीकों के रूप में प्रस्तुत की गयी है, वह निश्चय ही सूफी मत से प्राप्त की हुई ज्ञात होती है।
अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म ही एक सत्य हैं। अविद्या अथवा अज्ञान के कारण ही यह दृश्यमान् जगत सत्य भासित होता है, जिसमें जीवन और मरण के सुख और दुख घटित होते रहते हैं। इस अज्ञान सम्बन्धी ज्ञान की आवश्यकता है, क्योंकि ब्रह्म और आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। जो अन्तर दृष्टिगत होता है वह अज्ञान जनित है। आत्मा को जानना ही निज रूप में स्थित होना है और तभी ‘सोऽहम्’ पर विशेष बल दिया है। इस पर कुछ विस्तार से विचार करना आवश्यक है। सन्त कबीर ने सोऽहम् की स्थिति योग और रहस्यवाद द्वारा सम्भव बतलाई है-
अरध उरध मुखि लागो कासु। सुँन मंडल महि करि परगासु॥
उहाँ सूरज नाहीं चन्द। आदि निरञ्जनु करें अनन्द॥
सो ब्रह्मण्डि पिंडि सो जानु। मानसरोवरि करि इसनानु॥
सोहं सो जा कउ है जाप। धाकल लिपत न होई पुन अरु पाप॥
अबरन वरन धाम नहीं छाम। अवरन पाइऔ गुरु का साम॥
टारी न टरै आवै न जाइ। सुन सहज महि रहिओ समाइ॥
मन मधे जानै जे कोइ। जो बोलै सो आपै होइ॥
जोति मन्त्र मनि असथिरु करै। कहि कबीर सो प्रानी तरै॥
इसका सामान्य अर्थ इस प्रकार है-
“जिस शून्य मण्डल के नीचे और ऊपर मुख से प्रकाश लगा हुआ है, उसी में वह (ब्रह्म) प्रकाश कर रहा है। वहाँ न सूर्य है, न चन्द्रमा किन्तु (अपने ही प्रकाश में) वह आदि निरंजन वहाँ आनन्द की (सृष्टि) कर रहा है। उसी शून्य मण्डल को ब्रह्माँड और उसी को पिंड समझो। तुम उसी मानसरोवर में स्नान करो और सोऽहम् का जाप करो। जिस सोऽहम् के जाप में पाप और पुण्य लिप्त नहीं हैं (अर्थात्, सोऽहम् जाप, पाप और पुण्य से परे है) उस शून्य मण्डल में वर्ण (रंग) है और न अ-वर्ण (अ-रंग), न वहाँ धूप है न छाया। वह गुरु के स्नेह के अतिरिक्त और किसी भाँति प्राप्त नहीं किया जा सकता। फिर (मन की सहन शक्ति) न टालने से टल सकती है और न किसी अन्य वस्तु में आ जा सकती है। वह केवल शून्य में लीन होकर रहती है। जो कोई इस शून्य को अपने मन के भीतर जानता है, वह जो कुछ भी उच्चारण करता है, वह आप ही (सच्चे अन्तःकरण) का रूप हो जाता है। इस ज्योति के रहस्य में जो व्यक्ति अपना मन स्थिर करता है, कबीर कहते हैं कि वह प्राणी इस संसार से तर जाता है।”
इस पद में कबीर ने विस्तार से सोऽहम् की स्थिति की वर्णन किया है। जब मैं वह (ब्रह्म) हूँ, जैसी सोऽहम् की अनुभूति होती है, तो ब्रह्म और जीव की सत्ता एक ही हो जाती है। कबीर ने भी सोऽहम् कहकर ब्रह्म और जीव की सत्ता एक ही मानी है, किन्तु उन्होंने इस स्थिति में कुछ संशोधन किया है। कबीर ने दर्शन के प्रत्येक तत्व को संशोधन के साथ ग्रहण किया है, जिससे वह सामान्य जन के लिए भी व्यावहारिक बन जाय। ब्रह्म और जीव का ऐक्य उन्होंने अद्वैतवाद की अपेक्षा रहस्यवाद से ग्रहण किया है जो आत्मा में विश्वात्मा की अनुभूति है। उसमें विश्वात्मा का मौन आस्वादन है। प्रेम के आधार पर वह आत्मा और विश्वात्मा में ऐक्य स्थापित करता है। यह ऐक्य ही है, एकीकरण नहीं। एकीकरण की भावना अद्वैतवाद में और रहस्यवाद में कुछ भिन्नता है। अद्वैतवाद में मिलाप की भावना का ज्ञान भी नहीं रहता, रहस्यवाद में यह मिलाप एक उल्लास की तरंग बनकर आत्मा में जाग्रत रहता है। जब तक जल-बिन्दु अनन्त जलराशि में मिलकर अपना व्यक्तित्व खो देता है तब उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान भी नहीं रहता। यह भावना अद्वैतवाद ही की है। लेकिन रहस्यवाद में अस्तित्व का पूर्ण विनाश नहीं होने पाता। मिलाप की स्थिति में भी यह भावना वर्तमान रहती है कि मैं मिल रहा हूँ। आत्मा विश्वात्मा से मिलकर भी यह कह सकती है कि मैं अपने लाल की लाली, जहाँ देखती हूँ वहीं पाती हूँ। जब मैं उस लाली को देखने जाती हूँ तो मैं भी लाल हो जाती हूँ। यहाँ मैं और लाल में एकता होते हुए भी दोनों का अस्तित्व-ज्ञान अलग-अलग है। व्यक्तित्व का अभिज्ञान रहते हुए इस मिलाप की आनन्दानुभूति ही रहस्यवाद की अभिव्यक्ति है। यदि आत्मा और परमात्मा की स्थिति एक ही हो जाय तो मिलने की आनन्दानुभूति का केन्द्र किस जगह स्थित होगा? आनन्द का अनुभव करने के लिए आत्मा के व्यक्तित्व को ब्रह्म से मिलते हुए भी अलग मानना होगा। रहस्यवाद की यही विशेषता है। इस रहस्यवाद में सोऽहम् की अनुभूति प्राप्त करने पर भी आत्मा आनंदानुभूति से वंचित नहीं होती।
ऐसा मनोभाव प्रेम की चरम परिणति में ही सम्भव है। यह प्रेम निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार की भक्ति में प्रतिष्ठित हो सकता है। इस प्रेम की सहानुभूति के लिए व्यक्तित्व का होना परमावश्यक है। सगुणोपासना से तो व्यक्तित्व सहज ही प्राप्त हो सकता है। राम और कृष्ण का रूप और लीलागान किसी भी भक्त को रहस्यवाद के आनन्द-द्वार तक पहुँचा सकता है। सन्त तुलसीदासजी का यह कथन है कि-
प्रभु गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयनन ढरिहै। तुलसिदास भयो राम को, विश्वास प्रेम लखि आनन्द उमगि उर भरि है।
अथवा मीराबाई का यह पद--
जिनके पिया परदेश बसत हैं, लिखि-लिखि भेजें पाती। मेरे पिया मो माँहिं बसत हैं, गूँज करूं दिन-राती॥
रहस्यवाद के आनन्द की सृष्टि करते हैं, किन्तु निर्गुण सम्प्रदाय में जहाँ ब्रह्म निराकार है और उसका व्यक्तित्व या लीला-गान सम्भव नहीं है, वह प्रेम का आश्रय क्या होगा? अनन्य से प्रेम नहीं किया जा सकता। निर्गुण भावना में प्रेम की साधना प्रतिफलित करने के लिए संत कबीर ने अपने ब्रह्म के लिए प्रतीकों का आश्रय ग्रहण किया। उन्होंने अपने ब्रह्म से मानसिक सम्बन्ध जोड़ा और ब्रह्म को अनेक प्रकार से अपने समीप समीप लाने की विधि सोची। उन्होंने ब्रह्म को गुरु, राजा, पिता, माता, स्वामी, मित्र और पति के रूप में मानने की शैली अपनाई। ब्रह्म का गुरु रूप देखिए।
गुरु गोविन्द तो एक है, दूजा यहु आकार। आपा मेटि जीवत मरै, तो पावै करतार॥
जननी रूप--
हरि जननी मैं बालिक तोरा। काहेन औगुन बकसहु मोरा॥
स्वामी रूप--
कबीर प्रेम न चाखिया चखि ना लीया साव। सूने घर का पाहुँगा ज्यूँ आया त्यूँ जाव॥
पति रूप--
हरि मोरा पीव भाई हरि मोरा पीव। हरि बिन रहि न सकै मेरा जीव॥
इन प्रतीकों में पति या प्रियतम का रूप प्रधान है। इसी प्रतीक के माध्यम से कबीर ने रहस्यवाद का चरमोत्कर्ष प्राप्त किया है जिससे उनके सोऽहम् का अनुभव सम्भव हो सका है।
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