Thursday, 22 February 2018
जीवन में जीवन जोड़ना उद्देश्य नहीं है इसके लिए हमें कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है इसका उद्देश्य चीजों को बेहतर और भव्य बनाना है इसका उद्देश्य बेहतर जीवन बनाना है। बेहतर जीवन एक बेहतर दिमाग का नतीजा है बेहतर विचार बेहतर विचारों का परिणाम है। बेहतर विचार बेहतर आदतों से आता है बेहतर आदतें बेहतर जीवन निर्णय लेने से मिलती हैं बेहतर जीवन निर्णय इस बात को लेकर आता है कि जीवन कम है और इस वर्ष, या महीने या दिन आपका आखिरी हो सकता है * अब बेहतर निर्णय लेने के लिए एक निर्णय करें और इसके अलावा इससे कुछ भी आप पर कोई फर्क नहीं पड़ता। * उस शक्ति को समझें जिसे आपको जीवन के किसी भी क्षण में एक नया निर्णय लेना होगा, जिसमें आपके पूरे जीवन को बदलने की शक्ति है। * चुनें + निर्णय + अधिनियम + लाइव। * मेरी जिंदगी में रोज़ाना रोज़ाना। 🌹🙏
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अमरता का रहस्य
अमरता का रहस्य.
मई 6, 2012Leave a reply
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अमरत्व का रहस्य
हम न मरैं, मरिहें संसारा।
हम कूं मिला जियावनहारा।।
अब न मरूँ मरनै मन माना। तेई मुए जिन राम न जाना।।
साकत मरैं संत जन जिवैं। भरि भरि राम रसायन पीवैं।।
हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं। हरि न मरैं हम काहे कूँ मरिहै।।
कहैं कबीर मन मनहि मिलावा। अमर भये सुख सागर पावा।। संत कबीर।
मानव सभ्यता के इतिहास में हर महापुरूष ने जीवन को सफल बनाने पर जोर दिया है। फिर इस सफलता को हम चाहे जैसे समझें – भौतिक उपलब्धियों तक सीमित रक्खें या प्रकृति के रहस्यों को जान कर, आत्म-उपलब्धि करके पूर्णता प्राप्त करलें। दो उदाहरण लेंगे।
सिकन्दर महान ने पुरे दुनिया का राजा बनने का सपना देखा। अपने देश से युद्ध जीतते हुए भारत के पश्चिम सीमा तक पहुँच गया, तबतक उसकी सेना थक चुकी थी और आगे बढने से इंकार कर दिया। आखिरकार सिकन्दर को अपनी इच्छाओं को दबा कर वापिस लौटना पड़ा। लौटते समय रास्ते में सिकन्दर बीमार पड़ गया। डाक्टरों ने जबाब दे दिया। सिकन्दर बोला मेरा पूरा राज्य ले लो लेकिन एक बार मुझे अपने माँ से मिल लेने दो। डाक्टरों ने कहा अब ये सम्भव नहीं है- तुम्हारे कुछ हीं साँस बँचे हैं जो कहना है कह दो। पूर्वजों ने कहा है कि मरने से कुछ पहले बुद्धि खुल जाती है। शायद यही हुआ। सिकन्दर ने अपनी अंतिम इच्छा प्रकट करते हुए कहा कि मरने के बाद मेरे दोनो हाथों को कपड़े से न ढ़क कर खुले रहने दिए जायें जिससे दुनिया वाले ये देख लें कि सिकन्दर को सब कुछ यहीं छोड़ कर खाली हाथ वापिस जाना पड़ा। हम प्रतिदिन देखते हैं लोग मरते हैं और खाली हाथ दूसरे लोक में चले जाते हैं। फिर भी हमने अपरिग्रह की सीख अपने पुर्वजों से नहीं सीखा। इसका अभिप्राय ये नहीं है कि संसाधन जुटा कर हम समृद्ध न हों और कंगाल जैसे जीयें। हमें सम्पन्न और समृद्ध रहना है। लेकिन स्वार्थ और परमार्थ दोनो लेकर चलना है।
दुसरा उदाहरण अकबर महान का है। जंगल में सैनिकों के साथ शिकार खेलते- खेलते अकबर भटक गया। रात हो गयी उसे रास्ता नहीं मिला। अंततः चलते- चलते जंगल के दुसरे छोर पर उसे एक किसान की झोपड़ी दिखायी दी। अकबर ने रात वहीं गुजारी। किसान ने अतिथी सत्कार किया – अकबर को भोजन कराया। दुसरे दिन सुबह चलते समय अकबर ने पुछा- क्या तुम मुझे पहचानते हो ? किसान बोला मैं आपको नहीं जानता। अकबर ने बताया मैं यहां का बादशाह हुँ। ये मेरी अँगूठी रख लो, जब जरुरत पड़े मेरे पास सीधे आ जाना मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। किसान ने अँगूठी रख ली, अकबर चला गया। कुछ समय बाद राज्य में भयंकर सूखा पड़ा। किसान की औरत ने याद दिलाया कि राजा की दी हुयी अँगूठी रक्खी हुइ है तुम उसे लेकर जाओ। राजा जरूर मदद करेगा। किसान तो संतोषी था लेकिन सूखे के कारण जरूरत-मन्द हो गया था। यही विचार कर अकबर से मिलने चल दिया। महल में पहुँचने पर राजा के कर्मियों ने अँगूठी पहचान ली और सीधे अकबर के पास किसान को ले गये। अकबर महान उस समय अपने पूजा घर में प्रार्थना कर रहा था सो किसान को वहीं कुछ समय रूकना पड़ा। किसान ने देखा और सुना राजा विनती कर रहा था हे भगवान ! मेरे राज्य में पानी वर्षाइये, फसल को अच्छा कर दिजीये जिससे प्रजा सुखी रहे और पूरा कर अदा करे। मेरा राजकोष बढ़ता रहे, अन्यथा मैं कर्मियों को वेतन कैसे दूँगा, अपनी सेना को कैसे बढाउँगा ? मेरा राज्य कैसे बढेगा, मैं सुरक्षित कैसे रहूँगा ? राजा के इतनी परेशानीयों को सुनकर किसान वहाँ से चल पड़ा।
थोड़ी देर बाद राजा को किसान के आने की सूचना मिली तब तक किसान बाहर चला गया था। राजा ने किसान को बुलाया और वापिस जाने का कारण पूछा। किसान बोला आपकी दिक्कतें तो मेरे से ज्यादा हैं और फिर आप जिससे माँग रहे हैं मैं भी उसीसे माँग लूँगा। इस कहानी का अभिप्राय यह है कि जितना बड़ा आदमी, उतना बड़ा जरूरत और फिर उतनी ही बड़ी दिक्कतें। हमें अपने जीवन के उदेश्य के अनुसार अपनी आवश्यकताओं को कहीं न कहीं सीमित करना सिखना होगा। अन्यथा हम अपनी दैनिक भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करते-करते अनमोल मानव जीवन बिना सच्चाई जाने हुए बिता देंगे।
ऊपर उन दो व्यक्तियों की चर्चा हुई जिन्हें इतिहास महान कहता है, और उनकी अवस्थाओं को हमने देखा। फिर साधारण मानव के बारे में क्या कहना। संतों का जीवन हमारे लिये एक दुसरा ही संदेश देता है। अगर हम स्वार्थ और परमार्थ दोनों मे पुर्णता प्राप्त करना चाहते हैं तो जीवन के हर आयाम में संयम, संतुलन, सामंजस्य, समन्वय की आवश्यकता है। चाहे भौतिक जगत या सुक्ष्म जगत का क्षेत्र हो, बातें दोनों जगह लागू होती हैं। अनन्त आनन्द, पूर्णता और सर्वज्ञता को पाने का राज-मार्ग मानव जीवन है। इस राज-मार्ग पर जाने के लिए मन रुपी भयंकर गेट से गुजरना पड़ता है जिसमें ताला लगा है। चेतन सत्ता के ध्यान द्वारा वह ताला खुलता है। ध्यान की विधि समर्थ गाईड/ कोच के पास है। ध्यान साधना के पूर्ण होने के उपरान्त जो उपलब्धि मिलती है, उसकी गहराइयों एवम विधाओं पर ध्यान देंगे।
उलटि समाना आप में, प्रगटी जोत अनंत।
साहेब सेवक एक सँग, खेलैं सदा बसंत।। संत कबीर।
उध्र्वमुखी होकर, जब चेतना सिमट कर अपने मूल में मिल जाती है, तब हर तरफ प्रकाश हो जाता है। ये अन्तर जगत के हृदय प्रदेश में, चेतना के उच्च स्तर पर पहुँच जाने के बाद स्थिति आती है। वहाँ हमेशा बसन्त जैसे खुशहाली का मौसम रहता है। संत कहते हैं, वहाँ प्रभू और भक्त एक साथ हमेशा के लिए निवास करते हैं।
जोगी हुआ झलक लगी, मिटि गया ऐंचातान।
उलटि समाना आप में, हुआ ब्रह्म समान।। संत कबीर।
साधक का मन जब इच्छाओं से विरक्त हो, प्रभूनाम से जुड़ता है, उसे अन्तर की रोशनी मिलने लगती है। रास्ता सुगम हो जाता है, कठीनाइयाँ नहीं रहतीं। व्यष्टि चेतना के समष्टि चेतना में मिल जाने पर ब्रह्म जैसी सर्वज्ञता स्वमेव अवतरित हो जाती है।
गुरु मिले शीतल भया, मिटी मोह तन ताप।
निशु बासर सुख-निधि लहौं, अन्तर प्रगटे आप।। संत कबीर।
सफल हो जाने पर हर प्रशिक्षु अपने कोच के प्रति कृतज्ञ होता है। समर्थ / योग्य गुरु के मिलने पर मन माया के बिकार ( काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि ) समाप्त हो जाते हैं। हृदय में गुरु के प्रकट होने पर जो खुशी होती है वह अवर्णनीय है। अन्दर-बाहर चारों तरफ हमेशा दिन-रात आनन्द ही आनन्द रहता है।
शब्द सुरति और निरति, ये कहिबे को हैं तीन।
निरति लौटि सुरतहिं मिली, सुरति शबद में लीन।। संत कबीर।
व्यवस्था के अन्तर्गत एक मूल श्रोत से कई चीजें बनती हैं। जैसे सोने से अँगूठी, हार, कंगन, कुण्डल आदि। लेकिन सोना एक ही है। इसी प्रकार एक राम-नाम से ही समस्त सृष्टि का सृजन हुआ। संत कबीर समझाते हैं कि शबद, सुरत और निरत तीनों का कार्य अलग-अलग है इसलिए ये कहने के लिए तीन है। परन्तु साधना द्वारा निरत जाकर सुरत में मिलती है और सुरत फिर शबद ( राम-नाम ) में लिन हो कर पूर्णता प्रप्त करती है।
सुरति समानी निरति में, अजपा माहीं जाप।
लेख समाना अलेख में, आपा माहीं आप।। संत कबीर।
एक ही प्रक्रिया को योग्य शिक्षक विभिन्न तरीके से समझाते हैं जिससे कि शिष्य उसे हृदयंगम करके कार्य को सुचारु रुप से पूरा कर ले। साधना की एक विशेष अवस्था में सुरत जाकर निरत में समा जाती है। उसी प्रकार पहले जो जाप अलग होता था वह अजपा में होने लगता है। शिष्य का प्रकट स्वरुप ( चेतना ) अव्यक्त परमेश्वर में समा जाती है। और वह परमेश्वर भी कहीं अलग नहीं, बल्कि अपने आप में मिल जाता है।
सुरति समानी निरति में, निरति रही निरधार।
सुरति निरति परिचय भया, तब खुला सिंध दुवार।। संत कबीर।
सुरत जब निरत में समाती है, अर्थात इन दोनों के मिलन के उपरान्त निरत स्वतंत्रा होकर उन्मनि हो जाती है। अन्तर में उपर चढ़ने का द्वार खुल जाता है। रास्ता आसान और आनन्ददायक लगता है। साधना में प्रगति होने लगती है।
संत कबीर की वाणी बहुत गहरे आध्यात्म से जुड़ी व्यवहारिक बातें हैं जिन्हें दुनियावी जानकारी, पुस्तकों के शिक्षा एवम बुद्धि से जानना सम्भव नहीं है। समर्थ मार्ग-दर्शक के देखरेख में प्रेम-विश्वास से बढ़कर, व्यक्तिगत स्तर पर आन्तरिक अनुभव होने के उपरान्त ही संत कबीर को समझा जा सकता है। पुस्तकों से उपर-उपर का इशारा मिलता है।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। मानस।
प्रभु श्रीराम कहते हैं कि जब कोइ जीव मेरे या मेरे स्तर तक पहुँचे हुए किसी पूर्ण संत-महात्मा / महापुरुष के सम्मुख आता है तो उनके दर्शन मात्र से उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
मम दरसन फल परम अनूपा।
जीव पाव निज सहज सरुपा।। मानस।
शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए श्री रामचन्द्र जी कहते हैं कि मेरे दर्शन का परम श्रेष्ठ फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरुप को प्राप्त हो जाता है। कैसे सहज स्वरुप को पाता है ? दर्शन में क्या होता है ? यह अवर्णनीय है। इसे महापुरुषों के कृपा से अनुभव ही किया जा सकता है। बात-चीत से तो सिर्फ तर्क-वितर्क की ओर ही बढ़ते हैं। और अविश्वास बढ़ता है। हमें व्यक्तिगत अनुभव का आधार चाहिए जो करनी से, साधना व परिश्रम से, महापुरुषों की भक्ति से मिलता है। हर चीज की कीमत होती है। सर्वशक्तिमान सत्ता भी भक्ति के अनुसार ही उपलब्धि देता है। पात्र को ही पात्रता मिलती है।
सब बन तो तुलसी भई, परबत सालिगराम।
सब नदियें गंगा भई, जाना आतमराम।। संत कबीर।
संत कहते हैं एक साधे सब सधे। एक बार अपने आत्मस्वरुप का साक्षात्कार हो जाने पर वह चेतना सर्वत्रा दिखने लगती है। सियाराम मैं सब जग जानी। सबसे प्रेम होता है। सब अपने लगते हैं। द्वैत खत्म हो जाता है। सर्वत्रा अद्वैत ही रह जाता है। और जब सबमें अद्वैत ही दिखता है तो पूरे बन/ जंगल तुलसी जैसी पवित्रा, सब पहाड़ सालिग्राम जैसे देवता और सब नदियाँ गंगा जैसी पावन नजर आने लगती हैं।
कहें कबीर मैं कछु ना किन्हा।
सखी सोहाग राम मोहे दीन्हा। संत कबीर।
इतने उपलब्धियों के बावजूद संत कितने नम्र होते हैं, यह कबीर साहेब की वाणी में दिखता है। कितने सहजता और दीनता से निवेदन करते हैं कि मैंने कुछ नहीं किया, मेरी कोई बड़ाई नहीं है। ये तो मेरे मालिक राम की कृपा है कि उन्होंने दया करके मुझे सोहाग दे दिया, मेरे को अपनी सोहागिन बना लिया। संत अनुपम, अनमोल और बेजोड़ हैं। हम दुनियावाले उन्हें नहीं पहचानते। उनके ताकत को नजरअन्दाज करते हैं।
संत कबीर अपने अमर होने का इशारा करते हैं।
हम न मरैं, मरिहें संसारा।
हम कूं मिला जियावनहारा।।
अब न मरूँ मरनै मन माना। तेई मुए जिन राम न जाना।।
साकत मरैं संत जन जिवैं। भरि भरि राम रसायन पीवैं।।
हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं। हरि न मरैं हम काहे कूँ मरिहै।।
कहैं कबीर मन मनहि मिलावा। अमर भये सुख सागर पावा।। संत कबीर।
अब न मरूँ मरनै मन माना। तेई मुए जिन राम न जाना।।
अब क्यों नहीं मरूँगा ? क्योंकि मेरे मन ने मरना स्वीकार कर लिया है। तो क्या नई बात है ? ये है कि अब तक मन ने कभी मरना स्वीकार नहीं किया और न कभी मरा। तो अब तक इसने क्या किया ? मन अभी तक आत्मा का साथ पकड़कर इसके ताकत से सृष्टि का विनाश होने वाला भोग भोगता रहा। आत्मा अपने ताकत से अनजान रही। मन बार-बार आत्मा को अलग-अलग शरीरों में जन्म-मरण देता ही रहा। मरने के समय सभी इन्द्रियों को समेटकर मन अपने साथ आत्मा को लेकर कर्मानुसार भोग के लिए सृष्टि के व्यवस्था के अन्र्तगत स्वर्ग-नर्क और दूसरे योनियों में ले जाता रहा, और इस कार्य में माया-शक्ति मन का साथ देती है। आत्मा बार-बार अलग-अलग शरीर धारण करती है और शरीर जन्म-मरण लेता रहता है। आत्मा तो अमर है लेकिन मन और माया को मरना है। मन-माया को मारना ही असली लड़ाई है।
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर।
आशा तृष्णा ना मुई, यों कथि कहैं कबीर।।
तो आज तक साधक का मन और माया नहीं मुआ। ऐसा क्यों ? इसलिए कि आशा तृष्णा नहीं मरी। इसी के सहारे मन माया जिन्दा रहते हैं। सो पहले आशा तृष्णा मारें, फिर मन माया मरेगें। लेकिन आशा तृष्णा कैसे मारें ? यह सोचें कि आशा-तृष्णा क्यों है ? इसलिए कि आशा-तृष्णा के पूरा होने हमें सुख तृप्ति मिलती है – हमारी जरुरतों की पूर्ति होती है। अगर ऐसा है तो आशा-तृष्णा को मारने पर हमारे सुख, तृप्ति और जरुरतों की पूर्ति कैसे होगी ?
यही असली बात है। यह सब होगा अगर हमें पूर्ण शिक्षक और पूर्ण रास्ता मिल जाए। वो शिक्षक संत है- वो रास्ता शबद-सूरत मार्ग है। जिसमें हमें घर छोड़कर जंगल नहीं जाना है। घर में ही साधना द्वारा पूर्ण गुरु और परमेश्वर के दर्शन होते हैं। हमारी सभी दैनिक और दीर्घ जीवन की जरुरतें पूरी होती हैं। उनकी कृपा से हर तरफ खुशी, संतोष और शान्ति मिलती है।
तभी मन को विश्वास होता है, वह इन्द्रियों के माध्यम से विषय-विकारों के तरफ नहीं भागता तथा मरने के लिए तैयार हो जाता है। संत बताते हैं- मन का आत्मा को छोड़कर अपने मूल ब्रह्म में लय हो जाना ही इसका मरना है। मन ब्रह्म में लय होकर शान्त हो जाता है। इसी को कहते हैं –
कहैं कबीर मन मनहि मिलावा। अमर भये सुख सागर पावा।
व्यष्टि मन समष्टि (ब्रह्मांडी) मन में मिल गया। फिर आत्मा भी अपने मूल परमात्मा में मिल जाती है।
सो इसी पर संत कबीर साहेब कहते हैं कि अब मेरा मन मरने के लिए तैयार हो गया है। मन यह समझ गया है कि मरकर (अर्थात ब्रह्म में लय होकर) ही उसे असली आनन्द मिलेगा। अंश अपने मूल में समाकर ही पूर्णता का अनुभव करता है जैसा कि रचना के पहले था। फिर आत्मा मन के चंगुल से आजाद हो जाएगी और परमात्मा से मिलन होगा। एक बार परमात्मा से मिल लेने पर, उसमें लीन हो जाने पर दूबारा मरने का सवाल ही नहीं हैं। और यह सब जीते जी ही होता है।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
फिर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है और स्वासों के खजाने की समाप्ती पर खुशी-खुशी प्रकृति प्रदत्त शरीर को छोड़ प्रभु में लीन होता है।
जा मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द।
कब मरिहैं कब पाइहौं, पूरन परमानन्द।।
राम में लय होने के उपरान्त साधक मौत से नहीं डरता। ऐसा क्यों ? मौत से डर क्यों नहीं लगता ? क्योंकि साधक तो जीते-जी प्रतिदिन मौत की प्रक्रिया से गुजरते हुए प्रकृति/ माया द्वारा दी हुइ आवरण/ शरीर को छोड़कर ही प्रभु में लीन होता है। इसीलिए संत कहते हैं कि बार -बार मरते-जन्मते वही हैं जो राम को नहीं जानते।
तेई मुए जिन राम न जाना।
एक बार राम को जानकर उसमें लय हो जाने पर रचना में आना और मरना नहीं है।
मरना क्या है ? मौत किसे कहते हैं ?
शरीर में जीव का तभी तक वास है जब तक उसके पास सांसों का खजाना है। इधर सांस खत्म हुइ उधर जीव को शरीर/ चोला छोड़ना है तथा प्रकृति के व्यवस्था में कर्म -निणर्य अनुसार आगे की गति होती है। अत: सांसों का बड़ा महत्व है और इसके रहते ही जीव अच्छे कर्म करके भव-बन्धन काट सकता है।
शरीर छोड़ना ही मौत है और शरीर पाना ही जन्म है।
शरीर दो तरह से छोड़ा जाता है। एक तो साधारण आदमी, जिसे मनमुख या साकत कहते हैं, जो जीवन भर मन के कहे में रहा, मार्ग-दर्शक के निर्देशानुसार साधना करके राम को नहीं पाया। तो उसने तन त्यागने का तरीका ही नहीं विकसित किया, उसके सांस खत्म होने पर, जीव को शरीर छोड़वाने के लिए, यमदूत बल प्रयोग करते हैं। इसमें जीव को बहुत कष्ट होता है। नाना प्रकार के यातनाओं को सहना पड़ता है।
शरीर छोड़ने का दूसरा तरीका संतों का है। संत राम-नाम का अभ्यास करके जीते जी अपने चेतना को शरीर से समेटकर राम में मिल जाते हैं। राम-नाम का रसायन, जो अमृत है, उसे अन्त:प्रदेश में हमेशा पीते हैं । ये प्रक्रिया वे रोज करते हैं-इसमें कोई दूत या बुरी ताकत रास्ते में नहीं आती क्योंकि ये रास्ता ही अलग है। यही अमर होने का मार्ग है। संत कबीर का इशारा है –
साकत मरैं संत जन जिवैं। भरि भरि राम रसायन पीवैं।।
मनमुख ही बार-बार मरते हैं, संत तो राम-मय होकर सदैव जीते हैं। संत कबीर बेजोड़ हैं आगे बोलते हैं कि मैंने अपने आप को हरि में मिला दिया है हरि से अभिन्न हो गया हूँ। हरि और हम एक हो गए हैं।
हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं। हरि न मरैं हम काहे कूँ मरिहै।।
कहैं कबीर मन मनहि मिलावा। अमर भये सुख सागर पावा।।
अब तो अगर हरि मरें तभी मैं भी मरुंगा अन्यथा नहीं। और हरि / भगवान के मरने का सवाल ही नहीं है अत: मैं भी नहीं मरुंगा। ऐसे बड़े उदेश्य को उन्होंने कैसे पाया? इसको अधिक स्पष्ट करते हैं कि मैंने अपने मन को उसके मूल स्थान ब्रह्मांडी मन में मिला दिया है जिससे वह सदा के लिए आन्नदित और स्थिर हो गया है और इसके बाद ही मेरी आत्मा भी परमात्मा में समा गयी। इसका फल क्या मिला? कहते हैं अब मैं अमर हो गया और सब सुखों का सागर परमेश्वर मुझे मिल गया।
कबीर साहेब अन्दर के रहस्यों के बारे में इशारा करते हैं। साधक का उत्साह बढ़ाने और सावधान करने के लिए अनुभव बताते हैं।
खेल ब्रह्माण्ड का पिंड में देखिया, जगत की भर्मना दूरि भागी।
बाहर भीतरा एक आकाशवत, सुषुमना डोरि तहँ उलटि लागी।।
पवन को उलटि करि सुन्न में घर किया, धरिया में अधर भरपूर देखा।
कहें कबीर गुरु पूरे की मेहर, सों तिरकुटी मद्ध दीदार पेखा।। संत कबीर।
वेदों में कहा है- जोइ अण्डे, सोइ पिण्डे। जो ब्रह्माण्ड में है, वही मानव शरीर में भी है। ये धर्म-ग्रन्थों ने लिखा, महापुरुषों ने कहा और हमने मान लिया। लेकिन सिर्फ मान लेने से कुछ नहीं होता जब तक हम साधना द्वारा अन्दर जाकर इस रहस्य को जान नहीं लेते। सो कबीर साहेब यही कहते हैं कि जब मैंने अपने शरीर के अन्दर पूरे ब्रह्माण्ड को उसके कार्य-कलापों के साथ देखा तब जाकर इस दुनिया का भ्रम टूटा, रहस्य खुला। इसके पहले नहीं। चाहे जितना किताब पढ़ लें, तर्क-वितर्क कर लें या जानकारी बटोर लें। संकेत देते हैं- शरीर के बाहर और भीतर वह समग्र चेतना एक समान आकाश जैसी व्याप्त है। उसमें जाने के लिए सुषुम्ना की डोर उल्टी लटकी हुइ है। साधना द्वारा चेतना (चेतना के साथ-साथ स्वांस) को समेट कर (उलट कर उपर की ओर) सुन्न में चढ़कर पूरे रचना को देखा। पूरी बड़ाई अपने समर्थ सतगुरु को देते हुए कहते हैं कि ये तो उन्हीं की कृपा से सब हुआ और मैं त्रीकुटी (आन्तरिक लोक का स्थान विशेष) में जाकर उनका दर्शन किया।
इस रास्ते पर चलने की उपलब्धियों का वर्णन करते हुए आगे कहते हैं :-
सतगुरु सोइ दया करि दीन्हा।
ताते अन-चिन्हार मैं चीन्हा।।
बिन पग चलना बिन पर उड़ना, बिना चोंच का चुगना।
बिन नैनन का देखन-पेखन, बिन सरवन का सुनना।
चंद न सूर दिवस नहिं रजनी, तहॉं सुरति लौ लाई।
बिना अन्न अमृत-रस-भोजन,बिन जल तृषा बुझाई।
जहॉं हरष तहँ पूरन सुख है, यह सुख कासों कहना।
कहैं कबीर बल बल सतगुरु की, धन्न शिष्य का लहना। संत कबीर।
मेरे सतगुरु ने मुझपर दया किया। जिसके फलस्वरुप जो मैं पहले नहीं पहचान पाया था उसको पहचान गया। अब मेरी ये स्थिति हो गयी है कि बिना पैर के चलता हूँ, पंख के बिना उड़ता हूँ, मुख के बिना ही खा लेता हूँ। आँखों के बिना सबकुछ देखता हूँ, बिना कान के सुनता हूँ। अवस्था विशेष के लोक का जिक्र करते हैं कि वहाँ न सूर्य है, न चन्द्रमा है। न दिन है, न रात है, हर तरफ प्रकाश है। वहाँ मैं अपने सुरत की साधना कर पहुँच गया हूँ। बिना अन्न का अमृत जैसा रसीला भोजन मिलता है, बिना जल के प्यास बुझ जाती है, चारों तरफ खुशहाली है, पूरा आनन्द ही आनन्द है, ये सुख मैं किससे कहूँ। आगे पुन: अपने सतगुरु का बड़ाई करते हैं कि उनके उपर बलिहारी जाता हूँ, उन्होंने अपने शिष्य को धन्य कर दिया, माला माल कर दिया, पूरन कर दिया।
अवधू मेरा मन मतवारा।
उन्मुनि चढ़ा गगन-रस पीवै, त्रिभुवन भया उजियारा।
गुड़ करि ज्ञान ध्यान करि महुआ, भव-भाठीं करि भारा।
सुषमन –नारी सहज समानीं, पीवै पावनहारा।
दोई पुड़ जोड़ि चिगाई, भाठी चुआ महारस भारी।
काम-क्रोध दुइ किया पलीता, छूटि गई संसारी।
सुन्न मंडल में मंदला बाजै, तहँ मेरा मन नाचै।
गुरुप्रसादि अमृत फल पाया, सहजि सुषमनां काछै।
पूरा मिल्या, तबै सुख उपज्यो, तप की तपनि बुझानी।
कहै कबीर भवबंधन छूटै, जोतिहि जोत समानी । संत कबीर।
आगे कबीर साहेब बताते हैं कि उपरोक्त अवस्था में जाकर शिष्य का मन आनन्द से मतवाला हो जाता है। चेतना की धारा उपर चढ़कर अमृत पान करती है। वहाँ सभी दिशाओं में उजाला ही उजाला रहता है। सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर से होकर उपर जाने पर, ज्ञान रुपी गुड़ और ध्यान रुपी महुआ का बना हुआ, सोम रस पीते हैं। वहाँ अमृत की भारी वर्षा हो रही है। वह अमृत रुपी सोम रस पीने पर सभी सांसारिक विकार (काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि) जल कर मिट जाते हैं। मन माया का आकर्षण समाप्त हो जाता है। सुन्न मण्डल में पहुँचने पर बहुत ही मधुर संगीत बज रहा है जिसे सुनकर मन आनन्द से नाच उठता है, तृप्त हो जाता है। गुरु कृपा से मुझे यह अमृत फल मिला। साधना में सहज अवस्था सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से गुजरने पर उपलब्ध होती है।
सचेत करते हैं कि पूरे समर्थ गुरु के मिलने पर ही सुख व पूरी उपलब्धि मिलती है। तभी मन-माया का भवबन्धन कटता है और ज्योति स्वरुप आत्मा अपने जोत स्वरुप परमात्मा में हमेशा हमेशा के लिए समा जाती है। पूरा क्रेडिट समर्थ सतगुरु/ योग्य शिक्षक/कम्पीटैन्ट कोच का है।
सुन्न मरै, अजपा मरै, अनहद हू मरि जाय।
राम-सनेही ना मरै, कह कबीर समुझाय।। संत कबीर।
साहेब समझाते हैं -इस रास्ते पर चलते हुए शिष्य को डरना नहीं है। आत्मा के अविनाशी स्वरुप की याद दिलाते हैं। साधना के एक स्तर से उपर के स्तर पर जाते हुए पीछे सब छुटता जाता है। सुन्न, अजपा और अनहद भी छूट जाता है लेकिन परमात्मा राम की सनेही आत्मा का अस्तित्व हमेशा बना रहता है और यह मूल प्रभू-परमेश्वर में जाकर मिल जाती है, पूर्ण हो जाती है।
अत: हमें इस रास्ते पर बेधड़क, निडर होकर आगे बढ़ना है। उससे प्रेम बढ़ाते जाना है। उसके बिरह में तड़पते रहना है, उसकी कृपा अवश्य आयेगी।
ए मेरे ऑसू ! तू इस तरह बह कर मेरे तड़प को कम मत कर, तू अन्दर ही रह जिससे मैं मालिक के लिये तड़पता रहूं और उसकी याद आती रहे। उसकी याद में भी बहुत ठंढक है बड़ा शकून हैं।
अगर ऐसा होता है, और लगातार होता ही रहता है फिर जीवन में सूरज उग ही जाएगा।
जिन्दगी सिन्दूर है प्राची दिशा का,
जिन्दगी का काम है सूरज उगाना।
परमात्मा और उसका अंश आत्मा यही सत्य है, नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, अविकारी है और हमेशा एक जैसा रहता है। परमात्मा सर्वत्रा समान रुप से समष्टि भाव में व्याप्त है। उसका अंश आत्मा सृष्टि के आदि सें ही अपने अंशी परमात्मा से अलग होने के कारण व्यष्टि भाव से प्रत्येक जीव में विद्यमान है। केवल मनुष्य जीव के रुप में ही अंश को अपने अंशी से मिलने और उसमें पुन: लीन हो जाने की प्राकृतिक व्यवस्था प्रभू ने बनाया है। प्राची दिशा प्रभू के उस अचल धाम का चिन्ह है जहां से आत्मा आदि काल में उससे बिछुड़ कर इस मृत्युलोक में आयी। पूरन पथ-प्रर्दशक के निर्देश में साधना करके ही यह पता चलता है कि मालिक का वह अचल धाम किधर है। सिन्दूर परमात्मा द्वारा आत्मा को दिए गए सुहाग की निशानी है जिससे वह दावा करती है कि वह राम की बहुरिया है और राम की रानी होने के नाते राम के महल में वापिस आकर राम के साथ रानी के रुप में रहने का उसका पूरा अधिकार है। परन्तु अधिकार पाने के लिए और रचना से निकल कर अपने मालिक के महल में जाने के लिए इस बहुरिया को बहुत मेहनत, त्याग ,तपस्या करना पड़ता है, कष्ट उठाना और परीक्षा देना पड़ता है।
यही काम है इस मानव जीवन का, यही फल है मानव-महल को पाने का। मालिक और आत्मा दोनों प्रकाश-पुंज हैं। इन दोनों के मिलने पर ही सूरज उगता है। और यही कहते हैं कि — जिन्दगी का काम है सूरज उगाना।
समापन उद्गार
ये युद्ध तो जीवन पर्यन्त है।
अत: इससे घबराइये मत, लड़ते जाइए।
अन्तिम विजय आपकी है,
क्योंकि वो आपके साथ है।
मार्च 2, 2011Leave a reply
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आत्म-प्रबन्धन
आत्म–प्रबन्धन
मृत्युञ्जय कैलाशपति
विषय सूची:-
विषय पृष्ठ
समर्पण 3
मैं कहाँ हूँ ? 5
ज्ञान की ओर 21
सम्पूर्ण स्वास्थ समाधान 34
समय प्रबन्धन 43
समाधान 51
कैसे जानें अपने को ? 54
साधन का उपयोग 66
प्रेम और नियम 84
कुदरत का उपहार 101
जीवन की सूक्ष्म बाधायें 106
जीवन की जागरूकता 119
अमरता का रहस्य 130
समर्पण
उद्धरेदात्मनाअत्मानं नात्मानमवसादयेत्।।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।। गीता 6/ 5
(अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे। अपने को अधोगति में न डाले। क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।)
लिखने के लिये नया कुछ भी नहीं है।
शाश्वत जो पहले था, अभी भी वही है और आगे भी वही रहेगा। इशारा उसी की ओर है। यह पुस्तक सभी के लिए है जो स्वयम से मिलना चाह्ते हैं । स्व को जानकर, स्व में स्थित हो जाना ही स्वस्थ होने की वास्तविक प्रक्रिया है। इसे जानने का और इशारा पाने का समय आ चुका है। इसे ग्रहण करें । इसे मात्र मनोरंजन, कौतुहल या अविश्वास की नजरों से भी पढें तो भी गति उसी दिशा में होगी।
जिन्दगी सिन्दूर है प्राची दिशा का,
जिन्दगी का काम है सूरज उगाना।
प्राची दिशा किसे कहते हैं ? यह किधर है ?
सिन्दूर से यहां क्या अभिप्राय है ? सिन्दूर किस चीज का लक्षण है ? जिन्दगी में सूरज कैसे और कहां उगाया जाता है ? ये सब प्रश्न कुछ इस तरह से हैं जिनका अर्थ जानकर, उस तरफ कार्य करके, जीवन को चरितार्थ किया जा सकता है। आप उत्कृष्ट हैं तो आपका जीवन उत्कृष्ट है। आप जहां भी जाएंगे आपके चारों तरफ उत्कृष्टता मंडराएगी। सफलता आपका पीछा करने को मजबूर होगी। बस आप उन मानवीय मूल्यों, कुशलताओं, युक्तियों और दक्षताओं को धारण करके निपुण व प्रवीण बने रहिए जो इस पुस्तक के माध्यम से मिलेंगी।
दास
मृत्युञ्जय कैलाशपति
मैं कहाँ हूँ ?
अवधू, माया तजी न जाई।
गिरह तज के बिस्तर बॉंधा, बिस्तर तज के फेरी।।
लड़िका तजि के चेला कीन्हा, तहुँ मति माया घेरी।।
जैसे बेल बाग में अरुझी, मांहि रही अरुझाई।
छोड़े से वह छूटे नाहीं, कोटिन करै उपाई।।
काम तजे तें क्रोध न जाई, क्रोध तजें तें लोभा।
लोभ तजे अहँकार न जाई, मान-बड़ाई-सोभा।।
मन बैरागी माया त्यागी, शब्द में सुरत समाई।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, यह गति बिरले पाई।। संत कबीर।
एक दिन शाम को मेरे एक सनेही ने मुझे घेर लिया और बड़े ही उत्सुकता से पूछा कि परमेश्वर क्यों नहीं मिलता ? मुझे परमेश्वर के बारे में बताइए। इसके बाद वही बहुत सारे प्रश्न, जो पढे लिखे लोग पूछते हैं, पुछ डाला। यह सब कुछ स्वभाविक था। आजकल के रोजमर्रा के जिन्दगी में एक साधारण आदमी अपने परिवार को इज्जत से पालने में ही पूरा समय गवां देता है।
किसी-किसी भाग्यशाली मनुष्य को जीवन के आखिरी भाग में भी यदि सांसारिक कर्तव्यों से संतुष्टि मिल जाती है तो वह प्रभू को याद करता है अपने अस्तित्व, हस्ति, या वजूद को कायम रखने या उसके विकास के लिये। ऐसै भाग्यहिन लोगों का प्रतिशत अधिक होगा जो किसी न किसी कारण-वश निराश या दु:खी हो कर परमेश्वर के बारे में सोचते हैं।
लेकिन प्रेमवश व्याकुलता से उसको याद करने वाले बिरले ही मिलते हैं। और फिर संत कबीर जैसी स्थिति, जो उसमें हमेशा आनिन्दत और लीन रहते हैं, बहुत ही दुर्लभ है-
न पल विछड़े पिया हमसे, न हम विछड़ें पियारे से।
उन्ही से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?।।
खैर किसी भी तरह अगर जीव उस परम सत्ता को याद करता है तो निश्चय ही उसका भला होगा।
वर्तमान सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिपेक्ष्य में आप किसी भी मनुष्य से पूछ कर देखें कि वह निम्नलिखित किन बातों के पूर्ति में अपना समय लगा रहा है:-
1- अपने व अपने परिवार के पालन पोषण में |
2- अपने इच्छानुसार धन, मान-बड़ाई,पदवी व इज्जत कमाने में |
3- समाज व दीन-दुखियों के यथाशक्ति, सुविधानुसार सेवा व देखरेख में क्योंकि :-
पर हित सरिस धरम नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।। मानस ।
4- अपने आप को पहचानने में क्योंकि :-
मम दर्शन फल परम अनूपा, जीव पाव निज सहज सरूपा।
5- अपने आप को पहचान कर परमेश्वर दर्शन करने में क्योंकि :-
धन वडभागी वडभागीया, जिन आए मिले गुरू पास। ग्रंथ साहेब ।
आप जरा देखें हम-लोगों में से अधिकतर तो पहले नम्बर वाले कार्य में ही जीवन समाप्त कर लेते हैं। कुछ भाग्यशाली मनुष्य अपने प्रारब्ध एवम वर्तमान कर्मो के फलस्वरुप दूसरे नम्बर वाले कार्य में सफल हो पाते हैं।
मानव जीवन के महत्वपूर्ण हिस्से में हमारे प्रवेश की शुरुआत तीसरे नम्बर के कार्य से होती है तथा जीवन की सफलता तो पाँचवें नम्बर के कार्य पूर्ण होने से ही सिद्ध होती है।
यही महापुरुषों ने भी कहा है। गुरु अर्जुनदेव साहेब ने कहा है :-
भइ परापत मानुख देहूरिया।
गोविन्द मिलन की यह तेरी बरिया।।
अवर काज तेरे किते न काम।
मिल साध संगत भज केवल नाम।। आदि ग्रन्थ,पृ.378 ।
फिर रामचरित मानस में आया है:-
बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा, पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ ।
कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाइ। मानस 7.42.4 से 7.43.0 ।
भगवान बुद्ध बोले :-
अपना दीपक स्वयं बनो।
ईसा ने कहा है :-
मेरे पीछे जो आयेगा वह अन्धेरे में नहीं रहेगा।
ग्रन्थ साहिब में कहा गया है :-
नाम मिले मन तृपतिये, बिनु नामें धृग जिवासु।
अस्तु, प्रथम एवम दूसरे स्तर के कार्य अर्थात अपने तथा अपने परिवार को पालने और इच्छानुसार धन,मान-बड़ाई,पदवी व इज्जत कमाने में भी विगत कई वर्षों से विषमतायें बढ़ती ही जा रही हैं।
जरा सोचें, समय व विज्ञान के तेज गति होने से, विश्व की दूरियां कम होने से आज के एक साधारण आदमी को कैसे भागना पड़ रहा है। निसन्देह जो इस दौड़ में आगे हैं वे भौतिक उपलब्ध्ता-वश अल्पकालिन सुख का उपभोग कर रहे हैं परन्तु आज के परिवेश में मूल्य-विहिन एवम आनन्द-विहिन सुख अपने साथ ढ़ेड़ सारे दु:खों को ले कर आता है। आधुनिक रोगों पर आयोजित एक गोष्ठी में आज के तथाकथित विद्वानों के साथ मैं बैठा था जिसमें एक परम विशेशज्ञ का धाराप्रवाह व्याख्यान चल रहा था। वे बोले जा रहे थे कि ` देखें एक आइ टी इंजिनीयर या डाक्टर या प्रशासनिक अधिकारी या कोइ भी प्रोफेशनल कितना ज्यादा पैसा कमा रहा है, उसके पास आलीशान बंगला,लेटैस्ट लम्बी कार, दो-चार नौकर और आगे-पीछे डोलने वाले लोगों का समूह लगा ही रहता है। फिर भी उसे तीस-पैंतीस साल के उम्र में ही ब्लड-प्रेशर,डायबिटीज,हार्ट और पेट के रोग पकड़ लेते हैं। इसके बाद विशेशज्ञ ने हर प्रकार के रोग के लिये कई तरह के दवाइयों के नाम सुझाए। व्याख्यानों के क्रम में दूसरे विशेशज्ञ ने रोगों से बचने के लिए खाने में परहेज तथा नियमित व्यायाम पर जोर दिया। पर किसी ने भी सोच-विचार में बदलाव, माइन्ड-सेट में परिवर्तन, नजरिये में फर्क लाने की जरुरत तथा दुविधा में महापुरुषों के राह पर चलने की बात बताने की जरुरत नहीं समझी।
खैर, ये तो उन लागों की बात रही जो समय के साथ भौतिकता की दौड़ लगाने में कामयाब रहे और इच्छानुसार धन, मान-बड़ाई,पदवी व इज्जत पाने में सफल रहे।
परन्तु आह ! दयनीय स्थिति तो उनकी है जो इस दौड़ लगाने की होड़ में जूझ रहे हैं या इस दौड़ में असफल हो गये हैं। खाने-पीने और रहने की औसत आवश्यकताओं के हिसाब से भी जरुरी चीजें इनके पास नहीं है फिर अच्छे शिक्षा,चिकित्सा,न्याय व अन्य अवसरों की तो बात ही क्या। तथाकथित गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की जिन्दगी तो और भी खराब है। हम सभी भागमभाग की जिन्दगी में खिंचे चले जा रहे हैं।
फिर ये हालत तो संघर्षमय मानव जीवन के जवानी का है। बचपन और बुढ़ापे की स्थिति तो और भी दर्दनाक है। आज का बचपन भी या तो गरीबी की वजह से शिक्षा नहीं पाता या पालन-पोंषड़ के अभाव में अविकसित रह जाता है। जवान लोगों का बुढ़े लोगों के प्रति स्नेह व लगाव कम होता जा रहा है क्योंकि वे अपने ही कैरियर, उत्तरदायित्वों और जरुरतों को पूरा करने में परेशान दिखते हैं। आधुनिक व्यवस्था के कारण छोटा परिवार एक आवश्यकता हो गया है जिसका असर समाज में दीखता है।
क्या हममें से कोई है जिसके पास इन लोगों के बारे में सोंचने के लिए या इनके लिए कुछ करने के लिए समय व शक्ति है ?
द्रवित हृदय से देखता हुँ- आज का मानव कितना अशान्त है तथा अपने-आपको सुखी व सुरक्षित रखने के लिए कितने तेजी से सांसारिक पदार्थों के पीछे पड़ा है जबकि आनन्द व सुरक्षा का श्रोत कहीं और है। इसका अर्थ यह कदापि न लें कि हम आवश्यकतानुसार धन/अर्थ न कमायें, अवश्य कमायें लेकिन इसे आनन्द व जीवन की पूर्ण सफलता का श्रोत न समझें। फिर आनन्द व पूर्णता कहां मिलेगी? ये दोनों मानव जीवन में ही निहीत हैं।
कहा गया है- मानव जीवन अनमोल है :-
जीवन तो है मोती जिसमें,
सदा सुरक्षा का है जल।
सदा सतर्क सजग है रहना,
यही सुरक्षा का सम्बल।
वेदों ने कहा है :-
जोई अण्डे, सोई पिण्डे।
गीता में कहा गया है :-
ईश्वर सर्वभूतानि हृदयेशे तिष्ठ्ति अर्जुनः ।
बाईबिल में कहा गया है :-
मानव शरीर परमेश्वर का लिवींग टेम्पल है।
इस जीवन रुपी मोती में से सुरक्षा का जल कैसे निकालना है और किन चीजों के प्रति सदा सतर्क और सजग रहना है, यह बात हमें उनसे सिखना होगा जो ये कार्य कर चुके हैं। उदाहरण के तौर पर दूध में से घी की खूशबू को निकालकर अगर हमें एक किलोमीटर दूर भेजना हो तो पहले दूध से दही, दही से घी और फिर घी से घी की खूशबू निकालने की विधि को जानना होगा। तत्पश्चात खूशबू को दूर भेजने के लिए एक ब्लोअर और डक्ट की आवश्यकता होगी। इसी प्रकार शरीर- रुपी प्रयोगशाला में से व्यष्टि चेतना को समेटकर समष्टि चेतना में लय कर देना ही पूर्णत्व को प्राप्त करना है।
हमारी हालत को देखते हुए संत कबीर कहते हैं-
अवधू, माया तजी न जाई।
अर्थात संसार में सभी लोग माया में लिप्त हैं। सृष्टि की व्यवस्था को चलाने वाली शक्ति माया है। पूरी दुनिया जीने-खाने के लिए पांच रिपुओं- काम, क्रोध, मद, लोभ,मोह के वश हो कर मानव जीवन खत्म करती है। गृहस्थों का तो क्या कहना, जो परमार्थ के शौकिन हैं वे भी घर-बार छोड़कर, अलग तरह का बस्त्रा पहनकर, दाढ़ी और जटा-जूट बढ़ाकर, साथ में बिस्तर लेकर घूमते हैं और फिर कुछ समय बाद बिस्तर भी फेंक कर खाली हाथ देश-भ्रमण करते हैं। लेकिन एक बार मानव तन धारण कर लेने पर शरीर की जरुरतें तो लगी ही रहती हैं, चाहे समय पर खाना या कपड़ा या मौसम से बचने के लिए छत या आश्रम की जरुरत। जिज्ञासु परिस्थितियों से जूझते हुए फिर किसी आश्रम की तलाश करके सेवा हेतु चेला भी बना लेता है। वहाँ भी मोह- माया घेरे रहती है। बाहरी रुप से यदि घर-परिवार वालों की याद भूल भी जाए या परोक्ष रुप से उधर से वैराग्य हो जाए तो भी वह स्थायी नहीं होता क्योंकि आन्तरिक शत्रु – काम, क्रोध आदि तो नहीं छोड़ते। संत बड़े ही स्वभाविक तौर से समझाते हैं कि अगर काम वृत्ति कुछ काल के लिए छुट भी जाए तो क्रोध नहीं दूर होता। इन दोनों के छुटने के बाद भी लोभ बना ही रहता है। अपने अहंकार की तुष्टि तथा मान- बड़ाई-इज्जत के लिए तो लोग मरते दम तक प्रयास करते हैं। माया के जाल में फंसे रहते हैं।
इसलिए ये बातें बड़े सहज रुप से बताकर संत हमें समझाते हैं – माया को छोड़ना आसान नहीं। वे हमें बीच में नहीं छोड़ते। समस्या का समाधान भी बताते हैं।
मन बैरागी माया त्यागी, शब्द में सुरत समाई।
कहते हैं मन को साधना पड़ेगा। चाहे कितनी भी कठिनाई क्यों न आए। जब मन में वैराग्य आए तभी माया छूटे। इसके पश्चात ही हमारी चेतना शरीर से सिमटकर प्रभु नाम में लीन हो जाती है। बिना मन साधे कुछ सम्भव नहीं।
बाबा मन की आँखें खोल।
फिर मन कैसे साधा जाए- उन्हीं से सीखना पड़ेगा जिन्होंने मन साध लिया है। ये आसान नहीं है, बिरले कोई ऐसा मिलेगा जो ये काम कर लिया हो। लेकिन ये सम्भव है।
इसके लिए जरुरी है :-
1- मानव शरीर
2- पूर्ण योग्य पथ- प्रदर्शक द्वारा प्रभु-नाम का ज्ञान
3- प्रभु-नाम अभ्यास
4- प्रभु-नाम में लीन हो कर पूर्णत्व-प्राप्ति।
संत कबीर साहेब का इशारा देखें:-
परम प्रभू अपने ही उर पायो।
जुगन 2 की मिटी कल्पना, सतगुरु भेद बतायौ।
जैसे कुंवरि कंठमणि भूषण, जान्यो कहूं गँवांयो।
काहू सखि ने आय बतायो, मन को भर्म नसायो।
ज्यों तिरिया स्वपने सुत खोया, जानिके जिय अकुलायो।
जागि परी पलंगा पर पायो, न कहुं भयो न आयो।
मिरगा पास बसे कस्तूरी, ढ़ूढ़ते बन बन धायो।
उलटि सुगंध नाभि की लीनी, स्थिर होई सकुचायो।
कहत कबीर भई है वह गति, ज्यों गूंगे गुड़ खायो।
ताकी स्वाद कहै कहुं कैसे, मन ही मन मुस्कायो।
संत कबीर ये रहस्य बताते हैं कि वे भगवान को अपने हृदय के अन्दर ही पाये। घर परिवार छोड़कर जंगलों में नहीं भटकना पड़ा।जबतक प्रभु से साक्षात मिलन नहीं होता तबतक वह कल्पना व ख्यालों में ही रहता है। नादान जीव उसके बारे में सिर्फ सोचता है और सच्चाई पकड़ता नहीं। जीव परमेश्वर का अंश है तथा सृष्टि के शुरुआत के समय से ही यह उससे विछुड़ कर मन-माया द्वारा काल के देश में भ्रमित है। अविद्या माया की यह कैसी विडम्बना है कि निर्गुण जीव मरने से भी आजकल नहीं डरता और अल्पकालिक मानव जीवन में क्षणभंगुर सुखों को ही सर्वस्व समझकर, उसी की प्राप्ति और भोग में हीरा जैसा जनम गँवा बैठता है।
माटी के पुतले काहे को बिसारा हरि नाम।
हीरा जैसा जनम गँवाया, संत मिलन नहीं किया।
मार्ग-दर्शक व साधु-सन्त कहने व समझाने में कमी नहीं करते,लेकिन हमारे पास समय-शक्ति-सोच-समझ है ही नहीं। फिर जीवन में संतुलन,सांमजस्य, समन्वय, संतोष धारण कैसे करें ? और ये नहीं तो सुख-शान्ति-सत्य का समावेश कैसे हो ?
स्थिति अवश्य ही विचारणीय है अगर हम इस बात को महत्व देते हों, आत्मा की अमरता में, धर्म-ग्रन्थों में, अपने पुर्वजों/महापुरुषों की वाणी में/अनुभव में विश्वास हो।
तो कबीर साहेब बताते हैं कि युगों-युगों से मेरे मन में परमेश्वर के बारे में जो कल्पना / भ्रम था वह खत्म तब हुआ जब मेरे सतगुरु ने प्रभु का ज्ञान दिया, मेरे हृदय-प्रदेश में अंधेरे का पर्दा खोलकर उसका दर्शन करा दिया। प्रभु हमारे नजदीक से नजदीक है। ग्रंथ साहिब में कहते हैं :-
आपे नेडे नाहीं दूरे, बुझही गुरुमुख से जन पूरे।
फिर ये भी बोला जाता है :-
मोह माया सब दूर है, सतगुरु सदा हजूर है।
तात्पर्य ये है कि जीव के सबसे पास प्रभु सतगुरु के रुप में सदा अंग-संग है। लेकिन अज्ञान रुपी पर्दे के कारण दिखाइ नहीं देता। प्रभु को सतगुरु के रुप में स्वीकार करने में जीव को हमेशा कठिनाई है क्योंकि सतगुरु भी साधारण मनुष्य जैसा ही हाथ-पैर वाला है, खाना-पीना खाता है व शरीर धारण कर के दूसरे कार्य भी करता है। लेकिन उसके आन्तरिक ताकत को हम नहीं जानते जबतक वह हमपर दया करके जना नहीं देता।
श्री राम, श्री कृष्ण भी मानव तन में आए, लेकिन भगवान थे। मानव शरीर में भगवान श्री राम को उनके परम भक्त और ज्ञानी स्वयम हनुमान जी भी प्रथम मिलन में पहचान नहीं पाए फिर प्रभु बोले कि मैं दशरथ-पुत्र राम हूँ और साथ में ये मेरा छोटा भाई लक्ष्मण है। हनुमानजी को यह ज्ञात था कि त्रेता युग में ब्रह्म स्वयम श्री राम के रुप में दशरथ-पुत्रा बनकर अवतार लेंगे तो उनका दर्शन व सेवा का अवसर मिलेगा। अत: भगवान द्वारा परिचय व अन्तर-दृष्टि मिलते ही हनुमान जी भाव-विभोर हो प्रभु से लिपट गए। अगर परम ज्ञानी हनुमान जी के साथ ऐसी बात हुई तो मेरे जैसे साधारण आदमी की क्या औकात की मानव-रुप में मैं भगवान को पहचान लूँ।
दूसरा उदाहरण लीजिए। ब्रह्म-स्वरुप भगवान श्री राम अपनी भार्या जगतजननी माता सीता के अपहरण उपरान्त वियोग में जंगल में बिलाप करते हुए/भटकते हुए मानव-लीला कर रहे थे। उस समय उन्हें देखकर, माता पार्वती को संशय हुआ कि ये ब्रह्म श्री राम कैसे हो सकते हैं ? भगवान शंकर के समझाने एवम शंका न करने की सलाह देने के पश्चात भी माँ पार्वती ने परीक्षण किया जिसका विवरण गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में अच्छी तरह दिया है। जब माँ पार्वती ब्रह्म श्री राम को नहीं पहचान पायीं तो एक साधारण मनुष्य से क्या आशा की जा सकती है।
भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त अर्जुन उनकी सब बात मानते थे। लेकिन गीता पढ़ कर देखें किस तरह के प्रश्न अर्जुन ने किए। श्री कृष्ण बोले-सृष्टि के आदि में मैंने यह ज्ञान सूर्य को दिया। एक बुद्धिमान व समझदार मनुष्य की तरह अर्जुन ने तुरन्त ये प्रश्न खड़ा किया कि मैं तो आपको इसी जन्म से देख रहा हूँ फिर आप सृष्टि के आदि में सूर्य को यह ज्ञान कैसे दिए मदूसूदन ? भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट किया कि सृष्टि के शुरु से अबतक हम दोनों ने अनेकों बार जन्म लिया है, मुझे वे सब याद हैं परन्तु तुम्हें याद नहीं है।
साधना के विशेष स्तर पर पहुँचने के बाद साधक त्रीकालदर्शी हो जाता है। उसे सब ज्ञात होता है तथा उसके संकल्प मात्र से क्रियाएं पूर्ण हो जाती हैं फिर ब्रह्म-अवतारी भगवान कृष्ण की तो बात ही क्या ?
कोई भी जीव जब तक मन-माया के दायरे में है तब तक वह चाहे जिस भी योनि में हो, कभी भी भ्रमित हो सकता है। गरुणजी भगवान विष्णु के वाहन हैं और उनके सानिध्य में हमेशा रहते हैं। भगवान विष्णु के नर रुप श्री राम के अवतार में जब रावण के साथ युद्ध हुआ तब भगवान राम को मेघनाद ने नागपाश में बांधकर मूर्छित कर दिया था। रामायण द्वारा हमें मालुम है कि हनुमानजी के प्रयास से गरुणजी आकर नागपाश काटे और भगवान राम, लक्ष्मण को मुक्त कराए। लेकिन इस कार्य के बाद स्वयम गरुणजी को शंका हो गया कि अगर श्री राम भगवान विष्णु के अवतार हैं तो इनको नागपाश में कैसे बांधा जा सकता है। बुद्धिजनों के समझाने के बाद भी गरुणजी का शंका नहीं हटा। फिर भगवान शंकर ने समझाया कि भ्रम तुरन्त खत्म नहीं होगा, आपको बहुत दिनों तक काक भुषंडी जी का सत्संग सुनना पड़ेगा। कालान्तर में सत्संग सुनने से गरुणजी का शंका निवारण हुआ। अगर गरुणजी के साथ ये हुआ तो हमारी बुद्धि का स्तर विचारणीय है।
इससे शिक्षा मिलती है कि :–
1-भ्रम की स्थिति में बहुत समय तक सत्संग/ प्रवचन/ सलाह/ काउन्सलिंग की जरुरत पड़ती है,
2- सत्संग/ प्रवचन/ सलाह/ काउन्सलिंग की भाषा भी हमारे शरीर के योनि जैसा ही होना चाहिए। जैसे — खग जाने खगही की भाषा।
मैंने बचपन में प्राथमिक स्कूल में एक कहानी पढ़ी थी। जंगल में एक महात्मा का आश्रम था। किसी दिन महात्माजी घूमते हुए आश्रम से कुछ दूरी पर देखे कि एक बहेलिया पंछीयों को फंसाने वाला जाल बिछाया है, दाना डाला है जिसमें ढ़ेर सारे पंछी/ तोते फंसते जा रहे हैं। महात्माजी को बहुत दया आयी। उन्होंने पंछीयों को शिक्षा देकर बुद्धिमान बनाने का निर्णय लिया। अगले दिन से सुबह शाम आश्रम के सामने दाना डाला जाता था जिसे चुगने तोते आते थे और महात्माजी उनको नियमित रुप से ये पाठ पढ़ाते :-
शिकारी आएगा।
जाल बिछाएगा।
दाना डालेगा।
जाल में फंसना नहीं।
कुछ दिनों के बाद सब तोते पढ़-पढ़ कर पारंगत हो गए। आगे-आगे महात्माजी बोलते थे पीछे-पीछे सब तोते दोहराते थे। फिर एक दिन महात्माजी उनकी परीक्षा लेने का विचार किए। बहेलिये को बोलकर आश्रम से कुछ दूरी पर जाल बिछवाकर दाना डाला गया। कुछ देर बाद महात्माजी के आश्चर्य का ठीकाना नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि ढ़ेर सारे तोते एक झुंड में आए वे बोलते जा रहे थे- शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, जाल में फंसना नहीं – और साथ ही साथ जाल का दाना खाते जा रहे थे तथा जाल में फंसते जा रहे थे। यह देखकर महात्माजी बहुत दु:खी हुए। यह पाठ पढ़ाकर मेरे शिक्षक ने बताया कि किसी भी बात को सिर्फ जानना और समझना ही काफी नहीं है बल्कि उस बात को ब्यवहार में लाने से ही फायदा होता है।
मेंने यह सीखा कि पुरुखों की शिक्षा जानने के साथ उस पर अमल करना अति आवश्यक है। इस कहानी को सांसारिक कार्यो के परिपेक्ष्य में ही आत्मसात किया। कालान्तर में यह उद्भव हुआ कि मन माया के देश में हर जीव तोते के समान ही मायावी ब्यवस्था के अन्तर्गत दाना चुगता जा रहा है और चौरासी से मुक्त नहीं होता। जब कभी दयालु प्रभू किसी बिरले प्रेमी जीव की आर्तनाद करुण पुकार सुनता है तो मानव योनि में प्रकट हो उसे अपने से मिलने का रास्ता बताते हुए, साधना कराकर, सुविधाएं देता हुआ अपने में मिला लेता है। सृष्टि के आदि काल से यही ब्यवस्था चली आ रही है। हर युग और हर समय में महात्मा आते हैं चिन्हीत की सुधि जगाने हेतु। भोजपुरी में गीत है :-
सुतल सनेहिया जगावेला हो।
परदेशी हो बलमुआ के सुधि आवेला हो।
माया के देश में आकर परमेश्वर की अंश और सनेही जीवात्मा अनादि काल से सोइ हुई है जिसे आकर कोई पहुंचा हुआ महात्मा जगाता है। हृदय प्रदेश में जागरण के पश्चात परमेश्वर के प्रेम की विरह-वेदना भड़क उठती है वही उससे मिलने का रास्ता प्रशस्त करती है।
सतगुरु सांचा सूरमा नखशिख मारा पूर।
बाहर घाव न दीशयीं भीतर चकनाचूर। संत कबीर ।
लेकिन ये साधना का पथ लम्बा है तथा हो सकता है प्रेमी एक जन्म में इसे पूरा न कर सके, क्योंकि रास्ते में कई मंजिलें हैं। फिर भी मुकाम दर मुकाम प्रेमी साधक को अच्छे परिस्थिति में साधना का अवसर दे कर मंजिले मकसूद तक पहुंचाया जाता है। गीता में कृष्ण भगवान ने अर्जुन के शंका का निवारण करते हुए कहा :-
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्रव्ती: समा:।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टो•भिजायते।। गीता-6-41
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।। गीता-6-42
तत्रा तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन।। गीता-6-43
( योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त हो कर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले पुरुषों के घर में जन्म लेता है।
अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है। परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में नि:सन्देह अत्यन्त दुर्लभ है।
वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्धिरुप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन ! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरुप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है। )
मेरे स्कूल के समय में जो शिक्षा प्राथमिक कक्षाओं में समान्यतया कक्षा 7 तक दी जाती थी उसमें सुखी और स्वस्थ जीवन जीने की युक्तियों का समावेश था। हमारे पुर्वजों के शाश्वत अनुभवों का निचोड़ था जिसे बचपन में ही बालक के भोले-भाले निष्कपट अंत:करण पर संस्कारित कर दिया जाता था। जीवन की बड़ी-बड़ी बातें सरल और सामान्य तरीके से अनुभव के आधार पर बताया जाता था जिससे हम कालांतर में सांसारिक विसंगतियों को आसानी से पार कर सकें। मर्यादा और मुल्यों के अवहेलना से हमें बहुधा भौतिक सम्पन्नता और जानकारियां रहते हुए भी आनन्द/ संतोष का अनुभव नहीं होता।
विद्या-अध्ययन शुरु करने का संस्कार देते हुए बचपन में मेरे शिक्षक ने स्लेट पर यह महावाक्य लिखवाया :-
रामो गति देहु सुमति।
तात्पर्य है कि सर्वोत्तम सत्ता परमेश्वर राम की गति, अर्थात वह सिरजनहार शक्ति जिससे वह प्रभू / मालिक सर्वत्र समान रुप से व्याप्त है, ( प्रभू ब्यापक सर्वत्रा समाना- राम चरित मानस ) हमें सुमति देने की कृपा करें। अब प्रश्न है कि सुमति किस बात की ? अरे मुझे सुमति की क्या आवश्यकता ? मैं तो खुद ही बुद्धिमान हूँ, पढ़ा लिखा हूँ। अगर ऐसा है तो मैं अभी स्वयम के अस्तित्व के प्रति जागरुक नहीं हुआ, अपने खुद की सत्ता का ख्याल नहीं आया, या भौतिकता से उपर नहीं उठा और न मुझे सूक्ष्म जगत का कुछ अहसास हुआ या उस शाश्वत सत्य की ओर ध्यान ही नहीं गया जिसकी प्राप्ति से ही अनन्त आनन्द का अनुभव होता है। जिसके अनुभव से ही मृत्यु का भय और शरीर का लगाव दूर होता है। मनुष्य बिदेह हो जाता है। अत: उस सिरजनहार शक्ति से सुमति पाने की जरुरत है। प्रभू अपने सिरजनहार शक्ति के माध्यम द्वारा ही सर्वत्र समान रुप से उपस्थित है। जिससे हम भी उस मति के अनुसार चलकर अपने पूर्णता को प्राप्त कर लें।
हमें स्पष्ट और व्यवहारिक रुप से सोच विचार करने का अभ्यास करना होगा।
संत कबीर उदाहरण देकर समझाते हैं कि जैसे सपने में कोई स्त्री अपने गले का हार खो देती है और विचित्र प्रकार से परेशान होकर आवाज देती है तो साथ की सखी आकर बताती है, तुम्हारा हार तो तुम्हारे गले में है। साधु-संत समझाने में कमी नहीं करते। जैसे सपने में कोई स्त्री अपने बच्चे को खो कर परेशान और बेचैन हो जाती है लेकिन जाग जाने पर पास में बच्चे को पाकर निश्चिंत हो जाती है। जैसे हिरण कस्तुरी की सुगन्ध को पाने के लिए पूरे जंगल में भटकता है और अपने नाभि से ही सुगन्ध- श्रोत पाकर अपनी नादानी पर अफशोस करता है। संत कबीर हमें समझाते हैं कि सतगुरु के मागदर्शन में साधना करके प्रभू को मैंने अपने हृदय में पाया। जैसे गूंगा गुण खाकर नहीं बता पाता, परमेश्वर को पाकर मेरी भी वही गति हुई है, मैं भी बता नहीं सकता ।
हमें भी वर्तमान परिस्थितियों और दुनिया के मौजूदा हालत में ही रह कर प्रयास करना है। हमारे लिए कोई अलग से दूसरे हालात पैदा नहीं करने वाला। अभी ही खुश और संतुष्ट रहकर उत्साह/उमंग के साथ मेहनत करना है। दूनिया में हर तरफ इतनी तेजी से परिवर्तन हो रहा है कि किसी को भी उसके साथ संतुलन,सामंजस्य एवम समन्वय बनाने में अथक परिश्रम करना पड़ रहा है. सन् 70 से 90 तक के दशकों में जितने परिवर्तन हुए उससे ज्यादा सन् 90 से 2000 के दशक में हुए. फिर नब्बे के दशक में जो बदलाव आया उससे अधिक सन् 2000 से 2005 की अवधि में परिवर्तन देखे गये।
लगता है कि नई पीढ़ी के सामने स्पर्धा के साथ भागने के सिवा दूसरा कोइ चारा नहीं है। स्पर्धा के इस दौड़ में उचित-अनुचित का कितना ध्यान दिया जा रहा है, इसे जरा सोंचें, क्योंकि यह एक बहुत ही विचारणीय किन्तु गम्भीर समस्या है। कुछ लोग कहते हैं कि `बिजनेस में हर चीज फेयर है´ क्या यह सही है ? और फिर कितने समय के लिए ? जहाँ उचित-अनुचित का भेद नहीं है वहाँ पहले व्यक्तिगत स्तर पर, फिर परिवारिक एवम सामाजिक स्तर पर विसंगतियां तथा समस्यायें उत्पन्न होना अवश्यम्भावी है। वर्तमान में नैतिक, सामाजिक, एवम पुरुखों के दिये हुए मुल्यों, मान्यताओं के ह्यास हाने का क्या कारण है ? शायद यही, क्या यह सही नही है ? अगर हाँ तो उचित-अनुचित का ध्यान दें।
अगर हम सहमत हैं तो हमें भी व्यक्तिगत स्तर अपने आपको बदलने की गति इतनी बढ़ानी होगी कि हम परिवर्तन के हिसाब से बदलने के साथ-साथ पूर्वजों के दिये हुए धरोहरों के मूल्यों एवम मान्यताओं को अपनाये रखने के लिये उचित-अनुचित का ध्यान दे कर कार्य करें।
आप देखें, पश्चिम के विकसित देशों से शान्ति व आनन्द के खोज में लोग भारत आ रहे हैं क्या उनके पास भौतिक सुखों की कमी है ? अवश्य नहीं। एक और दृष्टांत लें। भारत और भारत जैसे मूल्यों / मान्यताओं वाले अन्य देशों के लोग धन कमाने विकसित देशों में जाते हैं परन्तु वे चाहते हैं कि उनके परिवार तथा बच्चों पर संस्कार भारत का ही पड़े तथा वे यही के मूल्यों / मान्यताओं को ग्रहण करें।
फिर इस भागमभाग जीवन में चाहे क्षणिक सुख मिले या न मिले दु:ख तो है ही और हमें इसके अस्तित्व को बारीकी से देखने का मौका ही नहीं मिलता है। देखिये कैसे कबीर साहेब हमें मानव जीवन की नश्वरता के बारे में समझाते हैं:-
मन फूला-फूला फिरे जगत में कैसा नाता रे।
मात कहे पुत्रा है मेरा,बहन कहे बीरा मेरा।
भाइ कहे यह भुजा हमारी, नारी कहे नर मेरा।
पेट पकड़ के माता रोवे,बाँह पकड़ के भाई।
लपटि झपटि के तिरिया रोवे,हंस अकेला जाई।
जीवे जब लग माता रोवे,बहन रोवे दस मासा।
तेरह दिन तक तिरिया रोवे, फेर करे घर वासा।
चारगजी चरगजी मंगाई, चढ़ा काठ की घोड़ी।
चारो कोनें आग लगाई,फूंक दियो जस होरी।
हाड़ जरे जस लोहा कड़ाको, केस जरे जस घासा।
सोने जैसी काया जर गई, कोई न आयौ पासा।
घर की तिरिया देखन लागी, ढ़ूढ़ फिरि चहूं देशा।
कहैं कबीर सूनो भाई साधो, छोड़ो जग की आशा।
संत कहते हैं कि संसार में आकर मानव, माया के देश में भ्रमित हो गया है। दुनिया के सुख एवम भोगों को इक्कठा करना और उन्हें भोगना ही एकमात्र उदेश्य रह गया है। मनुष्य शरीर के असली मकसद को हम भूल गए हैं। घर परिवार संसार में इतने उलझे हैं कि हमारा मन इसी में खुश होकर फुला-फुला घूमता और मस्त रहता है। माँ बेटे को, बहन भाई को अपना ताकत समझती है। एक भाई अपने दूसरे भाई को अपना ही भुजा / ताकत समझता है। नारि नर के अभिमान / आसरे में ही पूरा जीवन व्यतीत कर देती है –आत्म कल्याण के बारे में नहीं सोचती। संत कबीर हमें सिर्फ सांसारिक सोच तक ही सीमित न रहने की सलाह देते हुए जगत की नश्वरता का भी खयाल करवाते हैं और प्रभू को पाने की प्रेरणा देते हैं।
वह कठीन समय की याद दिलाते हुए कहते हैं कि जब मनुष्य मर जाता है तब वही माँ अपने बच्चे के लिये पेट पकड़ कर रोती है, स्त्री रोती है, भाई रोता है लेकिन जीव को परलोक अकेले ही जाना पड़्ता है। उस समय कोई साथ नहीं जाता, सिर्फ परमेश्वर ही कल्याण करता है अगर जीव अपने जीवन में सुकर्म किया है तो। नहीं तो फिर नर्क और चौरासी का चक्कर तो है ही। जीव का हीरे जैसा अनमोल मानव जीवन व्यर्थ चला जाता है। अतः इस गफलत की नींद से संत हमें जगाते हैं। कहते हैं कि जगत में रहते हुए, सब कार्य सामान्य रूप से करते हुए हमें हृदय में मालिक की भक्ति करनी है।
इधर नाते-रिश्तेदारों का हालत बयान करते हैं कि माँ का ममता सबसे ज्यादा होता है वह पुत्र वियोग में पूरी जिन्दगी रोती है, बहन कम और स्त्री तो बहुत ही कम। जीव का सामाजिक मान्यताओं के अनुसार अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। दुनिया का काम पहले जैसे चलता रहता है लेकिन जीव का तो प्रभू मिलन का अवसर समाप्त हो जाता है।
संत त्रिकालदर्शी होते हैं । उनकी बातों पर विश्वास कर हमारा लाभ उठा सकते हैं ।एक हम हैं कि हर तरफ से सुनने के बाद भी इधर ख्याल नहीं जाता और इन्द्रिय-गोचर जानकारी को ही मुक्तिदाता ज्ञान समझे बैठे हैं।
बहुत समय पहले की बात है, एक गाँव में बड़ा अमीर बनिया रहता था। कुछ दिनों बाद एक महात्मा उस गाँव की तरफ से निकले तो उस अमीर बनिये ने उनकी बहुत खातीर भाव की। जाते समय उस महात्मा ने कहा कि चलो आत्म कल्याण तथा परमेश्वर प्राप्ति के लिए मेरे साथ साधना करना। अमीर साहूकार ने हाथ जोड़ कर विनती किया कि मेरे बच्चे अभी छोटे हैं वे बड़े हो जायें फिर मैं आपके साथ चलूंगा। उसके बाद महात्माजी चले गये।
कुछ दिनों बाद महात्माजी फिर उस गाँव की तरफ से निकले और उस अमीर साहूकार को याद दिलाया कि अब तो बच्चे बड़े हो गये, चलो। इस साहूकार बोला कि महात्माजी कुछ दिन और रुक जाइए, बच्चों की शादी ब्याह हो जाए, नाती पोते देख लें, फिर चलेगें। महात्माजी चले गये।
कुछ दिनों बाद महात्माजी फिर आए और साहूकार से बोले, नाती पोते देख लिए, अब तो चलो। साहूकार बोला कि महात्माजी अभी तो ये बच्चे नादान हैं बड़े हो जायें फिर चलेगें। ये सुन कर महात्माजी फिर चले गये।
बहुत दिनों बाद महात्माजी फिर उधर से निकले और पता किया तो मालूम पड़ा कि वह साहूकार तो कुछ दिनों पहले मर गया। महात्माजी ने अन्तरदृष्टि से देखा तो मालूम पड़ा कि वह साहूकार तो मेढ़क बनकर अपने द्वार के कूएँ में पड़ा है। ये मोह माया का जोर है जिसमें हम भूले हुए हैं वर्ना दुनिया वाले तो रोजाना हमें भला – बुरा कहते हैं । जिन्हें सबकुछ दिख रहा है वे तो बताने में कमी न्हीं करते – जैसे —
ऐसी नगरीया में केहि विधि रहना।
नित उठ कलंक लगावें सहना।।
एके कुआँ पाँच पनीहारीन,एकेला जुट भरे नौ नारी।
फुट गया कुआँ बिनस गयी बारी, बिलग गई पाँचो पनीहारीन।
कहें कबीर नाम बिन बेड़ा, उठ गया हाकिम लुट गया डेरा।। संत कबीर ।
हमारी अवस्था का सटीक वर्णन करते हुए संत कबीर कहते हैं कि हम इस तरह की दुनिया में खुश कैसे रह सकते हैं जहाँ हमारे ऊपर नित्यप्रति कुछ न कुछ कलँक / लाँछन लगता ही रहता है। हम चाहे जीतना भी जान लगा दें, घर वाले या बाहर वाले गल्ति ढ़ूंढ़ ही लेते हैं। फिर हमारे शरीर रूपी कुआँ में जो आत्मा की शक्ति है उसे पाँच पनीहारीन — काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहँकार पिये जा रही हैं । नौ इन्द्रियाँ रूपी नौ नारी आत्मा की धारा को लगातार बाहर निकाल कर शक्ति का क्षय कर रही हैं। परिणाम क्या है ? एक निश्चित अवधि के बाद कुआँ फूट या भस जाता है – इसमें से परमात्मा निकल जाता है और शरीर के रहते आत्मा का उससे मिलने का अवसर चला जाता है ।
हम स्वयम के अस्तित्व से अचेत, मन माया में लिप्त हुए परमेश्वर की तरफ पीठ किए हैं ।
हमें अपने (चेतना) को पलट कर प्रभू की तरफ देखना है और उसकी ओर बढ़ना है।
ज्ञान की ओर :–
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रामिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति।।गीता/4/38
( इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्ध अन्त:करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है। )
ज्ञान क्या है ? :-
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।। गीता/4/35
( जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को नि:शेषभाव से पहले अपने में और बाद में मुझ परमात्मा में देखेगा। उसे मैं तुझे बताउंगा। )
बचपन में, अपने समझ के अनुसार मैं सोचता था कि ज्ञान बड़ों से, अपने शिक्षकों से या विद्वानों से मिलता है तथा ज्ञान लेना जरुरी है क्योंकि इसी से हम समझदार होंगे। ज्ञान से ही जीवन अच्छी तरह पार लग जाएगा। माँ बोलती थीं ज्ञान मिलने से बुद्धि अच्छी हो जाएगी और तुम बड़े आदमी बन जाओगे। वे मुझे हमेशा कहती थीं कि बड़े होकर तुम्हें महापुरुष बनना है और कभी कृष्ण भगवान की कहानी तो कभी छत्रपति शिवाजी की या राणा प्रताप के बहादुरी और लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठता की कहानी सुनाती थीं। मेरी माँ ने मुझे कभी धन संग्रह की प्रेरणा नहीं दी। मेरे मन में ज्ञान प्राप्त करने तथा महापुरुष बनने की ललक बढ़ती चली गई। माँ के साथ, अपने ननिहाल में, कुछ साधु महात्माओं के आश्रम में भी जाने का मुझे सौभाग्य मिला। उन महात्माओं से मैं काफी प्रभावित हुआ तथा परमेश्वर और ज्ञान प्राप्ति की ओर मेरा आकर्षण बढ़ता ही गया। एक दिन की बात है-एक आश्रम के मुख्य द्वार के अन्दर बड़े मिन्दर के दरवाजे पर लिखा था:-
सत्यम वद , धर्मम चर ।
मैंने पूछा ये क्यों लिखा है ? इस पर स्वामी जी बोले तुम्हें सत्य बोलना है और धर्म का आचरण करना है। स्वामी जी उस आश्रम के मुख्य संत थे तथा मेरे नानाजी को और पूरे परिवार को जानते थे। मैं चौथे कक्षा का विद्यार्थी था तथा स्कूल से छुटने पर आश्रम जाने की इच्छा रहती थी। उक्त आश्रम महाराजगंज के पूर्वी छोर पर स्थित है और स्वामी जी के मठ के नाम से जाना जाता है। ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा मुझे खींचती रही। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि ज्ञान वह तत्व है जिसे जानकर तू सम्पूर्ण भूतों को नि:शेषभाव से पहले अपने में और बाद में मुझ परमात्मा में देखेगा। अत: ज्ञान अन्त:करण की वह स्थिति है जिसमें साधक को सम्पूर्ण सृष्टि अपने हृदय प्रदेश में दिखने लगती है। फिर पूर्वजों की वह वाणी- जोइ अण्डे सोइ पिण्डे- चरितार्थ हो जाती है। सभी महात्माओं ने इस तथ्य को बताया है कि पूरी सृष्टि मानव शरीर के अन्दर है तथा साथ में स्वयम परमेश्वर भी इसी में बैठा है। जिसको भी परमेश्वर मिला उसे अपने शरीर में हृदय प्रदेश में ही मिला। आगे कृष्ण भगवान बताते हैं कि साधक पहले सम्पूर्ण सृष्टि को अपने हृदय प्रदेश में देखेगा और बाद में परमात्मा में देखेगा। तात्पर्य ये है कि अन्त:करण की उस स्थिति में साधक का अहम भी परमेश्वर में लय हो जाता है तथा सिर्फ परमात्मा ही परमात्मा रह जाता है।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।। मानस 2.126.2
( हे प्रभू ! आपको वही जान सकता है जिसे आप कृपा कर जना देते हैं और जो आपको जान लेता है, वह आपका ही रुप हो जाता है। )
संत कबीर इसी स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि :-
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाहीं।।
प्रेम की गलि अति साँकरी, जा में दो न समाहीं।। संत कबीर ।
जो आपको जान लेता है, वह आपका ही रुप हो जाता है।
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल।। संत कबीर ।
इसी हृदय प्रदेश का चर्चा करते हुए तथ्य बताते हैं कि :-
अवधु अन्धाधुन्ध अँधियारा,
कोई जानेगा जानन हारा।।
या घट भीतर आप लेत हैं, राम कृष्ण अवतारा।।
या घट भीतर कामधेनु है, कल्पबृक्ष इक न्यारा।।
या घट भीतर ऋद्धि सिद्धि के, भरे अटल भण्डारा।।
या घट भीतर तीन लोक हैं, याही में हैं करतारा।।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, याही में गुरु हमारा।। संत कबीर ।
ज्ञान की क्या विशेषतायें हैं ? :-
ज्ञान की विशेषतायें इस प्रकार हैं :–
1- गीता में भगवान कृष्ण बताते हैं कि ज्ञान मिल जाने पर मनुष्य मोहित नहीं होता-
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं-गीता/4/35
मोह निशाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।। मानस ।
संसार नामक मोह रुपी रात्रि में सभी जीव सोये हुए हैं और अनेक प्रकार के सपने देख रहे हैं।
2- मनुष्य सम्पूर्ण सृष्टि रुपी भवसागर से तर जाता है, आवागमन से मुक्त हो जाता है।
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।। गीता/4/36
( यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रुपी नौका द्वारा नि:संदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलि- भाँति तर जाएगा। )
आवागमन से क्यों मुक्त हो जाता है ? इसलिए क्योंकि उसे अपने स्वयम के अस्तित्व में अनुभव के स्तर पर यह ज्ञात हो जाता है कि परमात्मा ही सर्वज्ञ है तथा साधक के अस्तित्व का परमात्मा में लय हो गया है। फिर साधक को हमेशा समाधि की अवस्था में इस स्थिति का अनुभव होता रहता है और विश्वास दृढ़ हो जाता है।
तदोपरांत साधक कभी भी शरीर को खाली करके परमात्मा में लय हो सकता है। फिर वही बिदेह हो जाता है।
3- आगे यह संशय होता है कि साधक के ढ़ेर सारे कर्मों का क्या होता है ? और बिना कर्मों के क्षय हुए मुक्ति कैसे मिलती है ? भगवान कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान वह अग्नि है जो पल भर में सम्पूर्ण कर्मों को जलाकर समाप्त कर देती है :–
यथैधांसि समिद्धो अग्निर्भस्मसात्कुरुते अर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। गीता /4/37
( हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्म कर देता है, वैसे ही ज्ञान रुप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देता है। )
4- भगवान ज्ञान की चौथी विशेषता बताते हैं कि ज्ञान के समान पवित्र करने वाली कोइ भी वस्तु नहीं है। अवश्य वह वस्तु जो हमें आत्मा का बोध करा के हमारी आत्मा का परमात्मा में लय कर देती है उससे पवित्र और हो ही क्या सकता है।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रामिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति।।गीता/4/38
( इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्ध अन्त:करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है। )
वस्तुत: ज्ञान, सत्य और प्रेम परमेश्वर का प्र्यावाची है।
ज्ञान कहाँ है ? :-
अब प्रश्न यह है कि वह ज्ञान कहाँ पाया जाता है, कहाँ मिलता है ? यह अति गूढ़ भेद है जिसे बिरले लोग ही जानते हैं। पूरी दुनिया ज्ञान प्राप्त करने के लिए न जाने कहाँ कहाँ धक्के खा रही है जबकि वह ज्ञान मनुष्य के हृदय में ही मौजुद है। गीता में कृष्ण भगवान बताते हैं कि —
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्येशे∙र्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्राँरुढ़ानि मायया।। गीता-18/61
हे अर्जुन शरीर रुप यन्त्र में आरुढ़ हुए सभी जीवों को अन्तरयामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मो के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है। यही बात संत कबीर अपने ढ़ँग से कहते हैं ।
कस्तूरी नाभि बसै, मृग ढ़ूढ़े बन माहिं।
ग्रंथ साहेब में गुरू साहेबान ने भी यही कहा है :–
घर अन्दर सब बथु है, बाहर किछु नाहीं।
गुरु परसादी पाइये अन्दर माहीं समाहीं।।
काहे रे बन ढ़ूंढ़न जाई, दीनदयाल सदा दु:खभंजन…..
गीता में कृष्ण भगवान फिर कहते हैं :–
तत्स्वयं योग संसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति। गीता/4/38
(उस ज्ञान को अनन्त काल से योग-साधना द्वारा अन्त:करण को शुद्ध करके मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है।)
ज्ञान कौन देता है ? :-
ज्ञान वही दे सकता है जिसने स्वयम ज्ञान पा लिया हो। वही ज्ञान पाने की विधि सीखाता है। निश्चय ही वह परमात्मस्वरुप प्राप्त किया हुआ मानव वेशधारी परम संत होगा।
सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार।
लोचन अनन्त उघारिया, अनन्त दिखावनहार।। संत कबीर ।
कबीर साहेब अपने सतगुरु की बड़ाई करते हुए बोलते हैं कि उनकी महिमा और मेहरबानी अनन्त है, वो भी अनन्त हैं, उन्होंने मेरी अनन्त आंखें खोलकर मुझे भी अनन्त कर दिया है। स्वभाविक है कि इस स्थिति में साधक का परमात्मा रुपी अनन्त में सर्वदा के लिए लय हो जाता है। ग्रंथ साहेब में गुरू साहेबान भी यही कहते हैं :–
नाम अमोलक रतन है, पूरे सतगुरु पास।
सतगुरु सेवे लागीया, काढ़ी रतन देवे परगासु।। ग्रंथ साहेब ।
मानस में भी ऐसा ही गोस्वामी जी लिखे हैं-
जे जानी जिन देही जनाइ।
तुम जानत तुमहीं हो जाई ।। मानस ।
तत्पश्चात अपने सतगुरु के लिए शिष्य के उदगार कुछ इस तरह प्रगट होते हैं-
सात समुन्दर मसि करूँ, लेखनि करूँ बनराय।
सब धरती कागद करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय संत कबीर ।
ज्ञान किसे मिलता है ? :-
हमारी संस्कृति में शुरु से ही यह परम्परा रही है कि दाता कुछ अनमोल या भारी चीज देने से पहले, लेने वाले की ( प्राप्त करने वाले की ) योग्यता को परख लेता है। स्वभाविक है कि तीसरी कक्षा के विद्यार्थी को आप स्नातक स्तर की शिक्षा नहीं दे सकते तथा पहले विद्यार्थी को उस लायक बनाना पड़ता है।
अनेक जन्म संसिद्धि — गीता ।
पहले शिष्य बहुत समय तक शिक्षक के पास रह कर तैयारी करते थे। आज भी भौतिक जानकारी और पैसा कमाने के लिए तरह तरह की पढ़ाई करनी पड़ती है, कोचिंग करना पड़ता है। जीवन यापन हेतु लायकियत होनी चाहिए , जिसके लिए माँ-बाप शुरु से ही बच्चे को समझाने बुझाने और पढ़ाने लगते हैं। मैंने पुस्त्कों में पढ़ी है – कबीर साहेब के समय की बात है, शाहजादा बुखारा ज्ञान पाने के लिये उनके पास आया । वषों सेवा के बाद माई लोई ने उसे ज्ञान देने की इच्छा जाहिर की । कबीर साहेब बोले अभी इसका मन साफ नहीं हुआ । लोई के बार-बार बोलने पर कबीर साहेब ने कहा कल सुबह इसको आजमा कर देख लो – छिप कर इसके शिर पर कूड़ा फेंक के देखना क्या करता है । लोई ने दूसरे दिन ऐसा ही किया । सुबह ही सुबह जब शाहजादा बुखारा बाहर निकल रहा था तभी लोई ने छिप कर छज्जे से उसके उपर कूड़ा कचड़ा फेंक दिया और सुनने लगी कि क्या कहता है । शाहजादा क्रोध से लाल होकर बोला – ए फेंकने वाले शुक्र करो कि बुखारे में नहीं हो वर्ना शिर कलम करवा देता । शाम को लोई ने कबीर साहेब को पूरी बात बताई । वर्षों बाद एक दिन कबीर साहेब ने लोई से कहा शाहजादा को ज्ञान दे दिया जाय । लोई बोली उपर से तो ये पहले जैसे सेवा किया करता था वैसे ही अभी भी करता है, क्या इसका मन साफ हो गया ? कबीर बोले पहले जैसे फिर आजमा के देख लो । दूसरे दिन सुबह शिर से पैर तक कचड़ा से नहा जाने पर शाहजादा खिल-खिला कर हँस पड़ा, बोला – शुक्र है फेंकने वाले ! तेरा शुक्र है ! इस बदतमीज मन के साथ यही सलूक होना चाहिये । शाम को लोई ने कबीर साहेब को फिर पूरी घटना बताई । कबीर बोले अब इसका अंतःकरण साफ हो चुका है । दूसरे दिन समर्थ गाइड / गुरू ने अपने शिष्य का ज्ञान दीपक जला दिया । तो गुरू भी अपने शिष्य को लायक बना कर ही ज्ञान देता है । इसी बात को कृष्ण भगवान गीता में बताते हैं कि वह लायकियत कैसे आयेगी ।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं, तत्पर: संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम, चिरेणाधिगच्छति।। गीता ।
( जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवत प्राप्तिरुप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।)
ज्ञान पाने के लिए किसी जिज्ञासु में क्या योग्यतायें होनी चाहिए, इसका बहुत ही सुन्दर और क्रमानुसार बर्णन कृष्ण भगवान ने उपरोक्त श्लोक में किया है। अगर हम भी ज्ञान पाना चाहते हैं तो इसे ध्यान से समझकर वैसी लायकियत विकसति करनी होगी। कहते हैं-
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं।
पहली आवश्यकता श्रद्धावान होना है। बात सूक्ष्म है। अगर हम श्रद्धावान नहीं हैं तो शिक्षक के बात पर कभी ध्यान ही नहीं देंगे और गूढ़ बात हमारे हृदय में उतरेगी ही नहीं। कोइ भी विद्यार्थी कक्षा में जाने से पहले ही सोंच ले कि इस विद्यालय के शिक्षक ही तेरह बाइस होंगे तो निश्चय ही वह कक्षा में जाकर आवश्यकतानुसार ध्यान नहीं देगा, बात समझ में नहीं आएगी, कार्य तेजी से नहीं करेगा और उसे उदेश्य प्राप्ति में सफलता नहीं मिलेगी। अत: पर्याप्त ध्यान देने के लिए श्रद्धावान होना जरुरी है। किसी भी विश्वविद्यालय में एक छात्र पहला स्थान पाकर स्वर्ण-पदक प्रथम प्रयास में ही प्राप्त कर लेता है जबकि उसके पड़ोस का छात्र उसी कक्षा में पिछले तीन साल से फेल हो रहा होता है। ऐसा क्यों ? यह इसलिए कि फेल होने वाले छात्र के मन में अपने उदेश्य के प्रति श्रद्धा / इच्छा नहीं है।
ठीक इसी तरह आध्यात्म के क्षेत्र में भी ज्ञान पाने के लिए हमें श्रद्धावान होना है। लगनशील, प्रयत्नशील,जागरुक और चेष्टावान होना है। हमारे समाज में कहा जाता है-
काक चेष्टा, बको ध्यानम, श्वान निद्रा तथैवच।
उदेश्य के प्रति इतनी श्रद्धा हो कि हमारा हर प्रयास कौए के तरह बार-बार अपने कार्य को पूरा करने का हो। कौआ जब तक बच्चे के हाथ से रोटी का टुकड़ा छीन नहीं लेता तब तक बच्चे के इधर उधर चक्कर काटते ही रहता है। बहुत सारे लोग कहते हैं कि मैं अपने उदेश्य के प्रति बहुत श्रद्धा रखता हूँ लेकिन प्रगति नहीं होती। इसको भी परखने का सुन्दर तरीका श्लोक में दिया है।
कहते हैं दूसरी आवश्यकता साधक को तत्पर होना है अर्थात अगर तत्पर नहीं है तो सचमुच में श्रद्धावान नहीं है। फिर ऐसे श्रद्धा का क्या फायदा कि श्रद्धा तो है लेकिन शिक्षक / कोच के निर्देशानुसार तत्परता से / तेजी से कार्य पूरा करके सिद्ध न किया जाय।अत: तत्परता ही श्रद्धावान होने का असली लक्षण है।
साधक के तीसरी आवश्यकता के बारे में इसके आगे स्पष्ट करते हुए सबसे कठिन लक्षण बताते हैं। कहते हैं कि साधक के तत्पर होने का सही प्रमाण यही है कि वह संयतेन्द्रियः है या नहीं। अगर उसने अपने इन्द्रियों को संयत नहीं कर लिया है उन्हें वश/काबू में नहीं कर लिया है तो फिर कार्य को तत्परता से करने का क्या फायदा ? अत: बिना इन्द्रियों को काबू में किए ज्ञान पाने की आशा करना व्यर्थ है। (आजकल के शिक्षा प्रणाली में इन्द्रियों के संयम पर क्या कहा जाता है, आप स्वयम विचारें । भौतिक जानकारीयों को ग्यान समझने की भूल हम नहीं कर सकते । हाँ, भौतिक जानकारीयों की सार्थकता इस सँसार में सम्मानपुर्वक जीवन-यापन के लिये आवश्यक है अतः इसका अर्जन अवश्य करें । परंतु ज्ञान पाने के लिये जीवन-यापन के अतिरिक्त हमें इस बात को भी प्राथमिकता देनी होगी और ज्यादा मेहनत करनी होगी ।)
इसी को पूर्वजों ने बताया कि चित्त की वृत्तियों का, इन्द्रियों का निरोध हो जाने पर मन का स्व में लय हो जाता है तथा आत्मा को अपनी जानकारी मिलनी शुरु हो जाती है, हृदय प्रदेश में ज्ञान का अवतरण हो जाता है। सबसे बड़ी रुकावट मन का है जो इन्द्रियों का गुलाम है तथा इन्द्रियाँ संसार के विषयों, शकलों / पदार्थों ( जो मन माया और काल का जाल है ) में उलझी हैं।
अत: हृदय प्रदेश के अन्दर मन का स्व में लय होना आवश्यक है। इसकी विधि पहुँचे हुए महात्मा द्वार दिए गए साधन से ही सिद्ध होता है।
ज्ञान कैसे मिलता है ? :-
महात्मा द्वार दिए गए सुमिरन भजन के द्वारा जब हमारी सूरत / आत्मा हृदय प्रदेश में तीसरे तील पर स्थित हो जाती है तो हमें सूक्ष्म लोक में प्रवेश मिलना शुरु हो जाता है तत्पश्चात जानकारी आने लगती है। योग-साधना के अन्तिम चरण में ज्ञान मिल जाता है।
मन बैरागी माया त्यागी, शब्द में सुरत समाई।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, यह गति बिरले पाई।। संत कबीर ।
ज्ञान मिलने के बाद का लक्षण :-
भगवान कृष्ण ज्ञान के प्रसंग के आखिरी कड़ी को बताते हैं कि कैसे मालूम पड़ेगा कि साधक ज्ञानी हो गया है या नहीं ? संसार में बहुत सारे ढ़ोंगी भी लोगों को भरमाते रहते हैं। सच्चे ज्ञानी की पहचान बताते हैं-
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम, चिरेणाधिगच्छति।।
ज्ञान उपलब्ध हो जाने पर साधक परम शान्ति को प्राप्त होता है और चिर शाश्वत में स्थित हो जाता है। चिर शाश्वत अर्थात परमेश्वर / समष्टि चेतना / समग्र चेतन तत्व में ज्ञानी का लय हो जाता है।
ज्ञान मिल जाने के बाद की स्थिति का वर्णन कबीर साहेब अपने तरह से करते हुए पूरी बात बताते हैं-
अवधू मेरा मन मतवारा।
उन्मुनि चढ़ा गगन-रस पीवै, त्रिभुवन भया उजियारा।
गुड़ करि ज्ञान ध्यान करि महुआ, भव-भाठीं करि भारा।
सुषमन –नारी सहज समानीं, पीवै पावनहारा।
दोई पुड़ जोड़ि चिगाई, भाठी चुआ महारस भारी।
काम-क्रोध-दुइ किया पलीता, छूटि गई संसारी।
सुन्न मंडल में मँदला बाजै, तहँ मेरा मन नाचै।
गुरुप्रसादि अमृत फल पाया, सहजि सुषमनां काछै।
पूरा मिल्या, तबै सुख उपज्यो, तप की तपनि बुझानी।
कहै कबीर भवबंधन छूटै, जोतिहि जोत समानी । संत कबीर ।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ज्ञान प्राप्ति का सटीक प्रमाण देते हुए कहते हैं कि उस अवस्था में साधक के पास किसी तरह का मान या अहंम या अभिमान नहीं रह जाता।
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं।।
यह इसलिए कि मन ही अहंम को पुष्ट किए रहता है और जब मन ही मर या विसर्जित हो जाता है तो अहंम भी सदा के लिए समाप्त हो जाता है। मन द्वारा जनित द्वैत मिट जाता है अद्वैत की स्थिति हो जाती है। तेरा-मेरा खत्म होकर सिर्फ तू ही तू सर्वत्र विद्यमान रहता है । तोर-मोर रुपी माया समाप्त होकर प्रेम रुपी परमेश्वर ही नजर आता है।
आंधी आई प्रेम की, ढ़ही भरम की भीत।
माया टाटी उड़ि गई, लगी नाम सों प्रीत।। संत कबीर ।
हर मायावी वस्तु ( स्थुल, सूक्ष्म, कारण ) का अस्तित्व परमात्मा में विलिन हो जाता है। फिर साधक नहीं परमात्मा ही परमात्मा रहता है। कहते हैं :–
जब मैं था तब गुरु नहीं,अब गुरु हैं मैं नाहीं।
प्रेम की गली अति सांकरी, जा में दो न समाहीं।। संत कबीर ।
परमात्मा भी यही संदेश दे रह है-
मिटा के अपनी हस्ती को चल आवो मेरे दर पे।
जब तक साधक अपनी हस्ती को मिटा नहीं देता तबतक परमात्मा से मिलना तो दूर उसके दरवाजे पर भी नहीं पहुंच सकता। लकिन हस्ती मिटाने के बाद की अवस्था यह हो जाती है कि सबमें और हर तरफ परमेश्वर एक बराबर दिखने लगता है-
देख ब्रह्म समान सब माहीं।।
इसी को दूसरे तरीके से कहते हैं-
सियाराम मय सब जग जानी। करहूं प्रनाम जोरि जुग पानि।
कबीर साहेब भी ऐसा ही बोलते हैं-
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल।। संत कबीर ।
कबीर साहेब पूरे विस्तार से रहस्य खोलते हैं कि मैंने परमेश्वर को अपने हृदय में पा लिया है ।
परम प्रभू अपने ही उर पायो।
जुगन 2 की मिटी कल्पना, सतगुरु भेद बतायौ।
जैसे कुँवरि कंठमणि भूषण, जान्यो कहूँ गँवांयो।
काहू सखि ने आय बतायो, मन को भर्म नसायो।
ज्यों तिरिया स्वपने सुत खोया, जानिके जिय अकुलायो।
जागि परी पलंगा पर पायो, न कहूँ भयो न आयो।
मिरगा पास बसे कस्तूरी, ढ़ूढ़ते बन बन धायो।
उलटि सुगंध नाभि की लीनी, स्थिर होई सकुचायो।
कहत कबीर भई है वह गति, ज्यों गूंगे गुड़ खायो।
ताकी स्वाद कहै कहुँ कैसे, मन ही मन मुस्कायो। संत कबीर ।
गोस्वामी तुलसी दास भी ऐसा ही कहते हैं ।
हरि ब्यापक सर्वत्रा समाना।
प्रेम तें प्रगट होंहि मैं जाना।।
प्रभु सब जगह एक समान रुप से हाजिर- नाजिर है। परन्तु प्रेम के द्वारा ही वह प्रगट होता है।
सब महापुरूष एक ही बात बताते हैं अतः हम अपना भ्रम दूर कर, स्थिर चित्त हो कर, इस रास्ते पर चलकर लाभ उठा सकते हैं ।
सम्पूर्ण स्वास्थ समाधान :-
शरीर को स्वस्थ रखना हमारा पुनीत कर्तव्य है ।
इस लोक के स्वार्थ और परलोक के परमार्थ कर्मों को स्वस्थ शरीर से ही पूर्ण किया जा सकता है ।
मानव जीवन को सफल बनाने एवम किसी भी क्षेत्र में सर्वोत्त्म उपलब्धि पाने के लिये स्वस्थ रहना परम आवश्यक है। स्वास्थ का अर्थ केवल किसी रोग या कमजोरी की अनुपस्थिति नहीं बल्कि पूर्ण रूप से शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कुशलता का होना है, जिससे हर मनुष्य सामाजिक तथा आर्थिक रूप से उपयोगी जीवन आनन्द के साथ जी सके।
स्वास्थ का महत्व :–
स्वस्थ और विकसित बचपन
स्वस्थ और आकर्षक युवा
स्वस्थ और योग्य बालिग
स्वस्थ और सक्रिय बुजुर्ग
स्वस्थ जीवन का आनन्द लेने के लिये स्वास्थ-ज्ञान की जानकारी लेना और स्वस्थ रहना हमारी
व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हमारा देखभाल हमसे बेहतर और कोई नहीं कर सकता। आइए इस जानकारी को जीवन में अपना कर इसका लाभ उठाया जाय।
स्वस्थ रहने का उपाय :-
1- जिन्दगी जीने का अच्छा तरीका (लाइफ स्टाइल)।
2- संतुलित भोजन, संतुलित कार्य, संतुलित नीद्रा।
3- संतुलित व्यायाम।
4- हर प्रकार का नशा छोड कर।
5- अच्छी आदतों को अपनाकर।
6- हानिकारक आदतों को छोड कर।
7- संयमित जीवन जी कर।
8- स्वच्छ, साफ-सुथरा रह कर।
9- व्यवहार कुशलता-पुर्वक पवित्रता / ईमानदारी अपनाकर।
10- अपने को खुश रखते हुए, दूसरों को खुश करके और तनाव को दूर रखते हुए।
11- मोटापा और वजन को नियंत्रण करके।
12- समाज में प्रचलित मुख्य बीमारीयों का सामान्य ज्ञान रखते हुए उनसे बचने का उपाय व रोगों की रोक-थाम करके।
1- जिन्दगी जीने का अच्छा तरीका (लाइफ स्टाइल) :—
अपने जीवन जीने का वर्तमान तरीका हमें स्वयम कैसा लगता है ? क्या किसी दूसरे का तरीका हमें ज्यादा अच्छा लगता है ? इस पर सावधानी से विचार व मनन करें तथा अच्छे तरीके को अपनायें। महापुरूषों के जीने का तरीका हमारे लिये अनुकरणीय होता है।
विश्व के विभीन्न भागों में वहाँ के जलवायु, कृषि, कला, संस्कृति एवम वैज्ञानिक विकास के अनुसार लोगों के जीवन जीने का तरीका, वेश-भूषा व अन्य बातें निर्भर करती हैं। परंतु स्वस्थ रहने के लिये हमें अपने क्रिया-कलापों को सजगता के साथ सवांरना होगा। बचपन में अच्छी आदतें अपनाना आसान होता है। अपने शरीर व विचारों का सदैव देखभाल/ निगरानी करके हम स्वस्थ रह सकेंगे। लापरवाही से हम बीमारी का शिकार होते हैं, उम्र कम हो सकती है और हमारा किसी काम के लायक नहीं रहते।
2- संतुलित भोजन, संतुलित कार्य, संतुलित नीद्रा :-
– उचित मात्रा में, नियमानुसार सटीक अंतराल पर भोजन करें।
– ज्यादा खाना रोग (हृदय व मधुमेह) बुलाता है।
– सुबह / शाम नश्ता करें।
– एक बार अधिक भोजन न करें। दिन में कई बार थोड़ा- थोड़ा खाना बेहतर है।
– फल व हरी सब्जीयाँ खायें।
– अपने उम्र, कार्य व गतिविधि के अनुसार भोजन करें। खाना ईंधन ( कैलोरी ) है। ज्यादा शारीरिक श्रम वाले कार्य हेतु ज्यादा ईंधन वाला भोजन तथा कम शारीरिक श्रम वाले कार्य हेतु कम ईंधन वाले भोजन की आवश्यकता होती है।
एक क्लर्क के भोजन की मात्रा एवम प्रकार एक किसान या मजदूर के भोजन से अलग होगी।
खाने के निम्न प्रकार हैं :–
क- आवश्यक भोजन — रोटी, चावल, दाल आदि जो कार्य हेतु शक्ति देते हैं।
ख- प्रोटीन वाले भोजन – दाल, राजमा, दूध, दही, पनीर ( बिना वसा वाले दूध का ) प्रोटीन बढ़ाने में सहायक हैं। ये बच्चों व किशोरों के विकाश हेतु आवश्यक है।
ग- विटामिन, मिनरल व फाइबर वाले भोजन – फल व सब्जियां – ये पौष्टिक आहार है जो चेहरे पर चमक व ताजगी लाते हैं।
– फाइबर ( रेशेदार पदार्थ ) फल व सब्जियों के अलावा अन्न जैसे आटा, दलीया में भी मिलता है। फाइबर से भोजन पचाने में सहायता मिलती है। इससे मधुमेह, दिल का दौरा, कुछ किस्म के कैंसर से बचाव होता है तथा खुन में कोलेस्ट्राल की मात्रा सीमित रहती है।
– वसा ( चिकनाई ), चीनी / शक्कर व नमक कम खायें। स्वस्थ रहने, बढ़ने व ताकत के लिये थोढ़ी मात्रा में घी, शक्कर व नमक आवश्यक है परंतु ज्यादा वसा से मोटापा, दिल का दौरा व कैंसर हो सकता है। ज्यादा शक्कर मोटापा व आलसपन लाता है तथा मधुमेह का खतरा बना सकता है। ज्यादा नमक उच्च रक्तचाप, दिल का दौरों व लकवे का खतरा लाता है।
– खाने का गुण उसे बनाने पर निर्भर करता है :–
* फल व सब्जी धुला होना चाहिये,
* कटे फल व सब्जी न धोयें – इससे वितामिन व मिनरल निकल जाते हैं,
* कच्चे फल व सब्जी खाने से ज्यादा फाइबर, विटामिन व मिनरल मिलता है,
* विना छाना हुआ आटा इस्तेमाल करें,
* सेव, अमरूद जैसे फलों को छिलके सहित खायें,
* फलों के रस के बजाय ताजे फल खायें,
* मैदे से बनी चीजों में फाइबर कम होता है। इन्हें कम खायें,
* भाप प्रेसर और भूनकर खाना पकाना ज्यादा अच्छा है उबालने से, क्योंकि इससे खाने में फायदेमंद पदार्थों को बचाया जा सकता है।
3- संतुलित व्यायाम :–
अपने उम्र व व्यवसाय के अनुसार संतुलित व्यायाम अवश्य करें। प्रतिदिन 15 मिनट से 45 मिनट तक ( सुविधानुसार ) निम्न व्यायाम में से चुनें :–
* तेज चलें, दिन में दो बार कम से कम 15-15 मिनट तक ।
* सीढ़ियाँ चढ़ें, दूसरी मंजिले तक लिफ्ट का उपयोग न करें ।
* योग-आसनों का अभ्यास करें ।
* पास के बाजार में गाड़ी से न जा कर पैदल या साईकिल से जायें ।
* एरोबिक एक्सरसाइज करें – पी. टी. करें, रस्सी कूदें ।
* घर के कार्य जैसे झाड़ू-बहारू, फर्श धोना, कपड़े धोना, बगीचे में काम करना – पौधों की देख रेख, उनकी सफाई, पानी देना, खोदाई और निराइ करना ।
* बच्चों वो दोस्तों के साथ खेलना, आउट-डोर खेल खेलना, जीम व क्लब के कार्यों में भाग लेना ।
* तेज साईकिल चलाना ।
* 15 मिनट तक तैरना ।
व्यायाम के फायदे :–
. उच्च रक्तचाप की बीमारी को रोकता है एवम जिन्हें रोग पकड़ लिया है उन्हें रोग को कम करके समाप्त करने में सहायक होता है ।
. मधुमेह होने के खतरे को रोकता है एवम जिन्हें रोग पकड़ लिया है उन्हें रोग को कम करके समाप्त करने में सहायक होता है ।
. अकाल मृत्यु का खतरा कम करता है ।
. हृदय रोग और लकवे से होने वाले मौत को कम करता है ।
. हर तरह के कैंसर रोग होने के खतरे को 50 % कम करता है ।
. कमर का दर्द कम करना, हड्डियों के कमजोरी को रोकना, हड्डियों के ( विशेषतया कूल्हे की हड्डी ) टूटने के खतरे को 50 % कम करता है ।
. तनाव, चिंता, उदासी, और अकेलेपन के एहसास को दूर करके मानसिक स्वास्थ्य को अच्छा रखता है । परिस्थितियों के अनुसार स्वयम को बदलने में सहायता करता है ।
. वजन को कंट्रोल / नियंत्रित करने में सहायक व मोटापे के खतरे को 50 % कम करता है ।
. भूख लगती है, आहार अच्छा होता है ।
. बीमारीयों से लड़ने की ताकत को बढ़ाते हुए शरीर को हर प्रकार के संक्रमणों से बचाता है ।
. स्वस्थ हड्डियों, मांसपेशियों और जोड़ों को बनाने व संभालने में सहायता करता है। किसी भी प्रकार के दर्द को रोकता है या दर्द हो जाने पर जल्द ठीक करने में सहायता करता है।
. शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहने से योग्यता, कार्यकुशलता, उत्पादनशीलता व सहनशक्ति को बढ़ावा मिलता है ।
. खराब आदतों ( नशा सेवन, अस्वस्थ आहार, हिंसक व्यवहार ) को रोकने में सहायता करता है ।
. सामूहिक खेल-कूद या कार्यों से सामाजिक मेलजोल और एकता को बढ़ावा मिलता है ।
. शारीरिक और मानसिक संतुलन ठीक रखकर, अच्छी तरह जीवन जीना सुनिश्चित करता है ।
4- नशा न करें :–
– किसी भी प्रकार का तम्बाकू न लें, धुम्रपान न करें।
– सिगरेट, बीड़ी, हुक्का, चिलम,पाइप सभी हानिकारक हैं।
– तम्बाकू के धूएं में 400 से अधिक हानिकारक और विषाक्त रसायनिक पदार्थ जैसे निकोटीन विष होता है जो नशीली चीज है, लत पड़ जाने पर आदत बहुत मुश्किल से छुटती है।
– तम्बाकू के धुएं से फेफड़े व गले का कैंसर, हृदय रोग, ब्रोंकाईटिस, दमा हो सकता है। सहन शक्ति खो जाती है। ऊसरता भी हो सकती है। तम्बाकू चबाने से मुँह के खाने की नली में, पेट में, मुत्राशय में कैंसर हो सकता है।
– सिगरेट के विज्ञापन व दोस्तों से प्रभावित न हों।
– पहले से ही नशा करते हैं तो दृढ़ इच्छा शक्ति से नशा छोड़ सकते हैं। परिवार व दोस्तों की सहायता आवश्यक है।
– नशा छोड़ कर स्वस्थ रहें, बीमारी से बचें, पैसा बचायें, अपने व दुनिया के लिये ज्यादा उपयोगी बनें।
5- अच्छी आदतें अपनाएं :–
– कम खाने हेतु नियमित समय पर खाना खायें। याद रखें – खाना खाने के बीस मिनट बाद भूख मिटती है।
– छोटा ग्रास लें। अच्छी तरह चबाकर धीरे-धीरे खायें।
– पके फल, कच्ची सब्जियाँ अधिक फाइबर देते हैं जिससे पेट भरने का एहसास होता है व संतुष्टि मिलती है।
– व्यस्त रहें। खाली बैठे रहने से खाने का मन करता है।
– खाते समय बेहतर हो खाने पर ध्यान दिया जाय न कि टी. वी. पर।
6- समाज और डाक्टरों द्वारा बताये गये हानिकारक आदतों को छोड़ना, अच्छे स्वास्थ को सुनिश्चित करता है
7- संयमित जीवन जीएं :–
ज्यादा बाहर खाने की आदत न डालें। वसा, नमक, मसाला, मिठाइयाँ व उनमें डाले गए रंग / रसायनों से बचें।
किसी भी प्रकार के नशा का टेस्ट न लें और उसके प्रति उत्सुकता को अपने दिलो-दिमाग से सर्वथा निकाल दें ।
उच्च विचारों के साथ सहज जीवन जीयें ।
अपने प्रति कठोर एवम दूसरों के प्रति नम्र व दयालु रहें ।
अपने व्यक्तित्व के हर पहलू के प्रति सजग व संवेदनशील रहें । याद रहे लम्बी अवधि में हमारा व्यक्तित्व और हमारा व्यवहार ही हमारा परिचय है जो दूसरों के मन में हमारी छवि स्थापित करता है ।
8- स्वच्छ, साफ-सुथरा रहें :–
स्वच्छता परमेश्वर की निशानी है।
इन आदतों को अपनाकर हमारा लाभ उठा सकते हैं—
* हाथ धोने से हम स्वस्थ रहते हैं, साबुन से हाथ धोयें ।
* नाखुन साफ रखें।
* खाँसते व छींकते समय मुँह व नाक को ढ़कें तथा बीमारी से बचें।
* सार्वजनिक स्थानों पर थुकने से बीमारी फैलती है।
* कुड़े को कुड़ेदान में ही फेंके, अन्य जगहों पर नहीं।
* घर / दुकान में कुड़ेदान अवश्य रखें।
* रसोई के कुड़ेदान को प्रतिदिन सोने से पहले जरूर खाली कर दें अन्यथा रसोईघर में रात को कीड़े-मकोड़े आयेंगे।
* अपने आसपास का वातावरण साफ रखें।
* स्कूल जाने वाले बच्चों को स्वच्छ्ता व वातावरण की सफाई के बारे में शिक्षा दें।
* अपने क्षेत्र के सफाई कर्मीयों व स्वास्थ निरीक्षक को सहयोग दें व सहायता करें।
* घर व आफिस में 5 – एस प्रबन्ध प्रणाली अपनायें ।
1–एस–आवश्यक तथा अनावश्यक वस्तुओं को छाँटना । आवश्यक वस्तुओं को रखना और अनावश्यक वस्तुओं को हटाना ।
2–एस–सुव्यवस्था बनाना । आवश्यक वस्तुओं को उचित क्रम / तरीके से रखें जिससे जरूरत पड़ने पर आसानी से मिल जाय ।
3–एस–स्वच्छता । उपकरण व अन्य सुविधाओं सहित पूरे कार्य क्षेत्र की सफाई हो ताकि कार्यस्थल में या उसके चारों ओर कोई गन्दगी न हो ।
4–एस–मानकीकरण । उपरोक्त तीनों प्रक्रियाओं का नियमित रूप से पालन करना ही मानकीकरण है ।
5–एस–अनुशासन । पिछ्ले चारों प्रक्रियाओं के अनुसरण के लिये प्रशिक्षण देना एवम अनुशासित ढ़ँग से इसे अपने जीवन शैली का अँग बना लेना ही 5 एस है ।
9- पवित्रता और ईमानदारी :–
जीवन में परिश्रम, अनुशासन और व्यवहार कुशलता के साथ-साथ पवित्रता और ईमानदारी अपनाकर हम स्वस्थ रह सकते हैं ।
10- स्वस्थ तरीके से दुसरों को खुश करके एवम अपने तनाव को दूर करके हम खुशहाल रह सकते हैं ।
11- ज्यादा वजन और मोटापा कम करना :–
मोटापा दिल के दौरे का खतरा बढ़ाता है ।
वजन बढने के साथ-साथ खून में कोलेस्ट्राल, शूगर, ट्राइग्लिसराइडस बढ़ता है और वजन बी.पी. भी बढ़ाता है । वजन और लम्बाई के अनुपात से भी मोटापे अनुमान लगाया जाता है । इसे बॉडी मास इंडेक्स ( बी. एम. आई. ) कहते हैं ।
भार (किलोग्राम में) / कद या लम्बाई (मीटर में) = अनुपात
सामान्य बी. एम. आई. = 19 से 24.9
ज्यादा वजन = 25 से 29.9
मोटापा = 30 से 40
बहुत ज्यादा मोटापा = 40 से ज्यादा
वजन कम होने से अधिकतर बी.पी. सामान्य हो जाता है और छाती के दर्द की तीब्रता एवम आवृत्ति घट जाती है ।
12- बीमारीयों की जानकारी द्वारा बीमारीयों से बचाव :-
हमें समाज में प्रचलित मुख्य बीमारीयों जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह, दिल की बीमारी , कैंसर, लकवा, हड्डियों का कमजोर होना, जोड़ों का दर्द, साँस की बीमारी और फेफड़ों की बीमारीयों का सामान्य जानकारी रखना चाहिये । इन बीमारीयों से बचने हेतु संतुलित आहार, व्यायाम, विचार और दिनचर्या रखते हुये यथाशक्ति प्रकृति के सानिध्य में रखना चाहिये ।
समय प्रबन्धन :–
समय साँसों का खजाना है जिससे भू-लोक में कर्तव्य पूरा किया जाता है ।
समय हीरा रतन है, पहचान कर उपयोग करें ।
जनमानस की यह धारणा है कि समय शक्ति है, ऊर्जा है और सृष्टि के अनन्त कार्य श्रृंखला के आंकलन का आधार है। आदि काल से अब तक सभी कार्यो का सम्बन्ध समय से है और समय के परिपेक्ष्य में ही कार्यो की समीक्षा व अनुश्रवण की जाती है।
समय पहचान कर जो कार्य करता है वह सफल होता है। हमारी संस्कृति में मानव जीवन के चार आश्रमों की व्यवस्था पुराने जमाने में समय के आधार पर पूर्णता प्राप्त करने के लिए की गयी। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास। सबका 25-25 वर्ष का समय नीयत कर उस अवधि में उदेश्य ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) पूरा कर लेने का विधान था। वर्तमान युग में चुनौतियॉं, प्रतिस्पर्धा, आवश्यकताएं व अपेक्षाएं बढ़ जाने के कारण ब्रह्मचर्य आश्रम के उदेश्यों – शक्ति, विद्या, योग्यता, हुनर, कार्यकुशलता और सक्षमता – को अपने अन्दर जाग्रत करने में 25 वर्ष से ज्यादा का समय लग जाता हैं, फल-स्वरुप गृहस्थ आश्रम ( विवाहित जीवन ) की शुरुआत देर से होती है और उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने में ही 60 या 70 वर्ष की आयु पूरी हो जाती है। तदोपरान्त समाज सेवा व आत्म उपलब्धि के लिए कम समय मिलता है।
समय और विज्ञान के दबाव के कारण तीब्र गति व प्रवाह लिए वर्तमान जीवन में समय प्रबन्धन अति महत्वपूर्ण है। समय को पहचान कर उस अवधि में सम्बन्धित कार्य को निपुणता पुर्वक पूरा कर लेना ही समय का सदुपयोग है।
निम्न विन्दुओं पर ध्यान देंगे :-
-समय को पहचानें।
-समयानुसार कार्य का चुनाव करें।
-कार्यो का वर्गीकरण कर उसे छोटे – छोटे क्रियाओं में क्रमानुसार बांटे।
-सफल व्यक्तियों की सलाह लें।
-दूसरों के व अपने पुराने अनुभवों का फायदा उठाएं।
-अपनी शक्तियों व कमजोरीयों का आंकलन करें।
-उपलब्धियों के अवसर व साथ में आने वाली धोखा तथा खतरों की समीक्षा करें।
कार्य की प्राथमिकता तय करें : –
1- तत्काल/ तुरन्त प्रकार के कार्य जो महत्वपुर्ण भी हैं, उन्हें पहले पूरा करें।
2- तत्काल/ तुरन्त प्रकार के कार्य जो महत्वपुर्ण नहीं हैं, उन्हें दूसरे नम्बर पर रक्खें।
3- कार्य जो महत्वपुर्ण हैं, लेकिन तत्काल/ तुरन्त प्रकार के नहीं हैं, उन्हें तीसरे नम्बर पर रक्खें।
4- कार्य जो महत्वपुर्ण नहीं हैं, साथ ही तत्काल/ तुरन्त प्रकार के भी नहीं हैं, उन्हें चौथे नम्बर पर रक्खें।
उपरोक्त के अनुसार कार्य सूची बनाएं। क्रमानुसार 1,2,3 का तरीका अपनाएं -1 नम्बर पर सबसे महत्वपुर्ण/आवश्यक कार्य को पूरा करें तत्पश्चात 2 व बाद में 3 और 4 नम्बर के कार्य को करें। समय के साथ प्राथमिकता बदल सकती है अत: फ्लैकसीबल रहें। मानवीय मूल्यों व परिस्थितियों के आधार पर समय तथा स्थान देखते हुए निणर्य लें। कार्य हेतु संसाधन जुटाकर समय सीमा व जबाबदेही अवश्य तय करें। दैनिक व साप्ताहिक कार्ययोजना बनाएं। क्या मैं वर्तमान समय का उत्तम उपयोग कर रहा हूँ ? यह स्वयम से पूछें। सम्यक आहार, कार्य व निद्रा आवश्यक है। आराम करना एक कला है – इसे निपुण पुरुषों से सीखें।
रोजमर्रा के कामों को निपटाने में ही सारा दिन निकल जाता है – कभी-कभी आवश्यक कार्य के लिए भी समय नहीं मिलता। ऐसै में व्यस्त से व्यवस्थित होकर समय निकालें, थोड़ा और ज्यादा कार्य निपटायें। सभी सफल व्यक्ति समय को अच्छी तरह व्यवस्थित कर, कार्य का विस्तारपुर्वक विवरण निकाल कर, समयबद्ध योजना निर्धारित कर पूरे तन्मयता व हूनर के साथ कार्य पूरा करते हैं। सबके लिए एक दिन में 24 घण्टे होते हैं। अधिक क्षमता वाले इस अवधि में ज्यादा कार्य करते हैं। अत: क्षमता बढ़ायें – शारीरिक व मानसिक दोनों। अपने मन, बुद्धि, विचार, व्यवहार, कार्य-कलाप, व जीवन चर्या पर ध्यान देकर तथा नियंत्राण कर, समय का अति उत्तम उपयोग करें।
मन, बुद्धि, विचार में सुधार हेतु : –
1-स्वयं / चेतना के प्रति वचनबद्ध हों।
2-आत्म अनुशासन से अच्छा कार्य कर क्षमता बढ़ाएं।
3-स्वस्थ / अच्छी आदतें, तरीका व पद्धति से कार्य कर संतोष पायें तथा चिन्ता-मुक्त रहें।
4-शांत चित्त मनन कर, योजनाबद्ध तरीके से कार्यकर सफलता पाएं। स्वयं पर भरोसा बढ़ाएं।
5-अपने साथ एक छोटा सा थींक-नोट-एक्ट पैड हमेशा रक्खें। जब भी विचार आएं उनको लिख लें। नोट सामने रक्खें व उस पर कार्य करें। बीच-बीच में याद करने हेतु नोट देखें व शेष कार्य पूरा करें।
6-एक बार में एक ही कार्य करें।
7-कार्य पूर्ण एकाग्रता के साथ कर उसे पूरा करें तभी दूसरा कार्य शुरु करें।
8- अगर कार्य बड़ा हो तो छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटे। फिर एक टुकड़े का कार्य पूरा करके ही छोड़ें। इससे विश्वास बढ़ेगा और कार्य भी एक-एक करके पूरा हो जाएगा। हर टुकड़े को निर्धारित समय में पूरा करें।
9- कार्य ज्यादा होने की चिन्ता छोड़ें। मन बेकार की बातें उठाता रहता है-इसे एक तरफ हटाएं। स्वस्थ विचार के साथ स्वयं व समग्र चेतना के प्रति आशावान रहते हुए कार्य शुरु कर दें।
10- अच्छी शुरुआत का अर्थ आधा कार्य पूरा हो जाना।
11-दृढ़ संकल्प व इच्छा शक्ति से कार्य करें।
12-भावनाओं के साथ इधर-उधर न बहें। बहादुरी के साथ कार्य में भिड़े रहें।
13-क्रमिक सफलता के साथ अपने को बधाई दें – अपना विश्वास बढ़ायें। पाये हुए अनुभव के साथ पूर्णता की ओर बढ़ जायें।
14-अपने प्रति कठोर व दूसरों के प्रति नम्र रहें।
15-लक्ष्य के प्रति सदैव सचेत रहें व अचेतन मन द्वारा दी गई उपायों का आंकलन कर उस पर कार्य करें।
16-प्रकृति ने एक दिन में सबको 24 घण्टे ही दिए हैं। इसी में कुछ लोग महान बनते हैं और अन्य मानव जीवन व्यर्थ गवाँ देते हैं। 24 घण्टे के कार्य का सावधानी व कठोरता से योजना बनाकर लागू करें।
कार्य व व्यवहार में उत्कृष्टता हेतु : –
1- अपने कार्य में रुचि लें। कार्य से लगाव रखना सीखें। कार्य से ही हमारी पहचान बनती है। कार्य से ही हमारी रोजी रोटी चलती है।
2-महत्वपूर्ण कार्यां को सुबह ही सुबह निपटायें।
3-जब तक पूरा न हो कार्य के पीछे पड़ रहें।
4-संचार को सशक्त बननाए रखिए-कार्य में निपुणता हासिल काने के लिए। टेलीफोन, ई-मेल, एस. एम. एस., विडीयो कॉनफ्रेंसिंग, मिटींग, फैक्स व पत्रा का यथेचित प्रयोग करें।
5-समय से पहले हीं कार्य की प्रथमिकता तय कर लें।
6-कार्य के दौरान नाना प्रकार की रुकावटें व अवरोध उत्पन्न होती हैं, जैसे टेलीफोन कॉल इत्यादि। प्रत्येक अवरोध के बाद अपने महत्वपूण्र कार्य पर पुन: ध्यान एकाग्र करें। स्वयं से हमेशा पूछें – इस समय मैं किस कार्य को पहले पूरा करूं। पुन: पुन: ध्यान दें। स्लीप लिखकर सामने रक्खें।
7-कार्य न टालें। देर न करें। बहाना न बनायें। अपने प्रति अनुशासित रहें। दसरों के लिए अच्छा उदाहरण बनें।
8-कठिन कार्य पूरा होने पर समग्र चेतना के प्रति अनुग्रहित रहें व स्वयं को बधाई दें।
9-पूरे दिन के कार्य अवधि के मुख्य समय को बढ़ायें।
10-शारीरिक रुप से स्वस्थ रह कर कार्य क्षमता बढ़ायें। जल्दी सोना- जल्दी उठना, नियमित व्यायाम व प्राथना, संतुलित आहार/विहार और आकर्षक व्यक्तित्व – ये सब कार्य में सफलता हेतु आवश्यक हैं।
11-प्रभावकारी संचार हेतु दूसरों की बातें ध्यान से सुनें तथा सकारात्मक प्रतिक्रिया दें। स्पष्ट किन्तु संक्षेप में बात करें। सुनिश्चित करें कि सबके पास सही जानकारी प्र्याप्त विवरण के साथ उपलब्ध है। संशय व संदेह सदैव हानिकारक है व टीम स्प्रीट को नष्ट करता है, अत: संचार में सजग रहें।
12-कार्य को नोट कर, समय सारणी बनाकर तथा अनुसरण कर पूरा करें।
13-प्रतिदिन के अन्त में पूरे दिन के कार्य का आंकलन कर आने वाले कल के कार्य का प्लान/योजना बना लें।
14-समय प्रबन्धन हेतु टीम को प्रोत्साहित व जागरुक करें।
15-कार्य का उत्तरदायित्व सौंपें व जबाबदेही तय करें। कार्य की स्पष्ट रुपरेखा बतायें। आवश्यक संसाधन उपलब्ध करायें। उचित कार्य अवधि तय करें। टीम को उत्साहित रक्खें। बीच-बीच में व्यक्तिगत रुप से सहायता करें – यथासम्भव। कार्य पूर्ण होने पर टीम की प्रशंसा करें।
16-कार्य के दौरान आने वाली समस्याओं के समाधान हेतु सांख्यिकीय पद्धतियों का प्रयोग करें।
जीवन में उत्कृष्टता हेतु : –
1-जीवन में क्या हासिल करना चाहते हैं – प्राथमिकता तय करें।
2-सक्रिय जीवन जीने के लिए निम्न उदेश्यों में संतुलन बनाएं – स्वास्थ, कुशल परिवार, अच्छे सम्बन्ध, आर्थिक सम्पन्नता, आध्यात्मिक उपलब्धि, लगातार विद्या प्राप्ति, मनोरंजन, व्यक्तिगत विकास व व्यवासायिक सफलता।
3-जो सीखना व पाना चाहते हैं उसके लिए अभी से प्रयास शुरु कर दें, पायें व जीवन में खुशियाँ लाएं। वर्तमान में जीयें, संघर्ष करें और खुशियां मनाएं। भविष्य सुधरा मिलेगा ही।
4- समय अनमोल है – अगर योजना-बद्ध तरीके से संघर्ष कर लक्ष्य प्राप्त किया जाए।
समय जीवन का कत्ल कर बरबाद कर देता है – अगर इसे व्यर्थ गवाँ दिया जाए।
5-खाली समय का पहले ही प्लान करके सदुपयोग करें। उत्तम स्वास्थ बनाए रक्खें। नियमित व्यायाम, योग, ध्यान, उपासना करें – इसका आदत व रिवाज बना लें।
6-स्वस्थ शारीरिक/मानसिक जीवन खुशीयों और उपलब्धियों से भरपूर होता है।
7-सकारात्मक दृष्टिकोण से रचनात्मक कार्य करते हुए संघर्ष कर समय का सदुपयोग करें। जीवन में संतुलन, सामंजस्य, समन्वय करना सीखें तथा सुख, शांति, समृद्धि पायें।
8- खुश हो कर कार्य करने से स्वास्थ अच्छा रहता है। योजना-बद्ध होकर हुनर से किया गया कार्य सफल होता है।
9-अकर्मण्यता जीवन को नष्ट करती है।
10-हमेशा ऊँचा उदेश्य रक्खें। यह स्वस्थ, सफल व खुशहाल जीवन की कुंजी है।
11-प्रकृति के साथ रहें। फुल पौधे लगायें व बढ़ायें।
12- नेगेटिव विचारों व बुरे संगति से बचना सीखें।
13- सफल, उर्जावान लोगों के साथ रहें, उनसे जुड़ना / सम्बन्ध बनाना सीखें।
14-भूमण्डल में सुख-दु:ख सबको आता है। दु:ख व विपरीत समय का सामना करने हेतु पहले से ही अपने अन्दर ताकत व हुनर का विकास करें।
15-व्यक्तिगत जीवन में स्वयम के प्रति कठोर रहें, दुष्ट व धुर्त प्रकृति के लोगों से बुद्धिमानी-पुर्वक बचना सीखें। जो व्यर्थ में समय व दिमाग खा जातें हैं उनसे अलग रहने का उपाय करें।
16-अगर कोई विकल्प न हो तो प्रकृति/वातावरण द्वारा दी गई अनचाही परिस्थिति को स्वीकार करें और उससे बाहर निकलने हेतु शान्त चित्त से मनन कर संघर्ष करें व विजय पायें।
17-चापलूसों व मक्कारों को ना कहना सीखें। बेकार उर्जा नष्ट न करें। उर्जा व समय को कल्याणकारी कार्य द्वारा समाज व प्रकृति को वापिस करें।
18-जो वस्तु जहाँ भूलें हैं वहीं ढ़ूढ़ें।
19- समाज व प्रकृति का कर्ज अवश्य चुकायें।
20-सर्वशक्तिमान सत्ता का शुक्रगुजार रहें व प्रार्थना करें।
21-अच्छी पुस्तकें अच्छा दोस्त हैं। महापुरुषों की जीवनी पढ़ें, सीख लें व दृढ़ता से अनुसरण करें।
22-परिवार हेतु समय निकालें। बाहर घूमने निकलें।
23-दिनचर्या सावधानी से बनाएं। स्वयं चुस्त रहें। कपड़े शालीन व व्यक्तित्व को निखारने वाले हों। बाइक, कार, व्यक्तिगत सामान व उपस्करों को चुस्त-दुरुस्त रक्खें। साप्ताहिक अवकाश में इन चीजों को साफ-सुथरा करें।
24-जो वस्तुएं आपके लिए उपयोगी नहीं रहीं उन्हें जरुरतमन्द लोगों को दें।
25-व्यवस्थित बने रहें। अपने चारों ओर का वातावरण स्वच्छ व स्वस्थ रक्खें।
26-दिन भर कार्य के भागा-दौड़ी में न लगे रहें। शान्त चित्त होकर, विचार व मनन के लिए कुछ समय निकालें। अपने व्यवहार, आदत व कार्यो का अवलोकन/निरीक्षण करें। तदानुसार सुधार करें। यह नियमित अवधि पर दोहरायें।
27-आराम के लिए समय निकालें। स्वस्थ मनुष्य को छै घण्टे सोना आवश्यक है।
28-हर चीज का बोझ दिमाग में भर कर न जीयें। संतुलन व सामंजस्य की निति अपनाएं।
समय निकालने के तरीके : –
1-परिवार के सदस्यों को कार्य योजना बताकर उदेश्य प्राप्ति हेतु सहयोग मांगे।
2- कार्यकाल के दौरान टी. वी., फोन, संगीत बन्द रक्खें।
3-पीकनीक, सैर-सपाटे व शोरगुल से बचें।
4-ध्यान दें कि दूसरे किस तरह आपका समय खा जाते हैं।
5- ना कहना सीखें।
6-अपने व अपने समय को महत्व दें।
7-अपनी आदतों का स्वयं आंकलन करें।
8-सर्वोत्तम कार्य करने की आशा में बैठे रहने से बेहतर है कि अच्छे कार्य से ही शुरु किया जाए।
9-वास्तविकता में जिएं। जीवन में छोटी-छोटी कार्यों का भी महत्व है।
10-प्रतिदिन के कार्यों की समीक्षा एक बार अवश्य करें।
11-महत्वपूर्ण व बड़े कार्य में हाथ डालें व यथासम्भव उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट कर कार्य पूरा करें। बड़ों का आशीष व सहयोग मांगे।
12-जल्दी सोयें व जल्दी उठें।
13-दूसरों से उल्झें नहीं – समय बचाएं। नम्र व्यवहार तथा कई बार मौन रह कर भी हम अच्छा जबाब देते हैं।
14-कार्य के समय अपने को खींच कर चुस्त रखें। नियत समय पर आराम करें। ध्यान द्वारा चित्त शान्त व तरोताजा रखें। सकारात्मक सोंच के साथ रचनात्मक कार्यों में संघर्ष कर जीवन का आनन्द उठाएं।
समय बरबाद करने के निम्न कारणों को पहचाने और इनसे बचें : –
स्वयम द्वारा उत्पन्न कारण : —
कार्य टाल कर, बहाना बनाकर, आगे की योजना बनाकर, व्यवस्था को ढ़ीला-ढ़ाला रखकर, जैसे-तैसे जीवन बीताकर, अधिक सुरक्षा के बहाने जोखीम न उठाकर, सर्वोत्तम कार्य ही करेंगे-यह सोच कर।
वातावरण द्वारा उत्पन्न कारण : —
आगन्तुकों द्वारा, टेलीफोन कॉल, ई-मेल, अनावश्यक पीक्चरबाजी/व घूमना-फिरना, अनावश्यक मिटींग, कार्य टालने तथा लापरवाही द्वारा उत्पन्न हुए संकट।
दैनिक आधे घण्टे का समय निकालकर अवश्य करने वाले कार्य :-
पुस्तक पढ़ना, नया हुनर सीखना, बच्चे को पढ़ाना व उससे बातें करना, ग्राहकों/सहयोगियों/कर्मचारीयों से बातें करना, तेज चलना/ दौड़ना, प्रार्थना करना, योग व व्यायाम करना, दैनिक कार्य योजना बनाना / व बदलाव करना, किसी विशेष प्रोजेक्ट पर कार्य करना, रचनात्मक काम करना, अपने विचारों का आंकलन करना, अपने व्यवसाय का अध्ययन करना, स्वस्थ तरीके से किसी दु:खी आदमी को खुश करना, समाज सेवी संस्था हेतु कार्य करना, निर्धन/गरीब/असहाय/बेसहारा लोगों के काम आना।
ये आपकी जीन्दगी बदल देगा।
क्योंकि प्रभू आपके साथ है ।
समाधान :-
गुरु कहें खोल कर भाई, लग शबद अनाहद जाई।
बिन शबदे उपाव न दूजा, काया का छूटे ना कूजा।।
हुजूर स्वामीजी महाराज/राधा स्वामी सतसंग।
सुमिर पवनसुत, पावन नामू ।
अपने बस करि, राखे रामू ॥
अन्न्यचेता शततंयो, माम स्मरति नित्यश्ह ।
तश्याहं शुलभ पार्थ, नित्ययुक्त्श्य योगिनः ।। गीता ।
राम न सकहिं नाम गुन गायी । मानस ।
परमेश्वर है।
परमेश्वर ने शबद/ राम-नाम के द्वारा सृष्टि की रचना की है।
पूरी सृष्टि में केवल मनुष्य ही परमेश्वर को पा सकता है।
मनुष्य को अपने अन्तर में ध्यान को आँखों के पीछे केन्द्रित करके शबद को पकड़ना है और उसी के साथ उपर चढ़ कर परमेश्वर को पा लेना है उसी में लय हो जाना है।
लेकिन इस कार्य में मन बाधक है जो ध्यान को आँखों के पीछे केन्द्रित नहीं होने देता। ऐसा क्यों ?
क्योंकि मन भोग रस का आशिक है, इन्द्रियों के द्वारा भोगों को प्राप्त करता है। सृष्टि के शुरु से ही मन भोग रसों के पीछे पड़ा है और भोग ढूँढते – ढूँढते यह अति चंचल हो गया है। परन्तु किसी भोग से इसे संतुष्टि नहीं मिलती। दस दिन स्त्री से, फिर नाती-पोतों से, फिर धन- दौलत से, फिर जायदाद-सम्पत्ति से, फिर शासन पदवी सत्ता से, फिर मान-बड़ाई शोभा से, फिर बड़े बड़े रियल स्टेट कल कारखानों से, और फिर न जाने दुनिया के किन किन शकल पदारथों और विषय विकारों में इसका प्यार भटकता रहता है।
दुनिया का कोई भी भोग रस इतना जबरदस्त नहीं है जो मन को हमेशा के लिए वश में कर ले। फिर सृष्टि के ब्यवस्थानुसार सबसे बड़ी मुसीबत ये है कि हमारी आत्मा इस अतृप्त भोगी मन के चंगुल में शुरु से फंसी हुयी है और साथ में सब दु:ख झेल रही है। अगर आत्मा इसके चंगुल में न फंसी होती तो सीधे जा कर परमेश्वर से मिल जाती। मन ने आत्मा को बाँध/ कैद कर रक्खा है। जितना भी समझाना बुझाना है सब मन के लिए है। जिस भी दिन ये मन समझ बुझ कर दुनिया के लोभों से हटकर आँखों के पीछे एकाग्र हो गया समझ लीजिए काम बन गया। फिर ये मन आँखों के पीछे शबद को पकड़ कर परमेश्वर की तरफ जाना शुरु कर देगा। शबद या रामनाम से ज्यादा मीठी रसदार और कोई चीज है ही नहीं तथा मन उस रस को पाकर सदा सर्वदा संतुष्ट हो जाता है,समझ में आ जाता है कि इसी की तलाश थी और फिर दुनिया की तरफ पलट कर भी नहीं देखता। मन सिर्फ शबद या रामनाम से ही वश में आता है। गुरुवाणी में लिखा है:-
राम नामु मनि बेधिया अवरु कि करी वीचारु।
सबद सुरति सुखु ऊपजै प्रभु रातउ सुख सारु।।ग्रन्थ साहेब।
जब रामनाम हमारे मन बेध देता है तभी मन आनिन्दत होकर हमेशा के लिए तृप्त होता है। रामनाम का रस महा मीठा है, मन उसे पीकर किसी तरफ नहीं देखता। उसी में मगन होकर पवित्र हो जाता है, दूसरा कोई विचार नहीं उठता। सुरत/ आत्मा जब शबद/रामनाम में मिलती है तो सदा के लिए सुख पाती है।
चुम्बक लोहे प्रीति है, लोहे लेत उठाय।
ऐसा शबद कबीर का, काल से लेत छुड़ाय।।संत कबीर।
जिस प्रकार चुम्बक लोहे से प्रेम करता है अर्थात उसे हमेशा उठा लेता है, उसी तरह संत कबीर का दिया हुआ शबद/ रामनाम की दीक्षा है जो जीव के काल के जाल से छुड़ लेती है। तात्पर्य है कि पूरे समर्थ सतगुरु की कृपा का आश्रय ले कर ही शिष्य का कल्याण होता है। अत: योग्य मार्गदर्शक का सहारा लें।
कैसे जानें अपने को ? :-
भइ परापत मानुख देहूरिया।
गोविन्द मिलन की यह तेरी बरिया।।
अवर काज तेरे किते न काम।
मिल साध संगत भज केवल नाम।। गुरू साहेब ।
किसी भी उदेश्य को पाने के लिए साधन आवश्यक है। हर कार्य में, व्यवसाय में साधन के महत्व पर जोर दिया गया है। साधन की गुणवत्ता उत्तम न रहने पर उदेश्य को पाना सम्भव नहीं है। परमेश्वर को पाने का उदेश्य तो सबसे ऊँचा है, उसे पाने के साधन पर सावधानी से विचार करते हैं। निम्न साधनों की जरुरत है :-
-प्रार्थना एवम प्रभू-कृपा
-मानव शरीर
-सांसारिक व्यवस्था से संतोष एवम तृप्ति
-सतगुरु मिलन
-सुमिरन, ध्यान, भजन,
-प्रेम, भक्ति और पूर्ण समर्पण
(सतगुरु साधन और साध्य दोनों हैं)
उपरोक्त बिन्दुओं पर ध्यान देंगे। सर्वप्रथम तो प्रभू-कृपा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं। उसकी दया से मानव शरीर मिलता है और समर्थ सतगुरु से मुलाकात होती है। परमेश्वर दाता है, हम उसके सन्तान। वह हमारे हृदय के अन्दर है, नजदीक से नजदीक है। जब तक हम उसकी रचना में खुश हैं तब तक वह हमें इसमें मगन रहने देता है। गीता में कृष्ण भगवान कहते हैं –
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्येशेअर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यँत्रारुढ़ानि मायया।। गीता-18/61
(हे अर्जुन शरीर रुपी यन्त्र में आरुढ़ हुए सभी जीवों को अन्तरयामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मो के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।)
बाइबिल में लिखा है शरीर जीवित प्रभु का मंदिर है :-
–क्या तुम नहीं जानते कि तुम परमात्मा का मिन्दर हो और परमात्मा का शब्द तुम्हारे अन्दर निवास करता है।(कुरथियन 13:16)
–क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारा शरीर होली घोस्ट या नाम का मन्दिर है जो तुममें बसा हुआ है, जो तुम्हें परमात्मा से मिला है और तुम खुद अपने नहीं हो। (वही 6:19)
–और परमेश्वर के मन्दिर का मूर्तियों से क्या मुकाबला है ? क्योंकि तुम जीवित प्रभु का मंदिर हो, जैसा खुदा ने कहा है कि मैं उनमें रहूँगा, उनमें चला-फिरा करूँगा, मैं उनका खुदा होऊँगा, और वे मेरे लोग होंगे। (वही 6:16)
जब रचना के कष्टों से दु:खी होकर जीव, पिता को प्रेम/बिरह से बुलाता है तो पिता भी उसे अचल सुख देने के लिए, अपने पास वापिस बुलाने का इन्तजाम करता है।पिता परमेश्वर की कृपा से परम धाम मिलता है।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम।। गीता-18/62
( हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।)
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यादगुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।। गीता-18/63
( इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचारकर, जैसे चाहता है वैसे ही कर।)
मानव शरीर में सब कुछ है -पूरी सृष्टि और सृष्टिकर्ता। संत कबीर कहते हैं –
अवधु अन्धाधुन्ध अंधियारा,
कोई जानेगा जानन हारा।।
या घट भीतर बन अरु बस्ती, याही में झाँड़-पहारा।।
या घट भीतर बाग बगीचा, याही में सींचन हारा।।
या घट भीतर सोना चाँदी, याही में लगा बजारा।।
या घट भीतर हीरा मोती, याही में परखन हारा।।
या घट भीतर सात समुन्दर,याही में नदीया नारा।।
या घट भीतर सूरज चन्दा, याही में नौलख तारा।।
या घट भीतर बिजली चमके, याही में होय उजियारा।।
या घट भीतर अनहद गरजे, बरसे अमृत धारा।।
या घट भीतर देवी देवा, याही में ठाकुर द्वारा।।
या घट भीतर काशी मथुरा,याही में गढ़ गिरनारा।।
या घट भीतर ब्रह्मा विष्णु, शिव सनकादि अपारा।।
या घट भीतर आप लेत हैं, राम कृष्ण अवतारा।।
या घट भीतर कामधेनु है, कल्पबृक्ष इक न्यारा।।
या घट भीतर ऋद्धि सिद्धि के, भरे अटल भण्डारा।।
या घट भीतर तीन लोक हैं, याही में हैं करतारा।।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, याही में गुरु हमारा।।
वैसे तो आँखें बन्द करने पर शरीर में अन्धेरा ही दिखता है पर साधना के द्वारा जो कोई इसके अन्दर जाता है उसे इसमें नगर, बस्ती, जंगल, पहाड़, बाग-बगीचा और उसे सींचने वाला भी मिलता है। मानव देह में सोना,चाँदी, हीरा, मोती, जवाहिरात,रत्नों का बाजार लगा है और इसी में इनको परखने वाला भी है। इसमें सातों समुद्र, नदी-नाले, सूर्य, चन्द्रमा, सभी ग्रह, और तारे हैं। इसमें बिजलीयाँ चमकती हैं, प्रकाश ही प्रकाश है, अनहद नाद बज रहा है और अमृत की वर्षा हो रही है। मनुष्य शरीर में सभी देवी- देवता, और ठाकुरद्वारा है, मथुरा-काशी- गढ़ गिरनार आदि सब तीर्थ है। इसमें ब्रह्मा, बिष्णु, महेश, सनक आदि संत महात्मा हैं और यहीं राम तथा कृष्ण अवतार लेते हैं। कामधेनु, कल्पबृक्ष और ऋद्धि सिद्धि के अखूट भण्डार भरे पड़े हैं इस शरीर में। विस्तृत वर्णन कर संत कबीर कहते हैं कि इस शरीर में तीनों लोक हैं और इसके रचयिता परमेश्वर भी हैं। फिर साधकों के लिए सबसे बड़ा रहस्य खोलते हैं कि याही में गुरु हमारा। मेरा गाइड/ कोच/ समर्थ गुरु भी सदा-सर्वदा मेरे शरीर में ही विराजमान है, सदैव अंग-संग रह कर प्रति पल, प्रति क्षण मेरी देखभाल कर रहा है, मुझे संभाल रहा है।
समर्थ गुरु हमेशा शिष्य के साथ रहते हैं। एक बार शिष्य को अपना लेने के बाद गुरु उसे कभी नहीं छोड़ते, पर शिष्य को लाभ तभी मिलता है जब वह गुरु को अपना अहम/अस्तित्व न्यौछावर करके उसके प्रेम में सदा के लिए लीन हो जाय। ये अत्यन्त कठिन पर गुरु-चरणों की कृपा से सम्भव है। गुरु सर्व समरथ हैं। उनकी दया से शिष्य को सांसारिक व्यवस्था में संतोष एवम तृप्ति मिलती है -घर, परिवार, समाज, बिजनेस, आफिस के कार्यो में जथा लाभ तथा संतोषा वाली स्थिति धीरे-धीरे आने लगती है। उसी अनुपात में शिष्य का मन भी सुमिरन, ध्यान, भजन में लगता है। अन्तर में आकर्षण व रस आने लगता है, अनुभव के आधार पर विश्वास पक्का होता है।
प्रेम, भक्ति और पूर्ण समर्पण इस रास्ते के अकाट्य साधन हैं। प्रेम की महिमा अकथ व विलक्षण है। बाइबिल में कहा है :-
– जो प्रेम नहीं करता, वह परमात्मा को नहीं जानता, क्योंकि प्रेम ही परमात्मा है।
(जॉन 4:8)
– और हमने प्रेम को जाना है और उस प्रेम में विश्वास किया है, जो परमात्मा का हमारे साथ है। प्रेम परमात्मा है। जो प्रेम में डूबा हुआ है वह परमात्मा में समाया हुआ है, और परमात्मा उसमें समाया हुआ है।(जॉन 4:16)
प्रेम में सब कुछ है। प्रेम भक्ति का फल है। सुमिरन, ध्यान और भजन ही वह साधन (क्रियायें ) हैं जिससे प्रभू की भक्ति की जाती है। ऐसी भक्ति प्रभू को प्रिय है।
पापीउ जाकर नाम सुमिरहीं।
अति अपार भवसागर तरहीं।। मानस।
पापी लोग भी प्रभु के पावन नाम का सुमिरन करके इस अति अपार भवसागर को तर जाते हैं।
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।
भए नाम जपि जीव बिसोका।। मानस।
चारों युगों में, तीनों लोकों में और तीनों काल में राम नाम/ प्रभु नाम का जप करके सभी जीव सुखी हुए। नाम जप तथा तत्वदर्शी महापुरुष के चरणों के घ्यान द्वारा पूर्णत्व प्राप्त किया जा सकता है।
मानस के उत्तर-काण्ड में काक भुशुण्डि जी ने गरुड़ जी का मोह भंग करते हुए ज्ञान मार्ग व भक्ति मार्ग का सुन्दर और स्पष्ट वर्णन किया है। कहते हैं – प्रभु भक्ति सरल व सहज है। इसमें बिना कठिनाइ के ही प्रभु मिल जाते हैं। ज्ञान मार्ग में दीपक व भक्ति मार्ग में मणि का उदाहरण देते हैं। जैसे दीपक हल्के वायु से भी बुझ जाता है, चारों तरफ से ओट करना है, दीया/तेल/बाती की आवश्यकता है वैसे ही ज्ञान मार्ग में अपने दम पर साधना करने में बाधायें व दीपक बुझने के खतरे हैं। जबकि भक्ति मार्ग को मणि जैसा सुरक्षित बताते हैं।
राम भक्ति चिंतामणि सुन्दर। बसहिं गरूड़ जाके उर अन्तर।।मानस।
जिसके अन्तर / हृदय में प्रभू की भक्ति है, वहाँ भक्ति के प्रताप से आत्मस्वरुप मणि का प्रकाश हमेशा होता रहता है। जड़ और चेतन की गाँठ खुल जाती है। चैतन्य स्वरुप/ प्रकाशमान आत्मा तो स्वयमप्रभा है जिसका परिचय देने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि अपने-आप दैदीप्यमान है।
दीव जले अगम का, बीन बाती बीन तेल। संत कबीर।
आगे पलटू साहेब भी वही कहते हैं –
उल्टा कुवाँ गगन में, तिसमें जरे चिराग।
तिसमें जरे चिराग, बरे बिन रोगन बिन बाती।। संत पलटू।
प्रैम व भक्ति वह अचल/अटूट किला है जिसमें आत्मा का प्रकाश बेखटक होता है माण के तरह। इसे सांसारिक बिषय/इच्छाओं का बयार बुझा नहीं पाता।
इस स्तर पर पहुँच कर साधक की आत्मा तृप्त हो जाती है, मन/ माया/ संसार का आकर्षण और राग स्वयं समाप्त हो जाता है। प्रभू से लगन लग जाता है।
ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन।
लेकिन यहाँ पहुँचने के पहले सुमिरन/भजन/घ्यान की उच्च पराकाष्ठा को प्रेम/ भक्ति/समर्पण के साधन द्वारा प्राप्त करना है।
इस रास्ते पर साधना के शुरुआती दौर में बहुधा साधक को विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर ने उसे अनमोल मानव शरीर दिया है, और इस बेजोड़ साधन का लाभ उठाना है। इसी के परिपेक्ष्य में कबीर साहेब की यह वाणी दी जा रही है, जो अपने-आप में विलक्षण है। क्योंकि साधना के विविध आयाम में अधिकतर साधक अहंकार के झांसे में आकर अपने-आप को दूसरों सें श्रेष्ठ समझने का भयंकर भूल कर बैठते हैं, जो बाद में उनके अवनति का काण बनती है। इस पद में शरीर के अन्दर विभिन्न चक्रों का स्पष्ट वर्णन है, जिससे साधक को अपनी साधना की चढ़ाई का अनुमान लग जाता है। परम पिता परमेश्वर सबके अन्दर एक समान है, जैसा संत मलूक दास कहते हैं, पर उसके पास पहुँचने से पहले बहुत सारी सीढ़ीयों को पार करना है।
सब घट मेरा साइंयां, सूनी घट ना कोय।
बलीहारी वा घट की, जा घट परगट होय।। संत मलूक दास।
संत कबीर तो वैसे भी अपनी स्पष्ट व निर्भीक वाणी के लिए प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि ए मनुष्य ! तू अपने ज्ञान रुपी चक्षुओं से देख (दीदार कर), तेरे मानव महल में तेरा प्यारा परमेश्वर विराजमान है। तू किस गफलत और धेखे में पड़ा है।
कर नैनों दीदार महल में प्यारा है।।
काम क्रोध मद लोभ बिसारो,सील संतोष छिमा सत धारो।
मद्य मांस मिथ्या तज डारो,हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है।-1
धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ।
कुभंक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है।-2
मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो।
देव गनेश तहं रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढ़ुलारा है।-3
स्वाद चक्र षटदल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रुप निहारो।
उलटि नागिनी का शिर मारो, तहां शबद ओंकारा है।-4
नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिष्नु बिराजा।
हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी शिव आधारा है।-5
द्वादश कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर शिव ध्यान लगाई।
सोहं शबद तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है।-6
षोडश दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई।
हरि हर ब्रह्मा चँवर ढ़ुलाई, जहं शरिंग नाम उचारा है।-7
ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौंरा दुइ रुप लखाई।
निज मन करत तहां ठकुराई, सो नैनन पिछवारा है।-8
कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा।
सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचाँरा है।-9
आंख कान मुख बन्द कराओ, अनहद झिंगा शब्द सुनाओ।
दोनों तिल इकतार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।-10
चंद सूर एकै घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ।
तिरबेनी के संघ समाओ, भोर उतर चल पारा है।-11
घंटा शंख सुनो धुन दोई, सहस कँवल दल जगमग होई।
ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धंस पारा है।-12
डांकिन सांकिनी बहु किलकारें, जम किंकर धर्मदूत हंकारें।
सतनाम सुन भागें सारे, जब सतगुरु नाम उचारा है।-13
गगन मंडल विच उर्धमुख कुइंआं, गुरुमुख साधू भर भर पिया।
निगुरे प्यास मरे बिन कीया, जा के हिये अंधियारा है।-14
त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजें बजे नगारा।
लाल बरन सूरज उजियारा, चतुर कँवल मंझार शब्द ओंकारा है।-15
साध सोई जिन यह गढ़ लीना, नौ दरवाजे परगट चीन्हा।
दसवां खोल जाय जिन दीन्हा, जहां कुफुल रहा मारा है।-16
आगे सेत सुन्न है भाई , मान सरोवर पैठि अन्हाई।
हंसन मिल हंसा होइ जाई, मिलै जो अमी अहारा है।-17
किंगरी सारंग बजै सितारा, अच्छर ब्रह्म सुन्न दरबारा।
द्वादस भानु हंस उजियारा, खटदल कँवल मंझार शब्द ररंकारा है।-18
महासुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुरु पावै नहिं बाटी।
ब्याघर सिंह सरप बहु काटी, तहं सहज अचिंत पसारा है।-19
अष्ट दल कंवल पारब्रह्म भाई, दाहिने द्वादस अचिंत रहाई।
बायें दस दल सहज समाई, यूं कंवलन निरवारा है।-20
पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो, पांच ब्रह्म नि:अक्षर चीन्हो।
चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है।-21
दो पर्वत के संध निहारो, भंवर गुफा ते संत पुकारो।
हंसा करते केल अपारो, तहां गुरन दरबारा है।-22
सहस अठासी द्वीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये।
मुरली बजत अखंड सदाये, तहं सोहं झुनकारा है।-23
सोहं हद्द तजी जब भाई, सतलोक की हद पुनि आई।
उठत सुगंध महा अधिकाई, जा को वार न पारा है।-24
षोड़स भानु हंस को रुपा, बीना सत धुन बजै अनूपा।
हंसा करत चंवर सिर भूपा, सत्त पुरुष दरबारा है।-25
कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई।
पुरुष रोम स…
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