Saturday, 24 February 2018

सहज समाधि

All World Gayatri Pariwar 🔍 PAGE TITLES April 1946 सहज समाधि महात्मा कबीर का वचन- साधो! सहज समाधि भली। गुरु प्रताप भयो जा दिन से सुरति न अनंत चली॥ आँखन मूँदूँ कानन रुँदूँ, काया कष्ट न धारुँ। खुले नयन से हँस-हँस देखूँ सुन्दर रुप निहारुँ॥ कहूँ सोई नाम, सुनूँ सोई सुमिरन, खाउँ पीउँ सोई पूजा गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाउँ दूजा॥ जहाँ-2 जाऊँ सोई परिक्रमा जो कछु करूं सो सेवा। जब सोउँ तब करूं दंडवत, पूजूँ और न देवा॥ शब्द निरंतर मनुआ राता, मलिन बासना त्यागी। बैठत उठत कबहूँ न विसरै, ऐसी ताड़ी लागी॥ कहै कबीर यह उन मनि रहनी सोई प्रकट कर गाई। दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई॥ उपरोक्त पद में सद्गुरु कबीर ने सहज समाधि की स्थिति का स्पष्टीकरण किया है यह समाधि सहज है- सर्व सुलभ है- सर्व साधारण की साधना शक्ति के भीतर है, इसीलिए उसे ‘सहज-समाधि’ का नाम दिया गया है। हठ योग, राज योग, लय योग, नाद योग, बिन्दु योग, आदि की साधना से कठिन है, उनका अभ्यास करते हुए समाधि की स्थिति तक पहुँचना असाधारण कष्ट साध्य है। चिरकालीन तपश्चर्या, षट्कर्मों के श्रम साध्य साधन सब किसी के लिए सुलभ नहीं हैं। अनुभवी गुरु के सम्मुख रहकर विशेष सावधानी के साथ वे क्रियाएं साधनी पड़ती हैं फिर यदि उनका साधन खंडित हो जाय तो वे संकट भी सामने आ सकते हैं जो योग भ्रष्ट लोगों के सामने कभी-कभी भयंकर रूप से आ खड़े होते हैं। कबीर जी सहज योग को प्रधानता देते हैं। सहज योग का तात्पर्य है- सिद्धान्त मय जीवन, कर्त्तव्य पूर्ण कार्यक्रम। इन्द्रिय भोगों, पाशविक वृत्तियों एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह की तुच्छ इच्छाओं से प्रेरित होकर आमतौर से लोग अपना कार्य-क्रम निर्धारित करते हैं। 1.संपत्ति संचय, 2. अहंकार की पूर्ति, 3. मनोरंजन, 4. काम सेवन, 5. रुचिकर आदर विहार, 6. ममत्व का पोषण, 7. परिग्रह की तृष्णा। इन सात इच्छाओं की आधार धुरी पर घूमने वाले जीवन ‘भोगी जीवन’ है। जो इस छोटी सीमा में ही घिरे रहते हैं, इसी घेरे में अपने विचार और कार्यों को सीमित रखते हैं वे बन्धन ग्रस्त हैं, माया पाश में बँधें हुए हैं। योगी लोग इस क्षुद्र सीमा का उल्लंघन करके आगे बढ़ते हैं, वे इस बचपन से ऊँचे उठकर अध्यात्मिक यौवन की सीमा में पदार्पण करते हैं। भोगमयी क्षुद्रता को योगी लोग उल्लंघन करते हैं इसलिए उन्हें जीवन मुक्त कहते हैं। योगियों का जीवन आदर्शमय होता है, अथवा यों कहना चाहिए कि जिनका जीवन सिद्धान्त मय-आदर्शमय है वे योगी हैं। जो वासना एवं तृष्णा से प्रेरणा ग्रहण नहीं करते, जिन्होंने तुच्छ स्वार्थों को महत्व देना छोड़ दिया है और आदर्शों की, सिद्धान्तों की स्थिरता के ऊपर खड़े होकर जीवन की गति-विधि को चलाते हैं वे योगी हैं। योग की आधार शिला यही है। अब आगे के साधन, अभ्यास, स्थूल, भिन्न-भिन्न हैं उनकी कार्य प्रणाली पृथक-पृथक है। इस पृथकता और भिन्नता के होते हुए भी मूल तथ्य सभी साधनाओं के अंतर्गत एक ही है। सहज योग, असंख्य प्रकार की योग साधनाओं में से एक है। इसकी विशेषता यह है कि साधारण रीति से साँसारिक कार्य करते हुए भी साधना क्रम चलता रहता है। इसी बात को यों भी कहना चाहिए कि दैनिक जीवन के समान साँसारिक काम ही साधना भय बन जाते हैं। सहज योगी अपने दिन भर के कार्यों को कर्त्तव्य, यज्ञ, धर्म, ईश्वरीय आज्ञा पालन की दृष्टि से करता है। भोजन करने में उसकी भावना रहती है कि प्रभु की एक पवित्र धरोहर शरीर को यथावत रखने के लिए भोजन किया जा रहा है। खाद्य पदार्थों का चुनाव करते समय शरीर की स्वस्थता उसका ध्येय रहता है, स्वादों के चटोरेपन के बारे में वह सोचता तक नहीं। कुटुम्ब का पालन पोषण करते समय वह परमात्मा की एक सुरम्य वाटिका का माली की भाँति सिंचन, संवर्धन का ध्यान रखता है, कुटुम्बियों को अपनी सम्पत्ति नहीं मानता। जीविकोपार्जन को ईश्वर प्रदत्त आवश्यकताओं की पूर्ति का एक पुनीत साधन मात्र समझता है, अमीर बनने के लिए जैसे भी बने वैसे धन संग्रह करने की तृष्णा उसे नहीं होती। बात चीत करना, चलना फिरना, खाना, पीना, सोना, जागना, जीविकोपार्जन, प्रेम, द्वेष आदि सभी कार्यों को करने से पूर्व परमार्थ को, कर्त्तव्य को, धर्म को, प्रधानता देते हुए करने से वे समस्त साधारण काम काज यज्ञ रूप हो जाते हैं। जब हर काम के मूल में कर्त्तव्य भाव को प्रधानता रहेगी तो उन कार्यों में पुण्य प्रमुख रहेगा। सद्बुद्धि से सद्भाव से किये हुए कार्यों द्वारा अपने आपको और दूसरों को सुख शान्ति ही प्राप्त होती है। ऐसे सत्कार्य मुक्ति प्रद होते हैं, बन्धन नहीं करते। सात्विकता सद्भावना और लोक सेवा की पवित्र आकाँक्षा के साथ जीवन संचालन करने पर कुछ दिन में वह नीति एवं कार्य प्रणाली पूर्ण तथा अभ्यस्त ही जाती है और जो चीज अभ्यास से आ जाती हैं वह प्रिय लगने लगती हैं, उसमें रस आने लगता है। बुरे स्वाद की, खर्चीली, प्रत्यक्ष हानिकारक, दुष्प्राप्य, नशीली चीजें- मदिरा, अफीम, तम्बाकू आदि चीजें जब कुछ दिन के प्रयोग के बाद प्रिय लगने लगती हैं और उन्हें बहुत कष्ट उठाते हुए भी छोड़ते नहीं बनता। जब तामसी तत्व कालान्तर के अभ्यास से इतने प्राणप्रिय हो जाते हैं तो कोई कारण नहीं कि सात्विक तत्व उससे अधिक प्रिय न हो सकें। सात्विक सिद्धान्तों को जीवन का आधार बना लेने से, उन्हीं के अनुसार विचार और कार्य करने से आत्मा को सत् तत्व में स्मरण करने का अभ्यास पड़ जाता है, यह अभ्यास जैसे-जैसे परिपक्व होता जाता है वैसे-वैसे सहज योग का रसास्वादन होने लगता है, उसमें आनन्द आने लगता है। जब अधिक दृढ़ता, श्रद्धा, विश्वास, उत्साह एवं साहस के साथ सत् परायणता में, सिद्धान्त संचालित जीवन में परायण रहता है तो वह उसकी स्थायी वृत्ति बन जाती है, उसे उसी में तन्मयता रहती है एक दिव्य आवेश सा छाया रहता है, उसकी मस्ती, प्रसन्नता, संतुष्टता असाधारण होती है। इस स्थिति के सहज योग को समाधि या ‘सहज समाधि’ कहा जाता है। कबीर ने उसी समाधि का उपरोक्त पद में उल्लेख किया है। वे कहते हैं- ‘हे साधुओं! सहज समाधि श्रेष्ठ है। जिस दिन से गुरु की कृपा हुई है यह स्थिति प्राप्त हुई है उस दिन से सुरति दूसरी जगह नहीं गई- चित्त डामा डोल नहीं हुआ। मैं कान मूँद कर, कान रुँध कर, कोई हठयोग की काया कष्टदायिनी साधना नहीं करता। मैं तो आँखें खोले रहता हूँ और हँस-हँस कर परमात्मा की पुनीत कृति का सुन्दर रूप देखता हूँ। जो कहता हूँ सो नाम जप है। जो सुनता हूँ सो सुमिरन है, जो खाता-पीता हूँ सो पूजा है। घर और जंगल एक सा देखता हूँ, और द्वैत का भाव मिटाता हूँ। जहाँ-जहाँ जाता हूँ, सोई परमात्मा है और जो कुछ करता हूँ सो सेवा है। जब सोता हूँ तो वहीं मेरा दंडवत है। मैं एक को छोड़ कर अन्य देव को नहीं पूजता। मन मलिन वासना छोड़ कर निरन्तर शब्द में, अन्त करण की ईश्वरीय वाणी सुनने में रत रहता है। ऐसी तारी लगी है- निष्ठा जमी है कि उठते बैठते वह कभी नहीं बिसरती। कबीर कहते हैं कि मेरी यह उन मानी-हर्ष शोक से रहित-स्थिति है जिसे प्रकट करके गाया है। दुख सुख से परे जो एक परम सुख है उसमें समा रहा हूँ।” यह सहज समाधि उन्हें प्राप्त होती है जो “शब्द में रत” रहते हैं। भोग एवं तृष्णा की शुद्र वृत्तियों का पर त्याग करके जो अन्तःकरण में प्रतिक्षण ध्वनित होने वाले ईश्वरीय शब्दों को सुनते हैं-सत्य की दिशा में ही चलने की ओर दैवी संकेतों को देखते हैं-और उन्हीं को जीवन नीति बनाते हैं वे ‘शब्द रत’ सहज योगी उस परम आनन्द से सहज समाधि सुख को प्राप्त होते हैं। चूँकि उनका उद्देश्य ऊंचा रहता है, दैवी प्रेरणा पर निर्भरता रहती है इसलिए उनके समस्त कार्य पुण्य रूप साधना रूप, बन जाते हैं। जैसे खाँड़ से बना हुआ खिलौना आकृति में कैसे ही क्यों न हो, होंगे मीठे ही। इसी प्रकार सद्भावना और उद्देश्य परायणता के साथ किये हुए काम बाह्य आकृति में कैसे ही क्यों न दिखाई देते हों, होंगे वे यज्ञ रूप ही, पुण्यमय ही, सत्य परायण व्यक्तियों के सम्पूर्ण कार्य-छोटे से छोटे कार्य-यहाँ तक कि चलना, सोना, खाना देखना तक ईश्वर आराधना बन जाते हैं। स्वल्प प्रयास में समाधि का शाश्वत सुख उपलब्ध करने की इच्छा रखने वाले अध्यात्म मार्ग के पथिकों को चाहिए कि वे जीवन दृष्टिकोण उच्च उद्देश्यों पर अवलम्बित करें। दैनिक कार्यक्रम का सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्णय करें। भोग से ऊंचे उठकर योग में आस्था आरोपण करें। इस दिशा में जो जितनी-जितनी प्रगति करेगा उसे उतने ही अंशों में समाधि में लोकोत्तर सुख का रसास्वादन होता चलेगा। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months January February March April May June July September October November December  अखंड ज्योति कहानियाँ भाग्यवाद का सिद्धान्त निरर्थक (kahani) प्रेरणा का प्रकाश (kahani) अपने भीतर सुख की खोज प्रखरता की सर्वमान्य (Kahani) See More 23_Feb_2018_2_7228.jpg More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era. Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages

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