Friday, 23 February 2018
(2) प्रस्तुत पधांश में कवि ने संत के लक्षणों का वर्णन किया है।
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SM-1
1 (क) हिन्दी कविता विषय-सूची
1.3 3. गोस्वामी तुलसीदास
3. गोस्वामी तुलसीदास
-डा. प्रेमलता भसीन
एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग,
मुक्त शिक्षा विधालय
तुलसीदास हिन्दी साहित्य की रामभकित परंपरा के सशक्त आधार स्तंभ हैं। तुलसी से पहले और बाद में भी हिन्दी साहित्य में रामभकित काव्य की परंपरा मिलती है, किंतु रामभकित को जन-जन में प्रसारित करने और राम के नाम को भकित-क्षेत्रा में सर्वोपरि स्थान दिलाने में तुलसीदास का महत्तम योगदान है। सामाजिक दृषिट से उनका महत्त्व इस दृषिट से और भी बढ़ जाता है कि उन्होंने न केवल रामभकित को अपनी कविता का उíेश्य बनाया अपितु समसामयिक राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिसिथतियों के अनुरूप राम के आदर्श चरित्रा का जो रूप प्रस्तुत किया, उससे उन्हें व्यापक लोक मान्यता प्राप्त हुर्इ।
तुलसी के युग में धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक मूल्य अपना महत्त्व खो चुके थे। समाज उच्चवर्ग और निम्नवर्ग की दो गहरी खाइयों में बंटा हुआ था। उच्च सामंतवर्ग जहाँ एक ओर वैभव विलासपूर्ण जीवन में लिप्त था, तो गरीब वर्ग जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं से भी वंचित था। तुलसी के काव्य में उपलब्ध 'खेती न किसान को, बनिक को बनिज न, भिखारी को न भीख भलि, चाकर को चाकरी जैसी पंकितयाँ उनके युग के समाज की दयनीय दशा की ओर संकेत करती हैं। धन के मद में डूबे शासक-वर्ग को शोषित एवं संत्रास्त जन-समाज की कोर्इ चिंता नहीं थी। अत्याचारी शासकों के शासन में जनता स्वयं को असुरक्षित अनुभव कर रही थी।
सामाजिक क्षेत्रा में वर्ण-व्यवस्था का बोलबाला था। ऊँच-नीच का भेदभाव समाज को खोखला बना रहा था। पारिवारिक जीवन विÜाृंखलित हो रहा था और स्त्राी पूर्णत: पुरुष पर आश्रित थी, जिसकी स्वयं की कोर्इ आवाज़ और अèािकार नहीं थे। विजेता मुगल शासकों के आगमन के कारण धार्मिक क्षेत्रा में भी दोनों धमो± और संस्Ñतियों में सीधी टक्कर हुर्इ। काफिरों को मारना, मंदिर और मूर्तियों का विध्वंस करके दूसरे धर्म की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना और अपने धर्म का अंधाधुंध प्रचार इस विदेशी संस्Ñति का मूल उíेश्य था।
अपने युगीन समाज की चहुँमुखी दुर्दशा केा देखकर तुलसी का विक्षुब्ध मन इन सभी विÑतियों को दूर करने के लिए व्याकुल हो उठा। उन्होंने अनुभव किया कि राम के आदर्श स्वरूप को जन-जन में पहुँचाए बिना समाज का उत्थान नहीं हो सकता। सगुण भकित, राम के रूप में सभी सामाजिक संबंधों का आदर्श और आदर्श शासक के उनके सभी स्वप्न 'रामचरितमानस में प्रतिफलित हुए।
'मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान कहुँ एक।
पालहि पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित बिबेक।
जैसे तुलसी के आदर्श राज्यत्व-संबंधी विचार तत्कालीन युग के संदर्भ में ही नहीं अपितु प्रत्येक युग के संदर्भ में ग्राá हैं।
कवि परिचय
मध्यकाल के अन्य अनेक कवियों की भाँति तुलसीदास के जन्म-समय, जन्म-स्थान आदि से संबद्ध जानकारियाँ प्राय: अधूरी एवं विवादास्पद हैं। विद्वानों के एक वर्ग के अनुसार तुलसीदास का जन्म-संवत 1554 है तो दूसरे वर्ग के अनुसार उनका जन्म संवत 1583 में हुआ। इन मतभेदों के बीच जो प्राय: स्वीÑत मत उभरता है, उसके अनुसार तुलसी का जन्म संवत 1589 में हुआ। तुलसी के जन्मस्थान के संबंध में भी राजापुर और सोरों, इन दो स्थानों का नाम लिया जाता है। इनमें राजापुर संबंधी मत अधिक मान्य हैं। तुलसी के पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था। ऐसा कहा जाता है कि अभुक्तमूल नक्षत्रा में उत्पन्न होने के कारण माता-पिता ने अमंगलकारी समझकर इनका त्याग कर दिया। माता-पिता विहीन इस बालक का बचपन बड़े कष्ट में बीता। बालपन में सोरोें में इनकी भेंट स्वामी नरहर्यानन्द से हुर्इ, जिन्होंने गुरु रूप में इन्हें राम-कथा का ज्ञान दिया। तुलसीदास की निम्नलिखित पंकितयाँ उनके गुरु की ओर संकेत करती हैं-
बंदौ गुरुपद कंज, Ñपा सिंधु नर रूप हरि।
महामोह तुम पुंज, जासु बचन, रबि निकर कर।
मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सूकर खेत।
समुझी नहीं तसि बालपन, तब अति रहेउँ अचेत।
तुलसीदास का विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्राी रत्नावली से हुआ। इसी ने अति आसक्त तुलसी की भत्र्सना करके सांसारिक मोह की अपेक्षा रामभकित के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। इसी कारण तुलसी सामान्य तुलसी न रहकर रामभक्त हो गये। आजीवन रामभकित में लीन इस कवि का देहावसान संवत 1680 में हुआ।
साहितियक परिचय
तुलसीदास के संपूर्ण काव्य का मूल विषय रामकथा है। उन्होंने ऐतिहासिक-पौराणिक रामकथा को अपनी भकित भावना से पुष्ट करके अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है। वैसे तो तुलसी के नाम से अनेक पुस्तकें प्राप्त होती हैं, जिनकी संख्या 36 तक गिनार्इ जाती है किंतु अब तक की खोजों के आधार पर तुलसी की रचनाओं की सर्वमान्य संख्या 13 है। इनमें भी रचनाओं के कालक्रम पर मतभेद हैं कि कौन-सी रचना पहले की है और कौन-सी बाद की। कवि की सर्वसम्मत रचनाएँ इस प्रकार हैंµरामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली, श्रीÑष्णगीतावली, जानकी-मंगल, पार्वती-मंगल, रामललानहछू, बरवै रामायण, वैराग्य-संदीपनी, रामाज्ञा प्रश्न और हनुमान बाहुक।
तुलसीदास की लोकप्रियता का प्रमुख आधार स्तंभ 'रामचरितमानस है। एक विदेशी विद्वान डा. गि्रयर्सन के अनुसार यह हिन्दुओं का बाइबिल है। यह काव्य कवि के व्यकितगत और विचारधारा का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है। यही एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें निरुपित शाश्वत जीवन मूल्य और उदात्त आदर्श इसे विश्व वा³मय का महत्त्वपूर्ण अंश बना देते हैं। इसमें तुलसीदास ने किसी एक सीमित वर्ग के जीवन का चित्राांकन नहीं किया अपितु जनजीवन की आशा-आकांक्षाएँ भी इसमें प्रतिफलित हुर्इ हैं। इसमें तुलसी ने विष्णु के अवतार राम के जीवन की समस्त घटनाओं को इस रूप में प्रस्तुत किया है कि उनके माध्यम से जीवन के प्रत्येक पक्ष का आदर्शमय रूप पाठक को गहरार्इ तक प्रभावित करता है। उन्होंने राम के रूप में आदर्श और मर्यादा का जो प्रतिमान स्थापित किया है, वहीं 'रामचरितमानस को समाज के प्रत्येक वर्ग में समादर दिलाने में समर्थ हुआ है।
भकित और दर्शन की दृषिट से भी 'रामचरितमानस एक उत्Ñष्ट ग्रंथ है। तुलसी ने अपने युग में प्रचलित सभी भकित मागो± और दार्शनिक संप्रदायों के गुणों का ग्रहण और अवगुणों का परिहार करके एक समन्वयवादी विचारधारा को अपनाया, जिसने निर्गुण और सगुण ब्रह्रा को एकाकार कर दिया-
अगुन सगुन दुइ ब्रह्रा सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपाÏ
एक दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जग ब्रह्रा बिबेकू Ï
काव्य-सौष्ठव की दृषिट से भी 'रामचरितमानस उत्Ñष्ट कोटि का काव्य है। उसकी रचना का उíेश्य अथवा काव्यादर्श स्वयं कवि के शब्दों में इस प्रकार है-
कीरति भनिति भूति भलि सोर्इ। सुरसरि सम सब कहुँ हित होर्इ Ï
अपनी रचनाओं में लोकहित की मान्यता को स्वीÑति देते हुए भी काव्य का सौंदर्य-पक्ष 'मानस में उपेक्षित नहीं रहा। इस प्रबंध काव्य की वक्ता-श्रोता शैली इसे विशिष्टता प्रदान करती है। इस काव्य में वर्णित मार्मिक स्थल, भावों और रसों की सुंदर व्यंजना, अलंकारों और छंदों का सहज प्रयोग, सहज-सरल भाषा इसे उत्तम काव्य की कोटि में सिथत करतेहैं।
'विनयपत्रिका मूलत: तुलसी का आत्मनिवेदनपरक गं्रथ है। इसे कवि की अंतिम रचना कहा जाता है, जिसमें समय-समय पर लिखित 279 पद संकलित हैं। तुलसी के जीवन का अंतिम समय शारीरिक रुग्णता और कष्टा का समय था। 'विनयपत्रिका के पदों के माध्यम से कवि ने अपने इष्ट का ध्यान इन्हीं दु:खों की ओर आÑष्ट किया है, जिनके कारण उनका जीवन अत्यंत दीनतापूर्ण हो गया था। तुलसी की करुण दीनता और इष्ट से करुणा की प्रार्थना 'विनयपत्रिका में बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत है-
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारीÏ
जैसा कि इस रचना के नाम से स्पष्ट है, यह कवि के विनय की पत्रिका है, जिसे उन्होंने विभिन्न देवी-देवताओं के माध्यम से अपने आराध्य राम तक पहुँचाया है। पत्रिका के अंत में स्वयं राम तुलसी की पत्रिका को स्वीकार करते हुए उस पर 'सही करते हैं-
बिहँसि राम कहयो सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है।
मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथ की, परी रघुनाथ हाथ सही है।
लोकप्रियता की दृषिट से कवि की अन्य रचनाओं की तुलना में 'रामचरितमानस के पश्चात 'विनयपत्रिका का स्थान है किंतु भाषा की संस्Ñतनिष्ठता और किलष्टता के कारण यह रचना शिक्षित वर्ग में ही अधिक लोकप्रिय हो पार्इ है, जन-सामान्य में नहीं।
'कवितावली सात कांडों में विभक्त रचना है किंतु इसमें 'रामचरितमानस जैसी प्रबंधात्मकता का अभाव है। यह कवित्तों में निबद्ध रामकथा है, जिसके अलग-अलग समय पर लिखे गये छंदों को कथाक्रम में पिरोया गया है। इस Ñति में तुलसी ने राम की कीत्र्ति के वर्णन के साथ-साथ युगीन परिवेश और परिसिथतियों का भी चित्राण किया है। अपने युग के संघर्षपूर्ण जीवन, समाज में फैली महामारियों और कुव्यवस्था का अंकन 'कवितावली की विशिष्टता है।
'गीतावली तुलसीदास की वह मुक्तक रचना है, जिसमें कवि ने रामकथा के सभी सरस प्रसंगों को सहज भाव से वर्णित किया है। एक ही प्रसंग एवं सिथति का अनेक रूपों में वर्णन तुलसी के सशक्त कवित्व का परिचायक है। राम के बाल-रूप का वर्णन हो या सीता-स्वयंवर का प्रसंग अथवा वन-मार्ग में जा रहे राम-सीता और लक्ष्मण के सौंदर्य पर मुग्ध वनवासियों का चित्राµ सभी प्रसंगों में तुलसी की कविता पाठक को मोहित करती है।
विविधि राग-रागनियों में रचित इस रचना का फलक इतना विस्तृत और बहुआयामी है कि इसे दूसरा 'रामचरितमानस कहा जा सकता है। रचना-सौष्ठव, ललित कल्पना और भाव-विन्यास तथा जीवन की पकड़ के कारण 'गीतावली निश्चय ही कवि की महान रचना है।
'दोहावली तुलसीदास की मुक्तक रचना है, जिसमें 550 दोहे और 23 सोरठे संकलित हैं। 'Ñष्ण गीतावली Ñष्ण के जीवन पर आधारित एक लघु रचना है। इसी प्रकार 'पार्वती मंगल तथा 'जानकी मंगल भी कवि की वे लघु रचनाएँहैं, जो भावप्रवणता और काव्य कौशल की दृषिट से सशक्त हैं।
तुलसी का भकित दर्शन
राम की भकित तुलसी के संपूर्ण साहित्य का आख्यान है। जैसा कि पहले संकेत किया गया, तुलसी का युग विविèा धार्मिक संप्रदायों एवं आंदोलनों का युग था। सगुण भकित शाखा, निगर्ुण भकित शाखा, इनमें भी Ñष्ण भकित, रामभकित, संत मत एवं सूफी मत जैसे अनेक भकित मार्ग जन-सामान्य को अपनी ओर आÑष्ट कर रहे थे। तुलसी सगुणोपासक रामभक्त थे और उनका पूर्ण विश्वास था कि Ñष्ण के लोकरंजक रूप की अपेक्षा राम का लोकरक्षक रूप तथा निगर्ुण ब्रह्रा की अपेक्षा सगुण ही जन-सामान्य के अधिक निकट हो सकता है। उन्हांने राम को निगर्ुण-निराकार ब्रह्रा के रूप में नहीं अपितु सगुण-साकार सामान्य मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया जो आर्तजन की पुकार सुनकर अवतार धारण करता है-
जब जब होर्इ धरम कै हानी। बढ़हिं असुर अधम अभिमानी Ï
तब तब प्रभु धरि मनुज सरीरा। हरहिं Ñपानिधि सज्जन पीराÏ
तुलसी के आराध्य राम शील, शकित और सौंदर्य के पुंजीभूत रूप हैं, जो किसी भी भक्त-âदय की भकित के सहज आलंबन हो सकते हैं। यधपि तुलसी ने निगर्ुण और सगुण तथा ज्ञान और भकित दोनों मार्गों में अंतर नहीं माना फिर भी सहजग्राáता तथा सुसाध्यता की दृषिट से ज्ञान की अपेक्षा भकित को अधिक महत्त्व दिया-
सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहि भव संभव खेदा।
तुलसी का भकितमार्ग साधना का कठिन मार्ग नहीं, अपितु ऐसा सहज-सरल मार्ग है, जिस पर चलने के लिए किन्हीं बाáाचारों की अपेक्षा नहीं है। 'रामचरितमानस में राम शबरी की नवधा भकित का उपदेश देते हुए कहते हैं कि जो मनुष्य सत्संगति करता है, र्इश्वर-स्मरण में प्रेम रखता है, गुरु एवं श्रेष्ठ जनों की सेवा करता है, कपट एवं स्वार्थ रहित होकर र्इश्वर का गुणगान करता है, संयम-नियम का पालन करता है, यथा लाभ संतोष की वृत्ति रखता हैµवही मेरा सच्चा भक्त है। तुलसी द्वारा दी गर्इ भकित की यह परिभाषा तथा सच्चे भक्त के लक्षण भकित के किसी शास्त्राीय रूप तथा बाáाचाराें को अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करते। यह तो वह भकित है जो भक्त मन को उदात्त एवं कालुष्य-रहित बनाती है। यह वह मणि है जिसे प्रकाशित होने के लिए बाá साधनों की आवश्यकता नहीं है।
भकित-दर्शन की दृषिट से ही नहीं, अपितु सामाजिक सापेक्षता की दृषिट से भी तुलसी का साहित्य अमूल्य है। कोर्इ भी साहित्यकार समाज में तभी स्थापित हो सकता है जब वह समकालीन समस्याओं को अपने साहित्य में अभिव्यकित देता है और दिशाहीन समाज का दिशा-निर्देश करता है। तुलसी ने अपने युग के विÜाृंखलित समाज और विघटित होते मूल्यों को गहरार्इ से परखा था। इसके लिए उन्होंने किसी आंदोलन या क्रांति की बात नहीं की अपितु रामभकित और समन्वय-मार्ग को अपनाने की बात कही। चाहे वह पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के निर्वाह की बात हो या वर्णाश्रम-व्यवस्था का प्रश्न, तुलसी ने यथासंभव मध्यमार्गीय संतुलन बनाये रखने की बात कही। उन्हाेंने राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान, कौशल्या, दशरथ, विभीषण, सुग्रीव आदि चरित्राों के माध्यम से आदर्श पुत्रा, पिता, भार्इ, पति, पत्नी, सेवक, बंधु आदि संबंधों का निर्वाह कराया। पारिवारिक संबंधों में आदर्श और मर्यादा का चित्राण तुलसी के साहित्य की ऐसी विशेषता है जो प्रत्येक युग के प्रत्येक व्यकित को जीवन के सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है।
इसी प्रकार भकित के क्षेत्रा में भी शैव और वैष्णव, वैष्णव और शाक्त, अद्वैतवाद एवं विशिष्टाद्वैत, ज्ञान और भकित, सगुण और निगर्ुण का समन्वय तुलसीमत की विशेषता है। तुलसी के समय में शैवमत तथा वैष्णवमत के अनुयायियाें में अपने-अपने मार्ग को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ थी। इससे दोनों मतों में विद्वेष इस सीमा तक बढ़ा कि सिथति हिंसा तक पहुँचने लगी। दोनों मतों के अनुयायियों में समन्वय स्थापित करने के उíेश्य से तुलसी ने 'रामचरितमानस में अनेक स्थानों पर शिव द्वारा राम की और राम द्वारा शिव की स्तुति दिखार्इ है। इसी प्रकार सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा Ï
कहकर तुलसी ने निगर्ुण और सगुण भकित साधना के बीच जो एकात्म स्थापित किया है, उसके कारण ही उन्हें 'लोकनायक की संज्ञा दी गयी। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में : ßलोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके, क्योेंकि भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधी संस्Ñतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। भारतीय समाज की प्राचीन रूढि़योें, मान्यताओं का अपने समय में राम, Ñष्ण, बुद्ध, शंकराचार्य, कबीर और तुलसी जैसे लोकनायकों ने युग की आवश्यकता के अनुसार पुनर्गठन किया और अपने नेतृत्व में समाज को नर्इ चेतना एवं नर्इ दृषिट प्रदान की.... लोक और शास्त्रा का समन्वय, भाषा और संस्Ñत का समन्वय, निगर्ुण और सगुण का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय। 'रामचरितमानस शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है।Þ
1. तू दयालु, दीन हौं..............................चरन-सरन पावै।
संदर्भ एवं प्रसंग-
प्रस्तुत पंकितयाँ तुलसीदास की 'विनयपत्रिका से उदधृत हैं। 'विनयपत्रिका तुलसीदास की अनन्य भकित से परिपूर्ण रचना है, जिसमें कवि ने अपने इष्ट राम के महत्त्व और अपनी अतिशय दीनता का विशद वर्णन किया है। र्इश्वर की अनंत शकित के सामने अपनी असामथ्र्य एवं तुच्छता को कवि ने बार-बार रेखांकित किया है और उससे अपने उद्धार की प्रार्थना की है।
व्याख्या- अपने आराध्य राम को संबोधित करते हुए तुलसीदास कहते हैं कि नाथ! तू दीनों पर दया करने वाला है और मैं अत्यंत दीन-हीन, तुच्छ प्राणी हूँ। तू अनंत धन का दान करने वाला दानी है और मैं तेरी दयादृषिट का इच्छुक भिखारी हूँ, जो तेरे द्वार पर पड़ा है। मैं संसार प्रसिद्ध पापी हूँ और तू पापों का नाश करने वाला है। तू अनाथों का स्वामी है और संसार में मुझ जैसा अनाथ और कोर्इ नहीं। संसार में मुझ-सा दु:खी और कोर्इ नहीं और तेरे जैसा पीड़ा हरने वाला कोर्इ नहीं। तू ब्रह्रा है तो मैं जीव हूँ, तू स्वामी है और मैं तेरा दास हूँ। हे स्वामी! तू ही मेरे लिए पिता, माता, गुरु, मित्रा और सब प्रकार से कल्याणकारी है। तुझमें और मुझमें कर्इ संबंध हो सकते हैं, जो तुझे अच्छा लगे तू उसी को स्वीकार कर ले। मेरी तो केवल एक ही इच्छा है कि कैसे भी मैं तेरे चरणों में स्थान पा जाऊँ, तेरा समीपस्थ हो जाऊँ।
विशेष-
(1) अपने अतिशय दैन्य और राम की असीम महत्ता का वर्णन करते हुए कवि उनकी Ñपा की आकांक्षा कर रहाहै।
(2) यहाँ सेव्य भाव की भकित है, जहाँ भक्त स्वयं को सेवक और इष्ट को स्वामी या ठाकुर मानकर उनके चरणों के समीप बैठने की प्रार्थना करता है।
विशेष-
(3) र्इश्वर की महत्ता के सामने भक्त को अपनी लघुता और क्षुद्रता का बोध होता है। संसार में उसे अपने जैसा पापी और दीन-हीन और कोर्इ दिखार्इ नहीं पड़ता। इसलिए वह बारंबार अपना दोष- कथन करके र्इश्वर से अपने दोषों के निवारण की प्रार्थना कर रहा है।
(4) कवि स्वयं को इष्ट की शरण में समर्पित कर निशिचंत हो जाना चाहता है कि हे र्इश्वर! तू जो चाहे जो भी संबंध मुझसे माने पर अपनी शरणागत-वत्सलता की वर्षा मुझ पर कर दे।
2. अबलौं नसानी..........................................पद-कमल बसैहों।
प्रसंग- पूर्ववत।
व्याख्या- अपने अब तक के कर्मा±े से हटकर आगे के जीवन को सँवारने का निश्चय करते हुए कवि कहता है कि अब तक जीवन का जो भाग बीत गया और बिगड़ गया उसे और आगे नहीं बिगड़ने दूँगा। राम की Ñपा से संसार-रूपी रात्रि बीत गयी है अर्थात मेरे मन का भ्रम दूर हो गया है। अब जाग जाने पर फिर से सोने का उपक्रम नहीं करुँगा, स्वयं को माया-भ्रम में नहीं उलझने दूँगा। मुझे राम-नाम रूपी सुंदर चिंतामणि मिल गयी है, उसे अपने âदयरूपी हाथ से गिरने नहीं दूँगा। श्रीराम के श्यामल रूप की सुंदर कसौटी पर अपने âदयरूपी सोने को कसूँगा। अर्थात यह जाँच करूँगा कि राम के ध्यान पर मेरा मन कितना खरा उतरता है। अब तक मैं इंदि्रयों का दास रहा और मुझे अपना गुलाम जानकर इन इंदि्रयों ने मेरा खूब उपहास किया, पर अब मैं अपने चंचल मन और इंदि्रयों के अधीन होकर अपनी हँसी नहीं कराऊँगा, इन्हें अपने वश में रखूँगा। अब मैं अपने मन रूपी भँवरे को राम के चरण-कमलों में सिथर कर दूँगा, ताकि वह संसार के आकर्षणों में भ्रमित न हो।
विशेष- (1) आने वाले जीवन को सँवारने का संकल्प लेता हुआ कवि अपने इष्ट राम के प्रति आत्मनिवेदन कर रहा है। आत्मनिवेदन नवधा भकित का अंग कहा गया है, जिसमें जीव भकित के वशीभूत होकर र्इश्वर के प्रति अपनी भावनाओं का निवेदन करता है।
(2) 'भव-निसा, 'नाम चारु चिंतामनि, 'स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी, 'मन-मधुकर, 'रघुपति-पद-कमल में रूपक और अनुप्रास अलंकारों का सौंदर्य दर्शनीय है।
3. ऐसो को उदार.................................................Ñपानिधि तेरो।
प्रसंग- पूर्ववत्त।
व्याख्याµअपने इष्टदेव राम की महिमा का गान करते हुए तुलसी कहते हैं कि संसार में ऐसा कौन उदार, विशालâदय व्यकित है जो बिना सेवा किये दीन जनोें को प्रसन्न कर देता है। यह विशेषता केवल राम में ही है, जो अपनी शरण में आये प्रत्येक व्यकित पर अपनी Ñपा की वर्षा करते हैं। जिस परमगति को बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी भी योग, वैराग्य आदि साधनों द्वारा प्राप्त नहीं कर पाते, उसे श्रीराम गीध और शबरी तक को दे देते हैं, और उसे भी बहुत नहीं मानते। जिस अथाह संपत्ति को रावण ने अपने दसों शीश अर्पित कर शिवजी से प्राप्त किया, वही संपत्ति राम ने विभीषण को अत्यंत संकोचपूर्वक दी (यह सोचकर कि लंका के राज्य का उत्तराधिकारी एक-न-एक दिन विभीषण को होना ही था, फिर इसमें मेरा क्या योगदान है?) तुलसीदास कहते हैं कि हे मन! यदि तू सब प्रकार से सब सुख चाहता है तो तू श्रीराम का भजन कर। वह राम Ñपा के सागर हैं और तेरी सभी कामनाएँ पूरी करेंगे।
विशेष-
(1) तुलसी का विश्वास है कि उनके इष्ट राम ही ऐसे गुणों से युक्त हैं जो बिना किसी बदले की आशा से अपने भक्त पर Ñपा करते हैं। ऐसी अहैतुकी Ñपा ही सच्ची Ñपा है। तुलसी ने अपने इष्ट के इस गुण को 'विनयपत्रिका में बार-बार रेखांकित किया है।
(2) जटायु, शबरी और विभीषण जैसे शरणागत भक्तों के उद्धार का स्मरण दिलाते हुए कवि अपने मन को राम-चरणों में समर्पित होने के लिए प्रेरित कर रहा है।
(3) प्रस्तुत पद की अंतिम पंकित 'तौ भजु राम में राम के नाम-स्मरण पर बल दिया गया है, जो नवधा भकित का महत्त्वपूर्ण अंग है।
4. कबहुँक हौं.........................................................हरि-भगति लहौंगो।
प्रसंग- पूर्ववत।
संदर्भ- सांसारिक विषयों और क्रिया-कलापों में मग्न जीव अपने मूल स्वभाव को छोड़ देता है। र्इष्र्या, द्वेष, परनिंदा आदि अवगुण उस पर इस तरह छा जाते हैं कि वह इन्हीं की आग में जलता हुआ अपने
स्नेह- संबंधों को भुला देता है। कभी-कभी विरह अवस्था में अथवा ज्ञान-चक्षुओं के खुलने पर वह इस प्रकार की कामना करता है।
व्याख्या- क्या कभी ऐसा होगा कि मेरी रहना या आचरण ऐसा हो जाए। क्या Ñपालु राम की Ñपा से कभी मैं संतों जैसा स्वभाव ग्रहण कर सकूँगा ? क्या कभी ऐसा होगा कि मुझे जो कुछ मिले, उसी में संतुष्ट रहूँगा और कभी किसी से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखूँगा। सदा दूसरों की भलार्इ में क्या मैं तत्पर रह सकूँगा, इस नियम में क्या मैं मन, वचन और कर्म से हमेशा लगा रहूँगा ? किसी के द्वारा कहे गये अत्यंत कठोर और असह्य वचन सुनकर मैं क्रोध की अगिन में न जलूँ, क्या कभी ऐसा होगा ? क्या ऐसा होगा कि मैं मानापमान से ऊपर उठ जाऊँ, कोर्इ सम्मान या प्रशंसा करे तो मैं फूला न समाऊँ और अभिमानी हो जाऊँ और यदि कोर्इ अपमान करे तो बदले या क्रोध की आग में सुलगता रहूँ ? क्या मैं उस अवस्था को कभी पा सकूँगा कि दूसरा का केवल गुण-कथन ही करूँ, किसी की बुरार्इ अथवा निन्दा नहीं? अपनी शरीर-संबंधी सभी चिंताओं को छोड़कर सुख-दु:ख में समभाव से रहूँ, क्या कभी ऐसा होगा ? हे राम! ऐसे सत्मार्ग पर चलकर क्या मैं अटल हरि भकित पा सकूँगा ?
विशेष-
(1) यह कवि की मनोराज्य-विषयक उकित है, जिसमें वह अपनी वर्तमान अवस्था से ऊपर उठकर र्इश्वर के समीप जाने का प्रयास करता है।
(2) प्रस्तुत पधांश में कवि ने संत के लक्षणों का वर्णन किया है। व्यकित स्वयं में संत के गुणों का विकास करके 'अविचल हरि भगति प्राप्त कर सकता है।
5. कहे बिन...........................................................रही शबरी चहत।
संदर्भ एव प्रसंग- पूर्ववत्त।
व्याख्या- हे राम! मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। अपने मन की बात कहे बिना रहा नहीं जाता और कह देने पर कुछ रस नहीं रह जाता। आप जैसे सुयोग्य स्वामी का आश्रय पाकर भी आपका यह दास, खोटा है या खरा, काल और कर्म की गति को भोग रहा है, अतिशय दु:ख भोग रहा है।
अनेक बार विचार करने पर भी मुझे इस बात का कोर्इ उत्तर नहीं मिलता कि संसार के अन्य सब लोग कहाँ से इतना बड़प्पन पा लेते हैं क्योंकि मैं तो आपकी महिमा सुनकर जब अपनी ओर देखता हूँ तो अपनी दशा देखकर घबरा जाता हूँ। (यह बात बड़ी अविश्वसनीय लगती है कि आपके से महिमावान और शरणागत-वत्सल का सेवक इतना दीन-हीन है।)
मेरा न तो कोर्इ मित्रा है, न सच्चा सेवक, न सुयोग्य पत्नी। हे प्रभु! मैं सत्य कहता हूँ कि मेरे माँ-बाप और सभी सगे-संबंधी आप ही हैं। मेरी तो छोटी-सी बात है या छोटी-सी जिंदगी है, बने या बिगड़े कोर्इ अंतर नहीं पड़ेगा। मुझे तो केवल आपकी चिंता है। यदि आपने मेरा उद्धार न किया तो संसार में आपकी भक्तवत्सलता की जो छवि है, वह अवश्य बिगड़ जाएगी।
रामचरितमानस (बालकांड)
1. देखन बागु.......................................................................सिसु मृगी सभीत।
प्रसंग एवं संदर्भ-
प्रस्तुत काव्यांश तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस के बालकांड से उद्धृत है। राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्रा के साथ जनकपुर पहुँचते हैं, जहाँ राजा जनक ने अपनी पुत्राी सीता के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया है। सीता-स्वयंवर से पूर्व राम और लक्ष्मण जनक-वाटिका में भ्रमण के लिए जाते हैं। वहीं उनका साक्षात्कार गौरी-पूजन के लिए आयी सीता से होता है। उसी अवसर का वर्णन कवि ने इन पंकितयों में किया है।
व्याख्या- दोनों राजकुमार जनक-वाटिका देखने के लिए आये। किशोरवय और सब प्रकार से सुुंदर इन दोनों श्याम और गौर राजकुमारों का सौंदर्य अवर्णनीय है क्याेंकि वर्णन करने वाली जिह्वा की आँखें नहीं हैं और आँखों के पास वर्णन करने की शकित नहीं है। वाटिका में आये राम और लक्ष्मण के विषय में सीता की उत्कंठा जानकर उनकी सखियाँ प्रसन्न होती हैं। एक सखी कहती है कि ये वही राकुमार हैं जो कल ही मुनि विश्वामित्रा के साथ यहाँ आये हैं। इन दोनों ने अपने सौंदर्य के जादू में नगरवासियों को बाँèा लिया है। जहाँ-तहाँ लोग इनके सौंदर्य का बखान कर रहे हैं। इसलिए तुम्हें भी उन्हें अवश्य देख लेना चाहिए क्योंकि उनकी सुंदरता निश्चय ही दर्शनीय है। अपनी सखी के ये वचन सुनकर सीता को अत्यंत प्रसन्नता हुर्इ और उनकी आँखें इन राजकुमारों को देखने के लिए व्याकुल हो उठीं। इसलिए वे अपनी सखियों को आगे रखकर राम और लक्ष्मण को देखने के लिए चल पड़ी। कवि का कथन है कि सीता की इस दर्शन-लालसा के पीछे अवश्य ही कोर्इ पुरानी प्रीति है, जिसे बाá चक्षुओं से कार्इ नहीं देख सकता।
इसी अवसर पर सीता को नारद के वचनों का स्मरण आया और उनके मन में पवित्रा प्रेम का उदय हुआ। वाटिका में राम को ढूँढती सीता इस प्रकार चारों ओर व्याकुल एवं आश्चर्यचकित दृषिट से देख रही हैं जैसे जंगल में घूमता कोर्इ मृग-शावक भयभीत होकर इधर-उधर देख रहा हो।
विशेष-
(1) गिरा अनयन- अपने इष्ट राम के अनन्य सौंदर्य का वर्णन करते हुए तुलसीदास ने उसे वाणी की सामथ्र्य से परे बताया है। राम ने अलौकिक सौंदर्य को शब्दों में न बाँधकर उसे 'गिरा अनयन नयन बिनु बानी कहकर अनकहा छोड़ दिया है ताकि पढ़ने-सुनने वाला उसे अपने अनुमान से अनुभव कर सके।
(2) प्रीति पुरातन- इन शब्दों के द्वारा कवि यह कह रहे हैं कि राम और सीता का प्रेम नया नहीं, अपितु यह ब्रह्रा और उसकी माया का हमेशा रहने वाला संबंध है क्योंकि माया तो ब्रह्रा के साथ ही अवतरित होती है-
'आदिसकित जेहिं जग उपजाया।
सोउ अवतरिहि मोरि यह माया Ï (रामचरितमानस 11522)
(3) 'सब सखीं सयानी और 'सुमिरि सीय में 'स की आवृत्ति के कारण अनुप्रास और 'जनु सिसु मृगी समीत में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
2. कंकन किंकिनी.........................................................समय अनुहारि।
प्रसंग एवं संदर्भ- पूर्ववत।
व्याख्या- कंगन, करधनी और नूपुर (पैर का आभूषण) की ध्वनि सुनकर राम âदय में विचार कर लक्ष्मण से कहते हैं कि इस ध्वनि को सुनकर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो कामदेव ने डंका बजाकर विश्वविजय का संकल्प लिया है। ऐसा कहकर जब उन्होंने उस ओर मुँह फेरा जिधर से ध्वनि आ रही थी तो सीता के मुख पर उनके नेत्रा चकोर की भाँति सिथर हो गये अर्थात टकटकी लगाकर सीता के मुखचंद्र को देखते रह गये। राम के दोनों सुंदर नेत्रा सिथर हो गये तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो निमि राजा संकोचवश पलकों का निवास छोड़कर चले गये हों। सीता के सौंदर्य को देखकर राम का âदय तृप्त और सुखी हो गया। वे मन ही मन सीता के रूप की सराहना कर रहे हैं पर मुख से वाणी नहीं निकल रही। सीता के सौंदर्य को देखकर ऐसा लगता है मानो
सृषिट-विधाता ब्रह्राा ने अपनी सारी निपुणता को सीता के रूप में सारे संसार के सामने प्रकट कर दिया है। सीता का अप्रतिम सौंदर्य सुंदरता को भी सुंदर करने वाला है। उनकी शोभा को देखकर ऐसा लगता है मानो छवि रूपी घर में दीपक की लौ जल रही है। सीता की सुंदरता ने कवियों द्वारा सौंदर्य के लिए दी गयी सभी उपमाओं को जूठा कर दिया है। अब मैं सीता की उपमा किससे दूँ क्याेंकि उनका सौंदर्य तो सभी उपमाओं को फीका कर देता है।
âदय में सीता की शोभा का वर्णन करके और उसके प्रभाव के कारण अपनी दशा को विचार कर पवित्रा मन वाले राम ने अपने छोटे भार्इ लक्ष्मण से समयानुकूल इस प्रकार के वचन कहे।
3. तात जनक नया............................................मधुप इव पान।
प्रसंग एवं संदर्भ- पूर्ववत।
व्याख्या- हे भार्इ! यह वही राजकुमारी है, जिसके कारण यह धनुष-यज्ञ हो रहा है। सखियों समेत गौरी-पूजन के लिए आयी यह राजकुमारी फुलवारी में अपना प्रकाश बिखेर रही है। इसकी इस अलौकिक शोभा को देखकर मेरा सहज पवित्रा मन भी चंचल हो उठा है। इसका कारण तो र्इश्वर जानें किंतु मेरे शुभसूचक दाहिने अंग फड़कने लगे हैं। यह सर्वविदित है कि रघुवंशी सहज, सरल स्वभाव के होते हैं और उनका मन कभी बुरे मार्ग पर अग्रसर नहीं होता। मुझे अपने मन पर पूर्ण विश्वास है कि मैंने स्वप्न में भी पर स्त्राी को कभी नहीं देखा। जिन्होेंने युद्ध में शत्राु को पीठ न दिखार्इ हो, जिनका मन और दृषिट परस्त्राी की ओर न जाते हों, माँगने वाले याचक जिनके द्वार से खाली हाथ न जाते हों, ऐसे पुरुष-श्रेष्ठ संसार में बहुत कम होते हैं।
श्रीराम अपने छोटे भार्इ से इस प्रकार की बातें कर रहे हैं। उनका मन सीता के सौंदर्य पर मुग्ध हो गया है और उनके मुखकमल के सौंदर्य रूपी पराग को भँवरे की तरह पी रहा है।
विशेष-
(1) धनुषजग्यµराजा जनक ने अपनी पुत्राी सीता के विवाह के लिए शर्त रखी थी कि जो राजा शिवजी के धनुष को तोड़ेगा, सीता उसी का वरण पति-रूप में करेगी। 'धनुषजग्य शब्द इसी की ओर संकेत करता है।
(2) गौरी पूजनµभारतीय परंपरा के अनुसार सित्रायों द्वारा गौरी-पूजन का विशेष महत्त्व है। कँुवारी कन्याएँ सुयोग्य वर की प्रापित की कामना के लिए और विवाहिता सित्रायाँ पति के सुख-सौभाग्य के लिए गौरी-पूजन करतीहंै।
(3) फरकहिं सुभद अंगµलोकमान्यता के अनुसार पुरुषों का दाहिना और सित्रायों का बायाँ अंग फड़कना किसी शुभ समाचार का सूचक माना जाता है। यहाँ कवि ने इसी ओर संकेत किया है।
(4) 'मुख सरोज पंकित में रूपक अलंकार है।
4. चितवति चकित.............................................................पटल बिलगाइ।
प्रसंग एवं संदर्भ- पूर्ववत।
व्याख्या- सीता चकित होती हुर्इ चारों दिशाओं में दृषिट दौड़ाती हैं कि अभी तो राजकुमार यहीं थे, अभी कहाँ चले गये। मृगशावक के से नेत्राों वाली सीता जिस ओर देखती हैं वहाँ ऐसा प्रतीत होता है मानो श्वेत कमलों की पंकितयाँ बरस गयी हों। तब सखियोें ने लताओं की ओट से श्याम और गौर सुंदर किशोरों को दिखाया। उनके रूप को देखकर सीता के नेत्रा ऐसे ललचाए अथवा उनमें प्रसन्नता के ऐसे भाव भर गये जैसे किसी ने अपनी खोयी निèाि को पहचान लिया हो। सीता की आँखें रघुश्रेष्ठ राम का सौंदर्य देखते-देखते इतना थक गयीं कि झपकना ही भूल गयीं। स्नेह की अधिकता से भरकर उनका शरीर अपनी सुध-बुध खो बैठा। ऐसा जान पड़ता है मानो चकोरी शरदऋतु के चंद्रमा को अपलक निहार रही हो। नेत्राों के मार्ग से राम को âदय में स्थापित कर सयानी सीता ने अपनी पलकों के द्वार बंद कर लिये, ताकि वह छवि âदय से बाहर न निकल जाए। सखियों ने अब सीता को इस प्रकार राम के प्रेम के वशीभूत देखा तो कुछ कह नहीं पायीं, मन ही मन सकुचाकर रह गयीं।
उसी समय दोनों भार्इ लताओें के आवरण से बाहर निकल कर आये। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे बादलों की घटाओं को चीरकर दो निर्मल चंद्रमा निकल आये हों।
विशेष-
(1) प्रस्तुत अंश में माधुर्य और Üाृंगार का सुंदर चित्राण हुआ है। राम के दिखार्इ न देने पर सीता के मन की चिंता, उन्हें ढूँढती सीता की आँखों की चंचलता, लताओं की ओर से दिखार्इ देने पर प्रसन्नता की चमक, पलकों का सिथर हो जाना, प्रेम के वशीभूत होने पर देह-शैथिल्य और राम के रूप को आँखों में बंद कर लेने का प्रयास आदि Üाृंगार रस के पोषक तत्त्वों का तुलसी ने सहज चित्राण किया है।
(2) 'चितवति चकित चहूँ पंकित में 'च और 'सरद ससिहि में 'स वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार है।
(3) 'जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी, 'हरषे जनु निज निधि पहिचाने, 'सरद ससिहि जनु चितव चकोरी, और 'निकसे जनु जुग बिमल बिधु में उत्पे्रक्षा अलंकार है।
6. सोभा सीवँ...............................................................................सखिन्ह अयान।
प्रसंग एवं संदर्भ- पूर्ववत।
व्याख्या- दोनों वीर (राम और लक्ष्मण) सौंदर्य की सीमा हैं अर्थात इनसे बढ़कर सुंदर और कोर्इ नहीं। इनके शरीर नीले और पीले कमल की भाँति हैं। सिर पर मोरपंख शोभित हो रहा है और बीच-बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे लगे हैं। इनके माथे पर तिलक और पसीने की बूँदें शोभित हो रही हैं और सुुंदर कानों में आभूषणों की शोभा फैली है। तिरछी भौंहें, घुंघराले बाल और नये खिले लाल कमल की भाँति आँखें, सुंदर ठोढ़ी, नाक और गाल तथा सुंदर मुस्कान मन को मोह लेती है, खरीद लेती हैं। कवि कहते हैं कि इनके मुख की छवि का वर्णन नहीं किया जा सकता। इनका सौंदर्य ऐसा है जिसे देखकर अनेकों कामदेव भी लजिजत हो जाते हैं। इनके वक्षस्थल पर मणियों की माला है, शंख की तरह सुंदर गर्दन है। कामदेवरूपी हाथी के बच्चे की सूँड के समान इनकी भुजाएँ शकित की सीमा हैं अर्थात इनकी बलिष्ठ भुजाओं में अदम्य बल है। बाएँ हाथ में फूलों से भरा दोना लिए यह साँवला राजकुमार तो बहुत सुंदर है।
सिंह की भाँति बलिष्ठ कमर पर पीतांबर धारण किये, सौंदर्य और शील की प्रतिमा, सूर्यकुल वंशी राम को देखकर सखियाँ अपनी सुध-बुध भूल गयीं।
विशेष-
(1) राम और लक्ष्मण के शारीरिक सौंदर्य का वर्णन किया गया है क्योंकि Üाृंगार रस के प्रसंग में सौंदर्य का विशेष महत्त्व माना गया है।
(2) राम केवल सौंदर्यशाली नहीं अपितु वीर भी हैं, इस ओर भी कवि ने 'सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा कह कर विशेष रूप से उनके सौन्दर्य का चित्राण किया है।
(3) ßसोभा सीव सुभग, 'काम कलभ कर, पंकितयों में अनुप्रास अलंकार है।
7. धरि धीरजु.......................................................................प्रीति न थोरि।
प्रसंग एवं संदर्भ- पूर्ववत।
व्याख्या- एक सयानी सखी धीरज धरकर सीता का हाथ पकड़ कर कहने लगी कि गौरी का ध्यान बाद में कर लेना। अभी तो इन राजकुमार को देख लो। सखी की इस बात से संकुचित और लजिजत होकर सीता ने जब आँखें खोलीं तो सामने रघुकुल के दोनों वीरों को देखा। सिर से पाँव तक राम के सौंदर्य को देखकर और पिता की प्रतिज्ञा का स्मरण कर उनके मन में बहुत चिंता हुर्इ कि यदि इनसे धनुष नहीं टूटा तो इनसे मेरा विवाह कैसे होगा। जब सखियों ने सीता को इस प्रकार परवश और चिंतामग्न देखा तो वे डरकर कहने लगीं कि अब बहुत देर हो गयी है, चला जाए। कल फिर इसी समय यहाँ आएँगी, ऐसा कहकर एक सखी मन ही मन मुस्कुराने लगी। सखियों की गूढ़ अर्थपूर्ण बात सुनकर और मन में माता का भय मानकर सीता ने राम को âदय में धारण कर लिया और स्वयं को पिता के प्रण के वशीभूत जानकर वापिस लौटने लगी।
वापिस लौटते हुए सीता पशु, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने बार-बार पीछे मुड़कर देखती हैं और राम के सौंदर्य को देखकर उनका प्रेम बहुत अधिक बढ़ता जाता है।
विशेष-
(1) राम के सौंदर्य को देखकर सीता और उनकी सखियों की प्रतिक्रिया का वर्णन सहज स्वाभाविक है। 'बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू पंकित में सखीजनोचित व्यंग्य स्पष्ट है कि पहले सामने खडे़ राम को भली-भांति देख लो, गौरी का ध्यान बाद में कर लेना।
(2) पशु-पक्षियों को देखने के बहाने सीता द्वारा मुड़-मुड़कर राम को देखना उनके मन में राम के प्रति प्रेम के बीज के अंकुरित होने का सूचक है।
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TABLE OF CONTENTS
1 (क) हिन्दी कविता विषय-सूची
1.1 1. कबीरदास
1.2 2. सूरदास
1.3 3. गोस्वामी तुलसीदास
1.4 4. बिहारी लाल
1.5 5. घनानन्द
1.6 6. वृन्द
1.7 7. मैथिलीशरण गुप्त
1.8 8. जयशंकर प्रसाद
1.9 9. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला
1.10 10. नागाजर्ुन
1.11 11. भवानीप्रसाद मिश्र
1.12 12. केदारनाथ अग्रवाल
2 (ख) नाटक आषाढ़ का एक दिन : मोहन राकेश
2.1 आषाढ़ का एक दिन : कथानक
2.2 आषाढ़ का एक दिन : पात्रा योजना और चरित्रा-चित्राण
2.3 आषाढ़ का एक दिन : पात्रा योजना और चरित्रा-चित्राण
2.4 आषाढ़ का एक दिन : कथ्य
2.5 आषाढ़ का एक दिन : अभिनेयता
2.6 आषाढ़ का एक दिन : भाषा-शिल्प
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