Friday 23 February 2018

तुलसीदास के दोहे | Tulsidas ke Dohe (संतजन /Saints

Menu SKIP TO CONTENT Menu Search Search … तुलसीदास के दोहे | Tulsidas ke Dohe (संतजन /Saints) ‘ साधु चरित सुभ चरित कपासू।निरस विशद गुनमय फल जासू। जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।वंदनीय जेहि जग जस पावा। संत का चरित्र कपास की भांति उज्जवल है लेकिन उसका फल नीरस विस्तृत और गुणकारी होता है। संत स्वयं दुख सहकर अन्य के दोशों को ढकता है।इसी कारण संसार में उन्हें यश प्राप्त होता है। ‘ मुद मंगलमय संत समाजू।जो जग जंगम तीरथ राजू। राम भक्ति जहॅ सुरसरि धारा।सरसई ब्रह्म विचार प्रचारा। संत समाज आनन्द और कल्याणप्रद है।वह चलता फिरता तीर्थराज है।वह ईश्वर भक्ति का प्रचारक है। ‘ सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग। जो ब्यक्ति प्रसन्नता से संतो के विशय में सुनते समझते हैं और उसपर मनन करते हैं-वे इसी शरीर एवं जन्म में धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों फल प्राप्त करते हैं। ‘ मज्जन फल पेखिअ ततकाला।काक होहिं पिक वकउ मराला। सुनि आचरज करै जनि कोई।सत संगति महिमा नहि गोई। संत रूपी तीर्थ में स्नान का फल तुरंत मिलता है। कौआ कोयल और बगुला हंस बन जाते हैं। संतों की संगति का महात्म्य अकथ्य है। ‘ मति कीरति गति भूति भलाई।जब जेहि जतन जहाॅ जेहि पाई। सो जानव सतसंग प्रभाउ।लोकहुॅ बेद न आन उपाउ। जिसने भी जहाॅ बुद्धि यश सदगति सुख सम्पदा प्राप्त किया है-वह संतों की संगति का प्रभाव जानें। सम्पूर्ण बेद और लोक में इनकी प्राप्ति का यही उपायबताया गया हैं। ‘ बिनु सतसंग विवेक न होई।राम कृपा बिनु सुलभ न सोई। सत संगत मुद मंगल मूला।सोई फल सिधि सब साधन फूला । संत की संगति बिना विवेक नही होता।प्रभु कृपा के बिना संत की संगति सहज नही है। संत की संगति आनन्द और कल्याण का मूल है।इसका मिलना हीं फल है।अन्य सभी उपाय केवल फूलमात्र है। ‘ सठ सुधरहिं सत संगति पाई।पारस परस कुघात सुहाई। बिधि बश सुजन कुसंगत परहीं।फनि मनि सम निज गुन अनुसरहिं। दुश्ट भी सतसंग से सुधर जाते हैं।पारस के छूने से लोहा भी स्वर्ण हो जाताहै। यदि कभी सज्जन ब्यक्ति कुसंगति में पर जाते हैं तब भी वे साॅप के मणि के समान अपना प्रकाश नहीं त्यागते और विश नही ग्रहण करते हैं। ‘ बिधि हरि हर कवि कोविद वाणी।कहत साधु महिमा सकुचानी। सो मो सनि कहि जात न कैसे।साक बनिक मनि गुन गन जैसे। ब्रह्मा विश्णु शिव कवि ज्ञानी भी संत की महिमा कहने में संकोच करते हैं। साग सब्जी के ब्यापारी मणि के गुण को जिस तरह नही कह सकते-उसी तरह हम भी इनका वर्णन नही कर सकते। ‘ बंदउ संत समान चित हित अनहित नहि कोई अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ। संत का चरित्र समतामूलक होता है।वह सबका हित ओर किसी का भी अहितनही देखता हैं। हाथों में रखा फूल जिस प्रकार सबों को सुगंधित करता है-उसीतरह संत भी शत्रु ओर मित्र दोनों की भलाई करते हैं। ‘ संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। बाल बिनय सुनि करि कृपा राम चरण रति देहु। संत सरल हृदय का और सम्पूर्ण संसार का कल्याण चाहते हैं। अतः मेरी प्रार्थना है कि मेरे बाल हृदय में राम के चरणों में मुझे प्रेम दें। ‘ उपजहिं एक संग जग माही।जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं सुधा सुरा सम साधु असाधूं।जनक एक जग जलधि अगाधू। कमल और जोंक दोनों साथ हीं जल में पैदा होते हैं पर उनके गुण अलग हैं। अमृत और मदिरा दोनों समुद्र मंथन से एक साथ प्राप्त हुआ। इसी तरह साधू और दुश्ट दोनों जगत में साथ पैदा होते हैं परन्तु उनके स्वभाव अलग होते हैं। ‘ खल अघ अगुन साधु गुन गाहा।उभय अपार उदधि अवगाहा। तेहि तें कछु गुन देाश बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने। शैतान के अवगुण एवं साधु के गुण दोनों हीं अपरम्पार और अथाह समुद्र हैं। विना पहचान एवं ज्ञान के उनका त्याग या ग्रहण नही किया जा सकता है। ‘ जड चेतन गुण दोशमय विस्व किन्ह अवतार संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार। भगवान ने हीं जड चेतन संसार को गुण दोशमय बनाया है लेकिन संत रूप में हंस दूशित जल छोड कर दूध हीं स्वीकार करता है। ‘ लखि सुवेश जग वंचक जेउ।वेश प्रताप पूजिअहिं तेउ। उघरहिं अंत न होई निवाहू।कालनेमि जिमि रावन राहूं। कभी कभी ठग भी साधु का भेश बनाकर लोग उन्हें पूजने लगते हैं पर एक दिन उनका छल प्रकट हो जाता है जैसे कालनेमि रावण और राहु का हाल हुआ। ‘ कियहुॅ कुवेशु साधु सनमानु।जिमि जग जामवंत हनुमानू। हानि कुसंग सुसंगति लाहू।लोकहुॅ वेद विदित सब काहू। बुरा भेश बनाने पर भी साधु का सम्मान हीं होता है।संसार में जामवंत और हनुमान जी का अत्यधिक सम्मान हुआ। बुरी संगति से हानि और अच्छी संगति से लाभ होता है इसे पूरा संसार जानता है। ‘ गगन चढई रज पवन प्रसंगा।कीचहिं मिलई नीच जल संगा। साधु असाधु सदन सुक सारी।सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं। हवा के साथ धूल आकाश पर चढता है।नीचे जल के साथ कीचर में मिल जाता है। साधु के घर सुग्गा राम राम बोलता है और नीच के घर गिन गिन कर गालियाॅ देता है।संगति से हीं गुण होता है। ‘ धूम कुसंगति कारिख होई।लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई। सोई जल अनल अनिल संघाता।होई जलद जग जीवन दाता। बुरे संगति में धुआॅ कालिख हो जाता है।अच्छे संगति में धुआॅ स्याही बन बेद पुराण लिखने में काम देता है। वही धुआॅ पानी आग और हवा के संग बादल बनकर संसार को जीवन देने बाला बर्शा बन जाता है। ‘ नयनन्हि संत दरस नहि देखा।लोचन मोरपंख कर लेखा। ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला। जिसने अपने आॅखों से संतों का दर्शन नही किया उनके आॅख मोरपंख पर दिखाई देने वाली नकली आॅख के समान हैं। उनके सिर कडवे तुम्बी के सदृश्य हैं जो भगवान और गुरू के चरणों पर नही झुकते हैं। ‘ अग्य अकोविद अंध अभागी।काई विशय मुकुर मन लागी। लंपट कपटी कुटिल विसेशी।सपनेहुॅ संत सभा नहिं देखी। अज्ञानी मूर्ख अंधा और अभागा लोगों के मन पर विशय रूपी काई जमी रहती है।लंपट ब्यभिचारी ठग और कुटिल लोगों को स्वप्न में भी संत समाज का दर्शन नहीं हो पाता है। ‘ सट विकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा अमित बोध अनीह मितभोगी।सत्यसार कवि कोविद जोगी। संत काम क्रोध लोभ मोह अहंकार और मत्सर छः विकारो पर बिजय पाकर पापरहित इच्छारहित निश्चल सर्वस्व त्यागी पूर्णतः पवित्र सुखी ज्ञानी मिताहारीकामनारहित सत्यवादी कवि विद्वान और योगी हो जाते हैं। ‘ सावधान मानद मदहीना।धीर धर्म गति परम प्रवीना। संत सर्वदा सावधान दूसरो को आदर देने बाले घमंड रहित धैर्यवान धर्म के ज्ञान एवं ब्यवहार में अति कुशल होते हैं। ‘ निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। परगुन सुनत अधिक हरखाहिं। सम सीतल नहिं त्यागहि नीती।सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती। संत अपनी प्रशंसा सुनकर संकोच करते हैं और दूसरों की प्रशंसा सुनकर खूब खुश होते हैं।वे सर्वदा शांत रहकर कभी भी न्याय का त्याग नहीं करते तथा उनका स्वभाव सरल तथा सबांे से प्रेम करने बाला होता है। ‘ जप तप ब्रत दम संजत नेमा।गुरू गोविंद विप्र पद प्रेमा। श्रद्धा छमा मयत्री दाया।मुदित मम पद प्रीति अमाया। संत जप तपस्या ब्रत दम संयम और नियम में लीन रहते हैं। गुरू भगवान और ब्राह्मण के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा क्षमाशीलता मित्रता दया प्रसन्नता और ईश्वर के चरणों में विना छल कपट के प्रेम रहता है। ‘ बिरति बिबेक बिनय बिग्याना।बोध जथारथ बेद पुराना। दंभ मान मद करहिं न काउ।भूलि न देहिं कुमारग पाउ। उन्हें वैराग्य बिबेक बिनय परमात्मा का ज्ञान वेद पुराण का ज्ञान रहता है। वे अहंकार घमंड अभिमान कभी नहीं करते और भूलकर भी कभी गलत रास्ते पर पैर नहीं रखते हैं। ‘ संत संग अपवर्ग कर कामी भव कर पंथ कहहिं संत कवि कोविद श्रुति पुरान सदग्रंथ। संत की संगति मोक्ष और कामी ब्यक्ति का संग जन्म मृत्यु के बंधन में डालने बाला रास्ता है। संत कवि पंण्डित एवं बेद पुराण सभी ग्रंथ ऐसा वर्णन करते हैं। ‘ संतत के लच्छन सुनु भ्राता।अगनित श्रुति पुरान विख्याता। हे भाई-संतों के गुण अनगिनत हैं जो बेदों और पुाणों में प्रसिद्य हैं। ‘ संत असंतन्हि कै अस करनी।जिमि कुठार चंदन आचरनी। काटइ परसु मलय सुनु भाई।निज गुण देइ सुगंध बसाई। संत और असंतों के क्रियाकलाप ऐसे हैं जैसे कुल्हाड़ी और चंदन के आचरण होते हैं।कुल्हाड़ी चन्दन को काटता है लेकिन चन्दन उसे अपना गुण देकर सुगंध से सुगंधित कर देता है। ‘ ताते सुर सीसन्ह चट़त जग वल्लभ श्रीखंड अनल दाहि पीटत घनहि परसु बदन यह दंड। इसी कारण चन्दन संसार में प्रभु के मस्तक पर चट़ता है और संसार की प्रिय वस्तु है लेकिन कुल्हाड़ी को यह सजा मिलती है कि पहले उसे आग में जलाया जाता है एवं बाद में उसे भारी घन से पीटा जाता है। ‘ विशय अलंपट सील गुनाकर।पर दुख दुख सुख सुख पर। सम अभूत रिपु बिमद बिरागी।लोभा मरस हरस भय त्यागी। संत सांसारिक चीजों मे लिप्त नहीं होकर शील और सदगुणों के खान होते हैं। उन्हें दुसरों के दुख देखकर दुख और सुख देखकर सुख होता है। वे हमेशासमत्व भाव में रहते हैं।उनके मन में किसी के लिये शत्रुता नहीं रहती है। वे हमेशा घमंड रहित वैराग्य में लीन एवं लोभ क्रोध खुशी एवं डर से विलग रहते हैं। ‘ कोमल चित दीनन्ह पर दाया।मन बच क्रम मम भगति अमाया। सबहिं मानप्रद आपु अमानी।भरत प्रान सम मम ते प्रानी। संत का हृदय कोमल एवं गरीबों पर दयावान होता है एवं मन वचन और कर्म से वे ईश्वर में निश्कपट भक्ति रखते हैं। वे सबकी इज्जत करते हैं पर स्वयं इज्जत से इच्छारहित होते हैं। वे प्रभु को प्राणों से भी प्रिय होते हैं। ‘ बिगत काम मम नाम परायण।सांति विरति विनती मुदितायन। सीतलता सरलता मयत्री।द्विज पद प्रीति धर्म जनपत्री। उन्हें कोई इच्छा नहीं रहती।वे केवल प्रभु के नाम का मनन करते हैं। वे शान्ति वैराग्य विनयशीलता और प्रसन्नता के भंडार होते हैं। उनमें शीतलता सरलता सबके लिये मित्रता ब्राह्मनों के चरणों में प्रेम और धर्मभाव रहता है। ‘ ए सब लच्छन बसहिं जासु उर।जानेहुॅ तात संत संतत फुर। सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।परूस बचन कबहूॅ नहि बोलहिं। जो ब्यक्ति अपने मन बचन और कर्म इन्द्रियों का नियंत्रण रखता हो जो नियम और सिद्धान्त से कभी विचलित नहीं हो और मुॅह से कभी कठोर वचन नहीं बोलता हो-इन सब लक्षणों बालेां को सच्चा संत मानना चाहिये। ‘ निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुखपुंज। जिनके लिये निंदा और बड़ाई समान हो और जो ईश्वर के चरणों में ममत्व रखता हो वे अनेक गुणों के भंडार और सुख की राशि प्रभु को प्राणों के समान प्रिय हैं। ‘ संत सहहिं दुख पर हित लागी।पर दुख हेतु असंत अभागी। भूर्ज तरू सम संत कृपाला।पर हित निति सह विपति विसाला। संत दूसरों की भलाई के लिये दुख सहते हैं एवं अभागे असंत दूसरों को दुखदेने के लिये होते हैं। संत भोज बृक्ष के समान कृपालु एवं दूसरों की भलाई के लिये अनेक कश्ट सहने के लिये भी तैयार रहते हैं। ‘ संत उदय संतत सुखकारी।बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी। परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा।पर निंदा सम अघ न गरीसा। संतों का आना सर्वदा सुख देने बाला होता है जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय संसार को सुख देता है। बेदों मे अहिंसा को परम धर्म माना गया है और दूसरों की निंदा के जैसा कोई भारी पाप नहीं है। ‘ संत बिटप सरिता गिरि धरनी।पर हित हेतु सबन्ह कै करनी। संत बृक्ष नदी पहाड़ एवं धरती-इन तमाम की क्रियायें दूसरों की भलाई के लिये होती है। ‘ ` संत हृदय नवनीत समाना।कहा कविन्ह परि कहै न जाना। निज परिताप द्रवई नवनीता।पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता। संत का दिल मक्खन के जैसा होता है।लेकिन कवियों ने ठीक नहीं कहा है। मक्खन तो ताप से स्वयं को पिघलाता है किंतु संत तो दूसरों के दुख से पिघल जाते हैं। SHARE ON TwitterFacebookWhatsAppGoogle+BufferLinkedInPin It Taken from the soon to be published FREE Book ! 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