Thursday, 22 February 2018

साधना में सफलता

अनुक्रम प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन साधना में सफलता पू. बापू का पावन संदेश हम धनवान होंगे या नहीं, चुनाव जीतेंगे या नहीं इसमें शंका हो सकती है परंतु भैया ! हम मरेंगे या नहीं, इसमें कोई शंका है? विमान उड़ने का समय निश्चित होता है, बस चलने का समय निश्चित होता है, गाड़ी छूटने का समय निश्चित होता है परंतु इस जीवन की गाड़ी छूटने का कोई निश्चित समय है? आज तक आपने जगत में जो कुछ जाना है, जो कुछ प्राप्त किया है.... आज के बाद जो जानोगे और प्राप्त करोगे, प्यारे भैया ! वह सब मृत्यु के एक ही झटके में छूट जायेगा, जाना अनजाना हो जायेगा, प्राप्ति अप्राप्ति में बदल जायेगी। अतः सावधान हो जाओ। अन्तर्मुख होकर अपने अविचल आत्मा को, निजस्वरूप के अगाध आनन्द को, शाश्वत शांति को प्राप्त कर लो। फिर तो आप ही अविनाशी आत्मा हो। जागो.... उठो.... अपने भीतर सोये हुए निश्चयबल को जगाओ। सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को अर्जित करो। आत्मा में अथाह सामर्थ्य है। अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके। अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके। सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ तुम्हारी शक्ति भी बिखरती रहती है। अतः वृत्तियों को बहकाओ नहीं। तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधना-काल में आत्मचिन्तन में लगाओ और व्यवहार-काल में जो कार्य करते हो उसमें लगाओ। दत्तचित्त होकर हर कोई कार्य करो। सदा शान्त वृत्ति धारण करने का अभ्यास करो। विचारवन्त एवं प्रसन्न रहो। जीवमात्र को अपना स्वरूप समझो। सबसे स्नेह रखो। दिल को व्यापक रखो। आत्मनिष्ठ में जगे हुए महापुरुषों के सत्संग एवं सत्साहित्य से जीवन को भक्ति एवं वेदान्त से पुष्ट एवं पुलकित करो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुक्रम निवेदन इस पुस्तक में साधना में आरूढ़ साधक के लिए आवश्यक सूचनाएँ एवं मार्गदर्शन दिया गया है। गीता के श्लोकों पर पूज्यश्री की अनुभव-संपन्न सरल वाणी के सहज प्रवचन लिपिबद्ध किए गये हैं। हतोत्साह अथवा बिखरी हुई साधनावाला साधक भी मार्गदर्शन पाकर नया उत्साह, नयी प्रेरणा और सहज सुलभ साधन और चिन्तन-प्रणालिका पाकर अपने परमात्मदेव का अनुभव कर सकता है और जनसाधारण भी इस पुस्तक से अपनी आध्यात्मिक प्यास जगाकर परमात्म-प्राप्ति के मार्ग पर चल पड़ें ऐसी सरल भाषा में संतों के प्रवचन और मार्गदर्शन प्रस्तुत किये गये हैं। विघ्नों और संघर्षों से भरा हुआ अल्प जीवन शीघ्र ही जीवनदाता को पा सके ऐसे मार्गदर्शनवाली पुस्तक जनता जनार्दन के करकमलों तक पहुँचाने के सेवा का सुअवसर पाकर समिति धन्यता महसूस करती है। साधकों से और जनता-जनार्दन से विनंति है कि अनुभव-संपन्न इस पावन प्रसाद को अपने अन्य साधक बन्धुओं और मित्रों तक पहुँचाकर पुण्य के भागी बनें। यह प्रकाशन पढ़कर सूक्ष्म मनन करने वाले साधक अपने सुझाव समिति को भेजने की कृपा कर सकते हैं। श्री योग वेदान्त सेवा समिति अमदावाद आश्रम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुक्रम   अनुक्रम निवेदन साधना में सफलता साधना की नींवः श्रद्धा जैसी भावना वैसी सिद्धि कर्म और ज्ञान खोजो अपने आपको गीताज्ञान-सरिता सच्ची कृपा घोर क्लेश में भी सत्पथ पर अडिगता करुणासिन्धु की करुणा सच्ची लगन जगाओ आत्म-प्रशंसा से पुण्यनाश मस्तक-विक्रय शरणागतियोग दीक्षाः जीवन का आवश्यक अंग सब रोगों की औषधिः गुरुभक्ति गुरु में ईश्वर-बुद्धि होने के उपाय आज्ञापालन की महिमा शिवाजी महाराज की गुरुभक्ति धर्म में दृढ़ता कैसे हो ? आत्म-पूजन चिन्ता व ईर्ष्या से बचो शीलवान नारी पिटारे में बिलार .......तो दिल्ली दूर नहीं ध्यान के क्षणों में...... चिन्तन-कणिका     ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ साधना में सफलता विषय सुख की लोलुपता आत्मसुख प्रकट नहीं होने देती। सुख की लालच और दुःख के भय ने अन्तःकरण को मलिन कर दिया। तीव्र विवेक-वैराग्य हो, अन्तःकरण के साथ का तादात्म्य तोड़ने का सामर्थ्य हो तो अपने नित्य, मुक्त, शुद्ध, बुद्ध, व्यापक चैतन्य स्वरूप का बोध हो जाय। वास्तव में हम बोध स्वरूप हैं लेकिन शरीर और अन्तःकरण के साथ जुड़े हैं। उस भूल को मिटाने के लिए, सुख की लालच को मिटाने के लिए, दुःखियों के दुःख से हृदय हराभरा होना चाहिए। जो योग में आरूढ़ होना चाहता है उसे निष्काम कर्म करना चाहिए। निष्काम कर्म करने पर फिर नितान्त एकान्त की आवश्यकता है। आरुरुक्षार्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।। 'योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्व संकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है।' (भगवद् गीताः 6.3) एकान्त में शुभ-अशुभ सब संकल्पों का त्याग करके अपने सच्चिदानंद परमात्मस्वरूप में स्थिर होना चाहिए। घोड़े के रकाब में पैर डाल दिया तो दूसरा पैर भी जमीन से उठा लेना पड़ता है। ऐसे ही सुख की लालच मिटाने के लिए यथायोग्य निष्काम कर्म करने के बाद निष्काम कर्मों से भी समय बचाकर एकान्तवास, लघु भोजन, देखना, सुनना आदि इन्द्रियों के अल्प आहार करते हुए साधक को कठोर साधना में उत्साहपूर्वक संलग्न हो जाना चाहिए। कुछ महीने बंद कमरे में एकाकी रहने से धारणा तथा ध्यान की शक्ति बढ़ जाती है। आन्तर आराम, आन्तर सुख, आन्तरिक प्रकट होने लगता है। धारणा ध्यान में परिणत होती है। जब तक परम पद की प्राप्ति न हो तब तक हे साधक ! खूब सावधान रहना। एक प्रकार से आपके माने हुए मित्र, भगत आपके गहरे शत्रु हैं। किसी न किसी प्रकार आपको संसार में, नाम-रूप की सत्यता में घसीट लाते हैं। तुम्हारी सूक्ष्म वृत्ति उनके परिचय में आने से फिर स्थूल होने लगती है और तुम्हें ज्ञात भी नहीं होता। सावधान ! ये मित्र और भगत भी गहरे शत्रु हैं। इन सांसारिक व्यक्तियों के मिलने जुलने के कारण आपके नये आध्यात्मिक संस्कार और ध्यान की एकाग्रता लुप्त हो जायेगी। कभी-कभी अपने मन की बेवकूफी साधन-भजन के समय में लापरवाही कराने लगेगी। संसारी लोगों से मिलना-जुलना साधनाकाल में बहुत ही अनर्थकारी है। दोनों कि विचारधाराएँ उत्तर दक्षिण हैं। संसारी व्यक्ति बातचीत करने का शौकीन होता है। नश्वर भोग-प्राप्ति उसका लक्ष्य होता है। साधक का लक्ष्य शाश्वत परमात्मा होता है। संसारी व्यक्ति की बातचीत का फल किसी के प्रति राग या द्वेष होता है। संसारियों के साथ बातें करने से राग, द्वेष और जगत की सत्यता दृढ़ होने लगती है। संसारी व्यक्ति जिह्वा के अतिसार से पीड़ित होता है। गपशप, व्यर्थ की बातें, बे-सिरपैर की बातें, लम्बी बातें, बड़ी बातें ये सब उसे सुखद लगती हैं। जबकि साधक मितभाषी, आध्यात्मिक विषय पर ही प्रसंग के अनुसार बोलनेवाला होता है। उसे संसारी बातों में रूचि नहीं और साधना-काल में सांसारिक बातों में उसे पीड़ा भी होती है लेकिन नैतिक भावों से प्रभावित होकर अपनी आन्तर पुकार के विपरीत भी वह संसार की हाँ में हाँ करने लगे अथवा उनके संपर्क में आकर बलात् संसार में खिंच जाये तो उसकी महीनों की कठोर साधना के द्वारा प्राप्त योगारूढ़ता क्षीण होने लगती है। दोनों की चिन्तन-विधि भी परस्पर भिन्न होती है। संसारी व्यक्ति की चिन्तनधारा का विषय पत्नी, संतान, धन संचित करने का उपाय, मित्र और शत्रु, राग-द्वेष होता है। उसका लक्ष्य ऐन्द्रिक सुखों का साधन होता है। उसका चिन्तन बहुत ही तुच्छ होता है। साधक का चिन्तन दिव्य होता है। 'संकल्प-विकल्प मन में उठते हैं उससे परे उसके साक्षी ब्रह्मस्वरूप परमात्मा में स्थिति कैसे हो?' आदि का अर्थात् परमात्म-विश्रान्ति विषयक उसका चिन्तन होता है। संसारी व्यक्ति सदा स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से कार्य करता है, अहंकार सजाने के लिए कार्य करता है जबकि साधक समग्र संसार को अपना स्वरूप समझकर निःस्वार्थ भाव से, अहंकार विसर्जित करते हुए कार्य करता है। संसारी व्यक्ति के पास जो भाग-सामग्री है उसे वह बढ़ाना चाहता है और भविष्य में भी ऐन्द्रिक सुखों की सुव्यवस्था रखता है। साधक सारे ऐन्द्रिक विषय व्यर्थ समझकर इन्द्रियातीत, देशातीत, कालातीत, गुणातीत, आत्मसुख, परमात्म-स्थिति चाहता है। संसारी व्यक्ति जटिलता, बहुलता, रोगों के घर देह और क्षणभंगुर भोग और सुख की तुच्छ लालच में मँडराता है जबकि साधक सरल व्यक्ति होता है। देह से और तुच्छ भोगों से पार आत्मसुख का अभिलाषी होता है। संसारी व्यक्ति संगति खोजता है, साधक सर्वथा एकान्त पसंद करता है। हे साधक ! तथा कथित मित्रों से, सांसारिक व्यक्तियों से अपने को बचाकर सदा एकाकी रहना। यह तेरी साधना की परम माँग है। स्वामी रामतीर्थ प्रार्थना किया करते थेः "हे प्रभु ! मुझे सुखों से और मित्रों से बचाओ। दुःखों से और शत्रुओं से मैं निपट लूँगा। सुख और मित्र मेरा समय व शक्ति बरबाद कर देते हैं और आसक्ति पैदा करते हैं। दुःखों में और शत्रुओं में कभी आसक्ति नहीं होती। जब-जब साधक गिरे हैं तो तुच्छ सुखों और मित्रों के द्वारा ही गिरे हैं। भैया ! सावधान ! एकान्तवास नितान्त आवश्यक है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म परब्रह्म परमात्मा को पाने के लिए एकान्तवास साधना की एक महान् माँग है, अनिवार्य आवश्यकता है। आप एक बार एकान्त का सुख भली प्रकार प्राप्त कर लें तो फिर आप उस पावन एकान्त के बिना नहीं रह सकते। जिन्होंने अपने जीवन का मूल्य नहीं जाना, जिनमें विषय वासना की प्रबलता होती है वे ही निरंकुश बन्दर की तरह एक डाल से दूसरी डाल, कभी काशी कभी मथुरा, कभी डाकोर तो कभी रामेश्वर, कभी गुप्तकाशी तो कभी गंगोत्री, इधर से उधर घूमते रहते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि बहिरंग दौड़-धूप में शक्ति और एकाग्रता क्षीण होती है। उत्तरकाशी, वाराणसी, रामेश्वर और गंगा, यमुना, नर्मदा, तापी के तट पर पवित्र स्थानों के इर्दगिर्द प्रकृति के सुरम्य वातावरण में, अरण्य में, नदी, सरोवर, सागरतट अथवा पहाड़ों में, जहाँ पूर्वकाल में ऋषि, मुनि या संत निवास कर चुके हैं ऐसे पवित्र स्थानों की महिमा का पता सूक्ष्म साधना करने वाले साधकों को ही चल सकता है। महापुरुषों के आध्यात्मिक स्पन्दनवाले स्थान साधक को बहुत सहाय करते हैं। हिमालय और गंगातट जैसे पावन स्थानों में कुछ महीने रहकर अथवा अपने अनूकूल किसी एकान्त कमरे में लोकसंपर्करहित होकर अपनी धारणा तथा ध्यानशक्ति बढ़ायें और बड़ी सावधानीपूर्वक उस एकाग्रता का संरक्षण करें। यदि आप अपनी रक्षा करनी नहीं जानते तो आपका मूल्यवाण प्राण, चुम्बकीय शक्ति, आपकी मानसिक शक्ति और प्राणशक्ति आपसे मिलनेवाले लोगों के प्रति चली जायेगी। आपको एक शक्ति-कवच बना लेना चाहिए। जो उन्नत साधक हों, ज्ञान-वैराग्य-भक्ति से भरे दिलवाले हों, उनके साथ प्रतिदिन एक घण्टा मिलना-जुलना, विचार विमर्श करना हानिकारक नहीं है। आपके हृदय में पता चलेगा कि किन व्यक्तियों से मिलने जुलने में वैराग्य बढ़ता है, प्रसन्नता, शान्ति बढ़ती है और किन लोगों से मिलने में आपके आध्यात्मिक संस्कार व शान्ति क्षीण होती है। संसारी आकांक्षाओंवाले लोगों के बीच अगर आना ही पड़े तो मौन का अवलम्बन लेना, अपनी साधना का प्रभाव छुपाना और उनके बीच जब हो तो जिह्वा तालू में लगाये रखना। इससे तुम्हारी शक्ति क्षीण होने से बच जायेगी। उनकी बातें कम से कम सुनना, युक्तिपूर्वक उनसे अपने को बचा लेना। कभी-कभी अपना मन भी मनोराज करके हवाई किले बाँधने लगता है। साधनाकाल में बड़े प्रचार-प्रसार का और प्रसिद्ध होने का, लोक-कल्याण करने आदि का तूफान मचाया करता है। यह नितान्त हानिकर्ता है। उस समय परमात्मा को सच्चे हृदय से प्यार करें, प्रार्थना करें किः "हे प्रभो ! अहंकार बढ़ाने की मिथ्या नाम रूप की प्रसिद्धि विषयक तुच्छ वासनाएँ मुझे तुमसे मिलने में बाधा कर रहीं हैं। हे नाथ ! हे सर्वनियन्ता ! हे जगदीश्वर ! हे अन्तर्यामी ! मेरी इस निम्न प्रकृति को तू अपने आपमें पावन कर दे। मैं तेरे साथ अभिन्न हो जाऊँ। कहीं ये तुच्छ संकल्प-विकल्प पूरे करने में नया प्रारब्ध न बन जाये, नयी मुसीबतें खड़ी न हो जाय।" इस प्रकार शुद्ध भाव करके निःसंकल्प, निश्चिन्तमना होकर समाधिस्थ होइये। संकल्प का विस्तार नहीं, संकल्प की पूर्ति नहीं लेकिन संकल्प की निवृत्ति हमारा लक्ष्य होना चाहिए। वह दशा आने से वास्तव में सुधार-कार्य आपके द्वारा होने लगेंगे और आपको कोई हानि नहीं होगी। निःसंकल्प ब्रह्म है। संकल्प के पीछे भागना तुच्छ जीव होना है। जो-जो भगीरथ कार्य हुए हैं वे निःसंकल्प अवस्था में पहुँचे हुए महापुरुषों के द्वारा ही हुए हैं। परमात्मा की इस विराट सृष्टि में हमारा मन अपनी कल्पना से सुधारना आदि करने का जाल बुनकर हमें फँसाता है। उस समय 'हरिः ॐ तत्सत् और सब गपशप...। आनन्दोऽहम्.... सर्वोऽहम्.... शिवरूपोऽहम्.... कल्याण-स्वरूपोऽहम्.... मायातीतो-गुणातीतो शान्तशिवस्वरूपोऽहम्....' इस प्रकार अपने शिवस्वरूप में, शान्त स्वरूप में मस्त हो जाना चाहिए। हताशा, निराशा के विचारों को महत्त्व नहीं देना चाहिए। हजार बार मनोराज होने की, पीछे हटने की संभावना है लेकिन हर समय नया उत्साह, सर्वशक्तिदायी प्रणव का जाप, आत्मबल और परमात्म-प्रेम बढ़ाते रहना चाहिए। बन्द कमरे में शुद्ध भाव से अपने अन्तर्यामी प्रभु से, इष्ट से, गुरु से प्यार करके प्रेरणा पाते रहना चाहिए। ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुषों के जीवन-चरित्र और अनुभव-वचनवाले ग्रन्थों का बार-बार अवलोकन करना चाहिए। वास्तव मे देखा जाये तो परमात्म-प्राप्ति कठिन नहीं है लेकिन जब मन और मन की बुनी हुई जालों में फँसते हैं तो कठिन हो जाता है। मन-बुद्धि से परे अपने सूक्ष्म, शुद्ध, 'मैं' को देखो तो नितान्त सरल और सहज सदैव-प्राप्त परमात्मा मिलेगा। तुम्हीं तो वह परब्रह्म परमात्मा हो, जिससे सारा जाना जाता है। हे ज्ञान स्वरूप देव ! तू अपनी महिमा में जाग। कब तक फिसलाहट की खेल-कूद मचा रखेगा? तू जहाँ है, जैसा है, अपने आपमें पूर्ण परम श्रेष्ठ है। अपने शुद्ध, शान्त, श्रेष्ठ स्वरूप में तन्मय रह। छोटे-मोटे व्यक्तियों से, परिस्थितियों से, प्रतिकूलताओं से प्रभावित मत हो। बार-बार ॐकार का गुंजन कर और आत्मानंद को छलकने दे। ॐ....ॐ.....ॐ..... ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुक्रम साधना की नींवः श्रद्धा संसार से वैराग्य होना दुर्लभ है। वैराग्य हुआ तो कर्मकाण्ड से मन उठना दुर्लभ है। कर्मकाण्ड से मन उठ गया तो उपासना में मन लगना दुर्लभ है। मन उपासना में लग गया तो तत्त्वज्ञानी गुरु मिलना दुर्लभ है। तत्त्वज्ञानी गुरु मिल भी गये तो उनमें श्रद्धा होना और सदा के लिए टिकना दुर्लभ है। गुरु में श्रद्धा हो गई तो भी तत्त्वज्ञान में प्रीति होना दुर्लभ है। तत्त्वज्ञान में प्रीति हो जाये लेकिन उसमें स्थिति करना दुर्लभ है। एक बार स्थिति हो गई तो जीवन में दुःखी होना और फिर से माता के गर्भ में उल्टा होकर लटकना और चौरासी के चक्कर में भटकना सदा के लिए समाप्त हो जाता है। तत्त्वज्ञान के द्वारा ब्रह्माकार वृत्ति बनाकर आवरण भंग करके जीवनमुक्त पद में पहुँचना ही परम पुरुषार्थ है। इस पुरुषार्थ-भवन का प्रथम सोपान है श्रद्धा। तामसी श्रद्धावाला साधक कदम-कदम पर फरियाद करता है। ऐसे साधक में समर्पण नहीं होता। हाँ, समर्पण की भ्रांति हो सकती है। वह विरोध करेगा। राजसी श्रद्धावाला साधक हिलता रहता है, भाग जाता है, किनारे लग जाता है। सात्विक श्रद्धावाला साधक निराला होता है। परमात्मा और गुरु की ओर से चाहे जैसे कसौटी हो, वह धन्यवाद से, अहोभाव से भरकर उनके हर विधान को मंगलमय समझकर हृदय से स्वीकृति देता है। प्रायः राजसी और तामसी श्रद्धावाले लोग अधिक होते हैं। तामसी श्रद्धावाला कदम-कदम पर इन्कार करेगा, विरोध करेगा, अपना अहं नहीं छोड़ेगा।  वह अपने श्रद्धेय के साथ, अपने इष्ट के साथ, सदगुरु के साथ विचारों से टकरायगा। राजसी श्रद्धावाला जरा-सी परीक्षा हुई, थोड़ी सी कुछ डाँट पड़ी तो वह किनारे हो जायगा, भाग जाएगा। सात्त्विक श्रद्धावाला किसी भी परिस्थिति में डिगेगा नहीं, प्रतिक्रिया नहीं करेगा। साधक में सात्त्विक श्रद्धा जग गई तो उसका मन तत्त्व-चिन्तन में, आत्म-विचार में लग जाता है। अन्यथा तो तत्त्वेत्ता सदगुरु मिलने के बाद भी तत्त्वज्ञान में मन लगना कठिन है। किसी को आत्म-साक्षात्कारी गुरु मिल जायें और उनमें श्रद्धा भी हो जाये तो यह जरूरी नहीं की सब लोग आत्मज्ञान के तरफ चल ही पड़ेंगे। राजसी-तामसी श्रद्धावाले लोग आत्मज्ञान के तरफ नहीं चल सकते। वे तो अपनी इच्छा के अनुसार तत्त्वज्ञानी सदगुरु से लाभ लेना चाहेंगे। इच्छा-निवृत्ति की ओर से प्रवृत्त नहीं हो सकते। जो वास्तविक लाभ तत्त्वज्ञानी सदगुरु उन्हें देना चाहते हैं उससे वे वंचित रह जाते हैं। सात्त्विक श्रद्धावाले साधक को ही तत्त्वज्ञान का अधिकारी माना गया है और केवल यही तत्त्वज्ञान होने पर्यन्त सदगुरु में अचल श्रद्धा रख सकता है। वह प्रतिकूलता से भागता नहीं और प्रलोभनों में फँसता नहीं। संदीपक ने ऐसी श्रद्धा रखी थी। सदगुरु ने कड़ी कसौटियाँ की, उसे दूर करना चाहा लेकिन वह गुरुसेवा से विमुख नहीं हुआ। गुरु ने कोढ़ी का रूप धारण किया, सेवा के दौरान कई बार संदीपक को पीटते थे फिर भी कोई शिकायत नहीं। कोढ़ी शरीर से निकलने वाला गन्दा खून, पीव, मवाद, बदबू आदि के बावजूद भी गुरुदेव के शरीर की सेवा-सुश्रुषा से संदीपक कभी ऊबता नहीं था। भगवान विष्णु और भगवान शंकर आये, उसे वरदान देना चाहा लेकिन अनन्य निष्ठावाले संदीपक ने वरदान नहीं लिया। विवेकानन्द होकर विश्वविख्यात बनने वाले नरेन्द्र को जब सात्विक श्रद्धा रहती तब रामकृष्णदेव के प्रति अहोभाव बना रहता है। जब राजसी श्रद्धा होती तब वे भी हिल जाते। उनके जीवन में छः बार ऐसे प्रसंग आये थे। पहले तो आत्मज्ञानी सदगुरु मिलना अति दुर्लभ है। वे मिल भी जायें तो उनके प्रति हमारी सात्त्विक श्रद्धा निरन्तर बनी रहना कठिन है। हमारी श्रद्धा रजो-तमोगुण से प्रभावित होती रहती है। इसलिए साधक कभी हिल जाता है और कभी विरोध भी करने लगता है। अतः जीवन में सत्त्वगुण बढ़ाना चाहिए। आहार की शुद्धि से, चिन्तन की शुद्धि से सत्त्वगुण की रक्षा की जाती है। अशुद्ध आहार, अशुद्ध विचारे वाले व्यक्तियों के संग से बचना चाहिए। अपने जीवन के प्रति लापरवाही रखने से श्रद्धा का घटना, बढ़ना, टूटना-फूटना होता रहता है। फलतः साधक को साध्य तक पहुँचने में वर्षों लग जाते हैं। जीवन पूरा हो जाता है फिर भी आत्मसाक्षात्कार नहीं होता। साधक अगर पूरी सावधानी के साथ छः महीना ठीक प्रकार से साधना करे तो संसार और संसार की वस्तुएँ आकर्षित होने लगती हैं। सूक्ष्म जगत की कुंजियाँ हाथ लग जाती हैं। निरन्तर सात्विक श्रद्धायुक्त साधना से साधक बहुत ऊपर उठ जाता है। रजो-तमोगुण से बचकर, सत्त्वगुण के प्राधान्य से साधक तत्त्वज्ञानी सदगुरु के ज्ञान में प्रवेश पा लेता है। फिर तत्त्वज्ञान का अभ्यास करने में परिश्रम नहीं पड़ता। अभ्यास सत्त्वगुण बढ़ाने के लिए, श्रद्धा को सात्विक श्रद्धा स्थिर हो गई तो तत्त्वविचार अपने आप उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए साधक को साधना में तत्पर रहना चाहिए, सात्त्विक श्रद्धा की सुरक्षा में सतर्क रहना चाहिए। इष्ट में, भगवान में, सदगुरु में सात्त्विक श्रद्धा बनी रहे। तत्त्वज्ञान तो कइयों को मिल जाता है लेकिन वे तत्त्वज्ञान में स्थिति नहीं करते। स्थिति करना चाहते हैं तो ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न करने की खबर नहीं रखते। बढ़िया उपासना किए बिना भी किसी को सदगुरु की कृपा से जल्दी तत्त्वज्ञान हो जाये तो भी विक्षेप रहेगा। मनोराज हो जाने की संभावना है। उच्च कोटि के साधक आत्म-साक्षात्कार के बाद भी ब्रह्माभ्यास में सावधानी से लगे रहते हैं। साक्षात्कार के बाद ब्रह्मानन्द में लगे रहना यह साक्षात्कार की शोभा है। जिन महापुरुषों को परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है, वे भी ध्यान-भजन, शुद्धि-सात्त्विकता का ख्याल रखते हैं। हम लोग अगर लापरवाही कर दें तो अपने पुण्य और साधना के प्रभाव का नाश ही करते हैं। जीवन में जितना उत्साह होगा, साधना में जितनी सतर्कता होगी, संयम में जितनी तत्परता होगी, जीवनदाता का मूल्य जितना अधिक समझेंगे उतनी हमारी आंतरयात्रा उच्च कोटि की होगी। ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न होना भी ईश्वर की परम कृपा है। सात्त्विक श्रद्धा होगी, ईमानदारी से अपना अहं परमात्मा में समर्पित हो सकेगा तभी यह कार्य संपन्न हो सकता है। तुलसीदासजी कहते हैं- ये फल साधन ते न होई......। ब्रह्मज्ञानरूपी फल साधन से प्रकट न होगा। साधन करते-करते सात्त्विक श्रद्धा तैयार होती है। सात्त्विक श्रद्धा ही अपने इष्ट में, तत्त्व में अपने आपको अर्पित करने को तैयार हो जाती है। जैसे लोहा अग्नि की प्रशंसा तो करे, अग्नि को नमस्कार तो करे लेकिन जब तक वह अग्नि में प्रवेश नहीं करता, अपने आपको अग्नि में समर्पित नहीं कर देता तब तक अग्निमय नहीं हो सकता। लोहा अग्नि में प्रविष्ट हो जाता है तो स्वयं अग्नि बन जाता है। उसकी रग-रग में अग्नि व्याप्त हो जाती है। ऐसे ही साधक जब तक ब्रह्मस्वरूप में अपने आपको अर्पित नहीं करता तब तक भले ब्रह्म परमात्मा के गुणानुवाद करता रहे, ब्रह्मवेत्ता सदगुरु क गीत गाता रहे, इससे लाभ तो होगा, लेकिन ब्रह्मस्वरूप, गुरुमय, भगवदमय ईश्वर नहीं बन पाता। जब अपने आपको ईश्वर में, ब्रह्म में, सदगुरु में अर्पित कर देता है तो पूर्ण ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। 'ईश्वर' और 'गुरु' ये शब्द ही हैं लेकिन तत्त्व एक ही है। ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्ति भेदे विभागिनोः। आकृतियाँ दो दिखती हैं लेकिन वास्तव में तत्त्व एक ही है। गुरु के हृदय में जो चैतन्य प्रकट हुआ है वह ईश्वर में चमक रहा है। ईश्वर भी यदि भक्त का कल्याण करना चाहें तो सदगुरु के रूप में आकर परम तत्त्व का उपदेश देंगे। ईश्वर संसार का आशीर्वाद ऐसे ही देंगे लेकिन भक्त को परम कल्याण रूप आत्म-साक्षात्कार करना होगा तो ईश्वर को भी आचार्य की गद्दी पर आना पड़ेगा। जैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया श्रीरामजी ने हनुमानजी को उपेदेश दिया। साधक ध्यान-भजन-साधना करते हैं। भजन की तीव्रता से भाव मजबूत हो जाता है। भाव के बल से भाव के अनुसार संसार में चमत्कार भी कर लेते हैं लेकिन भाव साधना की पराकाष्ठा नहीं है, क्योंकि भाव बदलते रहते हैं। साधना की पराकाष्ठा है ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न करके आत्मसाक्षात्कार करना। साधन-भजन-ध्यान में उत्साह, जगत में नश्वरबुद्धि और उच्चतम लक्ष्य की हमेशा स्मृति, ये तीन बातें साधक को महान् बना देती हैं। ऊँचे लक्ष्य का पता नहीं तो विकास कैसे होगा? ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न करके आवरण भंग करना, आत्म-साक्षात्कार करके जीवनमुक्त होना, यह लक्ष्य यदि जीवन में नहीं होगा तो साधना की छोटी-मोटी पद्धतियों में, छोटे-मोटे साधना के चुटकुले में रुका रह जायेगा। कोल्हू के बैल की तरह वहीं घूमते-घूमते जीवन पूरा कर देगा। अगर सावधानी से छः महीने तक ठीक ढंग से उपासना करे, तत्त्वज्ञानी सदगुरु के ज्ञान को विचारे तो उससे अदभुत लाभ होने लगता है। लाबयान ऊँचाई के सामर्थ्य का अनुभव करने लगता है। संसार का आकर्षण टूटने लगता है। उसके चित्त में विश्रान्ति आने लगती है। संसार के पदार्थ उससे आकर्षित होने लगते हैं। फिर उसे रोजी-रोटी के लिए, सगे-सम्बन्धी, परिवार-समाज को रिझाने के लिए नाक रगड़ना नहीं पड़ता। वे लोग ऐसे ही रीझने को तैयार रहेंगे। केवल छः महीने की सावधानी पूर्वक साधना..... सारी जिन्दगी की मजदूरी से जो नहीं पाया वह छः महीने में पा लेगा। लेकिन सच्चे साधक के लिए तो वह भी तुच्छ हो जाता है। उसका लक्ष्य है ऊँचे से ऊँचा साध्य पा लेना, आत्म-साक्षात्कार कर लेना। प्रह्लाद के पिता ने प्रह्लाद को भजन करने से रोका था। लेकिन प्रह्लाद की प्रीति-भक्त भगवान में दृढ़ हो चुकी थी। प्रारम्भ से ही उसने सत्संग सुना था। जब वह माँ कयाधू के गर्भ में था तब कयाधू नारदजी के आश्रम में रही थी। माँ तो सत्संग सुनते झपकियाँ ले लेती थी लेकिन गर्भस्थ शिशु के मानस पर सत्संग के संस्कार ठीक से अंकित होते थे। प्रह्लाद ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसके पिता हिरण्यकशिपु ने उसको सिपाहियों के साथ गश्त करने के रखा। एक रात को प्रह्लाद ने देखा कि दूर कहीं आग की ज्वालाएँ निकल रही हैं, धुआँ उठ रहा है। नजदीक जाकर देखा तो कुम्हार के मटके पकाने के निभाड़े में आग लगाई थी। कुम्हार वहाँ खड़ा हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहा थाः "हे प्रभो ! अब मेरे हाथ की बात नहीं रही और तू चाहे तो तेरे लिए कुछ कठिन नहीं। हे भगवान ! तू दया कर। मैं तो नादान हूँ लेकिन तू उदार है। हे कृपासिन्धो ! तू मेरी भूल सुधार दे। मैं जैसा तैसा हूँ लेकिन तेरा हूँ। तू रहम कर। तेरी दया से सब कुछ हो सकता है। तू उन निर्दोष बच्चों को बचा ले नाथ !" कुम्हार बार-बार प्रणाम कर रहा है। आँखों में आँसू सरक रहे हैं। वही प्रार्थना के शब्द दुहराये जा रहा है और निभाड़े की आग जोर पकड़ रही है। प्रह्लाद उसके पास गया और पूछाः प्रश्नः क्या बाता है? क्या बोल रहा है? कु. "कुमार ! हमने मटके बनाये और आग में पकाने के लिए जमाकर रखे थे। उन कच्चे मटकों में बिल्ली ने बच्चे दे रखे थे। हमने सोचा था कि आग लगाने के पहले उन्हें निकाल लेंगे। लेकिन भूल गये। निभाड़े के बीच में बच्चे रह गये और आग लग चुकी है। अब याद आया कि अरे ! नन्हें-मुन्ने मासूम बच्चे जल-भुनकर मर जायेंगे। अब हमारे हाथ की बात नहीं रही। चारों और आग लपटें ले रही है। प्रभु अगर चाहें तो हमारी गलती सुधार सकता है। बच्चों को बचा सकता है।" प्रश्नः "यह क्या पागलपन की बात है? ऐसी आग के बीच बच्चे बच सकते हैं?" कु.- "हाँ युवराज ! परमात्मा सब कुछ कर सकता है। वह कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थः है। वही तो छोटे-से बीज में से विशाल वृक्ष बना देता है। पानी की बूँद में से राजा-महाराजा खड़ा कर देता है। वही पानी की बूँद मनुष्य बनकर रोती है, अच्छा-बुरा, अपना-पराया बनाती है। जीवनभर मेरा-तेरा करती है और आखिर में मुट्ठीभर राख का ढेर छोड़कर भाग जाती है। यह क्या ईश्वर की लीला का परिचय नहीं है? समुद्र में बड़वानल जलती है वह पानी से बुझती नहीं और पेट में जठराग्नि रहती है वह शरीर को जलाती नहीं। गाय रूखा-सूखा घास खाती है और सफेद मीठा दूध पीता है तो जहर बनाता है। माँ रोटी खाती है तो दूध बनाती है। बच्चा बड़ा हो जाता है तो दूध अपने आप बन्द हो जाता है। परमात्मा की लीला अपरंपार है। वह बिल्ली के बच्चों को भी बचा सकता है।" प्र.- "बिल्ली के बच्चे कैसे बचते हैं यह मुझे देखना है। मटके पक जायें और तुम निभाड़ा जब खोलो तब मुझे बुलाना।" कु.- "हाँ महाराज ! आप सुबह में आना। आप आयेंगे बाद में मैं निभाड़ा खोलूँगा।" सुबह में प्रह्लाद पहुँच गया। कुम्हार ने थोड़ा सा अन्तर्मुख होकर भगवान का स्मरण करते हुए चारों ओर से गरम-गरम मटके हटाये तो बीच के चार मटके कच्चे रह गये थे। उनको हिलाया तो बिल्ली के बच्चे 'म्याऊँ म्याऊँ' करते छलांग मारकर बाहर निकल आये। प्रह्लाद के चित्त में सत्संग के संस्कार सुषुप्त पड़े थे वे जग आये, भगवान की स्मृति हो आयी और लगा कि सार वही है। संसार से वैराग्य हो गया और भजन में मन लग गया। प्रह्लाद भगवान के रास्ते चल पड़ा तो घोर विरोध हुआ। एक असुर बालक विष्णुजी की भक्ति करें, देवों के शत्रु हिरण्यकशिपु यह कैसे सह सकता है? फिर भी प्रह्लाद दृढ़ता से भजन करता रहा। पिता ने उसे डाँटा, फटकारा, जल्लादों से डराया, पर्वतों से गिरवाया, सागर में डुबवाया लेकिन प्रह्लाद की श्रद्धा नहीं टूटी। पहले तो ईश्वर में सच्ची श्रद्धा होना कठिन है। श्रद्धा को जाय लेकिन टिकना कठिन है। श्रद्धा टिक भी जाये फिर भी तत्त्वज्ञान होना कठिन है। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने के लिए कई प्रयास किये। प्रह्लाद ने सोचाः 'जिस हरि ने बिल्ली के बच्चों को बचाया तो क्या मैं उसका बच्चा नहीं हूँ? वह मुझे भी बचाएगा।' प्रह्लाद भगवान के शरण हो गया। पिता ने पर्वतों से गिरवाया तो मरा नहीं, सागर में फिंकवाया तो डूबा नहीं। आखिर लोहे के स्तंभ को तपवाकर पिता बोलाः "तू कहता है कि मेरा भगवान सर्वत्र है, सर्व समर्थ है। अगर ऐसा है तो वह इस स्तंभ में भी है, तो तू उसका आलिंगन कर। वह सर्व समर्थ है तो यहाँ भी प्रकट हो सकता है।" प्रह्लाद ने तीव्र भावना करके लोहे के तपे हुए स्तंभ को आलिंगन किया तो वहाँ भगवान का नृसिंहावतार प्रकट हुआ। जब भोगों का बाहुल्य हो जाता है, जब दुष्टों के जोर जुल्म बढ़ जाते हैं तब भगवान के चाहे कहीं से किसी भी रूप में प्रकट होने को समर्थ हैं। नृसिंह के रूप में भगवान प्रकट हुए। हिरण्यकशिपु का वध करके स्वधाम पहुँचाया, प्रह्लाद को राज्य दिया और भगवान अन्तर्ध्यान हो गये। प्रह्लाद ने भगवान के दर्शन तो किए लेकिन भगवत्तत्व का साक्षात्कार अभी नहीं हुआ। भगवान का तात्त्विक स्वरूप जानना कठिन है। कुछ समय बीता। असुरों के आचार्य ने प्रह्लाद को भरमाया। बोलेः "प्रह्लाद ! विष्णु ने तुम्हारे पिता को मार डाला। तुमने उनकी शरण माँगी थी, रक्षण की प्रार्थना की थी लेकिन ऐसा कहा था कि मेरे पिता को मार डालो?" "नहीं, मैंने पिता को मारने को तो नहीं कहा था।" "तुमने कहा नहीं फिर क्यों मारा? तुम पर विष्णु की प्रीति थी तो पिता की बुद्धि सुधार देते। उनकी हत्या क्यों की?" विष्णु भगवान में प्रह्लाद की दृढ़ श्रद्धा तो थी लेकिन श्रद्धा को हिलानेवाले लोग मिल जाते हैं तो श्रद्धा 'छू....' हो जाती है। ऐसी श्रद्धा हिलाने वाले कई लोग साधक के जीवन में आते रहते हैं। ऐसी श्रद्धा हिलाने वाले कई लोग साधक के जीवन में आते रहते हैं। साधना में, गुरुमन्त्र में, ईश्वर में, सदगुरु में, सत्संग में श्रद्धा हिलानेवाला कोई न कोई तो मिल ही जायेगा। बाहर से कोई नहीं मिलेगा तो हमारा मन ही तर्क-वितर्क करके विरोध करेगा, श्रद्धा को हिलायेगा। इसीलिए श्रद्धा सदा टिकनी कठिन है। असुरगुरु शुक्राचार्य ने प्रह्लाद की श्रद्धा को हिला दिया। शुक्राचार्य तत्त्वज्ञानी नहीं हैं, संजीवनी विद्या जानते हैं। असुरों पर उनका पूरा प्रभाव है। लेकिन ब्रह्मज्ञान के सिवाय का प्रभाव किस काम का? वह प्रभाव तो चौरासी लाख योनियों की यातनाओं के प्रति ही खींच ले जायगा। शुक्राचार्य प्रह्लाद को कहते हैं- विष्णु ने तुम्हारे बाप को मार डाला फिर भी तुम उनको पूजते हो? कैसे मूर्ख हो ! इतनी अन्धश्रद्धा? किसी श्रद्धालु को कोई बोले कि 'ऐसी तुम्हारी अन्धश्रद्धा !' तो वह बचाव तो करेगा कि मेरी अन्धश्रद्धा नहीं है, सच्ची श्रद्धा है लेकिन विरोधी का कथन उसकी श्रद्धा को झकझोर देगा। शब्द देर-सबेर चित्त पर असर करते ही हैं इसीलिए 'गुरुगीता' में भगवान शंकर ने रक्षा का कवच फरमाया किः गुरुनिन्दाकरं दृष्टवा धावयेदथ वासयेत्। स्थानं वा तत्परित्याज्यं जिह्वाच्छेदाक्षमो यदि।। 'गुरु की निन्दा करने वाले देखकर यदि उसकी जिह्वा काट डालने में समर्थ न हो तो उसे अपने स्थान से भगा देना चाहिए। यदि वह ठहरे तो स्वयं उस स्थान का त्याग कर देना चाहिए।' शुक्राचार्य ने प्रह्लाद में भगवान विष्णु के प्रति वैरभाव के संस्कार भर दिये। प्रह्लाद आ गया उनके प्रभाव में। कहने लगाः "आप कहो तो विष्णु से बदला लूँ।" भगवान विष्णु का विरोध करता हुआ प्रह्लाद सेना को सुसज्जा कर के आदि नारायण का आवाहन कर रहा हैः "आ जाओ। तुम्हारी खबर लेंगे।" भगवान भक्त का अहंकार और पतन नहीं सह सकते। दयालु श्रीहरि ने बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण किया। हाथ में लकड़ी, झुकी कमर, कृश काय, श्वेत वस्त्रादि से युक्त ब्राह्मण के रूप में प्रह्ललाद के राजदरबार में जाने लगे। द्वार पर पहुँचे तो दरबान ने कहाः "हे ब्राह्मण ! प्रह्लाद युद्ध की तैयारी में हैं। युद्ध के समय साधु-ब्राह्मण का दर्शन ठीक नहीं माना जाता।" ब्राह्मण वेशधारी प्रभु ने कहाः "मैंने सुना है कि प्रह्लाद साधु ब्राह्मण का खूब आदर करते हैं और तू मुझे जाने से रोक रहा है?" दरबान के कहाः "प्रह्लाद पहले जैसे नहीं हैं। अब सावधान हो गये हैं। शुक्राचार्य ने उनको समझा दिया है। अब तो भगवान विष्णु से बदला लेने की तैयारी में हैं। साधु-ब्राह्मण का आदर करने वाले प्रह्लाद वे नहीं रहे। हे ब्राह्मण ! तुम चले जाओ।" "भाई ! कुछ भी हो, मैं अब प्रह्लाद से मिलकर ही जाऊँगा। तू नहीं जाने देगा तो मैं यहीं प्राण त्याग दूँगा। तुमको ब्रह्महत्या लगेगी।" इस प्रकार द्वारपाल को समझा-बुझाकर भगवान प्रह्लाद के समक्ष पहुँचे। अभिवादन करते हुए ब्राह्मण वेशधारी प्रभु ने कहाः "प्रह्लाद ! तेरा कल्याण हो। सुना है अपने पितृहन्ता विष्णु से तुम बदला लेना चाहते हो। तुम मेरा बदला भी लेना। मुझ बूढ़े ब्राह्मण का भी सर्वनाश हो गया।" ब्राह्मण वेशधारी भगवान ने विष्णु विरोधी कुछ बातें कहीं। प्रह्लाद ने उनको नजदीक बिठाया। बातों का सिलसिला चला। ब्राह्मण ने पूछाः "तुम विष्णु से बदला लेना चाहते हो? विष्णु कहाँ रहते हैं?" प्र.- "वे तो सर्वत्र हैं। सर्व हृदयों में बैठे हैं।" ब्रा.- "हे मूर्ख प्रह्लाद ! जो सर्वत्र है, सर्व हृदयों में है, उसका विनाश तू कैसे करेगा? मालूम होता है, जैसा मैं मूर्ख हूँ, वैसा ही तू मन्दमति है। शुक्र के बहकावे में आकर दुष्ट निश्चयी हुआ है। मैं यह छड़ी गाड़ता हूँ जमीन में, उसको तू निकालकर दिखा तो मानूँगा कि तू विष्णु से युद्ध कर सकता है।" ब्राह्मण वेशधारी भगवान ने जमीन में अपनी छड़ी गाड़ दी। प्रह्लाद उठा सिंहासन से। खींचा छड़ी को एक हाथ से, फिर दोनों हाथ से। पूरा बल लगाया। छड़ी खींचने में झुकना पड़ा। बल लगा। प्राणापान की गति सम हुई। राज्यमद कुछ कम हुआ। प्रह्लाद की बुद्धि में प्रकाश हुआ कि यह ब्राह्मण वेशधारी कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो सकता है। भक्ति के पुराने संस्कार थे ही। ऊपर से कुसंस्कार जो पड़े थे वे हटते ही प्रह्लाद उस ब्राह्मण वेशधारी को नम्रतापूर्वक आदर भरे वचनों से कहने लगाः "हे विप्रवर ! आप कौन हैं?" भगवान बोलेः "जो अपने को नहीं जानता वह मेरे को भी ठीक से नहीं जानता। जो अपने को और मेरे को नहीं जानता वह माया के संस्कारों में सूखे तिनके की नाई हिलता-डुलता रहता है। हे प्रह्लाद ! तू सन्मति को त्याग कुमति के आधीन हुआ है। तबसे तू अशान्त और दुःखी हुआ है। कुनिश्चय करने वाला व्यक्ति हमेशा दुःख का भागी होता है।" करूणानिधान के कृपापूर्ण वचन सुनकर प्रह्लाद समझ गया कि ये तो मेरे श्रीहरि हैं। चरणों पर गिर पड़ा। क्षमा माँगने लगा। तब भक्तवत्सल भगवान प्रह्लाद को कहने लगेः "क्षमा तो तू कर। मेरे को मारने के लिए इतनी सेना तैयार की है ! तू क्षमा कर मेरे को!" कहाँ तो पिता की इतनी शासना-पर्वत से गिराना, पानी में फेंकना आदि ! ये शासना करने पर भी प्रह्लाद विष्णु की भक्ति में लगे रहे। शुक्राचार्य ने अपना होकर धीरे-धीरे कुसंस्कार भर दिये तो वही प्रह्लाद विष्णुजी युद्ध करने को तत्पर हुआ। जब तक सर्व व्यापक श्रीहरित्व का साक्षात्कार नहीं होता, अन्तःकरण से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता, परिच्छिन्नता नहीं मिटती तब तक जीव की श्रद्धा और स्थिति चढ़ती उतरती रहती है। वैकुंठ में भगवान के पार्षद जय-विजय प्रतिदिन श्रीहरि का दर्शन करते हैं लेकिन हरितत्त्व का साक्षात्कार न होने क कारण उनको भी तीन जन्म लेने पड़े। प्रह्लाद को श्रीहरि के श्रीविग्रह का दर्शन हुआ, हरि सर्वत्र है ऐसा वृत्तिज्ञान तो था लेकिन वृत्तिज्ञान सुसंग कुसंग से बदल जाता है। पूर्ण बोध अबदल है। प्रह्लाद जैसों की भी श्रद्धा कुसंग के कारण हिल सकती है तो हे साधक ! भैया ! तू ऐसे वातावरण से, ऐसे व्यक्तियों से, ऐसे संस्कारों के बचना जो तुझे साधना के मार्ग से, ईश्वर के रास्ते से फिसलाते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुक्रम जैसी भावना वैसी सिद्धि भगवान सर्वव्यापक और शाश्वत हैं। वे सबको मिल सकते हैं। आप जिस रूप में भगवान को पाना चाहते हैं उस रूप में आपको मिलते हैं। श्रीकृष्ण गीता में भी वचन देते हैं किः ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। 'हे अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ।' (गीताः 4.11) आप कुशलता से परिश्रम करते हैं, पुरुषार्थ करते हैं तो भगवान पदार्थों के रूप में मिलेंगे। आलसी और प्रमादी रहते हैं तो भगवान रोग और तमोगुण के रूप में मिलेंगे। दुराचारी रहते हैं तो भगवान नरक में मिलेंगे। सदाचारी और संयमी रहते हैं तो भगवान स्वर्ग के रूप में मिलेंगे। सूर्योदय के पहले स्नानदि से शुद्ध होकर प्रणव का जाप करते हैं तो भगवान आनन्द के रूप में मिलते हैं। सूर्योदय के बाद भी सोते रहते हैं तो भगवान आलस्य के रूप में मिलेंगे। भगवान की बनाई अनेक लीलाओं को, इष्टदेव को, आत्मवेत्ता सदगुरु को प्यार की निगाहों से देखते हैं, श्रद्धा-भाव से, अहोभाव से दिल को भरते हैं तो भगवान प्रेम के रूप में मिलेंगे। वेदान्त का विचार करते हैं, आत्म-चिन्तन करते हैं तो भगवान तत्त्व के रूप में मिलेंगे। घृणा और शिकायत के रूप में देखते हैं तो भगवान शत्रु के रूप में मिलेंगे। धन्यवाद की दृष्टि रखते हैं तो भगवान मित्र के रूप में मिलते है। अपने चित्त में सन्देह है, फरियाद है, चोर डाकू के विचार हैं तो भगवान उसी रूप में मिलते हैं। अपनी दृष्टि में सर्व ब्रह्म की भावना है, सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म दृष्टि आता है तो दूसरों की नजरों में जो क्रूर हैं, हत्यारे हैं, डाकू हैं, वे तुम्हारे लिए क्रूर हत्यारे नहीं रहेंगे। आप निर्णय करो कि भगवान को किस रूप में देखना चाहते हैं। जब सब भगवान हैं, सर्वत्र भगवान हैं तो आपको जो मिलेगा वह भगवान ही है। समग्र रूप उसी के हैं। यह स्वीकार कर लो तो सब रूपों में भगवान मिल जायेंगे। आनन्द ही आनन्द चाहो, प्रेम ही प्रेम चाहो तो भगवान उसी रूप में मिलेंगे। किसी को लगेगा कि जब सर्वत्र भगवान हैं तो पाप-पुण्य क्यों? फिर पाप करने में हर्ज क्या है? हाँ, कोई हर्ज नहीं। डटकर पाप करो। फिर भगवान नरक के रूप में प्राप्त होंगे। 'सब ब्रह्म है तो जो आवे सो खाओ, जो आवे सो पियो, जो मिले सो भोगो, चाहे सो करो क्या हर्ज है?' तो भगवान सर्वत्र हैं। वे रोग के रूप में प्रकट होंगे। संयम से रहोगे तो भगवान स्वास्थ्य के रूप में प्रकट होंगे। भगवान हमारे समक्ष अपने समग्र रूप में प्रकट हो जायें ऐसी इच्छा हो तो अपने 'मैं' को खोजो। 'मैं' खो जाएगा फिर लगेगा कि भगवान समग्र रूपों में हैं और भी भगवत्तत्व था। महायोगी श्री अरविन्द गीता के महान् उपासक थे। वे गीता के सत्यों को अपने जीवनरूपी साँचे में ढालने को पूर्णरूपेण कृतसंकल्प थे। वेदों और उपनिषदों का सार गीता है जिसे पढ़कर उन्होंने तीन प्रतिज्ञाएँ की थीं। राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर भारत माता को अँग्रेजों की गुलामी की जंजीरों से मुक्त करना एवं आत्मसाक्षात्कार करना। अलिपुर बम-कांड में उनकी धरपकड़ हुई और कारावास में डाल दिये गये। वहाँ पर भी उनकी योग साधना सतत चालू थी। रात-रात भर परमात्मा के ध्यान में मग्न रहते थे। श्री अरविन्द के बचाव पक्ष के बैरीस्टर श्री चित्तरंजनदास थे जिन्होंने फीस में एक पाई भी न ली थी (बाद में वे देशबन्धु दास के नाम से प्रसिद्ध हुए)। सरकार की ओर से सैंकड़ों प्रमाण और साक्षी खड़े किये गये थे जिनका खंडन करने के लिए उन्हें दिन रात श्रम करना पड़ता था। सालभर मुकद्दमा चला। एक दिन अंग्रेज न्यायाधीश के पास कड़े पुलिस बंदोबस्त तले श्री अरविंद को जेल में से अदालत लाया गया। देशभक्ति से चकचूर जनता ने न्यायालय को खचाखच भर दिया था। सरकारी वकीलों के समक्ष बेरीस्टर चित्तरंजनदास उपस्थित हुए। उस समय विद्युत-पंखे नहीं थे। विशाल चँवर से न्यायाधीश पर पवन डाला जा रहा था। चँवर डुलाने के लिए कैदियों का उपयोग किया जाता था। सरकार कृतसंकल्प थी कि श्री अरविन्द को मुजरिम साबित कर फाँसी पर लटका दे और श्री अरविन्द शांतभाव से श्रीकृष्ण का चिन्तन किये जा रहे थे। उस समय उन्हें जो अनुभूति हुई वह अत्यंत रसीली एवं अदभुत थी। भगवान के समग्र स्वरूप का गीता वचन प्रत्यक्ष हुआ। श्री अरविन्दजी के ही शब्दों में इस प्रकार हैः "मैंने न्यायाधीश की ओर देखा तो मुझे उनमें श्रीकृष्ण ही मुस्कराते दीखे। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने वकीलों की ओर देखा तो मुझे वकील दिखाई ही नहीं दिये, सब श्रीकृष्ण का रूप दिखाई दिये। वहाँ उपस्थित कैदियों की ओर निहारा तो सब कृष्णरूप धारण कर बैठे हुए दिखे। जगह-जगह मुझे श्रीकृष्ण का हूबहू दर्शन हुआ। श्रीकृष्ण मेरे सामने देखकर बोलेः 'तू बराबर देख। मैं सर्वव्यापी हूँ, फिर डर किस बात का?' उनके दिव्य दर्शन से, अभयदान प्रदान करती हुई उनकी वाणी से मैं संपूर्ण निर्भय हो गया। चिन्ता मात्र पलायन हो गई।" वर्षभर अदालत में मुकद्दमा चला। केस के अन्त में गोरे न्यायाधीश ने चुकादा दियाः 'निर्दोष'। लोगों के आनंद का पार न रहा। उन्होंने श्री अरविन्द को कन्धे पर बिठाकर आनंदोत्सव मनाते हुए प्रचण्ड जयघोष कियाः "जय श्रीकृष्ण, जय श्री अरविन्द।" समय की धारा में वह प्रसंग भी सरक गया, स्वप्न की नाई। उमा कहौं मैं अनुभव अपना। सत्य हरिभजन, जगत सब सपना।। यह सपने जैसे संसार में सब समय की धारा में स्वप्नवत् हो जाता है। अतः जगत सब स्वप्न है। 'मैं आत्मरूप से सबका आधार सच्चिदानंद स्वरूप हूँ... सोऽहम्.... शिवोऽहम्.....' ऐसा चिन्तन करोगे तो भगवान ब्रह्म के रूप में प्रकट हो जाएँगे। भोगी और विलासी को रोग होते हैं। विकारी जीवन में पश्चाताप, भय और चिन्ता होती है। भय, चिन्ता होवे तभी 'भगवान भय और चिन्ता के रूप में प्रकट हुए हैं' – ऐसा करके भय और चिन्ता से बाहर निकल जाओ। भगवदबुद्धि से भय को देखोगे तो भय दुःख नहीं देगा। भगवदबुद्धि से रोग और शत्रु को देखोगे तो रोग और शत्रु दुःख नहीं देंगे। भगवदबुद्धि से सुख और स्वर्ग को देखोगे तो वह सुख और स्वर्ग विषयासक्ति नहीं कराएँगे। कितने सुन्दर समाचार हैं! आप भगवान को किसी रूप में प्रकट करना नहीं चाहते लेकिन भगवान जैसे हैं वैसा जमाना चाहते हैं, जैसे हैं वैसे ही देखना चाहते हैं। जैसे हैं वैसे देखना चाहते हैं तो वे सब कुछ हैं। उनको सब कुछ जान लो, देख लो। नरक भी वे ही हैं, स्वर्ग भी वे ही हैं। रोग भी वे ही हैं और जो स्वास्थ्य भी वे ही हैं। धन्यवाद भी वे ही हैं, शिकायत भी वे ही हैं। 'हमको भगवान पूरे दिखने चाहिए।' पूरा देखनेवाला कौन है, उसको पूरा खोजो। जो पूरा देखने वाले को पूरा खोज लेता है उसके अपने भीतर भगवान पूरे प्रकट हो जाते हैं। खोजने में परिश्रम पड़े तो वे सब कुछ हैं ही ऐसा संतों का अनुभव मान लो न ! अपने को पूरा खोजोगे तो क्या होगा? हेरत हेरत गयो कबीरो हेराई। खोजते-खोजते खोजनेवाला खो जायेगा। 'मैं..... मैं....' करने वाला मिथ्या हो जायेगा। शेष ब्रह्म ही ब्रह्म रह जायेगा। नमक की पुतली गई समुद्र की थाह लेने। पुतली तो खो गई, हो गई सागर। ऐसे ही देह और अहंकार खो गया और रह गया केवल ब्रह्म। मिटी बूँद हो गई सागर। बूँद भी पानी है, सागर भी पानी है। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने करोड़ों ग्रन्थों का सार बताते हुए कहाः श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव ना परः।। अर्ध श्लोक कर कहता हूँ कोटि ग्रन्थ को सार। ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या जीव ब्रह्म निरधार।। जिसको मूल हम जीवात्मा बोलते हैं वह ब्रह्म अलग से नहीं है। जिसे हम तरंग बोलते हैं वह सागर से अलग नहीं। जिसे घटाकाश बोलते हैं वह महाकाश से अलग नहीं। जिसको हम जेवर बोलते हैं वह सोने से अलग नहीं। जिसे हम दो गज जमीन बोलते हैं वह पूरी पृथ्वी से अलग नहीं। दीवाल बाँध कर सीमा खड़ी कर सकते हो लेकिन अलग नहीं कर सकते हो लेकिन जमीन अलग नहीं कर सकते। 'हमारी जमीन..... तुम्हारी जमीन' ये मन की रेखाएँ खड़ी कर सकते हो लेकिन जमीन अलग नहीं कर सकते। ऐसे ही 'हमारा शरीर.... तुम्हारा शरीर....' अलग मान सकते हो लेकिन दोनों की जो वास्तविक 'मैं' है उसे अलग नहीं कर सकते। घड़ों का अलगाव हो सकता है लेकिन घड़ों के आकाश का अलगाव नहीं हो सकता। चित्त के अलगाव हो सकते हैं लेकिन चित्त जिसके आधार से फुरते हैं उल चिदाकाश का अलगाव नहीं हो सकता। 'वह चिदाकाश आत्मा मैं हूँ'.... ऐसा ज्ञान कराने का भगीरथ कार्य वेदान्त का है। 'वास्तव मे तुम आत्मा हो, विश्वात्मा हो, परब्रह्म परमात्मा हो। मरने और जन्मने वाले पुतले नहीं हो' – ऐसा वेदान्त दर्शन फरमाता है। ॐ.... ॐ.....ॐ.... ऐसा ज्ञान पचाने वाला सिद्ध पुरुष शूली पर चढ़ते हुए भी निर्भीक होता है, रोते हुए भी नहीं रोता, हँसते हुए भी नहीं हँसता। सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते। तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते।। 'ज्ञानी पुरुष लोक दृष्टि से संतोषवान होते हुए भी संतुष्ट नहीं है और खेद को पाये हुए भी खेद को नहीं प्राप्त होता है। उसकी उस-उस आश्चर्य दशा को वैसे ही ज्ञानी जानते हैं।' (अष्टावक्र गीताः 56) तन सुकाय पिंजर कियो धरे रैन दिन ध्यान। तुलसी मिटै न वासना बिना विचारे ज्ञान।। करोड़ों वर्ष की समाधि करो लेकिन आत्मज्ञान तो कुछ निराला ही है। ध्यान भजन करना चाहिए, समाधि करनी चाहिए लेकिन समाधिवालों को भी फिर इस आत्मज्ञान में आना चाहिए। सेवा अवश्य करना चाहिए और फिर वेदान्त में आना चाहिए। नहीं तो, सेवा का सूक्ष्म अहंकार आयेगा। कर्तृत्व की गाँठ बँध जाएगी तो स्वर्ग में घसीटे जाओगे। स्वर्ग का सुख भोगने के बाद फिर पतन होगा। वेदान्त का जिज्ञासु समझता है कि कर्मों का फल शाश्वत नहीं होता। पुण्य का फल भी शाश्वत नहीं और पाप का फल भी शाश्वत नहीं। पुण्य सुख देकर नष्ट हो जाएगा और पाप दुःख देकर नष्ट हो जाएगा। सुख और दुःख मन को मिलेगा। मन के सुख-दुःख को जो जानता है उसको पाकर पार हो जाओ। यही है वेदान्त। कितना सरल। जिसको अपना बिछुड़ा हुआ प्यारा स्वजन मिल जाये, उसको कितना आनन्द होता है ! मेले में बिछुड़े बच्चे को माँ मिल जाये पत्नी को बिछुड़ा हुआ पति मिल जाये, मित्र को बिछुड़ा हुआ मित्र मिल जाये तो कितना आनन्द होता है ! जब अपना स्वजन कहीं मिल जाय तो इतना आनन्द होता है तो जिसको वेदान्त का ज्ञान हो जाता है उसको तो सर्वत्र अपना प्रिय प्रेमास्पद, अपना आपा मिलता है..... उसको कितना आनन्द मिलता होगा। ॐ....ॐ.....ॐ... ॐ आनन्द ! ॐ आनन्द !! ॐ आनन्द !!! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुक्रम कर्म और ज्ञान एक लंगड़ा आदमी बैठा था बद्रीनाथ के रास्ते पर। कहे जा रहा थाः "लोग बद्रीनाथ की यात्रा को जा रहे हैं। हमारे पास पैर होते तो हम भी भगवान के दर्शन करते।" पास में साथी बैठा था। वह सूरदास था। सुन रहा था उसकी बात। वह भी कहने लगाः "यार ! मैं भी चाहता था कि ईश्वर के दर्शन करूँ लेकिन मेरे पास आँखों की ज्योति नहीं है। कम से कम ईश्वर के धाम में तो जाने की रूचि है।" एक महात्मा ने कहाः "एक की आँखें और दूसरे के पैर, दोनों का सहयोग हो जायेगा तो तुम लोग बद्रीनाथ पहुँच जाओगे।" ऐसे ही जीवन के तत्त्व का जो ज्ञान है वह आँख है। वह ज्ञान अगर कर्म में नहीं आता तो वह लंगड़ा रह जाता है। कर्म करने की शक्ति जीवन में है लेकिन ज्ञान के बिना है तो ऐसी अन्धी शक्तियों का दुरुपयोग हो जाता है। जीवन बरबाद हो जाता है। यही कारण कि जिनके जीवन में जप-तप-ज्ञान-ध्यान और सदगुरुओं का सान्निध्य नहीं है ऐसे व्यक्तियों की क्रियाशक्ति राग, द्वेष और अभिमान को जन्म देकर हिंसा आदि का प्रादुर्भाव कर देती है। कर्म करने की शक्ति भ्रष्टाचार के तरफ, दूसरों का शोषण करने के तरफ, अहंकार को बढ़ाने के तरफ नष्ट हो जाती है। क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्ति का समन्वय होना अत्यंत आवश्यक है। आज तक ऐसा कोई मनुष्य, प्राणी पैदा ही नहीं हुआ जो बिना क्रिया के, बिना कर्म के रह सके। कर्म करना ही है तो ज्ञान संयुक्त कर्म करें। शास्त्र में तो यहाँ तक कहा है कि ज्ञानी महापुरुष, जगत की नश्वरता जानने वाले महापुरुष भी सत्कर्म करते हैं। क्योंकि उनको देखकर दूसरे करेंगे। बिना कर्म के नहीं रह सकेंगे तो अच्छे कर्म करें। अगर कर्म करने की शक्ति है तो ज्ञान, भक्ति और योग के द्वारा उसे ऐसा सुसज्जित कर दें कि ज्ञान संयुक्त कर्म जीवनदाता तक पहुँचा दे। कर्मों से कर्मों को काटा जाता है। उन कर्मों में ज्ञान की सुवास होगी तो कर्मों को काटेंगे और अहंकार की गन्ध होगी तो कर्म बन्धन की जाल बुनेंगे। इसीलिए कर्मों के जगत में ज्ञान का समन्वय होना चाहिए। ज्ञान में सुख भी है और समझ भी। जैसे मेरे मुँह में रसगुल्ला रख दिया जाये और मैं प्रगाढ़ निद्रा में हूँ तो मिठास नहीं आयेगी। जब जागूँ तब वृत्ति जिह्वा से जुड़ेगी तो रसगुल्ले की मिठास का ज्ञान होते ही सुख आयेगा। बिना ज्ञान के सुख नहीं। ज्ञान में समझ भी है, सुख भी है। तमाम प्रकार के सुख, शक्ति एवं ज्ञान जहाँ से प्रकट होते हैं वह उदगम स्थान आत्मा है। उस आत्मदेव का साक्षात्कार करना ही आत्मज्ञान है। उस ज्ञान के बिना मनुष्य चाहे कितनी सारी क्रियाएँ कर ले लेकिन क्रियाओं का फल उसकी परेशानियों का कारण बन जाता है। वही क्रियाएँ अगर ज्ञान संयुक्त होती हैं तो उनका फल अकर्तृत्व पद की प्राप्ति कराता है। उपनिषदों का ज्ञान, वेदान्त का ज्ञान एक ऐसी कला है, कर्मों में ऐसी योग्यता ले आता है कि आदमी का जीवन नश्वर जगत में होते हुए भी शाश्वत के अनुभव संयुक्त हो जाता है। मरनेवाले देह में रहते हुए अमर आत्मा का दीदार होने लगता है। मिटने वाले सम्बन्धों में अमिट का सम्बन्ध हो जाता है। गुरुभाइयों का सम्बन्ध मिटनेवाला है, गुरु का सम्बन्ध भी मिटने वाला है लेकिन वह सम्बन्ध अमिट की प्राप्ति करा देता है, अगर ज्ञान है तो। ज्ञान नहीं है तो मिटने वाले सम्बन्धों में ऐसा मोह पैदा होता है कि चौरासी-चौरासी लाख जन्मों तक आदमी भटकता रहता है। यस्य ज्ञानमयं तपः। ज्ञान के संयुक्त तप हो। ज्ञानसहित क्रिया हो। श्रीकृष्ण के जीवन में देखो तो कितनी सारी क्रियाएँ हैं लेकिन ज्ञान संयुक्त क्रियाएँ हैं। जनक के जीवन में क्रियाएँ हैं लेकिन ज्ञान संयुक्त हैं। राम जी के जीवन में कर्म हैं लेकिन ज्ञान संयुक्त हैं। प्रातःकाल उठ रघुनाथा। मात पिता गुरु नावई माथा।। यह ज्ञान की महिमा है। गुरु ते पहले जगपति जागे..... गुरु विश्वामित्र जागें उसके पहले रामजी जग जाते थे। ज्ञानदाता गुरुओं का आदर करते थे। जीवन में ज्ञान की आवश्यकता है। यति गोरखनाथ पसार हो रहे थे तो किसी किसान ने कहाः "बाबाजी ! दोपहर हुई है। अभी-अभी घर से खाना आयेगा। आप भोजन पाना, थोड़ी देर विश्राम करना और शाम को जहाँ आपकी मौज हो, विचरण करना।" किसान की आँखों ने तो एक साधु देखा लेकिन भीतर एक समझ थी कि थोड़ी सेवा कर लूँ। उसने गोरखनाथजी को रिझाकर रोक लिया। भोजन कराया। फिर गोरखनाथजी ने आराम किया। शाम को जब रमते भये तब किसान ने प्रणाम करते कहाः "महाराज ! खेती करते-करते ढोरों जैसा जीवन बिता रहे हैं। कभी आप जैसे संत पधारते हैं। कुछ न कुछ मुझे थोड़ा-सा उपदेश दे जाइये।" गोरखनाथ ने देखा कि है तो पात्र। पैर से शिखा तक निहारा। बोलेः "और उपदेश क्या दूँ? जो मन में आवे वह मत करना।" ये वचन गोरखनाथ को गुरु मच्छन्दरनाथ ने कहे थे। वे ही वचन गोरखनाथ ने किसान को कहे और जोगी रमते भये। संध्या हुई। किसान ने हल कन्धे पर रखकर पाँव उठाये। घर की ओर चला। याद आया गुरुजी का वचनः 'मन में आये वह मत करना।' महाराज ! वह रुक गया ! ऐसा रुका कि उसका मन भी रुक गया ! जो भी मन में आता वह नहीं करता। मन से पार हो गया। चौरासी सिद्धों मं वह एक सिद्ध हो गया – हालीपाँव। मतलब, हल उठाया पाँव रखा और गुरुवचन में टिक गया। नाम पड़ गया हालीपाँव सिद्ध। कहाँ तो साधारण किसान और कहाँ हालीपाँव सिद्ध ! शबरी ने गुरु के वचन सिर पर रखे और राम जी द्वार पर पधारे। किसान ने गोरखनाथ के वचन अडिगता से माने। मन हो गया अडिग। किसान में से हालीपाँव सिद्ध। कर्म तो उसके पास थे लेकिन कर्मों को जब ज्ञान-निष्ठा का दीया मिल गया तो वह सिद्ध हो गया। संत सुन्दरदास हो गये। अच्छे, उच्च कोटि के संत थे। उनसे किसी ने पूछाः "स्वामीजी ! भगवान की भक्ति में मन कैसे लगे?" वे बोलेः "भगवान के दर्शन करने से भगवान में सन्देह हो सकता है लेकिन भगवान की कथा सुनने से भगवान में श्रद्धा बढ़ती है। भगवान की कथा की अपेक्षा भगवान के प्यारे भक्त हो गये हैं, संत हो गये है उनका जीवन-चरित्र पढ़ने सुनने से भगवान की भक्ति बढ़ती है। भगवान की कथा की अपेक्षा भगवान के प्यारों की कथा से भक्ति का प्राकट्य शीघ्र हो जाता है।" नारेश्वर में रंग अवधूत जी महाराज हो गये। अच्छे संत थे। उनसे किसी ने पूछाः "आप तो बाबाजी ! ज्ञातज्ञेय हो गये हैं। अभी आपको क्या रुचता है?" वे बोलेः "संतो के जीवन चरित्र पढ़ने में मेरी अभी भी रुचि रहती है। नर्मदा के किनारे परिक्रमा करते कोई संत आ जायें तो भोजन पकाकर उन्हें खिलाऊँ ऐसे भाव आ जाते हैं। मुझे बड़ा आनंद आता है।" संत का मतलब यह हि कि जिनके द्वारा अपने जन्मों का अंत करने का ज्ञान मिल जाय, क्रियाओं का अंत करने का ज्ञान मिल जाय। अकेला ज्ञान लंगड़ा हो जायेगा, शुष्क हो जायेगा। अकेली क्रिया अन्धी हो जायेगी। हम लोग क्रियाएँ जीवनभर किए जा रहे हैं और अन्त में देखो तो परिणाम कुछ नहीं, हताशा..... निराशा। प्रेम में से ज्ञान निकाल दो तो वह काम हो जायगा। ज्ञान में से प्रेम में निकाल दो तो वह शुष्क हो जायेगा। ज्ञान में से योग निकाल दो तो वह सामर्थ्यहीन हो जायेगा। योग में से ज्ञान और प्रेम निकाल दो तो वह जड़ हो जायगा। इसलिए भाई मेरे ! प्रेम में योग और ज्ञान मिला दो तो प्रेम पूर्ण हो जायगा, पूर्ण पुरुषोत्तम का साक्षात्कार करा देगा। ज्ञान में प्रेम और योग मिला दे तो ज्ञान ईश्वर से अभिन्न कर देगा। योग में ज्ञान और प्रेम मिला दो तो सर्व समर्थ स्वरूप अपने आपा का अनुभव हो जायगा। मतलब, प्रेमा भक्ति कर के अपने परिच्छिन्न अहं को मिटा दो, योग कर के अपनी दुर्बलता मिटा दो और ज्ञान पा कर अपना अज्ञान मिटा दो। ज्ञान ऐसा हो कि देहाध्यास गल जाय। क्रिया के साथ ज्ञान हो और ज्ञान के साथ कर्म हो। दोनों का समन्वय हो। ज्ञान में सुख भी होता है और समझ भी होती है। ब्रह्मचर्य रखना अच्छा है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक विकास होता है और लम्बे समय तक चित्त की प्रसन्नता बनी रहती है। यह समझ तो है लेकिन जब सुख की लोलुपता आ जाती है तो ब्रह्मचर्य से गिरकर आदमी विकारी सुख क्षणभर के लिए लेता है और फिर पछताता है। पापी आदमी को विकारी सुख में रुचि होती है। आपको ज्ञान के साथ सुख की भी जरुरत है। माना है कि झूठ बोलना ठीक नहीं है, किसी का अहित करना फायदे में नहीं है। सत्य बोलना चाहिए। हम सत्य बोलते हैं लेकिन जब दुःख पड़ता है तब सत्य को छोड़कर असत्य बोले देते हैं। क्यो? सुख के लिए। झूठ किसलिए बोलते हैं? सुख के लिय। ब्रह्मचर्य खंडित क्यों करते हैं? तुच्छ सुख के लिए। माँग तुम्हारी सुख की है। गंगाजी गंगोत्री से चली। लहराती गुनगुनाती गंगा सागर को मिलने भाग रही है। गंगा जहाँ से प्रकट हुई है वहीं जा रही है। ऐसे ही तुम्हारा वास्तविक स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही तुम्हारे जीवन की आकांक्षा है। तुम आनन्दकन्द, सच्चिदानन्द परमात्मा से प्रकट हुए हो, स्फुरित हुए हो। तुम जिसे 'मैं... मैं.... मैं.....' बोल रहे हो वह 'मैं' आनन्द-स्वरूप परमात्मा से स्फुरित हुई है। वह मैं आनन्द-स्वरूप परमात्मा तक पहुँचने के लिए ही सारी क्रियाएँ कर रही है। जैसे गंगाजी चली तो सागर तक पहुँचने के लिए ही सारी चेष्टा करती है। लेकिन हमने स्वार्थपरायण होकर उसके बहाव को रोककर तालाब बना दिया, उसको थाम दिया तो वह पानी गंगासागर तक नहीं पहुँचता। ऐसे ही सुख की प्राप्ति की इच्छा है और हमारी सुबह से शाम तक की दौड़ सुख तक पहुँचने की है लेकिन जहाँ बिना ज्ञान के, बिना समझ के, स्वार्थी, ऐन्द्रिक सुख की चेष्टा करते हैं तो गंगाजल को रास्ते में खड्डों में बाँध देते हैं। ऐसे ही हमारी चित्त की धारा को अज्ञानवश मान्यता में हम उंडेल देते हैं तो हमारा जीवन रास्ते में रुक जाता है। हालाँकि हमारा प्रयत्न तो सुख के लिए हैं लेकिन हमारा आत्मा सुख स्वरूप है, इस प्रकार का ज्ञान न होने के कारण हम बीच में भटक जाते हैं और जीवन पूरा हो जाता है। अर्थात् जीव अपना असली ब्रह्मस्वरूप नहीं समझ पाता। हम जो-जो नियम शास्त्रों से सुनते है, स्वीकार करते हैं वे नियम तब खण्डित करतेहैं जब हमें भय हो जाता है अथवा सुख की लोलुपता हमें घेर लेती है। हम नीचे आ जाते हैं। तब क्या करना चाहिए? सुख की लोलुपता और दुःख के भय को मिटाना हो तो ज्ञान की जरूरत पड़ेगी। वह ज्ञान तत्त्वज्ञान हो अथवा तत्त्वज्ञान का सुख पाने की तरकीब रूप योगयुक्तियाँ हो। योगयुक्तियाँ और तत्त्वज्ञान से जब भीतर का सुख मिलने लगेगा तो निर्भयता आने लगेगी। फिर हमारी समझ के खिलाफ हम फिसलेंगे नहीं। संत सुंदरदासजी महाराज उच्च कोटि के साक्षात्कारी पुरुष थे। नवाब ने उनके चरणों में सिर रखा किः "बाबाजी ! जिस आनन्द में आप आनन्दित होते हो, जिस परमात्मा को पाकर आप तृप्त हुए हो, जिस ईश्वर के साक्षात्कार से आप आत्मारामी हुए हो वह हमें भी उपलब्ध करा दो।" सुना है कि जब सात जन्मों के पुण्य जोर करते हैं तब आत्म-साक्षात्कारी संत महापुरुष के दर्शन करने की इच्छा होती है। दूसरे सात जन्म के पुण्य जब सहयोग करते हैं तब उनके द्वार तक ही पहुँच पायेंगे। तीसरे सात जन्म के पुण्य उनमें नहीं मिलेंगे तो हम उनके द्वार से बिना दर्शन ही लौट जायेंगे। या तो बाबा जी कहीं बाहर चले गये होंगे फिर पहुँचेंगे अथवा बाबाजी आनेवाले होंगे उससे पहले रवाना हो जायेंगे, बाद में बाबाजी लौटेंगे। जब तक पूरे इक्कीस जन्मों के पुण्य जोर नहीं मारेंगे तब तक आत्म-साक्षात्कारी महापुरुषों के दर्शन नहीं होंगे, उनके वचनों में विश्वास नहीं होगा। स्वल्पपुण्यवतां सजन् विश्वासो नैव जायते। अल्प पुण्यवालों को तो आत्मवेत्ता संत पुरुषों के दर्शन और वचन में विश्वास ही नहीं हो सकता है। तुलसीदासजी कहते हैं- बिन पुण्यपुंज मिले नहीं संता। नवाब कहता हैः "महाराज ! मुझे आपका दर्शन करने का सौभाग्य मिला है अब चाहता हूँ कि आप जिस आत्मरस से, जिस आत्मज्ञान से कृतकार्य हुए हैं वह आत्मा कैसा है उसका अनुभव मुझे कराइये।" सुन्दरदासजी ने स्वच्छ जल से भरा हुआ काँसे का एक कटोरा मँगवाया। उसमें थोड़ी भस्म मिलाई। फिर कहाः "नवाब ! इस जल में अपना मुख देखो।" "भगवन् ! इसमें नहीं दिख पायगा। यह तो कीचड़ जैसा हो गया।" "अच्छा।" फिर स्वच्छ जल का दूसरा कटोरा मँगवाया और उसको थोड़ा धक्का देकर पानी हिला दिया और कहाः "अब इसमें अपना मुँह देखो।" "स्वामीजी ! अब मुँह तो दिख रहा है लेकिन विचित्र-सा दिख रहा है, खण्ड-खण्ड होकर दिख रहा है। साफ नहीं दिखता।" पानी को स्थिर होने दिया फिर कहाः "अब इसमें देखो।" "महाराज ! अब ठीक दिख रहा है।" महाराजजी ने पानी डाल दिया और चुप होकर बैठे गये। नवाब ने फिर प्रार्थना की किः "महाराज ! हम लोग आत्मा का अनुभव कैसे करें? कैसे उस परमात्मा को पाएँ? कैसे हमें आनन्द-स्वरूप की अनुभूति हो? कृपा करके बताइये।" सुन्दरदासजी ने कहाः "मार्ग मैंने 'प्रेक्टीकल बता दिया। केवल सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यावहारिक सुझाव दे दिया।" "महाराज ! हम समझे नहीं। जरा विस्तार से कहिए नाथ।" तब संतश्री ने कहाः "पहले राखवाले पानी में मुँह देखने को कहा, नहीं देख पाये क्योंकि पानी मैला था। ऐसे ही चित्त जब मैला होता है, विषय-वासनायुक्त चेष्टाएँ होती हैं, ज्ञान बिना की क्रियाएँ होती हैं उससे चित्त मलिन हो जाता है। मलिन चित्त में तुम्हारे आत्मा-परमात्मा का मुखड़ा नहीं दिख सकता। चित्त शुद्ध होने लगता है तो समझ बढ़ती है। आदमी में आध्यात्मिक योग्यता पनपने लगती है।" कोई आदमी अच्छे पद पर है। वह चाहे तो लाखों-करोड़ों रुपये इकट्ठे कर सकता है लेकिन उसे भ्रष्टाचार अच्छा नहीं लगता। तो समझो, भगवान की उस पर कृपा है। लोग चाहे कुछ भी सोच लें, मूर्ख लोग चाहे कुछ भी कह दें कि साहब भोले भाले हैं, लेकिन वास्तव में साहब समझदार हैं। भ्रष्टाचार करने का मौका है फिर भी नहीं किया, कपट करके धनवान होने का मौका है फिर भी कपट नहीं किया तो हमारे दिलरूपी कटोरे में जो राख है वह चली जायगी, मल चला जायगा। पानी स्वच्छ हो जायगा। अन्तःकरण शुद्ध हो जायगा। अन्तःकरण स्वच्छ तो हो जायगा लेकिन अब भी उसमें अपना मुखड़ा नहीं दिखेगा। आत्म-साक्षात्कार नहीं होगा। क्यो?  क्योंकि चित्त शुद्ध तो हुआ है लेकिन आत्म-साक्षात्कार के लिए केवल चित्त शुद्ध होना ही पर्याप्त नहीं है। हम अच्छा व्यवहार करते हैं, सात्त्विक हैं, किसी का शोषण नहीं करते हैं, भ्रष्टाचार नहीं करते, बचपन से संतों के पास जाते हैं यह ईश्वर की बहुत कृपा है, धन्यवाद है, लेकिन साक्षात्कार के लिए एक कदम और आगे रखना होगा भैया ! चित्त शुद्ध है इसलिए बैठते ही भगवान की भक्ति स्मरण हो आती है, धन्यवाद है। लेकिन भगवत्तत्व का बोध तब तक नहीं होगा, आत्म-साक्षात्कार तब तक नहीं होगा जब तक चित्त की अविद्या निवृत्त न हो। चित्त के तीन दोष हैं- चित्त का मैलापन, चित्त की चंचलता और चित्त को अपने चैतन्य का अभान। मल, विक्षेप और आवरण। समझ से युक्त क्रियाएँ करने से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध व्यवहार से चित्त शुद्ध होता है। प्रतिदिन ध्यान का अभ्यास करने से भी चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त को ध्यान से एकाग्र किया जाता है। एकाग्र चित्त में अगर तत्त्वज्ञान के विचार ठीक ढंग से बैठ गये तो साक्षात्कार हो जाये। महाराजा भर्तृहरि अपना विशाल साम्राज्य छोड़कर जोगी बन गये। सहज स्वभाव विचरण करते-करते किसी गाँव से गुजरे तो दुकान पर हलवाई हलवा बना रहा था। हलवे की खुश्बू ने उनके चित्त को आकर्षित कर लिया। सम्राट होकर तो खूब भोग भोगे थे। पुराने संस्कार जग आये। हलवा खाने की इच्छा हो गई। हलवाई को कहाः "भाई ! हलवा दे दे।" "पैसे हैं तुम्हारे पास?" जोगी को घूरते हुए हलवाई बोला। "पैसे तो नहीं है।" "बिना पैसे हलवा कैसे मिलेगा? पैसे लाओ।" "पैसे कहाँ मिलेंगे?" भर्तृहरि ने पूछा। हलवाई बोलाः "गाँव की दक्षिण दिशा में दुष्काल राहत कार्य चल रहा है, तालाब खुद रहा है। वहाँ जाओ। मजदूरी करो। शाम को पैसे मिल जाएँगे।" एक समय का सम्राट वहाँ गया। कुदाली-फावड़ा चलाया। मिट्टी के टोकरे उठाए। दिनभर मजदूरी की। शाम को पैसे मिले और आ गये हलवाई की दुकान पर। हलवा लिया और पूछते-पूछते गाँव की उत्तर दिशा में तालाब की ओर चले। भर्तृहरि अपने मन को कहने लगेः "अरे मनीराम ! तूने राज्य छोड़ा, परिवार छोड़ा, घरबार छोड़ा, सम्राट पद छोड़ा और हलवे में अटक गया? हलवा नहीं मिला इसलिए दिन भर गुलामी करवाई? बदमाश ! जरा सी लूली के लाड़ लड़ाने के लिए इतना परेशान किया?" मन को अगर थोड़ी सी छूट देंगे तो वह और ज्यादा छूट ले लेगा। पास में भैंस का गोबर पड़ा था। भर्तृहरि ने वह उठाया और तालाब के किनारे पहुँचे। एक हाथ से हलवे का कौर उठाकर मुँह तक लाते और फिर तालाब में डाल देते जो मछलियाँ खा जाती। दूसरे हाथ से गोबर का कौर उठाते और मुँह में ठूँसते, अपने आपको कहतेः 'ले, खा यह हलवा।' ऐसे करते-करते करीब पूरा हलवा पानी में चला गया। गोबर का काफी हिस्सा चला गया पेट में। हलवे का आखिरी ग्रास हाथ में बचा तब मन मूर्तिमंत होकर प्रकट हो गया और बोलाः "हे नाथ ! अब तो कृपा कीजिए। इतना तो जरा-सा खाने दीजिए !" लेकिन निष्ठा इतनी परिपक्व थी, दृढ़ता थी कि वे अपने निश्चय में अचल थे। मन को कहाः "तूने पूरे दिनभर मुझे धूप में नचाया, मजदूरी करवाई और अभी हलवा खाना है? सदियों से तूने मुझे गुलाम बनाया है और अब भी मैं तेरे कहने में चलूँ?" भर्तृहरि ने वह आखिरी कौर भी तालाब में फेंक दिया। मन ने देखा कि मैं किसी वीर के हाथ लगा हूँ। एक बार मन आपके आगे हार जाता है तो आपमें सौ गुनी ताकत आ जाती है। आप मन के आगे हार जाते हो तो मन को सौ गुनी ताकत आ जाती है आपक नचाने के लिए। जितना ध्यान और ज्ञान का अभ्यास बढ़ेगा, उनका हम पर प्रभाव रहेगा उतना हम मन पर विजय पायेंगे। जितना ज्ञान और ध्यान से वंचित रहकर क्रियाएँ करेंगे उतना ही मन पर हम पर विजेता हो जायेगा। एक सेठ को मुनीम ने कहाः "सेठजी ! सात सौ में मेरे परिवार का पूरा नहीं होता। मुझे महीने का पंद्रह सौ चाहिए।" सेठ ने कहाः "जा चला जा.... गेट आउट।" मुनीम ने कहाः "कोई हरकत नहीं। मैं तो गेट आउट हो जाऊँगा लेकिन आप सदा के लिए गेट आउट हो जायेंगे।" "क्या बात है?" "मुझे पता है। आपने मुझसे जो बहियाँ लिखवाई हैं और इन्कमटैक्स के फार्म भरवाये हैं... तुमने मुझसे जो गलत काम करवाये हैं, अलग हिसाब रखवाये हैं उसकी सब जानकारी मेरे पास है। अगर आप पन्द्रह सौ तनख्वाह नहीं देते तो कोई हरकत नहीं। मैं चला जाऊँगा इन्कमटैक्स ऑफिसरों के पाश" सेठजी ने कहाः "तुम भले सौलह सौ ले लो लेकिन रहो यहाँ।" मुनीम जानता था सेठ की कमजोरी। ऐसे ही हमारे जीवन में अगर ज्ञान और ध्यान नहीं है तो मन हमारी कमजोरियाँ जानता है। हाँ, सेठ को अगर इन्कमटैक्स कमिश्नर के साथ सीधा व गहरा सम्बन्ध होता, तो वह सेठ मुनीम को लात मार देता। ऐसे ही सब मिनिस्टरों के भी मिनिस्टर परमात्मा के साथ सीधा सम्बन्ध हो जाय तो मनरूपी मुनीम का ज्यादा प्रभाव न रहे। जब तक परमात्मा के साथ सम्बन्ध न हुआ हो तब तक तो मन को रिझाते रहो।, उससे दबे-दबे रहो। अपनी योग्यता को ऐसी विकसित कर लो कि मनरूपी मुनीम जब जैसा चाहे वैसा हमें न नचाए लेकिन हम जैसा चाहें वैसा मुनीम करने लगे। हम अपने मनरूपी मुनीम के आगे सदा से हारते आए हैं। इसने हम पर ऐसा प्रभाव डाल दिया कि हमें जैसा कहता है वैसा हम करते हैं। क्योंकि प्रारम्भ में ज्ञान था नहीं। ध्यान और ज्ञान का प्रभाव नहीं है तो हम दुर्बल हो जाते हैं,  हमारा गुलाम मन-मुनीम बलवान हो जाता है। दिखते तो हैं बड़े-बड़े सेठ, बड़े-बड़े साहब, बड़े-बड़े अधिकारी लेकिन गहराई में गोता मार कर देखें तो हम गुलाम के सिवाय और कुछ नहीं हैं। क्योंकि मनरूपी गुलाम के कहने में चल रहे हैं। मन की गुलामी जितने अंश में मौजूद है उतने अंश में दुःख मौजूद है, पराधीनता मौजूद है, परतन्त्रता मौजूद है। यह गुलामी कैसे दूर हो? गुलामी दूर होती है समझ से और सामर्थ्य से। ज्ञान समझ देता है और ध्यान सामर्थ्य देता है। अनुक्रम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ खोजो अपने आपको रमण महर्षि के पास कुछ भक्त पहुँचे। जिनकी दृष्टि मात्र से जीव आनन्द को प्राप्त होता है, जिसकी महिमा गाते शास्त्र थकते नहीं, युद्ध के मैदान में न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण जिस ज्ञान की श्रेष्ठता व पवित्रता बताते हैं उस ज्ञान को प्राप्त किये हुए आत्मवेत्ता जीवन्मुक्त महापुरुष के दर्शन करने की कई दिनों की इच्छा पूर्ण हुई। सुना था कि ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष श्री रमण महर्षि के सान्निध्य में बैठने मात्र से हृदय शान्ति व आनन्द का अनुभव करता है। आज वह सुअवसर प्राप्त हो गया। भक्त-मण्डल महर्षि को प्रणाम करके बैठा। किसी ने श्रीकृष्ण की आराधना की थी तो किसी ने अम्बाजी की, किसी ने रामजी को रिझाने के प्रयास किये थे तो किसी ने सूर्यनारायण को अर्घ्य दिये थे किसी ने व्रत किये थे तो किसी ने फलाहार से वर्ष बिताए थे। किसी ने दो देव बदले थे तो किसी ने तीन, चार या पाँच देव बदले थे। जब तक ज्ञानवान, आत्मारामी, प्रबुद्ध महापुरुष के चरणों में जाकर साधना का मार्ग सुनिश्चित नहीं होता तब तक मनमानी साधना जमती नहीं। हृदय की गहराई में आशंका बनी रहती है कि साधना पूर्ण होगी कि नहीं, फलदायी बनेगी कि नहीं। गहराई में यह संदेह विद्यमान हो तो ऊपर-ऊपर से कितने ही व्रत नियम करो, कितनी ही साधना करो, शरीर को कष्ट दो लेकिन पूर्णरूपेण लाभ नहीं होता। अचेतन मन में सन्देह बना ही रहता है। यही हम लोगों के लिए बड़े में बड़ा विघ्न है। योगवाशिष्ठ महारामायण में आया है कि शमवान पुरुष के सर्व सन्देह निवृत्त हो जाते हैं, उसके चित्त में शोक के प्रसंग में शोक नहीं होता, हर्ष के प्रसंग में हर्ष नहीं होता, भय के प्रसंग में भयभीत दिखता हुआ भी भयभीत नहीं होता, रूदन के प्रसंग में रोता हुआ दिखता है फिर भी नहीं रोता है, सुख के प्रसंग में सुखी दिखता है फिर भी सुखी नहीं होता। जो सुखी होता है वह दुःखी भी होता है। जितना अधिक सुखी होता है उतना अधिक दुःख के आघात सहता है। मान के दो शब्दों से जितना अधिक खुश होता है उतना अधिक अपमान के प्रसंग में व्यग्र होता है। धन की प्राप्ति से जितना अधिक हर्ष होता है, धन चले जाने से उतना अधिक शोक होता है। चित्त जितना तुच्छ, हल्का और अज्ञान से आक्रान्त होता है उतना ही छोटी-छोटी बातों से क्षोभित होता है। चित्त जब बाधित हो जाता है तब क्षोभित होता हुआ दिखे उसको क्षोभ स्पर्श नहीं कर सकता। अष्टावक्र मुनि ने राजा जनक को कहाः धीरो न द्वेष्टि ससारं आत्मानं न दिदृक्षति। हर्षाभर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति।। "हर्ष और द्वेष से रहित ज्ञानी संसार के प्रति न द्वेष करता है और न आत्मा को देखने की इच्छा करता है। वह न मरा हुआ है और न जीता है।" (अष्टावक्र गीताः 83) जो धीर पुरुष हैं, शम को प्राप्त हुए हैं, जिन्होंने जीवन के परम लक्ष्य को सिद्ध कर लिया, परमात्म-दर्शन कर लिया, ब्रह्मा-विष्णु-महेश समन्वित विश्व के तमाम देवों की मुलाकात कर ली, जो अपने स्वरूप में परिनिष्ठित हो गये वे ही कृतकृत्य हैं। शास्त्रों में उन्हीं को धीर कहा है। जो क्षुधा-तृषा, सर्दी-गर्मी सहन करते हैं उनमें तो धैर्य तो है लेकिन वे तपस्वी हैं। वे व्यावहारिक धैर्यवान हैं। शास्त्र किनको धैर्यवान कहते हैं? अष्टावक्र मुनि कहते हैं- धीरो न द्वेष्टि संसारम्.... संसार की किसी भी परिस्थिति में उद्विग्न नहीं होता, उसे द्वेष नहीं होता। आत्मानं न दिदृक्षति। आत्मा-परमात्मा का दर्शन करने की, उसे प्राप्त करने की इच्छा नहीं है। संसार की प्राप्ति तो नहीं चाहता, इतना ही नहीं प्रभु को प्राप्त करने की भी इच्छा नहीं रही। क्योंकि अपना आत्मा ही प्रभु के रूप में प्रत्यक्ष हो गया है। फिर प्राप्त करना कहाँ बाकी रहा? जैसे, मेरे को आसारामजी महाराज के दर्शन करने की इच्छा नहीं। अगर मैं इच्छा करूँ तो मेरी इच्छा फलेगी क्या? मैं जानता हूँ कि आसारामजी महाराज कौन हैं। जिसने अपने-आत्मस्वरूप को जान लिया, परमात्म-स्वरूप को जान लिया उसको परमात्म-प्राप्ति की इच्छा नहीं रहती। हर्षाभर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति। हर्ष और शोक, सुख और दुःख – इन द्वन्द्वों से ठीक प्रकार से मुक्त हो जाता है। वह जीता भी नहीं और मरता भी नहीं। साधारण मनुष्य हो जाता है। वह जीता भी नहीं और मरता भी नहीं। साधारण मनुष्य दिन में कई बार जीता मरता रहता है। धीर पुरुष किसी भी प्रसंग से जीता-मरता नहीं और देह के विसर्जन से भी मरता नहीं। ऐसे धीर पुरुष के समक्ष बैठने से चित्त में उल्लास, शान्ति, आनन्द का प्राकट्य होता है। महादुराचारी, पापी आदमी पर भी महापुरुष की दृष्टि पड़े तो कुछ न कुछ लाभ अवश्य होता है। जीवन में कुछ पुण्य किये हों, उपासना आराधना की हो, किसी के आँसू पोंछे हों, माता-पिता का दिल शीतल किया हो तो अधिक लाभ मिलता है। उन भक्तों के जन्मों के पुण्य फलित हुए तो वे सत्पुरुष के सान्निध्य में पहुँच सके। उन्होंने रमण महर्षि से प्रश्न कियाः "स्वामी जी ! हमें कैसी साधना करनी चाहिए? रामायण सुनते हैं तो भगवान श्रीराम सर्वेसर्वा लगते हैं। भागवत की कथा सुनते हैं तो 'श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव' यह मंत्र भाता है। शिवपुराण सुनते हैं तो 'नमः शिवाय' मंत्र प्यारा लगता है। कभी कुछ करते हैं कभी कुछ। अब हम क्या करें?" सब भक्तों ने इस प्रकार अपने-अपने प्रश्न महर्षि के समक्ष प्रस्तुत किये। ये प्रश्न केवल उन लोगों का ही नहीं था, हम सबका भी यही प्रश्न है। जब तक आत्मबोध नहीं होता तब तक छोटी-छोटी बातों में चित्त उद्विग्न हो जाता है। उपासना करने से चित्त थोड़ा शुद्ध होता है, स्थिर होता है और आत्मबोध से चित्त बाधित होता है। शुद्ध बना हुआ चित्त फिर अशुद्ध हो सकता है लेकिन बाधित चित्त शुद्धि-अशुद्धि के पार पहुँच जाता है। रमण महर्षि ऐसी बात बताते हैं जहाँ देव बदलने और चित्त के पतन व उत्थान को स्थान ही न मिले। महर्षि ने सबके प्रश्न सुने। क्षणभर निजानन्द में गोता लगाया। फिर बोलेः "भाई ! तुम जिस देव की उपासना आराधना करते हो वह सब ठीक है। बार-बार अपने को प्रश्न करो कि उपासना आराधना करने वाला मैं कौन हूँ? सतत अपने आप से यह प्रश्न करो। तुम्हारा जो कोई देव होगा वह प्रसन्न मिलेगा। देवो भूत्वा दैवं यजेत्। देव होकर देव की पूजा करो।" तुम कौन हो? तुम यदि हाड़-मांस के अनथाभाई, छनाभाई होकर पूजा करोगे तो विशेष लाभ नहीं होगा। तुम अपने को खोजो तो पता चलेगा कि तुम कैसे दिव्य देह हो। तुम्हारी आत्मा कितनी महान है। 'मैं कौन हूँ' यह प्रश्न अपने को पूछो और अपने आपको खोजो तो तमाम प्रश्नों के जवाब तुम्हें मिलते जायेंगे। भीतर से अपने आपकी सही पहचान हो गई तो तुम्हारे सब जप-तप फलित हो गये, सब दान-पुण्य सार्थक हो गये। फिर तो तुम्हारी मीठी निगाहें जिन पर पड़ेगी वे भी लाभान्वित होने लगेंगे। बात छोटी-सी लगती है लेकिन पच्चीस-पचास साल से अलग-अलग उपासना करने से जो आध्यात्मिक विकास नहीं होता वह विकास 'मैं कौन हूँ' की खोज से हो सकता है। अनुक्रम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ गीताज्ञान-सरिता येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रताः।। 'निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है वे राग-द्वेष जनित द्वन्द्वरूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं।' (गीताः 7.28) द्वन्द्व कई प्रकार के होते हैं- गृहस्थ जीवन के द्वन्द्व, ब्रह्मचारी जीवन के द्वन्द्व, वानप्रस्थ जीवन के द्वन्द्व, संन्यास जीवन के द्वन्द्व, स्वर्ग में जाओ तो भी द्वन्द्व और उपासना मार्ग में जाओ तो भी द्वन्द्व। कोई साधना करने लगेगा तो प्रश्न होगा कि ये देव बड़े कि वो देव बड़े? ये भगवान बड़े? यह साधना बड़ी कि वह साधना बड़ी? ये संत बड़े कि वे संत बड़े? तमाम प्रकार के द्वन्द्व हमारे चित्त की शक्तियों को बिखेर देते हैं। लेकिन जिनके पापों का अन्त हो गया है ऐसे भक्त चित्त की तमाम शक्तियों को केन्द्रित करके भगवान के भजन में दृढ़तापूर्वक लग जाते हैं। दृढ़ता से भगवान का भजन करने वाला भगवन्मय हो जाता है। भजन में जब तक दृढ़ता नहीं आती तब तक भजन का रस नहीं आता जब तक भजन का रस नहीं आता तब तक भव के रस का आकर्षण नहीं जाता। मनुष्य की अपेक्षा जीव शाश्वत है। मनुष्य साठ, सत्तर, अस्सी साल तक जीता है जबकि जीव अनन्त शरीर बदलता हुआ जीता है। मनुष्य को संस्कार देने पड़ते हैं कि तू जीव नहीं है, शिवस्वरूप है। प्रारंभ में दीक्षा दी जाती है और कहा जाता है कि अब तू ब्रह्मचारी है, ब्रह्मचर्याश्रम के धर्मों का पालन कर। फिर दूसरे आश्रम में प्रवेश होता है तब अध्यारोप किया जाता है कि तू गृहस्थी है। फिर वानप्रस्थी है और आखिर में परम पद पाने के लिए संन्यास। प्रारम्भ में व्यावहारिक दृष्टि से अध्यारोप हुआ कि 'मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं गृहस्थी हूँ, मैं वानप्रस्थी हूँ।' इन अध्यारोपों को हटाने के लिए संन्यस्त का अध्यारोप किया गया। संन्यास माने क्या? सर्व संकल्पों का त्याग। पैर में काँटा चुभ जाय तो उसे निकालने के लिए दूसरा काँटा (सुई) जान-बूझकर चुभाया जाता है। पैर में रखने के लिए नहीं अपितु पहले काँटे को निकालने के लिए यह दूसरा चुभाया है। पहला निकल गया तो दूसरा भी निकाल दिया जाता है। ऐसे ही जन्म-जन्मांतरों के संस्कार-कुसंस्कार धोने के लिए ब्रह्मचर्याश्रम के नियम-धर्म, गृहस्थ और वानप्रस्थ के नियम धर्म को स्वीकार कराया जाता है। 'मैं ब्रह्मचारी हूँ। ब्रह्मचर्य का पालन, साधना, विद्याभ्यास, वेदशास्त्रों का अभ्यास और गुरुसेवा करना मेरा पवित्र कर्त्तव्य है।' फिर, 'मैं गृहस्थी हूँ। धर्म के मुताबिक धनोपार्जन करना, पवित्रता से जीवन जीना और जीने देना, इतर तीन आश्रमों का यथाशक्ति पोषण करना मेरा कर्त्तव्य है।' फिर, 'मैं वानप्रस्थी हूँ। इन्द्रिय-संयम करके अब मुझे तपस्वी जीवन बिताना चाहिए।' लेकिन 'मैं कौन हूँ?' इसका ज्ञान प्राप्त करना हो तो पहले अध्यारोपित संस्कारों को निर्मूल करने के लिए संन्यास धर्म को स्वीकार किया जाता है। संन्यास का अर्थ है तमाम इच्छाओं का त्याग। हृदय में जब मोक्ष की तीव्र इच्छा जगे तब दूसरी छोटी-मोटी तमाम इच्छाएँ उस मुमुक्षा की अग्नि में स्वाहा हो जाती है। दूसरी इच्छाओं से पल्ला छुड़ाने के लिए मोक्ष की इच्छा की जाती है। जब दूसरी इच्छाएँ भली प्रकार हट गई तो मोक्ष की इच्छा का भी बाध किया जाता है। तब 'मेरा मोक्ष हो, परमात्मा का दीदार हो' – ऐसी भावना भी आवश्यक नहीं रहती। मोक्षेच्छा मिटते ही प्रभु का साक्षात्कार हो जाता है, बेड़ा पार हो जाता है। साधक को यह मार्ग समझ में आ जाये, किसी सच्चे सदगुरु का मार्गदर्शन मिल जाय तो कार्य सरल बन जाता है। अन्यथा तो बाहर के मंदिर-मस्जिदों में जाते-जाते, बाहर के देवी-देवताओं को पूजते-पूजते, संसार-व्यवहार चलाते-चलाते, इन्द्रियों के विषयों में भटकते-भटकते, विविध प्रकार के द्वन्द्वों में उलझते-उलझते एक ही आयुष्य नहीं बल्कि युग के युग बीत गये। एक शाम को भोजू सोने की सुई से कपड़ा सीने की चेष्टा कर रहा था। नयी-नयी शादी हुई थी और सोने की सुई दहेज में मिली होगी। सुई की नोक हाथ में चुभी और झटका तो सुई गिर पड़ी ,खो गई। घर में अन्धेरा हो रहा था। भोजू भागा बाजार में नगरपालिका के फानूस की रोशनी में धूल के छोटे-छोटे ढेर बनाकर सुई खोजने लगा। रात के आठ बजे.... नौ... दस र ग्यारह बजे। भोजू अपने कार्य में बड़ा व्यस्त था। खाना-पीना भी याद नहीं। सोने की सुई जो खोई थी ! रात्री के बारह बजे नाटक देखकर लौटते हुए मित्रों ने देखा तो पूछाः "अरे भाई भोजू ! यह सब क्या कर रहा है?" "माफ करो। मैं बहुत काम में हूँ।" भोजू ने सिर ऊँचा किए बिना अपना काम चालू रखा। "अरे दोस्त ! बता तो सही ! हम कुछ सहाय करें।" मित्र-मण्डल भोजू के इर्द-गिर्द जमा हो गया। "सहाय करना हो तो करो लेकिन मेरे पास समय नहीं है बातें करने का। बहुत जरूरी काम में लगा हूँ।" "कौन सा जरूरी काम?" मित्रों की उत्सुकता बढ़ी। "सोने की सुई खो गई है।" आखिर भोजू ने बता ही दिया। "कहाँ खोई?" "खोई तो घर में है..." "तो यहाँ क्यों खोज रहा है?" मित्रों को आश्चर्य हुआ। "घर में अन्धेरा है। वहाँ दीया कौन जलाये? यहाँ जलता हुआ फानूस तैयार है।" भोजू ने अपना प्रगाढ़ (अ) ज्ञान प्रकाशित किया। "अरे पगला ! इस प्रकार यहाँ खोजते-खोजते एक रात्री नहीं, पूरा आयुष्य बिता देगा तो भी सुई यहाँ नहीं मिलेगी। घर में जा, दीया जला और सुई जहाँ खोई है वहीं खोज।" इस प्रकार जीव सुबह से शाम तक, जीवन से मौत तक, मृत्यु के बाद नये जन्म में.... इस प्रकार युग-युगान्तर तक 'सुखों को पकड़े रखना और दुःखों को दूर करना' – इसी दौड़ में लगा है। सुबह से शाम तक हम क्या करते हैं? दुःख को दूर हटाना और सुख को सम्भालना। हरेक प्राणी जीवन से मृत्यु पर्यंत यही प्रवृत्ति करता है। आखिर में उसे क्या हाथ लगता है? सभी भोजू के साथी....। सुख कहाँ है यह पता नहीं। सुख खोया है यह तो थोड़ा-थोड़ा पता लगता है लेकिन कहाँ खोजना चाहिए इसकी सूझ नहीं। खोया है घर में और खोजता है बाजार में। कबीरजी कहते हैं- भटक मूंआ भेदू बिना पावे कौन उपाय। खोजत खोजत युग गये पाव कोस घर आय।। सुख को खोजते-खोजते, शान्ति को खोजते-खोजते, अमरता को खोजते-खोजते युग बीत गये फिर भी जीव बेचारा अभागा ही रह गया। हरेक जन्म में बाप किये, माँ की, पति किये, पत्नी की, घरबार बनाये, परिवारों को निभाये, क्या-क्या नहीं किया बेचारे ने? लेकिन मृत्यु का एक ही झटका और सब किया कराया चौपट। फिर दूसरे गर्भ में उल्टा होकर लटकना, नारकीय यातनाओं के साथ जन्मना, दुःख भोगते-भोगते जीना। जैसा-जैसा वातावरण मिला वैसे संस्कार चित्त में जम गये। जीव सोचता है कि इतना कर लूँ तो आराम.... बाबाजी हो जाऊँ, फिर आराम....। यह कर लूँ फिर आराम.... वह कर लूँ फिर आराम...। ऐसा करते-करते जीवन पूरा हो गया। आखिर पूछो कि  "पशा काका ! क्या हाल है?" "अरे काका ! मरने में भी आराम नहीं है।" बिलकुल सच बात है। मरने में भी आराम नहीं और करने में भी आराम नहीं। तो आराम कहाँ है? येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहिनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रता।। जिनके पापों का अन्त हुआ हो, पुण्य कर्मों का उदय हुआ हो, मोह विनिर्मुक्त हुआ हो वह दृढ़ता से भगवान का भजन कर सकता है। ज्ञान के बिना भजन नहीं हो सकता, ज्ञान के बिना पुण्य नहीं हो सकता, साक्षात् भगवान भी तुम्हारे कन्धे से टकराकर चले जायें तो ज्ञान के बिना पता नहीं चलता। श्रीमद् भागवत में प्रसंग आता है कि वसुदेवजी ने यज्ञ किया। नारदजी पधारे तो वसुदेव जी ने उन्हें प्रणाम किया और कहने लगेः "भगवान ! हमारे अहोभाग्य कि आप जैसे प्रभु पधारे। हे देवर्षि ! अब मुझ पर कृपा करो कि मुझे भगवान के दर्शन हो जायें। मेरा कल्याण हो जाय।" यह सुनकर नारदजी सस्मित-वदन होकर कहने लगेः "अरे वसुदेवजी ! ये सब साधू-संत महात्मा लोग आपके यज्ञ के धूएँ चाटने आये हैं क्या? हम लोग यहाँ क्यों आये हैं?" "महाराज ! आपने पधार कर हमें दर्शन दिये लेकिन..." "अरे हम भी भगवान के दर्शन करने ही तो यहाँ आये हैं।" "अच्छा ! कहाँ हैं भगवान?" वसुदेवजी विस्फुरित नेत्रों से देखने लगे। "वहाँ देखो..... वह नटखट नागर संतो की जूठी पत्तल उठा रहे हैं।" "अरे वह तो मेरा कन्हैया है। आप मुझे भगवान के दर्शन कराइये।" भगवान जिनकी गोद में खेलते हैं ऐसे वसुदेवजी भी भगवत्तत्व का भान न होने से यज्ञ कराकर नारदजी से आशीर्वाद माँगते हैं और भगवान को खोजने की, पाने की तैयारियाँ कर रहे हैं। एक बार मुंबई का कोई सज्जन अमदावाद के आश्रम में दर्शनार्थ आया। पुस्तकें पढ़ी होगी, लोगों से सुना होगा तो दर्शन करने की इच्छा जगी। हम कहीं बाहर गये थे। वह वापस लौट गया। दर्शन नहीं हो सके। कुछ दिन बाद उसे व्यवसाय के निमित्त लुधियाना जाना हुआ। लौटते वक्त सोचा कि अमदावाद होकर फिर मुंबई जायँगे। वह दिल्ली में 'रिजर्वेशन कोच' में बैठा। संयोगवशात् हम भी उसी गाड़ी से अमदावाद लौट रहे थे। उसी कम्पार्टमैन्ट में प्रवेश किया। उसे पता नहीं था कि जिन महाराज के दर्शनार्थ अमदावाद आश्रम में गया था वे ही महाराज हैं। वह बोलाः   "बाबाजी ! आगे जाओ।" "हमारी रिजर्वेशन टिकट का नंबर 19 है। आपका कौन-सा है?" हमने पूछा। "अठारह।" वह बोला। "आप अपनी जगह बैठो, हम हमारी जगह बैठते हैं। आपको कोई हरकत नहीं है न? " हमने थोड़ा विनोद किया। "अच्छा, बैठो।" मुँह बिगाड़ते हुए वह बोला। गाड़ी चली। छोटे-मोटे स्टेशन आये और गये। जयपुर आया। अब भी उस सज्जन को बाबाजी के दर्शन नहीं हुए। जिनके दर्शन करने मुंबई से अमदावाद गये थे वे ही उसी कम्पार्टमैन्ट में पास वाली सीट पर बैठे थे फिर भी दर्शन नहीं हो रहे हैं। क्योंकि ज्ञान नहीं कि यही वे संत हैं। गाड़ी अजमेर पहुँची। वहाँ के भक्तों को हमारे प्रवास की खबर मिल चुकी थी। फल-फूल लेकर भक्तों का टोला अजमेर के प्लेटफार्म पर जमा हो गया था। गाड़ी ने स्टेशन में प्रवेश किया तो 'आसारामजी महाराज की जय..... आसारामजी महाराज की जय......' के नाद से स्टेशन गुँजा दिया। ये सज्जन खिड़की से बाहर झाँकने लगे। 'जिनके दर्शन करने अमदावाद गया था कि वे ही आसारामजी महाराज अजमेर में पधारे हैं क्या? इतने में भक्तों का टोला फूलहारों के साथ खोजता-खोजता हमारे कोच के पास आ पहुँचा। दर्शन होते ही फिर से जय-जयकार हुआ। भीतर आकर लोग प्रणाम करने लगे, फूलहार चढ़ाने लगे, बाहरवाले दूर से ही पुष्पवृष्टि करने लगे। सभी के चेहरे आनन्द से महक रहे थे। प्लेटफार्म पर आनन्द-उत्सव होने लगा। ये सज्जन यह दृश्य देखकर दंग रह गये। किसी भक्त से पूछाः "क्या ये ही अमदावादवाले आसारामजी महाराज हैं?" "हाँ हाँ.... ये ही मोटेरावाले साँईं है।" भक्त बड़े उत्साह से बोला। सुनकर तुरन्त वह सज्जन चरणों में लिपट पड़ा। गदगद् कण्ठ से बोल उठाः "बापू...! बापू....!! मैंने पहचाना नहीं। आपके दर्शन के लिए तो मैं आश्रम में गया था। आपके दर्शन नहीं हुए। दिल्ली से आप साथ में हैं लेकिन...." उस सज्जन को मुलाकात तो दिल्ली में हो गई लेकिन दर्शन अजमेर में हुए। यह तो कल्पित प्रसंग आपको समझाने के लिए कहा। सत्य बात यह है कि बापूओं के बापू परब्रह्म परमात्मा हमारी सीट के ऊपर ही बैठे हैं लेकिन आज तक हमारा अजमेर नहीं आया। युगों से उनसे हमारी मुलाकात है, कभी वियोग सम्भव ही नहीं फिर भी आज तक उनके दर्शन नहीं हुए। क्या आश्चर्य है ! अभी पापों का अन्त नहीं हुआ। पूरे पुण्यों का उदय नहीं हुआ। भगवान की भक्ति में हमारी दृढ़ता नहीं आयी। येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहिनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रता।। वृत्रासुर और इन्द्र का युद्ध हुआ। वृत्रासुर कहता हैः "हे इन्द्र ! अब देर न करो। मेरा शीघ्र हनन करो। क्योंकि जो आया है सो जायगा। अभी मेरा मन श्रीहरि के स्नेह में लगा है। इस समय मुझे मार दोगे  तो मैं श्रीहरि को प्राप्त हो जाऊँगा। जब  संसार के द्वन्द्वों में मेरा मन रहे और उसी अवस्था में मृत्यु हो जाये तो अवगति होगी। अभी मेरे लिए यह सुअवसर है। मुझे श्रीहरि की दृढ़भक्ति प्राप्त हो जायेगी। मेरे इस नश्वर देह को गिरा दो।" धन-वैभव, साधन-संपदा अज्ञान से सुखद लगते हैं लेकिन उनमें द्वन्द्व रहते हैं। राग-द्वेष, इच्छा-वासना के पीछे जीव का जीवन समाप्त हो जाता है। द्वन्द्वों से मुक्त हुए बिना भगवान की दृढ़ भक्ति प्राप्त नहीं होती। निर्द्वन्द्व तो वह हो सकती है जो जगत को स्वप्न तुल्य समझता है। निर्द्वन्द्व तो वह हो सकता है जो ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के ज्ञान को पचा लेता है। निर्द्वन्द्व तो वह हो सकता है जिसको शिवजी का अनुभव अपना अनुभव बनाने की तीव्र लगन लगी है। शिवजी भगवती पार्वती से कहते हैं- उमा कहौं मैं अनुभव अपना। सत्य हरिभजन जगत सब सपना।। वृत्रासुर और इन्द्र का युद्ध हुआ होगा तब कितना घमासान मचा होगा, ठोस सत्य भासता होगा। अब देखो तो सब स्वप्न। रामायणकाल और महाभारतकाल सब स्वप्न। मंथरा का कपट, कैकेयी का क्रूर निश्चय, दशरथ का विरह, अयोध्यावासियों की करुण स्थिति, सुमन्त्र के आँसू, रामजी का वनगमन, शूर्पनखा की कामवृत्ति, लक्ष्मण की अथक सेवा और आखिर में राम-रावण का भीषण युद्ध। यह सब जिस समय हुआ होगा तब कितना ठोस सत्य भासता होगा। अब देखो तो देख स्वप्न। ऐसे-ऐसे अवतारों की चेष्टाएँ और लीलाएँ काल के अन्तराल में स्वप्न की तरह सरक गई तो तुम्हारी-हमारी चेष्टाओं का मूल्य ही क्या है? समय की धारा में सब कुछ प्रवाहित हो रहा है। गंगा के जल में दो बार कोई नहा नहीं सकता। 'मैं दस बार नहा सकता हूँ।' कोई कहे। नहीं भैया ! जिस पानी में आपने गोता लगाया वह पानी तो कहीं का कहीं बह गया। जब-जब नया गोता लगाओगे तब नया पानी आ जायेगा। इसी प्रकार समय की धारा है। वैसे का वैसा समय आ सकता है वही का वही समय वापस नहीं आता। दीपक की लौ जलती है। वही की वही दिखती है लेकिन वही है नहीं। वैसी की वैसी है किन्तु हर पल नयी नयी हो रही है। ऐसे ही हम वही के वही लगते हैं वास्तव में वही के वही हैं नहीं। हमारे शरीर के कोष हरदम बदल रहे हैं। हमारे विचार बदल रहे हैं, बुद्धि बदल रही है। हाँ, हमारा वास्तविक तात्विक स्वरूप वही का वही अपरिवर्तनशील है। तुम जिसको 'मैं' मानते हो उस देह के कोष बदल रहे हैं, मन की वृत्तियाँ बदल रही हैं, बुद्धि के निर्णय बदल रहे हैं, विचार बदल रहे हैं किन्तु जिसको तुम 'मैं' नहीं मानते वह आत्मा ही सचमुच तुम हो। उस सच्ची 'मैं' को तुम वास्तव में जान लो तो तुम्हारा बेड़ा पार हो जाय। फिर तो जिस पर तुम्हारी करुणामय दृष्टि पड़े वह द्वन्द्वमोहविनिर्मुक्ता के मार्ग पर चल पड़े। राग-द्वेष से प्रेरित होकर जो कार्य किये जाते हैं वे द्वन्द्व और मोह को बढ़ाते हैं। ईश्वर-प्रीत्यर्थे कार्य किये जायें तो द्वन्द्वमोह निर्मूल होने लगते हैं। तुम क्या बोलते हो, किसके साथ बोलते हो उसकी गहराई में तुम्हारा ही अन्तर्यामी आत्मदेव है इस भाव बोलो तो तुम्हारे द्वन्द्व-मोह कम हो जायेंगे। चालू व्यवहार में भक्ति हो जायेगी, चालू व्यवहार में योग और ज्ञान का अभ्यास हो जायेगा। अन्तःकरण पवित्र होने लगेगा। तुम्हारा प्रभाव बढ़ने लगेगा फिर भी उसका अहंकार नहीं आयेगा। ज्ञान का मार्ग ऐसा है कि अहंकार को उत्पन्न ही नहीं होने दे। अहंकार दूसरे को देखकर होता है। भय दूसरे को देखकर होता है। घृणा दूसरे को देखकर होती है। आसक्ति दूसरे पर होती। जब सबमें आत्मस्वरूप श्रीहरि को निहारा तो भय किससे? आसक्ति किससे? अहंकार किससे? नरसिंह मेहता ने कितना सुंदर गाया हैः अखिल ब्रह्माण्डमां एक तुं श्रीहरि। जूजवे रूपे अनन्त भासे।। दो संन्यासी युवक यात्रा करते-करते किसी गाँव में पहुँचे। लोगों से पूछाः "हमें एक रात्रि यहाँ रहना है। किसी पवित्र परिवार का घर दिखाओ।" लोगों ने बताया किः "वह एक चाचा का घर है। साधू-महात्माओं का आदर-सत्कार करते हैं। अखिल ब्रह्माण्डमां एक तुं श्रीहरि पाठ उनका पक्का हो गया है। वहाँ आपको ठीक रहेगा।" उन्होंने उन सज्जन चाचा का पता बताया। दोनों संन्यासी वहाँ गये। चाचा ने प्रेम से सत्कार किया, भोजन कराया और रात्रि-विश्राम के लिए बिछौना बिछा दिया। रात्रि को कथा-वार्ता के दौरान एक संन्यासी ने प्रश्न कियाः "आपने कितने तीर्थों में स्नान किया है? कितनी तीर्थयात्रा की है? हमने तो चारों धाम की तीन-तीन बार यात्रा की है।" चाचा ने कहाः "मैंने एक भी तीर्थ का दर्शन या स्नान नहीं किया है। यहीं रहकर भगवान का भजन करता हूँ और आप जैसे भगवद् स्वरूप अतिथि पधारते हैं तो सेवा करने का मौका लेता हूँ। अभी तक कहीं भी गया नहीं हूँ।" दोनों संन्यासी आपस में सोचने लगेः 'ऐसे व्यक्ति का अन्न खाया ! अब यहाँ से चले जायें तो रात्रि कहाँ बिताएँ? यकायक चले जायें तो उसको दुःख होगा। चलो, कैसे भी करके इस विचित्र वृद्ध के यहाँ रात्रि बिता दें। जिसने एक भी तीर्थ नहीं किया उसका अन्न खा लिया ! हाय! ' आदि आदि। इस प्रकार विचारते सोने लगे लेकिन नींद कैसे आवे? करवटें बदलते-बदलते मध्यरात्रि हुई। इतने में द्वार से बाहर देखा तो गौ के गोबर से लीपे हुए बरामदे में एक काली गाय आयी.... फिर दूसरी आयी..... तीसरी.... चौथी.... पाँचवीं..... ऐसा करते-करते असंख्य गायें आईं। हरेक गाय वहाँ आती, बरामदे में लोटपोट होती और सफेद हो जाती तब अदृश्य हो जाती। ऐसी कितनी ही काली गायें आयी और सफेद होकर विदा हो गईं। दोनों संन्यासी फटी आँखों से देखते ही रहे। दंग रह गये कि यह क्या कौतुक हो रहा है ! आखिरी गाय जाने की तैयारी में थी तो उन्होंने उसे वन्दन करके पूछाः "हे गौ माता! आप कौन हो और यहाँ कैसे आना हुआ? यहाँ आकर आप श्वेतवर्ण हो जाती हो इसमें क्या रहस्य है? कृपा करके अपना परिचय दें।" गाय बोलने लगीः "हम गायों के रूप में सब तीर्थ हैं। लोग हममें 'गंगे हर.. यमुने हर... नर्मदे हर....' आदि बोलकर गोता लगाते हैं, हममें अपना पाप धोकर पुण्यात्मा होकर जाते हैं और हम उनके पापों की कालिमा मिटाने के लिए द्वन्द्वमोह से विनिर्मुक्त आत्मज्ञानी, आत्मा-परमात्मा में विश्रान्ति पाये हुए ऐसे सत्पुरुष के आँगन में आकर पवित्र हो जाते हैं। हमारा काला बदन पुनः श्वेत हो जाता है। तुम लोग जिनको अशिक्षित गँवार बूढ़ा समझते हो वे बुजुर्ग तो जहाँ से तमाम विद्याएँ निकलती हैं उस आत्मदेव में विश्रान्ति पाये हुए आत्मवेत्ता संत हैं।" पढ़ना अच्छा है लेकिन पढ़ाई का अहं अच्छा नहीं। संन्यासी होना अच्छा लेकिन संन्यास का अहं अच्छा नहीं। सेठ होना ठीक है लेकिन सेठ का अहं ठीक नहीं। अमलदार होना ठीक है लेकिन अमलदारी का अहं ठीक नहीं। कुछ भी बनो लेकिन सदा याद रखो कि आखिर तब तक? यह स्मरण रहे तो द्वन्द्व और मोह पिघल जायगा। फिर आत्मरस प्रकट होने में सुगमता रहेगी। छोटे बालक को देखा? लेटा हुआ आकाश के साथ कुश्ती करता है। तोतले शब्द भी मधुर लगते हैं। क्योंकि उसके भीतर के द्वन्द्व, उसके अहंकार अभी ठोस नहीं बने। उसके चित्त में अभी 'मैं' और 'मेरा' का द्वन्द्व पनपा नहीं। वह बड़ा होगा, उसके चित्त में जब द्वन्द्व जगेंगे तब उसकी निर्दोषता दूर हो जायेगी, दोष आ जायेंगे, अहंकार पुष्ट होगा। ऋषि कहते हैं- वीतरागभयक्रोधः मुनि मोक्षपरायणः। 'जिसका राग, भय और क्रोध व्यतीत हो गया है वह मुनि मोक्षपरायण है।' बाल्यावस्था में राग, भय और क्रोध सुषुप्त रहते हैं। उम्र बढ़ती है तो राग-भय-क्रोध भी पुष्ट हो जाते हैं। ध्यान, भजन, साधना के द्वारा जब विवेक जगाया जाता है तब विकार व्यतीत हो जाते हैं। तब मनुष्य मुनि बन जाता है, मननशील बन जाता है। मन्त्रदृष्टा को ऋषि कहा जाता है और आत्मज्ञान का मनन करके स्वरूप में विश्रांति पाते हैं उनको मुनि कहा जाता है। नारदजी ऋषि भी थे और मुनि भी थे। वशिष्ठजी महाराज ऋषियों में भी गिने  जाते हैं और मुनियों में भी गिने जाते हैं। शुकदेवजी महाराज मुनि कहे जाते हैं। जब तक जीव अपने आत्मा-परमात्मा में जगता नहीं तब तक उसका दुर्भाग्य चालू ही रहता है। चालू दुर्भाग्य में जीव अपने को भाग्यवान मान लेता है कि 'आहा ! मुझे नौकरी मिल गई। बड़ा भाग्यवान हूँ।' अरे भैया ! तुझे अपने आत्मा का ज्ञान मिला है?" "नहीं।" तो पूरा भाग्यवान नहीं। "मुझे अच्छा परिवार मिला। मैं भाग्यवान.....। मुझे अच्छा धन्धा मिला, अच्छे मित्र मिले, अच्छा माहौल मिला.... मैं बहुत भाग्यवान हूँ....।" वास्तव में ये सब अत्यंत तुच्छ चीजें हैं। साथ रहने वाली नहीं है। अपितु गुमराह करने वाली संसार की विपादायें हैं। ऐसा तो हर जन्म में कुछ न कुछ मिलता है फिर भी जीव अभागे के अभागे ही रहते हैं। वास्तव में भाग्यवान तो तब जब 'मैं कौन हूँ' इसका भान हो जाये। फिर उस पर नजर डाल दे वह चमकने लग जाय। अनुक्रम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सच्ची कृपा एक बार एक दरिद्र ब्राह्मण के मन में धन पाने की तीव्र कामना हुई। वह सकाम यज्ञों की विधि जानता था किन्तु धन ही नहीं तो यज्ञ कैसे हो? वह धन की प्राप्ति के लिए देवताओं की पूजा और व्रत करने लगा। कुछ समय एक देवता की पूजा करता, परन्तु उससे कुछ लाभ नहीं पड़ता तो दूसरे देवता की पूजा करने लगता और पहले को छोड़ देता। इस प्रकार उसे बहुत दिन बीत गये। अन्त में उसने सोचाः "जिस देवता की आराधना मनुष्य ने कभी न की हो, मैं अब उसी की उपासना करूँगा। वह देवता अवश्य मुझ पर शीघ्र प्रसन्न होगा।" ब्राह्मण यह सोच ही रहा था कि उसे आकाश में कुण्डधार नामक मेघ के देवता का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ। ब्राह्मण ने समझ लिया कि, 'मनुष्य ने कभी इनकी पूजा न की होगी। ये बृहदाकार मेघदेवता देवलोक के समीप रहते हैं। वे मुझे अवश्य धन देंगे।' बस बड़ी श्रद्धा-भक्ति से ब्राह्मण ने उस कुण्डधार मेघ की पूजा प्रारम्भ कर दी। ब्राह्मण की पूजा से प्रसन्न होकर कुण्डधार देवताओं की स्तुति की, क्योंकि वह स्वयं तो जल के अतिरिक्त किसी को कुछ दे नहीं सकता था। देवताओं की प्रेरणा से यक्ष-श्रेष्ठ मणिभद्र उसके पास आकर बोलेः "कुण्डधार तुम क्या चाहते हो?" कुण्डधारः "यक्षराज ! देवता यदि मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे उपासक इस ब्राह्मण को वे सुखी करें।" मणिभद्रः "तुम्हारा भक्त यह ब्राह्मण यदि धन चाहता है तो इसकी इच्छा पूर्ण कर दो। यह जितना धन माँगेगा वह मैं इसे दे दूँगा।" कुण्डधारः "यक्षराज ! मैं इस ब्राह्मण के लिए धन की प्रार्थना नहीं करता। मैं चाहता हूँ कि देवताओं की कृपा से यह धर्मपरायण हो जाये। इसकी बुद्धि धर्म में लगे।" मणिभद्रः "अच्छी बात ! अब ब्राह्मण की बुद्धि धर्म में ही स्थित रहेगी।" उसी समय ब्राह्मण ने स्वप्न में देखा कि उसके चारों ओर कफन पड़ा हुआ है। यह देखकर उसके हृदय में वैराग्य उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगाः "मैंने इतने देवताओं की और अन्त में कुण्डधार मेघ की भी धन के लिए आराधना की, किन्तु इनमें कोई उदार नहीं दिखता। इस प्रकार धन की आशा में ही लगे हुए जीवन व्यतीत करने से क्या लाभ? अब मुझे परलोक की चिन्ता करनी चाहिए।" ब्राह्मण वहाँ से वन में चला गया। उसने अब तपस्या करना प्रारम्भ किया। दीर्घकाल तक कठोर तपस्या करने के कारण उसे अदभुत सिद्धि प्राप्त हुई। वह स्वयं आश्चर्य करने लगाः 'कहाँ तो मैं धन के लिए देवताओं की पूजा करता था और उसका कोई परिणाम नहीं होता था और अब मैं स्वयं ऐसा हो गया कि किसी को धनी होने का आशीर्वाद दे दूँ तो वह निःसन्देह धनी हो जायेगा !' ब्राह्मण का उत्साह बढ़ गया। तपस्या में उसकी श्रद्धा बढ़ गयी। वह तत्परतापूर्वक तपस्या में लगा रहा। एक दिन उसके पास वही कुण्डधार मेघ आया। उसने कहाः "ब्राह्मण ! तपस्या के प्रभाव से आपको दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई है। अब आप धनी पुरुषों तथा राजाओं की गति को देख सकते हैं।" ब्राह्मण ने देखा कि धन के कारण गर्व में आकर लोग नाना प्रकार के पाप करते हैं और घोर नर्क में गिरते हैं। कुण्डधार बोलाः "भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करके आप यदि धन पाते और अन्त में नर्क की यातना भोगते तो मुझसे आपको क्या लाभ होता? जीव का लाभ तो कामनाओं का त्याग करके धर्माचरण करने में ही है। उन्हें धर्म में लगाने वाला ही उनका सच्चा हितैषी है।" ब्राह्मण ने मेघ के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। कामनाओं का त्याग करके वह मुक्त हो गया। जो आपकी कामना बढ़ावे वह आपका मित्र व हितैषी नहीं। अन्त में नर्क में सड़ता गलता जीवन बिताना पड़े, तुच्छ योनियों में छटपटाना पड़े ऐसे कामनापूर्ति के मार्ग में आपको लगानेवाला मित्र आपका सच्चा हितैषी नहीं हो सकता। कुण्डधार की तरह ज्ञान, वैराग्य, तपस्या बढ़ाकर परम पद में स्थित करना चाहते हैं वे ही आपके सच्चे हितैषी हैं। अतः ऐसे हितैषी ऋषियों की, शास्त्रों की बात को आदर से अपने जीवन में उतारकर धन्य हो जाओ। अनुक्रम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ घोर क्लेश में भी सत्पथ पर अडिगता महाभारत की कथा सुनी मैंनेः जब भगवान विष्णु ने वामनरूप से बलि से पृथ्वी तथा स्वर्ग का राज्य छीनकर इन्द्र को दे दिया तब कुछ ही दिनों में राज्यलक्ष्मी के स्वाभाविक दुर्गुण गर्व से इन्द्र पुनः उन्मत्त हो उठे। एक दिन वे ब्रह्माजी के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर बोलेः "पितामह ! अब अपार दानी राजा बलि का कुछ पता नहीं लग रहा है। मैं सर्वत्र खोजता हूँ, पर उनका पता नहीं मिलता। आप कृपाकर मुझे उनका पता बताइये।" ब्रह्माजी ने कहाः "तुम्हारा यह कार्य उचित नहीं। तथापि किसी के पूछने पर झूठा उत्तर नहीं देना चाहिए, अतएव मैं तुम्हें बलि का पता बतला देता हूँ। राजा बलि इस समय ऊँट, बैल, गधा या घोड़ा बनकर किसी शून्य, उजाड़ जगह में रहते हैं।" इन्द्र ने इस पर पूछाः "यदि मैं किसी स्थान पर बलि को पाऊँ तो उन्हें अपने वज्र से मार डालूँ या नहीं?" ब्रह्माजी ने कहाः "राजा बलि ! अरे... वे कदापि मारने योग्य नहीं हैं। तुम्हें उनके पास जाकर कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।" तदनन्तर इन्द्र बलि की खोज में निकल पड़े। अन्त में एक खाली घर में उन्होंने एक गधा देखा और कई लक्षणों से उन्होंने अनुमान किया कि ये राजा बलि हैं। इन्द्र ने कहाः "दानवराज ! इस समय तुमने बड़ा विचित्र वेश बना रक्खा है। क्या तुम्हें अपनी इस दुर्दशा पर कोई दुःख नहीं होता? इस समय, तुम्हारे छत्र, चामर और वैजयन्ती माला कहाँ गई? कहाँ गया वह तुम्हारा अप्रतिहत दान का महाव्रत और कहाँ गया तुम्हारा सूर्य, वरुण, कुबेर, अग्नि और जल का रूप?" बलि ने कहाः "देवेन्द्र ! इस समय तुम छत्र, चामर, सिंहासनादि उपकरणों को नहीं देख सकोगे। पर फिर कभी मेरे दिन लौटेंगे और तब तुम उन्हें देख सकोगे। तुम जो इस समय अपने ऐश्वर्य के मद में आकर मेरा उपहास कर रहे हो, यह केवल तुम्हारी तुच्छ बुद्धि का ही परिचायक है। मालूम होता है, तुम अपने पूर्व के दिनों को सर्वथा ही भूल गये। पर सुरेश ! तुम्हें समझ लेना चाहिए, तुम्हारे वे दिन पुनः लौटेंगे। देवराज ! इस विश्व में कोई वस्तु सुनिश्चित और सुस्थिर नहीं है। काल सबको नष्ट कर डालता है। इस काल के अदभुत रहस्य को जानकर मैं किसी के लिए भी शोक नहीं करता। यह काल धनी-निर्धन, बली-निर्बल, पण्डित-मूर्ख, रूपवान-कुरूप, भाग्यवान-भाग्यहीन, बालक-युवा-वृद्ध, योगी तपस्वी धर्मात्मा, शूर और बड़े से बड़े अहंकारियों में से किसी को भी नहीं छोड़ता। सभी को एक समान ग्रस्त कर लेता है। सबका कलेवा कर जाता है। ऐसी दशा में महेन्द्र ! मैं क्यों सोचूँ? काल के ही कारण मनुष्य को लाभ-हानि और सुख-दुःख की प्राप्ति होती है। काल ही सबको देता है और पुनः छीन भी लेता है। काल के ही प्रभाव से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। इसलिए वासव ! तुम्हारा अहंकार, मद तथा पुरुषार्थ का गर्व केवल मोह मात्र है। ऐश्वर्यों की प्राप्ति तथा विनाश किसी मनुष्य के अधीन नहीं है। मनुष्य की कभी उन्नति होती है और कभी अवनति। यह संसार का नियम है। इसमें हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए। न तो सदा-सदा किसी की उन्नति ही होती है और न सदा अवनति या पतन ही। समय से ही ऊँचा पद मिलता है और समय ही गिरा देता है। इसे तुम अच्छी तरह जानते हो कि एक दिन देवता, पितृ, गन्धर्व, मनुष्य, नाग, राक्षस सब मेरे अधीन थे। अधिक क्या, "नमस्तस्यै दिशेऽप्यस्तु यस्यां वैरोचनिर्बलिः।" – जिस दिशा में राजा बलि हो उस दिशा को भी नमस्कार ! यों कहकर, मैं जिस दिशा में रहता था उस दिशा को भी लोग नमस्कार करते थे। पर जब मुझ पर भी काल का आक्रमण हुआ, मेरा भी दिन पलटा खा गया और मैं इस दशा में पहुँच गया तब किस गरजते और तपते हुए पर काल का चक्र न फिरेगा? मैं अकेला बारह सूर्यों का तेज रखता था। मैं ही पानी का आकर्षण करता और बरसाता था। मैं ही तीनों लोकों को प्रकाशित करता और तपाता था। सब लोकों का पालन, संहार, दान, ग्रहण, बन्धन और मोचन मैं ही करता था। मैं तीनों लोकों का स्वामी था, किन्तु काल के फेर से इस समय मेरा वह प्रभुत्व समाप्त हो गया। विद्वानों ने काल को दुरतिक्रम और परमेश्वर कहा है। बड़े वेग से दौड़ने पर भी कोई मनुष्य काल को लाँघ नहीं सकता। उसी काल के आधीन हम, तुम, सब कोई है। इन्द्र ! तुम्हारी बुद्धि सचमुच बालकों जैसी है। शायद तुम्हें पता नहीं कि अब तक तुम्हारे जैसे हजारों इन्द्र हुए और नष्ट हो चुके। यह राज्य, लक्ष्मी, सौभाग्यश्री, जो आज तुम्हारे पास है, तुम्हारी बपौती या खरीदी हुई दासी नहीं है। वह तो तुम जैसे हजारों इन्द्रों के पास रह चुकी है। वह इसके पूर्व मेरे पास थी। अब मुझे छोड़कर तुम्हारे पास आयी है और शीघ्र ही तुमको भी छोड़कर दूसरे के पास चली जायेगी। मैं इस रहस्य को जानकर रत्तीभर भी दुःखी नहीं होता। बहुत-से-कुलीन धर्मात्मा गुणवान राजा अपने योग्य मन्त्रियों के साथ भी घोर क्लेश पाते हुए देखे जाते हैं। साथ ही इसके विपरीत मैं नीच कुल में उत्पन्न मूर्ख मनुष्यों को बिना किसी की सहायता से राजा बनते देखता हूँ। अच्छे लक्षणोंवाली परम सुन्दरी तो अभागिनी और दुःखसागर में डूबती दीख पड़ती है और कुलक्षणा, कुरूपा भाग्यवती देखी जाती है। मैं पूछता हूँ, इन्द्र ! इसमें भवितव्यता-काल यदि कारण नहीं है तो और क्या है? काल के द्वारा होने वाले अनर्थ बुद्धि या बल से हटाये नहीं जा सकते। विद्या, तपस्या, दान और बन्धु-बान्धव कोई भी कालगत मनुष्य की रक्षा नहीं कर सकता। आज तुम मेरे सामने वज्र उठाये खड़े हो। अभी चाहूँ तो एक घूँसा मारकर वज्र समेत तुमको गिरा दूँ। चाहूँ तो इसी समय अनेक भयंकर रूप धारण कर लूँ, जिनको देखते ही तुम डरकर भाग खड़े हो जाओ। परन्तु करूँ क्या? यह समय सह लेने का है, पराक्रम दिखलाने का नहीं। इसलिए यथेच्छ गधे का ही रूप बना कर मैं अध्यात्म-निरत हो रहा हूँ। शोक करने से दुःख मिटता नहीं, वह तो और बढ़ता है। इसी से बेखटके हूँ, बहुत निश्चिन्त, इस दुरवस्था में भी।" बलि के विशाल धैर्य को देखकर इन्द्र ने उनकी बड़ी प्रशंसा की और कहाः "निःसंदेह तुम बड़े धैर्यवान हो जो इस अवस्था में भी मुझ वज्रधारी को देखकर तनिक भी विचलित नहीं होते। निश्चय ही तुम राग-द्वेष से शून्य और जितेन्द्रिय हो। तुम्हारी शांतचित्तता, सर्वभूतसुहृदता तथा निर्वैरता देखकर मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम महापुरुष हो। अब मेरा तुमसे कोई द्वेष नहीं रहा। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम मेरी ओर से बेखटके रहो, निश्चिन्त और निरोग होकर समय की प्रतीक्षा करो। यों कहकर देवराज इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर चले गये और बलि पुनः अपने स्वरूप-चिन्तन में स्थिर हो गये। अनुक्रम ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ करुणासिन्धु की करुणा ईश्वर के मार्ग पर एक बार कदम रख ही दिये हैं तो चल ही पड़ना। पीछे न मुड़ना। जिज्ञासु के हृदय की पुकार होती है, पक्के मर्दों के दिल की आवाज होती है कि जो करना है सो करना है, पाना है सो पाना है। कण्ठगत प्राण आ जाय तो भी वापस नहीं मुड़ना है। ईश्वर के मार्ग पर कदम रखनेवाले वे ही लोग पहुँचते हैं जो दृढ़ निश्चयी होते हैं। परमात्मा के मार्ग पर वे ही वीर चल पाते हैं जिनके अन्दर अथाह उत्साह, महान् सहनशक्ति, विचित्र विचारबल होता है। वे ही इस मार्ग के पथिक हो पाते हैं। भोंय सूवाडुं भूखे मारुं उपरथी मारुं मार। एटलूँ करतां जो हरि भजे तो करी नाखुं निहाल।। ऐसे निहाल कर देने वाले सदगुरु का सहारा जिन जिज्ञासु साधकों को मिल जाता है वे सचमुच धन्य हैं। सदगुरु की महिमा अपार है। योगीश्वर देवाधिदेव भगवान शंकर मैया पार्वती से कहते हैं- अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम्। ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं गुरुपादोदकं पिबेत्।। 'अज्ञान की जड़ को उखाड़ने वाले, अनेक जन्मों के कर्मों को निवारनेवाले, ज्ञान और वैराग्य को सिद्ध करने वाले श्री गुरुदेव के चरणामृत का पान करना चाहिए।' (श्रीगुरुगीता) देह में अहंता-ममता अज्ञान का मूल है। जगत में सत्यबुद्धि करना अज्ञान का मूल है। वृत्तियों की सत्यता मानना अज्ञान का मूल है। सुख और दुःख में सत्यबुद्धि करना अज्ञान का मूल है। जीवन और मौत में सत्यबुद्धि करना अज्ञान का मूल है। पद और प्रतिष्ठा में रस आना अज्ञान का मूल है। जगत की किसी भी परिस्थिति में सुख से बँध जाना यह अज्ञान की ही महिमा है। जन्म-जन्मान्तर तक भटकाने वाले जो कर्म हैं, बाहर सुख दिखाने वाले जो कर्म हैं, बाहर सत्यता दिखानेवाली जो बुद्धि है उस बुद्धि को बदलकर ऋतंभरा प्रज्ञा पैदा कर दे, रागवाली बुद्धि को हटाकर आत्मरतिवाली बुद्धि पैदा कर दे, सरकते हुए संसार से चित्त हटाकर शाश्वत परमात्मा के तरफ ले चले ऐसे कोई सदगुरु मिल जाय तो वे अज्ञान को हरण कर के, जन्म-मरण के बन्धनों को काटकर तुम्हें स्वरूप में स्थापित कर देते हैं। अज्ञान का मूल क्या है? अज्ञान का मूल वासना है। जैसे नाविक नाव को ले जाता है और नाव नाविक को ले जाती है ऐसे अज्ञान से वासना पैदा होती है और वासना से अज्ञान बढ़ता है। नश्वर में प्रीति बढ़ती रहती है यह अज्ञान का लक्षण है। ज्ञान की केवल बातों से काम न चलेगा, यंत्रवत माला घुमाने से काम न चलेगा, सेठों को राजी रखने से काम न चलेगा। तुम चाहे कितने ही मंत्र करते रहो लेकिन बेवकूफी कम हुई या बढ़ी उस पर निगाह रखनी पड़ेगी। अज्ञान घटता है या नहीं यह देखना पड़ेगा। यदि तुम अज्ञान में ही मंत्र करते जाओगे तो मंत्र का फल तुम्हारी वासनापूर्ति होगा और वासनापूर्ति हुई तो तुम भोग भोगोगे। भोग से भोग की इच्छा नयी हो जायगी। तप करने से क्या फर्क पड़ता है? जप करने से क्या फर्क पड़ता है? फर्क तो तब पड़ता है जब कोई सदगुरु मिल जाय। फर्क तो तब पड़ता है जब सदगुरु की सीख दिल में उतर जाय... जन्म-मरण के चक्र में डालनेवाले जो कर्म हैं उन कर्मों का निवारण करनेवाला कोई सदगुरु मिल जाय... सत्य के झलकें देनेवाला, सत्य के गीत सुनानेवाला सदगुरु मिल जाय.... जिनके सान्निध्य से तुम्हारे जीवन में ज्ञान और वैराग्य निखर आये, जिनके उपदेश से तुम्हारी बुद्धि की मलिनता दूर होकर विवेक-वैराग्य जग जाय ! काश ! वे दिन कितने सौभाग्यशाली रहे होंगे कि जब भर्तृहरि पूरा राज्य छोड़कर चले गये। गोरखनाथ के चरणों में जा पड़े। गोरखनाथ के चरणों में गिरते समय राजा भर्तृहरि को संकोच नहीं हुआ, लज्जा नहीं आयी, कोई पद और प्रतिष्ठा याद नहीं आये। वे समझते थेः अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकं.... जन्म-जन्मांतर के जो कर्म हैं उनका निवारण करने का सामर्थ्य यदि किसी में है तो सदगुरु की करुणाकृपा में है। जन्म-जन्मांतर की बेवकूफी को दूर करने की यदि कुंजियाँ हैं तो संतों के द्वार पर हैं। रहुगण राजा राज्य से उपराम होकर शांति पाने के लिए जा रहा है। होगी बुद्धि कुछ पवित्र। कई राजा तो मरते दम तक आसक्ति नहीं छोड़ते। रहुगण ऐसा हतभागी नहीं था। वह भीतर की शान्ति खोजने जा रहा है पालकी में बैठकर। पालकी उठानेवालों में से रास्ते में एक आदमी बीमार पड़ा तो जड़भरतजी उसकी जगह पर पालकी ढोने में लगा दिये गये। सबमें अपने आपको निहारनेवाले जड़भरतजी चींटी-चींटा आदि देखते तब उनको बचाने के लिए थोड़ा सा कूद पड़ते। राजा का सिर पालकी में टकराता। इससे राजा उनको डाँटता-फटकारता। ब्रह्मनिष्ठ जड़भरतजी को उस अज्ञानी राजा पर करुणा हुई। बुद्ध पुरुष करुणा के भंडार होते हैं। सच्ची करुणा और सच्ची उदारता, सच्ची समझ और सच्चा ज्ञान तो जड़भरतजी जैसों के पास ही हुआ करता है। मूर्खों की नजर में वे जड़ जैसे थे लेकिन वास्तव में वे ही चैतन्य पुरुष होते हैं। संसारियों ने उनका नाम जड़ रख दिया था, लेकिन वे ऐसे ही जड़ थे कि हजारों जड़ लोगों की जड़ता का नाश करने की कुंजियाँ उनके पास थीं। क्या दुर्भाग्य रहा होगा लोगों का कि ऐसे भरतजी का सान्निध्य-लाभ न पा सके। उन व्यास मुनि को हृदयपूर्वक नमस्कार हो कि उन्होंने जड़भरतजी के जीवन पर थोड़ा-सा प्रकाश डाल दिया। वह प्रकाश आज भी काम आ रहा है। अज्ञान के मूल को हरने वाले, जन्मों के कर्मों को हटानेवाले जड़भरत राजा रहुगण को कहते हैं- "हे राजन् ! जब तक तू आत्मज्ञानियों के चरणों में अपने अहं को न्योछावर न करेगा, जब तक ज्ञानवानों की चरणरज में स्नान करके सौभाग्यशाली न बनेगा तब तक तेरे दुःख न मिटेंगे, तेरा शोक न मिटेगा। दुःख को हरते सुख को भरते करते ज्ञान की बात जी। जग की सेवा लाला नारायण करते दिन रात जी।। सच्ची सेवा तो संत पुरुष ही करते हैं। सच्चे माता-पिता तो वे संत महात्मा गुरु लोग ही होते हैं। हाड़-मांस के माता-पिता तो तुमको कई बार मिले हैं। तुमने लाखों-लाखों बाप बदले होंगे, लाखों-लाखों माँए बदली होंगी। लाखों-लाखों कण्ठी बाँधनेवाले गुरु बदले होंगे, लेकिन जब कोई सदगुरु मिलते हैं तो तुम्हें ही बदल देते हैं। अज्ञान के मूल को हटानेवाले, जन्म-मरण के कारणों को और पातकों को भस्मीभूत करने वाले, ज्ञान और वैराग्य के अमृत को तुम्हारे दिल में भरने वाले सत्पुरुषों का सत्संग और सान्निध्य मिल जाय तो कितना अहोभाग्य ! ऐसे पुरुषों की डाँट भी मिल जाय तो कितनी सुहावनी होगी ! वे डण्डा लेकर पिटाई करने लग जाएँ तो कितने मधुर होंगे वे डण्डे ! वे तमाचा मार दें तो भी उसमें कितनी करुणा होगी ! मेरे गुरुदेव ने एक बार मुझे ऐसी जोरों की डाँट चढ़ायी कि सुननेवाले भयभीत हो गये। मैंने अपने आपको धन्यवाद दिया कि जिन हाथों से हजार-हजार मीठे फल मिले हैं उन्हीं हाथों से यह खट्टा-मीठा फल कितना सुंदर है ! कितनी उदारता के साथ वे डाँटते हैं ! उस दिन की बात याद आती है तो भाव से तन-मन रोमांचित हो जाते हैं। उस डाँट में कितनी करुणा छुपी थी ! कितना अपनत्व छुपा था ! किसी संन्यासी जी ने मुझे कहा था किः "ऐ युवक ! तू मेरे पास से रिद्धि-सिद्धि सीख ले। मैं तुझे अनुष्ठान बताता हूँ। इससे तुझे जो चाहिए वे चीजें मिलने लगेगी।" इस प्रकार के प्रलोभन देकर वह अपना कुछ कचरा मुझे दे रहा था। गुरुदेव को पता चला। मुझे बुलवाया। चरणों में बिठाया और पूछाः "क्या बात सुन रहा था?" मैंने जो कुछ सुना था वह श्रीचरणों में सुना दिया। सदगुरु के आगे यदि ईमानदारी से दिल खोलकर बात न करोगे तो हृदय मलिन होगा। भीतर ही भीतर बोझा बढ़ाना पड़ेगा, जाओगे कहाँ? मैंने पूरा दिल खोलकर सदगुरु के कदमों में रख दिया। संन्यासी के साथ जो बातचीत हुई थी वह ज्यों की त्यों दुहरा दी। फिर मैं क्षणभर मौन हो गया, जाँचा कि कोई शब्द रह तो नहीं गया। गुरु के साथ विश्वासघात करने का पाप तो नहीं लग रहा? गुरु से बात छुपाने का दुर्भाग्य तो नहीं मिल रहा? मैंने ठीक से जाँचा। जो कुछ स्मरण आया वह सब कह दिया। ईमानदारी से सारी की सारी बात कह देने के बाद भी ऐसी जोरों की डाँट पड़ी कि मेरा हार्टफेल न हुआ, बाकी उत्साह, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और सच्चाई सब फेल हो रहा था। सदगुरु ने ऐसी डाँट चढ़ाने के बाद स्नेहपूर्ण स्वर से कहाः "बेटा ! देख।" आहा ! डाँट भी इतनी तेज और 'बेटा' कहने में प्यार भी इतना पूर्ण। क्योंकि पूर्ण पुरुष जो भी करते हैं वह पूर्ण ही होता है। श्रद्धा, विश्वास, प्रेम आदि सब फेल होने का पूरा मौका था लेकिन जिन्होंने माया की जंजीरों को फेल कर दिया है, जिन्होंने अज्ञान को फेल कर दिया है उनके चरणों में यदि अपना अहंकार फेल हो जाय तो घाटा भी क्या है? अपनी अक्ल और चतुराई उनके चरणों में फेल हो जाय तो घाटा क्या पड़ा? मेरी सारी बुद्धिमत्ता, सारी व्यापारी विद्या, सारी साधना की अकड़ फेल हो गई। सिर नीचे हो गया, आँखें झुक गईं। उन्होंने कहाः "बेटा ! सुन। साधक-जिज्ञासु बाज पक्षी है। जैसे बाज पक्षी आकाश को उड़ान लेता है और शिकारी तीर चढ़ाकर ताकता रहता है उसे गिराने के लिए। ऐसे ही साधक ईश्वर के तरफ चलता है तो भेदवादी लोग, अज्ञानी लोग ताकते रहते हैं तुम्हें गिराने के लिए। परिस्थितियाँ ताकती रहती हैं फिर तुम्हें संसार में खींचने के लिए। कानों में ऐसी बातें भर देते हैं कि साधक का पतन हो जाये। अज्ञानियों की बातों को महत्व न दो। बेटा ! मैं तुझे डाँटता हूँ लेकिन भीतर तेरे लिए प्रेम के सिवा और कुछ नहीं। मैंने तेरे को कंपित कर दिया लेकिन तेरे लिए करुणा के सिवा और कुछ नहीं।" जन्मों की धारणा और मान्यताओं को तोड़नेवाले, अज्ञान के मूल स्वरूप इच्छाओं को हटाने वाले, बेवकूफी को छीनने वाले, ज्ञान और वैराग्य को हृदय में भरने वाले, विवेक और शांति की छाया में रखने वाले उन गुरुजनों के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम ! इस जीव की हालत तो ऐसी है जैसे बाढ़ में बहता हुआ कोई कीड़ा एक भँवर से दूसरे भँवर में भटकता जा रहा है। दयालु पुरुष की नजर पड़े और उसको उठाकर वृक्ष की छाया में रख दे। इसी प्रकार ब्रह्मवेत्ताओं का काम होता है। सदियों से भटकते हुए जीव संसार की सरिता में बहे जा रहे हैं, उनको वे प्रेम का प्रसाद देकर, पुचकार का सहारा देकर, साधना का इशारा देकर उन्हें संसार-सरिता के किनारे लगा देते हैं। जन्म-मरण के भँवर से बाहर निकालने के लिए सहारा दे देते हैं। ये कृपासिन्धु गुरु लोग इस पृथ्वी पर न होते तो लोग संसार में बिना आग जलते। यदि वे महापुरुष इस वसुन्धरा पर न होते तो लोग बिना पानी के डूबे रहते चिन्ता में। यदि वे दयालु ज्ञानीजन न होते तो मानव मानव का भक्षण किये बिना न रहता। यदि ज्ञानवानों की अनुकम्पा बार-बार इस पृथ्वी पर न बरसती तो मनुष्य पशु से ज्यादा भयंकर कृत्य करता। ये सब उन्हीं सत्पुरुषों की देन है कि आज हजारों-हजारों दिल प्रभु के प्रेम में पिघल सकते हैं। हजारों दिल पाप-ताप का निवारण करके परमात्मा के प्यार में बह सकते हैं। प्यारे के दीदार में वे बिक सकते हैं। उनक मुलाकात में वे बिखर सकते हैं। चाहे वे ज्ञानवान समाज में प्रसिद्ध हुए हों चाहे अप्रसिद्ध रहे हों, लोगों के बीच रहे हों चाहे न रहे हों, लेकिन उन सदगुरुओं की बड़ी भारी कृपा है जो सत् में विचरण करते-कराते हैं, और सदा-सदा कराते ही रहेंगे। उन सत्पुरुषों की तो कृपा है हम लोगों पर। वे ही लोग हम पर अनुकम्पा करते हैं। बाकी के लोग तो भगवान के नाम पर दुकानदारी चलाते हैं, मत-पंथ-वाड़े बनाते हैं। सत्पुरुष ही ऐसे होते हैं, सच्चे संत महात्मा ही ऐसे होते हैं जो वास्तव में भगवान के नाम का रस पिला सकते हैं। वे वास्तविक में अज्ञान को हटाकर आत्मज्ञान का प्रकाश दे सकते हैं। बाकी तो पंथ-वाड़े कब्रिस्तान हो जाते हैं। जीवन जीवन नहीं रहता। जीवन मौत के तरफ सरकता जाता है। ज्ञानवान पुरुषों की कृपा होती है तब जीवन जीवनदाता के रास्ते पर चलना शुरु करता है। जिन्होंने ज्ञानवान पुरुषों की बात का सेवन किया है, जिन्होंने ज्ञानी के कदमों में अपने अहंकार को बिखेर दिया है, जिन्होंने ज्ञानी की बातों में अपने अहं को, मान्यताओं को कुर्बान कर दिया है उनको इहलोक और परलोक में दुःख नहीं रहता। वे सचमुच धनभागी हैं। धनवान धनी नहीं है, सत्तावान धनी नहीं हैं, इच्छावान धनी नहीं है, जो संत और परमात्मा का प्यारा होता है वही सच्चा धनी है। निर्धनीया सब जग धनवन्ता नहीं कोई। धनवन्ता ता को जानिये जाको रामनाम धन होई।। मौत के समय तुम्हारे रुपये-पैसे क्या रक्षा करेंगे? मौत के समय तुम्हारे बेटे और बहुएँ क्या रक्षा करेंगी भैया? मौत के समय तुम्हारे बड़े महल क्या साथ चलेंगे? मौत के समय भी सदगुरु की दी हुई प्रसादी तुम्हारा साथ करेगी, मौत के समय भी गुरु का ज्ञान तुम्हारे दिल में भरेगा तो तुम मौत की भी मौत करके मोक्ष के तरफ चल पड़ोगे। ये संस्कार व्यर्थ नहीं जाते। सत्संग के ये वचन मौके पर काम कर जाते हैं। दीया जलता है, औरों के लिए प्रकाश कर जाता है। नदियाँ बहती हैं, औरों के लिए पानी दे जाती हैं। मेघ बरसता है, औरों के लिए। इसी प्रकार महापुरुष दुनियाँ में बरस जाते हैं चार दिनों के लिए, उनकी याद रह जाती है, उनके गीत रह जाते हैं, उनका ज्ञान रहा जाता है। उनका शरीर तो चला जाता है लेकिन उनकी स्मृति नहीं जाती, उनके लिए आदर-प्रेम नहीं जाता। उनके लिए श्रद्धा के फूल बरसते ही रहते हैं। वे आँखे धन्य हैं कि उनकी याद में बरस पड़े। वे होंठ धन्य हैं कि उनकी याद में कुछ गुनगुनाये। वह जिह्वा धन्य है कि उनकी याद में कुछ कह पाये। वह शरीर धन्य है कि उनकी याद में रोमांचित हो पाये। वे निगाहें धन्य हैं कि उनकी तस्वीरों के तरफ निहार पायें। ऐसे पुरुषों को हम क्या दे सकते हैं जिनको सारी पृथ्वी का ऐश्वर्य तुच्छ लगा है, जिनकी सारी इच्छाएँ और कामनाएँ नष्ट हो गई हैं? उन महापुरुषों को हम क्या दे सकते हैं? हमारे पास उनको देने के लिए है ही क्या? शरीर रोगी और मरने वाला, मन कपटी, चीजें बिखरने वाली। हम दे भी क्या सकते हैं? हमारे तो उनके कदमों में हजार-हजार प्रणाम हों ! लाखों-लाखों प्रणाम हों ! करोड़ों-करोड़ों प्रणाम हों ! जिन्होंने हमारे पीछे अपना सर्वस्व लुटा दिया, जिन्होंने हमारे पीछे अपनी समाधि का त्याग कर दिया, जिन्होंने हमारे पीछे अपने एकान्त को न्योछावर कर दिया, उन पुरुषों को हम दे भी क्या सकते हैं? हम व्यावहारिक बुद्धि के आदमी ! हम स्वार्थी पुतले ! हम इन्द्रियों के गुलाम ! हम विषय-लम्पटता की जाल में घूमने वाले मकड़े ! हम उनको क्या दे सकते हैं? हम उनको प्रार्थना कर सकते हैं.... हम उनको आँखों के पुष्प दे सकते हैं.... दो आँसू दे सकते हैं- लो गुरुदेव ! ले लो.... ये आँसू ले लो... हमारी पुकार ले लो.... हमें चुप कराने की जिम्मेदारी भी तुम ही सम्भालो ! हे सदगुरु.... कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति। पूत कपूत हो सकता है लेकिन माता कब कुमाता हुई? पिता कब कुपिता हुए? जब बेवफाई की तो बेटे ने की है, माँ ने कब ही है? वे प्यारे शूली को सेज बनाकर गये, वे प्यारे जहर को अमृत बनाकर गये, वे प्यारे विरोध को गहने बनाकर गये, वे प्यारे जहर को अमृत बनाकर गये, वे प्यारे विरोध को गहने बनाकर गये, वे प्यारे अपमान को सिंगार बनाकर गये, केवल, जिज्ञासुओं की इन्तजार में कि कोई साधक मिल जाय, हमें लूटनेवाला कोई शिष्य मिल जाय। वे बेवकूफों के आगे भी अपने आपको लुटाते रहे, कहीं एक प्यारा मिल जाय, कहीं एक जिज्ञासु मिल जाय, हमें झेलनेवाला कहीं एक मुमुक्षु मिल जाय। इसी आशा आशा में हजारों पर बरसते रहे, लाखों-लाखों पर बरसते रहे। कितने धीर पुरुष रहे होंगे वे सत्पुरुष ! हमारे सदगुरु हों या और किसी के सदगुरु हों, वे तो सारे विश्व के सदगुरु हैं। लोग उन्हें नहीं जानते तो लोग अन्धे हैं। लोग उन्हें नहीं मानते तो लोग पागल हैं। वे महापुरुष तो सारे ब्रह्माण्ड के होते हैं। ऐसे सदगुरुओं के कदमों में अवतारों के भी सिर झुक जाते हैं, तुम्हारे हमारे झुक जायें तो क्या बड़ी बात है? ॐ.....ॐ....ॐ.... गुरु दीवो गुरु देवता.... गुरु एक दीया है। दीया जल जाता है औरों के लिए, गुरु भी जीवन को खपा लेते हैं औरों के लिए। गुरु दीवो गुरु देवता गुरु विण घोर अन्धार। जे गुरु वाणी वेगळा रड़वड़िया संसार।। जो गुरु वाणी से दूर हैं वे खाक धनवान हैं? जो गुरु के वचनों से दूर हैं वे खाक सत्तावान हैं? जो गुरु की सेवा से विमुख हैं वे खाक देवता हैं? वे तो भोगों के गुलाम हैं। जो गुरु के वचनों …

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