Friday, 23 February 2018

गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर ।  आठ पहर निरखता रहे, गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥ 

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बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 347॥ कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट । घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 348॥ मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि । कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ॥ 349 ॥ कबीर माला मन की, और संसारी भेष । माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 350 ॥ माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ । मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ ॥ 351॥ कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार । मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार ॥ 352 ॥ माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ । माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ ॥ 353॥ बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक । छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 354 ॥ स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि । जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 355॥ चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात । एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 356 ॥ एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार । अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 357 ॥ कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर । रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 358 ॥ सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत । लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 359॥ गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह । कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 360 ॥ निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह । विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥ जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ । जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 361 ॥ काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि । कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 362॥ राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई । तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 363 ॥ पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ । चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 364 ॥ फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई । जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 365 ॥ हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि । तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 366 ॥ जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं । ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 367 ॥ कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास । जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 368 ॥ क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान । वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 369 ॥ काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम । मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 370॥ दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि । सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 371 ॥ कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि । यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 372 ॥ कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ । अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 373 ॥ भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग । भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 374 ॥ रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ । दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 375 ॥ कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ । हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 376 ॥ मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई । कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 377 ॥ मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह । ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 378 ॥ संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ । साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 379 ॥ कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत । काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 380॥   सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान । निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥ 381॥ घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए। हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥ 382॥ क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा। जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥ 9384॥ काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय । जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 385 ॥ कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय । साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 386 ॥ फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय । जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 387॥ मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर । स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 388 ॥ काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय । काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय ॥ 389 ॥ पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ । हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 390॥   सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश । सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 391॥ कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ । जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 392॥ जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय । सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 393 ॥ काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान । कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 394॥ ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार । दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 395 ॥ खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय । घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय ॥ 396 ॥ घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान । छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 397 ॥ संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि । काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 398 ॥ कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ । पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥ जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द । कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥ अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर । सिर साहिबा कौ सौंपता, सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥ कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार । ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥ 402 ॥   कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ । जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ ॥ 403 ॥ सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि । जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥ जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ । धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥ आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ । अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥ जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ । मरनैं पहली जे मरै, जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥ कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर । तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥ रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान । ऐसा जे जन है रहै, ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥ कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास । कबीर ऐसैं होइ रक्षा, ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥   अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या न जाइ । अपना बाना वाहिया, कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥ जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई । दरिगह तेरी सांइयाँ, जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥ साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार । बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार ॥ 413 ॥ झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार । आगै-पीछै झलमाई, राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥ एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ । औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥ कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार । तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥ बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न पार ॥ 417 ॥ कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि । बस्तर बासन सूँ खिसै, चोर न सकई लागि ॥ 418 ॥ बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत । तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत ॥ 419 ॥ पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि । जोड़ी बिछटी हंस की, पड़या बगां के साथि ॥ 420 ॥ निंदक नियारे राखिये, आंगन कुटि छबाय । बिन पाणी बिन सबुना, निरमल करै सुभाय ॥ 421 ॥ गोत्यंद के गुण बहुत हैं, लिखै जु हिरदै मांहि । डरता पाणी जा पीऊं, मति वै धोये जाहि ॥ 422 ॥ जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ । जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥ सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ । पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥ खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ । कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥ नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि । जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥ कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हित न कोइ । गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥ हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ । ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ ॥ 428 ॥ सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भोजन माहिं । आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 429 ॥ क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहि । तुम देखत ओगुन करौं, कैसे भावों तोहि ॥ 430 ॥ सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार । पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार ॥ 431 ॥ गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान । बहुतक भोदूँ बहि गये, राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥ गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम । कीट न जाने भृगं को, गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥ कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय । जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोय ॥ 434 ॥ गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त । वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥ गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय । कहैं कबीर सो सन्त हैं, आवागमन नशाय ॥ 436 ॥ जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर । एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥ गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान । तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥ गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट । अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥ गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं । कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नहिं ॥ 440 ॥ लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय । शब्द तुरी बसवार है, छिन आवै छिन जाय ॥ 441 ॥ गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर । आठ पहर निरखता रहे, गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥ गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबटै सन्त । प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥ गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष । गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 444 ॥ गुरु मूरति आगे खड़ी, दुनिया भेद कछु नाहिं । उन्हीं कूँ परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 445 ॥ गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरौसा और । सुख सम्पति की कह चली, नहीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥ सिष खांडा गुरु भसकला, चढ़ै शब्द खरसान । शब्द सहै सम्मुख रहै, निपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥ ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास । गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास ॥ 448 ॥ अहं अग्नि निशि दिन जरै, गुरु सो चाहे मान । ताको जम न्योता दिया, होउ हमार मेहमान ॥ 449 ॥ जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय । कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय ॥ 450 ॥ मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव । मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ॥ 451 ॥ पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान । ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम ॥ 452 ॥ सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम । कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 453 ॥ कहैं कबीर जजि भरम को, नन्हा है कर पीव । तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥ कोटिन चन्दा उगही, सूरज कोटि हज़ार । तीमिर तौ नाशै नहीं, बिन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥ तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत । ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥ तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्रान । कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 457 ॥ जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि । शीष भाव सुत्त जानिये, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 458 ॥ भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि । गुरु बिन कौन उबारसी, भौ जल धारा माँहि ॥ 459 ॥ करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय । बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय ॥ 460 ॥ सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय । जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥ अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल । अपनी और निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल ॥ 462 ॥ लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय । कहैं कबीर गुरु साबुन सों, कोई इक ऊजल होय ॥ 463 ॥ कबीर -6   मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | 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