Tuesday, 20 June 2017

उच्चस्तरीय गायत्री साधना 1

awgp.org   प्रारम्भ में साहित्य हमारे प्रयास मल्टीमीडिया प्रारम्भ में > साहित्य > पुस्तकें > गायत्री और यज्ञ > पंचकोशी साधना > अन्नमय कोश और उसकी साधना पृष्ट संख्या: 12 उच्चस्तरीय गायत्री साधना और आसन उपासना बैठकर की जाती है। ध्यान धारण, जप, पूजा, पाठ, आदि क्रियाकृत्य खड़े होकर नहीं किये जाते उनके लिए स्थिरतापूर्वक सुख से बैठने का विधान है। महर्षि पतंजलि ने इसीलिए अपने अष्टांग योग में 'यम' नियम के बाद आसन को महत्त्व दिया है। यों आसन की परिभाषा 'स्थिर- सुखमासनम्' की गयी है, जिसका अर्थ स्थिरतापूर्वक सुख से बैठना कहा गया है। परन्तु-आसन का तात्पर्य मात्र बैठने की विधि से नहीं वरन् उस स्थान एवं वातावरण से है, जहाँ उपासना की जाय। आसन के नाम पर सिद्धासन, सर्वांगासन, पद्मासन आदि पैरों को मोड़ने-मरोड़ने की विधि विशेष तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए वरन् उसमें समूचे वातावरण का संकेत सन्निहित समझा जाना चाहिए, जहाँ कि उपासना की जा रही है या की जानी है। व्यक्ति की शरीरिक एवं मानसिक स्थिति पर स्थान और वातावरण का अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है। अवांछनीय परिस्थितियों में रहते हुए चित्त में उद्विग्नता बनी रहेगी और आत्मिक उत्कर्ष के वे प्रयोग न सध सकेंगे जिनमें, शान्ति-चित्त होने की, मानसिक स्थिरता की शर्त जुड़ी हुई है। साधना में मन न लगने, जी ऊबने, चित्त के चंचल रहने की शिकायत साधकों को प्राय: बनी ही रहती है। इसका कारण मन का अनगढ़ होना और निग्रह में संकल्प शक्ति का प्रयोग न किया जाना भी होता है। उसके कारण भी मन उचटता रहता है। साधना जिस श्रद्धा, अभिरुचि और विश्वासपूर्वक की जानी चाहिए वह हो नहीं पाती। कारण स्पष्ट है कि जिसमें गहरी श्रद्धा एवं मनोबल युक्त संकल्प का समावेश न होगा वह आत्मोत्कर्ष के लिए किया जाने वाला साधन मात्र छुट पुट कार्यक्रमों के सहारे संपन्न न हो सकेगा। अस्तु आसन की, वातावरण की उपयोगिता समझी जानी चाहिए और उसके लिए अच्छे स्थान की अच्छे वातावरण की व्यवस्था की जानी चाहिए। किसके लिए, कहाँ, क्या, कितना सम्भव है ? यह निर्णय करना हर व्यक्ति का अपना काम है। उसे अपेक्षा कृत अधिक उपयुक्तता तलाश करनी चाहिए। पर यदि बहुत घिचपिच हो तो समीप में कोई सुविधाजनक सज्जनता के वातावरण वाला शान्त स्थान तलाश किया जा सकता है। घर में रचा हवादार कोठरी कोलाहल रहित कोने में मिल सके तो उत्तम है। खुली छत का भी उपयोग हो सकता है। कुछ भी न बन पड़े तो इतनी व्यवस्था तो बनानी चाहिए कि जितने समय तक उपासना की जानी है उतने समय तक लोगों का आवागमन न रहे। उपासना में कई व्यक्ति एक साथ बैठ सकते हैं, पर वे सभी रहने आत्मतल्लीन ही चाहिए। एक की हलचलें दूसरों का ध्यान न उचटावें, तभी साथ बैठने की सार्थकता है।   अब आसन की वह परिभाषा आरम्भ की जाती है। जिसका बैठने से सम्बन्ध है। आसन पैरों का ही नहीं समस्त शरीर का होता है। कमर सीधी, आँखें अधोमिलित, शान्त चित्त, स्थिर शरीर यह स्थिति रहनी चाहिए। मात्र ध्यान करना हो तो दोनों हाथ गोदी में रहने चाहिए अन्यथा जप में दाहिने बायें हाथों को इधर-उधर भटकाते नहीं रहना चाहिए वरन् एक निर्धारित क्रम सुस्थिर रखने की व्यवस्था आसन मुद्रा कहलाती है। View more

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