Tuesday, 20 June 2017
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प्रारम्भ में > साहित्य > पुस्तकें > गायत्री और यज्ञ > पंचकोशी साधना > अन्नमय कोश और उसकी साधना
पृष्ट संख्या:
123
तपस्या का प्रचण्ड प्रताप
कुन्ती ने कुमारी अवस्था में गायत्री मन्त्र द्वारा सविता के भर्ग को आकर्षित करके गर्भ धारण किया था और उसके द्वारा कर्ण का जन्म हुआ था। नारद जी द्वारा सावित्री को जब यह बता दिया गया कि सत्यवान का जीवन काल केवल एक वर्ष है। तब सावित्री ने तप करना आरम्भ कर दिया और एक वर्ष में ही वह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह अपने पति को यम के हाथों में से वापिस लौटा सकी। दमयन्ती का तप ही था जिसके कारण कुचेष्टा प्रयत्न करने वाले व्याध को उस देवी के शाप से भस्म होना पड़ा। गान्धारी आँखों से पट्टी बाँधे रह कर नेत्रों का तप करती थी जिससे उसकी दृष्टि में इतनी शक्ति उत्पन्न हो गई थी कि उनके देखने मात्र से दुर्योधन का शरीर अभेद्य हो गया था। जिस जंघा पर उसने लज्जा वश कपड़ा डाल लिया था वही कच्ची रह गई और उसी पर प्रहार करके भीम ने दुर्योधन को मारा था। अनुसूया के तप ने ब्रह्मा, विष्णु महेश को छै: छै: महीने के बालक बना दिया था। सती शाण्डिली के तपो बल ने सूर्य के रथ को रोक दिया था।
तप, शक्ति उत्पादन का विशुद्ध विज्ञान है। तपस्वी को निश्चित रूप से आत्मा शक्ति मिलती है। उस शक्ति का किस कार्य में किस प्रकार उपयोग किया जाय यह दूसरा प्रश्न है। जैसे धन बल, बुद्धि बल, शरीर बल, अधिकार बल आदि का कोई मनुष्य सदुपयोग या दुरुपयोग कर सकता है वैसे ही तपोबल को दैवी या आसुरी कार्यों में प्रयुक्त किया जा सकता है। प्राचीन काल में असुरों ने बड़े-बड़े तप किये थे और अपने-अपने पुरुषार्थ के अनुरूप वरदान भी पाये थे। परन्तु उनका मार्ग अनुचित था इसीलिए वह तप उनकी प्रभुता बढ़ाते हुए भी नाश का ही कारण सिद्ध हुआ। रावण कुम्भकरण मेघनाद ने बड़े बड़े तप किये थे और उन्हीं के फलस्वरूप वे इतने सामर्थ्यवान् हो गये थे कि उन्हें तीनों लोकों में कोई भी जीत न सकता था अन्त में उन्हें समेटने के लिए एक अवतार को ही आना पड़ा।
भस्मासुर स्वयं अपने वरदाता शंकर जी तक को भस्म कर देने के लिए तैयार हो गया था। हिरण्यकश्यपु हिरण्याक्ष, महिषासुर, शुम्भ-निशुम्भ, कंस, जालंधर, अहिरावण, महिषासुर, मारीच, खरदूषण, सहस्रवाहु कालनेमि, सुन्द, उपसुन्द आदि अनेकों असुरों ने तप द्वारा ही इतनी शक्तियाँ प्राप्त की थीं कि उनके आतंक से समस्त संसार कम्पायमान होने लगा था और उनके विनाश के लिए भगवान को विशेष आयोजन करना पड़ा था।
तपोबल का आसुरी उपयोग करने वाली स्त्रियों की संख्या भी बहुत है। सूर्पनखा, ताड़का, त्रिजटा, लकिंनी, सुरसा, पूतना, विशिखा, कर्कटी, होलिका, ढँँदुरा, आदि के उपाख्यान सर्वर्विदित हैं। तांत्रिक विधान के अनुसार साधन करने वाले अघोरी, कापालिक, ब्रह्मराक्षस, वैताल, अग्निमुख, दृष्टि शूल आदि पुरुषों की भांति विशिखा, कृत्या कूष्माण्डी, भैरवी, शतचक्रा, भद्रा, भ्रामरी डाकिनी शाकिनी आदि प्रकृति की स्त्रियाँ भी तपोबल का आसुरी उपयोग करती हैं। यह मार्ग दूषित अवश्य है पर इसमें दोष विज्ञान की नहीं उसके प्रयोक्ता है। चाकू से कलम बनाना या किसी का पेट फाड़ना यह अपने ही भले बुरे कर्म हैं। इनसे चाकू की निन्दा नहीं होती है।
वे महापुरुष जो इतिहास में उज्जवल नक्षत्र की तरह चमक रहे हैं उनके पीछे भौतिक नहीं आत्मिक बल ही था। भीष्म जी शर शैय्या पर उत्तरायण सूर्य आने की प्रतीक्षा में महीनों तक मृत्यु को दुत्कारते रहे। शीश कटा हुआ रावण अपनी अन्तिम सांसे लेता हुआ लक्ष्मण जी को राजनीति सिखाता रहा। बभ्रुवाहन का कटा हुआ सिर भी अपनी अनुभूतियाँ और अभिलाषाएँ प्रकट करता रहा। संजय को वह दिव्य दृष्टि प्राप्त थी कि घर बैठे महाभारत के सारे दृश्य धृतराष्ट्र को सुनाते हैं। बाल्मीकि जी ने रामावतार से पूर्व ही उनका सारा इतिहास लिख दिया। दधीच ऋषि की हड्डियों में इतना प्रचण्ड तेज था कि उन्हीं के द्वारा बना हुआ बज्र वृत्तासुर को मारने में सफल हुआ। परशुराम जी अकेले होते हुए भी पृथ्वी के समस्त राजाओं को सेना समेत संहार करने में सफल हुए। धौम्य ऋषि के आशीर्वाद मात्र से अरुणि को समस्त विद्याओं की विद्वत्ता प्राप्त हो गई।
जिन्होंने इतिहास पुराण पढ़े हैं, उन्हें इस प्रकार के असंख्यों उपास्यानों का पता है। तप की महत्ता अनादिकाल से लेकर अब तक समान रूप से अक्षुण्य बनी हुई है। पूर्ण काल में तप की ओर लोगों की अधिक रुचि थी इससे वे अधिक प्रतापी थे, यह रुचि घटने के साथ-साथ प्रताप में भी घटोत्तरी होती गई। मध्यकाल में भी जब जो आत्माएँ चमकी हैं उनमें आत्म तेज का ही प्रकाश रहा है। सन्त कबीर, नानक, दादूदयाल, रैदास, रामानुज, सूरदास, तुलसीदास, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ, विवेकानन्द, विरजानन्द, दयानन्द, तिलक, गांधी मालवीय, अरविन्द रमण, आदि के पीछे तपस्या की ही ज्योति जगमगाती हुई देखी जा सकती है। यों तपस्या के अन्य मार्ग भी हैं। पर स्मरण रखना चाहिए कि उन मार्गो में भी सूक्ष्म रीति से गायत्री का ही विज्ञान संबद्ध है। गायत्री के द्वारा ही अधिकांश तपस्वी तप करते हैं क्योंकि यह रास्ता सबसे सरल, सर्व सुलभ, हानि रहित, शीघ्र फलदायी और यही-विरक्त, स्त्री-पुरुष सभी के लिये सुसाध्य है।
पृष्ट संख्या:
123


अन्नमय कोश और उसका अनावरण
अन्नमय कोश की जाग्रति, आहार शुद्धि से
आहार के त्रिविध स्तर, त्रिविध प्रयोजन
आहार, संयम और अन्नमय कोश का जागरण
आहार विहार से जुड़ा है मन
आहार और उसकी शुद्धि
आहार शुद्धौः सत्व शुद्धौः
अन्नमय कोश की सरल साधना पद्धति
उपवास का आध्यात्मिक महत्त्व
उपवास से सूक्ष्म शक्ति की अभिवृद्धि
उपवास से उपत्यिकाओं का शोधन
उपवास के प्रकार
उच्चस्तरीय गायत्री साधना और आसन
आसनों का काय विद्युत शक्ति पर अद्भुत प्रभाव
आसनों के प्रकार
सूर्य नमस्कार की विधि
पंच तत्वों की साधना तत्व साधना एक महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म विज्ञान
तत्व शुद्धि
तपश्चर्या से आत्मबल की उपलब्धि
आत्मबल तपश्चर्या से ही मिलता है
तपस्या का प्रचण्ड प्रताप
तप साधना द्वारा दिव्य शक्तियों का उद्भव
ईश्वर का अनुग्रह तपस्वी के लिए
पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ
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विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान की दो धारायें हैं जिनका समन्वय आवश्यक हो गया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हि सच्चे अर्थों मे विकास कहा जा सकता है और इसी को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है..
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