Monday, 12 June 2017

पारिवारिक या सांसारिक,योगी

  ▼ पारिवारिक या सांसारिक,योगी या आध्यात्मिक नहीं बल्कि योग या अध्यात्म के प्रति धोखा गोपालगंज जेल १०/१२/१९८२ ई॰ सद्भावी बंधुओं ! उस समय मुझे हँसी अति है जब कि पारिवारिक तथा सांसारिक गृहासक्त व्यक्ति योग-साधना या अध्यात्म का झाप या चोंगा पहनकर योग या अध्यात्म का लच्छेदार भाषा में लेक्चर झाड़ने या मुख चुनिया-चुनिया करके प्रवचन करने लगते हैं। इनके समझ में तो आता नहीं,कि ये क्या बोलते जा रहे हैं? इनके बोलने में आपस में ही विरोधाभास तथा काट-कूट भी होता जा रहा है। एक तरफ तो योग या अध्यात्म के महिमा का बड़ा से बड़ा पुल बांधते जा रहे हैं और ये उसे अपने ही काट-पीट कर ढाहते भी जा रहे हैं। एक तरफ कहते कि आत्मा का आनन्द या चिदानन्द या ब्रहमानन्द या दिव्यानन्दअनिवर्चनीय हैं और दूसरे तरफ उसी पर जबर्दस्त प्रवचन दे रहे हैं। एक तरफ संसार को मिथ्या, माया-जाल तथा इन्द्रजाल बना रहे हैं तो दूसरे तरफ खुद पारिवारिक तथा सांसारिक रूप गृहासक्त होकर उसी में स्वयं चिपकते जा रहे हैं। प्रवचन और उपदेश दे रहे हैं योगांगों का कि आसन करो अर्थात् पैर मोड़कर बैठ जाओ न रहेगा पैर सीधा न चल पाओगे तो फंसोगे भी नहीं जब कि स्वयं भ्रमण में लगे हुये हैं क्योंकि अनुयायियों की संख्या बढ़ानी है। यह नहीं सोचना है कि जो बन बन चुके हैं क्या उन बंधुओं का कल्याण होगा या नहीं तो इसकी क्या आवश्यकता है? इनको क्या पता है कि जिस योग-साधना या अध्यात्म का चोंगा पहने हैं वह योग साधना या अध्यात्म मात्र एक झाप या चोंगा ही भर नहीं होता है, इसके पीछे गूढ़ जानकारियाँ होती है। ये जिस योग का उपदेश पारिवारिक और सांसारिक गृहासक्तों को देते जा रहे हैं क्या कभी यह विचार करते हैं कि योग का एक प्रमुख अंग प्रत्याहार भी है जिसके बगैर योग या साधना या अध्यात्म में सफलता मिल ही नहीं सकती है। क्या प्रत्याहार कि जानकारी इन लोगों को है? कदापि नहीं। यदि होता तो ये लोग इस तरह योग या साधना या अध्यात्म को खेल-तमाशा बनाकर खिल्ली उड़ाने का विषय नहीं बनाते कि समाज खिल्ली उड़ाये। सांसारिकता में योग असम्भव है। बंधुओं! जहाँ तक योग या साधना या अध्यात्म की बात है वहाँ प्रत्याहार को योग का आधारशिला भी कहा जाय तो अन्योक्ति नहीं होगी क्योंकि जब तक ‘चित्त अपने वृतियों से निवृत’ अथवा ‘विषयादिन्द्रिय विग्रहः’ प्रत्याहार, नहीं होगा जब तक क्या योग का साधना या अध्यात्म कभी सफल हो सकता है? कदापि नहीं। इन योगवेत्ताओं या अध्यात्मवेत्ताओं की बातें मात्र थोथी दलील है। क्या ये कभी देखें हैं कि मेरे अनुयायी योग या अध्यात्म के मूल-भूत सिद्धान्त रूप प्रत्याहार या पातंजलि के –‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध:’ चित्त का अपनी वृत्तियों से निवृत्त होना ही योग है, पर चल रहे हैं या अपने जीवन में प्रत्याहार रोप सिद्धान्त को कितना लागू किये हैं? क्या योग या अध्यात्म ध्यान पर बैठकर किसी भी प्रकार की थोड़ी सी ज्योति देख लेना मात्र ही है या प्रत्याहार रूप सिद्धान्त पर लगाना भी नहीं किया जा रहा है इसी का परिणाम है कि योग या अध्यात्म धोखा मात्र ही अब रह गया है, यथार्थ नहीं। सत्यता यही है कि प्रत्याहार ही योग है। ‘’धारणा’’ अष्टांग योग का छठवाँ अंग धारणा है। जैसा कि अभी-अभी पिछले प्रकरण में देखा गया है कि प्रत्याहार योग का पाँचवा होते हुये भी अपना ‘अहं स्थान’ या अपनी ‘अहं भूमिका’ रखा गया है। यह बात भी सत्य है कि प्रत्याहार के बगैर योग का सब अंग ही बेकार है। यहाँ पर मेरी दृष्टि से ‘यम’ विद्यतत्त्वम् या तत्त्वज्ञान की पद्धति है जिसको योग में प्रथम स्थान देकर तत्त्वज्ञान से लिंक बनाया गया है या सम्बन्ध जोड़ा गया है। जो भी हो, आइये अब हम आप योग के अन्तर्गत छठवाँ अंग रूप धारण को देखें कि योग में इसकी क्या भूमिका है? सद्भावी भगवद् प्रेमी बंधुओं! धारणा जीवन का एक आधारभूत सिद्धान्त है। यह मात्र योग का ही नहीं,अपितु संसार में शारीरिक-पारिवारिक विकास की धारणा तथा सामाजिक विकास या उत्थान की धारणा; आत्मउत्थान या कल्याण की धारणा तथा सामाजिक सुधार और समाजोद्धार की धारणा,धारणा से तात्पर्य उद्देश्य या लक्ष्य से है। धारणा के बगैर किसी को सफलता मिले यह सोचना ही मूर्खता की बात है। क्योंकि धारण बिना कार्य तो उद्देश्य विहीन कार्य हुआ और जिस कार्य का उद्देश्य ही न हो आखिरकार उसमें सफलता-किस बात की सोची जाय? उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति ही सफलता है,तब उद्देश्य या लक्ष्य ही न हो जिसमें उसमें सफलता की बात ही कहाँ? अर्थात् कहीं नहीं। धारणा के बगैर ध्यान-समाधि सब व्यर्थ है। किस बात का ध्यान होगा और ध्यान नहीं तो समाधि भी नहीं। धारणा मात्र योग में ही प्रस्तुत होने वाला शब्द या क्रिया-प्रक्रिया नहीं अपितु एक व्यापक उद्देश्य या व्यापक लक्ष्य वाला शब्द है। अंततः जो धारण करने योग्य हो उसे ही धारण करना धारणा है। यथार्थतः धारणा ही धर्म की आत्मा है। शारीरिक एवं पारिवारिक विकास की धारणा सद्भावी भगवद् प्रेमी बंधुओं! शारीरिक एवं पारिवारिक विकास वास्तव में धारणा के अन्तर्गत जाता ही नहीं, फिर भी आज-कल समाज में कितना प्रभावी तरीके से यह छाया है। इसलिये उसकी जंकरिन हेतु यहाँ पर दी जा रही है कि उसकी यथार्थता क्या है? हमारे दृष्टि के अनुसार तो विघटन विनाश रूप परिवार और परिवार का विघटित रूप एकल शरीर है। हालांकि बुद्धिजीवी बंधुजन यह कह सकते हैं, यह विघटन नहीं अपितु शरीर परिवार का तथा परिवार समाज का इकाई होता है तो हम तो यह कहेंगे कि समाज संघटन और समाज विघटन दोनों की यथार्थता को समझना पड़ेगा।सामाजिक संघटन वह होता है जिसमें अपनी शरीर चुस्त-दुरुस्त रहे, परन्तु दृष्टि समाज के शान्ति और आनन्द में कोई बढ़ा या अड़चन न पड़े। इतना ही नहीं आवश्यकता पड़ने पर सामाजिक शान्ति-व्यवस्था हेतु अपनी शरीर तथा परिवार को सहर्ष विलय कर दिया जाय, यदि ऐसी दृष्टि हो, तब तो यह समाज-संघटन या सामाजिक संघटन कहलायेगा और ऐसा समाज ही शान्ति और आत्ममय जीवन भी जीवेगा। अब आइये समाज या सामाजिक विघटन देखा जाय कि सामाजिक सम्पत्ति को नोच-खसोट कर पारिवारिक सम्पत्ति को बनाना तथा संयुक्त परिवारों में पारिवारिक सम्पत्ति को नोच-खसोट कर अपने बीवी-बच्चों के नाम करना तथा अपने बीवी-बच्चों में ही आपस में ही तकरार करते हुये जीवन यापन करना सामाजिक विघटन है। वर्तमान घड़ी सामाजिक विघटन के उस चोटी पर पहुँच गयी हैं, जहाँ विनाश अवश्यम्भावी ही नहीं, अपितु अति निकट का भी संकेत दे रहा है। चोरी, लूट, डकैती, राहजनी तथा समस्त अपराधों का उत्पत्ति और सरंक्षण कर्ता रूप घूसखोरी रूप अत्याचार और भ्रष्टाचार आदि सब इसी के अन्तर्गत आता है जो विनाश का अग्रदूत होता है। विनाश सबके सिर पर मंडरा रहा है। सामाजिक विकास की धारणा सामाजिक विकास की धारणा भी तो जड़वादी ही है फिर भी समाज सुव्यवस्थित ढंग से रहे एवं जीवन-यापन भी एक निश्चित विधि-विधान के अनुसार जो सुविधा जनक तथा सुव्यवस्थित समाज कायम कर सकने में सक्षम हो, अपने जीवन-यापन को जोड़ते हुये समाज सुधार करते हुये समाज को शान्ति और आनंदमय या अमन-चैन का जन-जीवन उत्पन्न और कायम करना सभी अपना आधार बना कर चलें। यही सामाजिक विकास की धारणा है। यह मानव के वर्तमान जीवन हेतु एक उत्कृष्ट धारणा है। यह बात भी सत्य है कि मानव जीवन का उद्देश्य या लक्ष्य यही नहीं है। मानव जीवन का उद्देश्य या लक्ष्य तो आत्म-कल्याण और समाज-कल्याण की भावना से मुक्ति और अमरता के साथ ‘मुक्त-जीवन’ जीना है। जिसका वर्णन अगले शीर्षक में होगा। सामाजिक विकास की धारणा मानव जीवन का उद्देश्य या लक्ष्य ना होते हुये भी परोपकार की भावना से और सेवा की भावना से इसमें भी कार्य हो तो वर्तमान जीवन सुव्यवस्थित एवं मर्यादित जीवन का आनन्द तो मिल ही जाता है परन्तु इसके लिये आचार-संहिता जो नियम या कानून प्रधान नहीं अपितु नीति-प्रधान ही बनाकर उसे नैतिकता से प्रभावी रूप में सब अपनायेंगे नहीं, तब इस समाज की कल्पना, कल्पना ही बनी रह जायेगीतथा उसके व्यवहारिकता की आशा आसमान में टंगी रह जायेगी। अन्ततः प्रत्येक व्यक्ति जब तक नीति और न्याय-प्रधान नहीं होगा तब तक सामाजिक विकास की बात मात्र एक थोथी दलील है। वर्तमान में ऐसे अनेक सम्प्रदाय, संस्थाएं एवं संगठन सामाजिक सुधार एवं विकास हेतु जोड़-तोड़ से क्रियाशील है परन्तु सामाजिक बुराइयाँ एवं अत्याचार तथा भ्रष्टाचार इतना प्रभावी बन चुका है कि विनाश होगा ही एवं अत्याचार तथा भ्रष्टाचार इतना प्रभावी बन चुका है कि लगता है कि विनाश होगा ही। परमप्रभु रूप प-अरमतमा ही एक मात्र सत्पुरुष बनाते हुये इससे रक्षा कार सकते हैं। आत्म –कल्याण की धारणा सद्भावी बंधुओं ! योग-साधना या अध्यात्म की धारणा की ही एक पद्धति है। शरीर में मूलाधार स्थित जीव रूप ‘अहं’ को साधना द्वारा उर्ध्र्वगति से आज्ञा-चक्र स्थित आत्म-ज्योति रूप आत्मा रूप (सः) से जोड़ना ही योग-साधना या अध्यात्म है। आत्म-कल्याण का सामान्य अर्थ तो लोग अपना कल्याण से लगाते हैं ‘आत्म’ का अर्थ अपना से समझते हैं जबकि यथार्थ में ऐसी बात नहीं है। यथार्थता या वास्तविकता तो इसमें है कि-‘आत्म’ परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा से उत्पन्न तथा छिटकी या पृथक् हुई एक ‘आत्म-ज्योति’ है जो सृष्टि-क्रम से जीव तथा शरीर में प्रवेश करके शरीरमय होकर संसार में यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरण करता हुआ अपने आत्म-ज्योति रूप को भूलकर जीव-शरीरमय होकर संसार में पुनः चक्कर काटता हुआ मानव शरीर मिलने पर पुनः अपने मूलतः परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा की खोज में अन्दरूनी रूप से परेशान रहता है और तब तक रहेगा जबतक कि प्राप्त करके शरणागत नहीं हो पाता। अब उसी परमात्मा की खोज में बैचेन श्रद्धालु एवं उत्कट जिज्ञासु भगवद् भक्तों को आध्यात्मिक महात्मन् बंधु परमात्मा के नाम पर बुलाकर या आने वाले को आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म या ईश्वर में ही फंसाकर उसे ही परमात्मा या परमब्रह्म या परमेश्वर घोषित कर-करा कर अपने गुरु से सद्गुरु तथा योगी या अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मा के स्थान पर तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष बन गये हैं जिससे अनुयायीगण आत्मा आदि को ही परमात्मा समझकर फँसकर कल्याण से गिर जाते हैं। योग-साधना या अध्यात्म साधकों को बाह्य संसार से खींचकर आत्म-ज्योति की साधना में लगाते हैं। आत्म-कल्याण तो लगभग सब ही भगवद् भक्त चाहते हैं परन्तु परमात्मा के पूर्णावतार रूप अवतारी सत्पुरुष के शरणागत हुये बगैर तथा विद्या-पद्धति से परमात्मा की जानकारी, दर्शन तथा पहचान के बगैर सम्भव ही कहाँ ? होता क्या है कि योगी-साधना-सिद्ध आध्यात्मिक सन्त-महात्मा जन उन श्रद्धालु और भगवद् प्रेमी उत्कट जिज्ञासु भक्त को आत्मा को ही परमात्मा, ईश्वर को ही परमेश्वर, ब्रह्म को ही परमब्रह्म, हँस को ही परमहंस सोSहँ-हँसो –आत्म-ज्योति को ही परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा, गुरु को ही सद्गुरु तथा अपने अपने महात्मन रूप को ही परमात्मा का अवतार आदि बताने और उसी का अभ्यास करते हुये उसी में जकड़ देते हैं। यह धन्धा है योगी और अध्यात्मवेत्ता महानुभावों का। यही कारण है कि योग और अध्यात्म के इतने प्रवर्तक के बावजूद भी अध्यात्म की मर्यादा आवश्यकतानुसार दिखायी नहीं दे रही है। यदि योग या अध्यात्म का सही तरीका से प्रचार किया गया होता तो ‘हमें’ तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वम् रूप सत्य-धर्म की स्थापना करने तथा सत्य-धर्म, न्याय और नीति पर समाज को ले चलने में कोई परेशानी नहीं होती। दुनिया तो ऐसी हो गयी है कि हमको भी जेल भेजे बिना बाकी नहीं लगायी, वह भी एक बार ही नहीं अनेकों बार; तो मैं और के विषय में क्या सोचूँ ? इससे वर्तमान परिस्थिति का आकलन कोई भी करे कि यथार्थतः सत्यता की क्या कदर है? कोई मूर्ति-पुजा की धारणा में लगा है, तो कोई मूर्ति विरोधी; कोई व्रत-तीर्थस्नान में लगा है तो कोई शास्त्र-पाठ में कोई प्रार्थना में लगा है तो कोई नमाज में; कोई तंत्र-मंत्र में लगा है तो कोई दान-दक्षिणा में; कोई ॐ को ही परमात्मा मन रहा है तो कोई सोSहँ-हँसो-ज्योति को परमात्मा मानने में लगा है और यथार्थतः परमात्मा को ही अहंकारी जुल्मी, गुंडा और अपराधी कहा जा रहा है। तो बंधुओं ! जरा सोचिये कि ऐसे समाज की क्या दशा होनी चाहिये समाज-कल्याण की धारणा सद्भावी भगवद् प्रेमी बंधुओं ! समाज-कल्याण,समाज को सुव्यवस्थित बनाने हेतु एकमात्र विद्यातत्त्वम् या तत्त्वज्ञान ही समर्थ होता है। क्योकि यह सर्व शक्ति-सत्ता सामर्थ्यवान् परमात्मा के कार्य करने की पद्धति है । यह तो स्वतः ही विचारणीय बात है कि जो परमात्मा का ही मार्ग हो और उसमे भी शक्ति, सामर्थ्य की बात न हो इससे बढ़कर मूर्खता की बात क्या हो सकती है? समाज सुधार की बात तो कोई कह सकता है, कोई संस्था कर सकती है, कोई सम्प्रदाय अपने क्षमता भर कर सकता है परन्तु समाजोद्धार की बात परमात्मा के अवतार रूप अवतारी सत्पुरुष के सिवाय दूसरा कर ही नहीं सकता है। यदि कोई कहता भी है झूठ बोलता है, क्योंकि परमात्मा के सिवाय कल्याण या मुक्ति और अमरता का अधिकार किसी को है ही नहीं। ज्ञानियों का कार्य समाज कल्याण ही होता है। यथार्थतः धारणा किसकी धारणा मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य या उद्देश्य होता है। जो व्यक्ति धारणा से हीन है उसके जीवन का कोई महत्व नहीं, वह मात्र मशीनवत् (यंत्र मानव) है। मुख्यतः तीन प्रकार की धारणा यें मानव की होती है। प्रथम—कर्म-कांडी धारणा, जिसमे ॐ ही परमात्मा के रूप में मानते हैं, तो कोई राम-कृष्ण आदि की मूर्तियों को, तो कोई दुर्गा आदि की मूर्तियों को; तो कोई वेद, पुराण, रामायण, गीता, बाइबिल, कुरान, गुरुग्रंथ साहब आदि आदि ग्रन्थों के पुजा-पाठ में ही लगे रहते हैं परन्तु ये सभी धारणायें जढ़ता मूलक तथा अज्ञान मूलक है। तो योगी-यति, ऋषि-महर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा समस्त योग-साधना वाले साधको की धारणा सोSहँ-हँसो-ज्योति वाली चेतना मूलक है फिर भी मुक्ति और अमरता वाला नहीं है। मुक्ति और अमरता वाला तो एकमात्र परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा की धारणा ही यथार्थ धारणा है। आत्म-कल्याण समाज-कल्याण भी इसी पर आधारित है। धारणा की यथार्थता परमात्मा पर ही सत्य होती है परन्तु योग-साधना वाला अध्यात्म की धारणा तो मात्र जीव-आत्मा की होती है जो शान्ति और आनन्द की अनुभूति तो करा सकती है परन्तु मुक्ति और अमरता नहीं दे सकता। ‘’ध्यान’’ ध्यान से तात्पर्य आत्म-ज्योति के साक्षात्कार की पद्धति से है। ध्यान ही शिव का तीसरा नेत्र कहलाता है। दिव्य-दृष्टि भी ध्यान को ही कहा जाता है। योग-साधना या अध्यात्म की ‘अहं भूमिका’ ध्यान पर आधारित होता है। शरीर की आँख आँख है तो योग-साधना या अध्यात्म की आँख ‘ध्यान’ है। ध्यान आँख जैसा न हीं है बल्कि आँख है ही। स्थूल संसार देखने के लिये स्थूल आँख है और आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या चेतन-ज्योति या डिवाईन लाइट या नूरे-इलाही या आलिमें नूर या चाँदना या आसमानी रौशनी या सहज प्रकाश या निज-प्रकाश या परम-प्रकाश या भर्गो या ज्योति या दिव्य-ज्योति रूप को साक्षात्कार करने के लिये दिव्य-दृष्टि या तीसरी आँख या ध्यान ही है। ध्यान, योग या अध्यात्म की ही आँख मात्र नहीं होता है अपितु मुद्राओं में भी ध्यान की ‘अहं-भूमिका’ ही होती है। कोई योगी या आध्यात्मिक कहला ही नहीं सकता, यदि ध्यान से रहित है तो। आँख के बगैर आदमी; आदमी तो रहता है परन्तु ध्यान के बगैर योग या अध्यात्म, योग या अध्यात्म रह ही नहीं जाता है। यदि कोई व्यक्ति आत्मा या ब्रह्म या ईश्वर का या आत्म-शक्ति का साक्षात्कार करना चाहेगा तो ध्यान करना होगा, क्योंकि ध्यान के बगैर दर्शन हो ही नहीं सकता है। याओ या अध्यात्म की समस्त क्रियायें ध्यान में ही आकार समाप्त हो जाती है। हालांकि कहने वाले समाधि को कहेंगे; परन्तु यथार्थता यह है कि ध्यान ही समाधि का पूर्व रूप होता है। ध्यान से अलग समाधि का अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि ध्यान का ही परिष्कृत और सफलतम रूप ही समाधि है। भू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र ध्यान का स्थान है जहाँ पर आत्म-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। योग या अध्यात्म ध्यान पर ही आधारित है। पढ़-पढ़ाकर ध्यान की सफलता हासिल नहीं की जा सकती है। सफलता हेतु सक्षम गुरु के निर्देशन की अनिवार्यता होती है। साकार ध्यान गोपालगंज जेल ११/१२/१९८२ ई॰ साकार ध्यान से तात्पर्य आकृति विशेष या मूर्ति ध्यान से होता है। इसकी पद्धति यह है कि---योग की पिछली पांच क्रियायों को पूरा करने के पश्चात् यह सातवीं क्रिया प्रारम्भ की जाती है। यहाँ ‘यम’ को हमने योग की क्रिया में नहीं माने या नहीं रखे हैं। सर्वप्रथम आसान पर जो सुविधानुसार बिना किसी परेशानी से सम्पन्न हो जाता हो, बैठकर खुली आँख से त्राटक (किसी बिन्दु या चित्र के प्रति अपलक दृष्टि) के माध्यम से श्री विष्णु जी महाराज या श्री रामचंद्र जी महाराज या श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज में से किसी सौम्य-आकृति वाले चित्र (कैलेण्डर) के पूरी आकृति पर यानी दृष्टि जमावें तथा इसका अभ्यास करें। जब पूरी आकृति आँखों में, बैठ जय यानी बिना किसी परेशानी के सदा-सर्वदा जब चाहे तुरन्त बिना किसी बाह्य चित्र या आकृति के ही आँखों में रूप दिखलायी देने लगे वह भी जड़वत् नहीं, सगुण-क्रियाशील रूप में तब समझें कि आप का यह अभ्यास सफल हो गया। अब एक प्रश्न यह उठ सकता है कि इन तीनों में से किसका ध्यान श्रेष्ठ होगा तो मेरी दृष्टि में तो तीनों- श्री विष्णु जी,श्री रामचन्द्र जी तथा श्री कृष्णचन्द्र जी-शरीर, एक ही परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा कि ही रही है तो किसी को बड़ा या किसी को छोटा कहूँ? फिर भी मैं इतना अवश्य कहूँगा कि हर पश्चात् वाला पूर्व से श्रेष्ठ स्तर से कार्य करता है। जैसे श्री राम जी का कार्य श्री विष्णु जी से श्रेष्ठ स्तर का रहा है तथा वैसे ही श्री कृष्ण जी के क्रिया-कलाप श्री रामचन्द्र जी से श्रेष्ठ स्तर का रहा है तथा जो वर्तमान में अवतारी है वह तो ठीक वैसे ही श्री कृष्ण जी से भी श्रेष्ठ स्तर से अपना व्यवहार और कार्य करेगा। तो तब जब तक कि वर्तमान को स्पष्ट घोषणा नहीं हो जाती है तब तक श्री कृष्ण जी का ध्यान ही साकार-ध्यान में सर्वोत्तम् होगा परन्तु एक बात याद रखनी होगी कि वर्तमान भूत से कभी भी श्रेष्ठ होता है। क्यों कि भूत की सामर्थ्य कुछ बनाने या बिगाड़ने की नहीं होती है क्योंकि वह तो स्वयं ‘भूत’ या ‘बीत गया’ या ‘बीताहुया’ है तो तो जो बीत ही गया वह क्या कर सकेगा यानी वर्तमान भूत से भी श्रेष्ठ होता है। क्योंकि भविष्य को भी कुछ बनाने-बिगाड़नें हेतु वर्तमान बनना पड़ेगा अन्यथा भविष्य भी कुछ बना बिगाड़ नहीं सकता है। इसलिये वर्तमान की हर मामले या हर पहलू से श्रेष्ठतम् होता है। हालांकि यह बात भी सत्य ही है कि परमात्मा के लिये भूत-वर्तमान-भविष्य की बात कैसी? परमात्मा के शरीर के माध्यम से कार्यक्रम को भूत-वर्तमान-भविष्यत् से जोड़ा जाता है न कि परमात्मा के सर्वशक्ति-सत्ता सामर्थ्य से। परमात्मा तो सदा ही वर्तमान है फिर भी जब अवतार होकर भू-मण्डल पर लीला करना होता है तब उस अवतारी शरीर के माध्यम से भूत-वर्तमान तथा भविष्य का निर्धारण होता है। इसलिये तब तक श्री कृष्ण ही वर्तमान परमात्मा रहे हैं तथा अज्ञानियों के लिये हैं और रहेंगे भी, जब तक कि वर्तमान में उसी परमात्मा का जो अवतार हुआ है उसे अच्छी प्रकार से तत्त्वज्ञान-पद्धति या विद्यातत्त्व से जान और पहचान नहीं लिया जाता। वर्तमान अवतार के पहचान तक श्री कृष्ण जी महाराज का ध्यान ही साकार ध्यान हेतु सर्वोत्तम् ध्यान होगा। अंततः मैं एक बात स्पष्ट कर दूँ कि नासमझदार साधक आध्यात्मिक सन्त-महात्मा जन निराकार को श्रेष्ठ बताते हैं परन्तु यथार्थतः यह बात उस समय निराधार और असत्य हो जाएगी जबकि वर्तमान सगुण-साकार का ध्यान किया जाएगा। क्योंकि सगुण-साकार का ध्यान परमात्मा तथा उसके वर्तमान में कार्य करने वाली शरीर का होता है जबकि निराकार आत्म-ज्योति रूप मात्र आत्मा का ही होता है। इसलिए साकार परमात्मा के ध्यान से निराकार आत्मा का ध्यान सूर्य से पेट्रोमैक्स से तुलना जैसे है। सूर्य से पेट्रोमैक्स की क्या तुलना है? उसी तरह परमात्मा से आत्मा की क्या तुलना है? ठीक उसी तरह वर्तमान परमात्मा के सगुण-साकार ध्यान से निर्गुण-निराकार, आत्मा की क्या तुलना है? अर्थात् कुछ भी नहीं। हाँ, भूतकालीन जड़-मूर्तियों से वर्तमान कालीन आत्मा का ध्यान श्रेष्ठ अवश्य है परन्तु सगुण-साकार परमात्मा के ध्यान से अन्य किसी के ध्यान की कोई तुलना करना ही मूर्खता है हालांकि समझाने मात्र के लिए कुछ तुलना करना ही पड़ता है अन्यथा मूर्खों को समझ में ही नहीं आता कि भूत-वर्तमान और भविष्य के अवतार में क्या अन्तर है। वर्तमान ही ग्रहणीय है। त्राटक-क्रिया त्राटक-क्रिया भी ध्यान की एक पद्धति होती है। यह न तो साकार-ध्यान होता है और न तो निराकार ध्यान ही। साकार-ध्यान और निराकार-ध्यान यह दो आत्म-कल्याण एवं आत्म-उद्धार तथा समाज कल्याण या समाजोद्धार हेतु किया जाता है। साकार-ध्यान भक्ति हेतु निराकार ध्यान आत्म-शक्ति हेतु किया जाता है परन्तु त्राटक क्रिया न तो भक्ति और उद्धार के लिए किया जाता है और न तो शक्ति और शान्ति-आनन्द के लिए, बल्कि त्राटक क्रिया सिद्धि के लिए किया जाता है जिसके माध्यम से अभीष्ट कार्य किया जा सके। अर्थात् त्राटक क्रिया ध्यान के अन्तर्गत ही सिद्धि की एक क्रिया है त्राटक साकार और निराकार दोनों के मध्य की एक ध्यान क्रिया है जो स्थूल के अन्तर्गत ही या स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म-दृष्टि से की जाती है। इसे ‘सूक्ष्म-दृष्टि ध्यान क्रिया’ कहना विशेष उपयुक्त होगा। इसकी पद्धति यह है कि खुली स्थूल दृष्टि से अपलक अर्थात् बिना पलक गिराये लक्ष्य-बिन्दु पर दृष्टि जमाना ही त्राटक-क्रिया है। स्थूल दृष्टि अपलक कहीं किसी पर जमाकर गहराई से देखने पर स्थूल दृष्टि शून्य हो जाती है और उसी स्थूल दृष्टि के बीच सूक्ष्म-दृष्टि कार्य करना प्रारम्भ कर देती है जिससे स्थूल वस्तु अपने स्थूल रूप मे न दिखालायी देकर उसका भूत-भविष्य के साथ ही सूक्ष्म गति-विधियाँ दिखलायी देने लगती है। उसी को अतीन्द्रिय क्षमता कहते हैं परन्तु अभ्यास जारी रखना तब तक आवश्यक होता है जब तक कि विशिष्ट सिद्धि न उपलब्ध हो जाय। सिद्धि के बाद भी अभ्यास जारी रखने वाला सिद्ध की सिद्धि दिनोदिन ही बलवती होती जाती है इसलिए सिद्ध की सिद्धि के पश्चात् भी अभ्यास बन्द नहीं करना-कराना चाहिए। सिद्धि की शीघ्रता और पुष्टि हेतु सक्षम गुरु के निर्देशन मे अभ्यास अनिवार्य होता है। त्राटक क्रिया वालों को त्राटक क्रिया मात्र ही यदि करना है तो सामने त्रिनेत्र-शिव का चित्र रखकर उस चित्र के तीसरी दृष्टि से पृतली पर “सूक्ष्म दृष्टि ध्यान” क्रिया करनी चाहिए, इससे सिद्धि में शीघ्रता होगी तथा शिव की विशेष कृपा भी होती रहेगी क्योंकि ध्यान-समाधि के इष्ट देव शिव ही हैं। निराकार-ध्यान निराकार-ध्यान से तात्पर्य आत्म-ज्योति रूप निराकार आत्मा या ब्रह्मा या ईश्वर या हंस या आत्म-शक्ति के ध्यान से है। चूँकि आत्म-ज्योति रूप आत्मा या ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्मा या दिव्य-ज्योति रूप ईश्वर निराकार होता है और योग-साधना या अध्यात्म उसी आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति के साक्षात्कार की एक साधनात्मक पद्धति है जिसके अन्तर्गत साधक अपने जीव को मूलाधार स्थित कुण्डलिनी के माध्यम से उर्ध्वगति से स्वाधिष्ठान, मणिपूरक अनाहत् विशुद्ध का भेदन करके भू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र में गुरु-आज्ञा से पहुँच कर या गुरु-कृपा से पहुँचकर आत्म-ज्योति रूप आत्मा से मिलकर दरश-परश करते हुये आत्मामय होकर रहना ही योग-साधना या अध्यात्म है। निराकार साधना कभी परमात्मा का होता ही नहीं। यदि कोई कहता है तो वह नाजानकार है, भ्रम में है और नाजानकारी या अहंकार वश लोगों को भ्रमित करता है। निराकार-परमात्मा अज्ञानी का कथन; ‘तत्त्वज्ञानी का नहीं’ भगवद् प्रेमी सद्भावी बंधुओं! आइये अब यह जाना-देखा जाय कि परमात्मा निराकार है या साकार।यह प्रश्न आदिकाल से ही चला आ रहा है कि इन दोनो निराकार और साकार में यथार्थतः सत्य कौन है? अब आगे हम लोग यही जानेंगे और देखेंगे और सत्य होने पर अपने जीवन को ईमानदारी के साथ उसी की सेवा में लगा देंगे। थोड़ा भी नहीं हिचकेंगे। परमात्मा को यदि कोई निराकार कहे या यह कहे की हम परमात्मा को जानते हैं वह निराकार-शक्ति है तो यह जाहिर करता है कि परमात्मा को यह व्यक्ति बिल्कुल ही नहीं जनता और यदि कोई यह कहे कि परमात्मा साकार होता है तो यह जढ़वादी या भावनामय स्थूल दृष्टि की बात है, अब यह जटिल समस्या खड़ा हो जाता है कि क्या कहा जाय? जब कि निराकार भी नहीं कहना है, क्योंकि अज्ञानता का सूचक है और साकार भी नहीं कहना है क्योंकि जढ़ता और स्थूल-मूलक है तो फिर क्या कहा जाय? वास्तव में यथार्थता क्या है? परमात्मा के वास्तविक जानकार रूप तत्त्वज्ञानी जब परमात्मा को जानने, दर्शन करने तथा पहचान कर सेवा-भक्ति करने हेतु शरणागत होने हेतु श्रद्धापूर्वक उत्कट जिज्ञासा से परमात्मा की तलाश या खोजने में लगता है और उस समय अवतार हुआ हो तब,अन्यथा नहीं, अवतारी के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से या सर्वतोभावेन अवतारी के शरणागत होकर परमात्मा की यथार्थ जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान कर अनन्य सेवा-भक्ति के साथ या अव्यभिचारिणी-भक्ति के साथ सदा-सर्वदा के लिये शरणागत हो जाना ही मानव जीवन का चरम या परम लक्ष्य होता है। परन्तु परमात्मा की पहचान भी सामान्य बात नहीं है। कोई यह चाहे कि अपने अस्तित्व को कायम रखते हुये या अपनी पारिवारिकता तथा सांसारिकता कायम रखते हुये परमात्मा की यथार्थता से युक्त रहे,यह कदापि सम्भव नहीं है। परमात्मा की सेवा-भक्ति को कायम रखने तथा मुक्ति और अमरता को प्राप्त होने के लिये अपने अस्तित्व को बाह्य तथा आन्तरिक दोनों रूप से ही परमात्मा में विलय करना अनिवार्य होता है। इसमें किसी भि प्रकार के गुंजाइश की गुंजाइश ही नहीं होती है। परमात्मा की यथार्थता परम आकाश रूप परमधाम या अमरलोक या विहिस्त या गोल (Goal) में सदा-सर्वदा वास करने वाले परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्दब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या अल्लातsला या गॉड(GOD) या परमसत्य या परमसत्ता या परमभाव या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता सामर्थ्यवान् रूप परमात्मा है और एकमात्र वही परमात्मा या परमसत्य कहलाने का हकदार है। वह सर्वव्यापी नहीं, बल्कि एक देशीय होता है बल्कि उससे उत्पन्न तथा छिटकी या पृथक् हुई सूर्य की किरण सर्व-व्यापी है। चूँकि यह उदाहरण स्थूल है। इसलिये इसमें कह सकते हैं कि सूर्य की रौशनी रात्रि में नहीं रहती है तो इसी प्रकार आत्म-शक्ति भि किसी में नहीं होती होगी तो यहाँ पर यह जवाब है कि मृतक शरीर में में आत्म-शक्ति नहीं होती है। हाँ,यह सत्य है कि सूर्य की ज्योति भी आत्म-ज्योति की ही एक अंशमात्र है इसको समझना हो तो इसी, सद्ग्रन्थ के ‘आत्म-ज्योति का रहस्य’ नामक शीर्षक में देखें। पुनः आइये परमात्मा वाली बात पर। परमात्मा जब तक मूल रूप निराकार परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्दब्रह्म के रूप में रहता है तब तक तो वह भू-मण्डल पर रहता ही नही और जो उनकी यथार्थता को जान-समझकर उनका शरणागत होकर उनके परमधाम या अमरलोक को पहुँच जाता है वह लौटकर जनम-मरण में आता ही नहीं। यदि आता भी है तो उसी की मर्जी से आता और उनके साथ लीला का पात्र बनते हुये पुनः उनके आगे-पीछे वहीं पहुँच जाता है। इसलिये उनके परमधाम स्थित रूप को अपनी शक्ति-सामर्थ्य से कोई जान ही नहीं पाता। क्योंकि परमधाम में नारद, ब्रह्मा, शंकर को भी जाने का हक या अधिकार नहीं है। अर्थात् स्थूल शरीर से कोई ही वहाँ नही जाता है इसी मर्यादा को कायम रखने हेतु परमात्मा भी अपने धर्म की स्थापना तथा दुष्टों का विनाश और सत्पुरुषों का राज्य कायम कर वापस होता है तो अपने अवतारी वाली शरीर को भू-मण्डल पर ही छोड़कर परमआकाश रूप अपने परमधाम को वापस होता है। अतः यह बात भी परमसत्य ही है कि परमात्मा को परमात्मा के सिवाय अन्य कोई यथार्थतः जनता ही नहीं। परमात्मा स्वयं जिसको अपने यथार्थ तत्त्व को जनता है वहीं परमात्मा की यथार्थता को जान-देख-पहचान पता है और यथार्थतः निःशंक रूप में पहचान कर लेता है वह संसार के समस्त पारिवारिक तथा सांसारिक सम्बन्धों को ईमानदारी के साथ परमात्मा के ही चरणों में समर्पित कर-करा कर सदा-सर्वदा के लिये अनन्य सेवा-भक्ति के साथ अपने अस्तित्व को परमात्मा में ही विलय करते हुये शरणागत हो जाता है। यदि कोई सांसारिक कामिनी-कांचन में आसक्त व्यक्ति जान-देख-पहचान कर भी आसक्तिवश पृथक् या दूर हो जाता है तो उसका वह तत्त्वज्ञान तो तुरन्त ही लुप्त हो जाता है और परमात्मा में नानाप्रकार का दोष दिखलायी देने लगता है क्योंकि आया था ज्ञान के लिये ज्ञान पाया, पुनः देखना चाहता दोष, तो दोष पता है। यही परमात्मा की अन्तिम पहचान है कि जो जिस रूप में देखना चाहे यथार्थतः उसको उसी रूप में दिखायी दे। ज्ञान चाहने वाले को ज्ञान, भक्ति चाहने वाले को भक्ति, सेवा चाहने वाले को सेवा, प्यार चाहने वाले को प्यार,प्रेम चाहने वाले को प्रेम, योग चाहने वाले को योग, कर्म या श्रम चाहने वाले को कर्म या श्रम, गुण चाहने वाले को गुण, विद्वान देखने वाले को विद्वान, अपराधी को अपराधी, लूटने वाले को लूटने वाला, गुंडों को गुंडा, फंसाने वालों को फंसाने वाला, भ्रष्टों को भ्रष्ट, अत्याचारियों को अत्याचारी, व्यभिचार की चाह वाले को व्यभिचारी, व्यसनी चाह वाले के लिये व्यसनी, ब्रह्मचर्य वाले के लिये ब्रह्मचारी, तत्त्वज्ञानियों के लिये तत्त्वज्ञानदाता, भक्तों के लिये भगवान्, सद्शिष्यों के लिये सद्गुरु आदि आदि परमात्मा की यथार्थता का यह अन्तिम और श्रेष्ठतम पहचान होती है। अनन्य सेवा-भक्ति-प्रेम में रहने वाले को जो परमात्मा का अवतार रूप सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम दिखलायी देता है, वही परमात्मा अज्ञानी दुष्टों तथा विक्षुब्धों को निकृष्टम् तथा अधम दिखलायी देता है। यह परमात्मा के अवतार रूप अवतारी का दोष नहीं है, अपितु असल या यथार्थतः जानकारी और पहचान है क्योंकि परमात्मा ही एक ऐसा है जिसमें सब कुछ ही दिखलायी दे और वह भी सामान्य नहीं अपितु उच्चतम् रूप में। वही एक ऐसा है जो समस्त गुणों तथा समस्त दोषों से युक्त तथा सभी से मुक्त भी है। यही परमात्मा की अन्तिम और यथार्थतः पहचान है। परमात्मा ही पूर्ण है शेष सब अपूर्ण। इसलिये परमात्मा में सब कुछ होता है जो जैसे देखना चाहता है, देखता है जो जैसा पाना चाहता है पाता है यही पूर्णता है। चूँकि परमात्मा जिसे स्वीकार करके जनाता है वही उसको यथार्थतः जान पाता है। इसलिये परमात्मा की जानकारी तब तक नहीं हो सकती है जब तक कि वह अपने परमधाम में रहता है। चाहे कोई लाख, करोड़ या अरब, खरब सिर पटककर फोड़ ले तो क्या परन्तु जब तक वह भू-मण्डल पर आता नहीं, तब तक उसे कोई जान पाता नहीं। इसलिये परमात्मा को जानने और पाने के लिये खोजने और तलाशने के पहले यह खोज या तलाश लेना अनिवार्य है कि परमात्मा के अवतार की घोषणा भू-मण्डल पर कहीं से, किसी के द्वारा भी हो रहा है या नहीं, यदि नहीं हो, तब खोजना या तलाशना मूर्खता के सिवाय और क्या हो सकता है? परन्तु जब अवतार की घोषणा कहीं से भी हो रहा हो तब यह अत्यावश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्यता है कि उसकी खोज या तलाश किया जाय और मिलने पर पहचान किया जाय। परमात्मा का परम धाम से भू-मण्डल या जब कभी भी अवतरण या अवतार (पूर्णावतार) होता है, तब तक ही उसे भू-मण्डल पर अपना परिचय देना, धर्म की स्थापना करना, दुष्टों का विनाश करना, सत्पुरुष का राज्य स्थापित करना, सेवा-भक्ति तथा प्रेम प्रदान करते हुये मुक्ति और अमरता प्रदान करने हेतु सर्वप्रथम एक मनुष्य शरीर को ग्रहण करना पड़ता है तत्पश्चात् उसी शरीर के माध्यम से परमात्मा का यथार्थ परिचय रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्दब्रह्म या परमब्रह्म या परमात्मा की तत्त्वज्ञान पद्धति या विद्यातत्त्व के माध्यम से जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये अद्वैतत्तत्त्व बोध या एकत्त्वबोध प्राप्त करते हुये यथार्थ परिचय या पहचान किया जाता है या होता है। इस प्रकार असल या यथार्थतः परमात्मा का साकार रूप तत्त्वज्ञानदाता होता है तथा निराकार रूप परमात्मा का साकार अवतारी रूप तत्त्वज्ञानदाता द्वारा दिया गया तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्व के अन्तर्गत परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म का परिचय या पहचान या तत्त्वबोध होता है अर्थात् सृष्टि के समस्त मैं-मैं, तू-तू का एक तत्त्व से उत्पत्ति तथा तत्त्वज्ञान या एकत्त्वबोध के माध्यम से परमतत्त्व (आत्मतत्त्वम्) रूप निराकार परमात्मा है। इस प्रकार जो कोई भी परमात्मा को जानेगा वह निराकार+साकार तथा साकार –निराकार अर्थात् निराकार साकार बनकर ही साकार अपने में ही निराकार-तत्त्व की जानकारी और पहचान करता है। इस प्रकार जो भी जानेगा, देखेगा और यथार्थतः पहचान कर लेगा। उसके लिये परमात्मा निराकार और साकार दोनों का ही एक साथ ही पहचान करते हुये देखेगा। पृथक् मात्र निराकार या मात्र साकार दोनों में किसी भी एक को ही कहना मूर्खता और जढ़ता ही होगा। अंततः द्ज्ञन परमात्मा के लिये नहीं, अपितु आत्म-ज्योति रूप आत्मा के साक्षात्कार या दीदार की पद्धति है जबकि परमात्मा के लिये तत्त्वज्ञान या विद्या-तत्त्वम् पद्धति ही एकमात्र जानकारी और पहचान के लिये सदा-सर्वदा से है और रहेगा भी। ‘’समाधि’’ समाधि से तात्पर्य जीव का ध्यान-साधना से आत्म-ज्योति रूप आत्मा से मिलकर आत्मामय स्थिति में रहने से है। अर्थात् साधना द्वारा शरीस्थ जीव का कुण्डलिनी की उर्ध्वगति से भू-मध्य स्थिति आज्ञा-चक्र में आत्म-ज्योति रूप आत्मा से मिलकर आत्मामय होकर स्थिति रहने का नाम ही समाधि है। यह अष्टांग योग का आठवां और अन्तिम अंग या सोपान है। योग की समस्त क्रियायों की अन्तिम परिणति ही समाधि है। समाधिस्थ पुरुष बाह्य समस्त क्रियायों से शून्य होकर आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति से मिलकर स्वयं भी ज्योतिर्मय होकर समाधि भंग तक शान्ति और आनन्द से युक्त चिदानन्द की अनुभूति में पड़े रहते हैं। परमात्मा के अलावा यह सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ, सबसे उच्च तथा सबसे उत्तम अवस्था या पद होता है। इससे उच्च, श्रेष्ठ और उत्तम परमात्मा तथा परमात्मा के प्रेमी, सेवक तथा ज्ञानी यानी परमात्मा तथा परमात्मा के जानकार अनुयायी ही होते हैं और कोई अन्य नहीं। इस अवस्था को प्राप्त साधक ही सिद्ध योगी-ऋषि, महर्षि, राजर्षि तथा अध्यात्मवेत्ता भी होता है। मात्र तत्त्वज्ञानदाता तथा उनका अनुयायी तत्त्वज्ञानी ही इससे श्रेष्ठ है। समाधि अवस्था योग-समाधि या अध्यात्म का फल होता है। सभी साधक इसका आनन्द नहीं पते हैं। हालांकि सामान्य साधक भी समाज में यह ढोल पीटते यानी अपने समाज में कहते, टकराते हुये जाने देखे जाते हैं की हम भी इसकी जानकारी पाये हैं, हम भी साधना करते हैं, हम भी समाधि का आनन्द लेते हैं आदि ये सारी बातें कोरी झूठ होती हैं क्योंकि समाधि का आनन्द पाने वाला या लेने वाला कदापि सांसारिकता में नहीं जा सकता। जा सकता तो दूसरी बात है वह सांसारिकता की बातें सुनना भी घृणित समझेगा। संसार क्या देवलोक का राज्य भी उसके लिये फीका और फँसाने वाला माया-लीन ही दिखलायी देगा। इस तुच्छ परिवारिकता तथा सांसारिकता रूपी कामिनी और कांचन कौन पुछे। इस प्रकार कोई गृहासक्त पारिवारिक तथा सांसारिक व्यक्ति यह कहे कि मैं आत्मानन्द या ब्रम्हानन्द या दिव्यानन्द आदि की अनुभूति लेता हूँ या पाता हूँ तो वह बिल्कुल ही, कोरा झूठ बोलता है। यह बात हो सकता है की वह साधना करता हो तो ध्यान में कुछ ज्योति मात्र देखकर थोड़ी बहुत मात्रा में शान्ति और आनन्द की अनुभूति हो जाती हो, जिसे वह आत्मानन्द या ब्रहमानन्द या दिव्यानन्द भ्रमवश तथा अपने भ्रमित गुरु के निर्देशन से इसी को समझ बैठा हो। आध्यात्मिक गुरु लोग भ्रमवश तथा मिथ्याज्ञानाभिमान के कारण इसी आत्मानन्द या ब्रहमानन्द या दिव्यानन्द को ही मुक्तानन्द भी घोषित कर-करा देते हैं जबकि मुक्तानन्द योग-साधना या अध्यात्म की बात ही नहीं होता। यह तो तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वम् पद्धति के अन्तर्गत बोध होने वाली बात होती है। समाधि मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है। पहला—सविकल्प समाधि या सबीज समाधि तथा दूसरा—निर्विकल्प समाधि या निर्बीज समाधि। समाधिस्थ पुरुष को यह संसार एक स्वपन जैसा दिखलायी देता है। यही कारण है कि योग-सिद्ध बन्धुके पास जो व्यक्ति जाता है उसे भी वह योग-साधना या अध्यात्म की ओर बढ़ने का उपदेश देने लगते हैं। चूँकि परमविद्या या विद्यातत्त्वम् या तत्त्वज्ञान तो सदा या हमेशा भू-मण्डल पर रहता नहीं, यह तो परमात्मा के साथ आता और परमात्मा के साथ ही चला भी जाता है। इसी से अध्यात्म की महत्ता कायम हो जाता है। परन्तु समाधि तक एक अवतार के प्रतीक्षा रूप में फंसनें से बचे रहना मात्र ही है। अवतार की घड़ी में यदि समाधिस्थ भी परमात्मा का शरणागत होकर मुक्ति और अमरता का बोध नहीं कर लेगा तथा परमात्मा भू-मण्डल पर आकार अपने परमधाम को लौट जायेगा तो उनकी समाधि भी व्यर्थ हो जायेगी क्योंकि समाधि मात्र योग की ही अन्तिम उपलब्धि है ज्ञान की नहीं। अतः परमात्मा ही सभी का आदि अन्त होता है। सविकल्प या सबीज समाधि गोपालगंज जेल १२/१२/१९८२ ई सविकल्प समाधि या सबीज समाधि से तात्पर्य ध्यान के अन्तर्गत नाना तरह के काल्पनिक आकृतियों का आना या कल्पना के अनुसार ध्यान करना और ध्यान में उसके करना और ध्यान में उस काल्पनिक आकृति का आना और उसी में मस्त रहना सविकल्प या सबीज समाधि है। यह समाधि की दूषित-पद्धति है। समाधि अवस्था में किसी भी प्रकार की आकृति का आना दोष माना जाता है हालांकि बहुत से साधक बन्धु अपने अभीष्ट को ध्यान-साधना में देखकर अति प्रसन्न होते रहते हैं। परन्तु यह ध्यान की प्रारम्भिक स्थिति होती है अंतिम नहीं जबकि समाधि, ध्यान का अंतिम अवस्था है। इसी सविकल्प समाधि को सविचार-समाधि भी कहते हैं। यानी विचार के अनुसार ध्यान-साधना में अभीष्ट आकृति का साक्षात्कार होना तथा उसी में आनंदित होते हुये अभीष्ट दर्शन मानकर स्थित रहना ही सव्ज्चर समाधि है। सविकल्प या सबीज या सविचार से सांसारिक अभीष्ट सिद्धि का लाभ अतिशीघ्र एवं प्रभावी रूप में उपलब्ध होता है। “अतींद्रिय क्षमता” वाले सभी विश्व विख्यात् भविष्य वक्ता उसी समाधि से ही अभीष्ट सिद्धियों की प्राप्ति करते हैं जिसके माध्यम से भूत तथा भविष्य की जानकारियाँ बहुत ही सुगमता पूर्वक हो जया करती है। यह अतीन्द्रिय ज्ञान कोई नई खोज या नई पद्धति नहीं है हमारे पूर्वज प्राचीन कल से ही इसका प्रयोग करते और लाभ लेते रहे हैं जो ऋषि, महर्षि या राजर्षि-ब्रह्मर्षि तथा योग-सिद्ध,सिद्ध पुरुष या महापुरुष कहलाते रहे हैं जिनके विषय में शास्त्र बतलाते हैं कि अमुक ऋषि आदि त्रिकालज्ञ यानी भूत-वर्तमान तथा भविष्य आदि की सभी बातें सत्य-सत्य कह देते हैं या बतला दिया करते हैं। वे इसी समाधि से सिद्ध हुये थे या सिद्धि प्राप्त किये थे। सद्भावी बंधुओं आइये अब निर्विकल्प या निर्बीज या निर्विचार समाधि की यथार्थता को जाना-देखा तथा समझा जाय। निर्विकल्प या निर्बीज या निर्विचार समाधि निर्विकल्प या निर्बीज या निर्विचार समाधि ही यथार्थतः समाधि होती है। निर्विकल्प समाधि में कल्पनाए सभी आ-आ कर इसमें लीन हो जाती है। जिस प्रकार पृथक्-पृथक् स्थानों से तिनका या ईधन लाकर इकट्ठा किया गया हो और उसमें आग स्पर्श कर जाय तो सब तिनका और ईधन ही तेजोमय आग बनकर एक तेजोमय दाहिका-शक्ति से युक्त होकर एकरूप हो जाता है ठीक इसी प्रकार विचार या कल्पनाए या नाना प्रकार के विषय-चिन्तन ध्यान में आ-आ कर आत्म-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति में मिल-मिल कर ज्योतिर्मय रूप में होती जाती है परन्तु जैसे ही आग के बुझ जाने पर बचा हुआ सब तिनका या ईधन एक राख मात्र ही दिखलायी देता है। ठीक उसी प्रकार जब समाधि अवस्था भंग होती है या समाधि टूटती है तब सारा संसार ही राख जैसी ही दिखलायी देने लगता है। वास्तव में यही समाधिस्थ की क्रिया-प्रक्रिया तथा उसका परिणाम होता है। इसलिये साधनाभ्यासी को योग-साधना की समस्त क्रियाओं के साथ ध्यान-समाधि का अभ्यास तब तक जारी रखना चाहिये जब तक कि अपने अन्दर के विचार समूल समाप्त न हो जाय। इतना ही नहीं संसार में शरीर पर्यन्त विचार उत्पन्न होता रहता है इसलिये अभ्यास जीवन पर्यन्त ही जारी रखना चाहिये ताकि विचार कभी भी अपने प्रभाव में न कर सके। “तुरीयावस्था” तुरीयावस्था योग या अध्यात्म की अन्तिम उपलब्धि है जो समाधि के पश्चात् की अवस्था होती है जिसमें बिना ध्यान साधना के ही स्थिति ध्यान समाधि जैसी बराबर ही बनी रहती है। ऐसे सिद्ध पुरुष ही समाज में महापुरुष या सिद्ध पुरुष कहलाते हैं। इस अवस्था तक पहुँच जाने वाले सिद्ध पुरुष साधनाओं से ऊपर हो जाते हैं जिन्हे किसी भी प्रकार के साधना की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। इस अवस्था वाला सिद्ध पुरुष समाज में गिरता ही नहीं, अपितु समाज का जरा सा भी असर अर्थात् कोई प्रभाव ऐसे सिद्ध महापुरुषों पर छूता तक नहीं है। ये ही समाज की भाषा में निर्विकारी, निर्विचारी, निर्विकल्प वाले सिद्ध महापुरुष आदि आदि उपाधियों से उच्चारित होते हैं। ऐसे सिद्ध महापुरुष आत्मानन्द या चिदानन्द या ब्रहमानन्द या दिव्यानन्द में इतने डूबे रहते हैं कि सब कुछ ही ब्रह्ममय या आत्मामय या ईश्वरमय ही दिखलायी देता है। इन्हे देखने मात्र से ही आभास होने लगता है कि ये कोई सिद्ध महापुरुष हैं। इनकी अवश्यकताएं ऐसी विलीन रहती है या इनमें विचारों कि ऐसी विलीन रहती है या इनमें विचारों की ऐसी समाप्ति रहती है कि परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमब्रह्म या परमेश्वर या परमात्मा के अवतार रूप अवतारी तत्त्ववेत्ता परमपुरुष रूप सत्पुरुष को भी ये अपने समक्ष कुछ नहीं समझते हैं जो इनके समस्त गुणों या महत्वों में सबको समाप्त कर देने वाला आत्माभिमान या मिथ्यज्ञानाभिमान रूप अहंकार है। इन्हें यह भी समझना चाहिए था कि अवतारी तत्त्ववेत्ता सत्पुरुष समस्त ईश्वरों का परम महेश्वर रूप परमेश्वर या ब्रह्मों का परम ब्रह्म या समस्त आत्माओं का परमात्मा का साक्षात् अवतार होता है। उन्हीं अपने पिता रूप परम या परमपिता परमेश्वर की शरणागति स्वीकार कर लूँ। ताकि अपने आत्मा का उद्धार हो जाय। आत्मा की मुक्ति होकर परमात्मा में विलय हो जाय आदि। जबकि स्वतन्त्र आत्म-ज्योति रूप आत्मा ही परमात्मा से पृथक्, ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म ही परमब्रह्म से पृथक्; दिव्य-ज्योति रूप ईश्वर ही परमेश्वर से पृथक् रूप में रहकर मुक्त और अमर नहीं रह पाती या पाते हैं तो आत्मामय या ब्रह्ममय या ईश्वरमय यह शरीर परमात्मा के अवतार रूप तत्त्ववेत्ता अवतारी सत्पुरुष से पृथक् रहकर मुक्ति और अमरता को कैसे प्राप्त कर सकता है अथवा मुक्त या अमर कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकते। परमात्मा के शरणागत हुये बिना आत्मा की मुक्ति और अमरता कदापि नहीं मिल सकती है एक नहीं, लाख, करोड़ बार तुरीय अवस्था को प्राप्त करते रहें। तुरियावस्था आत्मामय की अवस्था मात्र होती है परमात्मामय की नहीं। अंततः में बतला दूँ कि-- तुरीयावस्था वाले को भी आत्माभिमान से ऊपर उठकर परमात्मा की शरणागति सहर्ष स्वीकार कर चिदानन्द से सच्चिदानन्द, दिव्यानन्द से परमानंद शान्ति और आनन्द से मुक्तानन्द तथा बोधानन्द को भी जानना, देखना, बात-चीत करते हुये समझना तथा पहचानना चाहिए और परमात्मा या परमसत्य को अपना चरम और परम लक्ष्य या उद्देश्य समझकर उसी में अपने आत्मरूप को तत्त्वज्ञान या विद्या-तत्त्वम् पद्धति से विलीन कर देना चाहिए ताकि न रहेगा पृथक अस्तित्व न होगा जनम-मरण तब होगा बोध मुक्तानन्द रूप परमानन्द रूप परमात्मा का। “सहज समाधि” सहज समाधि, योग-साधना या अध्यात्म से पृथक तत्त्वज्ञान या विद्यातत्त्वम् पद्धति के अन्तर्गत स्थिति-प्रज्ञ की अवस्था को कहते हैं जिसके अन्तर्गत कोई साधनात्मक क्रिया-प्रक्रिया नहीं होती है, अपितु तत्त्वज्ञान प्राप्त तत्त्वज्ञानी की सहज या स्वाभाविक स्थिति का नाम ही सहज समाधि है। सहज समाधि के लिए ही कहा गया है कि – जहँ-तहँ डोलूँ सो परिकर्मा, जो जो करूँ सो पूजा। गृह उजारी एक करि डालूँ और भाव नहीं दूजा॥ सहज-समाधि अन्य समाधियों की तरह क्रिया समाधि नहीं, अपितु एक भाव समाधि होती है जो तत्त्वज्ञान के पश्चात् श्रद्धालु शरणागत व्यक्ति के अन्तर्गत स्वतः ही प्रकट हो जाती है; यहाँ पर स्वतः का अर्थ अपने-आप से नहीं अपितु तत्त्वज्ञान या विद्या-तत्त्वम् से है क्योंकि तत्त्वज्ञान यहाँ विद्या-तत्त्वम् के पश्चात् ही यह अवस्था हो सकती है या आ सकती है। इसलिए यह अवस्था तत्त्वज्ञान-पद्धति या विद्या-तत्त्वम् पद्धति की ही देन है परन्तु इसके लिए श्रद्धा और उत्कट जिज्ञासा रूपी पात्र होना अनिवार्य है क्योंकि पात्र की गड़बड़ी से अच्छी से अच्छी तथा महान से महान बदनाम हो जाता है। सहज-समाधि ज्ञानी की स्वाभाविक गति-विधि है। यह गति-विधि पूर्णतः मशीनवत् होती है। तत्त्वज्ञान से सम्बंधित सभी शरीर एक ही परमात्मा द्वारा आत्मा रूपी आत्म-शक्ति के माध्यम से संचालित होता है। सहज-समाधि की यहाँ पर कोई खास तौर पर आवश्यकता नहीं थी क्योंकि यह योग की पद्धति तो है नहीं, फिर भी समाधि-शब्द जुड़ जाने से यहाँ पर इस प्रकरण को रखना उचित समझ में आने लगा। जिससे बन्धुओं में भ्रम न हो। शिक्षा से साधना श्रेष्ठ शिक्षा से तात्पर्य शरीर और संसार के मध्य की भौतिक जानकारियों से है जिसके अन्तर्गत मन तथा स्वसन से सम्बंधित आभासित जानकारियाँ भी सम्मिलित रहती हैं। जबकि योग-साधना या अध्यात्म शरीर तथा जीव और जीव तथा आत्मा के बीच की समस्त जानकारियों का अनुभूतिपरक साधनात्मक पद्धति है। शिक्षा और साधना की तुलना करना ही उचित नहीं लग रहा है परन्तु समझने हेतु तुलना करना अनिवार्य होता है इसलिए किया जा रहा है। बल्ब तथा तार की जानकारी शिक्षा है तो विद्युत तथा ऊर्जा की प्रयौगिक जानकारी साधना है। शिक्षा में भी विज्ञान है ठीक उसी प्रकार शरीर तथा संसार की समस्त भौतिक जानकारी तो जड़-प्रधान जानकारी होती है तथा मन और स्वसन क्रिया की भी जानकारी की जाती है तो वह भी अनुमान और आभास पर ही आधारित होती है परन्तु शरीर तथा जीव के बीच की जानकारियाँ तो वैचारिक जानकारी है तथा जीव तथा आत्मा के बीच की साधनात्मक जानकारियाँ अनुभूति परक जानकारियाँ हैं। इसलिए जीवात्मा (जीव+आत्मा) की जानकारी तो स्वाभाविक ही श्रेष्ठ होगी क्योंकि शरीर तो मृतक ही है। शरीर का संचालन तो जीवात्मा ही करती है शरीर तो मात्र जीवात्मा का साधन ही है। जड़ साधन तथा चेतन चालक होता है। शिक्षा जड़ प्रधान तथा साधना चेतन प्रधान होता है। जड़ या कर्म प्रधान शिक्षा की ही देन चोरी, लूट, डकैती, राहजनी, अपहरण, व्याभिचार, अत्याचार तथा समस्त अपराधों की उत्पत्ति तथा संरक्षण प्रदान करने वाला सर्वव्यापी घूसखोरी रूप भ्रष्टाचार ही है। शिक्षा तो कुमारों को बकरा तथा बछड़ा के तरह बेचवाकर कुमारियों को गुलाम बनवा दे रहा है जबकि योग-साधना या अध्यात्म की देन सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह तथा प्रत्याहार यानि शब्दादि विषयों तथा श्रोतादि इन्द्रियों और मन के मनमानागीरी से रोककर वश में करके रखते हुये संसार को मायामय देखते हुये सांसारिक वृत्तियों का त्याग है जिससे शान्ति और आनन्द की प्राप्ति होती है तथा अपराध तो अपराध है छोटा से छोटा भी दोष होने की गुंजाइश ही नहीं रह सकती है। बशर्ते कि इस योग-साधना या अध्यात्म से सकल समाज को ही प्रभावी तरीके से अनिवार्यता के साथ लागू किया जाये। इसमें देरी करना अपराधों को जारी रखना होगा तथा अनिवार्यता के रूप में लागू करना अपराधों का समूल समाप्त करना होगा। देखा जाय वर्तमान समाज किसे स्वीकार करता है। अब यही हमें देखना है। सद्भावी बंधुओं ! शिक्षा के स्थान पर विद्या यानी जिस प्रकार विद्यातत्त्वम् पद्धति के स्थान पर शिक्षा-पद्धति (जो मात्र कर्म-प्रधान रूप जढ़ता की जानकारी) प्रतिस्थापित हो गई है, उसके स्थान पर पुनः अपने मूलरूप जड़-चेतन तथा दोनों का उत्पादक संचालक तथा नियंत्रक रूप विद्यातत्त्वम्-पद्धति जो पृथक्-पृथक् रूप मेन जड़-प्रधान को जड़-प्रधान के रूप में तथा चेतन-आत्मा प्रधान को चेतन-आत्मा-प्रधान के रूप में तथा दोनों में जढ़ता पर चेतनता की प्रधानता व श्रेष्ठता एवं उत्तमता तथा जड़-चेतन दोनों पर दोनों का मूलतः पिता और संरक्षक-व्यवस्थापक एवं पूरक रूप तत्त्वज्ञान-पद्धति या विद्या-तत्त्व पद्धति की यथार्थतः जानकारी-सैंद्धांतिक तथा ठीक उसी के अनुसार प्रायौगिक तथा कथनी का ही करनी रूप व्यावहारिक रूप में शिक्षार्थी के स्थान पर विद्यार्थी को प्रतिस्थापित तथा छूरा-गोली के स्थान पर विनय बोली की प्रधानता देते हुये सत्य-धर्म-न्याय-नीति की यथार्थ जानकारी दी जाय और शिक्षार्थी को विद्यार्थी बनाया जाय। जिसका परिणाम यह होगा कि विद्यार्थी विनय-भाव तथा बोली व्यवहार विद्या-तत्त्वम् या तत्त्वज्ञान प्रधान कर लेगा जिससे जढ़ता यानी सम्पत्ति से तो जबर्दस्त घृणा उत्पन्न हो जायेगी ही। सम्पत्ति के प्रयोग की आवश्यकता इतना कम हो जायेगा कि सम्पत्ति प्रयोग करना घृणित एवं मजबूरी माना जाने लगेगा, जिसका परिणाम यह होगा कि चोरी, लूट, डकैती, राहजनी, अपहरण, व्यभिचार रूप अत्याचार तथा लगभग पंचानवे प्रतिशत से भी ऊपर या लगभग शत-प्रतिशत भी कहा जा सकता है परन्तु पंचानवे प्रतिशत से नीचे की तो बात ही नहीं है, अपराधों का उत्पादक एवं संरक्षक रूप घूसखोरी नामक भ्रष्टाचार आदि तो बिना किसी परेशानी के ही स्वतः ही समाज से समूल समाप्त हो जायेगा तथा समाज कम से कम एक हजार वर्ष तक के लिये तो शान्त और आनंदिंत हो ही जायेगा तत्पश्चात् साधनात्मक पद्धति स्थान ले लेगी तो कुछ दिन वर्ष उसका प्रभाव रहेगा। तत्पश्चात् जड़-प्रधान यानी कर्म-प्रधान शिक्षा पद्धति के स्थान पर प्रतिस्थापित होगी। इस प्रकार का क्रम-चक्र ही सृष्टि-चक्र तथा काल रूप में ही यह विद्या-चक्र भी चलता रहता है जो अपने समय पर अपने से सम्बंधित कर-करा कर अपने गति-विधि के अनुसार मानव को ले चलता है। वर्तमान घड़ी पुनः परमात्मा के अवतार के कारण विद्यातत्त्वम् पद्धति या तत्त्वज्ञान पद्धति वाली ही है। इसलिये हम सभी बंधुओं को शिक्षा के स्थान पर विद्या तत्त्व को तथा जड़-चेतन प्रधान के स्थान पर परमसत्य प्रधान हो कर मुक्ति और अमरता को जीवन जीते हुये सत्पुरुषों का राज्य कायम करना चाहिये ।  Home View web version Powered by Blogger. 

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