Tuesday, 20 June 2017

पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ1

  प्रारम्भ में साहित्य हमारे प्रयास मल्टीमीडिया प्रारम्भ में > साहित्य > पुस्तकें > गायत्री और यज्ञ > पंचकोशी साधना > अन्नमय कोश और उसकी साधना पृष्ट संख्या: 1234 पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ अग्नि की उष्णता से संसार के सभी पदार्थ जल, बदल या गल जाते हैं। वे कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं, जिसमें अग्नि का संसर्ग होने पर भी परिवर्तन न होता हो। तपस्या की अग्नि भी ऐसी ही है। वह पापों के समूह को निश्चित रूप से गलाकर नरम कर देती है, बदल कर मनोभावना बना देती है अथवा जलाकर भस्म कर देती है। जो प्रारब्ध- कर्म समय के परिपाक से प्रारब्ध और भवतव्यता बन चुके हैं, जिनका भोगा जाना अमिट रेखा की भाँति सुनिश्चित हो चुका है, कष्ट साध्य भोग, तपस्या की अग्नि के कारण गल कर नरम हो जाते हैं। उन्हें भोगना आसान हो जाता है। जो पाप परिणाम दो महीने तक भयकंर उदरशूल होकर प्रकट होने वाला था यह साधारण कब्ज बनकर दो महीने तक मामूली गड़बड़ करके आसानी से चला जाता है। जिस पाप के कारण हाथ या पैर कट जाते, भारी रक्तस्राव होने की सम्भावना थी, वह मामूली ठोकर लगने से या चाकू आदि चुभने से दस बीस बूँंद खून बहकर निवृत हो जाता है। जन्म जन्मान्तरों के सञ्चित वे पाप जो कई-कई जन्मों तक भारी कष्ट देते रहने वाले थे, वे थोड़ी-थोड़ी चिह्न-पूजा के रूप में प्रकट होकर इसी जन्म में निवृत हो जाते हैं और मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग मुक्ति का अत्यन्त वैभवशाली जन्म मिलने का मार्ग साफ हो जाता है। देखा गया है कि तपस्वियों को इस जन्म में प्राय: कुछ असुविधाएँ रहती हैं। इसका कारण है कि जन्म-जन्मान्तरों के समस्त पाप-समूह का भुगतान इसी जन्म में होकर आगे का मार्ग साफ हो जाय इसलिए ईश्वरीय वरदान की तरह हलके फुलके कष्ट तपस्वियों को मिलते रहते हैं। यह पापों का गलना हुआ। बदलना इस प्रकार होता है कि पाप का फल जो सहना पड़ता है उसका स्वाद बड़ा स्वादिष्ट हो जाता है। धर्म के लिए कर्तव्य के लिये, यश, कीर्ति और परोपकार के लिए जो कष्ट सहने पड़ते हैं, वे ऐसे ही हैं जैसे प्रसव पीड़ा। प्रसूता को प्रसवकाल में पीड़ा तो होती है, पर उसके साथ-साथ एक उल्लास भी रहता है। चन्द्र से मुख का सुन्दर बालक देख कर तो वह पीड़ा बिल्कुल भुलादी जाती है। राजा हरिश्चन्द्र, दधीचि, प्रहलाद, मोरध्वज आदि को जो कष्ट सहने पड़े, वे उनके लिये उस काल में भी उल्लासमय थे और अन्तत: अमरकीर्ति ओर सद्गति की दृष्टि से तो वे कष्ट उनके लिये सब प्रकार मगंलमय ही रहे। दान देने में जहाँ ऋणमुक्ति होती है वहाँ यश तथा शुभ गति की भी प्राप्ति होती है। तप द्वारा इस प्रकार 'उधार पट जाना और मेहमान जीम जाना' दो कार्य एक साथ हो जाते हैं। जल जाना इस प्रकार का होता है कि जो पाप अभी प्रारब्ध नहीं बने हैं, भूल, अज्ञान या मजबूरी में हुए हैं, वे छोटे-मोटे अशुभ कर्म तप की अग्नि में जल-बलकर अपने आप भस्म हो जाते हैं। सूखे हुए घास-पात के ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिनगारी जला डालती है, वैसे ही इस श्रेणी के पाप कर्म तपश्चर्या, प्रायश्चित्त और भविष्य में वैसा न करने के दृढ़ निश्चय से अपने आप नष्ट हो जाते हैं। प्रकाश के सम्मुख जिस प्रकार अन्धकार विलीन हो जाता है, वैसे ही तपस्वी अन्तःकरण की प्रखर किरणों से पिछले कुसंस्कार नष्ट हो जाते हैं और साथ ही उन कुसंस्कारों की छाया, दुर्गन्ध, कष्टकारक परिणामों की घटा का भी अन्त हो जाता है। तपश्चर्या से पूर्वकृत पापों का गलना, बदलना एवं जलना होता हो सो ऐसी बात नहीं है, वरन् तपस्वी में एक नई परम सात्विक अग्नि पैदा होती है। इस अग्नि को दैवी विद्युत शक्ति, आत्म-तेज, ब्रह्म-तेज, तपोबल आदि नामों से भी पुकारते हैं। इस बल से अन्तःकरण में छिपी हुई सुप्त शक्तियाँ जागृत होती हैं, दिव्य सतोगुणों का विकास होता है। स्फूर्ति उत्साह, साहस, धैर्य, दूरदर्शिता, संयम सन्मार्ग में प्रवृत्ति आदि अनेकों गुणों की विशेषता प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगती है, कुसंस्कार, कुविचार, कुटेव, कुकर्म से छुटकारा पाने के लिये तपश्चर्या एक रामबाण अस्त्र है। प्राचीन काल में अनेकों देव- दानवों ने तपस्यायें करके मनोरथ पूरा करने के वरदान पाये हैं। घिसने की रगड़ से गर्मी पैदा होती है। अपने को तपस्या के पत्थर पर घिसने से आत्म-शक्ति का उद्भव होता है। समुद्र को मथने से चौदह रत्न मिले। दूध के मथने से घी निकलता है। काम मन्थन से प्राणधारी बालक की उत्पत्ति होती है। भूमिः मन्थन से अन्न उपजता है। तपस्या द्वारा आत्म-मन्थन से उच्च आध्यात्मिक तत्वों की वृद्धि का लाभ प्राप्त होता है। पत्थर पर घिसने से चाकू तेज होता है। अग्नि में तपाने से सोना निर्मल बनता है। तप से तपा हुआ मनुष्य भी पापमुक्त, तेजस्वी और विवेकवान बन जाता है। अपनी तपस्याओं में गायत्री तपस्या का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। नीचे कुछ पाप-नाशिनी और ब्रह्मतेज- वर्द्धिनी तपश्चर्याएँ बताई जाती हैं- (१) अस्वाद तप तप उन कष्टों को कहते हैं, जो अभ्यस्त वस्तुओं के अभाव में सहने पड़ते हैं। भोजन में नमक और मीठा या स्वाद की प्रधान वस्तुयें हैं। इनमें से एक भी वस्तु न डाली जाय तो वह भोजन स्वाद रहित होता है। प्राय: लोगों को स्वादिष्ट भोजन करने का अभ्यास होता है। इन दोनों स्वाद तत्वों को या इनमें से एक को छोड़ देने से जो भोजन बनता है, उसे सात्विक प्रकृति वाला ही कर सकता है। राजसिक प्रकृति वाले का मन उससे नहीं भरेगा। जैसे-जैसे स्वाद रहित भोजन में सन्तोष पैदा होता है, वैसे ही वैसे सात्विकता बढ़ती जाती है। सबसे प्रारम्भ में एक सप्ताह, एक मास या एक ऋतु के लिए इसका प्रयोग करना चाहिये। आरम्भ में बहुत लम्बे समय के लिए नहीं करना चाहिये। यह अस्वाद-तप हुआ। (२) तितीक्षा तप सर्दी या गर्मी के कारण शरीर को जो कष्ट होता है उसे थोड़ा-थोड़ा सहन करना चाहिये। जाड़े की ऋतु में धोती और दुपट्टा या कुर्ता दो वस्त्रों में गुजारा करना, रात को रुई का कपड़ा ओढ़कर कम्बल से काम चलाना, गरम पानी का प्रयोग न करके ताजे जल से स्नान करना, अग्नि पर न तपना, यह शीत सहन के तप हैं। पंखा, छाता और बर्फ का त्याग यह गर्मी की तपश्चर्या है। ( ३) कर्षण तप प्रातःकाल एक-दो घण्टे रात रहे उठकर नित्यकर्म में लग जाना अपने हाथ से बनाया भोजन करना अपने लिये स्वयं जल भरकर लाना, अपने हाथ से वस्त्र धोना, अपने बर्तन स्वयं मलना आदि अपनी सेवा के काम दूसरों से कम से कम कराना। जूता न पहनकर खड़ाऊँ या चट्टी से काम चलाना। पलंग पर शयन न करके तख्त या भूमि पर शयन करना। धातु के बर्तन प्रयोग न करके पत्तल या हाथ भोजन करना, पशुओं की सवारी न करना, खादी पहनना, पैदल यात्रा करना आदि कर्षण तप हैं। इसमें प्रतिदिन शारीरिक सुविधाओं का त्याग और असुविधाओं को सहन करना पड़ता है। पृष्ट संख्या: 1234  gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp   अन्नमय कोश और उसका अनावरण अन्नमय कोश की जाग्रति, आहार शुद्धि से आहार के त्रिविध स्तर, त्रिविध प्रयोजन आहार, संयम और अन्नमय कोश का जागरण आहार विहार से जुड़ा है मन आहार और उसकी शुद्धि आहार शुद्धौः सत्व शुद्धौः अन्नमय कोश की सरल साधना पद्धति उपवास का आध्यात्मिक महत्त्व उपवास से सूक्ष्म शक्ति की अभिवृद्धि उपवास से उपत्यिकाओं का शोधन उपवास के प्रकार उच्चस्तरीय गायत्री साधना और आसन आसनों का काय विद्युत शक्ति पर अद्भुत प्रभाव आसनों के प्रकार सूर्य नमस्कार की विधि पंच तत्वों की साधना तत्व साधना एक महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म विज्ञान तत्व शुद्धि तपश्चर्या से आत्मबल की उपलब्धि आत्मबल तपश्चर्या से ही मिलता है तपस्या का प्रचण्ड प्रताप तप साधना द्वारा दिव्य शक्तियों का उद्भव ईश्वर का अनुग्रह तपस्वी के लिए पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ समग्र साहित्य हिन्दी व अंग्रेजी की पुस्तकें व्यक्तित्व विकास ,योग,स्वास्थ्य, आध्यात्मिक विकास आदि विषय मे युगदृष्टा, वेदमुर्ति,तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ३००० से भी अधिक सृजन किया, वेदों का भाष्य किया। अधिक जानकारी अखण्डज्योति पत्रिका १९४० - २०११ अखण्डज्योति हिन्दी, अंग्रेजी ,मरठी भाषा में, युगशक्ति गुजराती में उपलब्ध है अधिक जानकारी AWGP-स्टोर :- आनलाइन सेवा साहित्य, पत्रिकायें, आडियो-विडियो प्रवचन, गीत प्राप्त करें आनलाईन प्राप्त करें  वैज्ञानिक अध्यात्मवाद विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान की दो धारायें हैं जिनका समन्वय आवश्यक हो गया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हि सच्चे अर्थों मे विकास कहा जा सकता है और इसी को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है.. अधिक पढें भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक जीवन शैली पर आधारित, मानवता के उत्थान के लिये वैज्ञानिक दर्शन और उच्च आदर्शों के आधार पर पल्लवित भारतिय संस्कृति और उसकी विभिन्न धाराओं (शास्त्र,योग,आयुर्वेद,दर्शन) का अध्ययन करें.. अधिक पढें प्रज्ञा आभियान पाक्षिक समाज निर्माण एवम सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिये समर्पित - हिन्दी, गुजराती, मराठी एवम शिक्क्षा परिशिष्ट. पढे एवम डाऊनलोड करे           अंग्रेजी संस्करण प्रज्ञाअभियान पाक्षिक देव संस्कृति विश्वविद्यालय अखण्ड ज्योति पत्रिका ई-स्टोर दिया ग्रुप समग्र साहित्य - आनलाइन पढें आज का सद्चिन्तन वेब स्वाध्याय भारतिय संस्कृति ज्ञान परिक्षा अखिल विश्व गायत्री परिवार शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार (भारत) shantikunj@awgp.org +91-1334-260602 अन्तिम परिवर्तन : १५-०२-२०१३ Visitor No 25425 सर्वाधिकार सुरक्षित Download Webdoc(3421)

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