Saturday 24 June 2017

यस्क मुनि के अनुसार-

यस्क मुनि के अनुसार-
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।
वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।

अर्थात - व्यक्ति जन्मतः शूद्र है।
संस्कार से वह द्विज बन सकता है।
वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है।
ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण होता हैं।
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अब सवाल ये हैं कि
ये जो खुद को पंडितजी और ब्राह्मण कहलवाते फिर रहें हैं
ये लोग कौन हैं ?

न ये बुद्ध को अवतार मानते हैं , न कोई शास्त्र वचन मानते हैं
अब इनका क्या किया जाए ?

ये कहते हैं कि, हम ब्राह्मणों को बदनाम करते हैं
अरे भाईयों ! ये तो खुद ही ब्राह्मणों के नाम पे कलंक हैं

अब इस कलंक की, धुलाई तो करनी ही पड़ेगी
धुलाई बोले तो रामकाज  ;)  ;)  ;)

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ब्रह्मबीजसमुत्पन्नो मंत्रसंस्कारवर्जितः।
जातिमात्रोपजीवी च भवेद् अब्राह्मणस्तु सः।।98।।

अब्राह्मणास्तु षट्प्रोक्ताशातातपमहर्षिणा।
आद्यौ राजधृतस्तेषां द्वितीयो क्रयविक्रयी।।99।।

तृतीयो बहुयाज्यश्च चतुर्थो ग्रामयाजकः।
पंचमस्तु भृतस्तेषां ग्रामस्य नगरस्य च।।100।।

अनागतां तु यः संध्यां सादित्यां चैव पश्‍चिमाम्।
नोपासिता द्विजः संध्यां स षष्ठोsब्राह्मणः स्मृतः।।101।।

अर्थ- अब अब्राह्मण का लक्षण कहते हैं।
- अब जो जातिमात्र ब्राह्मण हैं, जिनके गर्भाधानादि संस्कार समंत्रक नहीं हुए हैं, उनको अब्राह्मण ही मानना। वे अब्राह्मण हैं। अर्थात् ब्राह्मण नहीं हैं। शातापत ऋषि ने छः प्रकार के अब्राह्मण कहे हैं-

१-राजसेवक,
२-क्रयविक्रयकर्ता,
३-द्रव्यलोभ से बहुत यज्ञ करने वाला,
४-सारे गांव का आचार्यत्व करने वाला,
५-उनका सेवक,
६-सायं प्रातः संध्या न करने वाला।

ये छः प्रकार के लोग ब्राह्मण नहीं हैं। पुस्तक अंश-

बृहज्ज्योतिषार्णवान्तर्गतषष्ठमिश्रस्कन्‍धोक्त षोडशाध्यायाख्य ब्राह्मणेत्पत्‍तिमार्तण्ड पृष्ठ १२ भाषा टीका डॉ. पं. चंद्र शेखर शास्‍त्री विद्यावाचस्पति पूर्वार्ध टीका पं. हरिकृष्‍ण शर्मा

पुनश्च - जन्मना जायते शूद्रः संस्काद्दिवजोच्चते।
वेदाभ्यासाद्भवेद्विप्रो ब्रह्मं जानाति ब्राह्मणः।।१३।।

उपरोक्त ग्रंथ...अर्थात् ब्राह्मण जन्म करके शूद्र सरीखा है, गर्भाधानादि संस्कार मंत्र करने से द्विजत्व को प्राप्त होता है। फिर केवल वेद का अभ्यास करने से विप्र होता है। वेद के गूढार्थ जानने र स्वकर्म करने से ब्राह्मण होता है।।

श्रीमद्भागवत में भी ऐसे ऐसे कहा गया है-

ब्राह्मणेष्वपि वेदज्ञो ह्यर्थज्ञोsभ्यधिकस्ततः।
अर्थज्ञः संशयच्छेता ततः श्रेयांश्च कर्मकृत्।।
हरिकृष्‍णः- कर्मणोत्तमतां यान्‍ति कर्महीनाः पतन्‍त्यधः।
अत्रापि मूल्यवाक्यानि संलिखामि श्रृणुष्व तत्।।
अथ कर्मभिरेव वर्णविभागे प्रमाणमाह- श्रीभागवतम्- आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इतीरितः। कृतकृत्या प्रजा जात्या तस्मात्कृतयुगं विदुः।। भारते शांतिपर्वणि- न विशेषोस्‍ति वर्णानां सर्वब्राह्मणमिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्।।

श्रीद्भागवत में कहा गया है कि स्वकर्म करने वाला सबसे श्रेष्ठ है। कर्म के प्राबल्य से क्षत्रियादिक ब्राह्मणता को पाते हैं और कर्म के त्यागने से ब्राह्मणादिक वर्ण क्षत्रियादि हीन वर्ण को पाते हैं। इसके ऊपर मूलवचन भी आगे लिखता हूं।-केवल कर्म से वर्ण का निश्चय करते हैं। पहले सर्व लोक एक ही जाति के थे, परन्तु फिर कर्मादिक के भेद से चार वर्णों में विभक्त हुए। जाति का वस्तुतः भेद नहीं है, यह सब जगत् ब्रह्ममय है। काय से ब्रह्म द्वारा प्रथम उत्पन्न हुआ और फिर कर्म के द्वारा जाति को प्राप्त हुआ।

शास्‍त्रों का वास्तविक मत है कि
जिसका गर्भाधान संस्कार मंत्रविधान से नहीं हुआ हो वह ब्राह्मण नहीं है...

वैसे भी जन्म शूद्रांग से होता है। इसलिए बिना संस्कार वाला शूद्र ही होगा। जन्म से आज ९९ प्रतिशत शूद्र ही पैदा हो रहे हैं। शूद्र तभी तक शूद्र है, जब तक वह ब्रह्मत्व की सभी कसौटियों पर पूर्ण न उतरा हो...

इस देश में सनातन संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास एक परंपरा हो गया है...और यह परंपरा अनवरत निभाई जा रही है...हम सब उसके लिए अपराधी हैं। क्यों कि हम सत्य को स्वीकारने के लिए लालायित नहीं हैं। हमारी संस्कृति पर अनेकों हमले हुए हैं, हमारीी सांस्कृतिक औश्र वैज्ञानिक ज्ञान के लिए विश्वयुद्ध हुए हैं, पुनरपि यह संस्कृति जीवित है और स्वरूप में है। ऐसे में हमें विज्ञानसम्मत ढ़ग से शास्‍त्रों का पुनर्लेखन करना चाहिए...क्योंकि खिलभाग इतना बढ़ चुका है कि लोग सही गलत में उलझ रहे हैं। अनेक संस्कृतियों के हमलों के क्षेपक हमारे शास्‍त्रों में घुसा दिए गए हैं, जो वास्तविकता से परे है।...

यदि केवल जाति मात्र से संबंध है तो निवेदन है कि
आप ब्राह्मणोत्पत्‍तिमार्तण्ड का अध्ययन करें, आपकी शंकाएं निर्मूल हो जाएंगी...

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क्या श्रीमद् भगवद्गीता और उस पर भग्वद्पादा शंकराचार्य ने लिखा भाष्य
जन्म से जाति व्यवस्था का समर्थन करते हे? (समय लेकर अवश्य पढ़े)

सनातन धर्म के कुछ स्वतः बन बेठे तथाकथित ठेकेदार श्रीमद् भगवद्गीता का आधार देकर और उसमें आचार्य शंकर द्वारा लिखित भाष्य का प्रमाण देकर जन्म से जाती व्यवस्था का समर्थन करते हे. आइये देखते हे उनकी शंका... और समाधान करने का प्रयास करते हे.

अतः हम देखेंगे की भगवद्गीता के कौन -कौन से श्लोक में वर्ण व्यवस्था का विषय प्रस्तुत किया गया हे. और जन्मगत जातिव्यवस्था के समर्थक किन-किन श्लोको का आधार देते हे. उस शंकाओ के साथ निराकरण करेंगे.

भगवद्गीता अध्याय १ श्लोक ४१- ४२- ४३ :-

शंका – प्रस्तुत "अधर्मा...वर्णसंकर (४१)" , "संकरो नरकायैव....लुप्तपिण्डोदकक्रिया (४२)" , "दौषेरेतै:...कुलधर्माश्च शाश्वता (४३)" इत्यादि श्लोको में कहा गया हे कि युद्ध इत्यादि क्रियाओ से कुल का नाश होने से कुलधर्म नष्ट होने पर कुल की स्त्रिया दूषित होती हे. और स्त्री के दूषित होने से कुल में वर्णसंकरता निर्माण होती हे. (शं०) किस प्रकार दूषित होती हे? (स०) युद्ध में पति की मृत्यु पर और स्वजनों की मृत्यु पर स्त्री द्वारा गणिका (देह व्यापार इत्यादि कार्यो में प्रवृत्ति) का व्यवसाय करने पर , अथवा विजयी पक्ष के सैनिको द्वारा स्त्री को दासी बनाकर उनके साथ शारीरिक सम्बन्ध से प्रजा उत्पन्न करने पर. इस प्रकार से स्त्री दूषित होने पर उनकी प्रजा वर्णसंकर होगी. आगे बतलाया गया हे की इस प्रकार की वर्णसंकरता कुल और पितृ आदि को नरकगामी करती हे. साथ ही आगे बतलाया गया हे वर्णसंकरता के उपर्युक्त दोषों से कुलघातियो के सनातन कुल धर्म और जाती धर्म नष्ट होते हे. अतः यहाँ जो ४३ वा श्लोक हे वह जन्म से जाती को प्रदर्शित करता हे इसी लिए तो उसमे स्त्रियों के दूषित होने के कारण और वर्णसंकरता के कारण सनातन कुल धर्म के नाश की बात की गयी हे.

समाधान – सबसे प्रथम यह देख लेवे की आचार्य शंकर ने सम्पूर्ण अध्याय १ पर कोई भाष्य नहीं लिखा, उन्होंने द्वितीय अध्याय के १० वे श्लोक से भाष्य प्रारंभ किया हे. अब बात करे इस शंका की...

अर्जुन की इस बातो को प्रमाण ही नहीं माना जा सकता क्युकी यदि उसको प्रमाण माने तो क्यों कर उसके निराकरण हेतु योगेश्वर कृष्ण को प्रस्तुत होना पड़ता? अर्जुन की यह बाते विषद, मिथ्यात्व और अज्ञान के दोष से उद्भवित होने के कारण दोषयुक्त हे. भगवद गीता के यह तीन श्लोक प्रथम अध्याय से लिए गए हे भगवद्गीता के प्रथम अध्याय को “अर्जुनविषादयोग” कहा गया हे. नाम पर से स्पष्ट हे की प्रथम अध्याय में केवल अर्जुन उवाच हे. भगवन कृष्ण अर्जुन को केवल सुनते हे. अब प्रस्तुत इन तीन श्लोक ४१-४२-४३ में जाती पर और वर्णसंकरता पर जो टिपण्णी हुई हे वह केवल अर्जुन द्वारा विषाद और अज्ञान के रूप में हुई हे जिसके समाधान के लिए भगवन कृष्ण भगवद्गीता रूपी अमृत धरा को प्रवाहित करने प्रवृत्त हुए.

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पार्ट --2

देखिये शंकराचार्य कृत भगवद्गीता उपोद्घात “स्वप्रयोजनाभावे अपि भुतानूजिध्रुक्षया वैदिकं हि धर्मद्वयम अर्जुनाय शोकमोह-महोदधौ” निमग्नाय उपदिदेश, गुणाधिके: हि गृहीतः अनुष्ठीयमानः च धर्मः प्रचयम् गमिष्यति इति (शंकर कृत भगवद्गीता उपोदघात)” अस्तु.

अब आगे की शंका देखते हे.

भगवद्गीता अध्याय ४ श्लोक १३ :-

शंका – प्रस्तुत श्लोक “चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणःकर्मविभागशः तस्य कर्तारपि मां विद्यकर्तारमव्ययम्” में भगवन कृष्ण ने स्वयं वर्णव्यवस्था का समर्थन किया हे.

समाधान – हमने कभी नहीं कहा की प्रस्तुत श्लोक में भगवन कृष्ण ने वर्णव्यवस्था का समर्थन नहीं किया. हम स्वयं वर्णव्यवस्था के समर्थक हे. लेकिन मुद्दा यह हे की वह वर्ण केसे निर्धारित हो? जन्म से वा कर्म से? यदि कहो जन्म से तो बड़ी हानि हो जायेगी... किस प्रकार मदिरा का सेवन कर रहे, मांस इत्यादि अभक्ष्य और विप्रो के लिए वर्जित भोज्य का भक्षण कर रहे और वेदादि शास्त्रों के अध्ययन से दूर रहे केवल जन्म मात्र से ब्राह्मण को ब्राह्मण माना जावे? इसका समाधान करने हेतु ही भगवन कृष्ण ने यह श्लोक प्रस्तुत किया हे.

और कहा हे....
“चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणःकर्मविभागशः” इसका अर्थ होता हे “चातुर्वर्ण्य “चत्वार एव वर्णाः – मया इश्वरेण सृष्टं उत्पादितम् , - ब्राह्मणोंऽस्य मुखमासीतइत्यादिश्रुते:” गुणकर्मविभागशो. कींवा? “गुणः विभागशः , कर्मविभागशः च गुणाः सत्वरजस्तमांसि (शांकरभाष्य)”

स्पष्ट हे की भगवान् शंकराचार्य ने कृष्ण की इस बात का समर्थन करते हुए सत्व रजः इत्यादि गुणः त्रय से और कर्म इत्यादि से वर्ण का समर्थन किया हे. यदि नहीं तो हमें पुर्वपक्षी प्रस्तुत श्लोक में से अथवा आचार्य श्रेष्ठ के भाष्य में से जन्म से वर्ण विभाग का समर्थन करते हुए वचन से अवगत करवाए.
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पार्ट -3

(शं०) सत्वादी गुणःत्रय क्यों कर सम्बंधित किये जाए? जन्म से व कर्म से?

(स.) सम्बंधित करने की क्या आवश्यकता हो पड़ी? स्वयं कृष्ण और आचार्य शंकर कह रहे हे की गुण और कर्म के आधार पर वर्ण न की जन्म के आधार पर गुण और कर्म. तो किस आधार पर जन्म के साथ गुण और कर्म को सम्बंधित करने का प्रयास हो रहा हे? जिसमे सत्व गुण प्रमुख हे और जिसके कर्म शाम, दया, करुना इत्यादि ब्राह्मण के अनुरूप हे वह इस श्लोक के आधार पर और “गुणः कर्म ... विभागशः” के प्रमाण पर ब्राहमण हुआ. अस्तु.

भगवद्गीता अध्याय १८ श्लोक ४७- ४८ :-

शंका – “स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषं” , “सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् , सर्वारम्भा ही दोषेण धुमेनाग्निरिवावृता:” इत्यादि श्लोक द्वारा भगवन कृष्ण ने स्वयं सहज कर्म/स्वभाव की बात कर जन्म से ही जाती निर्धारित की हे. अन्यथा किस आधार पर यहाँ “सहजं कर्म” कहा गया हे? और यहाँ सहज शब्द का क्या तात्पर्य हे? अब तो जन्म से जाती के विरोधी तुम बुरे फसे हो, क्युकी स्वयं शंकराचार्य ने इस बात को कुछ यु कहा हे...”सहजं – सह जन्मना एव उत्पन्नं सहजं किं तत् कर्म कौन्तेय सदोषं अपि त्रिगुणत्वाद् न त्यजेत् (शांकरभाष्य)” अब बताओ, क्या कृष्ण गलत हे वा शंकराचार्य? किस प्रकार तुम जन्म से जाती के विरोधी जो जन्म से ही सम्बंधित हे ऐसे सहज कर्म को जाती से जोड़ विभक्त करने का विरोध करते हो?

समाधान – इसमें कोई दोष नहीं हे. और ना हीं यह श्लोक और न ही आचार्य श्रेष्ठ का भाष्य ही जिस अर्थ का अर्थघटन तुम कर रहे हो उस अर्थ का समर्थन करते हे. तुम अपने बुद्धि के अहाव के कारण स्पष्ट बात को समझने में असमर्थ हो.

(शं०) किस प्रकार से तुम ऐसा कह रहे हो?

(स०) अब ध्यान से पढो. हम पूर्ण रूप से आचार्य श्रेष्ठ की इस बात का समर्थन करते हे की जो जन्म के साथ ही उत्पन्न हो उसका नाम सहज हे. और इस प्रकार के सहज कर्म किसी भी हेतु से त्याज्य नहीं हे. यदि वह दोषपूर्ण हो तो भी वह त्याज्य नहीं हे.

लेकिन जरा तुम बताओ की इस बात से क्या सिद्ध होता हे? यहाँ कोनसे स्थान पर एसा कहा गया हे की, शमः दमः इत्यादि ब्रह्मकर्म जो ब्राह्मण के लिए सहज हे और परिचर्या इत्यादि कर्म शुद्र के लिए सहज हे. वो कर्म केवल और केवल इस लिए सहज हे क्युकी वह सम्बंधित जाती से जन्म लिया हे. यहाँ न्याय का आधार लेते हे.... “पूर्व में सूर्य का उदय होता हे” और “जिस दिशा में सूर्य उदय होता हे वह पूर्व हे” यह दोनों में जो भेद हे वही भेद “जो जन्म से शुद्र हे उसी के सहज कर्म परिचर्या इत्यादि हे” और , “जिसके परिचर्या इत्यादि सहज कर्म हे वह शुद्र हे” इसमें हे. यदि तुम में मेघावी बुद्धि हे तो तुम इस बात को समझ पाओगे. आचार्य शंकर और श्री कृष्ण यह जो द्वितीय बात हे की “जिसके परिचर्या इत्यादि सहज कर्म हे वह शुद्र हे” इस बात का समर्थन करते हे न की “जिसके परिचर्या इत्यादि सहज कर्म हे वह शुद्र हे”
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पार्ट - 4

(शं०) यह तुम किस प्रकार से कह रहे हो? यह अप्रमाणिक हे. प्रमाण दे कर अपनी बात सिद्ध करो.

(स०) उचित हे. हम प्रत्याक्षादी प्रमाण की बात करे तो यदि यह बात सहज स्वभाव जन्म से ही सम्बंधित होती तो यह प्राकृतिक नियम के कारण इसमें अपवाद (और वह भी विपुल प्रमाण में) न देखने को मिलते. {जेसे की जन्म से ब्राह्मण का शुद्र आदि की तरह कर्म में लिप्त होना और जन्म से शुद्र आदि का ब्राह्मण की तरह कर्म में प्रवृत्त होना.} और यदि हम शब्द आदि प्रमाण की बात करे तो सामवेद से सम्बंधित “वज्रसुचिकोपनिषद” की “तर्हि जातिब्राह्मण इति ....(वज्र० ५.)” इत्यादि श्रुति प्रमाण हे.

और साथ ही उसी अध्याय के एक श्लोक जिसने तुम पूर्वपक्षियों ने शायद जान बुझकर उपेक्षित किया हे एसा ४१ वे श्लोक के भाष्य में स्वयं आचार्य श्रेष्ठ कहते हे “केन? , स्वभावप्रभवे: गुणे: स्वभाव ईश्वरस्य प्रकृतिः त्रिगुणात्मिका माया सा प्रभवो येषां गुणाना ते स्वभावप्रभवा: तै: , शमादीनी कर्माणि प्रविभक्तानी ब्राह्मणादिनाम” अर्थात – यह कर्म किसके द्वारा विभक्त किये गए हे? आचार्य कहते हे – स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के द्वारा, और स्वभाव क्या हे?

उत्तर – त्रिगुणात्मक माया , वह माया जिन गुण के उत्पत्ति का कारण हे, ऐसे स्वभाव प्रभव गुणों के द्वारा ब्राह्मण आदि के शम आदि कर्म विभक्त किये गए हे.

आगे शंकर स्वयं कहते हे... “अथवा ब्राह्मणस्वभावस्य सत्वःगुणः प्रभवः कारणाम(शंकरभाष्य)” अर्थात, ब्राह्मण के सहज स्वभाव का कारण सत्व गुण हे. (न की जन्म)

(शं०) ठीक हे. लेकिन यह भी बतादो की यह सत्व आदि गुण किस पर आधारित हे? क्या उसका सम्बन्ध जन्म से नहीं हे?”

(स०) निसंदेह जन्म हे. क्युकी आगे ही कहा गया हे “सह जन्मना एव उत्पन्न सहजं”

(शं०) अस्तु तो यह स्वतः सिद्ध हे की जो सत्व आदि गुण जन्म से सम्बंधित हे, और सहज कर्म अथवा ब्राह्मण इत्यादि स्वभाव गुण से , तो अप्रत्यक्ष ही सही , ब्राह्मण सहज स्वभाव जन्म से सम्बंधित हुआ. न की केवल कर्म से.
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पार्ट- 5

(स०) यह तुम अनर्गल बाते कर रहे हो. अथवा तो तुम तत्वज्ञान को समझने हेतु अधिकारी नहीं हो.

देखो, स्वयं आचार्य शंकर आगे कहते हे, “जन्मांतर कृत संस्कार: प्राणिनाम् वर्तमानजन्मनि स्वकार्याभिमुखत्वेन अभिव्यक्तः स्वभावः स प्रभवो येषां गुणानं ते स्वभावप्रभवा गुणाः(शांकरभाष्य)” यहाँ स्पष्ट हे की बात गुणों की चल रही हे, न की जन्म की. जो पूर्व जन्मो के द्वारा अधिष्ठित हुआ हे वह स्वभाव हे, न की जन्म.
और एक प्रमाण देखिये...

“शास्त्रेण अपि ब्राह्मणादिनां सत्वादीगुणविशेषापेक्षया एव शमादिनी कर्माणि प्रविभक्तानि न गुणानपेक्षया एव इति शास्त्रप्रविभक्तानि अपि कर्माणि गुण-प्रविभक्तानि इति उच्च्यन्ते(शांकरभाष्य)”

अर्थात० – स्वयं आचार्य शंकर कहते हे , शास्त्र द्वारा भी, ब्राह्मण आदि के शम आदि कर्म सत्व आदि गुण भेद की अपेक्षा से ही किये गए हे. अब यह ध्यान से पढना --- > “न गुणानपेक्षया एव“ अर्थात “बिना गुणों की अपेक्षा के नहीं”अतः शास्त्र द्वारा विभक्त किये हुए कर्म भी , गुणों के द्वारा ही विभक्त किये गए हे. (स्पष्ट हे केवल जन्म के द्वारा नहीं) अस्तु.

(आगे समय चलते ब्रह्मसूत्र के अपशुद्रधिकरण और उस पर शंकर-भाष्य का स्पष्टीकरण किया जाएगा)

भग्वद्पादा शंकराचार्य विजयते. सनातन धर्म विजयते.
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पार्ट- 6

वर्ण का निर्धारण केवल कर्म के आधार पर मानने से बहुत शास्त्रों में अनुपपत्ति आती है, अतः मैंने दोनों पक्षों को ही मान कर कर्मणा पक्ष के प्राबल्य पर जोर दिया है, इस सन्दर्भ में मेरा विचार यह है --- मेरे विचार से जन्म तथा गुणकर्म के आधार पर जाति का निर्धारण सर्वाधिक बलवान् माना जाता था, परन्तु जन्म की अपेक्षा गुणकर्म का आधार ही अधिक बलवान था, जन्म का आधार तो सबसे कमजोर होता था। “योऽनधीत्य द्विजो वेदानन्यत्र कुरुते श्रमम्। जीवन्नेव स शूद्रत्वं याति गच्छति सान्वयम्” इत्यादि अनेकों वाक्य इस बात में प्रमाण हैं।

मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई ब्राह्मण जन्म तथा गुणकर्म दोनों से ब्राह्मण है, तो वह सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण है। यदि जन्म उसका किसी अन्य वर्ण में हुआ हो, पर गुणकर्म से वह ब्राह्मण ही हो, तो उसको भी ब्राह्मण ही मान लिया जाता था, व्यास विश्वामित्र आदि इसके उदाहरण हैं। परन्तु जन्म का आधार सबसे कमजोर इसलिये मानता हूं कि यदि कोई ब्राह्मण जाति में उत्पन्न भी हुआ हो, पर गुणकर्म से ब्राह्मण न हो, तो उसे किसी ने भी ब्राह्मण स्वीकार नहीं किया है, उसके लिये तो ब्रह्मबन्धु जैसी गाली ही प्रचलित थी॥ ब्रह्मबन्धु अर्थात् जिसके सभी बन्धु-बान्धव ब्राह्मण हों, पर वह स्वयं ब्राह्मण न हो॥ क्या आजके ब्राह्मण ब्रह्मबन्धु कहलाने योग्य भी रह गये हैं क्या? शायद नहीं... क्योंकि उनके तो बन्धु तक भी तो ब्राह्मण (वेदज्ञ) न रहे...

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पार्ट- 7

कर्मणा पक्ष का प्राबल्य निर्विवाद है। अर्थात् यदि वह कर्मणा ब्राह्मण नहीं, तो फिर केवल जात्या उसके ब्राह्मणत्व को सिद्ध किया नहीं जा सकता।

दूसरे तरीके से इस बात को इस प्रकार कहा जा सकता है कि ब्राह्मणबालक वर्णविहीन ही उत्पन्न होता है, वह केवल उपनयन (जो वेदाध्ययन की भूमिका है) के उपरान्त ही वास्तव में ब्राह्मण बनता है। आज के तथाकथित जन्मना ब्राह्मण इस उपनयन तक से रहित होने के कारण ब्राह्मण कहलाने योग्य नहीं। और उपनयन की परिसमाप्ति वेदाध्ययन में है, अतः जब तक वेदाध्ययन न हुआ हो और धर्म के गम्भीर तत्त्व को न समझा हो, तब तक ब्राह्मणकुल में उत्पन्न होने पर भी ब्राह्मणत्व नहीं आता.... सो कुल मिला कर मैं वही बात कह रही हूं जो आप कह रहे हैं, फिर भी मैं जात्या वर्णनिर्धारण पक्ष का पूर्ण निराकरण नहीं कर रहा, केवल उसे गौण मान रही हूं। यही रीति महाभारत आदि शास्त्रों में दिखती है। धर्मव्याध आदि के प्रसङ्ग में तथा नहुष के साथ संवाद के प्रसङ्ग में महाराज युधिष्ठिर ने इन सब पक्षों का विस्तृत विचार किया है, दुर्भाग्य यह है आज का कि कभी घर घर पढ़ा जाने वाला महाभारत आज बड़े बड़े विद्वान भी नहीं पढ़ पाते.... धर्म के गहन गम्भीर तत्त्वों का जैसा अद्भुत समसामयिक उदात्त तथा संकीर्ण विचारधारा से सर्वथा रहित हो कर वर्णन महाभारत में है, वैसा वर्णन शायद इस भारत के अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं.... न भूलें कि गीता उसी का सारमात्र है, पर कई बार किसी विवाद का निर्धारण सारमात्र को देखने से नहीं हो पाता, उसके लिये मूल ग्रन्थ में जाना ही पड़ता है
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पार्ट- 8

शंका-- जाति का मूल आधार जन्मना ही होता है ! नीबू,आम,नीम की जाति जैसे जन्मना िसद्ध है

समाधान--
यहां जाति की नहीं, वर्ण की चर्चा चल रही है.... पर यदि जाति से आपका तात्पर्य वर्ण ही है, तो केवल जन्म को ही आधार मानने पर इन वाक्यों को कैसे बैठायेंगे -

शूद्रयोनौ हि जातस्य सद्गुणानुपतिष्ठतः।
वैश्यत्वं लभते ब्रह्मन् क्षत्रियत्वं तथैव च॥
आर्जवे वर्तमानस्य ब्राह्मण्यमभिजायते॥म०भा० २१२.११,१२॥

फिर स्कन्दपुराण में भी कहते हैं -

'जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते॥' (स्कन्द० ६.२३९.३१)

........ क्या आप शुक्ला शू स्टोर खोले बैठे शु्क्ला बन्धुओं को भी ब्राह्मण ही मानते रहेगे?

नींबू आदि की तरह तो हमारी केवल एक जाति निर्विवाद सिद्ध होती है - मनुष्य जाति.... बाकी किसी जाति की सिद्धि नींबू आम नीम के उदाहरण से करना कठिन लग रहा है

अन्त में मैं यह कह कर अपने विचारों को समेटती हूं कि बृहदारण्यक भाष्य के कुछ विचारों के आधार पर कुछ विद्वानों ने भगवान् शंकराचार्य को जन्मना वर्णनिर्धारण पक्ष का अधिक प्रबल समर्थक माना है, जबकि उनके भाष्य पर वार्तिक लिखने वाले भगवान् सुरेश्वराचार्य को कर्मणा वर्णनिर्धारण का अधिक प्रबल समर्थक माना है.... मुझे ध्यान नहीं आ रहा है कि कौन से मन्त्र के भाष्य व वार्तिक के आधार पर उन विद्वानों ने यह बात कही है,

संभवतः "ब्राह्मणः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति" (३.५.१)

इस वाक्य के आधार पर जन्मना ब्राह्मण को संन्यास देना या कर्मणा ब्राह्मण को संन्यास देना, इस बात को ले कर कुछ विचार है। दोनों आचार्यों का मतभेद इस सन्दर्भ में विचारणीय है तथा दोनों आचार्य शिष्टपरिगृहीत होने के कारण दोनों ही आचार्यों का मत हम स्वीकार करें, तो कोई दोष नहीं। इसीलिये मैंने दोनों पक्षों का समन्वय पक्ष ऊपर प्रस्तुत किया है। पर आप क्षमा करें, इस समय घर से बाहर होने के कारण ग्रन्थ समीप न होने से मैं कुछ निश्चित नहीं कह पा रही हूं। यदि आपके पास हो, तो कृपया इस प्रसङ्ग को देख कर उस पर भी अपना कुछ मन्थन प्रस्तुत करें। धन्यवाद
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पार्ट- 9

"परिचर्यात्मकं कर्म शुद्र्स्यापि स्वभावजम" आचार्य श्रेष्ठ ने इसको स्पष्ट करते हुए कहा हे "शुश्रूषा स्वभाव कर्मं" अब संस्कृत ठीक से न जानने वाले लोग न ही परिचर्या का अर्थ ठीक से समझ पाए और न ही शुश्रूषा का. और शुद्र को हीन् समझ बेठे...

इंजिनियर्स, टेक्नोक्रेट, यहाँ तक की आज के डोक्टर क्या परिचर्यात्मक कर्म नहीं कर रहे? यह सभी शुद्र ही हे.. शुचा द्रवति शूद्रः... जिससे समाज का दुःख देखा नहीं जाता और आवश्यकता की पूर्ति के लिए जो तत्पर हे वह शुद्र हे... वह हीन् केसे हुए?

पैरो का कार्य होता हे शरीर को चलाना , शरीर को संभालना... समाज रूपी ब्रह्म के पैर शुद्र ही हे. यही तो पुरुष सूक्त की घोषणा हे.... :)   शरीर का कोई अंग हीन हो सकता हे क्या? जो लोग पुरुष सूक्त के उस मन्त्र के आधार पर शुद्र को पैर का प्रतिक दिए जाने से उनको हीन् समझते हे... वह अपने पैरो को पहले काट देवे...

शुक्लयजुर्वेद की ऋचा (मन्त्र)
ब्राह्मणोंस्य: मुखमासीद् बाहु राजन्या कृता उरूतदस्य जदवैश्य पद्भ्यां ङ्व शुद्रो अजायता || .
भावार्थ – ब्राह्मण समाज का मुख अर्थात पथ प्रदर्शक है , क्षत्रिय भुजा अथार्थ बल है , वैश्य उदर अर्थात उदरपूर्ति का साधन है एवं शूद्र पैर अर्थात समाज की सेवा मात्र का साधन हैं | .

यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है की ब्राह्मण , क्षत्रिय ,वैश्य एवं शूद्र कोई भी व्यक्ति जन्म से नही होता |
सभी अपने कर्मों के अनुसार इन चारों में समाहित होते हैं ,
स्पष्ट भी किया गया है कि - “जन्मनो जायते शूद्र” अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं चाहे वो ब्राह्मण कुल में ही क्यों ना पैदा हुआ हो | कर्म के अनुसार ही सब समाज को विभाजित करते हैं |
समाज को सुचारू रूप से चलाने की यह एक निश्चित प्रक्रिया है
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.... जो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हो कर भी वेदज्ञान से विहीन हो, वह अपने चरित्र को ही संभाल ले तो महान आश्चर्य होगा, विश्व को क्या उपदेश करेगा.... दिल्ली बलात्कार काण्ड के अपराधी विनय शर्मा को ही ले ली

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