Tuesday 20 June 2017

पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ4

  प्रारम्भ में साहित्य हमारे प्रयास मल्टीमीडिया प्रारम्भ में > साहित्य > पुस्तकें > गायत्री और यज्ञ > पंचकोशी साधना > अन्नमय कोश और उसकी साधना पृष्ट संख्या: 1234 पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ बहिमौंन और अन्तमौंन प्रख्यात मौन वह जिसमें वाणी से बोलना बन्द कर दिया जाता है। आवश्यकता होने पर इशारों से या लिख कर अपना अभिप्राय प्रकट कर देते हैं। यह मौन साधना उनके लिए अच्छा है जिन्हें बहुत बोलने की शेखीखोरी की, गप्पबाजी करने निन्दा चुगली किये बिना चैन न पड़ने की आदत है। कई लोग पैरों को हिलाने, हाथों को मरोड़ते, बिना खुजली के खुजलाते रहते हैं। कुछ न कुछ किये बिना चैन नहीं पड़ता। इन अनावश्यक हरकतों से शरीर की इन्द्रियों की सामर्थ्य क्षीण होती है। अनावश्यक रूप से हुए अपव्यय से खजाने खाली हो जाते हैं। फिर अंगों की क्षमता को अकारण नष्ट करने की आदत का तो बुरा प्रभाव होना ही चाहिए। इस कुटेव को छुड़ाने के लिए मौन साधना का महत्त्व है। विशेषतया जिह्वा का अवरोध तो इसलिए करना पड़ता है कि असत्य या अनावश्यक वचन न निकालने का अभ्यास हो जाय और वह भी उस स्तर तक पहुँच जाय कि किसी से कहे हुए वचन अपना प्रभाव छोड़ने लगें। उसे सत्परामर्श देकर उपयोगी मार्ग पर चला सकें। वक्तृता में इतनी क्षमता उत्पन्न हो जाय कि उसका प्रभाव आशाजनक पड़ने लगे। वह वाणी किस काम की, जिसका कथन कतरनी की तरह चलता रहे। वस्तुत: जो कुछ कहा जाय, वह शब्द वेधी वाण की तरह काम में आ सके, ऐसी वाणी हो। विश्राम पाने के उपरान्त कई शक्ति अर्जित होने की बात सर्वाविदित है। थकान दूर करने हृदयाघात रक्तचाप आदि में डाक्टर अधिक समय विश्राम करने की बात कहते हैं। अत: जिह्वा को भी कुछ समय के लिए विश्राम दिया जाय तो उसकी कुटवें छुटती हैं और विश्राम के उपरान्त नये सिरे से कार्यरत होने पर उसे आवश्यक नया प्रशिक्षण भी आसानी से दिया जा सकता है। पूजा प्रार्थना मन्त्रोचारण जप आदि जिह्वा के सहारे ही बन पड़ते हैं। यदि जिह्वा पवित्र न हो तो उससे मन्त्र शक्ति उत्पन्न नहीं होती न उसकी पुकार देवलोक तक पहुँचती है। शाप, वरदान देने जैसी क्षमता भी उत्पन्न नहीं होती। इसलिए शरीर स्नान करने से भी प्रथम मुख मार्जन करना पड़ता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों का शुभारम्भ आचमन से किया जाता है। कारण कि जिह्वा को पवित्र करने के उपरान्त ही दिव्य प्रयोजनों का बन पड़ना सम्भव होता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसी की प्रमुखता है। जो सवेरे स्नान नहीं कर सकते वे भी उठते ही कुल्ला तो करते हैं। जितनी बार भोजन किया जाता है उतनी बार भोजन के अन्त में कुल्ला करने आचमन करने की प्रथा है। शरीर के समस्त अंगों की तुलना में शुद्धिकरण का ध्यान मुख क्षेत्र में अधिकाधिक रखा जाता है। इससे पाचन तन्त्र की समूची नलिकाएँ प्रभावित होती है। कितने ही व्यक्ति सवेरे उठकर एक गिलास पानी पीते हैं, इससे जिह्वा सहित पाचन तन्त्र की शुद्धता होती है और उष्णता उत्तेजना दूर होकर शान्ति का वातावरण बनता है। अच्छा हो मौन साधने के अवसर पर आहार शुद्धि का भी ध्यान रखा जाय। जिह्वा को ज्ञानेन्द्रिय और कमेंन्द्रिय दोनों ही माना गया है। भोजन प्रयोजन में वह कमेंन्द्रिय रहती है और वार्त्तालाप में ज्ञानेन्द्रिय बन जाती हैं। उसकी द्विधा प्रक्रियाओं का परिशोधन करने के लिए आहार शुद्धि का ध्यान रखना भी नितान्त आवश्यक है। उपवास में दूध-छाछ, रस, रसादि का प्रयोग किया जाय। इतना न बन पड़े तो शाकाहार, फलाहार का अवलम्बन लिया जा सकता है। अन्यथा अस्वाद व्रत तो निभाना ही चाहिए। शक्कर और नमक, मसाले छोड़ देने भर से अस्वाद व्रत निभ जाता है। जिह्वा शुद्धि के लिए पानी में नीबू डालकर उसके कुल्ले प्रात: मध्याह्म सायंकाल तो करने ही चाहिए। यह बहिमौंन की विधा हुई। इसके अतिरिक्त अन्तमौंन अध्यात्म प्रयोजनों के लिए आवश्यक है। वहिमौंन केवल ब्राह्य जीवन को प्रभावित करता है। इसीलिए उसे अपूर्ण माना गया है। अन्तर्जीवन और बहिर्जीवन दोनों पक्षों को मिलाकर एक पूर्ण जीवन बनता है। दोनों को मिला देने पर ही समग्रता आती है। जिस प्रकार बहिर्जीवन में हाथ-पैर इन्द्रियाँ और धड़ संस्थान के भीतरी अवयव काम करते हैं। उसी प्रकार अन्तरंग जीवन में विचार संस्थान की घुड़दौड़ चलती है। कल्पना, विचारणा, इच्छा आदि के चित्र, विचित्र उफान उठते रहते हैं। कामनाएँ और कल्पनाएँ दोनों ही परस्पर प्रतिस्पर्धा ठाने रहती हैं। इस धमा-चौकड़ी में न चित्त स्थिर हो पाता है और न ध्यान धारण का क्रम बनता है। उच्च विचारों को प्रवेश करने की भी उसमें गुजांइश नहीं रहती। न अध्यवसाय के लिए कम बनता है न निदिध्यासन के लिए। ऐसी दशा में भगवत भक्ति का सुयोग बने ही कैसे ? ब्रह्यरन्ध्र और सहस्रार कमल का जागरण भी इस स्थिति में सम्भव नहीं और न कुण्डलिनी जागरण, षटचक्र बेधन, पंचकोशें का उत्थान जैसी महती साधना के लिए मार्ग ही बनता है। मेले-ठेले की घिच-पिच में रास्ता चलना तक दूभर हो जाता है। एक दूसरे को धकेलते हुए ही आगे बढ़ते हैं। उस माहौल में कहीं शान्त चित्त बैठना जैसा कृत्य तो बन ही नहीं पड़ता। इसलिए यह भी आवश्यक है कि अन्तर्मौंन का अभ्यास किया जाय। जिस प्रकार जीभ से हर समय बोलते और खाते रहने से वह चंचल लोलुप और अस्त व्यस्त होती है उसी प्रकार मन:क्षेत्र में अनेक प्रकार की विचारणाएँ उठते रहने पर भी यही होता है। अध्यात्म क्षेत्र की समस्त धाराएँ विलीन करके एक केन्द्र पर ध्यान एकत्रित करना पड़ता है। इस स्थिति को निर्विचार कहते हैं। कहा जाता है कि मस्तिष्क को निर्विचार करना चाहिए। तब अन्तमौंन बनता है। पर यह कहने में जितना सरल है उतना करने में नहीं। यह समाधिवस्था है जिसमें कोई भी विचार मन में नहीं रहता। तब भी हृदयस्थ आत्मज्योति में अथवा ब्रह्माण्ड मध्य ब्रह्यरन्ध्र के लिए करना पड़ता है। अन्यथा खुली छूट रहने पर तो वह एक स्थान पर टिकेगा नहीं। यदि रामायण पढ़ी जाय तो उसका कथानक कभी कहीं से, कभी कहीं से याद आता रहेगा। उस समय की परिस्थिति अथवा कथोपकथन मस्तिष्क में घूमता रहेगा। यही बात स्रोत पाठ आदि के सम्बन्ध में भी है। इसमें इष्टदेव की जैसी आकृति-प्रवृति है वह भी मस्तिष्क में घूमती रहेगी विचार चाहे देवताओं के हों या अवतारों के हों, इतिहास के हों और अपना सुझाव विचार मन में आते ही रहेगें। तब विचारहीन स्थिति बन नहीं पड़ेगी और अन्तमौंन सधेगा नहीं। इसलिए अपने आपको महाप्रलय की स्थिति में शिव ताण्डव करते हुए अथवा आकाश में सूर्यव्रत् एकाकी चमकते रहने का ध्यान करना चाहिए और साथ ही यह धारण भी करनी चाहिए कि महाप्रलय की स्थिति में संसार में कहीं कोई प्राणी या पदार्थ नहीं है। सर्वत्र महाशून्य की निस्तब्धता छाई हुई है जब कोई पदार्थ कहीं है ही नहीं यह मान्यता बनी तो फिर मन को आश्रय लेने का कोई क्षेत्र सीमित नहीं रह जाता। तब वह एकाकी स्थिति में अपने आपमें ही लय होता है। तब सूर्य का प्रकाश, शिव ताण्डव, इसके लिए उपयुक्त आधार बनते हैं। यह बात आत्म-ज्योति से ब्रह्म रन्ध्र में अपने आपको लय करने से भी बनती है। पर अपनी काया का विस्मरण करना पड़ता है। साथ ही शरीर और मस्तिष्क के कलेवर को विस्मरण कर देना चाहिए। यदि काया का स्मरण बना रहा तो मन को उस अयवयों के विखरने की आशंका रहेगी। इस प्रकार वाणी का संयम करने के लिए हर साधक को वास और अंतमौंन की तप साधना कुछ घंटे की नित्यप्रति करनी चाहिए। आत्मबल संवर्धन की यह सर्वश्रेष्ठ साधना है। (१२) अर्जन तप विद्याध्ययन, शिल्प-शिक्षा, देशाटन, मल्लविद्या, संगीत आदि किसी भी प्रकार की उत्पादक, उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके अपनी शक्ति, योग्यता, क्षमता, क्रियाशीलता, उपयोगिता बढ़ाना अर्जन तप है। विद्यार्थी को कष्ट उठाना पड़ता है, जिस प्रकार मन मारना पड़ता है और सुविधाएँ छोड़कर कठिनाई से भरा कार्यक्रम अपनाना पड़ता है, वह तप का लक्षण है केवल बचपन में ही नहीं, वृद्धावस्था और मृत्यु पर्यन्त किसी न किसी रूप में सदैव अर्जन तप करते रहने का प्रयत्न रहना चाहिए। साल में थोड़ा सा समय तो अवश्य ही इस तपस्या में लगाना चाहिये, जिससे अपनी तपस्याएँ बढ़ती चलें और उनके द्वारा अधिक लोक-सेवा करना सम्भव हो सके। सूर्य की बारह राशियाँ होती हैं। गायत्री के यह बारह तप हैं। इनमें से जो तप, जब, जिस प्रकार सम्भव हो अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार अपनाते रहना चाहिये। ऐसा भी हो सकता है कि वर्ष के बारह महीने में एक-एक महीना एक-एक तप करके एक वर्ष पूरा तप-वर्ष बिताया जाय। सातवें निष्कासन तप में एक दो बार विश्वस्त मित्रों के सामने प्रकटीकरण हो सकता है। नित्य तो अपनी डायरी में एक माँस तक अपनी बुराइयाँ लिखते रहना चाहिए और उन्हें पथ-प्रदर्शक को दिखाना चाहिए। यह क्रम अधिक दिन लागू रखा जाय तो और भी उत्तम है। महात्मा गाँधी सावरमती आश्रम में अपने आश्रमवासियो की डायरी बड़े गौर से जाँचा करते थे। अन्य तपों में प्रत्येक को प्रयोग करने के लिये अनेकों रीतियाँ हो सकती हैं। उन्हें थोड़ी- थोड़ी अवधि के लिये निर्धारित करके अपना अभ्यास और साहस बढ़ाना चाहिए। आरम्भ में थोड़ा और सरल तप अपनाने से पीछे दीर्घकाल तक और कठिन कष्टसाध्य साधन करना भी सुलभ हो जाता है | पृष्ट संख्या: 1234  gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp   अन्नमय कोश और उसका अनावरण अन्नमय कोश की जाग्रति, आहार शुद्धि से आहार के त्रिविध स्तर, त्रिविध प्रयोजन आहार, संयम और अन्नमय कोश का जागरण आहार विहार से जुड़ा है मन आहार और उसकी शुद्धि आहार शुद्धौः सत्व शुद्धौः अन्नमय कोश की सरल साधना पद्धति उपवास का आध्यात्मिक महत्त्व उपवास से सूक्ष्म शक्ति की अभिवृद्धि उपवास से उपत्यिकाओं का शोधन उपवास के प्रकार उच्चस्तरीय गायत्री साधना और आसन आसनों का काय विद्युत शक्ति पर अद्भुत प्रभाव आसनों के प्रकार सूर्य नमस्कार की विधि पंच तत्वों की साधना तत्व साधना एक महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म विज्ञान तत्व शुद्धि तपश्चर्या से आत्मबल की उपलब्धि आत्मबल तपश्चर्या से ही मिलता है तपस्या का प्रचण्ड प्रताप तप साधना द्वारा दिव्य शक्तियों का उद्भव ईश्वर का अनुग्रह तपस्वी के लिए पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ समग्र साहित्य हिन्दी व अंग्रेजी की पुस्तकें व्यक्तित्व विकास ,योग,स्वास्थ्य, आध्यात्मिक विकास आदि विषय मे युगदृष्टा, वेदमुर्ति,तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ३००० से भी अधिक सृजन किया, वेदों का भाष्य किया। अधिक जानकारी अखण्डज्योति पत्रिका १९४० - २०११ अखण्डज्योति हिन्दी, अंग्रेजी ,मरठी भाषा में, युगशक्ति गुजराती में उपलब्ध है अधिक जानकारी AWGP-स्टोर :- आनलाइन सेवा साहित्य, पत्रिकायें, आडियो-विडियो प्रवचन, गीत प्राप्त करें आनलाईन प्राप्त करें  वैज्ञानिक अध्यात्मवाद विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान की दो धारायें हैं जिनका समन्वय आवश्यक हो गया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हि सच्चे अर्थों मे विकास कहा जा सकता है और इसी को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है.. अधिक पढें भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक जीवन शैली पर आधारित, मानवता के उत्थान के लिये वैज्ञानिक दर्शन और उच्च आदर्शों के आधार पर पल्लवित भारतिय संस्कृति और उसकी विभिन्न धाराओं (शास्त्र,योग,आयुर्वेद,दर्शन) का अध्ययन करें.. अधिक पढें प्रज्ञा आभियान पाक्षिक समाज निर्माण एवम सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिये समर्पित - हिन्दी, गुजराती, मराठी एवम शिक्क्षा परिशिष्ट. पढे एवम डाऊनलोड करे           अंग्रेजी संस्करण प्रज्ञाअभियान पाक्षिक देव संस्कृति विश्वविद्यालय अखण्ड ज्योति पत्रिका ई-स्टोर दिया ग्रुप समग्र साहित्य - आनलाइन पढें आज का सद्चिन्तन वेब स्वाध्याय भारतिय संस्कृति ज्ञान परिक्षा अखिल विश्व गायत्री परिवार शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार (भारत) shantikunj@awgp.org +91-1334-260602 अन्तिम परिवर्तन : १५-०२-२०१३ Visitor No 25425 सर्वाधिकार सुरक्षित Download Webdoc(3421)

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