Monday 12 June 2017

Brahm Gyan

Dr. Kiran Tripathi Astrologer Palmist Healer Author Home Gallery Books Meditation Contact  Methods of Meditation Methods of Meditation दीक्षा की गोपनीयता ध्यान की विधियाँ सहज योग साधना All Pages ध्यान की कुछ सरल विधियाँ : Excerpt from the book "Brahm Gyan" ध्यान  अपने अनुभव से उन कुछ विधियों की चर्चा करने जा रही हूँ जिन विधियों से गुजर कर मैंने आत्म साक्षात्कार का प्रयास किया है। ध्यान की विधियाँ चाहे जो हो अथवा चाहे जिस धर्म या परम्परा की हों। विधियाँ विधियाँ हैं। मैंने समर्पण भाव से इन्हें अपनाया है। इसी की चर्चा अत्यंत सरल शब्दों में करुँगी ताकि इक्छुक साधक स्वयं घर में ही कुछ साधना कर कम से कम मानसिक शांति प्राप्त कर सकें। जिसकी आज नितांत आवश्यकता है। आज के युग में ध्यान ही एक मात्र ऎसी जादुई छड़ी है जो सम्पूर्ण विश्व की हिंसात्मक वृति को रोक सकता है। हिंसा ! यह हिंसा क्यों है ? हिंसा ! मात्र 'चाहना' और अधिक 'चाहना' का प्रतिफल है। फ्रशटेशन की भूमि में उपजी फसल है हिंसा। 'चाहना' जितनी बढ़ेगी - स्पर्धा उतनी बढ़ेगी - भौतिक आविष्कार जितने होंगे उतना ही होगा असन्तोष। जितना होगा असन्तोष उतनी बढ़ेगी हिंसा। " अपराध " का आरंभ विवशता से होता है और फिर अपराधी बने रहने की विवशता हो जाती है। " यदि एक आविष्कार हृदय की भूमि से हो तो अन्य सभी वैज्ञानिक आविष्कार फीके पड़ जायेंगे। यदि इस हिंसात्मक उर्जा की धारा को ध्यान साधना की दिशा में मोड़ दिया जाये तब निश्चय की एक अध्यात्मिक क्रांति आएगी। सर्वत्र भाई-चारा होगा। वैसे यह कल्पना करना कि असन्तोष तो सृष्टि की प्रक्रिया में है; असन्तोष अज्ञान से है और अज्ञान माया से। माया के बिना तो ब्रह्मा की पहचान ही न होगी। बिना मृत्यु के जीवन नहीं और बिना रात के दिन नहीं हो सकता है। बिना अंधकार के प्रकाश का अस्तित्व कैसे ठहर पायेगा ? मेरा तात्पर्य यह है कि तामसिक वृतियाँ कम होनी चाहिए। ऎसी वृतियों पर ध्यान-साधना से अंकुश लगाया जा सकता है। यदि इस दिशा में शीघ्र ही समुचित कदम नहीं उठे तब संसार में हथियारों की होड़ और हिंसात्मक वृतियों में बेतहाशा वृद्धि होती जायगी। मानवीय संवेदना आज हासिये पर है कल समाप्त हो जायगी। ऐसी परिस्थिति में हमारा आपका दायित्व बनता है कि ध्यान साधना का प्रचार प्रसार बढ़े, अधिक से अधिक लोगों का झुकाव इस ओर हो। यदि एक साधक किसी एक का भी झुकाव इस ओर कर पाये- किसी एक हदय की भावना को शुद्ध कर पाए एक धड़कन भी संवेदना से स्पन्दित करा पाये तो इसकी श्रृंखला बनती चली जायगी। एक बात ध्यान रखने की है। अनुकरण से साधना पूर्ण नहीं होगी। अनुकरण पर वर्ष दो वर्ष तक कोई टीक सकता है। इससे अधिक नहीं। अध्यात्म का उदय हदय से होगा तब साधना समग्र रूप से होगी। दुख से घबरा कर दो चार दिन की साधना से कोई साधक नहीं बन सकता है- वह तो याचक होगा। कर्त्तव्यों से विमुख होकर गुफा कन्दरा में जा कर ध्यान साधना करना भी सच्ची साधना नहीं होगी। वह भ्रामक होगा यदि भ्रामक न भी हो तो भी वह किसी काम की नहीं होगी। वह संसार का नहीं अपना भला करेगा। अकेले का उत्थान करेगा इस संसार की हलचल में रहकर अपने आस-पास के दायित्वों को निर्वाहते हुए प्रेम और सहज भाव से जो साधना करे वही कल्याणकारक है। ध्यान में तर्क का कोई स्थान नहीं - बुद्धि और डिग्री की कोई आवश्यकता नहीं। बुद्धि से मतवाद खड़ा होगा श्रद्धा और विशवास नहीं पनपेगा। साधना के लिए दो ही शर्तें आवश्यक है प्रेम और समर्पण। जहाँ प्रेम होगा वहाँ समर्पण स्वमेव हो जायगा। कोई विधि कैसे बनी ? किसने बनाई ? किस परम्परा की है - से हमारा कोई लेना देना नहीं है। एक रोगी को दवा के इतिहास से कोई लेना-देना नहीं होता है। रोगी के लिए उचित दवा की उपलब्धता और दवा खाने का महत्व होता है। इसलिए तंत्र विज्ञान की विधि हो या बौद्धों की या हिन्दु परम्परा की, विधि तो विधि है। मैंने इन अनेकों विधियों से गुजर कर उनके सार रूप को लेकर ध्यान की एक पद्धति का खोज किया है जिसके सहारे गृहस्थ जीवन में रह कर ब्रह्म साक्षात्कार किया जा सकता है। यह विधि अत्यन्त सरल है अत: हमने इसे 'सहज-योग साधना' कहा है। उस परमतत्व से जुड़ने की सहज प्रक्रिया का नाम "सहज-योग साधना' है। जीव का शरीर संसार का सबसे बड़ा कारखाना है। शरीर के अन्दर दिन-रात मशीनें चलती रहती हैं और हन मशीनों तक पहुँचने का सहज माध्यम है श्वांस। श्वांस एक ऐसी वस्तु है जो सदा सर्वदा साथ रहती है। श्वांस नहीं तो तुम नहीं। श्वांस के लिए न तो कुछ खर्च करना पड़ता है और न कोई प्रयास ही। और न ही कभी भूल से कहीं छूट सकता है। श्वांस एक सरल, सुलभ और उत्कृष्ट माध्यम है ध्यान का। कभी तुमने महसूस किया कि हम लगातार श्वांस नहीं लेते है बल्कि श्वांस अन्दर जाती है तब और जब श्वांस बाहर जाती है तब भी श्वांस क्षण भर को रूक जाती है। यह दो श्वांसों का अन्तराल होता है। श्वांस के प्रति निरन्तर सजग रहते हुए दो श्वासों में अन्तराल उपलब्ध हो जाता है। और सहजता से एक दिन महाघटना घट जाती है, जिसके विषय में तुमने सुना भर है। इस युग में जब न तो गुफा कन्दरा सुरक्षित है और न किसी के पास अलग से अधिक समय ही है। इस सहज योग साधना को अपना कर अपना और दूसरों का भी कल्याण करना चाहिए। तुमने महसूस किया होगा कि जब भी कुछ असामान्य परिस्थिति आती है तब तुम्हारी श्वासों की गति में परिवर्तन आ जाता है। वस्तुत: श्वासों को व्यवस्थित करने की यह सहज प्रक्रिया है। इस विधि की चर्चा तंत्र विज्ञान में है। लोग इसे बौद्धों की विधि मानते है। लेकिन गौतम इसी विधि से बुद्ध हुए। अर्थात् यह विधि बुद्ध से भी पहले की है। यह मात्र बौद्धों की कैसे हुई ? भैरवतंत्र की इसी विधि को आज बौद्ध धर्म में अनापाना सति योग और विपश्यना कहा जाता है वास्तव में जितने उच्च कोटि के ध्यानी हुए उन्होंने श्वासों को ही ध्यान का माध्यम बनाया। विधियाँ अति नैतिक होती है। अर्थात् सबकी होती हैं। जैसे औषधि का धर्म अति नैतिक है। वह सब पर समान असर डालेगा चाहे औषधि जिस धर्म या जाति ने बनाई हो और चाहे जिस धर्म या जाति का व्यक्ति उसका सेवन करे। इसलिए विधियों पर बिना तर्क चल देना है। यह औषधि है। जिसकी आवश्यकता आज नितान्त रूप से सबको है। दीक्षा की गोपनीयता -- दीक्षा का महत्व भी अपने स्थान पर है। बिना दीक्षा के भी ध्यान के मार्ग पर उतरा जा सकता है। लेकिन दीक्षा लेने से साधना में गुणात्मक वृद्धि हो जाती है। जैसे किसी भी भूमि पर कोई भी बीज उग सकता है। लेकिन यदि बीज के अनुसार भूमि का चुनाव करके यदि कोई कृषक विधिवत बीज बोता है तब फसल अच्छी उगती है। उसी प्रकार एक योग्य गुरू इच्छुक साधक के अनुरूप ध्यान साधना का चुनाव करता है। इच्छुक व्यक्ति की ग्रहण शक्ति, बौद्धिक स्तर सजगता, लगन और उसकी व्यस्तता देखते हुए उसके पूर्व जन्म के संस्कार उसके अन्दर की चेतना और आभामण्डल के अनुसार प्रक्रिया को उसके अनुरूप ढाल कर नियमत: और धीरे-धीरे तप की भूमि में प्रवेशा कराता है। गुरू के लिए नियम से अधिक साधक महत्त्व रखता है। इच्छुक व्यक्ति का मानसिक अनत्यपरीक्षण करके गुरू विधियों को उसके अनुरूप बनाता है। यही कारण है कि दीक्षा को गोपनीय रखने का प्रचलन हुआ। दीक्षा की प्रक्रिया किसी से भी कहना वर्जित है। प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व और उसकी ग्राह्यता अलग-अलग होती है। अत: एक ही प्रकार की दीक्षा सभी प्रकार के व्यक्तित्व पर काम नहीं करेगा। मानसिक भिन्नता के कारण दीक्षा विधि भी भिन्न-भिन्न होती है। अस्तु दीक्षा वैयक्तिक वस्तु है। भीड़ में जो आज दीक्षायें दी जा रही हैं वह किसी काम की नहीं है। वह तो सस्ती लोकप्रियता है। दीक्षा गुरू और शिष्य के मध्य वैयक्तिक विचारों का सम्प्रेषण है। यही सम्प्रेषण 'शक्तिपात' है। लेकिन 'शक्तिपात' होने मात्र से नहीं होगा। गुरू जितना भी चले तुम नहीं पहुँच पाओगे। इसलिए चलना तो तुम्हें स्वयं पड़ेगा। जब तक तुम चखोगे नहीं गुड़ की मिठास पहचान नहीं पाओगे।  यहाँ आवश्यकता होती है योग्य गुरू के तलाश और पहचान की। जिसकी वाणी और कार्य में, जिसके सिद्धान्त और जीवन शैली में एकरूपता देखना उसे ही गुरू मानना। गुरू की व्याख्या मैंने प्रथम खण्ड में की है। उसे ध्यान में रखना। यहाँ सिर्फ इतना ही कहूँगी कि प्रथम गुरू शिव और प्रथम शिष्या पार्वती के होने का तात्पर्य भी है। वास्तव में यह प्रतीकात्मक है। यहाँ पार्वती उनकी पत्नी नहीं है बल्कि शिव का ही स्त्रैण अंश है। गुरू और शिष्य में इतनी ही श्रद्धा और विश्वास होनी चाहिए कि वह दोनों की वैचारिक संधि शिव और पार्वती की भाँति हो जाय। यदि इस संसार कोई अध्यात्मिक गुरू तुम न खोज पाओ तब निश्चय उस शिव को गुरू मान लेना वह शिव आज भी गुरू है। नीचे 'सहज योग' साधना की विधि दी जा रही है। जिसका प्रथम प्रयोग घर में स्वयं भी किया जा सकता है। इसके करने से और कुछ हो या न हो कम से कम मानसिक दृढ़ता और शान्ति तो अवश्य प्राप्त होगी। आज अधिकांश बीमारियाँ मानसिक हैं- इन मानसिक बीमारियों में कमी अवश्य आयेगी। सहजयोग साधना में उतरने के पूर्व निम्न शर्तों के पालन करने का प्रयास करें- एक संकल्प पत्र तैयार करो और अपने सोने के स्थान में ऐसी जगह पर टांगो कि सुबह आँख खुलते ही उस पर तुम्हारी दृष्टि पड़े। ठीक उसके उपर अपने इष्टदेव गुरु/माता/पिता की तस्वीर लगाओ। संकल्प - आज के दिन मैं क्रोध नहीं करूँगा। झूठ नहीं बोलूँगा। कम से कम बोलूँगा। हृदय से सुनूँगा। कोई एक अच्छा काम करूँगा। प्रत्येक सुबह संकल्प दुहरा कर दिन-चर्या आरंभ करो। दिन भर तुम्हारे चेहरे पर गंभीर मुस्कुराहट हो। अश्लील मजाक न करो। किसी भी वस्तु को स्थिर नेत्रों से देखो। रात्रि में सोने के लिए जब बिस्तर पर जाओ तब लेटे ही लेटे सुबह से लेकर अब तक की एक एक बातों को क्रमवार याद करने का प्रयास करो। मनुष्य के भृकुटि के मध्य एक त्रिनेत्र होता है। वह बन्द रहता है। यह तृतीय नेत्र ही शिव नेत्र है। जो न केवल भारतीय परम्परा के शिव के पास हैबल्कि सभी मनुष्य के पास है। जरूरत है उसे खोलने की। इसके खुल जाने से बिना देखे हुए तुम देख सकते हो। बिना सुने हुए सुन सकते हो। बिना कहे हुए कुछ कह सकते हो। अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों की जो सीमित शक्ति है उसमें वृद्धि हो जाती है। यह विधि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से कल्याणकारक है। 'सहज योग' साधना में तुम्हें अपनी आती-जाती श्वांस के प्रति हर क्षण सजग रहना है। श्वांस कब अन्दर आ रही है और कब बाहर जा रही है। ऐसी सजगता बनाये रखने से तुम दृढ़ता प्राप्त कर लोगे और अपने सहस्रसार चक्र से अपने ध्यान को प्रवेश करा कर शरीर के एक अंग को अलग-अलग एक-एक इंच पर अपनी दृष्टि डालते जाओ- देखते जाओ। एक दिन वह महाघटना घटित हो जायगी - तुम सत्य को उपलब्ध हो जाओगे। इस सहजयोग साधना को नियमपूर्वक लगातार करने से शीघ्र उच्चतर अवस्था जिसे ब्राह्मी अवस्था कहते है प्राप्त कर लोगे। लेकिन सांसारिक लाभ हेतु कभी भी, कहीं भी और किसी भी स्थिति में की जा सकती हैं। तात्कालिक लाभ के रूप में मानसिक शक्ति बढ़ जायेगी- शरीर के छोटे-मोटे किसी भी प्रकार के रोग में कभी आते हुए एक दिन समाप्त हो जायगा। स्मरण शक्ति में गुणात्मक वृद्धि होगी। इड़ा और पिंगला सांसें ही तो रस्सी है मूलाधार ही महासागर है जिसका मंथन इड़ा और पिंगला से करने पर सभी रत्नादि प्राप्त होंगे। लक्ष्मी, सरस्वती सभी की प्राप्ति होगी। समुद्र मंथन का यही रहस्य तो है। अन्तश्वेतना ही जीव का प्रमुख आधार है। मंत्र, जप, तप, पूजा, हवन, ध्यान, नमाज़, नमन का एक ही लक्ष्य है अन्तश्चेतना में वृद्धि और अनुभूति। घर-गृहस्थी और परिवार के दायित्वों का निर्वाह करते हुए दिन-रात ध्यान योग पूजन-सत्संग करना कदापि संभव नहीं है। न ही कर्त्तव्यों से विमुख हो गृहत्याग कर जंगलों में भटकना ठीक है। इस दृष्टि से यह निम्न ध्यान-साधना अति सरल और साधु संन्यासियों के साथ-साथ गृहस्थ स्त्री-पुरुषों के लिए उपयोगी और सरल साध्य है। ध्यान की विधियाँ विधि नं० 1 : मध्यम प्रकाश वाले कमरे में आराम से लेट जायें। स्वयं को आत्मकेंद्रित करें। अपना सम्पूर्ण ध्यान आज्ञा चक्र पर ले जायें। थोड़ी देर अपना ध्यान आज्ञा चक्र पर ठहरने दें। त्रिनेत्र में सम्मोहन शक्ति होती है। जैसे ही आपका अवधान त्रिनेत्र पर जायगा वह वहीँ ठहर जायगा। आपको सुखानुभूति होगी। अब अपने ध्यान को आज्ञा चक्र से धीरे-धीरे नीचे उतारते हुए दायें हाथ की कनिष्ठा तक लायें। ध्यान रहे जब आप सांस ले रहे हों तब ध्यान आज्ञा चक्र से कनिष्ठा तक लायें और जब श्वांस छोड़ रहे हों अपने ध्यान को पुन: कनिष्ठा से धीरे-धीरे अपने आज्ञा चक्र पर ले जायें यह क्रिया दोनों हाथ और दोनों पैरों की अंगुलियों के बाद शरीर के चक्रों पर करें। यह प्रक्रिया कम से कम तीन बार करने के पश्चात अपने ध्यान को आज्ञा चक्र से मूलाधार चक्र तक प्रवाहित करते रहें। जब ध्यान तोड़ना हो स्वयं को वातावरण से जोड़ें और धीरे-धीरे आँखें खोलें। विधि नं० 2 : हलके प्रकाश वाले कमरे में सुखासन में बैठ जायें। बेहतर होगा यदि कमरे में मधुर वाद्य चल रहा हो। 15 मिनट तक अपने अंतर को रीता करने का प्रयास करें। आँखें बंद होनी चाहिए। 15 मिनट के बाद जलते बुझते नीले प्रकाश वाले बल्ब को एकटक निहारत रहें। बल्ब का जलना बुझना आपके ह्रदय गति से सात गुना ज्यादा होना चाहिए। पुनः 15 मिनट के पश्चात आँखें बंद कर लेट जायें और निष्क्रिय रहें। विचारों से तादात्म्य स्थापित न करें। विधि नं० 3 : अपने आज्ञा चक्र पर ध्यान लगायें। जब ध्यान एकाग्र हो जाये सहस्रसार के ब्रह्मरन्ध्र पर ब्रह्माण्डीय ज्योतिर्मय ऊर्जा की धारा को बरसते हुए महसूस करें और फिर अगले कुछ दिनों के अभ्यास के बाद इस ऊर्जा को ब्रह्मरन्ध्र से अपने अन्दर प्रवेश करायें। वास्तव में यही ब्रह्माण्डीय शिवजी की गंगा है जो शरीररूपी पर्वत की चोटी कैलाश पर गिरती है। कैलाश की चोटी सहस्रसार चक्र है। यह साधना एक बैठक मैं तभी तय करें जब तक कि कोई तनाव पैदा न हो या भय महसूस न हो। विधि नं० 4 : कमर से गर्दन सीधी रखो। आँखें बन्द कर लो। अपने ध्यान को अपने भृकुटी के मध्य धीरे-धीरे चारों ओर सरकने दो। किसी एक बिन्दु पर तुम्हारा अवधान टिक जायगा और तुम्हें सहज सुख की प्राप्ति होगी। वहाँ से ध्यान हटाने की इच्छा नहीं होगी। बस उसी बिन्दु पर तुम्हारा तीसरा नेत्र है। यह आवश्यक नहीं कि सभी का त्रिनेत्र बिल्कुल मध्य में हो। इसलिए अपने त्रिनेत्र को दूंढ़ना पड़ता है। जब मिल जाय तब अपना ध्यान उस पर टिका दो और साक्षी भाव से निहारते रहो घटने दो जो घटता है। विचारों के साथ तालमेल नहीं होनी चाहिए। तुम अनन्त में पहुँच जाओगे। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड - समस्त लोक तुम्हारे ही अन्दर है उस पर विजय पालोगे। विधि नं० 5 : 'सहज साधना' है। यह साधना सहज श्वास और योग निद्रा का मिश्रित रूप है। इस विधि में निरन्तर अपने ध्यान को श्वास प्रक्रिया पर टिकाये रखना है। अर्थात् अपनी श्वासों के प्रति हमेशा सजग रहना है और अपने शरीर के एक-एक हिस्से को अन्तर्नेत्र से देखते हुए जागृत करने की विधि है। इस विधि से पूर्व जन्म के पाप भी नष्ट हो कर इस जीवन के सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है और अन्तत: जीव मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। सहज योग साधना 'सहज योग साधना' न तो कोई धर्म है, न कोई पंथ है, न कोई परम्परा है और न ही कोई शारीरिक योग है। यह अपने ही अन्दर निहित उर्जा को जागृत करने की सहज प्रक्रिया है जहाँ- 'अहं ब्रह्मास्मि' क्री अनुभूति होती है। त्रितापों से पीड़ित मानव जन्म-जन्मान्तर से मुक्ति के लिए छटपटा रहा है। कथित चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है। यहाँ संदेह उठ सकता है कि चौरासी लाख योनियों को बात कहाँ तक सत्य है ! यहाँ यह जानो कि जो ज्ञान अनुभव जन्म है- इन्द्रियातीत है उसे इन मात्र पांच ज्ञानेन्द्रियों से सहज ही कैसे जाना जा सकता है। इसलिए किसी तथ्य को जानो। मानने से कुछ नहीं होगा। जानने के लिए इस मार्ग से गुजरना ही होगा। यही मार्ग है 'सहजयोग साधना'- जिस पर निरन्तर चलते रहने से दैविक, आधिदैविक और अधिभौतिक त्रितापों से सहज मुक्ति मिलेगी।  यह साधना सरल, वैज्ञानिक और मानसिक प्रक्रिया है। इसमें न तो कोई अधिक शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है, न किसी विशेष शिक्षा या डिग्री की आवश्यकता पड़ती है, न ही गृहस्थ जीवन का त्याग करना पड़ता है। इसे वृद्ध, बच्चे और अस्वस्थ व्यक्ति भी कर सकता है इस वैज्ञानिक युग में यथार्थता का परीक्षण अनिवार्य है। इस अत्याघुनिक युग में भी जितने यंत्र उपकरण बने हैं वे सभी के सभी स्थूल हैं- स्थूल का ज्ञान देते हैं। मनुष्य के सीमित क्षमता के परिणाम हैं ये यंत्र। ये उपकरण वास्तुपरक हैं जिससे वाह्य ज्ञान संभव हैं। आत्मपरक ज्ञान का कोई उपकरण नहीं बना। आत्मपरक उपकरण एक मात्र 'साधना' है। जिस तरह तुम्हारी क्षुधा तभी मिटती है जब तुम भोजन करते हो उसी प्रकार इसे प्राप्त करने के लिए तुम्हें स्वयं चलना होगा। यही चलना 'सहयोग साधना' है। इस मार्ग पर चलकर आन्तरिक शक्तियों को विकसित कर सम्पूर्ण प्रकृति और ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। इस सरल स्वाभाविक और विशेष प्रयासहीन साधना द्धारा चेतना की उच्चतर अवस्था विकसित होती है। आज की अकूल-अनन्त समस्याओं निराकरण यही सहजयोग ध्यान साधना में है। यह वैज्ञानिक और क्रमबद्ध प्रक्रिया है। सहजयोग क्यों कहते हैं ? सहजयोग में ब्रहा का तात्पर्य वेदों के उस आदि सत्य से है- बौद्धों के शून्य से है- जैनों के चैतन्य से है- सांख्य के प्रकृति-पुरुष से है और शंकराचार्य के समष्टिगत आत्मा से है। अपने ड़न्दियों को नियंत्रित कर लेने से अपनी उस आत्मा का बोध होता है जो ब्रह्म है। ब्रह्मस्वरूप है। उस ब्रहा के बोध की स्थिति का अभिप्राय सहजयोग से है। चिंतन के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती। यहाँ चिन्तन एक स्थूल प्रक्रिया है जिसे सोचना कह सकते हैं। सहजयोग साधना से इस 'सोचना' को शिथिल करते हुए शून्य कर दिया जाता है। तब मानव मस्तिष्क में 'स्व' की अनुभूति होती है। वही 'स्व' जो ब्रहा है - अर्थात्, 'ब्रह्मास्मि' की अनुभूति होती है। साधना द्वारा मन को शान्त करते हुए शान्ति की जड़ तक पहुँचाया जाता है अर्थात् जहाँ से विचार उठते हैं। जमीन बंजर हो जाये तो सोच का पौध कहाँ से विकसित होगा ? विचारों की प्रक्रिया में लाखों की संख्या में न्यूरॉन्स क्रियाशील होते हैं। साधना द्वारा जब मन शान्त होता है तब न्यूरॉन्स की उत्तेजना कम होती है और मन-मस्तिष्क को विश्राम प्राप्त होता है। इसी विश्राम से आभ्यंतर शक्ति में वृद्धि होती है। जागृत अवस्था, स्वप्नावस्था और सुषुप्ति की चेतना साधना की तीन अवस्थायें हैं। ब्रह्मयोग की अवस्था चतुर्थ अवस्था है जब शरीर निष्क्रिय हो और मन पूर्ण चैतन्य हो। माया-मोह-इच्छा से परे शुद्ध-शुद्ध सतत् चैतन्य। इस अवस्था को ब्राह्नी अवस्था अथवा अद्वैतावस्था कहा जाता है। इस अवस्था में आने पर जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं। इस अद्वैतावस्था तक पहुँचने की यह सहज प्रक्रिया है इसलिए मैंने इसे 'सहज योग' कहा है। मैंने ध्यान की एक किरण भर दिखलाई है। इसके बाद तुम्हें स्वाद लग जायगा और तुम सराबोर हो उठोगे। ज्ञान की गंगा धारा शिव की जटा से निकले गंग की धारा कि तरह तुम सराबोर हो उठोगे। ज्ञान की यह गंगा जगत के लिए भी कल्याणकारी होगा और तुम्हारे लिए भी। शिव की जटा से निकली गंगा यही तो है। यहाँ यह संदेह हो सकता है कि विधि इतनी छोटी, इतनी सरल और उपलब्धि इतनी बड़ी? यह कैसे संभव है ? लेकिन अणु जितना छोटा होता है उतना ही शक्तिशाली होता है। ये छोटी-छोटी विधियाँ भी आणविक हैं। इस पर चल कर देखो। मेरी बातों को मान कर नहीं इन्हें जान कर देखो। इन्हीं विधियों के कारण भारत विश्व में आध्यात्मिक गुरू रूप में प्रतिष्ठित था। हमें पुन: उन्हें जीवित करना है। ध्यान-विधियाँ। जो विधियाँ हिन्दुस्तान की हैं आज हम उन्हें ही विदेशों से आयात कर रहे हैं। इन्हीं विधियों से तो कभी भारत ज्ञान धर्म गुरू के रूप में प्रतिष्ठित था। इन विधियों को पुनर्जीवित करने का एक उपाय है- समग्र प्रेम और सम्पूर्ण समर्पण जबतक तुम मन के बस में रहोगे तुम्हारा मिलन सत्य से नहीं होगा। भूल जाओ सब कुछ और सत्य को पालोगे। स्वयं को भूलना जरूरी है। 'स्व' के साथ प्तत्य का सम्बन्ध नहीं हो सकता है। जिस क्षण तुम स्वयं को भूल जाओगे सत्य उपलब्ध हो जायगा। तुम सत्य स्वरूप हो जाओगे वैसे ही जैसे चीनी की गुड़िया समुद्र की गहराई मापने आये तो स्वयं समुद्र में मिलजायगी। वह परमात्मा वह सत्य कोई बाहर की वस्तु नहीं जिसे प्राप्त करोगे - वह तो तुम्हारे ही अन्दर है - उसे उपलब्ध होना है- तुम्हारे ही अन्दर से - कस्तुरी कुण्डल वसै मृग ढूढै बन माही ऐसे घटि-घटि राम हैं दुनियाँ देखै नाहीं। यह प्रेम और समर्पण सत्य के साक्षात्कार से संभव है। © Dr. Kiran Tripathi 2017

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