Tuesday, 20 June 2017
पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ2


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पृष्ट संख्या:
1234
पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ (४) उपवास
गीता में उपवास को विषय विकार से निवृत करने वाला बताया गया है। एक़ समय अन्नहार और एक समय फलाहार आरम्भिक उपवास है। धीरे-धीरे इसकी कठोरता बढ़ानी चाहिये। दो समय फल, दूध, दही आदि का आहार इससे कठिन है। केवल दूध या छाछ पर रहना हो तो उसे कई बार सेवन किया जा सकता है। जल हर एक उपवास में कई बार अधिक मात्रा में बिना प्यास के भी पीना चाहिए। जो लोग उपवास में जल नहीं पीते या कम पीते हैं वे भारी भूल करते हैं। इससे पेट की अग्नि आँंतों में पड़े मल को सुखाकर गाँठें बना देती हैं। इसीलिये उपवास में कई बार पानी पीना चाहिये। उसमें नींबू, सोडा, शक्कर मिला लिया जाय तो स्वास्थ्य और आत्म-शुद्धि के लिये और भी अच्छा है।
(५) गव्य कल्प तप
शरीर और मन के अनेक विकारों को दूर करने के लिए गव्यकल्प अभूतपूर्व है। राजा दिलीप जब निस्सन्तान रहे तो उन्होंने कुल गुरु के आश्रम में गौ चराने की तपस्या पत्नी सहित की थी। नन्दिनी गौ को वे चराते थे और गौ-रस का सेवन करके ही रहते थे। गाय का दूध गाय का दही, गाय की छाछ, गाय का घी सेवन करना, गाय के गोबर के कण्डों से दूध गरम करना चाहिए। गौमूत्र की शरीर पर मालिश करके सिर में डालकर स्नान करना, चर्म, रोगों तथा रक्त-विकारों के लिये बड़ा लाभदायक है। गाय के शरीर से निकलने वाला तेज बड़ा सात्विक एवं बलदायक होता है, इसलिये गौ-चराने का भी बड़ा सूक्ष्म लाभ है। गौ के दूध, दही, घी, छाछ पर मनुष्य तीन मास निर्वाह करे तो उसके शरीर का एक प्रकार से कल्प हो जाता है।
(६) प्रदातव्य तप
अपने पास जो शक्ति हो उसमें से कम मात्रा में अपने लिये रखकर दूसरों को अधिक मात्रा में दान देना है। धनी आदमी धन का दान करते हैं। जो धनी नहीं हैं वे अपने समय, बुद्धि, ज्ञान, चातुर्य, सहयोग आदि को उधार दान देकर दूसरों को लाभ पहुँचा सकते हैं। शरीर का, मन का दान भी धन दान की ही भाँति महत्त्वपूर्ण है। अनीति उपार्जित धन का सबसे अच्छा प्रायश्चित यही है कि उसको सत्कार्य के लिये दान कर दिया जाय। समय का कुछ न कुछ भाग लोक सेवा के लिये लगाना आवश्यक है। दान देते समय पात्र और कार्य का ध्यान करना आवश्यक है। कुपात्र को दिया हुआ, अनुपयुक्त कर्म के लिये दिया गया दान व्यर्थ है। मनुष्येतर प्राणी भी दान के अधिकारी हैं। गौ, चींटी, चिड़ियाँ, कुत्ते आदि उपकारी जीव-जन्तुओं को भी अन्न-जल का दान देने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। स्वयं कष्ट सहकर, अभावग्रस्त रहकर भी दूसरों की उचित सहायता करना उन्हें उन्नतिशील, सात्विक, सद्गुणी बनाने में सहायता करना, सुविधा देना दान का वास्तविक उद्देश्य है। दान प्रशंसा में धर्म शास्त्रों का पन्ना-पन्ना भरा हुआ है।
उसके पुण्य के सम्बन्ध में अधिक क्या कहा जाय। वेद ने कहा हैं- ''सौ हाथों से कमाये और हजारों हाथों से दान करे।''
(७) निष्कासन तप
अपनी बुराइयों और पापों को गुप्त रखने से मन भारी रहता है। पेट में मल भरा रहे तो उससे नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, वैसे ही अपने पापों को छुपाकर रखा जाय तो यह गुप्तता रुके हुए मल की तरह गन्दगी और सड़न पैदा करने वाले समस्त मानसिक क्षेत्र को दूषित कर देती है। इसलिए कुछ ऐसे मित्र चुनने चाहिये जो काफी गम्भीर और विश्वस्त हों। उनसे अपनी पाप कथायें कह देनी चाहिए। अपनी कठिनाइयों, दुःख गाथायें, इच्छायें अनुभूतियाँ भी इसी प्रकार किन्हीं ऐसे लोगों से कहते रहना चाहिए जो उतने उदार हों कि उन्हें सुनकर घृणा न करें और कभी विरोधी हो जाने पर उन्हें दूसरों पर प्रकट करके हानि न पहुँचावें। यह गुप्त बातों का प्रकटीकरण एक प्रकार का आध्यात्मिक जुलाब है जिससे मनोभूमि निर्मल होती है।
प्रायश्चितों में ''दोष प्रकाशन'' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गौहत्या हो जाने का प्रायश्चित शास्त्रों ने यह बताया है कि मरी गौ की पूँछ हाथ में लेकर एक सौ गाँवों में वह व्यक्ति उच्च स्वर से चिल्लाकर यह कहे कि मुझसे गौ- हत्या हो गयी। इस दोष प्रकाशन से गौ-हत्या दोष छूट जाता है। जिसके साथ बुराई की हो उससे क्षमा माँगनी चाहिये, क्षतिपूर्ति करनी चाहिए और जिस प्रकार वह संतुष्ट हो सके वह करना चाहिये। यदि वह भी न हो तो कम से कम दोष प्रकाशन द्वारा अपनी अन्तरात्मा का एक भारी बोझ हल्का करना ही चाहिये। इस प्रकार के दोष प्रकाशन के लिए इस पुस्तक के लेखक को एक विश्वसनीय मित्र समझकर पत्र द्वारा अपने दोषों को लिखकर उनके प्रायश्चित तथा सुधार की सलाह प्रसन्नतापूर्वक ली जा सकती है।
(८) साधना तप
गायत्री का चौबीस हजार जप नौ दिन में पूरा करना सवालक्ष जप चालीस दिन में पूरा करना, गायत्री यज्ञ, गायत्री की योग साधनायें, पुरश्चरण, पूजन, स्तोत्र पाठ आदि साधनाओं से पाप घटता है और पुण्य बढ़ता है। कम पढ़े लोग गायत्री-चालीसा' का पाठ नित्य करके अपनी गायत्री भक्ति को बढ़ा सकते हैं और इस महामन्त्र से बढ़ी हुई शक्ति के द्वारा तपो बल के अधिकारी बन सकते हैं।
(९) ब्रह्मचर्य तप
वीर्य रक्षा, मैथुन से बचना, काम विकार पर काबू रखना ब्रह्मचर्य व्रत है। मानसिक काम-सेवन शारीरिक काम सेवन की ही भाँति हानिकारक है। मन को काम क्रीड़ा की ओर न जाने देने का सबसे अच्छा उपाय उसे उच्च आध्यात्मिक एवं नैतिक विचारों में लगाये रहना है। बिना इसके ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती। मन को ब्रह्म में- सत् तत्व में लगाये रहने से आत्मोन्नति भी होती है, धर्म-साधन भी और वीर्य रक्षा भी। इस प्रकार एक ही उपाय से तीन लाभ कराने वाला यह तप गायत्री- साधना करने वालों कें लिए सब प्रकार उत्तम है।
(१०) चन्द्रायण तप
यह व्रत पूर्णमासी से प्रारम्भ किया जाता है। पूर्णमासी को अपनी जितनी पूर्ण खुराक हो, उसका सोलहवाँ भाग प्रतिदिन कम करते जाना चाहिए। जैसे अपना पूर्ण आहार एक सेर है तो प्रतिदिन एक छटाँक आहार कम करते जाना चाहिये। कृष्ण पक्ष का चन्द्रमा जैसे १- १ कला नित्य घटता है, वैसे ही १- १ षोडसांश नित्य कम करते चलना चाहिए। अमावस्या और पड़वा को चन्द्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ता। उन दो दिनों बिल्कुल भी आहार न लेना चाहिए। फिर शुक्लपक्ष की दौज को चन्द्रमा एक कला निकलता है और धीरे-धीरे बढ़ता है। वैसे ही १- १ षोडसांश बढ़ाते हुए पूर्णमासी तक पूर्ण आहार पर पहुँच जाना चाहिए। इस एक मास में आहार-विहार का संयम, स्वाध्याय, सत्संग में प्रवृत्ति, सात्विक जीवनचर्या तथा गायत्री-साधना में उत्साहपूर्वक संलग्न रहना चाहिए।
अर्ध चन्द्रायण व्रत पन्द्रह दिन का होता है। उसमें भोजन का आठवाँ भाग आठ दिन कम करना और आठ दिन बढ़ाना होता है। आरम्भ में अर्ध चन्द्रायण ही करना चाहिए। जब एक बार सफलता मिल जावे तो पूर्ण चन्द्रायण के लिये कदम बढ़ाना चाहिए
(११) मौन तप
मौन से शक्तियों का क्षरण रुकता है, आत्मा- बल का संयम होता है, दैवी तत्वों की वृद्धि होती है, चित्त की एकाग्रता बढ़ती है, शान्ति का प्रादुर्भाव होता है, बहिर्मुखी वृत्तियाँ अन्तमुरर्वी होने से आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। प्रतिदिन या सप्ताह में अथवा माँस में कोई नियत समय मौन रहने के लिये निश्चित करना चाहिए। कई दिन या लगातार भी ऐसा व्रत रखा जा सकता है। अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार मौन की अवधि निर्धारित करनी चाहिए। मौन काल का अधिकांश भाग एकान्त में, स्वाध्याय अथवा ब्रह्म चिन्तन में व्यतीत करना चाहिये।
मौन एक श्रेष्ठ तप साधना
वाणी और मस्तिष्क का सीधा सम्बन्ध है। मनुष्य जो भी कुछ सोचता और विचारता है, उसकी अभिव्यक्ति वाणी के माध्यम से करता है। भावनाएँ वाणी के द्वारा ही प्रकट होती हैं और अन्तराल की उत्कृष्टता-निकृष्टता का परिचय देती हैं। वासना, तृष्णा, अहंता आदि की ज्वालाएँ अन्दर ही अन्दर धधकती रहती हैं और जब-तब अवसर पाकर वाणी के माध्यम से बाहर फूट पड़ती हैं अथवा मानसिक शक्तियों को धुन की तरह चाटती-कुतरती रहती हैं। अध्यात्म साधनाओं में इसीलिए वाणी के संयम को मानसिक संयम के साथ सम्बद्ध रखा गया है और कहा गया है कि विचारणा, भावना और आकांक्षा पक्ष से मानसिक शाक्तियों का क्षरण रोका जाय, पर अभिव्यक्ति पक्ष से वाक् संचय न किया जाय, तो शक्ति संचय की साधना अधूरी एवं एकांगी रह जायेगी। इसलिए मानसिक संयम के साथ-साथ वाणी का संयम भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मौन साधना इसी की पूर्ति करती है।
मौन की गणना मानसिक तप के रूप में की गई है। गीताकार ने कहा है 'मन प्रसाद: सौमत्व्यं मौनमात्म विनिग्रह:।' अर्थात् मनकी प्रसन्नता, सौम्य शालीनता. मौन मनोनिग्रह और विचारों की शुद्धि मानसिक तप कहे जाते हैं। इससे न केवल एकाग्रता सधती है, वरन् शक्ति का अपव्यय भी रुकता है मानसिक संयम साधने में मौन का असाधारण महत्त्व है। शास्त्रों में इसके अनेकानेक उदाहरण भरे पड़े हैं। महर्षि व्यास की वह कथा प्रसिद्ध है, जिसमें महाभारत जैसे विशाल ग्रन्थ की रचना कर लेने के पश्चात् उनने गणेश जी से लेखन कार्य पूरा न होने तक एक शब्द भी न बोलने का कारण पूछा था। प्रत्युत्तर में गणेश जी ने कहा था यदि मैं बीच-बीच में बोलता जाता, तो आपका यह कार्य न केवल कठिन हो जाता, वरन् एक भार ही बन जाता। महर्षि रमण के बारे में प्रसिद्ध है कि वे सर्वथा मौन रहते हुए भी आगन्तुकों की समस्याओं का समाधान कर देते थे। सभी पूर्ण सन्तुष्ट होकर जाते और अपने प्रश्नों के उत्तर मौन वाणी से ही प्राप्त कर लेते थे। तभी तो मनीषियों ने मौन को पवित्रतमू विचारों का मन्दिर कहा है।
शरीर-क्रिया विज्ञानियों का कहना है कि शरीर के जिन कार्यों में सर्वाधिक शक्ति खर्च होती है, वह वाणी ही है। इसके संयम का महत्त्व न समझने वालों की प्राय: यही मान्यता होती है कि बोलने में क्या लगता है ? उन्हें यह ज्ञात नहीं कि बोलने में कितनी अधिक मानसिक शक्ति खर्च होती है। एक घण्टे लगातार बोलने पर व्यक्ति इतना थक जाता है मानो चार घण्टे तक शारीरिक श्रम किया हो। कारण वायतंत्र का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से है। अन्यान्य कार्य तो हाथ-पैर से भी किये जा सकते हैं और उन्हें करते समय ध्यान कहीं और भी रह सकता है, पर बोलते समय सारा ध्यान बोलने पर ही रखना पड़ता है। अन्यथा मुख से उच्चरित शब्द बकवास मात्र रह जाते हैं। अधिक बकवास मानसिक शक्तियों को नष्ट करती है, वरन् उससे आध्यात्मिक दृष्टि से भी हानियाँ ही हानियों होती हैं।
मनीषियों ने वाणी के अपव्यय को रोकना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी बताया है। मूर्धन्य मनोविज्ञान वेत्ताओं का कहना है कि मौन से विचार शक्ति बढ़ती है। सुविख्यात विचारक जेम्स एलन अपनी कृति ''पॉवर्टी टु पीस'' में कहते हैं कि समस्त शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ शक्ति मौन की शक्ति है। जब वह उचित मार्ग में प्रयुक्त होती है, तो उन्नति एवं अम्युदयकारक होती है, किन्तु दुरुपयोग होने पर विनाशकारी दुष्परिणाम प्रस्तुत करती है। भाप, विद्युत आदि शक्तियों का दुरुपयोग हो, तो अनर्थ ही खड़े करेंगी। विचार सम्पदा के बारे में भी यही बात है। वह संसार में सबसे अधिक शक्तिशाली शक्ति है। जिन्हें मन को वश में रखना एवं अपने आप पर नियंत्रण साधना हो, उन्हें नियमित रूप से कुछ समय के लिए मौन रहना चाहिए। एकाग्रता सम्पादन के लिए इससे बढ़कर कोई अन्य सरल उपाय है नहीं।
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