Tuesday 20 June 2017

पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ3

  प्रारम्भ में साहित्य हमारे प्रयास मल्टीमीडिया प्रारम्भ में > साहित्य > पुस्तकें > गायत्री और यज्ञ > पंचकोशी साधना > अन्नमय कोश और उसकी साधना पृष्ट संख्या: 1234 पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ सामान्य जीवन में भी कार्य करते समय बोलने और मौन रहने का अन्तर समझा जा सकता है। जो व्यक्ति मौन रहते हैं, उनकी बुद्धि अपेक्षाकृत अधिक स्थिर तथा संतुलित रहती है। संतुलित विचारों वाला हानि-लाभ, हित-अनहित के प्रसंगों पर बड़े धैर्यपूर्वक सोच समझ सकता है। संकट या आपत्ति के समय मौन द्वारा प्रखर की हुई विचार शक्ति बड़ी सहायक सिद्ध होती है। कभी भी देखा जा सकता है कि जब मनुष्य किसी गहन प्रसंग पर सोचना चाहता है, तब वह एकान्त की तलाश करता है। न तो वह उस समय बोलता है और न किसी से बात ही करता है। बोलना और विचार करना दोनों क्रियाएँ एक साथ नहीं हो सकती। विचारक जितने गहरे मौन में उतरता जाता है, समस्याओं का सार्थक हल खोज लाता है। महात्मा गाँधी को जब कभी किसी विकट समस्या पर विचार करना होता था, तब वे कई दिनों तक मौन व्रत धारण कर लिया करते थे। सप्ताह में एक दिन तो वे मौन रखते ही थे, उनका कहना था कि मौन से आत्मिक बल बढ़ता है। आत्मिक बल बढ़ाने वाले मौन के साथ और बातें भी जुड़ी होती हैं। मौन को उनने सर्वोत्तम भाषण बताया है और कहा है कि अगर बोलना ही पड़े, तो कम बोलना चाहिए। यदि एक शब्द से काम चल जाय, तो दूसरा मुँह से नहीं निकलना चहिए। ''क्राइस्ट इन साइलेंस'' नामक कृति में सी० एफ० एण्ड्रज, कहते हैं कि महान व्यक्ति वही होते हैं, जो यह जान लेते हैं कि आध्यात्मिक शक्ति-भौतिक शक्ति से अधिक बलवान है। आत्मशक्ति को जाग्रत करने का सबसे अच्छा और सरल उपाय उनने कुछ समय के लिए मौन होकर ईश्वर प्रार्थना को बताया है। उनके अनुसार मौन की गुप्त शक्ति असीम है। वाणी का संयम तो इससे होता ही है, मानसिक शक्ति का अनावश्यक क्षरण रुकता और एकाग्रता बढ़ती है। उच्चस्तरीय विचार प्रवाह शांत-स्थिर मन: स्थिति में ही उठते और अभ्युदय का, प्रगति का आधार खड़ा करते हैं। मौन की महिमा का गान करते हुए इमर्सन कहते हैं ''आओ हम चुप रहें, ताकि फरिश्तों के वार्तालाप सुन सकें।'' वस्तुत: मौन हृदय की भाषा है। मुँह से एक शब्द कहे बिना भी अपनी भाव-संवेदना व्यक्त की जा सकती है और जितना असर वाणी का होता है, उसमें कहीं अधिक प्रभाव वह उत्पन्न कर सकती है। सुप्रसिद्ध मनीषी एडवर्ड इवरेट हेल अपनी रचना में एक छोटी बालिका के सम्बन्ध में लिखते हैं कि वह पक्षियों और वन्य जीवों के साथ खेला करती थी और बीच-बीच में पास में बने मन्दिर में प्रार्थना करने के लिए दौड़ जाया करती थीं। प्रार्थना करने के पश्चात् बिल्कुल शान्त होकर चुपचाप कुछ देर के लिए वहीं बैठी रहती। पूछने पर कारण बताते हुए कहती कि- "मैं देर तक चुपचाप इसलिए बैठी रहती हूँ ताकि यह सुन सकूँ कि ईश्वर मुझसे कुछ कहना तो नहीं चाहता।" शान्त और एकाग्र मन से ही उससे वार्तालाप संभव है। मौन रहकर ही अपने अन्तराल में उतरने वाले ईश्वर के दिव्य संदेशों प्रेरणाओं को सुना समझा जा सकता है। मौन के अभ्यास से न केवल अनावश्यक बोलने की प्रकृति पर अंकुश रखने की क्षमता आ जाती है, वरन् उसके विकसित होने पर वाणी के संतुलन के अनेकानेक प्रयोग करने की स्थिति भी पैदा हो जाती है। अत: मन: संयम के साधक को मौन साधना का कुछ न कुछ क्रम बनाकर रखना ही चाहिए। मौन का अर्थ यह नहीं है कि मुँह से कुछ न बोलते हुए हाथ चलाने या लिखकर बातें करने का क्रम अपनाया जाय। उससे मौन साधना के सत्यपरिणाम प्राप्त नहीं होते। शब्दों का उच्चारण भले ही न किया जाता हो, पर बोलने की वृत्ति दूसरी, तरह से व्यक्त होती रहे, तो जो शक्ति बोलने में खर्च होती थी, वह उस विषय में खर्च होने लगती है। ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाकर किया गया मौन ही असाधारण प्रतिफल प्रदान करता है। मौन का अर्थ आन्तरिक है। वाह्य क्रियाओं का अपने ऊपर प्रभाव न होने देना, स्वयं को उनसे निरपेक्ष रखने का नाम मौन है। मौन द्वारा बहिर्मुखी दिशा में तथा विचार संयम द्वारा आन्तरिक दिशा में मानसिक शक्तियों का अपव्यय होने से रोक लिया जाय, तो फिर इन्द्रिय संयम आसान हो जाता है। वाचालता पर अंकुश लगाने के लिए मौन साधना का अभ्यास उपयुक्त माना गया है। थोड़ा अभ्यास थोड़ा लाभ दे सकेगा यह सच है। जितना गुड़ डाला जाय उतना ही मीठा होता है। जितना दाम खर्चा जाय उतना ही सामान मिलता है। जितना बीज बोया जाय उसी अनुपात से फसल काटने और उतना ही कोठा भरने का अवसर मिलता है। मौन मात्र दो घण्टे रोज साधा जाय या सप्ताह में मात्र दो घण्टे का क्रम रखा जाय तो उतना प्रयास भी निरर्थक नहीं जाता है। वाणी का असंयम रुकने से जीवनी शक्ति के अपव्यय से होने वाली क्षति में कमी आती है। बचत से सम्पन्नता बढ़ती है और आड़े समय में काम आती है। मौन साधना की यत्किंचित् प्रयास भी हर किसी के लिये लाभदायक सिद्ध होता है। उससे जीवनी शक्ति का भण्डार बढ़ता चला जाता है। भले ही वह सीमित प्रयास के कारण स्वल्प मात्रा में ही उपलब्ध क्यों न हो ? जिन्हें अवसर और आवश्यकता है, उन्हें मौन की अवधि भी बढ़ानी चाहिए और उसमें गम्भीरता भी लानी चाहिए। इस आधार पर मौन मात्र संयम ही नहीं रखता वरन् तपश्चर्या स्तर तक जा पहुँचता है और साधना से सिद्धि के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष चरितार्थ कर दिखाता है। सामान्यता मौन व्रत लेने वाले कुछ घण्टे जीभ को विराम देते हैं पर उनकी कल्पनाएँ इच्छाएँ उछलती ही रहती हैं। इसे उनकी भावभंगिमा को देखकर सहज जाना जा सकता है। मन की चंचलता शरीरगत चेष्टाओं से परिलक्षित होती है। अपना अभिप्राय संकेतों कें माध्यम से प्रकट करते हुए उन्हें देखा जा सकता है। आँखें चारों ओर घूमती हैं। जिस-तिस वस्तु को देखने में अभिरुचि का होना स्पष्ट प्रकट होता है। शंका समाधान चलता रहता है। पूछने बताने का काम जीभ से तो नहीं होता, पर कागज कलम, स्लेट, पैन्सिल के माध्यम से वार्त्तालाप प्राय: वैसा ही चलता रहता है जैसा कि बिना मौन वाले अपना कथन श्रवण चालू रखते हैं। मात्र जिह्वा को विराम मिलना भी किसी हद तक अच्छा तो है, पर उतने भर से वह लाभ नहीं मिलता जो मौन से तपश्चर्या के रूप में साधने पर हस्तगत होता है। इस अनुबंध में कल्पनाओं, कामनाओं, इच्छाओं और चेष्टाओं पर भी अंकुश लगाना पड़ता है। यह न किया जा सके तो मात्र जिह्वा को विराम देकर उसे थकने से बचाने का उपाय किया जाय। मन की चंचलता, इच्छा कामना, चेष्टा यथावत् बनी रहे तो वह मौन नहीं सधता उसे तपश्चर्या कहते हैं और उसके सहारे दिव्य वाणियाँ उभरती और अपने-अपने चमत्कार दिखाती हैं। जिह्वा से उच्चरित होने वाली वाणी को ''वैखरी'' कहते हैं। इसमें मुँह बोलता है और कान सुनते हैं। मस्तिष्क उसका निष्कर्ष निकालता है। इसके उपरान्त तीन वाणियाँ और हैं। मध्यमा, परा और पश्यन्ती। मध्यमा में मन बोलता है उसका परिचय चेहरे की भावभंगिमा से अंग संचालन पर आधारित संकेतों से समझा जा सकता है। परा अन्तःकरण से भाव संवेदनाओं के रूप में प्रकट होती है। उसे प्रसन्नता, खिन्नता उदासी के रूप में क्रियान्वित होते देखा जाता है। इसका प्रभाव एक व्यक्ति से उठ कर दूसरे में प्रवेश करता है। इसके सहारे एक दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं और उस सम्प्रेषण की प्रतिक्रिया बटोर कर प्रेषक के पास वापस लौटते हैं। इसे मौन वार्तालाप भी कह सकते हैं इसमें चेहरे को देखकर अन्तराल को समझने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। पश्यन्ती विशुद्धतः आध्यात्मिक है। इसे देव वाणी भी कह सकते हैं। इसे आकाश वाणी, ब्रह्म वाणी भी कह सकते हैं। यह परा चेतना के साथ टकराती है और वापस लौट कर उन समाचारों को देती है जो अदृश्य जगत की विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में सक्रिय रहते हैं। इसे अदृश्य दर्शन भी कहते हैं। इसी माध्यम से देवतत्वों की परा चेतना के साथ सम्भाषण एवं आदान- प्रदान होता है। ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती हैं। उनमें देखने, सूंघने, सुनने चखने, स्पर्श की सरसता अनुभव होती है। यह भौतिक रसास्वादन है। पर यदि इन पंच देवों को साधना द्वारा सिद्ध कर लिया जाय तो वे अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में विकसित होती और अलौकिक अनुभूतियाँ प्रस्तुत करती हैं। दूरश्रवण, दूरदर्शन, भविष्य ज्ञान, जन्मान्तर बोध आदि का धनी बना जा सकता है। जिह्वा है तो एक पर वह दुहरा काम करती है। वह चखने के लिए रसना रूप में और बोलने के लिए वाणी रूप में प्रयुक्त होती है इसे यदि मौन एवं अस्वाद के आधार पर दोनों रूपों में सिद्ध कर लिया जाय तो अन्तरंग, और बहिरंग स्तर की दुहरी विभूतियों का रसास्वादन किया जा सकता है। जिह्वा की दूसरी सिद्धि है- शाप और वरदान देने की क्षमता। साधारण वाणी जानकारियाँ देने भर के लिए काम आती है, पर तप, भूत जिह्वा सत्पत्रों पर सत्परिणामों की वरदान रूप में वर्षा करती है। यदा-कदा ऐसा भी आवश्यक हो जाता है कि बढ़ते हुए अनाचार को रोकने थामने के लिए उनके मार्ग में अवरोध खड़ा किया जाय। अभिशाप इसी को कहते हैं। मौन साधना द्वारा साधित की हुई जिह्वा उपरोक्त सभी प्रयोजनों की पूर्ति करती है। बहिमौंन और अन्तमौंन प्रख्यात मौन वह जिसमें वाणी से बोलना बन्द कर दिया जाता है। आवश्यकता होने पर इशारों से या लिख कर अपना अभिप्राय प्रकट कर देते हैं। यह मौन साधना उनके लिए अच्छा है जिन्हें बहुत बोलने की शेखीखोरी की, गप्पबाजी करने निन्दा चुगली किये बिना चैन न पड़ने की आदत है। कई लोग पैरों को हिलाने, हाथों को मरोड़ते, बिना खुजली के खुजलाते रहते हैं। कुछ न कुछ किये बिना चैन नहीं पड़ता। इन अनावश्यक हरकतों से शरीर की इन्द्रियों की सामर्थ्य क्षीण होती है। अनावश्यक रूप से हुए अपव्यय से खजाने खाली हो जाते हैं। फिर अंगों की क्षमता को अकारण नष्ट करने की आदत का तो बुरा प्रभाव होना ही चाहिए। इस कुटेव को छुड़ाने के लिए मौन साधना का महत्त्व है। विशेषतया जिह्वा का अवरोध तो इसलिए करना पड़ता है कि असत्य या अनावश्यक वचन न निकालने का अभ्यास हो जाय और वह भी उस स्तर तक पहुँच जाय कि किसी से कहे हुए वचन अपना प्रभाव छोड़ने लगें। उसे सत्परामर्श देकर उपयोगी मार्ग पर चला सकें। वक्तृता में इतनी क्षमता उत्पन्न हो जाय कि उसका प्रभाव आशाजनक पड़ने लगे। वह वाणी किस काम की, जिसका कथन कतरनी की तरह चलता रहे। वस्तुत: जो कुछ कहा जाय, वह शब्द वेधी वाण की तरह काम में आ सके, ऐसी वाणी हो। विश्राम पाने के उपरान्त कई शक्ति अर्जित होने की बात सर्वाविदित है। थकान दूर करने हृदयाघात रक्तचाप आदि में डाक्टर अधिक समय विश्राम करने की बात कहते हैं। अत: जिह्वा को भी कुछ समय के लिए विश्राम दिया जाय तो उसकी कुटवें छुटती हैं और विश्राम के उपरान्त नये सिरे से कार्यरत होने पर उसे आवश्यक नया प्रशिक्षण भी आसानी से दिया जा सकता है। पूजा प्रार्थना मन्त्रोचारण जप आदि जिह्वा के सहारे ही बन पड़ते हैं। यदि जिह्वा पवित्र न हो तो उससे मन्त्र शक्ति उत्पन्न नहीं होती न उसकी पुकार देवलोक तक पहुँचती है। शाप, वरदान देने जैसी क्षमता भी उत्पन्न नहीं होती। इसलिए शरीर स्नान करने से भी प्रथम मुख मार्जन करना पड़ता है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों का शुभारम्भ आचमन से किया जाता है। कारण कि जिह्वा को पवित्र करने के उपरान्त ही दिव्य प्रयोजनों का बन पड़ना सम्भव होता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसी की प्रमुखता है। जो सवेरे स्नान नहीं कर सकते वे भी उठते ही कुल्ला तो करते हैं। जितनी बार भोजन किया जाता है उतनी बार भोजन के अन्त में कुल्ला करने आचमन करने की प्रथा है। शरीर के समस्त अंगों की तुलना में शुद्धिकरण का ध्यान मुख क्षेत्र में अधिकाधिक रखा जाता है। इससे पाचन तन्त्र की समूची नलिकाएँ प्रभावित होती है। कितने ही व्यक्ति सवेरे उठकर एक गिलास पानी पीते हैं, इससे जिह्वा सहित पाचन तन्त्र की शुद्धता होती है और उष्णता उत्तेजना दूर होकर शान्ति का वातावरण बनता है। अच्छा हो मौन साधने के अवसर पर आहार शुद्धि का भी ध्यान रखा जाय। जिह्वा को ज्ञानेन्द्रिय और कमेंन्द्रिय दोनों ही माना गया है। भोजन प्रयोजन में वह कमेंन्द्रिय रहती है और वार्त्तालाप में ज्ञानेन्द्रिय बन जाती हैं। उसकी द्विधा प्रक्रियाओं का परिशोधन करने के लिए आहार शुद्धि का ध्यान रखना भी नितान्त आवश्यक है। उपवास में दूध-छाछ, रस, रसादि का प्रयोग किया जाय। इतना न बन पड़े तो शाकाहार, फलाहार का अवलम्बन लिया जा सकता है। अन्यथा अस्वाद व्रत तो निभाना ही चाहिए। शक्कर और नमक, मसाले छोड़ देने भर से अस्वाद व्रत निभ जाता है। जिह्वा शुद्धि के लिए पानी में नीबू डालकर उसके कुल्ले प्रात: मध्याह्म सायंकाल तो करने ही चाहिए। यह बहिमौंन की विधा हुई। इसके अतिरिक्त अन्तमौंन अध्यात्म प्रयोजनों के लिए आवश्यक है। वहिमौंन केवल ब्राह्य जीवन को प्रभावित करता है। इसीलिए उसे अपूर्ण माना गया है। अन्तर्जीवन और बहिर्जीवन दोनों पक्षों को मिलाकर एक पूर्ण जीवन बनता है। दोनों को मिला देने पर ही समग्रता आती है। जिस प्रकार बहिर्जीवन में हाथ-पैर इन्द्रियाँ और धड़ संस्थान के भीतरी अवयव काम करते हैं। उसी प्रकार अन्तरंग जीवन में विचार संस्थान की घुड़दौड़ चलती है। कल्पना, विचारणा, इच्छा आदि के चित्र, विचित्र उफान उठते रहते हैं। कामनाएँ और कल्पनाएँ दोनों ही परस्पर प्रतिस्पर्धा ठाने रहती हैं। इस धमा-चौकड़ी में न चित्त स्थिर हो पाता है और न ध्यान धारण का क्रम बनता है। उच्च विचारों को प्रवेश करने की भी उसमें गुजांइश नहीं रहती। न अध्यवसाय के लिए कम बनता है न निदिध्यासन के लिए। ऐसी दशा में भगवत भक्ति का सुयोग बने ही कैसे ? ब्रह्यरन्ध्र और सहस्रार कमल का जागरण भी इस स्थिति में सम्भव नहीं और न कुण्डलिनी जागरण, षटचक्र बेधन, पंचकोशें का उत्थान जैसी महती साधना के लिए मार्ग ही बनता है। मेले-ठेले की घिच-पिच में रास्ता चलना तक दूभर हो जाता है। एक दूसरे को धकेलते हुए ही आगे बढ़ते हैं। उस माहौल में कहीं शान्त चित्त बैठना जैसा कृत्य तो बन ही नहीं पड़ता। इसलिए यह भी आवश्यक है कि अन्तर्मौंन का अभ्यास किया जाय। जिस प्रकार जीभ से हर समय बोलते और खाते रहने से वह चंचल लोलुप और अस्त व्यस्त होती है उसी प्रकार मन:क्षेत्र में अनेक प्रकार की विचारणाएँ उठते रहने पर भी यही होता है। अध्यात्म क्षेत्र की समस्त धाराएँ विलीन करके एक केन्द्र पर ध्यान एकत्रित करना पड़ता है। इस स्थिति को निर्विचार कहते हैं। कहा जाता है कि मस्तिष्क को निर्विचार करना चाहिए। तब अन्तमौंन बनता है। पर यह कहने में जितना सरल है उतना करने में नहीं। यह समाधिवस्था है जिसमें कोई भी विचार मन में नहीं रहता। तब भी हृदयस्थ आत्मज्योति में अथवा ब्रह्माण्ड मध्य ब्रह्यरन्ध्र के लिए करना पड़ता है। अन्यथा खुली छूट रहने पर तो वह एक स्थान पर टिकेगा नहीं। यदि रामायण पढ़ी जाय तो उसका कथानक कभी कहीं से, कभी कहीं से याद आता रहेगा। उस समय की परिस्थिति अथवा कथोपकथन मस्तिष्क में घूमता रहेगा। यही बात स्रोत पाठ आदि के सम्बन्ध में भी है। इसमें इष्टदेव की जैसी आकृति-प्रवृति है वह भी मस्तिष्क में घूमती रहेगी विचार चाहे देवताओं के हों या अवतारों के हों, इतिहास के हों और अपना सुझाव विचार मन में आते ही रहेगें। तब विचारहीन स्थिति बन नहीं पड़ेगी और अन्तमौंन सधेगा नहीं। इसलिए अपने आपको महाप्रलय की स्थिति में शिव ताण्डव करते हुए अथवा आकाश में सूर्यव्रत् एकाकी चमकते रहने का ध्यान करना चाहिए और साथ ही यह धारण भी करनी चाहिए कि महाप्रलय की स्थिति में संसार में कहीं कोई प्राणी या पदार्थ नहीं है। सर्वत्र महाशून्य की निस्तब्धता छाई हुई है जब कोई पदार्थ कहीं है ही नहीं यह मान्यता बनी तो फिर मन को आश्रय लेने का कोई क्षेत्र सीमित नहीं रह जाता। तब वह एकाकी स्थिति में अपने आपमें ही लय होता है। तब सूर्य का प्रकाश, शिव ताण्डव, इसके लिए उपयुक्त आधार बनते हैं। यह बात आत्म-ज्योति से ब्रह्म रन्ध्र में अपने आपको लय करने से भी बनती है। पर अपनी काया का विस्मरण करना पड़ता है। साथ ही शरीर और मस्तिष्क के कलेवर को विस्मरण कर देना चाहिए। यदि काया का स्मरण बना रहा तो मन को उस अयवयों के विखरने की आशंका रहेगी। इस प्रकार वाणी का संयम करने के लिए हर साधक को वास और अंतमौंन की तप साधना कुछ घंटे की नित्यप्रति करनी चाहिए। आत्मबल संवर्धन की यह सर्वश्रेष्ठ साधना है। (१२) अर्जन तप विद्याध्ययन, शिल्प-शिक्षा, देशाटन, मल्लविद्या, संगीत आदि किसी भी प्रकार की उत्पादक, उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके अपनी शक्ति, योग्यता, क्षमता, क्रियाशीलता, उपयोगिता बढ़ाना अर्जन तप है। विद्यार्थी को कष्ट उठाना पड़ता है, जिस प्रकार मन मारना पड़ता है और सुविधाएँ छोड़कर कठिनाई से भरा कार्यक्रम अपनाना पड़ता है, वह तप का लक्षण है केवल बचपन में ही नहीं, वृद्धावस्था और मृत्यु पर्यन्त किसी न किसी रूप में सदैव अर्जन तप करते रहने का प्रयत्न रहना चाहिए। साल में थोड़ा सा समय तो अवश्य ही इस तपस्या में लगाना चाहिये, जिससे अपनी तपस्याएँ बढ़ती चलें और उनके द्वारा अधिक लोक-सेवा करना सम्भव हो सके। सूर्य की बारह राशियाँ होती हैं। गायत्री के यह बारह तप हैं। इनमें से जो तप, जब, जिस प्रकार सम्भव हो अपनी स्थिति, रुचि और सुविधा के अनुसार अपनाते रहना चाहिये। ऐसा भी हो सकता है कि वर्ष के बारह महीने में एक-एक महीना एक-एक तप करके एक वर्ष पूरा तप-वर्ष बिताया जाय। सातवें निष्कासन तप में एक दो बार विश्वस्त मित्रों के सामने प्रकटीकरण हो सकता है। नित्य तो अपनी डायरी में एक माँस तक अपनी बुराइयाँ लिखते रहना चाहिए और उन्हें पथ-प्रदर्शक को दिखाना चाहिए। यह क्रम अधिक दिन लागू रखा जाय तो और भी उत्तम है। महात्मा गाँधी सावरमती आश्रम में अपने आश्रमवासियो की डायरी बड़े गौर से जाँचा करते थे। अन्य तपों में प्रत्येक को प्रयोग करने के लिये अनेकों रीतियाँ हो सकती हैं। उन्हें थोड़ी- थोड़ी अवधि के लिये निर्धारित करके अपना अभ्यास और साहस बढ़ाना चाहिए। आरम्भ में थोड़ा और सरल तप अपनाने से पीछे दीर्घकाल तक और कठिन कष्टसाध्य साधन करना भी सुलभ हो जाता है | पृष्ट संख्या: 1234  gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp   अन्नमय कोश और उसका अनावरण अन्नमय कोश की जाग्रति, आहार शुद्धि से आहार के त्रिविध स्तर, त्रिविध प्रयोजन आहार, संयम और अन्नमय कोश का जागरण आहार विहार से जुड़ा है मन आहार और उसकी शुद्धि आहार शुद्धौः सत्व शुद्धौः अन्नमय कोश की सरल साधना पद्धति उपवास का आध्यात्मिक महत्त्व उपवास से सूक्ष्म शक्ति की अभिवृद्धि उपवास से उपत्यिकाओं का शोधन उपवास के प्रकार उच्चस्तरीय गायत्री साधना और आसन आसनों का काय विद्युत शक्ति पर अद्भुत प्रभाव आसनों के प्रकार सूर्य नमस्कार की विधि पंच तत्वों की साधना तत्व साधना एक महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म विज्ञान तत्व शुद्धि तपश्चर्या से आत्मबल की उपलब्धि आत्मबल तपश्चर्या से ही मिलता है तपस्या का प्रचण्ड प्रताप तप साधना द्वारा दिव्य शक्तियों का उद्भव ईश्वर का अनुग्रह तपस्वी के लिए पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ समग्र साहित्य हिन्दी व अंग्रेजी की पुस्तकें व्यक्तित्व विकास ,योग,स्वास्थ्य, आध्यात्मिक विकास आदि विषय मे युगदृष्टा, वेदमुर्ति,तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ३००० से भी अधिक सृजन किया, वेदों का भाष्य किया। अधिक जानकारी अखण्डज्योति पत्रिका १९४० - २०११ अखण्डज्योति हिन्दी, अंग्रेजी ,मरठी भाषा में, युगशक्ति गुजराती में उपलब्ध है अधिक जानकारी AWGP-स्टोर :- आनलाइन सेवा साहित्य, पत्रिकायें, आडियो-विडियो प्रवचन, गीत प्राप्त करें आनलाईन प्राप्त करें  वैज्ञानिक अध्यात्मवाद विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान की दो धारायें हैं जिनका समन्वय आवश्यक हो गया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हि सच्चे अर्थों मे विकास कहा जा सकता है और इसी को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है.. अधिक पढें भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक जीवन शैली पर आधारित, मानवता के उत्थान के लिये वैज्ञानिक दर्शन और उच्च आदर्शों के आधार पर पल्लवित भारतिय संस्कृति और उसकी विभिन्न धाराओं (शास्त्र,योग,आयुर्वेद,दर्शन) का अध्ययन करें.. अधिक पढें प्रज्ञा आभियान पाक्षिक समाज निर्माण एवम सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिये समर्पित - हिन्दी, गुजराती, मराठी एवम शिक्क्षा परिशिष्ट. पढे एवम डाऊनलोड करे           अंग्रेजी संस्करण प्रज्ञाअभियान पाक्षिक देव संस्कृति विश्वविद्यालय अखण्ड ज्योति पत्रिका ई-स्टोर दिया ग्रुप समग्र साहित्य - आनलाइन पढें आज का सद्चिन्तन वेब 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