awgp.org   प्रारम्भ में साहित्य हमारे प्रयास मल्टीमीडिया प्रारम्भ में > साहित्य > पुस्तकें > गायत्री और यज्ञ > पंचकोशी साधना > अन्नमय कोश और उसकी साधना पृष्ट संख्या: 12 उच्चस्तरीय गायत्री साधना और आसन बाई जांघ के ऊपर दाहिने पैर और दाहिनी जांघ पर बायें पैर को रखें। पीछे की ओर दोनों हाथों से दोनों पैरों के अंगूठे पकड़कर और ठोड़ी को कण्ठ में सटाकर नाक के अग्रभाग में देखें यह पद्मासन है। इससे व्याधियाँ नष्ट होती हैं। पद्मासन की सामान्य प्रचलित रीति में पैरों पर पैर चढ़ाकर हाथ सुविधाजनक घुटनों पर अथवा गोद में रखकर बैठने का क्रम है। पीछे से हाथ ले जाकर अंगूठा पकड़ने को पद्मासन कहा जाता है। गायत्री साधना द्वारा कुंडलिनी जागरण के प्रयोग में सिद्धासन को प्रमुखता दी जाती है। यह लगातार तो नहीं हो सकता पर जितनी देर शक्ति चालिनी मुद्रा एवं प्राणायाम के अभ्यास किये जाते हैं, उतनी देर उसे लगाना लाभदायक है। सिद्धासन का महत्त्व शास्त्रकार इस प्रकार बताते हैं। चतुर शीति पीठेषु सिद्धमेवसदाम्यसेत्। द्वा सप्तति सहस्राण्ये नाड़ीनां मलशोधनम्। अर्थात- ८४ आसनों में से सिद्धासन का हमेशा ही अभ्यास करना चाहिए क्योंकि वह ७२ हजार नाड़ियों के मल को दूर करता है। किमन्यै बहुभि: पीठै: सिद्धे सिद्धासने सति। प्राणानिले सावधाने बद्धे केवलकुंभके।। उत्पद्यते निरायासात्स्वयमेवोन्मनो कला। तथैकस्मिन्नेव दृढे सिद्धे सिद्धासने सति। बन्धत्रयमनायासात्स्वयमेवोपजायते। -हठयोग प्रदीपिका १। ४३, ४४ अर्थात्- सिद्धासन के सिद्ध होने पर अन्य अनेक आसनों के अभ्यास की क्या आवश्यकता ? प्राणवायु को सावधानीपूर्वक संयमित रखकर केवल 'कुम्भक' प्राणायाम का अभ्यास करते हुए सिद्धासन में दृढ़ रहकर साधना करने से उन्मनी कला स्वयमेव सिद्ध होती है और तीनों बन्ध भी इस अभ्यास से स्वत: ही सिद्ध हो जाते हैं। एतत्सिद्धासनं ज्ञयं सिद्धानां सिद्धिदायकम्।। येनाभ्यास वशात् शीघ्रं योगनिष्पत्तिमात्नुयात्।। सिद्धासनं सदा सेव्य पवनाभ्यासिना परम्।। शिव संहिता ३। १०२। १०३ अर्थ- यह सिद्धासन सिद्धिदायक है। इसके अभ्यास में योग निष्पत्ति शीघ्र होती हैं। इसीलिए प्राणवायु के अभ्यासी साधक को यह सिद्धासन सदा करना चाहिए। सिद्धासन का मूल प्रयोजन मूलाधार चक्र को प्रभावित एवं उत्तेजित करना है। उसमें पैर की ऐडी का दवाब मूलाधार क्षेत्र पर डालना। इस प्रकार उत्पन्न की गई उत्तेजना कुंडलिनी को जागृत करने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होती है। इस सिद्धासन का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है- योनि स्थानकमडि ध्रमूलधरितं कृत्वा दृढ़ विन्यसेत् मेढ्रे पादमथैकमेव हृदये धुत्वा सम विग्रहम्।। स्थाणुः सयंमितेन्द्रियोSचलदृशा पश्यन् भुवोरंतरं। चैतन्यारण्यकपाट भेद जनक सिद्धासन प्रोच्यते। -गोरक्ष संहिता योनि स्थान को बाँये पद के मूल देश से दवा और एक़ चरण मेढू के देश में आबद्ध करके एवं हृदय में ठोड़ी को जमाते हुए देह को सरल एवं दोनों भौंहों के मध्य देश में दृष्टि स्थान पूर्वक यानी शिव नेत्र होकर निश्चल भाव से बैठने का नाम सिद्धासन है। सिद्धासन का स्वरूप अधिक अच्छी तरह समझने के लिए उसे इस प्रकार जानने और अभ्यास में लाने का प्रयत्न करना चाहिए। सिद्धासन- कमर सीधी। ध्यान मुद्रा। बाँया पैर इस प्रकार मोड़े कि उसकी ऐडी का ऊपरी भाग सीवंन मलमूत्र छिद्रों के मधवर्ती भाग के नीचे आ जाय। स्थिति ऐसी रहनी चाहिए कि सीधे बैठने पर ऐड़ी का दवाब 'सीवन' के भीतर चल रही मूत्र नलिकाओं पर पड़े। दाँये पैर को बाँये पैर के ऊपर रखकर पालथी जैसी स्थिति बनाई जाय। ऐसा करने से दाहिने पैर की ऐड़ी नाभि से लगभग चार अंगुल नीचे उसी की सीध में जमी दिखाई देगी। इस प्रकार दोनों ऐडि़याँ शरीर की मध्य रेखा पर रहती है। तथा उनके बीच मूलाधार क्षेत्र आ जाता है। इस प्रकार बैठने से पैरों पर दबाव पड़ता है और अधिक देर इस तरह बैठ सकने में कठिनाई होती है। अतएव आवश्यकतानुसार पैरों को बदलते रहा जा सकता है। जिस प्रकार आरम्भ में बाँया पैर नीचे और दाहिना ऊपर रखा गया था उसी प्रकार बदलने पर दाहिने नीचे चला जायेगा और बाँया ऊपर आ जायेगा। सिद्धासन का अभ्यास आरम्भ में पाँच मिनट से करना चाहिए और जितना अभ्यास हो सके। उठने पर पैरों को कष्ट अनुभव न हो उतनी देर चलाया जा सकता है। प्राय: १५ मिनट से आधा घण्टे तक यह अभ्यास आसानी से बढ़ सकता है। इसका प्रयोग सामान्य जप में नहीं सूर्यवेधन प्राणायाम जैसी विशेष साधनाओं में ही करना चाहिए। सामान्य गायत्री जप ध्यान आदि में तो सामान्य पालथी मारकर बैठना ही पर्याप्त होता है। तनाव उत्पन्न करने वाले साधनों से सामान्य साधना में ध्यान बटता है। लेकिन यदि गायत्री की उच्चस्तरीय साधना करनी हो तो, किस स्थिति, में कौन सा आसन अपनाया जाना चाहिए। इसका निर्णय स्वयं ही नहीं किया जा सकता है। इसके लिए उपयुक्त मार्ग दर्शन की सहायता पथ प्रदर्शक के रूप में प्राप्त करनी चाहिए। इसके साथ वातावरण, स्थान एवं संयम नियम का अपना महत्त्व तो है ही। पृष्ट संख्या: 12   अन्नमय कोश और उसका अनावरण अन्नमय कोश की जाग्रति, आहार शुद्धि से आहार के त्रिविध स्तर, त्रिविध प्रयोजन आहार, संयम और अन्नमय कोश का जागरण आहार विहार से जुड़ा है मन आहार और उसकी शुद्धि आहार शुद्धौः सत्व शुद्धौः अन्नमय कोश की सरल साधना पद्धति उपवास का आध्यात्मिक महत्त्व उपवास से सूक्ष्म शक्ति की अभिवृद्धि उपवास से उपत्यिकाओं का शोधन उपवास के प्रकार उच्चस्तरीय गायत्री साधना और आसन आसनों का काय विद्युत शक्ति पर अद्भुत प्रभाव आसनों के प्रकार सूर्य नमस्कार की विधि पंच तत्वों की साधना तत्व साधना एक महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म विज्ञान तत्व शुद्धि तपश्चर्या से आत्मबल की उपलब्धि आत्मबल तपश्चर्या से ही मिलता है तपस्या का प्रचण्ड प्रताप तप साधना द्वारा दिव्य शक्तियों का उद्भव ईश्वर का अनुग्रह तपस्वी के लिए पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ समग्र साहित्य हिन्दी व अंग्रेजी की पुस्तकें व्यक्तित्व विकास ,योग,स्वास्थ्य, आध्यात्मिक विकास आदि विषय मे युगदृष्टा, वेदमुर्ति,तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ३००० से भी अधिक सृजन किया, वेदों का भाष्य किया। अधिक जानकारी अखण्डज्योति पत्रिका १९४० - २०११ अखण्डज्योति हिन्दी, अंग्रेजी ,मरठी भाषा में, युगशक्ति गुजराती में उपलब्ध है अधिक जानकारी AWGP-स्टोर :- आनलाइन सेवा साहित्य, पत्रिकायें, आडियो-विडियो प्रवचन, गीत प्राप्त करें आनलाईन प्राप्त करें  वैज्ञानिक अध्यात्मवाद विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान की दो धारायें हैं जिनका समन्वय आवश्यक हो गया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हि सच्चे अर्थों मे विकास कहा जा सकता है और इसी को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है.. अधिक पढें भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक जीवन शैली पर आधारित, मानवता के उत्थान के लिये वैज्ञानिक दर्शन और उच्च आदर्शों के आधार पर पल्लवित भारतिय संस्कृति और उसकी विभिन्न धाराओं (शास्त्र,योग,आयुर्वेद,दर्शन) का अध्ययन करें.. अधिक पढें प्रज्ञा आभियान पाक्षिक समाज निर्माण एवम सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिये समर्पित - हिन्दी, गुजराती, मराठी एवम शिक्क्षा परिशिष्ट. पढे एवम डाऊनलोड करे  अंग्रेजी संस्करणप्रज्ञाअभियान पाक्षिकदेव संस्कृति विश्वविद्यालयअखण्ड ज्योति पत्रिकाई-स्टोरदिया ग्रुपसमग्र साहित्य - आनलाइन पढेंआज का सद्चिन्तनवेब स्वाध्यायभारतिय संस्कृति ज्ञान परिक्षा अखिल विश्व गायत्री परिवार शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार (भारत) shantikunj@awgp.org +91-1334-260602 अन्तिम परिवर्तन : १५-०२-२०१३ Visitor No 25425 सर्वाधिकार सुरक्षित Download Webdoc(3407)
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