▼ सोमवार, 18 मई 2009 ऋषि भारद्वाज के आश्रम में  निषाद के जाने के बाद वे लक्ष्मण से बोले, "हे सौमित्र! सामने जो निर्जन वन फैला हुआ है, अब हम इसी में प्रवेश करेंगे। इस वन में हमें अनेक प्रकार की भयंकर स्थितियों और उपद्रवों का सामना करना पड़ेगा। किसी भी समय किसी भी ओर से कोई भी भयंकर प्राणी हम पर आक्रमण कर सकता है। अतः तुम आगे-आगे चलो। तुम्हारे पीछे सीता चलेंगी और सबसे पीछे तुम दोनों की रक्षा करते हुये मैं चलूँगा। यह तो स्पष्ट है कि यहाँ हम लोगों को आत्मनिर्भर होकर स्वयं ही एक दूसरे की रक्षा करनी पड़ेगी।" राम का यह आदेश मिलते ही लक्ष्मण धनुष बाण सँभाले हुये आगे-आगे चलने लगे और उनके पीछे सीता तथा राम उनका अनुसरण करने लगे। इस प्रकार चलते-चलते ये तीनों वत्स देश में पहुँचे। यह अनुभव करके कि कोमलांगी सीता इस कठोर यात्रा से थक गई होंगीं, वे एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिये रुक गये। वहाँ उपलब्ध वन्य पदार्थों से अपनी क्षुधा मिटा कर सन्ध्या को उन्होंने उपासना आदि कर्मों से निवृति पाई। वार्तालाप करते-करते जब रात्रि गहरी होने लगी तो राम लक्ष्मण से बोले, "भैया लक्ष्मण! आज निर्जन वन में हमारी यह प्रथम रात्रि है। इसलिये तुम सिंह की भाँति निर्भय एवं सतर्क रहना क्योंकि जानकी की रक्षा का भार हम दोनों भाइयों पर ही है। देखो, कान लगाकर सुनो, कुछ दूरी पर अनेक प्रकार के हिंसक जीवों का स्वर सुनाई दे रहा है। वे किसी भी क्षण इधर आकर और अवसर पाकर हम लोगों पर आक्रमण कर सकते हैं। इसलिये हे वीर शिरोमणि! तुम्हें प्रत्येक अवस्था में हर समय सावधान रहना है।" फिर विषय परिवर्तित करके बोले, "आज महाराज अयोध्या में बड़े दुःखी हो रहे होंगे किन्तु माता कैकेयी के आनन्द का पारावार नहीं होगा। मेरे मन में रह-रह कर एक आशंका उठती है कि कहीं अपने पुत्र को सिंहासन पर बिठाने के लिये कैकेयी पिताजी के भी प्राण छल से न ले लें। यह तो तुम जानते हो कि धर्म से पतित और लोभ के वशीभूत हुआ मनुष्य क्या कुछ नहीं कर सकता! परमात्मा करे, ऐसा न हो अन्यथा वृद्धा माता कौशल्या भी पिताजी के और हमारे वियोग में अधिक दिन तक जीवित नहीं रहेंगी। इस अन्याय को देखकर मेरे हृदय को इतनी वेदना होती है जिसका मेँ वर्णन नहीं कर सकता। कभी-कभी जी चाहता है कि इन निरीह वृद्ध प्राणियों के जीवन की रक्षा के लिये सम्पूर्ण अयोध्यापुरी को बाणों से आच्छादित कर दूँ, परन्तु मेरा धर्म मुझे ऐसा करने से रोकता है। आज मैं सचमुच बड़ा दुःखी हूँ।" ऐसा कहते-कहते राम के नेत्रों में आँसू भर आये, उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया और वे चुप होकर पृथ्वी की ओर देखने लगे। लक्ष्मण ने अपने दुःखी भ्राता को धैर्य बँधाते हुये कहा, "भैया! आपके लिये इस प्रकार शोक विह्वल होना उचित नहीं है। आपको दुःखी देखकर भाभी भी दुःखी होंगीं। इसलिये आप धैर्य धारण करें। आप तो बड़े से बड़े संकट में भी धैर्य का सम्बल नहीं छोड़ते, फिर आज इस प्रकार व्याकुल क्यों हो रहे हैं? हमारे लिये उचित है कि हम काल की गति को देखें, परखें और उसके अनुसार कार्य करें। मुझे विश्वास है कि वनवास की यह अवधि शीघ्र समाप्त हो जायेगी। इसके पश्चात् हम कुशलतापूर्वक वन से अयोध्या लौटकर सुख शान्ति का जीवन यापन करेंगे।" इस प्रकार वार्तालाप करते-करते तृणों की शैया पर लेटे हुये राम निद्रामग्न हो गये। लक्ष्मण रात्रि भर निर्भय होकर इधर उधर घूमते हुये धनुष बाण सँभाले श्री राम और सीता के रक्षार्थ पहरा देते रहे। प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व ही राम, लक्ष्मण और सीता प्राकृतिक क्रिया-कलापों एवं सन्धयावन्दन आदि से निवृत होकर त्रिवेणी संगम की ओर चल पड़े। मार्ग में उन्होंने कुछ वृक्षों से लक्ष्मण ने स्वादिष्ट फलों को तोड़ राम और सीता कि दिया तथा स्वयं भी उनसे अपनी क्षुधा शान्त की। सन्ध्या के समय वे गंगा और यमुना के संगम पर पहुँचे। कुछ देर तक संगम के सुहावने दृष्य को देखने के बाद राम बोले, "लक्ष्मण! आज की लम्बी यात्रा करके हम महातीर्थ प्रयागराज के समीप पहुँच गये हैं। देखो, हवन-कुण्ड से उठती हुई यह धूम्र-रेखा अग्निदेव की पताका की भाँति फहरा रही है और सम्पूर्ण वायु-मण्डल को अपनी स्वास्थ्यवर्द्धक सुगन्धि से आपूरित कर रही है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि महर्षि भारद्वाज का आश्रम यहीं आसपास ही है।" वे संगम की उस पवित्र स्थली पर पहुँच गये जहाँ पर दोनों नदियाँ कल-कल नाद करती हुई मानों इन नवागुन्तकों का स्वागत कर रही थीं। पास ही महर्षि भारद्वाज का आश्रम था। उनके आश्रम में पहुँच कर राम ने भारद्वाज मुनि का अभिवादन करते हुये कहा, "महर्षे! अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण आपको सादर प्रणाम करते हैं। भगवन्! पिताजी ने मुझे चौदह वर्ष-पर्यन्त वन में निवास करने की आज्ञा दी है और ये मेरे अनुज सुमित्रानन्दन लक्ष्मण भी स्नेहवश मेरे साथ चले आये हैं। हमारे साथ मेरी पत्नी मिथिलापति जनक की पुत्री सीता भी आई हैं।" मुनि भारद्वाज ने उनका हार्दिक स्वागत किया तथा सभी को बैठने के लिये आसन दिया। फिर उनके स्नान आदि की व्यवस्था करके उनके भोजन के लिये अनेक प्रकार के फल दिये। फिर मुनिराज बोले, "यह मैं सुन चुका हूँ कि महाराज दशरथ ने बिना किसी अपराध का तुम्हें वनवास दिया है और तुमने मर्यादा की रक्षा करते हुये उसे सहर्ष स्वीकार किया है। तुम लोग चौदह वर्ष तक मेरे इसी आश्रम में निश्चिन्त होकर रहो। त्रिवेणी संगम पर स्थित होने के कारण यह स्थान अत्यन्त रमणीक है।" मुनि की बात सुन कर राम ने कहा, "इसमें सन्देह नहीं कि आपका स्थान अत्यन्त रमणीक एवं सुखप्रद है, परन्तु यहाँ निवास करने में एक कठिनाई है। आपका आश्रम अपनी गरिमा के कारण दूर-दूर तक विख्यात है। इसलिये जब मेरे यहाँ निवास करने की सूचना अयोध्या पहुँचेगी तो अयोध्यावासियों के यहाँ आने का ताँता लग जायेगा। इससे हमारे तपस्वी धर्म में बाधा पड़ेगी और आपको भी असुविधा होगी। अतएव आप कृपा करके हमें कोई ऐसा स्थान बताइये जो एकान्त में हो और जहाँ जानकी का मन भी लगा रहे।" राम के तर्कयुक्त वचन सुन कर महामुनि बोले, "ऐसा है तो तुम चित्रकूट पर जाकर निवास कर सकते हो। चित्रकूट यहाँ से दस कोस की दूरी पर है। उस पर्वत पर अनेक ऋषि-मुनि तथा तपस्वी अपनी कुटिया बना कर निवास करते हैं। एक तो वह स्थान वैसे ही रमणीक है फिर वानर, लंगूर आदि ने उसकी शोभा को और बढ़ा दिया है। चित्रकूट की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अनेक ऋषि-मुनियों ने वहाँ तपस्या करके मोक्ष प्राप्त की है।" इसके पश्चात् मुनि ने उन्हें उस प्रदेश की अने ज्ञातव्य बातें बताईं। रात्रि को तीनों न मुनि के आश्रम में ही विश्राम किया। प्रातःकाल उषा की लाली ने जब आकाश को रक्तिम करना आरम्भ किया तभी राम, सीता और लक्ष्मण नित्य कर्मों से निवृत होकर चित्रकूट पर्वत की ओर चल पड़े। जब दूर से राम ने चित्रकूट के गगनचुम्बी शिखर को देखा तो वे सीता से बोले, "हे मृगलोचनी! तनिक इन फूले हुये पलाशों को देखो जो जलते हुये अंगारों की भाँति सम्पूर्ण वन को जगमगा रहे हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो फूलों की माला लेकर हमारा स्वागत कर रहे हैं। और इन भल्लातक तथा विल्व के वृक्षों को देखो जिन्हें आज तक किसी भी मनुष्य ने स्पर्श नहीं किया है। इधर देखो लक्ष्मण! इन वृक्षों में मधुमक्खियों ने कितने बड़े-बड़े छत्ते बना लिये हैं। वायु के झकोरों से गिरे हुये इन पुष्पों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को इस प्रकार आच्छादित कर दिया है मानो उस पर पुष्पों की शैया बनाई गई है। आमने सामने खड़े वृक्षों पर बैठे तीतर अपनी मनमोहक ध्वनि से हमें अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। मेरे विचार से चित्रकूट का यह रमणीक स्थान हम लोगों के निवास के लिये सब प्रकार से योग्य है। हमें यहीं अपनी कुटिया बनानी चाहिये। इस विषय में तुम्हारा क्या विचार है, मुझसे निःसंकोच होकर कहो। जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगा।" राम के सुझाव का समर्थन करते हुये लक्ष्मण ने कहा, "प्रभो! मेरे विचार से भी यह स्थान हम लोगों के रहने के लिये सब प्रकार से योग्य है।" सीता ने भी उनके विचारों का अनुमोदन किया। फिर वे टहलते हुये मुनि वाल्मीकि के सुन्दर एवं मुख्य आश्रम में पहुँचे। राम ने उनका अभिवादन करके उन्हें अपना परिचय दिया और बताया कि हम लोग वन में चौदह वर्ष की अवधि व्यतीत करने के लिये आये हैं। मुनि ने उनका सत्कार करते हुये कहा, "हे दशरथनन्दन! तुम्हारे दर्शन करके मैं कृतार्थ हुआ। तुम जब तक चाहो, इस आश्रम में निवास करो। यह सर्वथा तुम्हारे योग्य है। इसलिये वनवास की पूरी अवधि तुम यहीं रह कर व्यतीत करो।" मुनि वाल्मीकि के आतिथ्य के लिये आभार प्रकट करते हुये राम बोले, "इसमें सन्देह नहीं कि यह रमणीक वन मुझे, सीता और लक्ष्मण हम तीनों को ही पसन्द है। परन्तु मैं यह नहीं चाहता कि मेरे यहाँ निवास करने से आपकी तपस्या में किसी प्रकार का विघ्न पड़े। इसलिये हम लोग पास ही कहीं पर्णकुटी बना कर निवास करना चाहेंगे।" फिर उन्होंने लक्ष्मण को आदेश दिया, "भैया, तुम वन से अच्छी, मजबूत लकड़ियाँ काट कर ले आओ। हम लोग इस आश्रम के निकट ही कहीं कुटिया बना कर निवास करेंगे।" रामचन्द्र की आज्ञा पाकर लक्ष्मण तत्काल लकड़ियाँ काट कर ले आये और उनसे एक बड़ी सुन्दर कलापूर्ण कुटिया बना डाली। इस सुन्दर, सुविधा एवं कलापूर्ण कुटिया को देख कर राम ने लक्ष्मण की बहुत प्रशंसा की। फिर उन्होंने सीता सहित गृह-प्रवेश यज्ञ किया। उसके पश्चात् उन्होंने कुटिया में प्रवेश किया। वहाँ का वातावरण अत्यन्त मनोरम था। चित्रकूट पर्वत को स्पर्श करती हुई माल्यवती सरिता प्रवाहित हो रही थी। उसके दोनों ओर पर्वत मालाओं की अत्यन्त आकर्षक श्रेणियाँ थीं। इस सुन्दर मनोमुग्धकारी प्राकृतिक दृश्य को देख कर कुछ समय के लिये राम और जानकी अयोध्या त्यागने के दुःख को भूल गये। नाना प्रकार के पक्षियों की हृदयहारी स्वर लहरियों को सुन कर और रंग-बिरंगे पुष्पों से आच्छादित लताओं एवं विटपों को देख कर उस निर्जन वन मे भी सीता राजमहल के कोलहल को भूल गई। Nilabh Verma at 1:55 pm साझा करें  कोई टिप्पणी नहीं: एक टिप्पणी भेजें मेरे पिता श्री भारती नंदन वर्मा को समर्पित एक लिंक बनाएँ ‹ › मुख्यपृष्ठ वेब वर्शन देखें मेरे बारे में   मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें Blogger द्वारा संचालित. 
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