Tuesday, 20 June 2017

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awgp.org   प्रारम्भ में साहित्य हमारे प्रयास मल्टीमीडिया प्रारम्भ में > साहित्य > पुस्तकें > गायत्री और यज्ञ > पंचकोशी साधना > अन्नमय कोश और उसकी साधना पृष्ट संख्या: 123 तपस्या का प्रचण्ड प्रताप गायत्री उपासना एक ऐसी तपश्चर्या है जिसे गृही और विरागी,स्त्री, पुरुष, बालक और वृद्ध समान सुविधा से कर सकते हैं। तप ही एक मात्र वह साधन है जिससे आत्मिक शक्ति बढ़ती है। और आत्मा शक्ति ही संसार की वह सर्वोपरि वस्तु है जिसके द्वारा मनुष्य इच्छानुकूल पदार्थ, मनोवांछित परिस्थिति और अक्षय शान्ति प्राप्त कर सकता है। दैवी शक्तियों को सहायता एवं ईश्वरीय कृपा को उपलब्ध करना भी तप द्वारा उपार्जित आत्म शक्ति पर ही निर्भर है। कथा है कि- अनादि काल में जब नाभि कमल में ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए तो वे अकेले थे वे बहुत सोचते थे कि मैं क्या हूँ क्यों हूँ यह सब क्या है, पर कोई बात समझ नहीं आती थी। जब वे कुछ भी न सोच सके और बहुत हैरान हो गये तब आकाशवाणी हुई कि ''तप करो'' ब्रह्माजी ने दीर्घकालीन तप किया तब उन्हें आत्म ज्ञान हुआ, और अपना उद्देश्य एवं कार्य क्रम जाना। उन्हें गायत्री प्राप्त हुई उसकी सहायता से उन्होंने चारों वेद रचे। उन्हें सावित्री प्राप्त हुई उसकी सहायता से उन्होंने सृष्टि की रचना की। इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान और विज्ञान का चैतन्य और जड़ का मूलकरण, तप ही है, तप के बिना किसी भी वस्तु विचार तत्व या गुण का होना सम्भव न था। समुद्र मंथन की कथा में देवता और असुर दोनों ही मंथन का घोर तप करते हैं। कूर्म, शेषजी, मदिरांचल को भी उसमें सम्मिलित होना पड़ता है। उस तप की घोर उष्णता से सूर्य, चन्द्र अमृत, लक्ष्मी जैसे १४ रत्न निकलते हैं। यदि वह समुद्र मंथन का तप न हुआ होता तो सूर्य, चन्द्र, जैसे वस्तुओं से वंचित रहकर इस दृष्टि को घोर अन्धकार में अचेतन जैसा पड़ा रहना पड़ता। श्री-हीन वसुन्धरा में जीवों को जीवन धारण करने के लिए कोई आकर्षण नहीं रहता। तप की शक्ति साधारण नहीं है। स्वायंभु मनु और सतुरूपा रानी ने तप करके भगवान को अपनी गोदी में खिलाने की असम्भव इच्छा को सम्भव बना लिया। दशरथ और कौशिल्या के रूप में उन्होंने राम को गोदी में खिलाने के सौभाग्य का रसास्वादन किया। नन्द और यशोदा, देवकी और वसुदेव ने पूर्व जन्मों ऐसी ही तपस्या करके भगवान के भी माता पिता बनने का अवसर पाया था। अवतारी आत्माओं को भी तप करना पड़ा है क्योंकि बिना तप के उनका शरीर भी ब्रह्मा जी की भाँति ही अशक्त रह जाता। राम का विश्वामित्र ऋषि के आश्रम में जाना और १४ वर्षों तक वनवास में तपस्वी जीवन बिताना सर्व विदित है। लक्ष्मण का ब्रह्मचर्य प्रसिद्ध है। सीता का वनोवास में अशोक वाटिका में और अन्त में बाल्मीकी ऋषि के आश्रम में तप करना किसी से छिपा नहीं है। भरत जी ने १४ वर्षो तक जो तप किया था उसका प्रताप था कि वे वाण पर बिठाकर हनुमान को लंका पहुँचा सके। भगवान कृष्ण ने संदीपन ऋषि के आश्रम में सुदामा के साथ गुरुकुल का तपस्वी जीवन बिताते हुये शिक्षा प्राप्त की थी। रुक्मिणी से विवाह होने के पश्चात् कृष्ण और रुक्मिणी ने दीर्ध काल तक हिमालय पर्वत के उच्च शिखर पर तप किया था वहाँ वे केवल जंगली बेर खाकर रहते थे। बेर को संस्कृत में बद्री कहते हैं। बद्री नारायण का तीर्थ भगवान कृष्ण के उसी तप का स्मारक है। शंकर जी तो साक्षात् योगिराज ही हैं। योग और तप ही उनका प्रधान कार्य है। उनकी वेष भूषा का अनुकरण करके योगियों की एक परम्परा बन गई है। अनेक लम्बी समाधियों का वर्णन ग्रन्थों में मिलता हैं। ऐसे अवधूत को पुनर्विवाह के लिए तैयार करना कोई साधारण कार्य न था परन्तु पार्वती के तप ने उस असाधारण को भी साधारण बना दिया। चौबीस अवतारों की कथाओं का वर्णन करने का इस छोटे लेख में अवकाश नहीं है। पर विज्ञ पाठक जानते हैं कि उनमें से हर एक ने तप किया है। यद्यपि उनकी आत्मा पूर्ण थी। परन्तु स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में आवश्यक क्षमता उत्पन्न करने के लिए उनके लिए भी तप करना आवश्यक था। इन्द्र की इन्द्र पदवी उसकी तपस्या के कारण ही थी। अनेक कथाओं में यह प्रकट है कि किसी अधिक तपस्वी की उग्र तपस्या को देखकर इन्द्र डरता है कि कहीं यह इतना तप इकट्ठा न करले कि मुझसे इन्द्र पदवी छीन ले। इसलिए वह बहुधा तपस्वियों को तप भ्रष्ट करने के लिए प्रयत्न करता है। विश्वामित्र के उग्र तप से भयभीत होकर उसने मेनका अप्सरा को भेजकर उनका तप खंडित कराया था। अर्जुन को पराक्रम हीन करने के लिए भी उसने उर्वशी भेजी थी यह कथा महाभारत में विस्तारपूर्वक आई है। इन्द्र का आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए ब्रह्माजी के पास जाना और ब्रह्माजी द्वारा उसे थोड़ी-थोड़ी शिक्षा देकर उसे सौ वर्ष तक तप करना और तब फिर आगे की शिक्षा देना यह कथा उपनिषदों में आती है। इससे प्रकट है कि देवता भी तप के प्रभाव से ही देवत्व के अधिकारी रहते हैं। देवत्व का भी पिता तप ही है। पृष्ट संख्या: 123   अन्नमय कोश और उसका अनावरण अन्नमय कोश की जाग्रति, आहार शुद्धि से आहार के त्रिविध स्तर, त्रिविध प्रयोजन आहार, संयम और अन्नमय कोश का जागरण आहार विहार से जुड़ा है मन आहार और उसकी शुद्धि आहार शुद्धौः सत्व शुद्धौः अन्नमय कोश की सरल साधना पद्धति उपवास का आध्यात्मिक महत्त्व उपवास से सूक्ष्म शक्ति की अभिवृद्धि उपवास से उपत्यिकाओं का शोधन उपवास के प्रकार उच्चस्तरीय गायत्री साधना और आसन आसनों का काय विद्युत शक्ति पर अद्भुत प्रभाव आसनों के प्रकार सूर्य नमस्कार की विधि पंच तत्वों की साधना तत्व साधना एक महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म विज्ञान तत्व शुद्धि तपश्चर्या से आत्मबल की उपलब्धि आत्मबल तपश्चर्या से ही मिलता है तपस्या का प्रचण्ड प्रताप तप साधना द्वारा दिव्य शक्तियों का उद्भव ईश्वर का अनुग्रह तपस्वी के लिए पापनाशक और शक्तिवर्धक तपश्चर्याएँ समग्र साहित्य हिन्दी व अंग्रेजी की पुस्तकें व्यक्तित्व विकास ,योग,स्वास्थ्य, आध्यात्मिक विकास आदि विषय मे युगदृष्टा, वेदमुर्ति,तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने ३००० से भी अधिक सृजन किया, वेदों का भाष्य किया। अधिक जानकारी अखण्डज्योति पत्रिका १९४० - २०११ अखण्डज्योति हिन्दी, अंग्रेजी ,मरठी भाषा में, युगशक्ति गुजराती में उपलब्ध है अधिक जानकारी AWGP-स्टोर :- आनलाइन सेवा साहित्य, पत्रिकायें, आडियो-विडियो प्रवचन, गीत प्राप्त करें आनलाईन प्राप्त करें  वैज्ञानिक अध्यात्मवाद विज्ञान और अध्यात्म ज्ञान की दो धारायें हैं जिनका समन्वय आवश्यक हो गया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हि सच्चे अर्थों मे विकास कहा जा सकता है और इसी को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है.. अधिक पढें भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक जीवन शैली पर आधारित, मानवता के उत्थान के लिये वैज्ञानिक दर्शन और उच्च आदर्शों के आधार पर पल्लवित भारतिय संस्कृति और उसकी विभिन्न धाराओं (शास्त्र,योग,आयुर्वेद,दर्शन) का अध्ययन करें.. अधिक पढें प्रज्ञा आभियान पाक्षिक समाज निर्माण एवम सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिये समर्पित - हिन्दी, गुजराती, मराठी एवम शिक्क्षा परिशिष्ट. पढे एवम डाऊनलोड करे View more

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