Tuesday, 20 June 2017

पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ

मुख्य मेनू खोलें  खोजें संपादित करेंइस पृष्ठ का ध्यान रखेंकिसी अन्य भाषा में पढ़ें पुरुषार्थ हिन्दू धर्म में पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। प्रायः मनुष्य के लिये वेदों में चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। योग वसिष्ट के अनुसार सद्जनो और शास्त्र के उपदेश अनुसार चित्त का विचरण ही पुरुषार्थ कहलाता हे |[1] बाहरी कड़ियाँ संपादित करें चार पुरुषार्थ को जानें (हिन्दी गौरव) सन्दर्भ संपादित करें ↑ http://hariomgroup.org/hariombooks/paath/Hindi/ShriYogaVashishthaMaharamayan/ShriYogaVashihthaMaharamayan-Prakarana-2.pdf पुरुषार्थ चार है- (1)धर्म (religion 0r righteouseness), (2)अर्थ (wealth) (3)काम (Work, desire and Sex) और (4)मोक्ष (salvation or or liberation)। उक्त चार को दो भागों में विभक्त किया है- पहला धर्म और अर्थ। दूसरा काम और मोक्ष। काम का अर्थ है- सांसारिक सुख और मोक्ष का अर्थ है सांसारिक सुख-दुख और बंधनों से मुक्ति। इन दो पुरुषार्थ काम और मोक्ष के साधन है- अर्थ और धर्म। अर्थ से काम और धर्म से मोक्ष साधा जाता है। (1)धर्म- धर्म से तात्पर्य स्वयं के स्वभाव, स्वधर्म और स्वकर्म को जानते हुए कर्तव्यों का पालन कर मोक्ष के मार्ग खोलना। मोक्ष का मार्ग खुलता है उस एक सर्वोच्च निराकार सत्ता परमेश्वर की प्रार्थना और ध्यान से। ज्ञानीजन इसे ही यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार कहते हैं। तटस्थों के लिए धारणा और ध्यान ही श्रेष्ठ है और भक्तों के लिए परमेश्वर की प्रार्थना से बढ़कर कुछ नहीं- इसे ही योग में ईश्वर प्राणिधान कहा गया है- यही संध्योपासना है। धर्म इसी से पुष्‍ट होता है। पुण्य इसी से अर्जित होता है। इसी से मोक्ष साधा जाता है। (2)अर्थ- अर्थ से तात्पर्य है जिसके द्वारा भौतिक सुख-समृद्धि की सिद्धि होती हो। भौतिक सुखों से मुक्ति के लिए भौतिक सुख होना जरूरी है। ऐसा कर्म करो जिससे अर्थोपार्जन हो। अर्थोपार्जन से ही काम साधा जाता है। (3)काम- संसार के जितने भी सुख कहे गए हैं वे सभी काम के अंतर्गत आते हैं। जिन सुखों से व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक पतन होता है या जिनसे परिवार और समाज को तकलीफ होती है ऐसे सुखों को वर्जित माना गया है। अर्थ का उपयोग शरीर, मन, परिवार, समाज और राष्ट्र को पुष्ट करने के लिए होना चाहिए। भोग और संभोग की अत्यधिकता से शोक और रोगों की उत्पत्ति होती है। दोनों के लिए ही समय और नियम नियुक्ति हैं। (4)मोक्ष- मोक्ष का अर्थ है पदार्थ से मुक्ति। इसे ही योग समाधि कहता है। यही ब्रह्मज्ञान है और यही आत्मज्ञान भी। ऐसे मोक्ष में स्थित व्यक्ति को ही कृष्ण स्थितप्रज्ञ कहते हैं। हिंदूजन ऐसे को ही भगवान, जैन अरिहंत और बौद्ध संबुद्ध कहते हैं। यही मोक्ष, केवल्य, निर्वाण या समाधि कहलाता है। Last edited 25 days ago by NehalDaveND RELATED PAGES मोक्ष अष्टांगयोग अष्टांग योग  सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

No comments:

Post a Comment