Sunday, 26 November 2017
10 आविष्कारक ऋषि
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भारत के 10 आविष्कारक ऋषि | Bharat ke 10 aavishkaarak rishi
Posted on March 26, 2017
भारत के 10 आविष्कारक ऋषि |
Bharat ke 10 aavishkaarak rishi
http://dharmik.in/blog/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A5%87-10-%E0%A4%86%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%95-%E0%A4%8B%E0%A4%B7%E0%A4%BF/
भारत के 10 आविष्कारक ऋषिवेदों में ज्ञान-विज्ञान की बहुत सारी बातें भरी पड़ी हैं। आज का विज्ञान जो खोज रहा है वह पहले ही खोजा जा चुका है। बस फर्क इतना है कि आज का विज्ञान जो खोज रहा है उसे वह अपना आविष्कार बता रहा है और उस पर किसी पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों का लेबल लगा रहा है।
हालांकि यह इतिहास सिद्ध है कि भारत का विज्ञान और धर्म अरब के रास्ते यूनान पहुंचा और यूनानियों ने इस ज्ञान के दम पर जो आविष्कार किए और सिद्धांत बनाए उससे आधुनिक विज्ञान को मदद मिली। यहां प्रस्तुत है भारत के उन दस महान ऋषियों और उनके आविष्कार के बारे में संक्षिप्त में जानकारी। दसवें ऋषि के बारे में जानकार निश्चित ही आपको आश्चर्य होगा।
परमाणु सिद्धांत के आविष्कारक : परमाणु बम के बारे में आज सभी जानते हैं। यह कितना खतरनाक है यह भी सभी जानते हैं। आधुनिक काल में इस बम के आविष्कार हैं- जे. रॉबर्ट ओपनहाइमर। रॉबर्ट के नेतृत्व में 1939 से 1945 कई वैज्ञानिकों ने काम किया और 16 जुलाई 1945 को इसका पहला परीक्षण किया गया।
हालांकि परमाणु सिद्धांत और अस्त्र के जनक जॉन डाल्टन को माना जाता है, लेकिन उनसे भी 2500 वर्ष पर ऋषि कणाद ने वेदों वे लिखे सूत्रों के आधार पर परमाणु सिद्धांत का प्रतिपादन किया था।
भारतीय इतिहास में ऋषि कणाद को परमाणुशास्त्र का जनक माना जाता है। आचार्य कणाद ने बताया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं। कणाद प्रभास तीर्थ में रहते थे।
विख्यात इतिहासज्ञ टीएन कोलेबु्रक ने लिखा है कि अणुशास्त्र में आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ यूरोपीय वैज्ञानिकों की तुलना में विश्वविख्यात थे।
ऋषि भारद्वाज : राइट बंधुओं से 2500 वर्ष पूर्व वायुयान की खोज भारद्वाज ऋषि ने कर ली थी। हालांकि वायुयान बनाने के सिद्धांत पहले से ही मौजूद थे। पुष्पक विमान का उल्लेख इस बात का प्रमाण हैं लेकिन ऋषि भारद्वाज ने 600 ईसा पूर्व इस पर एक विस्तृत शास्त्र लिखा जिसे विमान शास्त्र के नाम से जाना जाता है।
प्राचीन उड़न खटोले : हकीकत या कल्पना?
भारद्वाज के विमानशास्त्र में यात्री विमानों के अलावा, लड़ाकू विमान और स्पेस शटल यान का भी उल्लेख मिलता है। उन्होंने एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर उड़ान भरने वाले विमानों के संबंध में भी लिखा है, साथ ही उन्होंने वायुयान को अदृश्य कर देने की तकनीक का उल्लेख भी किया।
बौधायन : बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता हैं। पाइथागोरस के सिद्धांत से पूर्व ही बौधायन ने ज्यामिति के सूत्र रचे थे लेकिन आज विश्व में यूनानी ज्यामितिशास्त्री पाइथागोरस और यूक्लिड के सिद्धांत ही पढ़ाए जाते हैं।
दरअसल, 2800 वर्ष (800 ईसापूर्व) बौधायन ने रेखागणित, ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज की थी। उस समय भारत में रेखागणित, ज्यामिति या त्रिकोणमिति को शुल्व शास्त्र कहा जाता था।
शुल्व शास्त्र के आधार पर विविध आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाई जाती थीं। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में परिवर्तन करना, इस प्रकार के अनेक कठिन प्रश्नों को बौधायन ने सुलझाया।
भास्कराचार्य (जन्म- 1114 ई., मृत्यु- 1179 ई.) : प्राचीन भारत के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रंथों का अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रंथों ने अनेक विदेशी विद्वानों को भी शोध का रास्ता दिखाया है। न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण के नियम को जान लिया था और उन्होंने अपने दूसरे ग्रंथ ‘सिद्धांतशिरोमणि’ में इसका उल्लेख भी किया है।
गुरुत्वाकर्षण के नियम के संबंध में उन्होंने लिखा है, ‘पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ स्वशक्ति से अपनी ओर खींच लेती है। इस कारण आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है।’ इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी में गुत्वाकर्षण की शक्ति है।
भास्कराचार्य द्वारा ग्रंथ ‘लीलावती’ में गणित और खगोल विज्ञान संबंधी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। सन् 1163 ई. में उन्होंने ‘करण कुतूहल’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में बताया गया है कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढंक लेता है तो सूर्यग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढंक लेती है तो चन्द्रग्रहण होता है। यह पहला लिखित प्रमाण था जबकि लोगों को गुरुत्वाकर्षण, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण की सटीक जानकारी थी।
पतंजलि : योगसूत्र के रचनाकार पतंजलि काशी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में चर्चा में थे। पतंजलि के लिखे हुए 3 प्रमुख ग्रंथ मिलते हैं- योगसूत्र, पाणिनी के अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रंथ। पतंजलि को भारत का मनोवैज्ञानिक और चिकित्सक कहा जाता है। पतंजलि ने योगशास्त्र को पहली दफे व्यवस्था दी और उसे चिकित्सा और मनोविज्ञान से जोड़ा। आज दुनियाभर में योग से लोग लाभ पा रहे हैं।
पतंजलि एक महान चिकित्सक थे। पतंजलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे- अभ्रक, विंदास, धातुयोग और लौहशास्त्र इनकी देन है। पतंजलि संभवत: पुष्यमित्र शुंग (195-142 ईपू) के शासनकाल में थे। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था (एम्स) ने 5 वर्षों के अपने शोध का निष्कर्ष निकाला कि योगसाधना से कर्करोग से मुक्ति पाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि योगसाधना से कर्करोग प्रतिबंधित होता है।
आचार्य चरक : अथर्ववेद में आयुर्वेद के कई सूत्र मिल जाएंगे। धन्वंतरि, रचक, च्यवन और सुश्रुत ने विश्व को पेड़-पौधों और वनस्पतियों पर आधारित एक चिकित्साशास्त्र दिया। आयुर्वेद के आचार्य महर्षि चरक की गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है।
ऋषि चरक ने 300-200 ईसापूर्व आयुर्वेद का महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘चरक संहिता’ लिखा था। उन्हें त्वचा चिकित्सक भी माना जाता है। आचार्य चरक ने शरीरशास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरणशास्त्र, औषधिशास्त्र इत्यादि विषय में गंभीर शोध किया तथा मधुमेह, क्षयरोग, हृदयविकार आदि रोगों के निदान एवं औषधोपचार विषयक अमूल्य ज्ञान को बताया।
चरक एवं सुश्रुत ने अथर्ववेद से ज्ञान प्राप्त करके 3 खंडों में आयुर्वेद पर प्रबंध लिखे। उन्होंने दुनिया के सभी रोगों के निदान का उपाय और उससे बचाव का तरीका बताया, साथ ही उन्होंने अपने ग्रंथ में इस तरह की जीवनशैली का वर्णन किया जिसमें कि कोई रोग और शोक न हो।
आठवीं शताब्दी में चरक संहिता का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ और यह शास्त्र पश्चिमी देशों तक पहुंचा। चरक के ग्रंथ की ख्याति विश्वव्यापी थी।
महर्षि सुश्रुत : महर्षि सुश्रुत सर्जरी के आविष्कारक माने जाते हैं। 2600 साल पहले उन्होंने अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग लगाना, पथरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किए।
आधुनिक विज्ञान केवल 400 वर्ष पूर्व ही शल्य क्रिया करने लगा है, लेकिन सुश्रुत ने 2600 वर्ष पर यह कार्य करके दिखा दिया था। सुश्रुत के पास अपने बनाए उपकरण थे जिन्हें वे उबालकर प्रयोग करते थे।
महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखित ‘सुश्रुत संहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ में चाकू, सुइयां, चिमटे इत्यादि सहित 125 से भी अधिक शल्य चिकित्सा हेतु आवश्यक उपकरणों के नाम मिलते हैं और इस ग्रंथ में लगभग 300 प्रकार की सर्जरियों का उल्लेख मिलता है।
नागार्जुन : नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया। रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिनमें ‘रस रत्नाकर’ और ‘रसेन्द्र मंगल’ बहुत प्रसिद्ध हैं।
रसायनशास्त्री व धातुकर्मी होने के साथ-साथ इन्होंने अपनी चिकित्सकीय सूझ-बूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार कीं। चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें ‘कक्षपुटतंत्र’, ‘आरोग्य मंजरी’, ‘योग सार’ और ‘योगाष्टक’ हैं।
नागार्जुन द्वारा विशेष रूप से सोना धातु एवं पारे पर किए गए उनके प्रयोग और शोध चर्चा में रहे हैं। उन्होंने पारे पर संपूर्ण अध्ययन कर सतत 12 वर्ष तक संशोधन किया। नागार्जुन पारे से सोना बनाने का फॉर्मूला जानते थे। अपनी एक किताब में उन्होंने लिखा है कि पारे के कुल 18 संस्कार होते हैं। पश्चिमी देशों में नागार्जुन के पश्चात जो भी प्रयोग हुए उनका मूलभूत आधार नागार्जुन के सिद्धांत के अनुसार ही रखा गया।
नागार्जुन की जन्म तिथि एवं जन्मस्थान के विषय में अलग-अलग मत हैं। एक मत के अनुसार इनका जन्म 2री शताब्दी में हुआ था तथा अन्य मतानुसार नागार्जुन का जन्म सन् 931 में गुजरात में सोमनाथ के निकट दैहक नामक किले में हुआ था। बौद्धकाल में भी एक नागार्जुन थे।
पाणिनी : दुनिया का पहला व्याकरण पाणिनी ने लिखा। 500 ईसा पूर्व पाणिनी ने भाषा के शुद्ध प्रयोगों की सीमा का निर्धारण किया। उन्होंने भाषा को सबसे सुव्यवस्थित रूप दिया और संस्कृत भाषा का व्याकरणबद्ध किया। इनके व्याकरण का नाम है अष्टाध्यायी जिसमें 8 अध्याय और लगभग 4 सहस्र सूत्र हैं। व्याकरण के इस महनीय ग्रंथ में पाणिनी ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संग्रहीत किए हैं।
अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, खान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं।
इनका जन्म पंजाब के शालातुला में हुआ था, जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के करीब तत्कालीन उत्तर-पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। हालांकि पाणिनी के पूर्व भी विद्वानों ने संस्कृत भाषा को नियमों में बांधने का प्रयास किया लेकिन पाणिनी का शास्त्र सबसे प्रसिद्ध हुआ।
19वीं सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी फ्रेंज बॉप (14 सितंबर 1791- 23 अक्टूबर 1867) ने पाणिनी के कार्यों पर शोध किया। उन्हें पाणिनी के लिखे हुए ग्रंथों तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के सूत्र मिले। आधुनिक भाषा विज्ञान को पाणिनी के लिखे ग्रंथ से बहुत मदद मिली। दुनिया की सभी भाषाओं के विकास में पाणिनी के ग्रंथ का योगदान है।
महर्षि अगस्त्य : महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ॠषि थे। निश्चित ही बिजली का आविष्कार थॉमस एडिसन ने किया लेकिन एडिसन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली।
महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की।
आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विधुत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥
-अगस्त्य संहिता
अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगायें, ऊपर पारा (mercury) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।
अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।
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POSTED INऋषि
भामती की अदभुत साधना
Posted on February 6, 2017
भामती की अदभुत साधना
https://vishwamitra-spiritualrevolution.blogspot.com/2013/10/blog-post_1833.html?showComment=1486362239049#c3451351424576759134
वेदान्त दर्शन (ब्रह्मसूत्र) आध्यात्म विद्या का अत्यन्त सरस विषय है पर उतना ही क्लिष्ट भी।पंडित वाचस्पति मिश्र (कैयट) ने उसके भाष्य का संकल्प किया। उन्हीं दिनों उनका विवाहसंस्कार भी हुआ जब उनके मस्तिष्क में इस भाष्य की कल्पना चल रही थी। इधर घर मेंधर्मपत्नी ने प्रवेश किया उधर पंडित जी ने भाष्य प्रारम्भ किया। विषय है ही ऐसा कि उसकीगहरार्इ में जितना डूबों उतनी ही अधिक गहरार्इ दिखार्इ देती चली जाये। पंडित जी को भाष्यपूरा करने में प्राय: 80 वर्ष लगे।
ग्रन्थ पूरा होते ही उन्हें स्मरण आया-वे विवाह कर धर्मपत्नी को घर लाये थे किन्तु अपनीसाहित्य साधना में वे उन्हें बिल्कुल ही भूल गये। अपराध बोध के कारण बाचस्पति सीधाभामती के पास गये और इतने दिनों तक विस्मृत किए जाने का पश्चाताप करते हुए क्षमायाचना की। पति का स्नेह पाकर भामती भाव-विभोर हो गर्इ। पंडित जी ने पूछा-मैंने इतनेदिनों तक आपका कोर्इ ध्यान नहीं दिया फिर भी दिनचर्या में कोर्इ व्यतिरेक नहीं आया जीवननिर्वाह की सारी व्यवस्था कैसे हुर्इ?
भामती ने बताया-स्वामी! हम जंगल से मूँज काट लाते थे। उसकी रस्सी बट कर बाजार में बेचआते थे। इससे इतनी आजीविका मिल जाती थी कि हम दोनों का जीवन निर्वाह भलीभाँति होजाता था। इसी तरह हम दोनों के भोजन तेल, लेखन सामग्री आदि की सभी आवश्यकव्यवस्थायें होती चलीं आर्इ। आप इस देश, जाति, धर्म और संस्कृति के लिए ब्रह्मसूत्र के भाष्यजैसा कठिन तप कर रहे थे उसमें मेरा आपकी सहधर्मिणी का भी तो योगदान आवश्यक था?इस अभूतपूर्व कर्त्तव्य परायणता से विभोर वाचस्पति मिश्र ने अपना ग्रन्थ उठाया और उसकेऊपर ‘‘भामती’’ लिखकर गर्न्थ का नामकरण कर दिया। वाचस्पति मिश्र की अपेक्षा अपने नामके कारण ‘‘भामती’’ ब्रह्मसूत्र की आज कहीं अधिक ख्याति है।
वाचस्पति मिश्र (९०० – ९८० ई) भारत के दार्शनिक थे जिन्होने अद्वैत वेदान्त का भामती नामक सम्प्रदाय स्थापित किया। वाचस्पति मिश्र ने नव्य-न्याय दर्शन पर आरम्भिक कार्य भी किया जिसे मिथिला के १३वी शती के गंगेश उपाध्याय ने आगे बढ़ाया।वाचस्पति मिश्र प्रथम मिथिला के ब्राह्मण थे जो भारत और नेपाल सीमा के निकट मधुबनी के पास अन्धराठाढी गाँव के निवासी थे। इन्होने वैशेषिक दर्शन के अतिरिक्त अन्य सभी पाँचो आस्तिक दर्शनों पर टीका लिखी है। उनके जीवन का वृत्तान्त बहुत कुछ नष्ट हो चुका है। उनकी एक कृति का नाम उनकी पत्नी भामती के नाम पर रखा है। वाचस्पति मिश्र प्रथम ने उस समय की हिन्दुओं के लगभग सभी प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदायों की प्रमुख कृतियों पर भाष्य लिखें हैं। इसके अतिरिक्त तत्वबिन्दु नामक एक मूल ग्रन्थ भी लिखा है जो भाष्य नहीं है।
1. तत्त्ववैशारदी – योगभाष्य पर टीका,
2. तत्त्वकौमुदी – सांख्यकारिका पर टीका,
3. न्यायसूची निबन्ध – न्यायसूत्र सम्बन्धी,
4. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका – न्यायवार्तिक पर टीका,
5. न्याय कणिका – मण्डनमिश्र के विधिविवेक ग्रन्थ पर टीका,
6. भामती – ब्रह्मसूत्र पर टीका सर्वाधिक मान्य एवं आदरणीय
7. तत्त्वसमीक्षा – ब्रह्मसिद्धि ग्रन्थ का टीका,
8. ब्रह्मसिद्धि – वेदान्त विषयक ग्रन्थ
9. तत्त्वबिन्दु – शब्दतत्त्व तथा शब्दबोध पर आधारित लघु ग्रन्थ,
वाचस्पति मिश्र (२)
दूसरे वाचस्पति मिश्र भी मिथिला के ही मधुबनी थाना के समौल गाँव के निवासी थे। ये पन्द्रहवीं सदी के अंत और सोलहवीं सदी के प्रारम्भ के राजा भैरव सिंह के समकालीन थे जिनका राज्य १५१५ तक था और फिर राजा रामभद्र के समय अंतिम पुस्तक लिखी। जिनकी रचित ४१ पुस्तकें हैं (१० दर्शन पर और ३१ स्मृति पर)
दर्शन पर
१. न्याय तत्वलोक
२. न्याय सुत्रोद्धार
३. न्याय रत्नप्रकाश
४. प्रत्यक्ष निर्णय
५. शब्द निर्णय
६. अनुमान निर्णय
७. खंडनोद्धार
८. गंगेश के तत्वचिंतामणि पर टीका
९. अनुमानखंड पर टीका
१०. न्याय -चिंतामणि प्रकाश शब्द खंडन पर टीका
स्मृति पर
१. कृत्य चिंतामणि
२. शुद्धि चिंतामणि
३. तीर्थ चिंतामणि
४. आचार चिंतामणि
५. आन्हिक चिंतामणि
६. द्वैत चिंतामणि
७. नीति चिंतामणि (संभवतः नवटोल के लूटन झा के साथ, पर कोई पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं, किन्तु विवाद चिंतामणि में इसका सन्दर्भ दिया गया है)
८. विवाद चिंतामणि
९. व्यव्हार चिंतामणि
१०. शूद्राचार चिंतामणि
११. श्राद्ध चिंतामणि
१२. तिथि चिंतामणि
१३. द्वैत निर्णय
१४. महादान निर्णय
१५. विवाद निर्णय
१६. शुद्धि निर्णय
१७. कृत्य महार्णव
१८. गया श्राद्ध पद्धति
१९. चन्दन धेनु प्रमाण
२०. दत्तक विधि या दत्तक पुत्रेष्टि यज्ञविधि
२१ . छत्र योगो धुत दोषंती विधि
२२. श्राद्ध विधि
२३. गया पत्तलक
२४. तीर्थ कल्पलता
२५. तीर्थलता
२६ . श्राद्धकल्प
२७. कृत्य प्रदीप
२८. सार संग्रह
२९. पितृभक्ति तरंगिणी
३०. व्रत निर्णय का पूर्वार्ध
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शुक्राचार्य :-
Posted on June 1, 2015
विकास खुराना
27 May at 18:15
शुक्राचार्य :-
असुराचार्य, भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र जो शुक्राचार्य के नाम से अधिक ख्यात हें। इनका जन्म का नाम ‘शुक्र उशनस’ है। पुराणों के अनुसार याह दैत्यों के गुरू तथा पुरोहित थे।
कहते हैं, भगवान के वामनावतार में तीन पग भूमि प्राप्त करने के समय, यह राजा बलि की झारी के मुख में जाकर बैठ गए और बलि द्वारा दर्भाग्र से झारी साफ करने की क्रिया में इनकी एक आँख फूट गई। इसीलिए यह “एकाक्ष” भी कहे जाते थे। आरंभ में इन्होंने अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वह अपने पुत्र के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते। इन्होंने 1,000 अध्यायोंवाले “बार्हस्पत्य शास्त्र” की रचना की। ‘गो’ और ‘जयंती’ नाम की इनकी दो पत्नियाँ थीं। असुरों के आचार्य होने के कारण ही इन्हें ‘असुराचार्य’ कहते हैं।
शुक्राचार्य से संबन्धित कुछ विशेष बातें –
01- शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था।
02- बृहस्पति के पुत्र कच ने इनसे संजीवनी विद्या सीखी थी ।
03- दैत्यों के गुरु शुक्र का वर्ण श्वेत है। उनके सिर पर सुन्दर मुकुट तथा गले में माला हैं वे श्वेत कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनके चार हाथों में क्रमश:- दण्ड, रुद्राक्ष की माला, पात्र तथा वरदमुद्रा सुशोभित रहती है।
04- महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी से प्रतिद्वन्द्विता रखने के कारण दैत्यों का आचार्यत्व स्वीकार किया।
05- शुक्राचार्य दानवों के पुरोहित हैं। ये योग के आचार्य हैं। अपने शिष्य दानवों पर इनकी कृपा सर्वदा बरसती रहती है। इन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके उनसे मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी। उसके बल से ये युद्ध में मरे हुए दानवों को ज़िंदा कर देते थे।
06- आचार्य शुक्र वीर्य के अधिष्ठाता हैं। दृश्य जगत में उनके लोक शुक्र तारक का भूमि एवं जीवन पर प्रभाव ज्यौतिषशास्त्र में वर्णित है।
07- आचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इनके पुत्र षण्ड और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहाँ नीति शास्त्र का अध्यापन करते थे।
08- मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य ने असुरों के कल्याण के लिये ऐसे कठोर व्रत का अनुष्ठान किया जैसा आज तक कोई नहीं कर सकां इस व्रत से इन्होंने देवाधिदेव शंकर को प्रसन्न कर लिया। शिव ने इन्हें वरदान दिया कि तुम युद्ध में देवताओं को पराजित कर दोगे और तुम्हें कोई नहीं मार सकेगा। भगवान शिव ने इन्हें धन का भी अध्यक्ष बना दिया। इसी वरदान के आधार पर शुक्राचार्य इस लोक और परलोक की सारी सम्पत्तियों के स्वामी बन गये।
09- महाभारत के अनुसार सम्पत्ति ही नहीं, शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी स्वामी हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।
10- ब्रह्मा की प्रेरणा से शुक्राचार्य ग्रह बनकर तीनों लोकों के प्राण का परित्राण करने लगे। कभी वृष्टि, कभी अवृष्टि, कभी भय, कभी अभय उत्पन्न कर ये प्राणियों के योग-क्षेम का कार्य पूरा करते हैं। ये ग्रह के रूप में ब्रह्मा की सभा में भी उपस्थित होते हैं। लोकों के लिये ये अनुकूल ग्रह हैं तथा वर्षा रोकने वाले ग्रहों को शान्त कर देते हैं। इनके अधिदेवता इन्द्राणी तथा प्रत्यधिदेवता इन्द्र हैं।
11- मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। इनका वाहन रथ है, उसमें अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं। रथ पर ध्वजाएँ फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड है। शुक्र वृष और तुला राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 20 वर्ष की होती है।
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POSTED INऋषि
SAPTHA RISHIS }7{ சப்த ரிஷிக்கள்
Posted on May 13, 2015
Nandakumar Gopalan
18 March · Edited
SAPTHA RISHIS }7{ சப்த ரிஷிக்கள்
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ATRI –^– 1 –^– அத்ரி :
——————————
Atri……………..δ UMa………………..Megrez…………..அத்ரி
Atri (Sanskrit: अत्रि) or Attri is a legendary bard and scholar and was one of 9 Prajapatis, and a son of Brahma, said to be ancestor of some Brahmin, Prajapatis, kshatriya and Vaishya communities who adopt Atri as their gotra. Atri is the Saptarishis (Seven Great Sages Rishi) in the seventh, i.e. the present Manvantara.
His life
Atri Maharishi is one of the ten sons of Creator Brahma and first of the Saptha Rishis, created by just the will of the Almighty and therefore designated as a Maanasa-putras. There were ten of these. Atri’s wife is Anasuya or Anusiya devi, a daughter of Kardama Prajapati and an embodiment of chastity.
Atri Gotra originates in the lineage of Brahmarshi Atri and Anasuya Devi (Without-Spite). Anasuya is the daughter of Kardama Prajapati. Brahmarshi Atri is the seer in the fifth Mandala (chapter) of the Rigveda. Atri, also called The Devour-er represents the power of detachment. He is also the Manasa Putra and was born from the mind of Lord Brahma (from his eyes) to assist Lord Brahma in the act of creation. When the sons of Brahma were destroyed by a curse of Shiva, Atri was born again from the flames of a sacrifice performed by Brahma. His wife in both manifestations was Anasuya. She bore him three sons, Datta, Durvasas, and Soma, in his first life, and a son Aryaman (Nobility), and a daughter, Amala (Purity), in the second. Soma, Datta and Durvasa, are the incarnations of the Divine Trinity Brahma, Vishnu, and Rudra (Shiva) respectively. The Trinity channeled their full creative potential through Brahmarshi Atri when they granted boons to his wife Devi Anasuya for helping the Sun to rise in the East every day.
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Brahmarshi Atri
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Atri Gotra is from the lineage of Brahmarshi Atri and Anasuya Devi. Brahmarshi Atri is the seer of the fifth mandala (book) of the Rigveda. He had many sons, including Datta, Durvasa who are the incarnations of the Divine Trinity Vishnu, Lord shiva respectively. The trimurti channeled through Brahmarsi Atri when they granted boons to his wife Devi Anusuya for helping the Sun to rise in the east everyday. Soma is called Chandratreya or Chandratre, and Durvasa is Krishnatreya or Krishnatre. Somatreya (Chandra) established the Someshwara Jyotirlinga, used to overcome all kinds of passion. Dattatreya, as the incarnation of Vishnu, has the power to cause any species to continue.
A Sapta Rishi
He is among the Sapta Rishi Mandala (seven luminous or eternal sages in the sky) symbolized by the Great Bear (or “Ursa Major” in Latin) and the seven stars around it, named Megrez in Arabic (the root of the tail). The star is also considered as δ (Delta) or the 4th star in the Great Bear constellation. Saptarshi, among several meanings, are described as “The seven solar rays” (Sapta-rishayaha) by the Rishi Yaska. Collectively, they are also called Pitarah, the Fathers. In China, the star Megrez is known as Kwan, and Tien Kuen, or Heavenly Authority.
Atri, who was born from Brahma’s eyes and the Vishnu-Dharma, is said to rule the other stars of the Great Bear identifying Kratu with the star α Dubhe; Pulaha with β Merak; Pulastya with γ Phecda; Atri with δ Megrez; Angiras ε Alioth; Vasishtha with ζ Mizar; Bhrigu with η Alkaid. According to the Puranic stories, Brahma went into deep meditation for several thousands of years, at the termination of which a drop of water fell from his eyes which took the form of the sage, Atri.
Prominence of the δ Megrez-Atri is signified by its position in the constellation rather than the magnitude of brightness. In that it can be observed that δ of the Great Bear, or Big Dipper, is the central star having on both sides three stars each. Symbolically, it holds both sides together by providing the point of focus.
Seer of Rig Veda
He is the seer of the fifth Mandala (Book 5) of the Rigveda. Atri had many sons and disciples who have also contributed in the compilation of the Rig Veda and other Vedic texts. Mandala 5 comprises 87 hymns, mainly to Agni and Indra, but also to the Visvedevas (“all the gods’), the Maruts, the twin-deity Mitra-Varuna and the Asvins. Two hymns each are dedicated to Ushas (the dawn) and to Savitr. Most hymns in this book are attributed to the Atri clan composers. Philological and linguistic evidence indicate that the Rigveda was composed in the north-western region of the Indian subcontinent, most likely between c. 1500–1200 BCE, though a wider approximation of c. 1700–1100 BCE has also been given.
Atri Shastra and Agama
In the Vaishnava tradition, Agamas attributed to sage Atri are found in two main schools Pancharatra and Vaikhanasas.[16] Originally Vikhanasa sage passed on the knowledge Vaikhanasa-kalpa –sutra to nine disciples in the First Manvantara to Atri, Bhrigu, Marichi, Kashyapa, Vasishta, Pulaha, Pulasthya, Krathu and Angiras. Only those of Bhrigu, Marichi, Kashyapa and Atri are extant today. The four rishis are said to have received the esoteric knowledge of Vishnu from the first Vikahansa, i.e., the older Brahma in the Svayambhuva Manvanthara. Thus, those sages Atri, Bhrigu, Marichi, Kashyapa, are considered the propagators of vaikhānasa śāstra.
Atri is credited with four works spread over 88,000 verses composed in anustuph chhandas: Purvatantra; Atreyatantra; Vishnutantra; and, Uttaratantra. However, in ānanda saṃhitā, written by the sage Marichi, he attributes to Atri: pūrvatantra, viṣṇutantra, uttaratantra and mahātantra. Vatavarana Shastra, attributed to Atri, deals with clouds, their categorization and characteristics, 12 different kinds of rain, 64 types of lightning, 33 types of thunderbolts, etc The Bhrgu, Atri and Marichi Samhitas go into different aspects of architecture of Vaikhanasa Vishnu temples, while other fragments cover Chitra karma or painting of pictures of deities. In Charaka Samhita, Atri occupies an important position as a preceptor in the dissemination of the discipline of Ayurveda.
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Attri is a clan or Gotra of Maha Rishi Attri :
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The people of this clan are predominantly Jats and Brahmans Attris live in all parts of India but mainly in Uttar Pradesh, Punjab, Haryana, and Himachal Pradesh and Rajasthan.
Attri Jats have about 60 villages in Aligarh District of Uttar Pradesh, including Ghanghauli,Malav, KANSERA, Zikarpur, Kheria, Jaidpura, Jattari, Hamidpur, Gharwara, Usrah, Nagar, Syaraul, Khandeha etc.
Main source of earning is agriculture. Sizable chunk of the Attri Jats also serve in Indian Army, air-force, navy and other paramilitary bodies (BSF, CISF, CRPF etc.).
Attri Jats are also known as Khaderiya.
Villages of Attri
Uttar Pradesh
Ghanghauli, Kansera, Kurana, Jaidpura, Kheria Khurd, Shyaraul, Zikarpur, Hamidpur,Mour, Jattari, Usrah, Rasulpur, Khandeha, Gharbara In Aligarh District.
Manchad,Dansoli,Neemka,Kalakhuri & Udaipur in Gautam Budh Nagar District.
champatpur(chakhendi),rashulabad in fatehpur District.
Azizpur, Tumoula, Jaab In Mathura District.
Haryana
Villages well known as Mohna (Sub-tehsil,Faridabad), Jalhakaa, and Anchera Khurd ( Jind ) are also known as Attri Jat villages.
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அத்திரி மகரிஷி வரலாறு :
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ரிக்வேதம் :- 9 -6 – 7; 10 – 143வது ரிக்குகளுக்கும்.
ஸாமவேதம் :- 1–4, 6–4, 8–7வது சூக்தங்களுக்கும் இவர் கர்த்தா.
இவரின் பத்தினி அனுசூயை. இவ்வம்மை தட்சப் பிரஜாபதியின் மகள். தன் கடுந்தவ மகிமையால் மந்தாகினி என்னும் புண்ய நதியைச் சிருஷ்டித்தாள்.இந்நதியின் வளப்பத்தால் கடும் பஞ்சகாலத்திலும் உயிரினங்களைக் காப்பாற்றினாள் அனுசூயை.
தன் மனைவியுடன் ரிக்ஷ பர்வதத்திற்குச் சென்று கடுந்தவம் இயற்றினார். அவர் தவத்திற்குத் திரிமூர்த்திகளும் மகிழ்ந்து தரிசனம் தந்தனர். எம் அம்சம் உள்ள மூன்று பிள்ளைகள் உமக்குப் பிறப்பர் என்று வரம் அருளி மறைந்தனர். பிரம்மனின் அம்சமாக சோமனும், விஷ்ணுவின் அம்சமாகத் தத்தாத்ரேயரும், சிவனின் அம்சமாகத் துருவாசரும் பிறந்தனர்.
சத்யநேத்ரன், ஹவ்யன், ஆபோமூர்த்தி, சனி, ஸோமன் என்னும் ஐவர் புத்திரர்களும், ச்ருதி என்னும் பெண்ணும் அத்ரிக்குப் பிறந்தனர் என்பது வாயு புராணம்.
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Pictures :
1-ATHRI with Anusiya devi & Family
2-ATHRI_MAHARISHI_BLESSED by Trinity
3- Athri Tree( அத்ரி மரம்) where penance was done
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गोस्वामी तुलसीदास
Posted on May 12, 2015
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23 hrs ·
आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक भारत
काशी की विभूतियाँ
गोस्वामी तुलसीदास
श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का जन्म सन् १५६८ में राजापुर में श्रावण शुक्ल ७ को हुआ था। पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था। तुलसी की पूजा के फलस्वरुप उत्पन्न पुत्र का नाम तुलसीदास रखा गया। पत्नी रत्नावली के प्रति अति अनुराग की परिणति वैराग्य में हुई। अयोध्या और काशी में वास करते हुए तुलसीदास ने अनेक ग्रन्थ लिखे। चित्रकूट में हनुमान् जी की कृपा से इन्हे राम जी का दर्शन हुआ। काशी और अयोध्या में (संवत् १६३१) ‘रामचरितमानस’ और ‘विनय पत्रिका’ की रचना की। तुलसी की ‘हनुमान् चालीसा’ का पाठ करोड़ो हिन्दू नित्य करते हैं। तुलसी घाट पर ही निवास करते हुए श्रावण शुक्ल तीज को राम में लीन हो गये।
गोस्वामी तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है। उनका जन्म बांदा जिले के राजापुर गाँव में एक सरयू पारीण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका विवाह सं. १५८३ की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को बुद्धिमती (या रत्नावली) से हुआ। वे अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण रुप से आसक्त थे। एक बार जब उनकी पत्नी मैके गयी हुई थी उस समय वे छिप कर उसके पास पहुँचे। पत्नी को अत्यंत संकोच हुआ उसने कहा –
हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।
तुलसी के जीवन को इस दोहे ने एक नयी दिशी दी। वे उसी क्षण वहाँ से चल दिये और सीधे प्रयाग पहुँचे।
फिर जगन्नाथ, रामेश्वर, द्वारका तथा बदरीनारायण की पैदल यात्रा की। चौदह वर्ष तक के निरंतर तीर्थाटन करते रहे। इस काल में उनके मन में वैराग्य और तितिक्षा निरंतर बढ़ती चली गयी। इस बीच आपने श्री नरहर्यानन्दजी को गुरु बनाया।
गोस्वामी जी के संबंध में कई कथाएँ प्रचलित हैं। कहते हैं जब वे प्रात:काल शौच के लिये गंगापार जाते थे तो लोटे में बचा हुआ पानी एक पेड़ेे की जड़ में डाल देते थे। उस पेड़ पर एक प्रेत रहता था। नित्य पानी मिलने से वह प्रेत संतुष्ट हो गया और गोस्वामी जी सामने प्रकट हो कर उनसे वर माँगने की प्रार्थना करने लगा। गोस्वामी जी ने रामचन्द्र जी के दर्शन की लालसा प्रकट की। प्रेत ने बताया कि अमुक मंदिर में सायंकाल रामायण की कथा होती है, यहाँ हनुमान् जी नित्य ही कोढ़ी के भेष में कथा सुनने आते हैं। वे सब से पहले आते हैं और सब के बाद में जाते हैं। गोस्वामी जी ने वैसा ही किया और हनुमान् जी के चरण पकड़ कर रोने लगे। अन्त में हनुमान् जी ने चित्रकूट जाने की आज्ञा दी।
आप चित्रकूट के जंगल में विचरण कर रहे थे तभी दो राजकुमार – एक साँवला और एक गौरवर्ण धनुष-बाण हाथ में लिये, घोड़ेे पर सवार एक हिरण के पीछे दौड़ते दिखायी पड़े। हनुमान् जी ने आ कर पूछा, “कुछ देखा? गोस्वामी जी ने जो देखा था, बता दिया। हनुमान् जी ने कहा,’वे ही राम लक्ष्मण थे।’ वि.सं. १६०७ का वह दिन। उस दिन मौनी अमावस्या थी। चित्रकूट के घाट पर तुलसीदास जी चंदन घिस रहे थे। तभी भगवान् रामचन्द्र जी उनके पास आये और उनसे चन्दन माँगने लगे। गोस्वामी जी ने उन्हें देखा तो देखते ही रह गये। ऐसी रुपराशि तो कभी देखी ही नहीं थी। उनकी टकटकी बंध गयी। उस दिन रामनवमी थी। संवत १६३१ का वह पवित्र दिन। हनुमान् जी की आज्ञा और प्रेरणा से गोस्वामी जी ने रामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया और दो वर्ष, सात महीने तथा छब्बीस दिन में उसे पूरा किया। हनुमान् जी पुन: प्रकट हुए, उन्होंने रामचरितमानस सुनी और आशीर्वाद दिया, ‘यह रामचरितमानस तुम्हारी कीर्ति को अमर कर देकी।’
सच्चरित्र होने के कारण आप के हाथ से कुछ न कुछ चमत्कार हो जाते थे। एक बार उनके आशीर्वाद से एक विधवा का पति जीवित हो उठा। यह खबर बादशाह तक पहुँची। उसने उन्हें बुला भेजा और कहा, ‘कुछ करामात दिखाओ।’ गोस्वामी जी ने कहा कि ‘रामनाम’ के अतिरिक्त मैं कुछ भी करामात नहीं जानता। बादशाह ने उन्हें कैद कर लिया और कहा कि जब तक करामात नहीं दिखाओगे, तब तक छूट नहीं पाओगे। तुलसीदास जी ने हनुमान् जी की स्तुति की। हनुमान् जी ने बंदरों की सेना से कोट को नष्ट करना प्रारम्भ किया। बादशाह इनके चरणों पर गिर पड़े और उनसे क्षमायाचना की।
तुलसीदास जी के समय में हिंदु समाज में अनेक पंथ बन गये थे। मुसलमानों के निरंतर आतंक के कारण पंथवाद को बल मिला था। उन्होंने रामायम के माध्यम से वर्णाश्रम धर्म, अवतार धर्म, साकार उपासना, मूर्कित्तपूजा, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन तथा तत्कालीन मुस्लिम अत्याचारों और सामाजिक दोषों का तिरस्कार किया।
वे अच्छी तरह जानते थे कि राजाओं की आपसी फूट और सम्प्रदाय वाद के झगड़ों के कारण भारत में मुसलमान विजयी हो रहे हैं। उन्होंने गुप्त रुप से यही बातें रामचरितमानस के माध्यम से बतलाने का प्रयास किया किंतु राजाश्रय न होने के कारण लोग उनकी बात समझ नहीं पाये और रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सफल नहीं हो पाया। यद्यपि रामचरितमानस को तुलसीदास जी ने राजनीतिक शक्ति का केन्द्र बनाने का प्रयत्न नहीं किया फिर भी आज वह ग्रंथ सभी मत-मतावलम्बियों को पूर्ण रुप से मान्य है। सब को एक सूत्र में बाँधने का जो कार्य शंकराचार्य ने किया था, वही कार्य बाद के युग में गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया। गोस्वामी तुलसीदास ने अधिकांश हिदू भारत को मुसलमान होने से बचाया।
आप के लिखे बारह ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हैं –
दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरित मानस, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण, रामाज्ञा, विन पत्रिका, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली। इसके अतिरिक्त रामसतसई, संकट मोचन, हनुमान बाहुक, रामनाम मणि, कोष मञ्जूषा, रामशलाका, हनुमान चालीसा आदि आपके ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं।
१२६ वर्ष की अवस्था में संवत् १६८० श्रावण शुक्ल सप्तमी, शनिवार को आपने अस्सी घाट पर अपना शहरी त्याग दिया।
संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।
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श्री शंकराचार्य
Posted on May 12, 2015
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23 hrs ·
आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक भारत with Vesh Limbu and राघवेन्द्र कुमार औदीच्य
काशी की विभूतियाँ
श्री शंकराचार्य
अद्वेत दर्शन के महान् आचार्य शंकर का प्रादुर्भाव ७८० ईस्वी में हुआ। केरल प्रदेश में अलवाई नदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में महान् भक्त शिव गुरु के घर माता विसिष्टा ने वैशाख शुक्ल पंचमी को इन्हें जन्म दिया। शंकर की कृपा से जन्में बालक का नाम शंकर पड़ा। आठवें वर्ष में शंकर ने सन्यास ले लिया। गुरु की खोज में ओंकारेश्वर पहुँचे जहाँ इन्हें गोविन्दाचार्य मिले। तीन वर्ष अध्ययन करके बारह वर्ष की आयु में ये काशी पहुँचे। मणिकर्णिका पर यह बाल-आचार्य वृद्ध शिष्यों को ‘मौन व्याख्यान’ देता था। काशी में गंगा स्नान करके लौटते समय एक चांडाल को मार्ग से हटो कहा तब चांडाल ने इन्हें ‘अद्वेत’ का वास्तविक ज्ञान दिया और काशी में चांडाल रुपधारी शंकर से पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर शंकर ने १४ वर्ष की उम्र में ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद् पर भाष्य लिखे। सोलह वर्ष की उम्र में वेदव्यास से भेंट हुई।
प्रयाग में कुमारिल भ से मिले, महिष्मति में मंडन मिश्र से शास्रार्थ किया। इन्होंने केदार धाम में ३२ वर्ष की आयु में शिवसायुज्य प्राप्त किया।
भगवान् शंकर के संबंध में जो भी पाठ्य सामग्री प्राप्त है तथा उनके जीवन संबंध में जो भी घटनाएँ मिलती हैं उनसे ज्ञात होता है कि वे एक अलौकिक व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, अगाध भगवद्भक्ति आदि का दुर्लभ समावेश दिखायी देता है। उनकी वाणी में मानों सरस्वती का वास था। अपनी बत्तीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अनेक बृहद् ग्रन्थों की रचना की, पूरा भारत भ्रमण कर अपने विरोधियों को शास्रार्थ में पराजित किया, भारत के चारों कोनों में मठ स्थापित किये तथा डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की। धर्म संस्थापना के उनके इस कार्य को देख कर यह विश्वास दृढ़ हो उठता है कि वे साक्षात् शंकर के अवतार थे –
“शंकरो शंकर: साक्षात्”।
उनके ही समय में भारत में वेदान्त दर्शन अद्वेैतवाद का सर्वाधिक प्रचार हुआ, उन्हें अद्वेैतवाद का प्रवर्त्तक माना जात है। ब्रह्मसूत्र पर जितने भी भाष्य मिलते हैं उनमें सबसे प्राचीन शंकर भाष्य ही है। उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है लेकिन अधिकांश लोगों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में आविर्भूत हुए और ३२ वर्ष की आयु में तिरोहित हुए। उनका जन्म केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तटवर्ती कलादी नामक ग्राम में वैशाख शुक्ल ५ को हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा या विशिष्टा था।
उनके बचपन से ही मालूम होने लगा कि किसी महान् विभूति का अवतार हुआ है। पाँचवे वर्ष में यज्ञोपवीत करा कर इन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेजा गया और सात वर्ष की आयु में ही आप वेद, वेदान्त और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर वापस आ गये। वेदाध्ययन के उपरान्त आपने संन्यास ग्रहण करना चाहा किन्तु माता ने उन्हें आज्ञा नहीं दी।
एक दिन वे माँ के साथ नदी पर स्नान करने गये, वहाँ मगर ने उन्हें पकड़ लिया। माँ हाहाकार मचाने लगी। शंकर ने माँ से कहा तुम यदि मुझे संन्यास लेने की अनुमति दो तो मगर मुझे छोड़े देगा। माँ ने आज्ञा दे दी। जाते समय माँ से कहते गये कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा। घर से चलकर आप नर्मदा तट पर आये, वहाँ गोविन्द-भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से साधना शुरु कर दी अल्पकाल में ही योग सिद्ध महात्मा हो गये। गुरु की आज्ञा से वे काशी आये। यहाँ उनके अनेक शिष्य बन गये, उनके पहले शिष्य बने सनन्दन जो कालान्तर में पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ग्रंथ भी लिखते जाते थे। कहते हैं कि एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रुप में उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया। जब भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गंगा तट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। उस सूत्र पर उनका उस ब्राह्मण के साथ आठ दिन तक शास्रार्थ हुआ।
बाद में मालूम हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं साक्षात् भगवान् वेद व्यास थे। वहाँ के कुरुक्षेत्र होते हुए वे बदरिकाश्रम पहुँचे। उन्होंने अपने सभी ग्रंथ प्राय: काशी या बदरिकाश्रम में लिखे थे, वहाँ से वे प्रयाग गये और कुमारिल भ से भेंट की। कुमारिल भ के कथनानुसार वे माहिष्मति नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्रार्थ के लिए आये। उस शास्रार्थ में मध्यस्थ थीं मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती। इसमें मण्डन मिश्र की पराजय हुई, और उन्होंने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। इस प्रकार भारत-भ्रमण के साथ विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित कर वे बदरिकाश्रम लौट आये वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और तोटकाचार्य को उसका माठीधीश बनाया। अंतत: वे केदार क्षेत्र में आये और वहीं इनका जीवन सूर्य अस्त हो गया।
उनके लिखे ग्रंथों की संख्या २६२ बतायी जाती है, लेकिन यह कहना कठिन है कि ये सारे ग्रंथ उन्हीं के लिख हैं। उनके प्रधान ग्रंथ इस प्रकार हैं – ब्रह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद् भाष्य, गीता भाष्य, विष्णु सहस्रनाम भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, हस्तामलक भाष्य आदि।
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श्री पाणिनी
Posted on May 12, 2015
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23 hrs ·
आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक भारत with Palash Malik
श्री पाणिनी
पाणिनी मुनि अपने व्याकरण ‘अष्टाध्यायी” अथवा ‘पाणिनीय अष्टक’ के लिये प्रसिद्ध हैं। अब तक प्रकाशित ग्रंथों में सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ पाणिनी का ही है। पाणिनी का काल ३५० ई.पू. माना जाता है किंतु इस संबंध में प्रस्तुत सन्देह रहित नहीं है। संभवत: उनका काल ५०० ई. पूर्व या उसके बाद का था।
सूत्र साहित्य में पाणिनी कृत – ‘अष्टाधायायी’, ‘श्रौत सूत्र’, ‘गृह्यसूत्र’ तथा धर्मसूत्र का समावेश है। पाणिनीकृता ‘अष्टाध्यायी’ संस्कृत व्याकरण संबंद ग्रंथ है। इसमें श्रौत सूत्रों में पुरोहितों द्वारा सम्पादित किये जाने वाले संस्कारों का विवरण है। ‘धर्मसूत्र’ में परम्परागत नियम तथा विधियाँ दी गयी हैं और गृह्यसूत्रों में जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक की जीवन विष्यक क्रियाओं का उल्लेख है। प्रमुख सूत्रकारों में गौतम, बोधायन-आपस्तम्ब, वशिष्ठ, आश्वलायन तथा कात्यायन आदि कि गणना होती है।
पाणिनी के नाम से कमनीय पद्य केवल सूक्तियों में ही संग्रहित नहीं है, बल्कि कोश ग्रंथों में तथा अलंकार शास्रीय पुस्तकों में भी उधृत मिलते हैं। पुरातत्व वेत्ताओं में इस बात पर गहरा मतभेद है कि ये कविताएँ, वैय्याकरण पाणिनी की हैं अथवा ‘पाणिनी’ नामधारी किसी अन्य कवि की? डॉक्टर भाण्डारकर, पीचर्सन आदि विद्वान सब कुछ सोचने-विचारने के बाद यही सोचते हैं कि इन श्लोकों का रचियता पाणिनी वैय्याकरण पाणिनी नहीं हो सकता। इस के विपरीत डॉक्टर औफ्रेक्ट तथा डॉक्टर पिशेल की सम्मति है कि पाणिनी को केवल एक खूसट वैय्याकरम मानना बड़ी भारी भूल करना है, वह स्वयं अच्छ कवि थे। संस्कृत साहित्य की परंपरागत प्रसिद्धि पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि पाणिनी ही इन पद्यों के नि:सन्दिग्ध रचयिता है। राजशेखर ने सूक्तिग्रंथों में पाणिनी को व्याकरण तथा ‘जाम्बवती जय’ का रचयिता माना है –
नम: पाणिनये तस्मै यस्मादाविर भूदिह।
आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।।
यह बात महत्वपूर्ण है कि पाणिनी यदा-कदा फुटकर पद्य लिखने वाले कवि नहीं थे, बल्कि संस्कृत साहित्य के सर्वप्रथम महाकाव्य लिखने का श्रेय उन्हीं को जाता है। इस महाकाव्य का नाम कहीं तो ‘पाताल विजय’ तो कहीं ‘जाम्बवती जय’ पाया जाता है। अष्टाध्यायी में पारिभाषिक शब्दों में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनी के बनाये हुए हैं और बहुत से ऐसे हैं जो पहले से ही प्रचलित हैं। पाणिनी ने अपने रचे शब्दों की व्याख्या की है और पहले के अनेक पारिभाषिक शब्दों की भी नयी व्याख्या कर उनके प्रयोग को विकसित किया है।
महर्षि पाणिनी ने काशी शब्द को गण के आदि में दिखलाया है।
काश्यादिभ्यष्ठञत्रिठौ-अष्टाध्यायी ४-२-११६
अष्टाध्यायी में ‘काशीय:’ रुप की सिद्धि भी बतायी गयी है।
संस्कृत में उच्चारण की शुद्धता पर अधिक जोर दिया जाता है। वैदिक मन्त्रों में उच्चारण में यदि छोटी सी भी त्रुटि हो जाती है, तो महान् अनर्थ उपस्थित हो जाता है और इस अनर्थ का भाजन स्वयं वृत्तासुर को बनना पड़ा था जिसे यज्ञ में स्वर के अपराध से लेने के देने पड़ गये थे। महर्षि पाणिनी ने व्याघ्री को अपने बच्चे को मुँह में ले जाते देखा था और उसी को उन्होंने वर्णोंच्चारण-विधान में आदर्श माना था। बोलने वाले को चाहिये कि न तो वह वर्णों का काटे, न वर्णों को मुँह से बिखरने दे –
व्याघ्री यथा हरेत् पुत्रान् दंष्ट्राभ्यां न च पीडयेत्।
भीता पतन-भेदाभ्यां तद्वद् वर्णान प्रजोजयेत्।।-पाणिनी शिक्षा-श्लोक २४
उच्चारण की गलतियों का उल्लेख पाणिनी ने अपने सूत्रों में किया है। एक बार अशुद्ध उच्चारण के लिये ‘कारयति’ का प्रयोग होता है। अर्थात बारंबार अशुद्ध उच्चारण करने पर ‘कारयते’ आत्मनेपद् का प्रयोग समुचित माना जाता है। इसके लिये पाणिनी का विधान इस सूत्र में है-
मिथोपपदात् कृञोडभ्यासे (१/३/७१)
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संत रैदास
Posted on May 12, 2015
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23 hrs ·
आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक भारत
संत रैदास
(१४३३, माघ पूर्णिमा)
प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे सन्तों में रैदास का नाम अग्रगण्य है। वे सन्त कबीर के गुरुभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे। लगभाग छ: सौ वर्ष पहले भारतीय समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था। उसी समय रैदास जैसे समाज-सुधारक सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ। रैदास का जन्म काशी में चर्मकार कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।
उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे।
रैदास के समय में स्वामी रामानन्द काशी के बहुत प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सन्त थे। रैदास उनकी शिष्य-मण्डली के महत्वपूर्ण सदस्य थे।
प्रारम्भ में ही रैदास बहुत परोपरकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनकार तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, ‘गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि आज मैं जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।’ कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि – मन चंगा तो कठौती में गंगा।
रैदासे ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परसम्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
“कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।”
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सदव्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है –
“कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।”
उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।
‘वर्णाश्र अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।”
आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्याधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
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श्री वल्लभाचार्य
Posted on May 12, 2015
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23 hrs ·
आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक भारत
काशी की विभूतियाँ
श्री वल्लभाचार्य
श्री नाथ जी के आराध्य महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य सन् १४७८ में वैशाख कृष्ण एकादशी को हुआ। कांकरवाड निवासी लक्ष्मण भट्ट की द्वितीय पत्नी इल्लभा ने आपको जन्म दिया। काशी में जतनबर में आपने शुद्धाद्वेैत ब्रह्मवाद का प्रचार किया और वेद रुपी दधि से प्राप्त नवनीत रुप पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया। आपका विवाह काशी के श्री देवभ की पुत्री महालक्ष्मी से हुआ जिनसे उन्हें दो पुत्र गोपीनाथ और विट्ठलेश हुए। आपने ८४ लाख योनी में भटकते जीवों के उद्धारार्थ ८४ वैष्णव ग्रन्थ, ८४ बैठके और ८४ शब्दों का ब्रह्म महामंत्र दिया। काशी में अपने आराध्य को वर्तमान गोपाल मंदिर में स्थापित किया और सन् १५३० में संन्यास ले लिया। हनुमान् घाट पर आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को गंगा में जल समाधि ले ली।
आचार्यपाद श्री वल्लभाचार्य का जन्म चम्पारण्य में रायपुर मध्यप्रान्त में हुआ था। वे उत्तारधि तैलंग ब्राह्मण थे। इनके पिता लक्ष्मण भट्टजी की सातवीं पीढ़ी से ले कर सभी लोग सोमयज्ञ करते आये थे। कहा जाता है कि जिसके वंश में सौ सोमयज्ञ कर लिए जाते हैं, उस कुल में महापुरुष का जन्म होता है। इसी नियम के साक्ष्य के रुप में श्री लक्ष्मण भ के कुल में सौ सोमयज्ञ पूर्ण हो जाने से उस कुल में श्री वल्लाभाचार्य के रुप में भगवान् का प्रादुर्भाव हुआ। कुछ लोग उन्हें अग्निदेव का अवतार मानते हैं। सोमयज्ञ की पूर्कित्त के उपलक्ष्य में लक्ष्मण भ जी एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने के उद्देश्य से सपरिवार काशी आ रहे थे तभी रास्ते में श्री वल्लभ का चम्पारण्य में जन्म हुआ। बालक की अद्भुत प्रतिभा तथा सौन्दर्य देख कर लोगों ने उसे ‘बालसरस्वती वाक्पति’ कहना प्रारंभ कर दिया। काशी में ही अपने विष्णुचित् तिरुमल्ल तथा माधव यतीन्द्र से शिक्षा ग्रहण की तथा समस्त वैष्णव शास्रों में पारंगत हो गये।
काशी से आप वृन्दावन चले गये। फिर कुछ दिन वहाँ रह कर तीर्थाटन पर चले गये। उन्होंने विजयनगर के राजा कृष्णदेव की सभा में उपस्थित हो कर बड़े-बड़े विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित किया। यहीं उन्हें वैष्णवाचार्य की उपाधि से विभूषित किया गया।
राजा ने उन्हें स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर उनका साङ्गोपाङ्ग पूजन किया तथा स्वर्ण राशि भेंट की। उसमें से कुछ भाग ग्रहण कर उन्होंने शेष राशि उपस्थित विद्वानों और ब्राह्मणों में वितरित कर दी।
श्री वल्लभ वहां से उज्जैन आये और क्षिप्रा नदी के तट पर एक अश्वत्थ पेड़ के नीचे निवास किया। वह स्थान आज भी उनकी बैठक के रुप में विख्यात है। मथुरा के घाट पर भी ऐसी ही एक बैठक है और चुनार के पास उनका एक मठ और मन्दिर है। कुछ दिन वे वृन्दावन में रह कर श्री कृष्ण की उपासना करने लगे।
भगवान् उनकी आराधना से प्रसन्न हुए और उन्हें बालगोपाल की पूजा का प्रचार करने का आदेश दिया। अट्ठाईस वर्ष की अवस्था में उन्होंने विवाह किया। कहा जाता है कि उन्होंने भगवान् कृष्ण की प्रेरणा से ही ‘ब्रह्मसूत्र’ के ऊपर ‘अणुभाष्य’ की रचना की। इस भाष्य में आपने शाङ्कर मत का खण्डन तथा अपने मत का प्रतिपादन किया है।
आचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना की। उन्होंने श्रीमद्भागवत् में वर्णित श्रीकृष्ण की लीलाओं में पूर्ण आस्था प्रकट की। उनकी प्रेरणा से स्थान-स्थान पर श्रीमद्भागवत् का पारायण होने लगा। अपने समकालीन श्री चैतन्य महाप्रभु से भी उनकी जगदीश्वर यात्रा के समय भेंट हुई थी। दोनों ने अपनी ऐतिहासिक महत्ता की एक दूसरे पर छाप लगा दी। उन्होनें ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत् तथा गीता को अपने पुष्टिमार्ग का प्रधान साहित्य घोषित किया। परमात्मा को साकार मानते हुए उन्होंने जीवात्मक तथा जड़ात्मक सृष्टि निर्धारित की। उनके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं।
संसार की अंहता और ममता का त्याग कर श्रीकृष्ण के चरणों में सर्व अर्पित कर भक्ति के द्वारा उनका अनुग्रह प्राप्त करना ही ब्रह्म संबंध है। श्री वल्लभ ने बताया कि गोलोकस्थ श्रीकृष्ण की सायुज्य प्राप्ति ही मुक्ति है। आचार्य वल्लभ ने साधिकार सुबोधिनी में यह मत व्यक्त किया है कि प्राणिमात्र को मोक्ष प्रदान करने के लिये ही भगवान् की अभिव्यक्ति होती है –
गृहं सर्वात्मना त्याज्यं तच्चेत्यक्तुं नशक्यते।
कृष्णाथर्ं तत्प्रयुञ्जीत कृष्णोऽनर्थस्य मोचक:।।
उनके चौरासी शिष्यों में प्रमुख सूर, कुम्भन, कृष्णदास और परमानन्द श्रीनाथ जी की सेवा और कीर्त्तन करने लगे। चारों महाकवि उनकी भक्ति कल्पलता के अमर फल थे।
उनका समग्र जीवन चमत्कार पूर्ण घटनाओं से ओतप्रोत था। गोकुल में भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये थे।
श्री वल्लभाचार्य महान् भक्त होने के साथ-साथ दर्शनशास्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, भागवत् की सुबोधिनी व्याख्या, सिद्धान्त-रहस्य, भागवत् लीला रहस्य, एकान्त-रहस्य, विष्णुपद, अन्त:करण प्रबोध, आचार्यकारिका, आनन्दाधिकरण, नवरत्न निरोध-लक्षण और उसकी निवृत्ति, संन्यास निर्णय आदि अनेक ग्रंथों की रचना की।
वल्लभाचार्य जी के परमधाम जाने की घटना प्रसिद्ध है। अपने जीवन के सारे कार्य समाप्त कर वे अडैल से प्रयाग होते हुए काशी आ गये थे। एक दिन वे हनुमान् घाट पर स्नान करने गये। वे जिस स्थान पर खड़े हो कर स्नान कर रहे थे वहाँ से एक उज्जवल ज्योति-शिखा उठी और अनेक लोगों के सामने श्री वल्लभाचार्य सदेह ऊपर उठने लगे। देखते-देखते वे आकाश में लीन हो गये। हनुमान घाट पर उनकी एक बैठक बनी हुई है। उनका महाप्रयाण वि.सं. १५८३ आषाढ़ शुक्ल ३ को हुआ। उनकी आयु उस समय ५२ वर्ष थी।
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मीरा : एक दिव्य दास्तां के कदमों की निशानी
Posted on April 27, 2015
Shri Krishan Jugnu
5 hrs · Edited ·
मीरा : एक दिव्य दास्तां के कदमों की निशानी
मीरां उस दौर के एक स्त्री-जीवन का नाम है जब पति के न रहते नारी को नितांत अरक्षित करार देने के प्रयास परवान पर थे, साम्राज्य व संपत्ति विस्तार की लिप्सा में शासक एक दूसरे के दुर्ग पर कब्जा कर जमीन से लेकर जाेरु तक को अपनी लूट की मिल्कियत मानने का दंभ पाले हुए रहते थे और दबाव में आए शासकों के सामने कुल की विधाओं और योद्धाओं की परिणिताओं की सुरक्षा की सुविचारित नीति का अभाव था। ऐसे दौर में सर्वेश्वर की शरणागति ही ढाल भी थी और तलवार भी। जिसे भक्ति का नाम दिया जाता है, वह लोकाश्रय का सबसे बड़ा साधन भी है और स्त्री का अपना कारगर रक्षात्मक उपाय भी। मीरांबाई का जीवन एेसे ही हालात के येन-केन- प्रकारेण निर्वाह का स्वत:सिद्ध प्रतिबिंब है। इस जीवन की झांकी काे सर्वाधिक धो-पोंछकर निखारने और सहानुभूति, जो संस्कृत स्वरूप में श्रद्धा है, की पीठिका पर स्थापित करने का सर्वांगतया श्रेय लोक काे है। लोक की यों तो कोई भौगाेलिक सीमा या ओर-छोर नहीं मगर मीरां के यात्रा और प्रभाव क्षेत्र के रूप में मेवाड़ से कहीं अधिक गुजरात और दूसरे स्थान पर ब्रज ने उस स्त्री जीवन को यशस्वी बनाने का सर्वसंभव किया जिसको इतिहास का कोई भी साधन कदाचित ही बना पाता। लोक की यह सबसे बड़ी ताकत है कि जिसे वह नयनपुतली पर बिठाता है, उसे अदृश्य नहीं होने देता। मीरां का जीवन ऐसे ही लोक का आलोक बना और बना हुआ है।
मारवाड़ ने मीरां को बेटी के रूप में देखा और मेवाड़ ने बहू की तरह। स्त्री जीवन के ये दो ही पलड़े हैं। बेटी होकर बड़ी होना और बहू होकर सीमा (मर्यादाओं) में सांस लेना, विदाई दोनों में ही होती है। दुल्हन के रूप में और दिवंगता होकर। मेड़ता उसे रख नहीं सकता था और मेवाड़ उसे रख नहीं पाया। वह ब्रज पहुंची तो बैरागन के वेश में थी जो भले ही सांवरिया को रिझाने का दैहिक चाेला भर था मगर वहां के पुरुष वर्चस्व ने स्त्री भावोचित विचारों को अवसर देना उचित नहीं समझा, फिर संप्रदाय-धर्मिता के आग्रहों के तिरस्कार ने तो नारी के पांव ही उखाड़ दिए। ऐसे में व्यापार में संलग्नता सहित संप्रदाय पाश से लगभग मुक्त गुजरात की ओर रुख ही अन्यतम उपाय था। मीरां ने गुजरात की राह ली और खासकर सौराष्ट्र ने छली में बली की हैसियत वाली मीरां को अंगीकार भी किया और आदर भी दिया।
गुजरात के लिए मीरा अतिथि थी। स्वगोत्रीय राजे-सामंतों और उनकी स्त्रियों ने तंबूरे के दम पर गिरधर गुणगायिका को जिस भी नजर से देखा हो, परंतु लोक के लिए वह ‘सत्’ की चित्कारभरी लपटों से बचकर निकली थी, जिसे ‘सांप पिटारा’ और ‘जहर प्याला’ के रूप में जाना गया, वह प्रहलाद जैसे कौतुक से कहीं अधिक थी। गुजरात वासियों ने सीता सुलक्षणी (संत पीपाजी की स्त्री) के बाद कुल-लाज छोड़े मीरां को श्रीकृष्ण से संबद्ध स्थलों पर विहार करते देखा तो लगाव जागा। उस पाहुनी के इतने प्रशंसक हो गए कि उसे बार-बार न्यौता जाने लगा : म्हारै घरां आवौ नी प्रीतम प्यारा। उसका आतिथ्य जहां कहीं, जब कभी एकरस या निरस हुआ, वह यात्रा पर निकली। महाराणा कुंभा और रायमल के बाद सांगा के चर्चे तो वहां पहले ही थे, उसी कुल की रानी तंबूरा बजाते, नाचते-गाते दीखे तो कौन नहीं देखना चाहेगा। यह निनादमयता ही मीरां के लिए वरदान बनी। स्मृतियों में पिता, भ्राता, पति और पुत्र के हाथों रक्षित कही जाने वाली नारी लोक के पास सुरक्षित हो निर्भय हो गई। गुजरात ने मीरां को अपनाया ही नहीं, बचाया और छुपाया भी। उसे इतना मान और मोह दिया कि कोशिशों में भी मेवाड़ याद नहीं आया। उसके हर प्रसंग को कौतुक सा कीर्तिमय किया, उसके निर्देश पर निर्मितियाें का निरूपण किया। यही नहीं, उसके ‘इह’ को अपने में ऐसा अलोपा कि ‘पर’ होकर भी उसे पराई नहीं होने दिया। उसके आराध्य को भी उसकी चुनर के रंग में चित्रित, वस्त्र मंडित करने की परंपरा का प्रवर्तन किया।
” पचरंग चाेला पहर सखी री ” मीरां के जीवन और तत्कालीन समाज पर केंद्रित कृति है। ये ही विषय आरंभान्त अपने में विभिन्न साक्ष्यों, सन्दर्भों को समेटे हुए हैं। कृतिकार डॉ. माधव हाड़ा ने पूर्व-तत्-पर साक्ष्यों को स्थल-स्थल पर उद्धृत करते हुए मीरां के जीवन का रेखाचित्र खींचने का श्लाघ्नीय प्रयास किया है। इस चरित्र पर अब तक आई कृतियों की अपेक्षा इसमें सर्वाधिक पंक्तियां उद्धरण के रूप में हैं जिनका विश्लेषण भी उद्धरणों से ही पुष्ट-प्रबल हुआ है। यह मुग्धता से ज्यादा एक भक्तिमती के ज्यों के त्यों चरित्र पर समकालीन विवेचन का स्वरूप है। सुन्दर सज्जा और साफ सुथरे 166 मु्द्रित, चित्रित पृष्ठों वाली, भूमिका रहित होकर भी यह कृति बधाई बटोरती है। – डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’
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