🌹श्रेष्ठतम कर्म है कर्तव्य🌹
🌹सृष्टि का परम तत्व है- कर्म।। इसीलिए जीवन में कर्म अनिवार्य है।। कोई चाहकर भी इस भागवत विधान से बच नहीं सकता।। जिस प्रकार कर्म का त्याग संभव नहीं उसी प्रकार कर्मफल से आजतक कोई भी नहीं बच पाया है--स्वयं भगवान को भी इस मर्यादा का पालन करना पड़ता है।। जब कर्म अनिवार्य है तो फिर इससे बचने व भागने की अपक्षाे इसे स्वीकार करना ज्यादा श्रेष्ठ होगा।।
🌹हर व्यक्ति एक निश्चित समयाविधि लेकर जन्म लेता है और उसे इसी समयाविधि में अपना कार्य पूरा करना होता है।। हर समय बहते पानी की तरह हमारे हाथ से निकलता जा रहा है।। अच्छा तो यही है कि हम अपने इस जीवन को कर्तव्य कर्म में लगाएँ।। कर्तव्य कर्म करने में एक लाभ यह है कि इसको करने से व्यक्ति को शांति और संतोष रुपी अनुदान तो मिलते ही हैं साथ ही कर्म फल के बंधन से मुक्त हो जाने पर परमपद की प्राप्ति भी होती है।।
🌹कर्तव्य के संबंध में सर्वत्र साधारण धारणा यही देखा जाती है कि सत्पुरूष अपने विवेक के अनुसार कर्म किया करते हैं।। परंतु वह क्या है जिससे एक कर्म "कर्तव्य" बन जाता है?? साधारणतया यदि एक मनुष्य सड़क पर जाकर किसी दूसरे मनुष्य को गोली मार दे तो निश्चित ही उसे यह सोचकर दुख होगा कि कर्तव्य भ्रष्ट हो उसने अनुचित कार्य किया।। परंतु यदि वही मनुष्य एक फौजी सिपाही की से एक नहीं बीसों शत्रुओं को मार डाले तो वह कर्तव्य के रूप में गिना जाएगा।।
🌹अतएव केवल बाह्य कार्यों के आधार पर कर्तव्य की ब्याख्या करना असंभव है किंतु आंतरिक दृष्टि्कोण से कर्तव्य की ब्याख्या हो सकती है।। यदि किसी कर्म द्वारा हम भगवान की ओर बढ़ते हैं तो वह सत्कर्म है परंतु जिस कर्म द्वारा हम पतित होते हैं वह हमारा कर्तव्य नहीं हो सकता।। विभिन्न युगों में,, विभिन्न संप्रदायों और विभिन्न सभ्यताओं द्वारा मान्य यदि कर्तव्य का कोई एक सार्वभौमिक भाव रहा है तो वह है--परोपकार ही पुण्य है,, और दूसरों को दुख पहुँचाना ही पाप है।।
🌹इस प्रकार स्पष्ट है कि देश-काल-पात्र के अनुसार हमारे कर्तव्य कितने बदल जाते हैं और सबसे श्रेष्ठ कर्म तो यह है कि जिस विशिष्ट समय पर हमारा जो कर्तव्य हो उसी को हम भली भाँति निभाएँ।। पहले तो हमें जन्म से प्राप्त कर्म को करना चाहिए,, उसे करने के बाद सामाजिक जीवन में हमारे पद के अनुसार जो कर्तव्य हों उसे संपन्न करना चाहिए।। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में किसी न किसी अवस्था में अवस्थित है उसके लिए पहले उसी कर्म को करना आवश्यक है।।
🌹जब कर्म उपासना में परिणित हो जाता है उस समय कर्म का अनुष्ठान केवल कर्म के लिए ही होता है।। कर्तव्य का पालन दुष्कर भी हो सकता है पर यदि कर्तव्य करने में निहित भावनाएँ शुभ एवं सात्विक हों तो मनुष्य के लिए कर्तव्य की पूर्ति करना सहजता से संभव है।। यदि ऐसा न हो तो माता पिता के प्रति अपना कर्तव्य कैसे निभा सकते हैं?? कर्तव्य पालन की मधुरता इन्हीं सात्विक भावनाओं में है।।
🌹हमारी उन्नति का एकमात्र उपाय यह है कि हम पहले कर्तव्य करें जो काल द्वारा हमारे सामने प्रस्तुत है और इस प्रकार धीरे धीरे शक्ति संचय करते हुए हम सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।। किसी भी कर्म को घृणा से नहीं देखना चाहिए।। केवल मनुष्य के कर्म का रूप देखकर उसकी ऊँच नीच का विचार करने की अपेच्छा यह देखना होगा कि वह उसका पालन किस तरह करता है।। कार्य करने की उसकी शक्ति,, ढ़ंग और भाव से उसकी जाँच की जानी चाहिए ।।
🌹कर्मफल में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति अपने भाग्य में आए हुए कर्तव्य से उद्विग्न होता है।। अनासक्त पुरुष के लिए सब कर्तव्य एक समान हैं।। उसके लिए तो वे कर्तव्य आत्मा को मुक्त कर देने के लिए शक्तिशाली साधन हैं।। इसलिए जब हम कोई कार्य करें तब हमें अन्य किसी बात का विचार न करते हुए उसे एक उपासना के रूप में करना चाहिए।। जीवन की किसी भी अवस्था में कर्मफल में बिना आसक्ति रखे यदि कर्तव्य उचित रूप से किया जाए तो उससे हमें परम पद की प्राप्ति होती है।। परमात्मा द्वारा प्रदत्त कर्तव्य का अनासक्ति एवं पूर्ण श्रद्धा से निर्वहन ही श्रेष्ठतम कर्म है।।
🌹अखन्ड ज्योति🌹फरवरी २०१४🌹पेज-३६-३७ 🌹टाइप--कंचन कुमार गुप्ता🌹खर्गसेनपुर🌹थानागद्दी🌹 जौनपुर🌹उत्तर प्रदेश🌹 litrature.awgp.org🕉
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