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Please send us on thearyasamaj@gmail.com Login|Register Articles Report ‘श्रेय मार्ग में प्रवृत्ति व प्रेय मार्ग में निवृत्ति ही मनुष्य का कर्तव्य’ Author Manmohan Kumar Arya Date 16-May-2017 Category लेख Language Hindi Total Views 75 Total Comments 0 Uploader Rajeev Upload Date 16-May-2017 Download PDF 0.11 MB Tags Top Articles in this Category बौदध-जैनमत, सवामी शंकराचारय और महरषि दयाननद के कारय ईशवर यदि आरय समाज सथापित न होता तो कया होता ? वैजञानिक दृषटि से भी यजञ को समना होगा फलित जयोतिष पाखंड मातर हैं Top Articles by this Author बौदध-जैनमत, सवामी शंकराचारय और महरषि दयाननद के कारय ईशवर यदि आरय समाज सथापित न होता तो कया होता ? ईशवर व ऋषियों के परतिनिधि व योगयतम उततराधिकारी महरषि दयाननद सरसवती अजञान मिशरित धारमिक मानयता मनुष्य कौन है और मनुष्य किसे कहते हैं? इन प्रश्नों पर मनुष्यों का ध्यान प्रायः नहीं जाता और जीवन पूर्ण होकर मृत्यु तक हो जाती है। बहुत कम संख्या में लोग इस प्रश्न पर यदा कदा कुछ ध्यान देते हैं। विवेकशील मनुष्य इस प्रश्न की उपेक्षा नहीं करते। वह जानते हैं कि प्रश्न है तो उसका समुचित उत्तर भी अवश्य होगा। वह विचार करते हैं, विद्वानों से शंका समाधान करते हैं तथा संबंधित विषय की पुस्तकों को प्राप्त कर उसका अध्ययन कर उसका समाधान पा ही जाते हैं। मनुष्य शब्द में मनु शब्द का महत्व है जो संकेत कर रहा है कि मनन करने का गुण व प्रवृत्ति होने के कारण ही मनुष्य को मनुष्य कहा जाता है। मनन का अर्थ है कि विवेच्य विषय का ध्यान पूर्वक चिन्तन व सत्य का निर्धारण करना व उस सत्य का पालन करना। अनेक विद्वानों ने इस प्रश्न का मनन किया होगा परन्तु मनुष्य कौन है व इसकी सारगर्भित परिभाषा क्या हो सकती है?, वह ऋषि दयानन्द द्वारा स्वमन्तव्यामन्तव्यों में प्रस्तुत परिभाषा ही युक्तियुक्त प्रतीत होती है। वह लिखते हैं कि ‘मनुष्य उसी को कहना (अर्थात् मनुष्य वही है) कि (जो) मननशील हो कर स्वात्मवत् (अपने) व अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामथ्र्य से धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हो, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को (मनुष्य को) कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी न होवे।’ मनुष्य की इस परिभाषा में ऋषि दयानन्द द्वारा समस्त वैदिक ज्ञान का मंथन कर इसे प्रस्तुत किया गया है, ऐसा हमें प्रतीत होता है। महर्षि दयानन्द व हमारे प्राचीन राम, कृष्ण जी आदि सभी ऋषि मुनि व विद्वान ऐसे ही मनुष्य थे। इसी कारण उनका यश आज तक संसार में विद्यमान है। इसके विपरीत जो मनुष्य जीवन व्यतीत कर रहे लोग इसमें न्यूनाधिक आचरण करते हैं वह इस परिभाषा की सीमा तक ही मनुष्य कहे जाते हैं, पूर्ण मनुष्य नहीं। इस परिभाषा में मनुष्य कौन व किसे कहते हैं, प्रश्न का उत्तर आ गया है। बहुत कम लोगों की प्रवृत्ति श्रेय मार्ग में होती है जबकि प्रेय व सांसारिक मार्ग, धन व सम्पत्ति प्रधान जीवन में सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति होती है। जहां प्रवृत्ति होनी चाहिये वहां नहीं है ओर जहा नहीं होनी चाहिये, वहां प्रवृत्ति होती है। यही मनुष्य जीवन में दुःख का प्रमुख कारण है। श्रेय मार्ग ईश्वर की प्राप्ति सहित जीवात्मा को शुद्ध व पवित्र बनाने व उसे सदैव वैसा ही रखने को कहते हैं। जीवात्मा शुद्ध और पवित्र कैसे बनता है और ईश्वर को कैसे प्राप्त किया जाता है इसके लिए सरल भाषा में पढ़ना हो तो सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर जाना जा सकता है। योग दर्शन को या इसके विद्वानों द्वारा किये गये सरल सुबोध भाष्यों को भी पढ़कर जीवात्मा की उन्नति के साधनों को जाना व समझा जा सकता है। संस्कृत विद्या पढ़कर व वेदाध्ययन कर भी यह कार्य किया जाता था। अब भी ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी विद्वानों द्वारा किये गये वेदभाष्यों को पढ़कर व उसका मनन कर श्रेय मार्ग को जानकर व उस पर चलकर हम सभी मनुष्यजन जीवन को उन्नत व उसके उद्देश्य ‘धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष’ को प्राप्त कर सकते हंै। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो बार बार मनुष्य, पशु, पक्षी आदि नाना योनियों में जन्म लेकर सुख व दुःख भोगते हुए भटकना पड़ेगा। हमारा यह जन्म भी श्रेय मार्ग पर चलकर जन्म व मरण से अवकाश प्राप्ति का एक अवसर है। हमें श्रेय मार्ग पर चलना था परन्तु हमें इसका ज्ञान ही नहीं मिला तो फिर उस पर चलने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः इस महत्वपूर्ण विषय की उपेक्षा न कर इस पर ध्यान देना आवश्यक है। स्वयं ही प्रयत्न कर उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के साधनों को जानना है। ऋषि दयानन्द का जीवन यदि पढ़ लेते है तो श्रेय मार्ग का वास्तविक रहस्य ज्ञात हो जाता है। संक्षेप में श्रेय मार्ग ईश्वर व जीवात्मा को जानकर ध्यान व योग में मन लगाना, ईश्वरोपासनामय जीवन व्यतीत करना, ईश्वर व वेद का प्रचार करना, समाज से अविद्या व अन्धविश्वास को हटाने में प्रयत्न करना, जीवन लोभरहित, अपरिग्रही, धैर्ययुक्त, सन्तोष एवं दूसरों के दुःखों को दूर करने के लिए कार्यरत रहने वाला हो। प्रेय मार्ग किसे कहते हैं? प्रेय मार्ग का जीवन ईश्वर व जीवात्मा के ज्ञान व वेदों के अध्ययन वा स्वाध्याय मे न्यूनता वाला तथा सांसारिक विषयों में अधिक जुड़ा हुआ होता है। इसमें मनुष्य भौतिक विद्यायों में अधिक रूचि रखता है व उसमें परिग्रह, संग्रह की प्रवृत्ति, भौतिक सुखों के प्रति आकर्षण व उसमें रमण करने की भावना होती है। जीवन महत्वाकांक्षाओं से भरा होता है जिसमें ईश्वर प्राप्ति व आत्मा को जानकर उसे सभी प्रलोभनों से मुक्त करने का भाव न्यून होता है। आज कल प्रायः सभी लोग इसी प्रकार का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। भौतिक सामग्री धन, भूमि, भौतिक साधन व स्त्री सुख ही उसमें ध्येय बन जाते हैं। यह पतन का मार्ग है। इनकी साधनों व सुखों की प्राप्ति व उनके भोग द्वारा मनुष्य कर्म-फल के बन्धनों में फंसता व जकड़ा चला जाता है। यह जन्म सुख व दुःख से युक्त व्यतीत होता है तथा परजन्म में इस जन्म के कार्यों के अनुरूप जीवन मिलता है जहां सभी अवशिष्ट कर्मों का भोग करना होता है। यहां हम सुख की भी कुछ चर्चा करना चाहते हैं। भौतिक पदार्थ जैसे धन, सुख की सामग्री भोजन, स्पर्शसुख, नेत्र से सुन्दर चित्रों का अवलोकन, कर्णों से मधुर संगीत व गीतों का श्रवण, कार, बंगला, बैंक बैलेंस व सुख की इतर सभी सामग्री का भोग भौतिक सुखों व प्रेय मार्ग के पथिकों वा मनुष्यों का विषय व लक्ष्य होता है। इनसे क्षणिक सुख ही मिलता है। भोग करने के कुछ ही समय बाद उसका प्रभाव कम हो जाता है और मनुष्य पुनः उनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करता है। सुख भोगने से शरीर की शक्ति का अपव्यय भी होता है जिससे शरीर अल्प समय में रोगी व कमजोर हो जाता है और दीर्घायु के स्थान पर अल्पायु का ग्रास बन जाता है। यह प्रेय मार्ग व जीवन प्रशंसनीय नहीं होता। इससे तो मनुष्य में अहंकार की उत्पत्ति होती है। वह दूसरे अल्प साधनों वालों की तुलना में स्वयं अहंमन्य व उत्कृष्ट मानता है परन्तु उसे यह भ्रम रहता है कि यह कम ज्ञान व साधन वाले मनुष्य ही तो उसके सुख की प्राप्ति के साधन व दाता हैं। इस प्रकार प्रेय मार्ग एक प्रकार से कुछ कुछ पशुओं के प्रायः व कुछ कुछ समान है जिसका उद्देश्य कोई बड़ा व महान न होकर केवल अपने व अपने परिवार के सुख तक व अपने इन्द्रिय सुखों तक ही सीमित रहता है और इसे करते हुए वह कर्म फल बन्धन में फंसता चला जाता है। ऐसे लोगों के जीवन में वास्तविक ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार, सद्विद्या के प्रचार में सहयोग, पीड़ितों के प्रति दया व करूणा के भाव नहीं होते। पर्याप्त धन व साधन बैंकों व अन्यत्र पड़े रहते हैं और पीड़ित तरसते रहते हैं। क्या ईश्वर ऐसे लोगों को स्थाई सुख दे सकता है? कदापि नहीं। श्रेय मार्ग में मनुष्यों के भाव अच्छे भाव होते हैं जिनका परिणाम ही जन्म व जन्मान्तर में सुख व उसमें उत्तरोतर वृद्धि के रूप में मिलता है। हमें श्रेय व प्रेय मार्ग वाले जीवनों में से से किसी एक का चयन करना है। दोनों का सन्तुलन ही सामान्य मनुष्य के लिए उत्तम है। जिनमें इस संसार को जानकर वैराग्य उत्पन्न हो जाता है वह प्रेय मार्ग को अपनी उन्नति में बाधक मान कर अधिकाधिक श्रेय मार्ग का ही अनुसरण करते हैं अर्थात् ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर ईश्वरोपासना, यज्ञ, वेदधर्म प्रचार, परोपकार, वेद विद्या के प्रसार, दुखियों व पीड़ितों की सेवा व उनसे सहयोग, देश व समाज सेवा में ही अपना जीवन खपा देते हैं। ऋषि दयानन्द, उनके अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम जी, महात्मा हंसराज जी, स्वामी सत्यपति जी और सदगृहस्थियों में पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार, ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक आदि अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं। सभी श्रेय और प्रेय मार्ग के पथिकों को महर्षि दयानन्द जी का जीवन चरित और उनका युगान्तरकारी ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। इससे कर्तव्य निर्धारण में सहायता मिलेगी। स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्याथी और पं. लेखराम जी आदि सभी महान आत्माओं ने ऐसा ही किया था। आज भी यह सभी याद किये जाते हैं। लेख की समाप्ती से पूर्व हम यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य सबसे अधिक परमात्मा का ऋणी है। यह ऋण वेदाध्ययन से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर व उसकी वैदिक विधि से ही उपासना कर चुकाया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम मनुष्य कहलाने लायक नहीं होंगे। अतः ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के ज्ञान के लिए वेदों का अध्ययन कर व अपने मुख्य कर्तव्य ईश्वरोपासना, जनसेवा व परोपकार के लिए हमें अपने श्रेय कर्तव्यों का अवश्य ही पालन करना चाहिये। इसी में हमारी, देश व समाज की भलाई है। यह भी लिख देते हैं कि सद्ज्ञान व धन इन दोंनों में अधिक सुख सद्ज्ञानी को ही होता है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य ALL COMMENTS (0) View all comments Powered by Disclaimer | Privacy Poicy | Terms & Condiitons
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